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१७४३ कि. २
अनेकान्त
___ सपिणी के पहले काल मे जल, दूध, घी, अमृत रस 'माचेलक्कुटेसिय, सिज्जायररायपिंड कि इकम्मे । मादि से भरे हुए नेघ एक एक सप्पाह बरसते है। यहा वयजेटटपडिक्कमणो मास पज्जोसवणकप्पे ॥ 'त्रिलोक सार' की निम्न गाथा विचारणीय है
दोनों स्थानो पर अन्तिम कल्प 'पज्जो सवण' है उस्सप्पणीयपढमे पुवखरखीरधदमिदर सा मेघा। जिसका सस्कृत रूपान्तर पर्युषण प्रतीत होता। भगवती सत्ताहं बरसंति य णग्गामत्तादि आहारा ।। आराधना के टीकाकार अपराजित सूरि ने 'पज्जोसवण'
इसका सीधा अर्थ है कि पुष्कर जल, क्षीर, दूध, घी, का अर्थ 'वर्षा काल के चार मासों में एक स्थान पर अमृत तथा रस वाले मेघ एक एक सप्ताह या सप्ताह भर रहना' किया है। पं० आशाधर ने 'पज्जो' शब्द काही बरसते है किन्तु व्याख्याकार माधवचन्द्र ने अपनी संस्कृत उक्त अर्थ करते हुए 'सवणकप्पो' का अर्थ 'श्रमणों का व्याख्या' तथा श्रद्धेय प० कैलाश चन्द्र शास्त्री ने अपने लेख कल्प' किया है।" में सात रूप सप्ताह उक्त मेघों की वर्षा होने का उल्लेख
पज्जोसवण कल्प को वर्षावास कहा गया है। इसके किया है।० १० जी ने इसी आधार पर श्रावण कृष्ण
लिए पर्युषण शब्द संस्कृत में व्यवहृत है और 'परियाय
ववत्यवणा, पज्जोसमणा, पागइया, परिवसना, पज्जुसणा, प्रतिपदा से ४६ दिन मानकर भाद्रपद शुक्ल पचमी को
वासवास, पढमसमो-सरण, व्वणा तथा जेट्रोमाह इसके पृथ्वी पर मनुष्यावास की बात कही है, जो समीचीन नही
पर्यायवाची वताये गये है।" जान पड़ती ।११ इसी प्रकार तिलोयपण्णत्ती मे ४ प्रकार के मेघों का
यद्यपि ये सभी नाम एकार्थक है तथापि व्युत्पत्ति भेद ७-७ दिन बरसने का उल्लेख है" इस प्रकार इस आधार
के आधार पर इनमे किंचित अर्थभेद भी है। किन्तु
अर्षावास (वर्षाकाल के चार माह एक स्थान पर रहना) पर जो भाद्रपद शुक्ल पचमी को मनुष्यावास की बात कही जाती है वह ठीक नहीं ।
अर्थ सभी में निहित है । साधुओं को आषाढी पूर्णिमा तक
नियत स्थान पर पहुंच श्रावण कृष्ण पचमी मे वर्षावास इस पर्व के लिए बहुतायत से प्रयुक्त होने बाला दूसरा
आरम्भ करना चाहिए। उचित स्थानादि न मिलने पर शब्द 'पर्युषण है। पर्यषण शब्द परि उपसर्ग पूर्वक-उष
श्रावण कृष्ण दशमी अन्यथा अमावश्या को, उतने पर भी से त्वद् (अन्) प्रत्यय करने पर बना है।" उष् का अर्थ
उचित क्षेत्र न मिले तो पांच-पांच दिन बढाते हए भाद्रपद निवास करना है। अतः पर्युषण का अर्थ होगा-'परि
शुक्ला पंचमी को अवश्य ही पर्यषण कल्पारम्भ करना समन्नात उष्यते स्थाप्येतेचम् यस्मिन् तत् 'पर्युषणम्' डॉ.
चाहिए। यदि उचित क्षेत्र न मिले तो वृक्ष के नीचे ही देवेन्द्र मुनि शास्त्री ने परि उपसर्ग पूर्वक वस से अन् प्रत्यय
कल्पारम्भ करे। पर इस तिथि का उल्लंघन किसी भी करके पर्युषण की उत्पत्ति मानते हुए इसका अर्थ किया है
दशा मे नही करना चाहिए। पंचमी दशमी या पन्द्रहवी मात्मा के समीप रहना।"
इन पर्वो मे ही कल्पारम्भ करना चाहिए अपर्व मे नही । पर यह पर्युषण पर्व का उल्लेख नही पर्युषण कल्प का
इस प्रकार भाद्रपद शुक्ल पचमी से पर्दूषण कल्प का उल्लेख है । पर्युषण के लिए प्रयुक्त होने वाला मूल शब्ब
आरम्भ हो सकता है। पर पर्युषण पर्व का उल्लेख नही 'पज्जोसवण' है भगवती आराधना में साधु के दम कल्प मिलता जो दस या आठ दिन मानाया जावे। यह कैसे बताते हुए कहा गया है
आरम्भ हो गया ? 'कल्पसूत्र' तथा 'समवायोग' में भ० आचेलक्कुद्देसियसेज्जाहररायपिंड किरिषम्मे।
महावीर द्वारा आषाढी पूर्णिमा से ५० दिन बाद संवत्सरी जेट्रपडिक्कमण वि य मांस पज्जो सवणकप्पो ॥१५
मनाने का उल्लेख है, पर जैन परम्परा तो महावोर से भी इसी प्रकार आवश्यक नियुक्ति-मलयगिरिवृत्ति आदि पूर्ववर्ती है। प्रवक्ता एव अध्यक्ष संस्कृत विभाग, में भी उक्त दस कल्पों का उल्लेख कुछ शब्दों के हेरफेर
श्री कुन्दकुन्द महाविद्यालय, खतौली (उ०प्र०) के साथ मिलता है
(सन्दर्भ पृ. १६ पर)