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क्या नवग्रह पूजा शास्त्र सम्मत है ?
मिलता है या कर्मों के द्वारा जैन दर्शन तो कहता है कि सब जीव अपने अपने कर्मों का फल भोगते रहते हैं । सन्त कवि तुलसीदास ने भी कहा है कि 'कर्म प्रधान विश्व करि राखा । जो जस करइ तो तस फल चाखा ।' जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अन्तराय ये आठ कर्म होते हैं। और जब तक ये कर्म सत्ता में बने रहते हैं तब तक यह जीव चारों गतियो में भ्रमण करता हुआ जन्म, जरा, मरण आदि के विविध दुःखों को भोगता रहता है ।
हिन्दू धर्म का पञ्चामृत भिषेक, भगवान् के चरणों पुष्प, फल आदि चढ़ाना आदि अनेक बातें जैनधर्म में आ गई हैं। हिन्दू धर्म में ग्रहो की शान्ति के लिए कुछ उपाय बतलाये गये है । इसी से प्रभावित होकर किसी जैन विद्वान् ने भी ग्रहो की शान्ति के लिए नवग्रह पूजा का विधान बतला दिया है। यहाँ प्रश्न यह है कि यदि ग्रहो की शान्ति करना है तो क्या देवशास्त्र गुरुपूजा, चोबीस तीर्थंकर पूजा, सिद्ध पूजा, शान्तिनाथ पूजा, पार्श्वनाथ पूजा, महावीर पूजा आदि पूजाओ के करने से ग्रहो की शान्ति नही होगी और नवग्रह पूजा करने से नवग्रह जन्य अरिष्ट की शान्ति हो जायगी। हमारी समझ से ऐसा सोचना गलत है । जैन धर्म के किस शास्त्र में ऐसा लिखा है कि नवग्रह फल देते है और उनकी पूजा करने से तज्जन्न अरिष्ट की शान्ति हो जाती है ।
अब हम नवग्रह की जो पूजा है उस पर विचार करते हैं । श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर दिल्ली से प्रकाशित 'नित्य पूजन पाठ प्रदोष' नामक पुस्तक मेरे सामने है । उस पुस्तक मे नवग्रह पूजा के लेखक का नाम नही दिया गया है। पूजन के किसी भी भाग मे लेखक का नाम नहीं मिला । सम्भव है कि पुस्तक मे लेखक का नाम भूल से छूट गया हो अथवा पुस्तक के सम्पादक को भी लेखक का नाम ज्ञात न हो। इसके लेखक की जानकारी न होने से यह जानना कठिन है कि नवग्रह पूजा की रचना किसने की और कब की । इतना तो अवश्य प्रतीत होता है कि इस पूजा के रचयिता संस्कृतज्ञ भी रहे हैं। इसी कारण उन्होंने नवग्रह पूजा की स्थापना का
पद्य संस्कृत में लिखा है और सम्पूर्ण पूजा हिन्दी में लिखी है ।
नवग्रह पूजा के प्रारम्भ में जो संस्कृत पद्य है उसमें पूजा का प्रयोजन इस प्रकार बतलाया गया है ! भव्यविघ्नोपशान्त्यर्थं ग्रहाच वर्ण्यते मया ।' अर्थात् भव्य जीवों के विघ्नों की शान्ति के लिए मेरे द्वारा ग्रहों की पूजा का वर्णन किया जाता है । यहाँ 'ग्रहाची' शब्द ध्यान देने योग्य है ।
हिन्दी पद्य में भी लिखा है
आदि अन्त जिनवर नमो धर्म प्रकाशन हार ।
भव्य विघ्न उनशान्ति को ग्रह पूजा चित धार ॥ काल दोष परभाव सों विकल्प छूटे नाहि । जिन पूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहि ॥ इस ही जम्बू द्वीप मे रवि शशि मिथुन प्रमान । ग्रह नक्षत्र तारा सहित ज्योतिष चक्र प्रमान ॥ तिनही के अनुसार सो कर्मचक्र की चाल । सुख दुःख जाने जीव को जिनवच नेत्र विशाल ||
यहाँ कोई शंका करे कि नवग्रह पूजा मिध्यात्व तो नही है तो 'जिनपूजा में ग्रहन की पूजा मिथ्या नाहि' यह कह कर शंका का समाधान कर दिया गया है । तथा कर्मचक्र की चाल भी ग्रहों के अनुसार बतला दी गई है । यहाँ ध्यान देने योग्य विशेष बात यह है कि जिनपूजा के बहाने ग्रहो की पूजा की गई है ।
समुच्चय पूजा ' के बाद प्रत्येक ग्रह का अर्थ है । अ में पृथक्-पृथक् तीर्थंकर के पृथक्-पृथक् गृहजन्य अरिष्ट का निवारक चन्द्रप्रभु को चन्द्रग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक और वासुपूज्य को मंगलग्रह जन्य अरिष्ट का निवा रक बतलाया गया है । विमलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ, नमिनाथ और महावीर इन आठ तीर्थकरो को बुध ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक बतलाया गया है। इसी प्रकार ऋषभनाथ, अजितनाथ, सभवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ, सुपारसनाथ, शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ इन आठ तीर्थंङ्करों को गुरुग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक बतलाया गया है । पुष्पदन्त को शुक्र ग्रह जन्य अरिष्ट का निवारक, मुनिसुव्रतनाथ को