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अज्ञात जैन कवि हरिसिंह का काव्य
-डा. गंगाराम गर्ग, भरतपुर दीवान जी मन्दिर भरतपुर के एक गुटके मे अचचित हरिसिंह की दूसरी रचना 'सम्यक्त पच्चीसी' सावन जैन कवि हरिसिंह की रचनाएं मिली हैं । कवि की एक सुदि ११ सवत् १७८३ को 'कवित्त', 'कुण्डलिया', 'दोहा' रचना 'ब्रह्म पच्चीसी' की प्रशस्ति के आधार पर इनका और 'चाल' छद मे लिखी गई । इस ग्रन्थ में उपदेशात्मक साधना स्थल देवगिरी (दौसा जिला जयपूर) तथा रचना शैली को प्रधानता हैकाल संवत् ७८३ के आस-पास का कवि के वशन मोह पिसाची ने छल्यो, आतमराम प्रयान । दौसा निवामी श्री मगनलाल छावडा ने महावीर जयन्ती सम्यक् दरसन जब भयो, तब प्रगट्यो सुभग्यान ॥१४ स्मारिका-६५ में प्रकाशित अपने एक लेख में हरिसिंह असुचि अपावनि देहमनि, ताके सुष हूं लीन । को जयपुर नरेश सवाई जयसिंह का सुयोग्य दीवान कहा भूलि चेतनकरी, रतनय निधि दीन ॥१५ बतलाया है। 'बोध पच्चीमी' की प्रशस्ति के अनुसार हरिसिंह की तीसरी रचना 'बोध पच्चीसी में दर्शन आमेर के राजा जयसिंह के सुयोग्य कर्मचारी 'नन सुख' का प्रभाव और धर्म की महिमा की चर्चा की गई हैसे कवि को आत्मीयता अवश्य प्रमाणित है, किन्तु निर्धारित धरम रमन सीला पुरुष, ताके करम विलाय । रूप में यह नहीं कहा जा सकता कि हरिसिंह सवाई जयसिंह जैसे उदय सूर के, तिमिर पटल मिटि जाय । के दीवान थे अथवा सामान्य कर्मचारी । दोसा कस्बे में छवि देखि भगवान की, मन मैं भयो करार। स्थित 'श्री पार्श्वनाथ जिनालय' में विद्यमान संगमरमर सुर नर फरणपति को विभो, दास सर्व अपार । के खम्भे पर अंकित लेख के अनुमार हरिसिंह के पांच 'सबी' देखि भगवान को, जो हिय मैं मानन्द । छोटे भाई थे-शकर, श्रीचंद, किशोर, नंदलाल, मनरूप भयो कहा महिमा कहूँ, तीन लोक सुख कन्द । और गोपाल ।
हरिसिंह के फुटकर गीत नेमिनाथ की बारात व हरिसिंह की तीन लघु रचनाए एवं विविध रागनियों वैराग्य तथा ऋषभदेव के जन्मोत्सव से सम्बन्धित हैं। में लिखिन ५. फुटकर पद तथा कुछ गीत प्राप्त हैं। हरिसिंह के प्राप्त ५० पद लगभग सारग, विलावल, हरिसिंह की एक रचना ब्रह्म पच्चीसी' आषाढ़ कृष्णा
मलार आदि २२ रागो में लिखे हुए है। प्राप्त पदो मे ११ सवत् १७८३ को दोहा और छप्पय छंदों में लिखी
अन्य तीर्थकरों की अयेक्षा ऋषभनाथ एवं नेमिनाथ जी की गई। प्रचारम्भ मे ऋषभदेव और शारदा की वन्दना है।
भक्ति विद्यमान हैं । भक्ति के अतिरिक्त इन पदो मे प्रकृति
चित्रण ओर नीति तत्व का पूर्ण अभाव है। रसना से ऋषभनाथ के वैभव के प्रति कवि श्रद्धावनत है : छत्र फिर चमर जुगल दिसि जाक, ढर छही पंड आंन,
निरन्तर 'जिनवर' की रटन तथा हृदय में प्रभु-भूति के जाकी प्राग्या सब मानिबी।
जिनवर, जिनवर, रसना हिय लागी रहत, अंतेवर छिन सहस्त्रतणां भोग रहै,
तुहिं छांडि मेरे और न ध्यान । अष्ट सिद्धि नव निधि चहें सोई प्रानियो। निस वासुर चित्त चरण रहत है, चरन रहतमो जियम। इन प्रादि विभो विराग होय कीनों त्याग,
सरण तिहारी पाय निहारी, मूरति रमि रही हिय मैं । एकाकी रहत मुनिवर पद टानिबौ। ऐसे हृदै बिराजो मो तन, राम रहै ज्यों सिय में। तात भवि सिव सुषदाई, ब्रह्म रूप लषौ प्रान, करुणासागर गुण रतनागर, दूरि करौ अधिकिय में।
भव दुषकारा छाडो सब जांनिबो। 'हरी' परम सुख तुम ही यात पोरन सेऊ बिच मैं ।