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कन्नड़ के जैन साहित्यकार
लगभग अनुमानित किया जाता है। आजायें अमितगति की रचना 'धर्मपरीक्षा' को वृत्तविलास ने कन्नड़ मे रूपांतरित किया है। इसका विषय उपहासात्मक धर्मकथाएं हैं जो कि सुगम और आकर्षक ढंग से कही गई हैं। शैली सरल होने पर भी एक समय कन्नड़भाषियों को जब यह ग्रंथ कठिन लगा तो श्रावकों की प्रार्थना पर तथा श्रवणबेलगोल के भट्टारक चारुकीनि के आदेश पर चढ़ सागर जी ने शा. श. १७७० में सरल कन्नड़ में इसको पुनः प्रस्तुत किया ।
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जैन युग की विशेषताएँ – कन्नड़ साहित्य के आरम्भ काल से लेकर ११६० ई० तक की कालावधि को जैन 'युग कहने का कारण यह है कि उसके बहुसख्य रचनाकार जैनधर्म के अनुयायी थे । जो मुट्ठी भर ब्राह्मण लेखक थे, वे अधिकांशतः संस्कृत मे रचना करते थे । (२) जैन युग या (स्वर्णयुग ) मे धार्मिक, लौकिक और ऐतिहासिक रचनाओ की अधिकता होते हुए भी अनेक विषयों से संबंधित रचनाएं जंन लेखकों की लेखनी से प्रसूत हुई। इनमें व्याकरण, अलकारशास्त्र, वैद्यक, ज्योतिष आदि प्रमुख थे । (३) जैन युग मे एक नई रचना-शैली का प्रादुर्भाव हुआ । इसे चम्पू शंनो या गद्य और पद्य मिश्रित शैली कहते हैं। इसका श्रेय महाकवि पप युग को है। उनका अनुकरण पश्चाद्वर्ती कां ने खूब किया। इस से कारण यह युग 'चपू युग या पप युग' भी कहा जाता है । ( ४ ) इस युग में संस्कृत के विरोध का स्वर मुखरित हुआ ओर कन्नड़ भाषा को उत्तरोत्तर साहित्य की भाषा का दर्जा मिला जिसका श्रेय जैन लेखको को है । उसके तीन महान् जैन लेखक (पप, पोन्न तथा रत्न) कन्नड़ साहित्य के रत्नत्रय कहे जाते हैं ।
बारहवी सदी का अत आले ते कर्नाटक मे जैनधर्म को आघातो का सामना करना पड़ा। सबसे बड़ी क्षति तमिलनाडु के शैवधर्मी चोल राजाओं के आक्रमणो के कारण हुई। इसी प्रकार रामानुजाचार्य के मत प्रचार के कारण भी जंनधर्म को धक्का लगा। जैनधर्मी गग राजाओ
के पतन के कारण राज्याश्रय भी नही रहा । अतः १२वीतेरहवी सदीके विपुल जैन साहित्य नहीं रचा गया। परवर्ती काल में वैष्णव, शैव भक्ति साहित्य की प्रधानता रही।
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वीर शैव काल से जैन लेखक
इस युग का वीरशैव साहित्य 'वचन' के रूप में है । इस शब्द से स्वाभाविक रूप से कही गई बात से लिया जाता है। इस साहित्य के प्रमुख प्रेरक थे श्री बसव । इन्होंने जो मत चलाया वह वीरशेयमत कहनाया जैन राजधानी कल्याणी से इन्होंने अपना मत राजा विजन के मंत्री के पद पर रहते हुए एवं बाद मे किया। उनके मत पर जैनधर्म का प्रभाव था। इस तथ्य को आज भी स्वीकारा जाता है। पूना हैदराबाद सड़क मार्ग से जो मार्ग बसवकल्याण (कल्याणी का आजकल का नाम ) की ओर मुड़ता है वहीं तिराहे पर एक पट्ट पर यह लिखा है कि श्री बसव ने अपने मत मे भगवान महावीर की अहिमा और सत्य का अपने उपदेशो मे समावेश किया था। यह पट्ट पर्यटकों के स्वागत के लिए लगाया गया है। श्री बनव ही नहीं, परवर्ती लिंगायत (वीर शैव) वचनकारो पर भी जैनधर्म का प्रभाव देखा जा सकता है । श्री मुगलिने अपने इतिहास में श्री सिम्मलिगे चन्ना का वचन इस प्रकार उद्धृत किया है। "एक आदमी जंगल मे जा रहा था, उसे चारो दिशाओं में बाघ, दावाग्नि, राक्षसी और जगली हाथी पीछा करते हुए दिखाई दिए। उन्हें देखकर डर के मारे उसे यह नहीं सूझा कि किधर जाय । उसे एक सूखा कुआ दिखाई दिया। उसके भीतर झांकने पर यहाँ एक साँप देखकर वह उसमें कूद नहीं सका और चूहे की काटी हुई एक लता को पकड़कर रुक गया। एक मधुउसको काट रही थी, तभी शहद की एक बूंद उसके मुख में टपकी उसका माधुर्य अनुभव करता हुआ वह अपना सारा दुःख भूलकर जीभ से उस शहद का मजा लेता रहा । यह संसार का सुख भी इसी के समान है।" इस प्रकारका चित्र आज भी अनेक जैन मन्दिरों मे देखा जा सकता है ।
उपर्युक्त युग मे कुछ जैन लेखक पप युग या जैन युग की चपू-शैली में रचना करते रहे जो कि मार्ग-शैली कहलाती थी किंतु कुछ जैन लेखकों ने नवीन शैली को भी अपनाया जो कि देसी शैली कहलाई। इसी प्रकार के उदाहरण ब्राह्मण लेखकों के भी मिलते है। इस युग मे प्राचीन 'कंद' वृत्त के स्थान पर कन्नड़ मे 'रगवे', त्रिपदी और षट्पदी नामक छदो का प्रयोग बढ़ा जिनका जैन लेखको ने भी व्यवहार किया । (क्रमशः )