________________
शुद्धि-पत्र
४४५
४५
२३
४४६
४६
पृष्ठं पंक्ति
अशुचि विसैसाहिमा २८
विसेसाहिया २८। मदिसुदणारिण-उवसामगा संखेज्जगुणा/खवगा संखेज्जगुणा [देखो परि
शिष्ट पत्र २६] अठाईस हैं । मनःपर्ययज्ञानी
अठाईम हैं। मति श्रुतज्ञानी उपशामक जीव अवधिज्ञानी क्षपको से सख्यातगुणे हैं । इनसे मति-श्रुतज्ञानी क्षपकजीव संख्यातगुणे है ।
मन:पर्ययज्ञानी ४४५ २३ अवधिज्ञानी क्षपकों से
मति-श्रुतज्ञानी अपकों से परिबद्धत्तादो। दुणाणि
परिबद्धत्तादो। आभिणिणाणी सुदणणी अपमत्त-संजदा संखेज्जगुणा । तत्थेव पमत्तसजदा संखेज्जगुणा । दुणाणि [देखो परि
शिष्ट पत्र २७] ४४६ णेदव्वं । जाव
णेदव्यं जाव ४४६ व्यभिचारी
व्यभिचार अवधिज्ञानी प्रमत्तसयतों
अवधिज्ञानो प्रमत्तसंयतों से मति-भूतज्ञानी से दो ज्ञान वाले
अप्रमत्तसंयत जीव संख्यातयुणे है । इन्ही दो ज्ञानो वाले प्रमत्तसंयतजीव उक्त अप्रमत्त.
संयतो से संख्यातगुणे हैं । इनसे ४६७ प्रमत्तसंपत आदि
प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसयत आदि ४७३ अभव्यसिद्धिक
भव्यसिद्धिक उपशमसम्यग्दृष्टि,
उपशमसम्यग्दृष्टियो मे संख्यात
प्रसख्यात ४८७ बन्धक जीव
मिथ्यादृष्टि जीव विशेष निवेदन इतना है कि प. पु. ३ पृ० २०६ पर "संतपमाणाणवत्था" का हिन्दी अर्थ सिद्धान्ततः गलत नहीं होते हुए भी मूलानुगामी नही है । अतः पुनः देख लें। संत का अर्थ सत्त्व (अस्तित्व-विद्यमानता) है जबकि सातपृथिवी अर्थ निकालना चाहें तो "सत्त" शब्द ही ठीक होगा, जैसा कि पूर्व मुद्रित प्रति मे है। इतना सब कुछ होने पर भी संतपमाणाण वत्था या सत्तपमाणाणवत्था का अर्थ विचारणीय निश्चित है। यहां पर क्या कोई पाठान्तर नहीं पाया गया ? होता तो लिखते ही। इसका अर्थ तो 'सात पृथिवियो के प्रमाण (सख्या) की अनवस्था', ऐसा होता है। "एग" शब्द इसी वाक्य में आ गया है, अत: उसके परिप्रेक्ष्य में सप्त पृथिवी का वाचक "सत्त" ही होना निश्चित होता है, इतना तो निर्विवाद है । पर तब भी अर्थ पुनः मीमांसणीय अवश्य है।
दूसरा निवेदन यह है कि पृष्ठ २५७ पर विशेषार्थ में
"परन्तु धवलाकार ने............ .. .. परिधि के प्रमाण के ऊपर से" यह लगभग ३१ पंक्तियो का मेटर काट देना ही ठोक प्रतीत होता है।
४८५
१२