________________
भट्टाकलंककृत लघीयस्त्रय : एक दार्शनिक अध्ययन
0 हेमन्त कुमार जैन, वाराणसी भटाकलंक जैन न्याय और दर्शन के एक व्यवस्थापक कथाओ आदि से उनके विराट व्यक्तित्व का पता चलता आचार्य हैं। पूर्व परम्परा से प्राप्त जिस चिन्तन की दार्श- है। महान् शास्त्रार्थी और वाद-विजेता के रूप मे चतुर्दिक निक दष्टि से अदम्य ताकिक समन्तभद्र और सिद्धसेन जैसे उनकी ऐसी ख्याति थी कि विपक्षी मृत्यु तक को वरण महान आचार्यों ने नींव के रूप में प्रतिष्ठापना की थी, कर लेते थे । यही कारण है कि बे जैन वाङ्मय में सकलउमी नींव के ऊपर सकलतार्किकचक्रचूड़ामणि भट्टाकलंक तार्किकच चूडामणि, तर्कभूवल्लभ, महरिक, तर्कशास्त्रने जैन न्याय और तर्कशास्त्र का अभेद्य और चिरस्थायी वादीसिंह, समदर्शी आदि विशेषणो से जाने जाते हैं। प्रमाद खड़ा किया है। उन्होंने अपने समकालीन विकसित प्रथम अध्याय के परिच्छेद प्रथम मे उनके व्यक्तित्व दर्शनान्तरीय विचारधाराओं के गहन अध्ययन पूर्वक अपने से सम्बन्धित इन्हीं विशेषताओं पर, शिलालेख आदि ग्रन्थों में उनकी विस्तृत समीक्षा करके सर्वप्रथम प्रमाण, उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रकाश डाला गया है। प्रमेय, प्रमाता आदि सभी पदार्थों का संस्कृत भाषा मे जीवनवृत्त से सम्बन्धित "लघुहन्व" सन्दर्भ जो कि क्षेपक अत्यन्त सूक्ष्म निरूपण ताकिक शैली से उपस्थित किया के रूप में प्रतीत होता है, उसकी अन्यत्र कहीं पुष्टि नही और सूत्र शेनो में अत्यन्त गढ ऐसे ग्रन्थों का सृजन किया, होती, कथाओं में भी उनका जीवनवृत्त प्राप्त होता है, जो कभी उस समय जैन परम्परा मे चल रही थी। बाद पर इसकी अन्य किसी भी सन्दर्भ से प्रामाणिाता सिर में भट्ट अफलंक के इन ग्रन्यों पर प्रभाचद्र, अनन्नवीयं, नहीं होती। इसी तारतम्य में समीक्षक विद्वानों की उपवादिराज, अभयचद्र जमे आचार्यों ने बृहद् भाष्य ग्रय लब्ध सामग्री के आधार पर अकलंक के समय पर किये लिख डाले। अकलक ने प्रमाण-परिभाषा, उसके फन, गये विचारो का पुनरीक्षण किया गया है। वह इसलिए विषय, मुख्य प्रत्यक्ष, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, परोक्ष प्रमाणा- आवश्यक हा कि कई विद्वानो ने अकलक का समय बाद न्तर्गत अनुम नादि, जय पराजय व्यवस्था, बाद कथा आदि का निर्धारित करके उनका सम्बन्ध गुरू शिष्य के रूप मे को परिभाषिन करके जैन पार को इसना पस्थिन और गमन्तभद्र से जोड़कर न दर्शन के इतिहास मे भ्रममूलक समद्ध कर दिया था कि उनके बाद आज तक किसी को निष्वषं निकाले है, जो बिल्कुल निराधार है। इसका नवीन चमन की आवश्यकता नही पड़ी। ऐसे महान् ममाधान विभिन्न समयों में लिखे गये आचार्यों द्वारा दार्शनिक की कृतियो मे से एक कृति 'लघीयस्त्रय' के दार्श- अपने ग्रंथो मे अकलक के नाम से एव अकलक की कृतियो निक विवेचन के रूप में लिखा गया यह शोध-प्रबन्ध मेग के अन्तरग परीक्षण से हो जाता है। समय निर्धारण में एक प्रथम एव लघु प्रयत्न है। इममे लघीयस्त्रय के दाशं. "लघुहब्व" नाम वथाओ मे आए "शुभतुंग" का प्रसग निक पक्षों को स्पष्ट करने वाले आठ अध्याय रखे गये हैं। आदि समीक्षको के प्रधान सहायक रहे। जिनको ऐतिजिसका अध्याय क्रम से सक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत है। हासिक राजाओ के समय से संगति बैठाकर सभी ने समय
निर्धारण के प्रयत्न किये । सम्पूर्ण तथ्यो के अवलोकन के अकलक का कृतित्व एव व्यक्तित्व इतना महान् था बाद यह सत्य प्रतीत होता है कि अकलक का समय आठवी कि लोग उनके नाम को जिन का पर्याय समझने लगे थे।
शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिए। इस प्रकार प्रस्तुत
माली माना होना चाहि।। निःसन्देह इनकी कृतियो, शिलालेखो, ग्रन्थान्त सन्दी, अध्याय के प्रथमपरिच्छेद मे अपलक के जीवनवृत्त और
काशी हिन्दू विश्व विद्यालय बाराणसो की पी-एच.डी. उपाधि हेतु स्वीकृत १९८६, अप्रकाशित ।