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संस्कृत के जन सन्देश काव्य
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में चित्रित है। क्षमा, त्याग, अहिंसा, धैर्य आदि इनके का उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति है जो तप एवं साधना के द्वारा व्यक्यित्व की मुख्य विशेषताएँ हैं। ये दार्शनिक चिन्तन में प्राप्त किया जाता है। मोक्ष प्राप्ति शान्ति एवं धैर्य के लीन दिखलाई पड़ते है । तपस्वी के रूप में चित्रित इनका द्वारा प्राप्त होती है। इसी कारण जैन सन्देश काव्यों में चित्रण एक ऐसे महान चित्रण के रूप में चित्रित है जो श्रगार रस की अपेक्षा शान्त रम का आधिपत्य है। शान्त तप एव योग साधना मे रत उस आध्यात्मिक तत्व की रस के साथ-साथ इस अध्याय मे ममस्यापूर्ति विधा के प्राप्ति का इच्छक है जिसे मोक्ष कहते है। काव्यान्त में विकास पर भी प्रकाश डाला गया है। समस्यापूति विधा मोक्ष प्राप्त कर नायिका को भी दीक्षा दान देते हैं। यूं तो प्राचीन काल से ही चली आ रही है परन्तु विकसित राजुलमति, कोशा एवं वसुन्धरा को एक विरहणी के रूप रूप से इसे बाद ही में मिला। प्राचीन काल मे मौखिक में प्रस्तुत किया गया है। इन तीनो पात्रों का चित्रण रूप से इम विधा का प्रयोग किया जाता था परन्तु बाद पूर्णतः सांसारिक है। संसार के भोग विलासों में लिप्त में काव्य निर्माण में इस विधा का प्रयोग किया जाने ये प्रिय वियोग से पीड़ित है। सांसारिक भोग विलासों में लगा। मेघदूत के अन्तिम चरणों को लेकर जैन कवियों लिप्त होने पर भी ये पतिव्रता एव आदर्श नारी के रूप में ने समस्यापूर्ति रूप में जैन सन्देश काव्यों की रचना की। काव्य में प्रतिष्ठित है। अपने आदर्शों एवं कर्तव्यों को ये इन काव्यों की यह विशेषता है कि उन्होंने मेघदूत को भली-भांनि जानती है । विजयमरिण का चरित्र पार्श्वनाय अपना आधार मानकर उसके श्लोकों के अन्तिम चरणों आदि के चरित्र से विल्कुल विपरीत है । वह न तो तप मे की समस्यापूर्ति की है। मेघदूत के इनोको में पूर्णतः सांसालोन है और न ही अलौकिक सौन्दर्य (मोक्ष) को प्राप्ति रिक मोह विलासों के दर्शन होते हैं । इन सासारिक भावका इच्छुक है। विजयगणि का चरित्र सासारिक भाव- नाओं को स्पष्ट करने वाली पक्तियों को जैन कवियों ने नाओं से भी लिप्त है यही कारण है कि वह अपनी प्रिया अपने विचारो एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया के वियोग की पीड़ा से पीड़ित रहता है तथा उससे मिलन है जो कि अपने आप में चातुर्य एवं अलोकिक प्रतिभा का की आकांक्षा रखता है। इन सब विभिन्नताओं के होने द्योतक है। शृंगारिक पक्तियो को बड़े ही सुन्दर ढग से पर भी अन्य पात्रों से एक समानता हमे इस चित्रण मे आध्यात्मिकता की ओर मोड़कर इन कवियों ने श्रमण मिलती है और वह है क्षमावान होना । वह अत्यन्त धैर्य- सस्कृति का भी पूर्णरूपेण निर्वाह किया है। समस्यापूर्ति शाली एव क्षमावान प्रकृति का है। इस प्रकार इस अध्याय विधा में दूसरे के द्वारा निर्मित पक्तियों को अपने विचारों मे पात्रो के चरित्र चित्रण को प्रस्तुत किया गया है। में परिवर्तित करने की कुशलता का ही परिचय दिया जाता
षष्ठ अध्याय में शान्त रस की अभिव्यंजना एव है और ये कुशलता इन जैन सन्देश कायो मे स्पष्टरूप से समस्यापूर्ति विधा के विकास को प्रस्तुत किया गया है। दृष्टिगोचर है। मेघदून और जैन सन्देश काव्यो का मेघदूत इन काव्यो का प्रेरणा स्रोत रहा है और मेघदून उद्देश्य पथक-पृथक है फिर भी जैन कवियो ने मेघदूत की मे पूर्णतः शृगार रस का राज्य दिखाई पड़ता है किन्तु शृगारिक पंक्तियो की समस्या पूर्ति करते हुए अपने विचारों जैन कवियो ने अपने जैन सन्देश कायो मे शृगार रस के में परिवर्तित कर अपने उद्देश्यों की पूर्ति की है। साथ-साथ शान्त रस की भी अभिव्यजना की है। काव्यो सप्तम अध्याय में जैन सन्देश काव्यों में वर्णित श्रमण का प्रारम्भ तो शृगार रस से होता है परन्तु अन्त शान्न संस्कृति को गित किया गया है। इस अध्याय को रस मे। इस प्रकार शृंगार रस को जैन सन्देश काव्यों में श्रमण संस्कृति एवं जैन आचार धर्म दर्शन दो भागों में शान्त रस में परिवर्तित कर दिया गया है। विरह दग्ध विभक्त किया गया है। श्रमण संस्कृति की प्रमुख विशेषनायिका की उत्तेजित भावनाओ को नायक अत्यन्त सर- ताओं का वर्णन कर प्रस्तुत जन सन्देश काव्यों में इन विषे. लता एव सौम्यता के साथ शान्त करता है तथा संसार के षताओं को वणित किया गया है। जैन सन्देश काव्यों में प्रति उसके क्षणिक भ्रम को दूर कर देता है। इन कामों श्रमण संस्कृति के सभी नियमो एवं मान्यताओ को महस्व