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________________ महान सम्राट अशोक का संवत्सर? जैन शिलालेख संग्रह-विजयमूर्ति पृ० ५४ एम.ए. इतिहास मनीषियों, अनुसंधान करने वालों के सामने मेरा अपना सुदढ़ अनुमान है कि यह संवत् अशोक एक अवसर है कि वे जैन साहित्य का अभीष्ट मथन करके संवत् २६९ संभाव्य है जिसका ईस्वी साल २६६-२१९ अशोक सवत पर एक निश्चित सर्वमान्य शोध करें और अमृततत्त्व को सामने लायें। एन-१४ चेतकपुरी, ग्वालियर-४७४.०६ संदर्भ-सूची १. ५२७-२३६२८८ ई० पू० वा वर्ष अशुद्ध है। (ख) जैन शिलालेख संग्रह-II भाग श्री विजयमूर्ति महावंश के अनुसार अशोक ने २७६ ई० पू० मे राज्य पृ० १२/१३ । हस्तगत किया और उसका अभिषेक २६८ ई०प० ४. सात वाहन वश और पश्चिमी क्षत्रियों का इतिहास में हुआ। पु० ४७ । ५. षड्विंशत्तुमभा राजा अशोको भवित्ता नष-वायु २. अशोक के गुप्त संवत् चलाने की बात ठीक नहीं पृ० १६/३३२ । जंचती। इसी उल्लेख से इसकी अति प्राचीनता के ६. 'वीर निर्वाण संवत्' मौर्यकालोच्छिन्ने ‘मृते विक्रमसम्बन्ध में शंका उत्पन्न होती है। राजनि।' मनि श्री कल्याण विजय 'वीर निर्वाण संवत्' और ७. दिव्यावदान पृ. ४३३ । काल गणना पृ० १७१ ८. भारतवर्ष का वृहद् इतिहास-भगदत्त द्वितीय भाग ३. (क) भारतीय अभिलेख- डॉ० सूबेसिंह राणा पृ. ६४ पृ. २७३ । (पृ. ४ का शेषांष) जो मण्णदि जीवेमि य जीविज्जामि य परेहि सत्तेहिं । वाणी का तात्पर्य यही है कि सभी जीव अपने-अपने कर्म सो मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो ॥ के उदय से सूखी और दुःखी होते हैं तथा किसी भी प्रकार जो जीव ऐसा मानता है कि मैं दूसरे जीवो को से अन्य जीव दूसरे जीवों को सुख और दु.ख नही दे मारता हैं और दूसरे जीवों के द्वारा मैं मारा जाता है सकता है। ऐसा जैन दर्शन का विशिष्ट सिद्धान्त है। ऐसा मानने वाला जीव मूर्ख तथा अज्ञानी है। किन्तु जब जैन दर्शन की ऐसी मान्यता तब आकाश में ज्ञानी जीव की धारणा इसके विपरीत है । वह मानता है स्थित नवग्रह भूमण्डल पर स्थित जीवों का इष्ट और कि न तो मैं किसी का घात कर सकता है और न अन्य अनिष्ट किस प्रकार करते है तथा ग्रहों की शान्ति क्या कोई जीव मेरा घात कर सकता है। इसी प्रकार जो नवग्रह पूजा के करने से हो जाती है, यह समझ में नही जीव ऐसा मामता है कि मैं दूसरे जीवो को जीवित करता आ रहा है। इस विषय में अन्य विद्वानो से निवेदन है हूं तथा दूसरे जीवो के द्वारा मैं जीवित किया जाता हूँ कि वे इस लेख के सन्दर्भ मे अपने विचार प्रकट करने ऐसा मानने वाला जीव मुर्ख तथा अज्ञानी है। किन्तु का कष्ट करें। जिससे यदि मैंने कुछ गलत लिखा है तो ज्ञानी जीव की श्रद्धा इसके विपरीत है। वह मानता है मैं अपनी गलती का सुधार कर सकू। मेरी तो यही कि न तो मैं किसी जीव को जीवित कर सकता है और न भावना हैअन्य कोई जीव मुझे जीवित कर सकता है। इस कुन्दकुन्द जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रसरतू सततं सर्व सौख्य प्रदायि ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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