Book Title: Anand Ratnakar Anand Lahri Tippani Sahit
Author(s): Suryodaysagar Gani
Publisher: Agamoddharak Jain Granthmala
Catalog link: https://jainqq.org/explore/022268/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आनंद-रत्नाकरः आनंदलहरी-टिप्पणी-सहितः TKAR MARATHI COM ENT प्रकाशिका श्री आगमोद्धारक ग्रंथमाला कपडवंज. (गुजरात) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोदारक-ग्रंथमाळा ॥ नमोनमः भोवर्द्धमानस्वामिने ॥ गीतार्थाय जगज्जन्तु-परमानन्ददायिने । गुरवे भगवद्धर्म-देशकाय नमोनमः ॥ ध्यानस्थस्वर्गत-आगमोदारक-आचार्यदेवलिखित-विविधप्रस्तावना-सङ्कलनस्वरूपः श्री । आनन्द-रत्नाकरः। [प्रथमो विभागः] सङ्कलयितारः पूज्यागमोद्धारकाचार्यवर्य-शिष्यरत्नाः पूज्य-गणिवर्य-श्रीसूर्योदयसागरमहाराजाः प्रकाशिका गूर्जरदेशीय-खेडामण्डलान्तर्गतकपडवंजनगरीया __ श्री-आगमोद्धारक-जैन-मंथमाला वीर नि. सं. २४९८ वि. सं. २०२८ नियः ५ रुप्यकाः मागमो. सं. २२ प्रथमावृत्तिः ५०० Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क मर कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककर पुस्तक-प्राप्तिस्थानानि रमणलाल जेचंदभाई शाह बाबूलाल केशवलाल कार्यवाहक ११, नगरशेठ मार्केट श्री आगमोद्धारक जैन ग्रंथमाळा रतनपोळ मु. कपडवंज (जि. खेडा) . अमदावाद चंपकलाल टी. बोबर शेषशायी मंदिर पासे मोल्लोत चोरो, खोखरवाड ऊंझा (उ. गु.) - - प्रकाशनोमां लाभ लेनार महानुभावो ५००) श्री जैन सोसायटी संघ, एलिसबीज, अमदावाद-६ का ज्ञानखातामांथी ५००) श्री ऋषभदेवजी केशरीमलजी जैन पेढी, रतलाम (म. प्र.) ज्ञानस्वातामांथी अगाउथी पुस्तकनी प्रतिओ नोधावनार पुण्यात्मामो प्रतिओ १५२ जैन सोसायटी (वि. सं. २०१८ना का.सु. १५ना व्याख्यानमां) PH १५० कपडवंजना श्रावक-श्राविकाओ तरफथी PL आ महानुभावनेने प्रेरणा-उपदेश आपवानुं कार्य पू० प्रौढ | पुण्यप्रभावी गणिवर्यश्री लब्धिसागरजी म०, पू० गणीश्री सूर्योदयका सागरजी म०, पू० गणीश्री यशोभद्रमागरजी म० श्रीए कयु छे. ते बदल हार्दिक अनुमोदना . १ तः ६१ पत्राणि मुद्रक श्री ज्ञानोदय प्रेस ६५ तः १४४ पत्राणि पिंडवारा (राजस्थान) मध्ये नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अवशिष्टं सर्व घोकांटा अमदाबाद. मध्ये वसंत प्रिन्टींग प्रेस घेलाभाईनी बाडी घीकांटा, अमदावाद. मध्ये httre-troprabodhddabhbabastsettesentestadaskse A radeshsecasholastedhsthsbsesentertoobserbsbshottestesbshsbhideshshshathshobabshsbabatahdldka .st. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पूज्यपादाऽऽमोद्धारकाचार्यलिखित-प्रस्तावनासंग्रहस्वरूप- * श्रीमानन्दलहरीसंक्षटिप्पणीसंवलित* श्री....