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३२ वर्ष, ४३, कि० ३
अनेकान्त
दोनो को हितकारी होगा- वह ज्ञानी बनकर ज्ञान के बल पर सदा सिरमौर बना रहेगा। वे नहीं जानते थे कि ज्ञानो में भी कायरता का संचार होगा और वह इधर से उदास हो जाएगा और समाज भी धर्म-सेवा के प्रति दगाबाज निकलेगा। इसे समाज का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा जो उक्त परिस्थिति ने विद्यार्थियो को धर्म शिक्षा से उदास कर पाश्चात्य की और मोड़ दिया और विद्यालय ठप्प हो गए। इस प्रकार धर्म और समाज दोनो को हानि का सामना करना पड़ा। कालेजों की शिक्षा के फल-स्वरूप डॉ० व प्रोफेसर आदि आर्थिक दृष्टि से तो मोज मे है पर उनका धार्मिक सस्कारों व समाज से उतना लगाव नही रहा जितना चाहिए उनमे जो कुछ थोड़ा बहुत संपर्क समाज से रखे हुए हैं उनमें अधिकाश तो लौकिकता का निर्वाह ही कर रहे हैं या समाज मे उनकी उपेक्षा है ।
इस प्रकार समाज अपने में खपने वाले वरिष धर्मश विद्वानों से दिनो दिन शून्य होता जा रहा है । समाज को चाहिए कि वह विद्वानो के लिए नही तो कम से कम धर्म और संस्कारो की रक्षा के लिए ही विद्वान तैयार करे। लेकिन शर्त यह है कि ठोस विज्ञान सम्मान से जी कर ही समाज मे खप सकेगा। आज कल विद्वानों के लिए समाज मे चिन्ता व्याप्त है, इस लिए कुछ लिख दिया है उचित हो तो समाज को इस समस्या के सुलझाने मे प्रयत्नशील होना चाहिए । स्वागत को विडम्बना:
स्वागत शब्द बड़ा प्यारा है। ऐसे विरले ही व्यक्ति होंगे जो स्वागत के नाम से खुश न होते हों, मन ही मन जिनके मनो मे गुदगुदी न उठनी हो । प्रायः सभी को इसमें खुशी होती होगी -- भले ही दूसरों का स्वागत होते देख कम और अपना होने पर अधिक । स्वागत अब लोकव्यवहार जंग बन गया है जो नेता, अभिनेता व अन्य जनो के उत्साह बढाने के लिए, उनसे कोई कार्य साधने के लिए भी निभाया सा जाने लगा हैं । खेर, जो भी हो परम्परा चल पड़ी है कोई स्वागत न भी करना चाहे तो उससे स्वागत कराने की गोटी बिठाने
की
लोग
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मोटी बिठाए जाते है-कभी न कभी तो सफलता मिल ही जाती है और यदि न मिली तो मिल जायगी ।
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बड़प्पन का भाव व्यक्ति का स्वभाव-सा बन गया है। लोगों का बड़प्पन साधने के लिए जन सभाओ में ऊंचे मच बनाए जाते है नेताओ को बड़प्पन देने के लिए, मचों पर स्वयं बैठकर अपना बड़प्पन दिखाने के लिए भी । आखिर मच निर्माता इसी बहाने ऊंचे क्यों न बैठे ? या अपने सहकर्मियो को ऊँचा क्यो न बिठाए ? आखिर वे यह जो न कह बैठे कि बड़ा श्राया अपने को ऊँचा बिठा लिया, आदि। सो सब मिल बाँट कर श्रेय लेते है । किसी को कोई एतराज नही होता । आखिर, होते तो सभी एक ली के पट्टे चट्टे जैसे ही है।
हमने कई सभाओ मे आँखों से भी देखा है- स्टेज पर अपनो मे अपनो से एक दूसरे को माला पहनते पहिनाते, पहिनवाते हुए। और लोग है कि नीचे बैठे इस ड्रामे को देख खुश होते - ताली बजाते नही अघाते - जैसे वे किसी लका को विजय होते देख रहे हो। पर, हम नही समझ पाए कि इस व्यर्थ की उठा-धरी से क्या कोई लाभ होता है ? - केवल मन की बरबादी के ।
उस दिन क्षमावाणी पर्व था । हमें एक क्षमा-उत्सव मे जाने का प्रसव या सोहम गए वहाँ लम्बान्चोड़ा ऊंचा स्टेज था जो हमारे पहुचने से पल ही लोगो से
भर चुका था । हम जाकर सहज ही (जैसा हमारा स्वभाव है) जनता के साथ नीचे बैठ गये। उत्सव के तत्कालीन प्रबन्धक कई नेताओ ने आग्रह किया कई हमारे हाथो को पकड़ कर हमे उठाने का प्रयत्न भी कियाकार मच पर बिठाने के लिए। पर हम थे कि टस से मस न हुए और नीचे ही बैठे रहे ।
मंगलाचरण और बालिकाओं द्वारा स्वागत गान गाने के पश्चात् मच पर विराजित कई लोगो को मालायें पहिनाने का क्रम चालू हुआ। अमुक ने अमुक को और अमुक ने अमुक को मालायें पहिनाई। तत्पश्चात् बालने मे हमारा नाम पहिले पुकारा गया।
हमने कहा- कैसा पागलपन चल पड़ा है लोगो में 'परस्परं प्रशसन्ति' का आपस मे इकट्ठे होते हैं किसी कार्य को और समय बरबाद कर देते है किन्ही अन्य कार्यो