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________________ दशलक्षण पर्व : क्या यह शास्त्र सम्मत है ? 0ॉ कपूरचन्द जैन, प्रवक्ता एवं अध्यक्ष जैन समाज में प्रमुख रूप से मनाये जाने वाले पों में पर्व को भाद्रपद मे मनाये जाने के कारण का उल्लेख जैन दशलक्षण, रत्नत्रय, अष्टाहिका, आदि की गणना होती है। शास्त्रों में प्राप्त नहीं होता। ये पर्व शाश्वत पर्व है, यतः ये किसी व्यक्ति विशेष या हां भाद्रपद शुक्ल पंचमी को पृथ्वी पर पुननुष्यावास घटना से सम्बन्धित नहीं है। ये आध्यात्मिक भावो से होने का उल्लेख जैन शास्त्रो मे बहुधा मिलता है। सम्बन्धित हैं और सदा से चले आ रहे हैं। अत: अनादि जैन दर्शन के अनुसार भरत और ऐरावत क्षेत्रों में हैं तथा सर्वदा चलते रहेंगे। इनमे भी पर्यषण या दश उत्सपिणी और अवसर्पिणी कालों का चक्र घूमता रहता लक्षण पर्व ही सबसे प्रमुख हैं। है।' उत्सपिणी वृद्धि का और अवसर्पिणी ह्रास का सूचक यह पर्व दि. जैन परम्परानुसार भाद्रपद शुक्ल पंचमी है इन दोनों के छह छह भेद है। वर्तमान में प्रवपिणी से चतुर्दशी पर्यन्त १० दिन मनाया जाता है, जबकि म्वे - का पंचम काल चल रहा है। ताम्बर परम्परा मे भाद्रपद कृष्ण १२ या १३ से भाद्रपद पंचम काल में एक एक हजार वर्ष पश्चात् इक्कीस शुक्ल चतुर्दशी या पचमी तक कुल ८ दिन मनाया जाता कल्कि होते हैं जो मुनियों के पाणिपुट में रखे गये प्रथम है' इसका अन्तिम दिन संवत्सरी कहलाता है। ग्रास को भी कर रूप में मांगते हैं। अन्तिम जल मन्थन इस पर्व के लिए 'पर्युषण' और 'दशलक्षण ये दो नाम नाम का कल्कि होगा, उसी समय अन्तिम वीरांगद साधु, प्रचलित हैं। दिगम्बर परम्परा मे 'दशलक्षण' और श्वे सर्वश्री आयिका, अग्गिल धावक तथा पंगूसेना श्राविका ताम्बर परम्परा मे 'पर्युषण' अधिक प्रयुक्त है। इनके अर्थ मोरपर्व के कारणो पर विचार ही प्रस्तुत निबन्ध का होगी तब पंचम काल के तीन वर्ष, ८ माह, . पक्ष शेष विषय है। रह जाने पर कल्कि ग्रास को कर रूप में लगा। अत: 'दशलक्षण का अर्थ है 'दश लक्षणों या स्वरूपो वाला। चारों तीन दिन के सन्यास पूर्वक कार्तिक वदी अमावस्या दि. जैन शास्त्रों में संवर के हेतुओं में तीसरा हेतु 'धर्म' को स्वाति नक्षत्र में मृत्यु को प्राप्त होगे और उसी दिन कहा गया है उमास्वामी ने लिखा है-'स गुप्तिसमिति आदि मध्य और अन्त मे क्रमशः फर्म राजा एवं अग्नि का धर्मानुपेक्षापरिषहजयचारित्रेः' अर्थात् वह संवर गुप्ति, नाश हो जायगा। इसके बाद मनुष्य मत्स्यादि का भक्षण समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परिषह, जय और चारित्र से करने वाले और नग्न होंगे। यहां मरे हुए जीव नारकी होता है। आगे गुप्ति, समिति बता कर धर्म का स्वरूप और तिर्यच होंगे तथा नरक और तिथंच गति से आये कहना चाहिए था पर सीधे उसके-उत्तमक्षमामार्दवार्ज वशां च सत्यसंवरतपस्त्यागाविचन्यब्रह्मचर्याणिधर्म: कहा छठे काल के अन्त में संवर्तक वायु से पर्वत, भूमि, गया है अर्थात् उत्तम क्षमा, मादव, प्रार्जव, शोच, सत्य, वृक्ष आदि नष्ट हो जाते हैं, जीव या तो मूर्छित हो जाते संयम, तप, त्याग, आविरुचन्य और ब्रह्मचर्य धर्म है। यहां हैं या मर जाते हैं। कुछ जीव बिलों आदि में घुस जाते धर्म एक वचन है, स्पष्ट है कि ये सभी मिलकर धर्म हैं। है। अन्त मे पवन, अति शीत, साररस, विष, अग्नि, धूल दूसरे शब्दों में इतने रूपों वाला धर्म है। और धुआं इन सात की, सात सात दिन (४६ दिनों) वर्षा यह तो धर्म का उल्लेख हुआ दशलक्षण पर्व का नही। होती है जिससे प्रलय छा जात है।'
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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