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पर्यषण और दशलक्षण धर्म
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पर्व आ जाते हैं। जब कि श्वेताम्बरों में प्रचलित पर्व पूरा किया जा सकता है। सम्भवतः इसीलिए कोषकार दिनों में अष्टमी का दिन छूट जाता है-उसकी पूर्ति ने 'भाद्रपद शुक्ल पंचम्यां अनतरं' पृ० २५३ और 'भाद्रपद होनी चाहिए। बिना पूर्ति हुए आगम की आज्ञा 'नियमेण शुक्ला पंचम्या कार्तिक पूरिणमां पावदित्यर्थः' पृ० २५४ मे हवह पोसहिओ' का उल्लंघन ही होता है। वैसे भी इसमे लिख दिया है । यहां पंचमी विभक्ति की स्वीकृति से स्पष्ट किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि पर्युषण काल मे होता है कि 'पचमीए' का अर्थ 'पचमी से' होना चाहिए। अधिक से अधिक प्रोषध की तिथियो का समावेश रहे। इस अर्थ की स्वीकृति से अष्टमी के प्रोषध के नियम की यह समावेश और जैनियों के विभिन्न पन्थों की पूर्व पूर्ति भी हो जाती है। क्योंकि पर्व में अष्टमी के दिन का तिथियों में एकरूपता भी, तभी सम्भव हो सकती है जब समावेश इसी रीति में शक्य है । 'अनन्तर' से तो सन्देह पर्व भाद्रपद शुक्ला पंचमी से ही प्रारम्भ माने जायें। को स्थान ही नहीं रह जाता कि पंचमी से पर्युषण शुरू
होता है और पर्युषण के जघन्य काल ७० दिन की पूर्ति भी कल्पसूत्र के पर्यषण समाचारी में लिखा है-'समणे मी ति होती है। भगवं महावीरे वीसाणं सवीसइराए मासे वइक्कते वासा
दिगम्बर जैनो मे कार्तिक फाल्गुन और आषाढ मे वासं पज्जोसेवइ।' इस 'पज्जोसेवई' पद का अर्थ अभिधान
अन्त के आठ दिनो में (अष्टमी से पूणिमा) अष्टाह्निका राजेन्द्र पृ० २३६ भा० ५ में 'पथूषणामाकार्षीत्' किया
पर्व माने हैं ऐसी मान्यता है कि देवगण नन्दीश्वर द्वीप मे है । अर्थात् 'पर्युषण' करते थे। और दूसरी ओर कल्पसूत्र
इन दिनो अकृत्रिम जिन मन्दिरों में बिम्बों के दर्शन-पूजन नवम क्षण मे श्री विजयगणि ने इस पद की टीका करते
को जाते हैं। देवो के नन्दीश्वर द्वीप जाने की मान्यता हए इसकी पुष्टि की है (देखें पृ० २६८)
श्वेताम्बरों में भी है । श्वेताम्बरो की अष्टाह्विका की पर्व
तिथिया चैत्र सुदी ८ से १५ तक तथा असोज सुदी ८ से विशति रात्रियुक्ते मासे अतिक्रान्ते पर्दूषणमकार्षीत् ।' १५ तक है। तीसरी तिथि जो (सम्भवतः) भाद्र वदी १३ दूसरी ओर पर्यषणाकल्प चूणि मे 'अन्नया पज्जोसवणादि
दि. से सुदी ५ तक प्रचलित है, होगी। यह तीसरी तिथि सुदी वसे आगए अज्जकालगेण सालिवाहणं भणिओ भद्दन जुण्ह- से प्रारम्भ क्यो नहीं? यह विचारणीय ही है-जबकि पंचमीए पज्जोसवणां'-(पज्जोसविज्जइ) उल्लेख भी है। दो बार की तिथियां अष्टमी से शुरू हैं ।
-अभि० पृ० २३८ उक्त उद्धरणो मे स्पष्ट है कि भ० महावीर पर्यषणा
हो सकता है-तीर्थकर महावीर के द्वारा वर्षा ऋतु
के ५० दिन बाद पर्दूषण मनाने से ही यह तिथि परिवर्तन करते थे और वह दिन भाद्रपद शुक्ला पंचमी था। इस
हआ हो। पर यदि ५० दिन के भीतर किसी भी दिन शुरू प्रकार पंचमी का दिन निश्चित होने पर भी 'पंचमीए' पद की विभक्ति में सन्देह की गुंजाइश रह जाती है कि
करने की बात है' तब इस अष्टाह्निका को पंचमी के पूर्व पर्युषणा पचमी मे होती थी अथवा पंचपी से होती थी।
से शुरू न कर पचमी से ही शुरू करना युक्ति सगत है।
ऐसा करने से 'सवीसराए मासे वहक्कते (बीतने पर)' की क्योकि व्याकरण शास्त्र के अनुसार 'पंचमीए' रूप तीसरी पचमी और सातवी तीनों ही विभक्ति का हो सकता है।
बात भी रह जाती है और 'सत्तरिराइंदिया जहण्णेणं' की
बात भी रह जाती है। साथ ही पर्व की तिथियां (पंचमी, यदि ऐसा माना जाय कि केवल पंचमी मे ही पर्युषण
_अष्टमी, चतुर्दशी) भी अष्टाह्निका मे समाविष्ट रह जातो है तो पर्युषण को ७-८ या कम-अधिक दिन मनाने का
हैं जो कि प्रोषध के लिए अनिवार्य है। कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, और ना ही अष्टमी के प्रोषध की अनिवार्यता सिद्ध होती है जवकि अष्टमी को एक बात और स्मरण रखनी चाहिए कि जैनो मे पर्व नियम से प्रोषध होना चाहिए। हां, पंचमी से पर्युषण सम्बन्धी ति थ काल का निश्चय सूर्योदय काल से ही हो तो आगे के दिनो मे आठ पा दस दिनों की गणना को करना आगम सम्मत है। जो लोग इसके विपरीत अन्य
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