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________________ प्रज्ञात जैन कवि हरिसिंह का काव्य 'नाम स्मरण' सगुण और निर्गुण दोनों ही सम्प्रदाय किन्तु भावात्मक रहस्यवाद सभी जैन भक्त कवियों में के भक्तकवियो का उपासना-तत्व रहा है। जिनभक्त विद्यमान है। जीवात्मा का मूल सम्बन्ध सुमति से है, हरिसिंह श्रमणभक्ति परम्परा के अनुसार प्रभु-दर्शन के किन्तु वह 'कुमति' की बनावटी रूपसज्जा और हावभावों लिए तो लालायित हैं ही; अन्जना और श्रीपाल आदिः को देखकर उसके आकर्षण में फंस जाता है। इस परभक्तों के सम्बल प्रभुनाम का भी जाप करते हैं कीया प्रेम में उसे कोई सुख नही मिल पाता । जीवात्मा प्रभु मेरे बेगि दरसन देह। के परकीया-प्रेम से क्षुब्ध 'सुमत' अपने प्रिय को सन्मार्ग भये आतुरवंत भविकजन, ये प्ररज सुनि लेहु । पर लाने का प्रयत्न करती है। जंन भक्त कवियों ने इह संसार अनंत आतप, हरन को प्रभु मेह। जीवात्मा और सुमति मे 'पति' और 'पत्नी' के रूपकत्व प्रभु दरस तं परखि प्रातम, गये सिबपुर गेह । के नियोजन से मधुर और मर्यादित श्रृंगार की स्रोतनमि तुम जन अंजना से, किये सिव तिय नेह । स्विनी प्रवाहित कर अपने काव्य को बढ़ा सरस बना पातितदषि धीपाल उपरे, नाम के पर चेह। दिया हैइह प्रतीति विचारि मन धरि, कियो निश्चय येह । नैक करी न सम्हार हो प्रभु मेरे। सकल मंगल करन प्रभु जी, 'हरी जपत करेह। कुविजा कुमति लीये तुम ठगि के, मोह ठगोरी डार। ___ 'मन', 'वचन' और 'तन' तीनों का आराध्य में पूर्ण निज घर छाडि बसे पर घर मैं, तहां नहिं सखहि लगार। समर्पण हरिसिंह की भक्ति साधना का लक्ष्य रहा है। बुख देखत कुबिजा सग डोल, ताको वारन पार । उनका कहना है तुम तो खबरि लई नहि मेरी, मेरे को तुम तार । अब हूँ कब प्रभु पद परसौ। एक बेर भो सनमुख होगे, पति त्रिभुवन निरधार । नंन निहारि करों परनामे, मन बच करि हित सौ। निज घर माय प्रख सख विलस, निज पतनी कैलास । भव भव के प्रघ लागे तिनके, भूर उखारी जर सौं। 'हरीसिंह' भए एक परस्पर, वह सुख वच अविचार। सरण राखउ श्री जिन स्वामी, और न मांगों तुमसों। सभी जन भक्त कवियों के काव्य में न्यूनाधिक मात्रा यहै बीनती वास 'हरी' की कृपा करों यह मुझसों। में प्राप्त राजल-विरह की उक्तियां बड़ी मर्मस्पर्शी बन ___ कविवर बनारसीदास के आविर्भाव के साथ दिग० पड़ी है । राजुल विरह से सम्बन्धित हरिसिंह के कई जैन भक्ति में 'अध्यात्म साधना' प्रमुखता पा गई थी। पदों में से एक पद दृष्टव्य हैधानत राय, देवीदास, बुधजन, पार्श्वदास आदि सभी बदन नेम नौ दिखावो, जाकी हूँ बलिहारी। कवियों ने वाह्याचार और वेषभूषा से रहित इस आत्म और न मोहि सुहावरी माई, नैना नेम निहारी। चिन्तन की परम्परा को भी अपने काव्य में स्थान दिया सरण जाय करौ पिय भावरि, प्रघ प्राताप निवारी। था। शुद्धाचार सहित अन्तर्मुखी होकर 'सोऽहम्' की अनु भांजी बहन परोसन मइया, जिमा करौं अब सारी। भूति की ओर उन्मुख होने का निर्देश हरीसिंह ने भी दिया भई उदास जगत सो महया, जिमा करौं अब सारी। रे जिय सोहम् सोहं ध्याय । साहि सर्व मिलि सासा दीनी, गिर पर जाय विपारी। जा ध्याय बसुविध परिमाण, तत छिन मांहि नसाय । केस लौच सोमा तजि तन की, लीयो पाख प्रहारी। सोहं सोहं अजपा जपियं, तजि विकलप दुखदाइ । 'हरीसिंह' निजकीयो काजा, दोऊ भव सुखकारी। गहि संतोष परम रस पूरित, सुख मैं निज लो लाय। मध्यकाल में भक्त रचनाएं प्रस्तुत करने वाले अभ्य सोहं सोहं सोहं सोहं मंत्र अनादि बनाय । जन कवियों के समान हरिसिंह भी अपने उचित स्थान के सदा रहो हिरदै निज मेरे, 'हरी' प्रतुल सुख धाम । अधिकारी हैं। जिनालयों में स्थित वेस्टनो मे छिपे हुए धानतराय अथवा अन्य किसी जैन भक्त कवि में हरिसिंह जैसे अनेक कवियो को प्रकाश देने में जैन समाज साधनात्मक रहस्यवाद के दो-चार पद भले ही मिल जाय, को प्राथमिकता देनी चाहिए ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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