आ....न ...न्द.........त्ना....क....र.... - • ग्रंथ-विषयानुक्रमः प्रकाशकीयं निवेदनम् सम्पादकीयं वक्तव्यम् प्रस्तावना-पीयूष-सरणिः प्रस्तावनासंग्रहसूचिः पृ० आनन्दलहरीटिप्पणी पृ० १ श्रीषिधगोष्ठ्याः प्रस्तावना १-५ १ श्री विद्यगोष्ठीप्रस्तावना-टि० १-९ २ श्रीवीतरागस्तोत्रस्य उपक्रमः १०-१६ २ श्री वीतरागस्तोत्रोपक्रम-टि० -२१ ३ श्रीस्याद्वादभाषा-प्रस्तावना २१-१६ ३ श्री स्या०भा० प्रस्ता• टि० २४-२५ ४ श्रीपाक्षिकसूत्रस्योपक्रमः २६-३१ ४ श्री पासू० उप० टि० ३२-३५ ५ श्रीकल्पसूत्रस्योपक्रमः ३६-४२ ५ श्री कल्प० उप० टि० ४४-४९ ६ श्रीमध्यात्ममतपरीक्षाप्रस्तावना ५०-५४ ६ श्री अभ्या० परी• उप० दि० ७ श्रीवन्दारुबृत्ति-उपोद्घातः ५९-६१७ श्री वंदावृ० उपो० टि०६२-६७ ८Aश्रीछन्दोऽनुशासनग्रन्थस्य उपक्रमः६८-७० ८ श्री छंदो० उप• टि० ७४-५७ ९B , पूतिः ७१-७३ ९ श्री जल्प० प्रस्ता० टि० ८२-८७ १० श्रीजल्पकल्पलता-प्रस्तावना ७८-८१ - १० श्री योग समु० उपो. टि० ११ श्रीयोगडष्टिसमुञ्चयप्रन्थस्य ९२-९४ उपोद्घातः ८८-९१ ११ श्री कर्म० उपो० टि० १०४-११६ ११ श्रीकर्मप्रन्थोपोद्घातः ९५-१०२ १२ भी पंचा प्रस्ता० टि० १२२-१२८ १२ भीपंचाशकप्रन्थप्रस्तावना ११७-१२१, १३ श्रीकर्मप्रकृत्युपोधातः १२९-१३२ १३ श्री कर्मप्रक० उपो० टि० १४ श्रीधर्मपरीक्षायाः प्रस्तावना ११२-१४४ १५ भी धर्मपरी० प्रस्ता• ठि० १५५-१४२ १५ भीषद पुरुषचरित्रोपक्रमः १५०-१५२ १५ भी षट० बरि० उप० रि० १५३-१५५ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SE ६१ स्थलपूर्तिकरणे उपयोगि सु भा षित सं च यः पत्रम् १ परमात्मस्वरूपम् मागमस्तुतिश्च ५ ८ देवगुरुधर्माणां मार्मिकी व्याख्या २ जैनागमप्रधानता २३ ९ मुमुक्षपयोगी संक्षिप्ताक्षरं ও জিলালাগন্ধমনীয় सुभाषितचतुष्कम् ५ मन्तःप्रार्थना ५ संसारिजीवेच्छा ममतात्यागशिक्षा ४३ १० मोहनीयकर्मप्रबलता ६ मध्यात्मप्राप्तिः कदा?? ५४ ११ सम्यग् हदि धारणीयम् ७ गुणपूजामहत्वम् ५८ १२ गुरुनिश्रयोहनीयं सम्यक् ५८ हा...दि.......... स...म....पं....ण....म... == === श्रीमतां पूज्यपादानामागमपारदृश्वनां श्रुतज्ञानपारावारपारीणानां शास्त्रतत्त्वपर्यालोचनक्षमपटुक्षयोपशमवतां जिनप्रणीतागमतत्त्वतलस्पर्शिव्याख्यासुदक्षाणां शासनप्रत्यनीकविविधवादिदोवंसनक्षमवाग्विलासाश्चितानां पूज्यपादानामागमोद्धारकाणाम् ध्यानस्थस्वर्गतानाम् सूरिशेरवराणाम् श्रीआनन्दसागरसूरीश्वराणाम् ___ करात्रयोः पदाम्बुजयोः सा....द....रं....स....प्र....अ....ये ..... श्रद्धाञ्जलिपुरस्सरं प्रस्तुतं पुस्तकरत्नं समर्प्यते तदीयनामोल्लेखसनाथया प्रकासनकारिण्या संस्थवा . Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्र....