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________________ भूले-बिसरे जैन मरत कवि सेढ़ का लिपि-कौशल प्रशंसनीय है। सेढ़ ने एक कवित्त गंगा: में जहां दीग के दो परोपकारी सेठ अभेराम व चेयन की गंगादास द्वारा लिपिकृत आदित्यवार कथा दिगम्बर प्रशंसा की है वहां दूसरे कवित्त में कामां के तेरापथी जैन जैन मन्दिर करौली में उपलब्ध है। शायद इन्होंने 'गंगा' मन्दिर की ख्याति भी अभिव्यक्त की है। इस तरह भरत उपनाम से पद लिखे हों। पुर, कामां व दीग तीनों ही स्थान कवि के कार्यक्षेत्र 'गंगा' नाम से पूर्णतः अजात जैन कवि के पंचायती प्रतीत होते हैं। दिगम्बर जैन मन्दिर भरतपुर के एक गुटके में ५० पद सेढ़ के फुटकर १२ दोहे, कुछ कवित्तो के अतिरिक्त प्राप्त है। इन पदों मे भक्ति और राजुल विरह दोनों की सारंग, सोरठ, गौरी, धनाश्री, काफी, ईमन और बसत प्रधानता है। रागो मे ६० पद प्राप्त होते हैं। सेहूं जिनेन्द्र के पूजा- अपने प्राराधक के प्रति अगाध विश्वास 'गंगा' के कई अर्चन और नामस्मरण में बड़ी रुचि रखते हैं पदों में दृष्टिगोचर होता हैजिनराज देव मोहि भाव हो। अजी मोहे बल नाथ तिहारो। कोई कछ न कहो, क्यों भाई और न चित्त सुहावं हो। जगपति या संसार में, सब कार्य प्रसारो। जाको नाव लेत इक छिन मैं, कोट कलेस नसाव हो। जनम जरामृत आदतें, सुख को नहिं पारो। पूजत चरन कंवल नितता के, मन वांछित रिध पाव हो। सरणागत प्रतिपाल जी, मम रिट निहारो। तीन काल मन वच तन पूज, सेढूतिन जस गावं हो। लख चौरासी जोन सौ, मोहि पार उतारो। दीनानाथ सुनो यही, अरजी प्रति पालो। राग-द्वेष जन्य कष्टों से पीड़ित होकर 'सेतू' भक्ति 'गंगा' चाहे सो करौं, हों वास तिहारो॥ भाव की ओर मुड़े है। जिनेन्द्र के आश्रय में उन्हें बड़ा 'गगा' का आत्म निवेदन भी करुणापूर्ण है। अपने विश्वास है गरीब नवाज से उनका कहना हैकौन हमारी सहाइ, प्रभू बिन कोन हमारौ सहाह। अरज सुनो महाराज दीन की, प्ररज सुनो महाराज । और कुदेव सकल हम देखे, हांहां करत बिहाइ । भय भाव से इन कमनि घेरो, राख लेहु महाराज। निज दुख टालन को गम नाहीं, सो क्यों परं नसाय । राग रोस कर पीड़ित अति हो, सेवग क्यों सुखदाय । गरणधर तुव गुण पार न पावं, चार ज्ञान के राज । या ते संकलप विकलप छाड़े, मन परतीत जुलाइ। सो हम मंदमतो नित हित कों, विनती करत स्वकाज । 'सेटू" यो भव भव सुखवाई, सेवी श्री जिनराइ॥ तुम पद सेवत पाप नसावत, पूजत विघन विलात । 'गंगा' भाग उर्व प्रब पाये, अब सनों गरीब निवाज । भक्तिकाव्य परम्परा के सभी भक्त कवियो के समान सेढ़ को भी आराध्य के नाम-स्मरण में अपार शक्ति भैरव, ईमन, परज, जगलो, सोहनी, विलावल, वर्धरी, जवन्ती विनास, कान्हरो और षमावच आदि रागों में प्रतीत होती है, अत: वह मन, मर्म और वचन से उसमे निष्ठावान् है लिखित विभिन्न पदो मे कुछ पद राजुल विरह से सम्ब न्धित भी मिलते हैं । नेमिनाथ के विरक्त होने पर राजुल थी जिन नाम अधार, मेरे श्री जिन नाम अधार । भी मोक्ष सुख पाने का निश्चय कर लेती हैपागम विकट दुख सागर मैं से, ये ही लेह उबार । या पठंतर और नहिं दूजो, यह हम नहर्च पार । कौंन भांति समझाउं, अब मैं कौन भाँति समझाउं या चित धर ते पशु पंषी भी, उतरे भव दधि पार । सिद्ध रमनी अटक टेक । नर भव जन्म सफल नहीं ता विन, पोर सब करनी छार। रथ फेरू फेरू गिर को अब, उन बिन क्यों सुख पाऊं। 'सेट' मन और वचन काय करि, समिरत क्यों न गवार। मोको त्याग राग अक्षय सख. क्यों करमन बिरमा।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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