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८, वर्ष ४३ कि० ।
अनेकान्त
ब्रह्मशिव-का जन्म पोट्रयागेरे में हुआ था। वे शैव मत है कि कवि ने नेमिनाथ का जीवन तो जैन मान्यता थे किन्तु बाद में उन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया था। के अनुमार चित्रित किया है किंतु कौरव-पांडव आदि इनका रचनाकाल ११२५ ई० के लगभग माना जाता है। प्रसंगों में वैदिक (भागवत) परम्परा की सामग्री भी ले इनके दो ग्रंथ हैं -१. समयपरीक्षे और २. त्रैलोक्यचूड़ा- ली है। मणि स्तोत्र । इन्हें कवि 'चक्रवर्ती' की उपाधि भी राज- कवि ने अपने गुरू कल्याण कीति 'साश्चर्यचारित्रसम्मान के रूप में प्राप्त थी।
चक्रवर्ती के रूप में उल्लिखित किया है। ग्रंथ से ज्ञात 'धर्मपरीक्षे' में कवि ने कन्नड़ भाषा में शैव, वैष्णव होता है कि तत्कालीन शासक विजयादित्य का मंत्री सक्षम आदि मत-मतान्तरों की चर्चा कर उनके दोष दिखाकर अथवा लक्ष्मण कवि कर्णचार्य का आश्रयदाता था। इन्हें जैनधर्म को श्रेष्ठता प्रतिपादित की गई है। किंतु यह अब 'सम्यक्त्वरत्नाकर', परमजिनमतक्षीरवाराशिचंद्र, गांभीर्यइस समय एक महत्वपूर्ण अथ है। श्री मूगल के अनुसार यह ग्रंथ कन्नड़ मे एक अपूर्व धर्म चर्चा और विडम्बना नागवर्म द्वितीय (लगभग ११४५ ई०) जैन ब्राह्मण का काव्य है और इसमें अपनी सीमा में सरल तत्कालीन थे। ये कवि और आचार्य दोनों रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्हें जगत के जीवन का चित्र दिया गया और इसकी विना कविकण्ठाभरण कविकर्णपूर आदि उपाधियां प्राप्त थीं। कई बार कट हो गई है, उसमे साम्प्रदायिक पक्षपात और ये चालुक्य शासक के कटकोपाध्याय (सेना में शिक्षक) असहिष्णता बहत है। किन्तु उसमें साधारण जनों के और कवि जन्म के गुरू थे। इनका एक ग्रंथ जिनपुराण मिथ्या विश्वास और आचारों का ब्योरेवार वर्णन है। भी था जो उपलब्ध नहीं हुआ है। इनका सबसे प्रसिद्ध इस प्रकार वह सामाजिक और धार्मिक जीवन के अध्ययन ग्रथ 'काव्यावलोकन' है जो कि अलकार शास्त्र से संबंधित के लिए एक आम गुट का है। "इस रचना से ही जान है। प० के० भुजबली शास्त्री के अनुसार यह ग्रंथ नपतुंग पड़ता है कि कर्नाटक मे उस समय एक ही परिवार के के कविराजमार्ग से अधिक परिपूर्ण है। "इसके 'शब्दस्मति लोग विभिन्न धर्मों का पालन करते थे। कवि के एक प्रकरण' में कन्नड़ व्याकरण का लालित्यपूर्ण निरूपण है।" पद्य का आशय है। 'पत्नी महेश्वरी' अर्थात् (शैव), पति व्याकरण सम्बन्धी इनका दूसरा ग्रंथ कर्णाटक 'भाषाभूषण' जैन और हाय ! पुत्र तो मार्तण्ड भक्त (सौर सम्प्रदाय) है। यह सस्कृत में है और इसका प्रयोजन संस्कृत के
विद्वानों को कन्नड भाषा का परिचय कराना है। इसी __ 'लोक्य चुडामणि स्तोत्र' का दूसरा नाम छत्तीस- प्रकार उन्होंने कन्नड़ काव्यों में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों को रत्नमाले भी है। इसमे कवि ने ३६ छन्दो मे जिनेन्द्र की समझने के लिए संस्कृत-कन्नड़ कोश की रचना की स्तुति करते हुए अन्य मतो का खण्डन किया है। जिसका नाम 'अभिधानवस्तुकोश' है। छदोविचिति नामक
कर्णपार्य-का समय मामान्यत: ११४० ई० माना इनकी एक रचना अनुपलब्ध है।। जाता है। ये भी जैन थे। इन्होने अपनी कन्नड रचना वैद्यक प्रथ 'कल्याणकारक' के रचयिता 'सोमनाथ' 'नेमिनाथ पराण' मे तीर्थंकर नेमिनाथ की जीवन-गाथा का समय ११४० या ११४५ ई० अनुमानित किया जाता काव्य-शैली में वणित की है । इस पुराण का प्रधान रस है। उपर्युक्त ग्रंथ आचार्य पूज्यपाद के इसी नाम के सस्कृत शांत ही है किंतु प्रसंगानुमार उसमे शृगार, करुणा, ग्रंथ का कन्नड़ अनुवाद है। उसमे उक्त आचार्य की वीभत्स एव रौद्र रसो की सयोजना भी है। कवि को चिकित्सा पद्धति मे मधु, मद्य और मांस निषिद्ध बताया उपमा विशेष रूप से प्रिय है। संस्कृत कहावतो आदि का गया है तथा ग्रंथ के प्रारम्भ मे चद्रप्रभु और अनेक गुरुषों प्रयोग करके भी कवि ने अपने पुराण को आकर्षक बनाने की स्तुति की गई है। का प्रयत्न किया है। इस पुराण मे कौरव-पाडव, बलदेव- चम्पू शैली में लिखित 'धर्मपरीक्षा' नामक ग्रंथ के वासुदेव आदि के प्रसग भी वर्णित हैं। कुछ विद्वानों का रचयिता 'वृत्तविलास' है जिनका समय ११६००