________________
पहली किरण से प्रागे :
संस्कृत जैन काव्यशास्त्री और उनके ग्रन्थ
हेमचन्द्र -
न केवल जैन काव्यशास्त्रियों अपितु भारतीय काव्यशास्त्रियों में हेमचन्द्र का नाम बड़े आदर और सन्मान के साथ लिया जाता है। बहुत विद्वान् ये और कनिकाल सर्वज्ञ सौभाग्य का विषय है कि हेमचन्द्र के सन्दर्भ मे पर्याप्त सामाग्री यंत्र बिखरी पड़ी है स्वयं उनके ग्रंथो में भी एतद्विषयक पर्याप्त जानकारी प्राप्त है । अन्तःसाक्ष्य के लिए प्रयाश्रप, धानुशासन, त्रिशष्ठिशलाका पुरुष चरित्र आदि महत्वपूर्ण मानदण्ड है। बाह्यसाक्ष्य के लिए शतार्थ काव्य कुमारपाल प्रतिबोध, मोहपराजय पुरातन प्रबन्ध संग्रह प्रभावकारित प्रबन्ध चिन्तामणि, प्रवन्धकोष कुमारपाल प्रवन्ध कुमारपाल चरित आदि महत्वपूर्ण काव्य उपलब्ध हैं ।
1
,
ן'
इन्हीं के आधार पर श्री अलेग्जेण्डर कि लास फान्स ने ई० स० : ८७८ में रसमाला' तथा १८८६ मे बून्हर ने 'लाइफ आफ हेमचंद्र ग्रन्थ लिखा जिसका अनुवाद धी श्री कस्तूरमल वाठिया ने किया है। डा० वि० भा० मुमलगांवकर ने भी 'आचार्य हेमचन्द' नाम से एक सुन्दर कृति का प्रणयन किया है ।
मुनिजनविजय जी ने कुमारपाल विषयक ग्रन्थों का संकलन प्रकाशित किया है जिसमें इनके सम्बन्ध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। सभी में कुछ भिन्नताओं के साथ लगभग समान ही जीवन चरित्र प्राप्त है, जो निम्न प्रकार है ।
हेमचन्द्र का जन्म अहमदाबाद से ६० मील दक्षिणपश्चिम मेधुका या धुन्धुक नगर मे कार्तिक पूर्णिमा को १०८० ई० को मोदवशी वंग्यकुल के चाचित, पाव के पर हुआ माता का नाम पाहिणी, पाहिनि या चाहिणी या कुलदेवी चामुण्डा और देव मोनस था। आरम्भिक नाम चांगदेव था। मां जैनधर्मावलम्बी पी तथा पिता ।
0
डा० कपूरचन्द खतौली
चांगदेव होनहार वालक था गुरु देवचन्द्र के घुन्धुका आने पर वे माता और मामा की आज्ञा से दीक्षार्थ ले गये । प्रबन्ध चिन्तामणि के अनुसार वह देवचन्द्र की गद्दी पर बैठ गए तब देवचन्द्र माता की आज्ञा से उसे उदयन के पास छोड़ आये बाद में उदयन की चतुराई से पिता को भी अनुमति देनी पडी । चांगदेव अभी आठ वर्ष का थाबन्धकोश के अनुसार पांगदेव ने स्वयं दीक्षा ली। दीक्षोपरांत 'सोमचन्द्र' नाम रखा गया और शरीर से स्वर्ण सदृश तेजस्वी होने से वे हेमचन्द्र कहलाए । अल्पायु में ही शास्त्रीय और व्यावहारिक ज्ञान में पारंगत हो जाने के कारण २१ वर्ष की अवस्था में उन्हें नागपुर में सूरि पद प्राप्त हुआ ।
अपनी असाधारण प्रतिभा और चरित्रबल से ३६ वर्ष की अवस्था में वे सिद्धराज जयसिंह के सम्पर्क में आए और जयसिह प्रभावित होकर जैन धर्मानुरक्त हो गया ।
जयसिंह के बाद ११४२ ई० में कुमारपाल राजगद्दी पर बैठा। पहले जयसिंह कुमारपाल को मारना चाहता था । हेमचन्द्र ने उसे उपाश्रय में छिपाकर रक्षा की और कहा था कि तुम नार्गशीर्ष वदी १४ को राज्य पाओगे । कुमारपाल ने कहा मुझे नया यदि ऐसा हुआ तो राज्याधिकारी आप ही होंगे । हेमचन्द्र ने कहा- "हमे राज्य से क्या ? तुम जैन धर्म स्वीकार करना । यही भी वही तब कुछ समयोपरान्त हेमचन्द्र पाटन आए, उदयन से अपने स्मरण न करने की बात सुन उन्होंने कहा कि राजा से कहना आज रात नई रानी के महल में न जाय। रात को बिजली उसी महल पर गिरी। कुमारपाल ने उदयन से हेमचन्द्र द्वारा अपनी रक्षा सुनकर उनके चरणों मे पड़कर कहा- आपने दो बार मेरी जान बचाई अब यह राज्य सम्हालें । हेमचन्द्र ने कहा तुम जैनधर्म स्वीकार करो। कुमारपाल ने धीरे-धीरे ऐसा करने का वचन दिया।