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________________ भट्टाकलंककृत लघीयस्त्रय: एक दार्शनिक अध्ययन समय का, मूल सामग्री से मिलान कर पुनरीक्षण किया ६. प्रमाण संग्रह। गया है। इन कृतियों के अतिरिक्त स्वरूा संबोधन आदि और बीसवीं शताब्दी के महान समालोचक विद्वान स्व० भी कृतियां हैं, जो उपलब्ध परन्तु विवादग्रस्त मानी जाती डा. महेन्द्र कुमार जैन ने अकलक की कृतियों का अतरग हैं। अनुपलब्ध एवं विवादग्रस्त कतियां बहत्त्रय और एवं बहिरंग रूप से गहन आलोडन किया है। यह ही नही, यायचूलिका मानी जाती हैं । प्रस्तुत परिच्छेद में उपर्युक्त उन्होंने अगाध परिश्रमपूर्वक टीका ग्रंथों से न्याय विनिश्चय सभी कृतियों का अन्तरंग एव बहिरग परिचय संक्षेप मे और सिद्धिविनिश्चय जैसे ग्रथो को खोजकर उनका स्वयं दिया गया है। सम्पादन किया और गवेष्णापूर्ण उनकी भूमिकाये लिखी। मेरा शोध का विषय “भट्टाकलककृत नघीय स्त्रय : लघीयस्त्रय आदि सग्रह के रूप मे समवेत रूप से अकलंक एक दार्शनिक विवेचन" होने के कारण परिच्छेद तृतीय मे के तीन ग्रंथों का भी सम्पादन किया और विद्वत्तापूर्ण लघोयस्त्रय का विशेष परिचय दिया गया है। इसमे भमिका लिखी। हम समझते है उनके बाद वैसे सम्पादन इसके वास्तविक परिमाण निर्धारित वरने के साथ का दिगम्बर परम्परा मे बिल्कुल ही अभाव हो गया। लघीयस्त्रय' के रूप मे ग्रथ के नाम पर विशेष ऊहापोह यह भी हम कह सकते है कि उनके बाद सस्कृत में लिखे पूर्वक विचार किया गया है। अन्तरंग विषय-वस्तु के गये अकलक के ग्रयो का अर्थ न समझने वाले विद्वानों के परिचय के अन्तर्गत प्रवेश और परिच्छेद के कम से प्रमाण, लिए स्व० डा० जैन की कृतियां एवं विभिन्न प्रथों मे नय और प्रवचन के सम्बन्ध में उनके विचारो को रखा लिखी गयी भूमिका ये अकलक, जैनन्याय एवं दर्शन का गया है। हार्द समझने के लिए पर्याप्त है। प्रथम अध्याय के प्रस्तुत "प्रमाणमीमामा की आगमिक परम्परा ज्ञानमीमांसा" इस द्वितीय परिच्छेद में अकलक के ग्रंथो का सक्षिप्त नामक द्वितीय अध्याय के परिच्छेद प्रथम मे तीर्थंकरो से परिचय स्त्र हा जैन के अध्ययन के आधार पर तैयार लेकर अकलक तक प्रमाण के आध्यात्मिक रस की चर्चा किया गया है। इसमें हमने यहाँ कोशिश की है कि उन की गयी है। इसमें हम पाते हैं कि किस प्रकार प्रमाण के कृतियों का वास्तविक परिमाण एवं कृतित्व का प्रमाण भाव में ज्ञान से उसका कार्य किया जाता था। वस्तुत. और अन्तरग परिचय मक्षिप्त रूप में सामने आ जाये। परम्परागत सम्यक् और मिथ्या के रूप मे ज्ञान का वर्गीइस अध्ययन में हमने देखा कि उनको उपलब्ध कृतिया करण एक तरह से प्रमाण और प्रमाणाभास के पूर्वरूप मात्र छः ही प्राप्त होती है। जिनका नामकरण अकलक की सूचना देता है । प्रत्यक्ष और परोक्ष के रूप में, परसरा के परवर्ती आचार्यों के द्वारा किया गया जान पडता है, से चले आये ज्ञान के इन दो भेदों को आधार मानकर क्योंकि उन ग्रन्थों का नाम अकलंक का दिया हुआ है, ज्ञानो का किस प्रकार प्रमाणों मे वर्गीकरण हुआ। इसका ऐसी सूचना उनके प्रथो से प्राप्त नहीं होती। वर्णन प्रस्तुन अध्याय के द्वितीय परिच्छेद मे किया गया उनकी सम्पूर्ण कृतियां भाष्य ओर स्वतंत्र इन दो है। जिसमें बताया गया है कि परम्परागत प्रत्यक्ष और रूपों में प्राप्त होती है । कुछ स्वतंत्र कृतियां उनकी ऐसी परोक्ष ज्ञानों के आधार पर बाद के दार्शनिको द्वारा उन्हें हैं, जिन पर उन्होंने स्वय वत्ति या भाष्य लिखा है। स्पष्टरूप मे प्रत्यक्ष प्रमाण और परोक्ष प्रमाण के रूप मे उनकी उपलब्ध क नया इस प्रकार हैं स्वीकार किया गया। आत्मसापेक्ष प्रत्यक्ष और इन्द्रिय एवं १. तत्वार्थवातिक (वार्तिक एवं उस पर भाष्य)। अतिन्द्रिय सापेक्ष परोक्ष के रूप में विभाजित उस ज्ञान २. अष्टशती (आप्तमीमांसालकार, भाष्य)। गंगा की धारारूपी परम्परा कुन्दकुन्द तक अनवरत रूप ३. लघीयस्त्रय (सवृत्ति)। से प्रवाहित होती रही, परन्तु ज्ञान को प्रमाण रूप मे ४, न्यायविनिश्चय (सवृत्ति)। स्वीकृति देने वाले उमास्वामी और उनके बाद के आचार्यों ५. सिद्धिविनिश्चय (सवृत्ति)। द्वारा अनिन्द्रिय सापेक्ष ज्ञान को आत्मसापेक्ष ज्ञान के
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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