का....श....क....त ...र....फ....थी.... देवगुरुकृपाए स्वनामधन्य आगममर्मज्ञ आगमसम्राट् पू. आगमोद्धारक. स्व. आचार्यदेवश्रीना नामथी संकळा येली अमारी संस्था तरफथी वात्सल्यसिंधु पू. गच्छाधिपति आचार्यदेव श्री माणिक्यसागरसूरीश्वरजीनी देखरेखतळे पू. आगमोद्धारकश्रीए अप्रतिम प्रतिभावळे संस्कृतप्राकृत-गुजराती-हिंदीमां रचेल विविध नानी-मोटी कृतिओ प्रकाशित करवानुं सौभाग्य मळ्यु छे, जे अमारे मन खूब आनंदनी वात छे. वि. सं. २०१०मां पू. आगमोद्धारकश्रीना शिष्यरत्न पू. विद्वदरत्न गणिवर्यश्री सूर्योदयसागरजी म.नी प्रेरणाथी आ संस्था गतिशील बनी छे, पण आज सुधीमा प्रकाशित सघळा ग्रंथो करतां सापेक्ष रीते एम कहेवानी धृष्टता अमे करीए छीए के "प्रस्तुत “आनंदरत्नाकर" ग्रंथ सौथी विशिष्ट छे." केमके पू. भागमोद्धारकश्रीनी अथाग विद्वत्ता प्रौढ प्रतिभा भने विषयोने संक्षेपवानी उदात्त नीति आ ग्रंथमां संग्रहायेली विशालकाय प्रस्तावनामोमां स्पष्ट रीते झळके छे. पूज्य गणिवर्यश्री सूर्योदयसागरजी म.नी प्रेरणाथी पूज्य शासनसुभट संघसमाधितत्पर शासनसंरक्षक तपस्वी उपाध्याय श्री धर्मसागरजी म. गणिवरना शिष्य पू. मुनि श्री अभयसागरजी म.गणीप खब खंतथी प्रयत्न करी प. आगमोद्धारक आचार्यदेवश्री ए प्रौढ संस्कृत भाषामा ८२ ग्रन्थोनी टखेलो प्रस्तावनाओन व्यवस्थित संपादन भने कठिन शब्दोना अर्थ, अन्वयनी संगति मादि माटे "आनंदलहरी" नामे सुंदर टिप्पण लखीने पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेवश्रीनी सर्वतोमुखी प्रतिभाना अंतरंग दर्शन अल्पबोधवाळा संस्कृत भाषाना सामान्य ज्ञानवाळा जिज्ञासुमो पण करी शके तेवी सरळता करी आपी छे. - ते बदल अमे पूज्य महाराजश्रीनी श्रुतभक्तिनी हार्दिक वंदना साथे अनुमोदन करोए छोए. मा बहुमूल्य ग्रंथना प्रकाशन माटे आर्थिक दृष्टिए अमोने निश्चित बनावनार धर्मप्रेमी ते ते महानुभावोने उपदेश-प्रेरणा आपो प्रकाशन कार्य संबंधी आर्थिक सरळता माटे पुनित प्रेरणा आपनार पू. आगमोद्धारकश्रीना सर्वप्रथम शिष्यरत्न पू. स्व. पं. श्री विजयसागरजी म. गणीना शिण्य रत्न___प्रौढ पुण्यप्रतापी, शासनप्रभावक, कपडवंज, लुणावाडा, महीदपुरना प्राचीन जीर्ण मंदीरोना जीर्णोद्धार करावनार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थागम ज्योत (पू. आगमोद्धारकश्रीना अप्रकाशित व्याख्यानोना प्रकाशन रूप) ना स्थायी कोश, श्रुत संरक्षण समिति (बधा आगमो टीका साथे हाथना बनेल कागळो उपर लहीयानो रोकी लखावी लेवानी योजना) आदिना संस्थापक-प्रेरक पू. गणिवर्यश्री शांतमूर्ति श्री कब्धिसागरजी म. तथा पू. गणिवर्य श्री सूर्योदय सागरजी म. पू. गणिवर्यश्री यशोभद्रसागरजी