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________________ बूंदे भी झलक रही है।" इसी जैन तीर्थ के एक शिला लेख से ज्ञात होता है कि ओवर्धदेव नामक कवि ने लगभग ६५० ६० में 'दाम' नामक काव्य-कृति का सूज किया था किन्तु यह रचना अभी उपलब्ध नहीं हुई है कन्नड़ भाषा का सबसे प्राचीन उपलब्ध प्रथम हुद्यात्मक ग्रन्थ "कविराजमा" है। जैन धर्मानुयायी राष्ट्रकूट नरेश नृपतुंग अथवा अमोघवर्ष (८१४८७७६०) द्वारा यह रचित बताया जाता है। संस्कृत कवि दण्डी के अलर ग्रन्थ 'काव्यादर्श' को एक मानक ग्रन्थ मानकर इसकी रचना की गई है । यह मुख्यतः अलकार सम्बन्धी ग्रन्थ है जो आज भी आदर के साथ पढ़ा जाता है। किंतु जहाँ दण्डी ने केवल आठ ही रस ( कविता मे ) बताए है यहाँ नृपने "शांतरस" वो भी एक रस माना है। यह निश्चय ही जनधर्म का प्रभाव है। इस ग्रन्थ से कर्नाटक की एक हजार वर्ष प्राचीन भाषा और संस्कृति का सम्यक् ज्ञान होता है। कुछ विद्वान् नरेश नृपतुंग के स्थान पर 'श्रीविजय' को इसका रचयिता मानते है । किन्तु वे भी एक जैन कवि माने गए हैं। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि राष्ट्रकूट नरेश अमोघवर्ष के गुरु 'आदिपुराण' के रचयिता आचार्य जिनसेन द्वितीय थे। इसमें कर्नाटक को "सुन्दर देश" और कन्नड़ को "मधुमय कन्नड़" कहा गया है और कर्नाटक को सीमा कावेरी से गोदावरी तक बत लाई गई है । साहित्यकार ३ आचार्य शिवोट है। उन्होंने इस ग्रन्थ की रचना आ० हरिषेण के 'कथाकोष' के आधार पर तथा कथाओं के उसी क्रम मे की है। उन्होंने प्राकृत गाथायें भी दी है, इस भाषा के शब्दों का भी प्रयोग किया है किन्तु उनकी यह गद्य रचना कन्नड़ साहित्य की सबसे प्राचीन रचना मानी जाती है। कुछ विद्वान् इसका रचना. काल ८२० ई० मानते हैं तो अधिकाश १२० ई० इसका समय मानते हैं। जैनधर्म से संबंधित पारिभाषिक शब्दो जैसे वीतराग श्रुत तथा आगम के अन्तः साध्य के आधार पर भी 'कविराजमार्ग' एक जैन कृति सिद्ध होती है। 'बारायने' कन्नड़ भाषा को सबसे प्राचीन गद्यरचना है। इस कृति के नाम का अर्थ है 'बृहद् आराधना' श्री नाचार्य के अनुसार इसका एक नाम उपसर्ग केवलियों की पथा भी है। इसमें सम्मिलित १६ कथाओं में उन घटनाओं का रोचक, सजीव एवं सरस वर्णन है जिनके कारण कथाओ के नायकों को वैराग्य उत्पन्न हुआ। इसमें जैनधर्म के अनुसार तप, व्रत और लेखन आदि का आश्रय लेकर अपनी नियति बदलने वाले महा पुरुषों का जीवन गाथाएँ हैं। सुकुमार स्वामी चन्द्रगुप्त पूर्वभवी नदिमित्र आदि के जीवन चित्रित है। लेखक कन्नड़ के तीन रत्न कन्नड़ साहित्य में तीन महाकवियो पंप, पोन्न और रन्न को बहुत ऊंचा स्थान प्राप्त है। वे तीनो इस भाषा के तीन रहन कहलाते है । आदिकवि पंप - दसवी शताब्दी के कन्नड़ मह् कवि पंप का मूल निवासस्थान बेगी मे हुआ था। उनका जन्म ब्राह्मण कुल में हुआ था। उनके पितामह वैदिक धर्मातुयात्री थे किन्तु उनके पिता ने ब्राह्मण रहते हुए भी जनधर्म स्वीकार कर लिया था क्योंकि वह उनकी दृष्टि में श्रेष्ठ था। स्वयं पंप ने इस तथ्य का उल् ख गर्व पूर्वक किया है। पंच ने वैदिक और जैन धाराओं को मिलाने का प्रयत्न अपनी लेखनी से किया जैनधर्म की पुष्टि के लिए उन्होने कन्नड़ में 'आदिपुराण' नामक श्रेष्ठ काव्यकृति की सृष्टि की। इसके लिए उन्होंने जिनसेनाचार्य (द्वितीय) की संस्कृत रचना 'आदिपुराण' से कथानक लिया था । समालोचकों के अनुसार जिनसेनाचार्य में जहाँ पुराणत्व अधिक है वहां पत्र में काव्यत्व अधिक है। आदि पुराण में महाकवि पंप ने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्वभव तथा भरत बाहुबलि आख्यान का निरूपण बड़े सुन्दर ढंग से किया है । किन्तु इन आख्यानों के कारण उनका पुराण समरस नही हो गया है। श्री मुगलि के शब्दों मे "आदिपुराण मे कई ऐसे स्थल हैं जो सस्कृत काव्यों में सामान्यतः नहीं देखे जाते" तथा "अपने इस पुराण के द्वारा, उन्होंने यह सूचित किया प्रतीत होता है कि जैन तत्वों में विश्वधर्म के तत्व निहित हैं ।" पंप ने प्रादिपुराण की रचना ६४९ ई० में लगभग चालीस वर्ष की अवस्था मे की थी। वह रचना 'इतनी प्रौड़ बनी कि उन्हें आदिकवि का स्थान दिला गई।
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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