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१२, वर्ष ४३, कि० २
अनेकान्त सके कि मुझमें एक भी दोष का आश्रय नहीं था या नही से अधिक बुद्धिमान हैं जो नए-२ ग्रन्यादि रचकर धर्महै। और जब दोष है तो अभिनन्दन के नाम से ग्रन्थ प्रचार में लगे है? या आचार्यों के ग्रन्थों की मनमानी प्रकाशन और उसके आदान-प्रदान का तुक ही कहा? । यदा-तद्वा व्याख्याएँ कर रहे है ? यदि प्रचार ही करना है क्या इसीलिए कि-'कि दिल अभी भरा नहीं।' तो आचार्य पाक्यों का प्रचार कीजिए । उनके शब्दार्थ ही
ये तो गृहीता की यश लिप्सा और प्रदाताओ की मोखिक समझाइए, ताकि आगम सुरक्षित रह सके । पर, चापलमी-लत ही हुई जो आँख मीचकर अभिनन्दन ग्रंथ करें क्या? कुछ लोग लेखन को व्यवसाय बनाये है वे पैसे छापे जांग। और कहावत भी चरितार्थ हुई कि 'अन्धा के लिए लिखते है, कुछ यश याति मे डूबे है -'गर तू बांटे रेवड़ी घर ही घर को देय।'-शायद यह भी सत्य नही तेरा तो सदा नाम रहेगा।' जवकि अनन्तो तीर्थकरो, हो कि अभिनन्दनो के प्रकाशन पक्ष-व्यामोह और गुटबन्दी चक्रवतियो आदि के नाम भी मिट गए। सभी जानते है के परिणाम है। 'तू मेरा कर मैं तेरे लिए साधन जुटा- कि दिग्विजय के बाद चक्रवर्ती तक को अपना नाम लिखने ऊंगा आदि।'
के लिए एक अन्य नाम मिटाना पड़ता है और पूर्वकाल के प्रश्न यह भी है कि क्या इन ऐसे ग्रन्थो से कोई किसी दिग्विजयी को मिट जाना पड़ता है। धामिक लाभ भी होता है। बहुत से लेख तो कई अभि- यदि गहराई मे न जाय और मोटा-२ विचार ही मन्दन ग्रन्थो मे ऐसे होते है जो इससे पहिले भी अन्यत्र करें-तो निष्कर्ष ऐसा भी निकलता है कि एक अभिनन्दन अल्प-व्यय मे छप चुके होते है। यह भी जरूरी नहीं कि सभी ग्रन्थ मे पचास हजार की राशि का व्यय होना तो साधालेख प्रामाणिक पुरुषों के लिखे और प्रामाणिक ही हो- रण सी बात है और इतनी राशि एकत्रित करना, किसी सभी की अपनी-अपनी मान्यताये होती हैं- सर्वज्ञ या गण- चन्दा व्यवसायी को महा सरल है। रास्ते चलता साधाघर तथा पूर्वाचार्यों की नहीं । अनेक लेख विवादस्थ भी रण आदमी भी इतनी राशि वसूल कर सकता है। हाँ, होते है। सर्वज्ञ ध्वनि दे गए, गणघर गथ गए और पूर्वा. उसमें लोगो को तनिक उछाना देने के गट्स चाहिए । चार्यों ने उनकी व्याख्याएं दी और वे ही प्रामाणिक हैं। सो यहाँ तो बड़े-२ महारथी इस कार्य को करते हैं। उन्हे आम मादमियों के लेख प्रामाणिकता की कोटि मे नही इतनी बड़ी राशि के अप-व्यय की चिंता नहीं। हमे तो आते।
___ दया आती है उन निष्काम सेवी अभिनन्दन गृहीताओं पर हमे स्मरण है कि हमने एक मन्दिर जी मे एक जो अपने गुणगान हेतु जनता का इतना प्रभूत द्रव्य व्यय सज्जन को एक अभिनन्दन ग्रन्थ का वाचन शास्त्र रूप मे करा कर भी अपने को निष्काम सेवी कहलाना चाहते करते और श्रोताओ को सुनते देखा। वाचन के अन्त में हैं। कितनी ही शुभकामनाएं ग्रन्थ मे छप जाती है, सामू'मिध्यातम नाशवे कू' स्तुति भी हुई और लोगों ने ग्रन्थ हिक गणगान भी हो जाते है फिर भी वे समालोचना के को साष्टांग नमस्कार भी किया। गोया, ग्रन्थ कोई अभि- द्वारा प्रशंसा के भूखे रह जाते है। सच ही है कि उनकानन्दन ग्रन्थ न होकर आगम या जिनवाणी हो। ऐसी स्थिति 'दिल अभी भरा नहीं।' मे अभिनन्दन ग्रन्थों के कारण 'कदाचित् भविष्य मे जिन- हम स्मरण करा दे कि हमने पूर्व मे ऐसे लोगों के वाणी का क्या रूप बन जायगा : इसे भी बड़ी गहराई से अभिनंदन प्रथ और अभिनन्दन होते भी देखे है, जिनके धर्म सोचना होगा? इतना ही नही हम तो बार बार नए ग्रंथो, और समाज के प्रति बेजोड़ उपकार रहे, फिर भी जिन्हें टीकाओ, विशेषार्थ और भावार्थों के लिखे जाने का भी अन्तिम दिन दुःख मे ही निकालने पड़े। अभिनन्दनों ने बराबर विरोध करते रहे है और वह इसीलिए कि आचार्यों उनका कोई साथ न दिया--अन्य वैभव के साथ वे भी के मूल ग्रन्थो को आगम माना जाने का चलन लोप न हो यही धरे रह गये । हमारे तीर्थंकर-महापुरुषो की लोक जाय और पडित वाणी ही भविष्य में जिन वाणी न बन सही रही और हमें भी उसी पर चलना चाहिए-झूठी, बैठे, जैसा आज हो चुका है। क्या, लेखक गण पूर्वाचार्यों
(शेष पृ० ३० पर)