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________________ पंचकल्याणक-प्रतिष्ठाएँ -- पत्र मिला है कि पंचकल्याणकों की बहुतायत ओर उनमें धांधली क्यों? इस विषय पर हम कुछ लिखें। सो हमारी दष्टि से पंचकल्याणकों को परम्परा शास्त्र-सम्मत और पुरानी है और स्थापना-निक्षेप से उचित है। प्रतिष्ठित मूर्ति को निमित्त बनाकर मूर्तिमान के गुणो के चितन में सहायता मिलती है, इसके सहारे स्व में आया जा सकता है, यह सब व्यवहार है। जब तक सांसारिक प्रवृत्ति हे तब तक व्यवहार है-इसे छोड़ा नहीं जा सकता। यही कारण है कि संसारी होने से हो बाह्य में निश्चय के गीत गाने वाले भी इससे अछते नहीं बचे। वे प्रारम्भ से ही निश्चय स्वरूप में रमण के बजाय पूर्णरूप से व्यवहार में फंस बठ और "निमित्त को जटाना नहीं पड़ता, निमित्त को बलात स्वयं उपस्थित होना पडता हे, आदि।" उनके कथन कोरे कथन-मात्र रह गये। फलतः मा दर व मति निर्माण तथा पचकल्याणकों जैसे व्यवहार ने उन पर भो सिक्का जमा लिया भले ही वह लोगों के आकर्षण या अर्थ-अर्जन में रहा हो। आत्मा को दिखाने के गीत गाने वालों द्वारा ऐसे व्यवहार में आना शायद शभचिह्न हो सकता है, यदि कार्य शद्ध भावना से और द्रव्य से अछूता रहकर किया जाय तो। यह तो निश्चय है कि व्यवहार के बिना किसी को न नहीं। संसार में व्यवहार को जटाना और निभाना पड़ेगा. पंचकल्याणक प्रथा भी व्यवहार है और इसका भी विरोध क्यों? विरोध तो आत्म-दर्शन के नाम पर परिग्रह सचय करने वालों और परिग्रह को कसकर पकड़े बेठ आत्मदष्टाओं का होना चाहिए, जो चारित्र से मुख मोड़े बैट है।। हां, विरोध तब भो होना चाहिए जब पचकल्याणकों की आड़ मे धनादि संग्रह के लिए चन्दा और बोलियों की दुषित मनोवृत्ति हो । भय है कि द्रव्य-संचय को ऐमी परम्परा कही भविष्य मे तीर्थकरो के कल्याणकों के स्थान पर, मात्र पंचो (आयोजको) के कल्याण-कतत्व का स्थान हो न ले बैट? क्योंकि आज की अधिकांश प्रतिष्ठाऍ किसी एक व्यक्ति की त्याग और धार्मिक भावना में, मात्र उसी के द्रव्य से संपन्न नही होती -परिग्रह घटाने के भाव मे नहीं होती। अपितु खर्च निकाल कर, बचत के भाव में सामहिक रूप में होती है। प्रतिष्ठाओं में होने वाली अनेको बोलियां इमी का प्रतिफल है। एसी प्रथाए धामिक क्रियाओं को भी द्रव्याश्रित कर डैठी और जिससे माधारण मनष्यों को अभिषेक आदि से भी वंचित रहना पड़ा। हमारे कथन से एकान्त रूप में यह न समझ लिया जाय कि सामहिक आर्थिक सहयोग से होने वाली प्रतिष्ठाओं के हम पूर्ण विरोधी है। जहां प्राचीन सास्कृतिक धरोहरों की रक्षा का प्रश्न है, वहाँ हम इसके समर्थक है। क्योंकि ऐसे महान व्ययसाध्य काय किसी एक व्यक्ति के वश में नही । जसे बावनगजा के उद्धार, देवगढ़-मति उद्धार के कार्य, जिनके प्ररणास्रोत वर्तमान के आचार्य श्री विद्यानन्द जी व श्री विद्यासागर प्रभात महाराज रहे इन कार्या के हम समर्थक है।। हम नये मन्दिरो के भी विरोधी नहीं; पर उनमे नई प्रतिमाओं के स्थान पर प्राचीन प्रतिष्ठित प्रतिमाओं को विराजित करने के पक्षधर है, जो अन्य क्षेत्रों व मन्दिरा से लाई जा सकती है। ऐसे में वेदीप्रतिष्ठा मात्र से काम चल सकता है। हाँ, एसी व्यवस्था भी होनी चाहिए कि कोई मन्दिर पूजा मे कभी भी अछता न रहे। इसके सिवाय एक प्रश्न और है जो हमे सदा कचोटता रहता है कि कुछ ऐसे प्रतिष्ठाचार्य जिनमें श्रावकाचार-प्रतिमा तक भी न हो; वे प्रतिमा में जिनेश्वर को कैसे स्थापित कर देते है ? पाठक विचारे। –सम्पादक
SR No.538043
Book TitleAnekant 1990 Book 43 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1990
Total Pages144
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size8 MB
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