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'मूच्र्छा' से मूच्छित को आत्मबोध कहाँ ?
पद्मचन्द्र शास्त्री, दिल्ली
संवर- निर्जरा के आगमोक्त कारणों- अंतरंग-बहिरंग साधनों को जीवन में उतारना चारित्र की सरल परिभाषा है - 'संसार कारणनिवृत्ति प्रत्यागुर्णस्य ज्ञानबतः कर्मादाननिमित्तक्रियोपरमः सम्यक् - चारित्रम् ।'
तत्त्वचर्चा का प्रयोजन स्व-कल्याण से है और स्व-कल्याण (मोक्ष) संवर- निर्जरा पूर्वक ही होता है । फलत' बाह्य तथा अन्तरंग में संवर- निर्जरा के कारणभूत 'गुप्ति समिति-धर्म- अनुप्रेक्षा- परीषहजय और चारित्र तथा तप को अपनाए बिना सभी चर्चाएँ अधूरी हैं- वे निष्फल भी हो सकती हैं ।
आत्मा के स्वरूप गुण पर्यायादि की चर्चा करना उसको देखना- दिखाना नही है । आत्मानुभव की बात येनकेन प्रकारेण कदाचित् कथंचित् उसके गुणपर्यायादि चितन में भले ही मानी जा सके । स्मरण रहे - चर्चा करना और चिंतन दोनों पृथक् हैं। चर्चा सर्वथा बाह्य है और चिंतन कथंचित् अंतरग । जहाँ तक आत्मा के गुण- पर्यायों के चितन की बात है, वह चिंतन भी अपरिग्रही ( चारित्री) मन के हो हो सकता है । और हम भी अपरिग्रह की ओर बढने को प्रमुखता देते हैं। पर, कई लोग है कि अपरिग्रह के नाम से विदकते है और भोग भोगते हुए, चर्चा मात्र मे मोक्ष मानते हैं। जब कि आगम में स्पष्ट लिखा है'सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग ।' और 'सयतस्यैवागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्त्व यौगपद्यात्मज्ञान- यौगपद्यं सिध्यति ।'
--प्रवच० ३१८०
तत्त्वचर्चा के संबंध मे कुछ लोग ऐसी एकांगी मिथ्याधारणा बना बैठे है कि सर्वार्थसिद्धि के देव संयमपालन के बिना, भोग भोगते हुए ३३ सागर आयुपर्यन्त तत्त्वचर्चा करते है और तत्त्वचर्चा के कारण ही वे आगामी भव में मोक्ष पा जाते हैं, आदि । फलतः इस मान्यता के लोग मात्र चर्चा में मोक्ष के स्वप्न देखने लगे हैं - उन्हें परिग्रह त्याग अर्थात् चारित्र की बात काटती जैसी है । पर स्मरण रखना चाहिए कि जैन मान्यता अपरिग्रह पर टिकी हुई है और सर्वार्थसिद्धि विमान की प्राप्ति और वहाँ से चयकर अगले भव में मोक्ष जाना दोनों ही चारित्र (अपरिग्रह की ओर बढ़ने) के कारण से ही है । यदि संयम-विहीन चर्चा से ही मोक्ष होता तो वे देव सर्वार्थसिद्धि से सोधे हो मोक्ष चले जाते होते | उन्हें अगला भव और उसमें दंगम्बरोदीक्षा का संयम ( चारित्र ) धारण करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । सभी तीर्थकर भी संयम मार्ग से ही मोक्ष गए है।
हमारी दृष्टि से भोगोपभोग की सामग्री (परिग्रह) बढ़ाते हुए कोरी बाह्य चर्चा करना और बाह्यवेश लेकर परिग्रह का संग्रह करना दोनों ही चितनीय है ।
अपरिग्रह की ओर बढ़ने के पक्षधर होने से हम परिग्रह को कृश कराने वाली तत्त्वचर्चा के पोषक हैं-विरोधी नही । और इसीलिए तत्त्वचर्चा व उसके प्रचार-प्रसार के बहाने श्रावकों और त्यागियों द्वारा भोगोपभोग सामग्रीरूप- धनादि परिग्रह का बढ़ाया जाना, संस्थाओं मठों भवनों आदि का स्वामित्व प्राप्त करना-कराना आदि हमारी मान्यता के विरुद्ध है – कोई इसे माने या न माने ।
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