________________
३३, वर्ष ४३ कि० ३
अनेकान्त
में-माला आदि पहिना कर एक दूसरे का गुणगान करने मे रखकर 'सम्यग्दर्शन ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:' सत्र में । इकट्ठे हुए क्षमावणी मनाने-परस्पर मे एक दूसरे भी है। से क्षमा याचना के लिए। पर स्वप ऊँचे बैठ गए और हमे आज लोग केवल नाम के पीछे पडे है। उन्होने नाम भी ऊँचे बिठाने के आग्रह में पड़ेगा। भला, सोचा कभी की रटन लगा रखी है-रामनामी दुपटटे की तरक्षा आपने कि क्षमा अपने को ऊँचा दिखाकर-बनाकर या ऊँचे कही ऋषभ का नाम प्रचारित करेगे, कही महावीर की बटकर मागी जाती है या नीचा (नम्र) बनकर? हम तो जय बोलगे और कही कुन्दकुन्द के नाम की झडी लगा क्षमा मागने आये है-धनिक उत्सव मे आपे है--समा- देगे। लोगो ने कुन्दकुन्द के नाम को धम मचा दी. देश में नता के भाव मे । इममे तो सभी बराबर होते है या नम्र- चारो ओर उनकी जय-जयकार करने की-उनके गणों भाव में नीचे ? पर, जब नेता नक स्वागत की विडम्बना को भांनि-भांति की व्याख्याएँ कर अपने मन्तव्य प्रचारित में पड उल्टा मार्ग अपना बैठे हो तब जन-माधारण क्या करने को-अपने नाम के लिए। शायद कइयो को इससे करे ? धार्मिक समारोहो में त्यागो-बनियो को तो उच्चामन अच्छा अवसर ओर कौन-मा होगा नाम कमाने का ? पर, उचित है, माना आदि वयं होना युक्तियुक्त है। जबकि इसके माथ ऐसे कितने है जिन्होंने कुन्दकन्द के बनार आज धर्म मे माधारण भी माला और उच्चासन के योग्य आचार का सहस्राश भी पालन किया हो -कन्दमन्दत समझे जाने लगे है । तथ्य क्या है ? जरा सोचिए । अन्तरग-बहिरग परिग्रह का त्याग किया हो।
___ गत दिनो एक विद्वान ने हमे प्रेरणा दी और हमसे नाम की महिमा प्राचार से है :
अपेक्षा की कि हम अपनी प्रतिभा का उपयोग प्राचीन लोग रामनामी दुपटटे को ओढते है ताकि दूसरे उसे ग्रन्यो के सम्पादन, अनुवाद आदि मे करे । भला, जब हम पढे और उसके बहाने उनके मुख से राम का नाम निकले। अकिचन हैं तब जिनवाणी को पण्डिनवाणी बनाने की लोगो का श्रद्धान है कि राम का नाम लेने से बैकुण्ठ का दु माहस और पाप क्यो करे ? फिर हमे नाम, यश अथवा टिकिट मिल जाता है-वहा मीट रिजर्व हो जाती है। अनुवादादि द्वारा अर्थ अर्जन करने-कराने में पागम जान महाकवि तुलसीदास ने तो यहाँ तक कह दिया कि
का उपयोग भी इष्ट नहीं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि 'तुलसी अपने राम को, रीझ भजो या खीझ ।
जब हम पूर्वाचार्यों की अपेक्षा उनके सहस्राश भी ज्ञान खेत पडा सब ऊगता, उल्टा मीधा बीज ॥'
नही रखते, तब उनकी कृतियों को व्याख्या-अनुवादादि
लिखना- उन्हे दूषित करना ही होगा-उनसे अधिक हम यह भी जानते है कि लगातार शीघ्रता मे उच्चा
ज्ञाता लिखे तो लिखे । हाँ, हम अपनी समझ से मौखिक रण करने मे राम और मरा दोनो मे अभेद भी हो जाता जा है और लोक मग के नाम से भयभीत होता है। पर, श्रद्धा
खुलासा तो कर सकते है ताकि वह रिकार्ड न बने । ऐमी जमी हुई है कि लोग उमी को टीक समझते है और आश्चर्य है कि लोग अपने को आगम-ज्ञाता मान उनके उनके मन मे राम नाम की महिमा समाई हुई है। अनुसार स्वय तो न चले और उनकी व्याख्या या अनवाद
जैन मत मे नाम की महिमा तो है, पर वह गुणो के कर दूगर को चलने का मार्ग बताए और यश. प्रजन स्मरण से जडो हई है। णमो अरहताणं बोलने का उतना तथा नाम कमाने की होड़ में कुन्दकुन्दादि के नाम को महत्त्व नही जितना उस उच्चारण के साथ उनमे विद्यमान उछाल जिनवाणी को भी विरूप करे। स्मरण रहे गुणो के स्मरण -- वीतरागभाव के चितवन का। यदि इन उद्धार नाम से नही, आचार और परिग्रह त्याग से दो दोनो के साथ उनके गुणानुरूप आचरण भी हो तब तो सकेगा। जरा सोचिए। 'सोने मे सुहागा' चरितार्थ हो जाय । इसी बात को ध्यान
-सम्पादक कागज प्राप्ति . -श्रीमतो अंगूरो देवो जैन (धर्मपत्नो श्री शान्तिलाल जैन कागजी) नई दिल्ली-२ के सौजन्य से