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________________ शुभाशुभ और शुद्ध भाव भक्ति या संयम तप इनमें जितनी शुभोपयोग प्रवृत्ति होती है उसमे प्रशस्त रागरूप जो अंश होता है वह सवर निर्जरा का कारण नही बन सकता। जो रागाश होता है। प्रशस्तराग शुभोपयोग अश की प्रधानता रहती है इसलिए तारतम्येन शब्द प्रयोग बाहुल्य सूचित करता है । बिना वीतरागता रूप शुद्धोपयोग के संवर निर्जरा का प्रारम्भ सम्भव नहीं हैं। भक्ति में जितनी वीतरागता वह संवर निर्जरा का कारण है और जितनी सरागता वह आश्रवबंध का कारण है । वह आस्रव-बंध का कारण माना गया है। जीवों के जो निर्जरा प्रति समय होती रहती है वह निर्जरा मोक्षमार्ग के सप्ततत्वों में जो निर्जरा तत्व माना गया है उस रूप नहीं है। हर समय जो कर्म जीवो के निर्जरित होते हैं उसको उदय कहा है जो नवीन कर्माश्रव के निमित्त होते हैं। संवर पूर्वक निर्जरा जो आश्रव-बध निरोध सहित होती है उसी को मोक्षमार्ग मे निर्जरा तत्व कहा है। भक्ति (शुभराग) में उसके साथ जितना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र (शुद्धिरूह वीतरागांश) है वह सवर निर्जरा का कारण होता है। वह रत्नत्रय वीतरागता रूप आत्मा का शुद्ध परिणाम है वह शुद्धोपयोग है वही सवर निर्जरा का कारण है अन्य नहीं । उस भक्ति में जो प्रशस्त रागरूप शुभयोग परिणाम है वह तो नियम से आश्रवबंध का ही कारण है । यदि केवल भक्ति या व्रत नियम निर्जरा का कारण माना जावे तो मिध्यादृष्टि (द्रव्यलिंगी अभव्य ) की भक्ति व्रत संयम भी निर्जरा का कारण मानना पड़ेगा । अनेकान्तात्मक वस्तु गोलरूप नही है । गोल वस्तु का कही से भी आदि अन्त बनाया जा सकता है परन्तु वस्तु का आदि अन्त नही है विवक्षित पर्याय से आदि अन्त रूप है । परन्तु पर्याय परम्परा से श्रनादि अनंत है। पर्याय परम्परा का आदि अन्त नहीं है, गोल नही है । विस्तार रूप काल रूप उता अनादि अनंत है । 1 श्री नरेन्द्र कुमार शास्त्री, भोसीकर, शोलापुर वन का दृष्टान्त दिया है। अर्थात् वीतरागता शुद्धोपयोगरत्नत्रयरूप अश कम और दान पूजा भक्ति व्रतशीलरूप बिना सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र के संवर निर्जरा का प्रारम्भ नही होता । गुणस्थान ४ से १० तक मिश्रपरि णाम होते हैं ( राग वीतरागता रूप) यद्यपि गुणस्थान ४ से ६ तक तारतम्येन शुभोपयोग कहा है उसके लिए निब भक्ति मे जो निदान रहित निष्कांक्षित भावरूप वीतरागता है वह शुभोपयोग रूप न होकर शुद्ध उपयोगमय है-आत्मा का शुद्ध परिणाम है। सम्यग्दर्शन परिणाम को शुद्धोपयोग रूप आत्म परिणाम कहा है ( उवओग सुद्धप्पा ) उसमे जो वीतरागता है वह सम्यक् चारित्र है । व्रत संयम रूप चारित्र के अभाव मे असवदी सम्यग्दृष्टि को भी मोक्षमार्ग रूप वह सम्यक् चारित्र रहता है । "भक्ति" यह मदराग रूप शुभोपयोग मय विशुद्धिपरिणाम हैं । उसमे जो मद राग है वह नियम से आश्रववध का ही कारण है और जो शुद्धिरूप वीतरागता है वह नियमतः संवर निर्जरा का कारण है। यदि ऐसा न माना जावे तो आगे ७ से १० वे गुणस्थान तक शुद्धोपयोग कहा है वहां जो आश्रवबंध होता है वह शुद्धोपयोग के कारण मानने का प्रसंग आयेगा इसलिए शुभोपयोग में संवर निर्जरा मानना तथा शुद्धोपयोग से आश्रवबंध मानना ये दोनो तत्वदृष्टि से असंगत है । गुणस्थान ११-१२ मे वीतरागता है शुद्धोपयोग है परन्तु वहां अल्पज्ञता भावयोग द्रव्ययोग ईर्यापथ आश्रव का कारण है । गुणस्थान १३ में पूर्ण वीतरागता है सर्वज्ञता है तथापि भावयोग न होते हुए भी द्रव्यकाययोग ईर्यापय श्राश्रव का कारण है । ( मन वचन काय की प्रवृत्ति) योग शुभ अशुभ - अशुद्ध
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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