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मा० प्रमुचनाका २३
"अनुभव" ऐसा क्यों कहा यह जैन विद्वानों के विचार का विषय है ।
व्याख्या
एक समुचित समाधान जो विज्ञान भैरव तंत्र की में तंत्रसूत्र भाग - २ पृष्ठ ६-६२ व १४६ पर दिया है उसके उद्धरण इस विषय में अवलोकनीय हैं"अगर तुम मृत्यु की सोच रहे हो - वह मृत्यु नही जो भविष्य में आयेगी-सी जमीन पर लेट जाओ, मृतवत् हो जाओ, शिथिल हो जाओ और भाव करो कि मैं मर रहा हूँ, कि मैं मर रहा हूं, मैं मर रहा हूं। यह सोचो ही नही, शरीर के एक-एक अग में, शरीर के एक-एक ततु मे इसे अनुभव करो मृत्यु को अपने भीतर सरकने दो । एक अत्यन्त सुन्दर ध्यान-विधि है । और जब तुम समझो कि शरीर मृत बोझ हो गया है और जब तुम अपना हाथ या सिर भी नहीं हिला सकते, जब लगे कि सब कुछ तय हो गया, तब एकाएक अपने शरीर को देखो तब मन वह नहीं होगा तब तुम देख सकते हो। तव सिर्फ तुम होगे, चेतना होगी ।
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मृनवत्
अपने शरीर को देखो। तुम्हें नहीं लगेगा कि यह तुम्हारा शरीर है बस एक शरीर है, कोई शरीर ऐसा
लगेगा। तुम और तुम्हारे शरीर के बीच का अन्तराल साफ हो जाएगा—स्फटिक की तरह साफ । कोई सेतु नहीं बचेगा। शरीर मृत पड़ा होगा, और तुम साक्षी की तरह खड़े होगे। तुम शरीर मे नही होगे, नहीं होगे ।
ध्यान रहे, मन के कारण ही अहं भाव उठता है कि मैं शरीर हूं। यह भाव कि मैं शरीर हूँ मन के कारण है। अगर मन न हो, श्रनुपस्थित हो, तो तुम नहीं कहोगे कि मैं शरीर में हूं या शरीर के बाहर हूं। तुम महज होगे; भीतर और बाहर नही होंगे भीतर और बाहर सापेक्ष शब्द है जो मन से संबंधित हैं। तब तुम मात्र साक्षी रहोगे ।"
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अगर तुम एक क्षण के लिए भी शरीर के बाहर हुए तो उस क्षण में मन नहीं रहेगा । यह अतिक्रमण है । अब तुम शरीर में वापस हो सकते हो, मन में भी वापस हो सकते हो; लेकिन अब तुम इस अनुभव को नही भूल सकोगे । यह अनुभव तुम्हारे अस्तित्व का भाग बन गया है; वह सदा तुम्हारे साथ रहेगा ।"
"अंग्रेजी के शब्द "एक्सटेंसी" का यही अर्थ है बाहर बड़ा रहना। एक्सटेसी अर्थात बाहर बड़ा रहना । अग्रेजी मे एक्सर्टसी का प्रयोग समाधि के लिए होता है। और एक बार तुम समझ लो कि तुम शरीर के बाहर हो तो उस क्षण में मन नही रह जाता है। क्योंकि मन ही वह सेतु है जिससे यह भाव पैदा होता है कि मैं शरीर हूं ।
"आंखें बन्द करो, और अपने भीतरी अस्तित्व को विस्तार से देखो। इस दर्शन का पहला चरण, बाहरी चरण अपने शरीर अपने शरीर को भीतर से, अपने आंतरिक केन्द्र पर खड़े हो जानो और देखो। तब तुम शरीर से पृथक् हो जाओगे; क्योंकि दृष्टा कभी दृश्य नहीं होता है; निरीक्षक अपने विषय से भिन्न होता है । अगर तुम अन्दर से अपने शरीर को समग्रतः देख सको तो तुम कभी फिर इस भ्रम में नहीं पड़ोगे कि मैं शरीर हू। तब तुम सर्वथा पृथक् रहोगे तब तुम शरीर मे रहोगे, लेकिन शरीर नहीं रहोगे ।
यह पहला हिस्सा है । तब तुम गति कर सकते हो । तब तुम इति करने के लिए स्वतन्त्र हो शरीर से मुक्त होकर, तादात्म्य से मुक्त होकर तुम गति करने के लिए मुक्त हो । अब तुम अपने मन में, मन की गहराइयों में प्रवेश कर सकते हो अब तुम उन नौ पर्तों में, जो भीतर है और अचेतन है, प्रवेश कर सकते हो यह मन की अन्तरस्थ गुफा है । और अगर मन की गुफा में प्रवेश करते हो तो तुम मन से भी पृथक हो जाते हो। तब तुम देखोगे कि मन भी एक विषय है जिसे देखा जा सकता है, और वह जो मन में प्रवेश कर रहा है वह मन से पृथक और भिन्न है ।
"अन्तस्य प्राणी को विस्तार से देखो" का यही अर्थ है - मन में प्रवेश । शरीर और मन दोनों के भीतर जाना है और भीतर से उन्हें देखना है । तब तुम मात्र साक्षी हो । और इस साक्षी में प्रवेश नही हो सकता है। इसी से यह तुम्हारा अन्तरतम है; यही तुम हो। जिसमें प्रवेश किया जा सकता है, जिसे देखा जा सकता है, वह तुम नहीं हो। जब तुम वहां बा गए जिससे आगे नहीं जाया जा सकता, जिसमें प्रवेश नहीं किया जा सकता, जिसे देखा