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________________ सावधान ! कहीं जैन डूब न जाय -त्यागियों और श्रावकों द्वारा "चारित्तं खलु धम्मो" वाक्य को पूर्ण आचरण में न लाया जाना-उनके द्वारा योग्य चारित्र के पालन की उपेक्षा किया जाना जैन को ले डूबेगा। -धर्म के मूलरूप दिगम्बरत्व-अपरिग्रहत्व से लोगों को अरुचि होना और मल से विपरीतसीमित आवश्यकताओं से अधिक परिग्रह का रुचि पूर्वक संचय, संरक्षण और संवर्धन कर उसमें गद्धता रखना जैन को ले डूबेगा। -आगम में इस आत्मा को वर्ण, रस, गंध, स्पर्श रहित अरूपी-अदृश्य कहा है इस मान्यता के खिलाफ आत्मा को देखने-दिखाने, पहिचानने-पहिचनवाने की बातें करना तत्त्वार्थ-अश्रद्धान का ही घोतक है। क्या, पर-संग रहित अरूपी आत्मा को-वह भी भोगों में रत रहते, घेखने-दिखाने की बातें छल और मिथ्यात्व नहीं? ___ -आश्चर्य है कि लोग भाग्योदय से प्राप्त अपनी ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग पहिले अपनी पहुँच योग्य-अनित्य (रूपो) पदार्थों को असारता के चितन में लगाकर तीर्थंकरोंवत् विरक्त तो नहीं होतेउल्टे, अपनी पहँच से बाहर अरूपी आत्मा को पाने को चर्चायें करते हैं वह भी भोगों में रत रहकर । ये भी मिथ्यादृष्टि जैसा उल्टा प्रयास जैन को ले डूबेगा। -लोग मानते हैं कि सम्यग्दर्शन और आत्म-दर्शन पहिचान से परे हैं- किसको हैं, किसको नहीं, यह सर्वज्ञ जाने। फिर भी वे शून्य में हाथ मारने जैसी इन दोनों को रटन लगाए हैं। चारित्र पालन और परिग्रह परिमाण या परिग्रह-त्याग पर उनकी दृष्टि नहीं जाती। दृष्टि जाय भी तो कैसे? उसमें त्याग और श्रम जो है और इन्हें चाहिए संग्रह, मौज और यश । बस, इनका ऐसा व्यवहार जैन को ले डूबेगा। - स्मरण रहे, आत्मसाक्षात्कार तो अनासक्ति में स्वयं होता है-आत्मा के प्रति आत्मा को पकड़ के प्रयत्न की अपेक्षा नहीं। आश्चर्य है कि आसक्त लोग आसक्तों को आत्मदर्शन के स्वप्न दिखा 'परस्परं प्रशंसन्ति' से पापवन्ध कर रहे हैं। -जैनधर्म निवृत्ति प्रधान है। तीर्थंकरों जैसे महापुरुषों ने पहिले बारह भावनाओं के माध्यम से दृश्य-संसार, शरीर, भोगों को असारता को विचारा, उनसे निवृत्ति ली तब अपने में रह सके। पर आज निवृत्ति के स्थान पर प्रायः परिग्रह में प्रवृत्ति का लक्ष्य है। पर-द्रव्य से राग कर अनापशनाप धन, जायदाद, यश-ख्याति अर्जन में लीन होकर आत्मा को देखने-दिखाने की रटना लगाई जा रही है, जो चारित्र के अभाव में जैन को ले डूबेगी। सावधान ! आजीवन सदस्यता शुल्क : १०१.०००० वार्षिक मूल्य। ६) 6०, इस बंक का मूल्य १ रुपया ५० पैसे विद्वान् लेखक अपने विचारों के लिए स्वतन्त्र होते हैं । यह आवश्यक नहीं कि सम्पावक-मण्डल लेखक के विचारों से सहमत हो। पत्र में विज्ञापन एवं समाचार प्रायः नहीं लिए जाते ।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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