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राज्य के ग्यारहवें वर्ष में प्रत्येक पूर्णिमा के दिन जिन भगवान की पूजा के दिन दिया गया था यह भूमि पलासिका ग्राम के कईमपटी की थी। (Epigraphica Indica Vol. 6 Page 27-29 ) हरिवर्मा एक लेख में कूर्चक सम्प्रदाय को दान देने का उल्लेख है और उसी में वारियेणाचार्य संघ का भी उल्लेख है जिसके प्रधान चंद्रक्षोत मुनि थे (वही, पृ० ३०-३१) हरिवर्मा के ही एक अन्य लेख में चालय के लिए भ्रामदान का उरलेख है। यह चैत्यालय अरिष्टी नाम के भ्रमण संघ की सम्पत्ति के रूप में मान्य था । (वही, पृ० ३०-३१) हरिवर्मन के पूर्ववर्ती राजा काकुत्स्यदर्शन शांतिवन और रविवर्मन भी जैनधर्म के अनुयायी थे जिनके राज्य मे जैनाचार्य श्रुतकीति दामकीर्ति कुमारदत्त, हरिदत्त आदि जैसे विद्वान अभिभावक थे । यहा यह उल्लेखनीय है कि पलासिका (हल्सी) सौराष्ट्र की पलासनी जोर पश्चिमी बंगाल की पलासी नगरी से कोई भिन्न नगरी होनी चाहिए जो महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर स्थित रही होगी ।
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पर अभिलेखों आदि के आधार पर वह कहा जा सकता है कि जैन धर्म के प्रति उनका विशेष झुकाव था। इन शासकों में मृगेशवर्मन (४५०-७८ ई०) का नाम विशेष उल्लेखनीय है उसके अनेक ताम्रपत्र और अभिलेख उपलब्ध होते हैं जिससे उसका जैनधर्म के प्रति झुकाव सिद्ध होता है । एक ताम्रपत्र में जैनधर्म के तीन समुदायो के लिए दान देने का उस्ले माया - १. तीन निवर्तन जमीन मातृसरित से लेकर इमिनी संगम तक कूर्वक संप्र को दी, २. कालयेगा गाँव का एक भाग श्वेत पट अर्थात् श्वेतांबर संप्रदाय को दी, ३. और उसी का दूसरा भाग दिगम्बर सम्प्रदाय को प्रदान किया। हालमणि अभिलेख भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है । साधारण तौर पर यह माना जाता है कि श्वेतांबर सम्प्रदाय का अस्तित्व दक्षिण में नही था पर इस अभिलेख से इस भ्रम का खंडन हो जाता है । इतना ही नही बल्कि यह भी कहा जा सकता है कि श्वेतांबर सम्प्रदाय दक्षिण मे लोकप्रियहोने लगा था अन्यथा मृगेश वर्मा उसकी ओर आकर्षित नहीं होता। इसी तरह के कुछ अन्य अभिलेखों और साहित्यिक प्रमाण मिलते हैं जिनसे दक्षिण भारत में श्वेतांबर सम्प्रदाय का अस्तित्व भलीभांति सिद्ध होता है। जैसा हम जानते हैं यापनीय सम्प्रदाय का संस्थापक श्रीकलश स्वयं श्वेताबर सम्प्रदाय का पोषक था और दक्षिषवासी था इससे इस समय को और भी पीछे लाया जा सकता है । दलभि वाचना के बाद जैनधर्म गुजरात से दक्षिरण की ओर गया होगा और वैसी स्थिति मे श्वेतांबर सम्प्रदाय का वहां अस्तित्व होना असंगत नही हो सकता ।
दक्षिण का कदब वंश आंध्र सातवाहनों का सामंत था और उसने वनवास देश मे दूसरी शती के मध्य करहाटक ( वर्तमान करहद) को राजधानी बनाकर शासन की स्थापना की। इस वश के द्वितीय राजा शिवस्कध मे अपने भाई शिवायन के साथ आचार्य समन्तभद्र से जैन दीक्षा सी। मयूरवर्मन ने हस्सी (पलासिका) को उपराजधानी बताकर शासन किया और जैनधर्म को संरक्षण प्रदान किया । हल्सी से प्राप्त एक अभिलेख में भानुवर्मा और उसके अधीनस्थ कर्मचारी पडक "भोजक" के दान का उल्लेख है यह दान भानुवर्मा के बड़े भाई रविवर्मा के
सांगली क्षेत्र के अन्तर्गत तेरडाल ११-१२वी पाती मे जैनधर्म का प्रभावक केन्द्र रहा है। समीपवर्ती क्षेत्र बेलगाँव पर रट्ट शासको का आधिपत्य था । ये शासक राष्ट्रकूटों के सामंत थे । ८७५ ई० मे प्रमोघवर्ष के सामत मेरद्रि के पुत्र पृथ्वीराम रट्ट ने सोदन्नी में जिन मन्दिर का निर्माण कराया था । और उसके संचालन के लिए दान भी दिया था । तेरदल में प्राप्त एक शिलालेख से पता चलता है कि यहां का मांडलिक गोक (११८७ A.D.) जैनाचार्य द्वारा सर्पदंश से मुक्त किया गया था और फलत: उसने नेमिनाथ का मन्दिर बनवाया और उसके संचालनार्थ दान दिया । कार्तवीर्य रट्ट शासक द्वितीय के काल में ( ११२३-२४ A. D.)। इस शुभावसर पर माघनन्दि सैद्धान्तिक को विशेष रूप से आमन्त्रित किया गया था । ये कोल्हापुर के रूपनारायण वसदि के मण्डनाचार्य थे। इसी वंश का कार्तवीर्यं चतुर्थ शिलाहार नरेश के राज्य में स्थित एकसाम्बी के नेमीश्वर जिनालय के दर्शनार्थं गया जिसे यापनीय आचार्य विजयकीर्ति के संरक्षकत्व में शिलाहार सेनापति कालन ने अपने गुरू कुमारकीर्ति त्रैविद्य के उपदेश से बनवाया था। कार्तवीर्य चतुर्थ के मंत्री एवं सेनापति ब्रूचिराज और मल्लिकार्जुन भी जैन धर्मावलम्बी