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वर्ष ४२, कि०२
अनेकान्त
की ओर संकेत भी दिया है।' अर्थात् वृहस्पति मित्र के अशोक पौत्र अर्थात कुणाल पुत्र 'सम्प्रति' दादा की अक्षत अस्तित्व के लिए पूरा का पूरा ढांचा परिकल्पित किया आयुष्य में उज्जयिनीश्वर हो गया था सम्प्रति दीर्घायु न है। मेरे विचार से ये सब अटकलबाजियां हैं निराधार था। वीर निर्वाण संवत् ३०० में वह दिवंगत हुआ। अनुमान हैं।
निर्वाण संवत् [ई० पू० ५२७] ३०० % २२७ ई. पू. में शंगवंशी पूष्पमित्र "वहस्पति मित्र" का नामांतरण उनका निधन जैन शास्त्र सम्मत है। उसके बाद उसका है ऐसे उदाहरण अन्यत्र उपलब्ध नहीं है जिनके अनुसरण पुत्र "वृहस्पति" उज्जयिनीश्वर' बन सका। उसने केवल पर या उड़ान सहीमानी जा सके। अतः यह मानना १३ वर्ष शासन किया, अर्थात् २२७-१३-२१४ ई. अमान्य है। हमें केवल वृहस्पति मित्र चाहिए, गुरु मित्र पू० तक उसने शासन किया। या पुष्पमित्र कदापि नहीं।
(१) २१४ ई० पूर्व से वहस्पति तथा २०६ ई० पूर्व ___ शुंगवंशीय ओद्रक के सामंत मित्रान्त नामक व्यक्ति
से आषाढ़सेन में वर्तमान काल सगति के आधार पर दोनों भी यहां अभिप्रेत नही हैं। वहस्पति के गरिमावर्धक
__ करीब-करीब हो जाते है। 'मातुल पद' की सूचना भी तब तक अर्थहीन है जब तक
(२) वृहस्पति' और 'आषाढसेन' के बीच मातुलउसका भागनेय निश्चित रूपेण प्रतिष्ठित न हो जाय। भागनेय का सम्बन्ध अब प्रबल तर्कानुप्राणित और गरिमा यहां खटक पैदा करने वाली बात यह है कि शुंगवंश सूचक है एव मान्य ह ब्राह्मण वंश है. उनके सामंत भी जहां रिश्तेदारियां स्था- (३) जैन धर्म इन्हें और अधिक निकटता प्रदान पित की जा सकें ब्राह्मण ही सभाव्य है। ब्राह्मण वंश करता है । पपोसा गुहा लेख से "अशोक संवत्" को सुदङ [राजा या सामंत वैदिक धर्म को छोड़कर किसी पौरुषेय विचार भूमि तो अवश्य मिल गई परन्तु विस्तृत प्रयोग धर्म [जैसे बौद्ध, जैन आदि] को आसानी से अगीकार क्षेत्र के अभाव में उसे "सवत्सर श्रृंखला" में पिरोया नही करेगा। यही सोचकर इस स्थापना में सारवत्ता न नही जा सकता। अब उसका प्रयोग क्षेत्र ढूंढ़ते हैं। वह होने से, इसे स्वीकार करना अति जटिल हो गया है। इस प्रकार हैमेरा अपना मत कुछ और है
शिरिक और शिवदिन्ना का लेख मूल पाठ की छठी पंक्ति मे अक्षरो के घिस पिट जाने
अभिलेख स० । स्थान | भाषा | स्थिति से अपठित स्थान [- ] रिक्त छोड़कर 'उदाकस्य' ८८ मथुरा । सस्कृत | भग्न शब्द से उसको पूर्ति की गई है। यदि पूर्ति करना ही
इम अभिलेख मे संवत् २६६ का उल्लेख है यह संदर्भ अभिप्रेत है तो उदाकस्य के विकल्प में "अशोकस्य" पद
वीर निर्वाण संवत् का नही है। "महाराजस्य राजातिद्वारा रिक्त स्थान भरा जा सकता है।
राजस्य" के वैशिष्ट्य से किसी उच्चतर महाराजा का यदि ऐसा संभाव्य है तो पाठ होगा "लपन कारितं संकेत मिलता है। यह विक्रम संवत् भी नही है। प्रायः अशोकस्य दशमे संवत्सरे ।" पुराण मतानुसार अशोक श्री विद्वान सवत् या संवत्सर पढ़ कर विक्रम संवत् के बारे में का निधन' सप्तर्षि संवत् १२२६%२१६ ई०पू० के सोचने लगते है उत्तरोत्तर हो रहे अनुसंधान से ये धारसाल में हो गया। चूंकि जैन मत मरणोपरान्त' काल णाएं निर्मूल हो गई हैं। हमारा ध्यान "राजातिराज" गणना में विश्वास करता है अत: यहा "अशोक संवत' पढ़कर सम्राट अशोक की तरफ जाता है। स्वयमेव प्रासंगिक हो जाता है । "अशोकस्य दशमे संवत्- जैन अनुवाद-पब सिद्धों और अर्हन्तों को नमस्कार सरे" का फलितार्थ होगा ई०पू० २१६-१०-२०६ मे हो। महाराज और राजाति राज के सवत्सर २००+६+ आषाढ़ सेन ने अभिलेख तैयार कराया ।
६६२६६ के शीत ऋतु को दूसरे महीने के पहिले दिन अब वहस्पति मित्र की खोज भी सुगम हो गई है। भगवान महावीर की प्रतिमा अहंत मन्दिर मे (इत्यादि)