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________________ भले-बिसरे जैन भक्त कवि 0 डॉ० गंगाराम गर्ग पिछले कई वर्षों से शोध कों एवं माहित्य-रसिको के राग सारग 'तिताल' में लिखित एक अन्य पद में प्रयत्न से हिन्दी का अप्रकाशित जैन साहित्य चचिन हुआ हितकर' का आराध्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव भी है; फिर भी कई काव्य-कृतिया अभी तक प्रकाश को दृष्टिगत होता हैकिरणें नहीं देख पाई हैं। हितकर', 'सेढ़', 'गंगा' और अरज करां छां जिनराज । 'मरकत' रीतिकालीन जैन भक्तिकाव्य-परम्परा के ऐसे ही तारण तिरण सुन्यौ मोहि तार्यो, थान म्हां की लाज । अज्ञात कवि हैं मव भव भक्ति मिलो प्रभु थांकी, याही बंध्या माज । 'हितकर' (हेतराम): निज प्रातम ध्याउं शिव पाउ, हितकरि करिस्यां काजजी॥ दिगम्बर जैन मन्दिर (बड़ा) दीग के एक गुटके मे वीतरागी नेमिनाथ का सामीप्य-लाभ पाने की राजुल रागमाला के क्रम से अन्य कवियो के साथ भेरू, विलास, की व्यग्रता का अनुभब सभी जैन भक्तों ने किया है। आसावरी, सारंग, धनाश्री, कल्याण, ईभन आदि राग उस में संत कवियो की विरह भावना जैसी मर्म स्पशिता रागनियों में हितकर' छाप से कई पद मिलते है। इसी विद्यमान है। 'हितकर' का यह पद कितना वेदनापूर्ण हैगुटके के अन्त में चौबीस म्हाराजन को बधाई 'हेतराम' तन को तपति जहि मिटि है मेरी, के नाम से पृष्ठ ९८ से १०३ तक अकित है। शायद हेत नेम पिया कंवृष्टि मर देखूगी। राम का ही अपर नाम हितकर' हो। 'चौबीस म्हाराजन जब बरसन पाऊंगी उनको, जनम सुफल करि लेखंगी। की बधाई' मे तीथंकरो के जन्मोत्सव, जन्म स्नान, वाद्य अष्ट जाम ध्यान उनको रहत है, ना जाने कब भेटूंगी। व नृत्य का वर्णन है। इसके एक दो पदो मे हितकर' 'हितकरि' जो कोई प्रानि मिलावै, जिनके पाय सीस टेकेगी। की छाप भी प्राप्त होती है प्राप्त पदो मे से अधिकाश पदों का आकार छोटा होने एरी प्रानन्द है घर घर है द्वार। के कारण उनमे भाव-गाम्भीर्य अधिक है। पावस ऋतु का समुद्विज राजा घरां री, हेली पुत्र भयो सुकमार ।। एक मनोहर चित्र है चहुं ओर बदरिया बरसें प्ररी ए हेली री, जा के जनम उछाह को री, प्रायो इन्द्र सहित परिवार । मापक जन कौं मोद सौ हेली, दीनो द्रव्य अपार । घरड़ धरड़ घन घर। नामकरन सब नै रह्यो री, हेली हितकारी मुषकार ।। नेम प्रभू गिरनारि विराज, देखन . जिय तरस । घुमड़ घुमड़ घनश्याम श्वेत रंग, बिजुरी चमकत दरस । ढूंढारी भाषा का पर्याप्त पुट 'हेतराम' या 'हितकर' राजुन कहें 'हितकर' जिन देखू जबही मम मन सरस । के जयपुर क्षेत्र से सम्बद्ध होने को प्रमाणित करता है। अपने आराध्य से जन्म-मरण का सकट मिटवाने को यह सेहूं: प्रार्थना बड़ी बैन्यपूर्ण है भरतपूर के पंचायती दिगम्बर जैन मन्दिर में सेढं म्हे तो पाका सू, या ही भरज करां छां हो जिनराज । द्वारा लिपीकृत दो काव्य नवलशाह का दो वर्षमान पुराण जामन मरन महा दुख संकट, मेट गरीब नेवाज । और रामचद का 'चतुर्विशति जिन पूजा' उपलब्ध है। • म्हे थांका ते म्हांका साहब, थांम्हांकी लाज। दोनो ग्रन्थों का लिपिकाल सवत् १८७७ एव संवत् १८८८ मा विधि सौभव उदधि पार हौं, 'हितकरि'करिस्यो काज। है। सुवाच्य अक्षरों में दोनो प्रन्या के लिखे होने के कारण
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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