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________________ १४, वर्ष ४३ कि० ४ नही जा सकता, तभी समझना चाहिये कि तुम अपने सच्चे स्व के पास अपनी आत्मा के पास पहुचे ।" अनेकान्त इस विवेचन से ऐसा लगता है कि अमृतचन्द्र ने भी जिस मरण प्रक्रिया की ओर संकेत किया है, वह भी एक प्रकार के विशिष्ट ध्यान की विधि है । न वास्तविक मरण से अभिप्राय है न झूठ-मूठ के मरण से । बनारसीदास ने इस कठिनाई को एक तरफ रखा और कवित्त लिखा- ( पृ० ६ का भी दी है । रत्नाकर के जीवन संबंधी तथ्य भी इसमे है । मंसूर के राजाओ की बंशावली भी देवचन्द्र ने दी है । इसका ऐतिहासिक महत्व है । देवचन्द्र की दूसरी रचना 'रामकथावतार' है । इसमे बनारसी कहै भैया भव्य सुनो मेरी सोख, कैहूं भांति कैसेंहूं के ऐसो काजु कीजिए । एक हू मुहूरत मिथ्यात को विघुंस होइ, ग्यान को जगाइ अंस, हस खोजि लीजिए । वाही को विचार वाको ध्यान यहै कौतूहल | यों ही भरि जनम परम रस पीजिए । तजि भव-वास को विलाप सविकार रूप, अंत करि मोह को अनन्त काल जीजिए । - आशा है विद्वज्जन अपना अभिमत स्पष्ट करेंगे । 2. Rice, E. P. Kanarese Literature, The Heritage of India Series, Associated Press, 5, Russell Street, Calcutta, London, Oxford University Press, Calcutta etc., Second edition recised and enlarged, 1921. ३. पं० के० भुजबली शास्त्री - कन्नड़ जैन साहित्य का शेषांष ) उन्होने अभिनव पप ( नागचन्द्र ) से कथा एवं भाव लिए हैं । यह रचना एक चपू काव्य है और सामान्यसार की है। बी १ / ३२४, जनकपुरी, नई दिल्ली-५८ सहायक पुस्तकों की सन्दर्भ-सूची १. मुगवि, रंग श्री - कन्नड़ साहित्य का इतिहास, अनुवादक - सिद्ध गोपाल, प्रकाशक, साहित्य अकादमी नई दिल्ली, प्रथम सकस्करण, १९७१ । इतिहास (खंड) जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग ७, प्रकाशक- पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, २२१००५, सन् १९८१ ई० । ४. दक्षिणामूर्ति, एन० एस० कर्नाटक और उसका साहित्य प्रकाशक - मैसूर रियासत हिन्दी प्रचार समिति जयनगर, बेंगलूर- ११, सन् १९६४ ई० । ५. सिद्ध गोपाल - काव्यतीर्थ कन्नड़ बाहित्य का नवीन इतिहास, प्रकाशक, आशा प्रकाशन गृह, करोलबाग, नई दिल्ली-५, सन् १९६४ ई० । -जो कोई भी आएगा उन सभी को मैं दे दूंगा ऐसा उद्देश करके बनाया गया जो अन्न है वह उद्देश्य कहलाता है । जो भी पाखण्डी लोग आएँगे उन सभी को मैं भोजन कराऊँगा ऐसा उद्देश करके बनाया गया भोजन समुद्देश कहलाता है । जो कोई श्रमण अर्थात् आजीवक तापसी रक्तपट- परिव्राजक व छात्रजन आएँगे उन सभी को मैं आहार देऊँगा इस प्रकार से श्रमण के निमित्त बनाया हुआ अन्न आदेश कहलाता है । जो कोई भी निर्ग्रन्थ साधु बाएँगे उन सभी को मैं देऊँगा ऐसा मुनियों को उद्देश कर बनाया गया आहार समादेश कहलाता है । - मूलाचार, आचार वृत्ति ४२६
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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