महाराजश्रीए पू. गमोद्धारक आचार्यदेवश्रीना विद्वद्भोग्य आ ग्रंथना प्रकाशन माटे धर्मप्रेमी गृहस्थोने उपदेश मापी जे आर्थिक सहयोगनो लाभ अपाव्यो छे, ते बदल अमो श्रद्धावनत मस्तके ऋणे पू. गणिवर्यश्रीओनी गुरुभक्तिनी अभिवंदना करीए छीए. छेवटे साचा दिलथी निखालसभावे क्षमा याचना करवानी छ के आ ग्रंथर्नु कार्य पू. महाराजश्रीए वि. सं. २०२० ना चोमासामां तैयार करी प्रेसमा अमारी मारफत आपेल. पण परिस्थितिवश प्रेस बदलाववानी अगवडो तेमज अनिवार्य कारणसर पार्या करतां खूबज मोडं थयु छे. जे अमोने पण शल्यनी जेम खूचे छे. पण साथे ज आवा अनुपम ग्रंथ रत्ननु प्रकाशन करवानो अमूल्य लाभ मळ्यो, ते बदल अमो अमारी जातने धन्य मानीए छीए. - वधुमां खास जणाववायूँ के, आ ग्रंथन प्रकाशन भनेक मुश्केलीओमाथी पसार थयुं छे. मां खास करीने आ ग्रंथना छापकामनी शरुआत ज्ञानोदय प्रेस पिंडवाडामां थयेल, पण संजोगवश ८ फर्मा (६४ पानां) थी काम मटक्यु, पछी अमदावाद नवप्रभात प्रेसमां काम शरु थयु त्यां पण दोढ वर्षमा मात्र बे फर्मा थया, परंतु पछी पू. गणिवर्यश्री अभयसागरजी म.नी सूचनाथी चाणस्मावाला धर्मप्रेमी श्री बाबुलाल केशवलाल शाह (११-नगरशेठ मार्केट, रतनपोळ,अमदावाद) मारफत काम गोठवायु अने खूबज चीवट, खंत अने महेनतथी सुंदर कार्य झडपी करवानुं लक्ष्य राखी मा ग्रंथना वर्षों जुना छापकाममां अमारा मंद थयेल उत्साहने वेगवंत बनाव्यो छे. तेथी बाबुभाई चाणस्मावाला तथा श्री ज्ञानोदय प्रेस,श्री नवप्रभात प्रेस, तथा प्रस्तावना आदि छापनार वसंत प्रेसना तथा तेमना व्यवस्थापक सहयोगीओनां धर्मस्नेहनी हार्दिक अनुमोदना करीए छीए. टाईटलनुं छापकाम सुन्दर रंगीन सहीमा आकर्षक रीते करी आपनार दीपक प्रिन्टरी तथा राइटलनुं सुन्दर चित्र पू. महाराजश्रीनी दोरवणी प्रमाणे बनावी आपनार विशिष्ट कलाकार छता छपा रही कलानी साधना करनार मान्यवर श्री दलसुखभाई शाह (आंबावाडी-रामनगर-साबरमती अमदाबाद-५) मार्टिस्टना धर्मप्रेमनी हार्दिक अनुमोदना करीये छीए. प्रांत विविध तबकाओमाथी पसार थयेल आ कार्यमां दृष्टिदोष के छमस्थसुलभ प्रमादादियो Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे कई क्षतिमो रही होय, ते सुज्ञ पाठको हंसक्षोरन्याये उदार भावे क्षतव्य गणी प्रस्तुत ग्रंथना पठन-पाठन-वाचन-अभ्यास आदि द्वारा पू. आगमोद्धारक श्रीनी अप्रतिम बहुमुखी प्रतिभापूर्वक आदेखायेल विशिष्ट ग्रंथरत्नोना रसास्वादना भागी बनी आत्मकल्याणना पंथे मंगळयात्रा धपावे ए कल्याण कामना. दलालवाडो, कपडवंज (खेडा) । निवेदक वी. नि. सं. २४९८ रमणलाल जेचंदभाई वि. सं २०२८ मुख्य कार्यवाहक चै. व. ९. श्री आगमोद्धारक जैन ग्रंथमाळा मु....मु....क्षु....भा....व....