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________________ २४, वर्ष ४३; कि० ३ 'अनेकान्त पूर्ण स्थान प्राप्त है। जैन कवियों ने अपने काव्यों मे श्राप सस्कृत साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान रहा है। एवं दण्ड जैसी किसी प्रथा को वणित नहीं किया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध के सार रूप मे हम यह कह सकते ईश्वर जैसी किसी परोक्ष शक्ति का इन काम्यो मे वर्णन हैं कि जैन सन्देश का अपने आप मे पथक एवं मौलिक नही मिलता । तप, वैराग्य एव सयम को इन काव्यो के विशेषताओं को लेकर चलते हैं। इन काव्यों मे विशेषतः नायक ने अपने जीवन मे सर्वाधिक महत्व दिया है। संस्कृत मोक्ष एवं श्रमण संस्कृति को वणित किया है। इन काव्यों के जन सन्देश काव्यों में चरित्र का विकास अनेक जन्मों के प्रारम्भ मे शृगार रस को प्रतिपादित किया गया है। के बीच हुआ है जो कि श्रमण सस्कृति की एक विशेषता परन्तु काव्यान्त तक आते-ते शृंगार रस शान्त है। इसी अध्याय के अन्तर्गत जैन ग्राचार धर्म दर्शन के रस में परिवर्तित हो जाता है। कायारम्भ मे तो सहदय विभिन्न सिद्धांतो एवं नियमो को प्रस्तुत किया है। आत्मा जन काव्यानन्द की प्राप्ति करते हैं परन्तु काव्य के उत्तकी सत्ता को सिद्ध करते हुए भौतिक स्वरूप के भ्रम को राध में आध्यात्मिक एव सदाचार तत्त्वो को ही स्पष्ट स्पष्ट करने हेतु त्याग, तप, योग आदि को विशष रूप से किया गया है। इन सन्देश काव्यों की रचना मन्दाक्रान्ता वरिणत कर जैन धर्म दर्शन का उल्लेख किया गया है। छंद में हुई है। उपमा, यमक, उत्प्रेक्षा, श्लेष आदि अलंजैन दर्शन के सभी तत्त्व-जीव, अजीव आदि का स्वरूप कारों की सुन्दर योजना की गई है। इन काव्यो मे वेदी इस अध्याय मे नरिणत है। इसके अतिरिक्त जैनाचार के शेली का प्रयोग किया गया है। भाषा प्रसाद गुण, सरस अन्तर्गत श्रावकाचार एवं मुनि-आचार सम्बन्धी सभी एवं सरल है तथा सर्वत्र प्रवाह दृष्टिगोचर होता है पदलानियमो का उल्लेख इस अध्याय में वर्णित है। लित्य को दृष्टि से यत्र-तत्र सुन्दर सुभाषितों का प्रयोग अष्टम अध्याय में उपसंहार के अन्तर्गत प्रस्तुत किया गया है। अत. मस्कृत के जैन सन्देश काव्य भाषाअध्ययन का निष्कर्ष, महत्व एव योगदान को स्पष्ट किया शैली, अलकार, रम, भाव विश्नेषण एव पदलालित्य की गया है। आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट कर मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से पृथक् एव मोलिक स्थान रखते हैं। और प्रेरित करने के कारण इन जैन सन्देश कायो का -धामपुर (नजीबाबाद) - प्रात्म-ज्ञान और संयम की महिमा ~ आत्मा के बारे में जानकारी करना और आत्मा को जानना इसमें मौलिक अन्तर है। आत्मा के बारे में जानना शास्त्रों से, चर्चा चितन से हो जाता है परन्तु आत्मा को जानना आत्मा के साक्षाकार से ही होता है अत: मोक्षमार्ग में आत्मा को जानना जरूरी है। आत्मा को जानने में शास्त्रज्ञा और चर्चा बाहरी माध्यम मात्र हो सकता है । इसलिए मात्र चर्चा और चितवन से पण्डित बन सकता है परन्तु आत्मज्ञान बिना मोक्षमार्गो नहीं हो सकता। इसलिए प्रवचनसार में कहा है कि आगम ज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम तभी सार्थक है जब साथ में आत्मज्ञान हो। आत्मज्ञान और संयम बिना मोक्षमार्ग केवल मात्र आगम ज्ञान से नहीं होता। जो आत्मज्ञान प्राप्त करना चाहे उसके लिए आगम ज्ञान सहायक है । जैसा वस्तुतत्त्व का श्रद्धान किया है वैसी ही प्रवृति का होना चारित्र है । अतः सम्यकदर्शन-ज्ञान-चारित्र बिना न मोक्षमार्ग कभी हआ, न है, न होगा। तीनों को एकता बिना मात्र एक-एक से मोक्षमार्ग मानना भी अज्ञानता है ऐसा राजवातिककार ने कहा है। सर्वार्थसिद्धि की प्राप्ति तो आत्मज्ञानपूर्वक संयम की पूर्णता न होने से हुई परन्तु ३३ सागर तत्त्वचर्चा करने पर भी तोन चौकड़ी टस से मस नहीं हुई । वह तो तभी नष्ट हुई जब मनुष्य पर्याय पाकर संयम की आराधना करी। क्या ११ अंग का पाठी मिथ्यादृष्टि तत्त्वचर्चा और चितवन करने में कोई कसर रखता है क्या? हजारों वर्षों तक चितवन मनन करने पर भी पहला गुणस्थान बना रहता है । महिमा तो आत्मज्ञान और संयम को है जो अन्तरमहूर्त में इसे मोक्ष का पान बना देता है। बाबूलाल जैन कलकत्ता वाले
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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