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कन्नड़ के जैन साहित्यकार
रत्नाकर ही हैं। जनता की वाणी और संगीत ने उनकी 'चन्डम' ने कारकल की गोम्मट महामूर्ति का इतिहास कृति में अपनी सिद्धि प्रदान की है।"
और अभिषेक का वर्णन 'कारकल गोमटेश्वरचरिते' में __सोलहवीं सदी के मध्य में "दोडव्य" ने 'चद्रप्रभ- प्रस्तुत किया। चरितम्' की रचना की जिसका आधार आचार्य गुणभद्र सन् १६५० ई० के लगभग हुए 'गुणचन्द' ने छंदों के का उत्तर पुगण है । रचना साधारण मानी जाती है और
सम्बन्ध में 'इन्वस्सार' नामक ग्रंथ लिखा। उन्होंने इसमें कवि का समय भी अनुमानित है।
संस्कृत छदों के अतिरिक्त अन्तिम अध्याय में कन्नड़ के बाहुबलि का काल १५६० ई० माना जाता है। ये छद और उदाहरण भी दिए है। अपनी रचना 'नागकुमारचरिते' के लिए प्रसिद्धि है जो लगभग १६५० ई० में ही "धरणि पडित" ने दो कि ३७०० पद्यो में है। उन्होंने यह कृति राजा भैरवेन्द्र राजाओं सबधी रचनाएं प्रस्तुत की। ये हैं-१. वरांगतथा भट्टारक ललितकीति की प्रेरणा से लिखी थी। नृपचरिते। यह कथा सस्कृत में प्रसिद्ध है किन्तु धरणि
श्री भजलि शास्त्री ने १६वीं सदी के अन्य जैन पडित ने इसे कन्नड के भामिनि षटपदि छद में विस्तारलेखकों का परिचय संक्षेप में दिया है। बह यहाँ उद्धत पूर्वक लिखा।
पूर्वक लिखा। २. 'बिज्जल रायचरिते' मे कवि ने कल्याणी किया है--"१६वीं शताब्दी के अन्य जैन काव्य लेखकों
के जैन गजा बिज्जल के मत्री और सेनापति बसवण्ण में 'विजयकुमारिक थे' के रचयिता श्रुतकीति,, चन्द्रप्रभ
सम्बन्धी इतिहास लिखकर यह दर्शाया है कि बसवण्ण ने षट्पदि के रचयिता दोड्डुणांक, शृंगारप्रधान, 'सुकुमार।
पीछा करती सेना से छुटकारा पाने के लिए कुए मे कूद चरिते' के रचयिता परस और 'बजकुमारचरिते' के कर आत्मा
कर आत्महत्या कर ली थी। (बसवण्ण ने ही वीरशवमत रचयिता ब्रह्म कवि प्रमुख हैं। ई. सन १६०० में देवी- चलाया था)। त्तम ने 'नानाथरत्नाकर' नाम से और शृगार कवि ने उपर्युक्त समय अर्थात् १६५० ई० के लगभग ही 'कर्णाटक-संजीवन' नाम से दो निघओं को भी रचना 'नूतन नागचन्द्र' ने 'जिनमुनितनय' की रचना की। इस की है। कवि शांतरस ने योगशास्त्रविषक 'योगरत्नाकर' छोटी-सी रचना का प्रत्येक पद्य 'जिनमुनितनय' शब्द से नामक एक सुन्दर योगशास्त्र भी लिखा है।"
समाप्त होता है । इसीलिए इसका यह नाम पड़ा। इसमें भट्टाकलंक का समय १६०४ ई० माना जाता है। ये नीति और धर्म की चर्चा है। संस्कृत और कन्नड़ के निष्णात पडित थे। दोनो ही चिदानन्द ने १६०० ई० मे 'मुनिवशाभ्युदय' की भाषाओं पर इनका पूर्ण अधिकार था। ये अपनी 'कर्णा- रचना सांगत्य छंद मे की। इसमे मुनियों तथा गुरुओं की टकशब्दानुशासन' के लिए प्रसिद्ध है। इन्होंने केवल ५६२ परम्परा वर्णित है । इसमें श्रुतकेवली भद्रवाह और मौर्य सूत्रों मे ही सारा व्याकरण लिख डाला है। विशेषता यह
__ सम्राट चंद्रगुप्त की दक्षिण-यात्रा का काव्यमय वर्णन है। है कि इन्होंने कन्नड़ भाषा का व्याकरण संस्कृत में लिखा
श्री ई० पी० राईस ने कन्नड़ साहित्य के अपने है। अपने व्याकरण पर इन्होंने 'भाषा मंजरी' नामक
इतिहास में लिखा है कि लगभग १७०० ई. में 'चन्द्रवत्ति और 'मंजरीमकरट' नामक व्याख्या संस्कृत में प्रस्तुत
शेखर' ने 'रामचन्द्रचरिते' का लेखन प्रारम्भ किया जिसे की है।
'पद्मनाभ' ने १७५० ई० में पूर्ण किया। सत्रहवी सदी में कन्नड़ जैन साहित्य में एक नवीन मैसूर नरेश सुम्मडि कृष्णराज के समकालीन 'देवप्रवृत्ति जगी। श्रवणवेलागोल की महामूति गोमटेश्वर चद्र' भी कन्नड़ साहित्य मे सम्माननीय हैं । उन्होने के १६१२ ई० मे हुए महामस्तकाभिषेक का काव्यमय- १८३० ई० मे मंसूर राजघराने की एक महिला के लिए वर्णन "पचवाण" ने १६१४ ई० मे "मजबलीचरिते" के 'राजावली कथे' की रचना की। इसमें उन्होने जैन दर्शन रूप में प्रस्तुत किया।
और परपरा के विवेचन के साथ कुछ कवियो की जीवनी उपर्युक्त से सम्भवतः प्रेरणा पाकर १६४६ ई० में
(शेष पृ० १४ पर)