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१४, वर्ष ४३, कि० १
चरनन प्याऊं ।
वुल जारउ या जग के प्रम, अंतक की चोट बचाऊं ।. या कारन प्रभु करत तपस्या, क्यों न मैं यह धार चित्त में राजुल, अब मैं 'गंगा' हाथ जोर कर भाषी, प्रभु मैं मरकत :
इनका जन्म मध्य प्रदेश के ईसागढ़ में हुआ । ईशागढ़ में जन्मे अनेक पदों के रचयिता भागचंद और 'मरकत' को ठोस प्रमाणों के अभाव में एक नही माना जा सकता । 'मरकत विलास' को प्रशस्ति के अनुसार 'मरकत' ने अपनी युवावस्था बजरंग गढ में साधर्मियों के साथ पूजा, स्वाध्याय और तत्त्वचर्चा में व्यतीत की। 'मरकत' मंदसौर और शेरगढ़ भी रहे। इन्होंने अपना 'मरकत विलास' माघ कृष्ण सप्तमी संवत् १९७० को इन्दौर में पूर्ण किया। मध्य प्रदेश के कई स्थानों में घूमते रहने से 'मरकत' का व्यवसाय राजकीय सेवा प्रतीत होता है ।
यंत्र पूर्णमासी संवत् १९२३ वि० को अतिशय क्षेत्र बैनाड़ा तथा उसके बाद शान्तिनाथ मन्दिर झालरा पाटन जाने का उल्लेख मिलने के कारण कवि का सम्बन्ध राजस्थान से भी माना जा सकता है ।
मनैकान्स
पाप बहाऊं । दीक्षा पाऊ ।
है सीता के प्रति आसक्ति । वह एक भक्त जो जैन धर्मावलम्बी है । जो नलकूबर को पत्नी उपरम्भा का प्रेम प्रस्ताव अस्वीकार करता है और केवली का उपदेश सुनकर यह धर्म प्रतिज्ञा करता कि मैं विरक्त परनारी का स्पर्श नहीं करूंगा | अपने जीवन के अन्तिम दिनो मे वह सीता का राम के प्रति प्रेम देखकर सीता हरण पर हार्दिक पाश्चात्ताप करता है ।
यहाँ रावण के चारित्र में हमे "मुंह मे राम बगल में छुरी" वाली उक्ति चरितार्थं होती है क्योंकि यहां हमें रावण का दोहरा चरित्र दिखाई पड़ता है। वह किसी कार्य को करने अथवा प्रण लेने से पूर्व उसके परिणाम तथा कुपरिणाम के विषय मे सोच लेता है । उसने जब नलकूबर को पत्नी उपरम्भा का प्रेम प्रस्ताव ठुकरा दिया था तब दोहरा चरित्र दिखाई देता है एक तरफ तो उसने
सोनी जी की नसियां अजमेर के शास्त्र भण्डार में संगृहीत 'मरकत विलास' के भक्तिपूर्ण पदों में से एक पद है
( पृ० ११ का शेषांश)
उसकी विद्या प्राप्त करने की बात सोचो कि विद्या प्राप्त कर उसको वापिस नलकबर के पास भेजने की दूसरे रावण उसको चाहता नही था ।
मरजी ।
सुनो जिनराज या श्ररजी, करो मो ऊपरं पड़ो संसार की धारा, न सूके वार का पारा । पुकारी दीन हुई हारा, करौ भव सिन्धु से पारा । 'टेक' करग मो दुख अति दीना, सुरस निज कर की हर लीना । प्रभु मैं प्रायो तुम सरना, हरो मेरी जन्म पर मरना । तिरो नहिं जब तक संसारा, सेवा निज बीजे भव सारा । हरो प्रज्ञान अंधियारा, करो रवि ज्ञान उजियारा । करो प्रभु मोह का नासा, रतनत्रय की परकासा । अरज मेरी हृदय धारो, 'मरकत' का कारण यह सारो ।
भक्तिपूर्ण पदों के अतिरिक्त मरकत के ३२ दोहे तथा एक गद्य रचना द्रव्य संग्रह की वचनिका भी उपलब्ध है ।
दीग, भरतपुर व अजमेर के शास्त्र भंडारी में प्राप्त 'हितकर', 'सेढूं', 'गंगा' और 'मरकत' के भक्तिपूर्ण पद जैन भक्ति स्तोतस्विनी के अगाध और विस्तृत प्रवाह के अभिव्यंजक हैं । 00
दूसरी बात रावण ने केवली भगवान के निकट यह प्रण लिया था कि जो स्त्री मुझे नही चाहेगी मैं उसका स्पर्श भी नही करूँगा । उसने यह सोचकर यह प्रण लिया था कि मुझे देखकर कोन स्त्री मुझे नही चाहेगी क्योंकि मैं तो इतना बलवान, सौन्दर्ययुक्त तथा बलवान हूं। मुझे अपनाना अस्वीकार ही नहीं कर सकती तथा मोहित हुए बिना नही रह सकती अर्थात् मुझे वह श्रवश्य हो चाहेगी। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि रावण के चरित्र में दोहरा चरित्र पाया जाता है। वह किसी कार्य को करने से पहले परिणाम के विषय में सोच लेता है । कहा जाता है कि प्रतिवासुदेव सदैव वासुदेव का विरोध करते हैं । वासुदेव अपने भाई बलदेव के साथ ही युद्ध करते हैं और प्रतिवासुदेव का वध करते हैं । बलदेव अपने भाई की
मृत्यु के कारण शोकाकुल होकर जैन दीक्षा लेते हैं मोर मोक्ष प्राप्त करते हैं। राम, लक्ष्मण, रावण ये क्रमशः बलदेव, वासुदेव भोर प्रतिवासुदेव कहे गये हैं । ब