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________________ शुभाशुभ और बुद्ध भाव ही होते हैं कभी शुद्ध नही । शुभः पुण्यस्य, अशुभः पापस्य = वे पुण्य पाप ही के कारण है कदापि संवर निर्जरा के कारण नहीं हैं । उपयोग ३ प्रकार के हैं- १. प्रशस्त राग (शुभ), २. अप्रशस्त राग (अशुभ), ३. वीतरागता रूप (शुद्ध) । * रागांश आधवबंध का ही कारण है को वध मार्ग संसार मार्ग है। ॐ वीतरागांश ( रत्नत्रय परिणाम) संबर निर्जरा का कारण है जो मोक्षमार्ग है । आगम में सम्यग्दृष्टि के भोग भी निर्जरा के कारण कहे हैं परन्तु वह उपचार नय कथन है उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि की भक्ति भी उपचार से ही निर्जरा का कारण है - मिध्यात्व नहीं है । परन्तु नयनिक्षेप का विवेक जागृत । न रखते हुए उस भक्ति को परमार्थ से निर्जरा का कारण माना जावे तो वह आगम का श्रुत का अवर्णवाद है । भक्ति में जितना निष्कांक्षित अंश है वह वीतराग रूप रत्नत्रय का अंश है उसको संवर निर्जरा का कारण मानना सुसंगत है और भक्ति में जो मन वचन काय प्रवृतिरूप । प्रशरत राग - कर्मचेतना अंश है वह नियम से आश्रवबंध का कारण है । कर्म चेतना के साथ जितना ज्ञान चेतना रूप वीतराग अंश है वह सवर निर्जरा का कारण है । एक ही उपयोग परिणाम रूप रागवीतराग रूप मिश्रपरिणाम होता है। राग पर वीतरागता का आरोपित नय निक्षेप दृष्टि से उपचार कर संवर निर्जरा का कारण कहना उपचार नय है । उसी प्रकार मंद राग का वीतराग स्वरूप रत्नत्रय पर आरोपित नय दृष्टि से उपचार कर "सम्यस्त्वं च "सध्यत्व को देवायु का कारण कहना उपचार नय है। आगम मे प्रयोजन वश उपचार नय से कथन अनेक जगह पर किया है परन्तु उस उपचार कथन को परमार्थ समझना यह आगम का अर्थ विपर्यास है। योग - कर्मधारा (अशुद्धोपयोग ) बंध मार्ग है। शुद्ध उप योग - ज्ञानधारा मोक्षमार्ग है । गुणस्थान ४ से अशुद्ध और शुद्ध उपयोग कर्मधारा-ज्ञानधारा इनका मिश्रभाव रहता है शुभ योग सहित प्रशस्त राग रूप उपयोग ( चेतना, परिणाम ) शुभोपयोग है। अशुभ योग सहित अप्रशस्त रागरूप उपयोग अशुभोपयोग है। ये दोनों अशुद्ध = है कर्मधारा रूप है । इनके सिवा विराग भाव सहित उपयोग है वह शुद्धोपयोग है वही ज्ञानधारा रूप है । उसी से संबर निर्जरा मोक्ष है। मिथ्यादृष्टि को शुभ - अशुभ योग नय मिश्रधारा रूप उपयोग रहना है वह नियम से आधवबंध का कारण है। "स आश्रवः ।" कारण का कार्य में उपचार कर योग को ही अधव कहा है। सम्यग्दृष्टि को भी गुणस्थान ४ से १० तक योग से सोपराधिक भय रहता है किन्तु इसके साथ वीतराग रूप ज्ञानद्वारा मय मिश्रभाव भी रहता है। जिसके कारण एक ही उपयोग में रागांग ( आधवबंध) और वीतरागांश ( संवर निर्जरा) दोनों का सम्मिश्रण रहता है। मिथ्यादृष्टि का मिश्रभाव सिर्फ अशुद्धरूप ही होता है जबकि सम्यग्दृष्टि का मिश्रभाव शुद्धाशुद्ध रूप होता है । मिथ्या दृष्टि को बंधा हुआ कर्म प्रति समय जो निर्जरित होता है उसको उदय कहते हैं- सविपाक निर्जेश कहते हैं वह मोक्षमार्ग के प्रयोजन भूत सप्ततत्वों वाली संगर- निर्जरा नहीं है। भक्ति पूजा तो योग प्रवृत्ति रूप है अतः उसका फल लौकिक आश्रवबंध ही है । उसको जो परम्परा से मुक्ति का कारण कहा है उसका हेतु उसके साथ रही शुद्धोपयोग भावना है जो रत्नत्रय रूप ज्ञान चेतना है वही परम्परा मुक्ति का कारण है जितनी योग प्रवृत्ति है वह आश्रवबंध । का कारण है कदापि संवर निर्जरा का और परम्परा मुक्ति का कारण नहीं है । उपचार नय से कहना अलग बात है। परमार्थ से मुक्ति का कारण नहीं है। अष्टद्रव्य पूजा के मंत्रो में भावना तो मोक्ष फल की रहती है वह निषिद्ध नहीं है यह वीतरागता रूप है। पूजा क्रियाकर्मधारा योगप्रवृत्ति रूप है उसका फल नियमतः लौकिक सद्गति स्वर्गादि है। लौकिक फल की बाधा से पूजा करना निदान मिध्यात्व है। भक्ति मे जो अशुभ की निवृत्ति होती है वह भक्ति के कारण नहीं, किन्तु रत्नत्रय रूप वीतरागता के कारण होती है। प्रवृत्ति (राग) बाधव-बंध का कारण है। निवृत्ति ( वीतरागता ) संवर निर्जरा का कारण है। ( भी रतनलाल कटारिया के सौजन्य से )
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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