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एक चिन्तन:
आ० अमृतचंद्र का २३वां कलश
श्री एम० एल० जैन, नई दिल्ली समयसार पर आत्मख्याति टीका के अतिरिक्त ताकि तुम तुरन्त ही शरीर के साथ एकत्व मोह को छोड़ अमृतचन्द्र ने समयसार पर अपने काव्य कलश भी सजाए सको।" हैं। उनमें भव्य जीवों के अध्यात्म अभिषेक के लिए काव्य
स्वय मरकर स्व-स्वरूप को पहचानने की यह कला का परमोदक भरा है।
कसी और कैसे सम्भव है ? क्या शरीर से एकबार जुदा इन कलशों पर वीर सेवा मदिर की देखरेख में हुए हो जाने के पश्चात् आत्मा कुछ देख ब अनुभव कर सकता दो प्रकाशन है
है और फिर वापस शव में प्रवेश कर अपने अनुभव का पहला, राजमल की ढूंढारी भाषा का महेन्द्रसेन जैनी
लाभ उठा सकता है। द्वारा किया हुआ अाधुनिक भाषा रूपांतर जिसमें बनारसी
शुभचन्द्र ने इस मुश्किल को पहचाना और परम दास द्वारा रचित पद्यानुवाद भी यथास्थान दिया गया
अध्यात्म तरंगिणी मे कहा कि यह मरण "मायादि प्रकाहै । बनारसीदास की रचना समयसार नाटक नाम से
रेण" हो सकता है किन्तु क्या नकली मौत से असली
मौत का पता चल सकता यह शका बनी रहती है। प्रचलित है जिस पर राजमल पाडे की बालवोधिनी टीका
जयचन्द्र ने समयसार की आत्मख्याति वचनिका में भी मिलती है जो दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
इसका अर्थ किया कि किसी भी प्रकार बड़ा कष्ट कर सोनगढ़ से छपी है।
तथा मर कर भी शुद्ध जीव स्वरूप को जानने का उपाय दूसरा शुभचन्द्र की संस्कृत टीका ‘परमाध्यात्म
कर । राजमल ने इसी अर्थ को अपनाया किन्तु "बड़ा तरंगिणी' जिसपर जयचंद को ढूंढारी भाषा की जो टीका
कष्ट कर तथा" छोड़ दिया। है उसके हिन्दी अनुवाद के साथ ।
जयचन्द ने ही आत्म ख्याति की उक्त टीका में इसी ये ही कलश समयसार की आत्म ख्याति टीका की कलश के भावार्थ में कहा कि यदि आत्मा दो घड़ी भी तुंढारी वनिका मे भी जयचंद ने यथास्थान उद्धत किये पुदगल से भिन्न अपने स्वरूप को अनुभवे, उसमें लीन हैं। यह ग्रन्थ मुसहोलाल जैन चेरिटेबल, ट्रस्ट नई दिल्ली होकर परीषह के कारण डिगे नहीं तो केवलज्ञान ने प्रकाशित किया है।
प्राप्त हो सकता है यह दृष्टव्य है कि इस भावार्थ मे इन कलशो में कलश स० २३ जीव अधिकार इस तथा तरंगिणी की भाषा टीका में जयचन्द ने स्वमरण प्रकार है
की बात टाल ही दी और कहा कि शरीर मुर्दा है। हम अयि कथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन्
दूसरों के मुर्दे तो रोज देखते हैं किन्तु अपने मुर्दे को मुर्दे के अनुभव, भवमूर्ते पार्श्ववर्ती मुहर्तम
रूप नहीं देखते। इससे समस्या हल होने के स्थान पर पृथगथ विलन्नं स्वं समालोका, येन
और भी कठिन हो गई। त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्व मोहम्
यदि "मत्वा" के स्थान पर कलश मे "मृत" ही होता उक्त कलश का सरल अर्थ है
तो यह मर्थ संभव था कि कोई किसी प्रकार मरे, मर जाने "अरे, तत्त्व कौतूहली होकर, किसी भी प्रकार से पर केवल शव मात्र ही रह जाता है। यह बात किसी मर कर मुहूर्त भर के लिए शरीर का पाश्र्ववर्ती हो तब भी मुर्दे के पास मुहुर्त भर ठहरने से पता स्वं को अलग विलास करने वाला देखकर अनुभव कर परन्तु अमतचन्द्र ने ऐसा नहीं किया । "कथमपि मत्वा"