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जरा-सोचिए! कि-दिल अभी भरा नहीं !
हमने कही पढ़ा है-"जोगी जोग जुगति क्या करता और परिग्रह समेटते हुए यही रटते रहे कि-'दिल अभी पहिले मन को अपने मार ।" यह प्रसंग शुद्धात्मपद की भरा नहीं।' प्राप्ति के प्रति उद्यत किसी उस योगी को लक्ष्य कर कहा
पहिले हमे अपने को देखना होगा-हमें शुद्ध धार्मिक गया है जो बाहर से तो ध्यानमुद्रा मे बैठा हो और जिसका
रूा मे ढलना होगा -वीतराग धर्म की वीतरागता की मन इधर-उधर डोल रहा हो । भला, जिसका मन संसार
ओर बढना होगा, चाहे वह बढना क्रमशः ही क्यो न हो? को विडम्बनाओ में घूम रहा हो, वह ध्यान कैसे करेगा--
लोग चाहे जो कहें, पर हमारी दृष्टि तो ऐसी बनी है कि आत्मकल्याण कैसे करेगा ? शास्त्रो मे भेद-विज्ञान को
जैनधर्म का मूल उद्देश्य, वीतरागता की ओर बढ़ाना मात्र आत्मकल्याण का मार्ग कहा गया है और वह भेद-विज्ञान
है-शेष व्रत-नियम, आदान-प्रदान, क्रियाकाण्ड आदि तो शास्त्रज्ञान द्वारा होता है। आज के समय में तो ऐसा
साधन हैं जो प्राय अन्य सभी धर्मों में भी होनाधिक देखा जा रहा है कि जिन्होने जीवन भर शास्त्री को पढ़ा
मात्रा में है। इस सभी प्रक्रिया पर चिर स्वाध्यायियो व उनमें कोई ही भेद-विज्ञान के पाठ का अनुसरण करत हा विद्वानो का गान जाना चाहिए। वरना, प्रायः शास्त्रो मे अपना जीवन बिताने की बात
हम आश्चर्यचकित रह जाते है जब वर्तमान ज्ञानियो करने वाले अधिकांश जन तो भेद-विज्ञान के स्थान पर,
तक में आपाधापी की होड देखते है उनमे 'अह' को धन, जायदाद आदि पर कुण्डली मारने ---पर-परिग्रह के
पुष्ट करने की प्रवृत्ति देखते है। यहा समालोचनार्थ अभिसंग्रह करने मे लगे है--फिर वह परिग्रह ख्याति, पूजा,
नन्दन ग्रन्थ आते रहते है और अभी भी हमे दो अभिनदम सन्मान प्रतिष्ठा अभिनन्दन ग्रन्थ आदि के संग्रह-विकल्परूपो
ग्रन्थ समालोचनार्थ मिले है। हम नही समझते कि अभिमे ही क्यो न हो?
नन्दन ग्रन्थों को यह परम्परा कब से पड़ी? कैसे पड़ी? हमने कितने ही विद्वानो को कहते सुना है कि क्या और क्यो पडी? हमारे चौबीस तीर्थकर, गणधर आदि करें ? समाज की दशा दिनो-दिन बिगड रही है लोगो को अनेक प्राचीन आचार्य हुए, पर किन्ही का कोई अभिनंदन हम चाहे जितनी बार लम्बे-२ भाषण दें, शास्त्र की गद्दी ग्रन्थ हमारे देखने मे नही आया - यदि हो तो देखें । लोग से शास्त्र सुनाएँ, चर्चाएं करें उन पर कोई असर ही नहीं कहेगे उनके जीवन चरित्र तो उपलब्ध है वे ही उनके अभिहोता। ऐसे ही प्रसंग में हमने एक विद्वान से पूछा कि नन्दन ग्रन्थ है। पर, स्मरण रखना चाहिए कि सभी पडित जी, आप लोगो को कितने समय पर्यन्त धामिक चरित्रों मे सभी के गुण और दोष दोनो का वर्णन के. चर्चाएं सुनाते है ? घण्टे, दो घण्टे, चार घण्टे आदि । यदि गुण है तो गुणरूप मे वणित और दोष है तो दोषरूप आपने तो अपना जीवन ही धार्मिक ग्रन्यों के पढने मे गगा मे वणित । उक्त परिप्रेक्ष्य में वर्तमान अभिनन्दन ग्रन्थो को दिया फिर भी आप स्वयम् कितने धर्म-मार्ग पर नने? चात्र ग्रन्य तो रह नही सकते उनमे तो गुणो की ही यह सोचिए।
भरमार रहती है। ऐसे में प्रश्न होता है कि क्या अभि
नन्दन-ग्रन्थ के प्राप्तकर्ता सभीजन दोषो से सर्वथा अछुते आश्चर्य है कि हम कुछ काल चर्चा सुनने वालों से हुए या हैं ? यदि हां, तो अभिनन्दन-ग्रन्थों को उचित कहा तो अपेक्षा करें कि वे धर्म-मार्ग पर चलें परन्तु चर्चा पे जा सकता है। पर हम समझते है कि एक भी अभिनन्दन जीवन बिताने पर भी हम अपने धर्म-निर्वाह को न देखे। ग्रन्थ प्राप्तकर्ता ऐसा न होगा जो ताल ठोक कर कह