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२६ वर्ष ४३, कि० ४
अनेकान्त अपने जीवनकाल मे हेमचन्द्र ने खूब लिखा । वे सर्व- मौलिक कहा है। डा० सुशील कुमार डे भी इसे सार धर्मसहिष्ण थे, सोमनाथ की यात्रा उन्होने को थी अन्त में संग्रह की भावना से प्रसूत मानते हैं। उन्होने हेमचंद्र और ११०२ ई० में उनकी ऐहिक लीला समाप्त हुई।
वाग्भट के ग्रन्थों के समीक्षणोपरांत लिखा है - हेमचन्द्र ने व्याकरण, साहित्यकोष, दर्शन सभी "ऐसा प्रतीत होता है कि जैन अनुशासनो का उद्देश्य विषयों पर अपनी अनवरत लेखनी चलाई। उनकी (यद्यपि इनमे जनमत सम्बन्धी कोई भी बात नही है) प्रामाणिक रचनायें निम्न हैं-(१) त्रिषष्टिश्लाका पुरुष विषय का लोकप्रिय सारांश प्रस्तुत करना है। वे किसी चरित्र (२) द्वयाश्रयकाव्य (1) शब्दानुशासन (४) छन्द- विशेष सम्प्रदाय या पद्धति से सम्बन्धित नही हैं । बल्कि अनशासन (५) काव्यानुशासन (६) अभिधान चिन्तामणि उसमें सार-संग्रह की भावना से परम्परागत धारणाओ का (७) अनेकार्थ संग्रह (८) निघण्टु (९) देशोनाममाला अनुकरण किया है ? मुख्य सिद्धांत के प्रकाश मे वे (१०) प्रमाणमीमांसा (११) योगशास्त्र । इनके अतिरिक्त समीक्षात्मक रूप में क्रमबद्ध नही किये गये है।" अनेक स्तोत्र और फुटकर श्लोक हैं।
__ तथापि हेमचन्द्र के महत्व को प्रतिपादित करना इस प्रकार छन्दानुशासन और काव्यानुशासन ये दो डा० मुसलगांवकार का कथन है-"हेमचंद्र के समक्ष उनकी काम्यशास्त्रीय कृतियां हैं। छन्दोऽनुशासन का सभी स्तर के पाठक थे अतः उन्होने सूत्र, चुडामणि और प्रकाशन पूना से हुआ है। इसमें संस्कृत, प्राकृत और विवेक वृत्ति लिखी-- मम्मट का काव्य-प्रकाश तो अपभ्रन्श के छन्दों का निरूपण है। छन्दों के उदाहरण क्लिष्ट है, साधारण पाठकों से वह सूगम नहीं, और स्वयं हेमचंद्र विरचित हैं।
संस्कृत के काव्य के अतिरिक्त अन्य साहित्य विद्याओ का काव्यानुशासन के तीन भाग हैं। मूलसूत्र अलंकार अध्ययन करने के लिए पाठकों को दूसरे ग्रथ भी देखने चडामणि व्याख्या मोर विवेकवत्ति । तीनों स्वय हेमचंद्र पडते है । हेमचन्द्र का काव्यान शासन इस अर्थ मे परिपूर्ण विरचित हैं । कुल आठ अध्याय हैं जिनमें क्रमश: २५, ग्रन्थ है।" ५६, १०,६, ६, ३२, ५२ तथा १३ सूत्र हैं। व्याख्या अरिसिंह व अमरचन्द : तथा टीका में ५० कवियो तथा ८१ ग्रथो का नामोल्लेख उक्त लेखकद्वय विरचित 'काव्यकल्पलता' (कविहुआ है।' अध्यायानुसार विषय-विवेचन निम्न है। शिक्षा) महत्वपूर्ण काव्यशास्त्रीय ग्रन्थ है। प्रबधकोष के
प्रथम-काव्य-प्रयोजन, हेतु, लक्षण, गुण, दोष एव अनुसार अरिसिंह जिनदत्त सूरि के शिष्य थे, और इन्होंने अलकार-लक्षण, शब्दार्थ स्वरूप मुख्यार्थ, लक्ष्यार्थ, अमरचन्द वो सिद्ध सारस्वत मत्र दिया था।" अरिसिंह ध्यग्यार्थ का निरूपण । द्वितीय-रसो के लक्षण, भेद, आजन्म गृहस्थ रहे जबकि अमरचन्द मुनि । अरिसिंह स्थायी भाव, सात्विक भाव, रसाभास । तृतीय-काव्य- वस्तुपाल के प्रिय कवि थे। इनकी एक अन्य कृति सुकृतदोष, रस-पद-वाक्य, पदवाक्य और अर्थदोष विवेचन । संकीर्तन है, जिसमें ११ सर्ग हैं। इसका रचनाकाल चतुर्थ-तीनगुण । पचम-छह शब्दालकार । षष्ठ-२६ १२२२ ई. है । अतः अरिसिंह को १३वी शती के पूर्वार्ध पर्यालंकार । सप्तम-नायक-नायिका-गुण । अष्टम में में मानना चाहिए । अमरचन्द्र अरिसिंह के शिष्य और काव्यभेदों का विवेचन है।
अणदिल पत्तन के समीप बायर के निवासी थे। प्रबन्धहेमचन्द्र ने प्रायः सभी काव्यांगों का विवेचन किया कोष मे उन्हें 'प्रज्ञालचड़ामणि' कहा गया है। इनकी है तथापि उस ग्रन्थ को मौलिक होने का श्रेय नही दिया अन्य उपाधि 'वेणीकृपाणामए थी' इनका समय भी १३वी जाता । इसे एक सुन्दर संग्रह-ग्रन्थ कहा जा सकता है। शती है । अमरचंद्र की अन्य कृतियाँ हैं-(१) चविंशति यद्यपि यह कम विवाद का विषय नही है। डा०पी०वी० जिनेन्द्र संक्षिप्त चरितानि (२) स्यादि शब्द समय काणे ने इसे संग्रहात्मक कहा है। श्री त्रिलोकीनाथ झा (३) काव्य कल्पलता परिमल (उक्त अय की टीका) (४) का भी यही मत है। श्री विष्णुपाद भट्टाचार्य ने इसे काव्यकाव्यलतामंजरी (५) काव्यकल्पाप (६) छन्दो