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________________ महाराष्ट्र में गंग धर्म जैन इस वंश के अधिकांश नरेश ब्राह्मण धर्मानुयायी थे पर उनमें हाल (शिक) की सम्भावना जैन होने की अधिक है । उनके गाहा सत्तसई ग्रन्थ पर जैनधर्म का प्रभाव स्पष्ट झलकता है इससे प्राकृत की लोकप्रियता का भी पता चलता है । जंनाचार्य शर्ववमं द्वारा कातंत्र व्याकरण तथा काणमूर्ति की प्राकृत कथा के आधार पर गुणरूप की वृहत्तथा भी इसी के राज्यकाल में लिखी गई । हाल के ५२ योद्धाओं में से अधिकांश ने पैठन मे जैन मन्दिरों का निर्माण कराया। कहा जाता है कालकाचार्य ने पेंठन की यात्रा की थी और वहाँ पर्युषण पर्व मनाया था। नासिक के पास वजीरखेड़ में दो ताम्रपत्र उल्लेखनीय हैं। सन् ६१५ मे राष्ट्रकूट सम्राट इन्द्रराज ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर जैनाचार्य वर्धमान को अमोध वसति और उरिअम्म वसति नामक जिन मन्दिरो की देखभाल के लिए कुछ गांव दान मे दिये थे अमोधवसति से यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि यह मन्दिर इन्द्रराज के प्रपितामह अमोघवर्ष को प्रेरणा से बनाया गया होगा । | यादववशीय राजा सेउणचन्द्र का एक लेख सन् ११४२ का नासिक के पास अजमेरी गुहामन्दिर मे प्राप्त हुआ है जिसमे चन्द्रप्रभु मन्दिर मे प्रदत्त दान का वर्णन है। धूलिया के समीप मुलतानपुर मे सन् १९५४ के आसपास वा लेख मिला है उसमे पुग्नाह गुरुकुल के आचार्य विजयकति का नाम अकित है । नासिक के समीप ही लगभग ६०० फीट ऊंची अकाई सकाई नामक पहाड़ी है। वस्तुतः ये एक साथ जुड़ी हुई दो पहाड़ियां है। यहां सात जैन गुफाये है, बड़ी अलकृत है। पहली गुफा दो मंजली है । दूसरी गुफा भी लगभग ऐसी ही है, पर इसमे एक बन्द बरामदा है जिसमे इन्द्र ओर अम्बिका की मूर्तियां रखी हुई है । मन्दिर मे एक जिन मूर्ति भी है । शेष दोनों गुफायें भी लगभग ऐसी ही हैं। तीसरी गुफा के पीछे के भाग में पार्श्वनाथ और शांतिनाथ की प्रतिमाये उकेरी हुई मिलती है कायोत्सर्ग मुद्रा में। । चौदी गुफा का तोरणद्वार अत्यन्त कलात्मक है। ये गुफायें शाहजहाँ के सेनापति खानखाना की सेना द्वारा तोड़ तोड़ दी गयी थी इसलिए कलात्मकता छिन्न-भिन्न हो गई है । १३ नासिक के ही उत्तर-पश्चिम में चामरलेग नाम की छोटी-सी पहाड़ी है जिस पर जैन गुफायें उपलब्ध हुई हैं। इनका समय लगभग सातवी शताब्दी है । एक गुफा मे पार्श्वनाथ की बुरकाय आवस प्रतिमा उल्लेखनीय है ये गुफायें उसमानावाद के पास है । पूना उत्तर-पश्चिम में लगभग पच्चीस मीर एक वामचन्द्र स्थान है जहाँ जैन गुफा है। आज उसे शेव मन्दिर के रूप परिवर्तित कर दिया गया है । वार्मी से लगभग २२ मील दूर प्राचीन जैन तीर्थक्षेत्र कुंलगिरि एक सिद्धक्षेत्र है जहाँ से कुलभूषण और दिशभूषण नाम मुनि मुक्त हुए। वशस्थ लखमरे पछिम भाभिकुण्यगिरि सिहरे, कुलदिसभूषण मुणी किराणामलेणिकाण्ड इस पहाड़ी पर आदिनाथ को मूलनायक विशाल प्रतिमा है। इसका समय लगभग १२-१३वीं शती निश्चित किया जा सकता है । अर्धपुर (नादेह जिना) के प्राचीन जैन मन्दिर भी प्रसिद्ध रहे है लगभग इसी समय के । पर अब इनके मात्र अवशेष शेष है । इसी जिले में एक कटहार नामक स्थान है जहाँ सोमदेव का बनाया हुआ अति प्राचीन दुर्ग है। मालखेड के राष्ट्रकूट नरेश कृष्ण तृतीय ने इस दुर्ग का विस्तार करवाया था और कन्दहार की उपाधि ग्रहण की थी। इस दुर्ग में एक भव्य जिनालय है जिसे सोमदेव या कृष्ण तृतीय ने बनवाया होगा। जैन स्तोत्र तीर्थमाला चैत्यवदन में जिस कुतीविहार का उल्लेख आया है शायद वह वही कहार होगा। कुछ लोग इस नासिक के समीप गोदावरी तट पर भी अवस्थित बताते है जो पाण्टुग जहाँ अदि गुफायें हैड मे चालुक्य नरेशों की एक शाखा राज्य करती थी। बाद मे यही वारंगल के काकातीय राजवंश का भी शासन रहा। इसी समय का यहां एक जैन मन्दिर है। वर्तमान कराड प्राचीन काल का करहाटक होना चाहिए जो कृष्णा और ककुदमती के संगम पर बसा हुआ है यहा कम का शासन रहा है जो सातवाहनों | का नाम था और बाद मे स्वतंत्र शासक के रूप मे स्थापित हुआ था। करहाटक उन्हीं की राजधानी रही है। इस समूचे वंश के शासक यद्यपि सर्वधर्म समभावी रहे हैं
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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