नां सा....ध....नो.... गुणानुराग, स्वदोषदर्शन, ज्ञानीनी निश्रा कर्तव्यनिष्ठा थी मुमुक्षुभावाकेलवाय छे. -पू. आगमोद्धारकरी - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ....प....क्र....म....णि....का निबन्धयितारः पूज्याचार्यवर्यश्रीविजयधर्मधुरंधर सूरीश्वरमहाभागाः विश्वस्मिन् विश्वेऽस्मिन् प्राणिनां परमात्भपथ-प्राप्तिः परमदुर्लभाऽस्ति, नरभवादिकमवाप्यापि केषाश्चिदेव पुण्यभाजां भवति तत्त्वबुभुत्सा । तत्वं तु भगवद्धिरर्हद्भिः केवलज्ञानतो ज्ञात्वा लोकाऽलोकस्वरूपमखण्डं देशितमात्महितकरम् । अर्थतो देशितां जिनैर्गणधरैश्शब्दतो प्रथितां तां तत्त्वपूर्णा द्वादशाङ्गीमवलम्ब्यानेके भव्या भवपारावारस्य परं पारं प्रयातुमुघता अभूवन् । परं कालानुभावतः सत्वानां सत्त्व-हान्यादि सञ्जातम् । तत एव महाप्रवहणप्रख्या सा द्वादशाङ्गी शौर्णविशीर्णाऽभवत् । एवमपि सन्ति साम्प्रतमुडुपसदृक्षाः शुचिभावभृता आगमादयः सहस्रशो प्रन्थाः । तेषु तेषु अन्येषु द्रव्यानुयोग-चरणचकरणानुयोग-धर्मकथानुयोग-गणितानुयोगविवरणं रुचिकरं वरीवर्ति। नरजन्मन्यपि प्रायशो जीवास्तीत्रज्ञानावरणीयकर्मोदयवशवर्तिनोऽक्षरश्रुतलाभमपि न लभन्ते; अक्षरश्रतमधिगत्य व्यावहारिकविज्ञानपङ्के पतिता बहुशो न ततो बहिरागन्तुमलम् । एवञ्च सत्यपिवर्यसाधनजाते ततश्च भूरिशो मिथ्यात्वोदयेन विपरीततत्त्वशीलन एव स्वसमयं गमयन्ति । तथा चजिनवरोपदिष्टं गणधरादिसूरिप्रवर प्रथितं सम्यक् ध्रुतमधिगन्तुं भव्यः साधु यतनीयम् । ___ तत्र प्रथमं श्रुतमिदं परमाभीष्टसाधनमस्तीति विश्वासो दृढभूमिमानेयः । ततश्च तत्तश्छू तप्राप्तियोग्यं स्वसामर्थ्यमनुसन्धेयम् । गुरवो योग्यतामवबुध्य शिष्यं तत्तदध्ययनाय प्रवर्तयन्ति, परं तत्तद्ग्रन्थपरिचयाघापादनयोग्यस्य प्रस्तावनादिकस्य साम्प्रतं शिष्टसम्मतस्य प्रारम्भे लेखनस्य व्यवहारः प्रवर्तते । दृष्ट्वा तद् ग्रन्थं वाचयितुमुत्सहन्ते शतशो जिज्ञासवो जनाः । आनन्द -रत्नाकराख्योऽयं ग्रन्थो न स्वतन्त्रः, अपितु तत्तत्पञ्चदश ग्रन्थानां प्रस्तावनानां सङ्ग्रहात्मकः । श्रीविद्यगोष्ठी-श्रीवीतरागस्तोत्र-श्रीस्याद्वादभाषा-श्रीपाक्षिकसूत्र-श्रीकल्पसूत्र-श्रीअध्यात्ममतपरीक्षा-श्रीवन्दारुवृत्ति-श्रीछन्दोऽनुशासन-श्रोजल्पकल्पलता-श्रीयोगदृष्टिसमुच्चय-श्रीकर्मग्रन्थ -श्रीपश्चाशक -श्रीधर्मपरीक्षा-श्रीषट्पुरुषचरित्रेतिपंचदश ग्रन्था लब्धप्रतिष्ठाः सूरिप्रवरसन्दृब्धामात्म-बोपदायिनों शेमषी जनयितुमवन्ध्यजननीकल्पा विराजन्ते यथा, तथैवायं प्रस्तावनाकलापोऽपि । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसां प्रस्तावनानां प्रथनमानन्दसागरसूरीश्वरैः श्रीमद्भिश्शास्त्रपारावारतलावगाहनावाप्तविशिष्टबोधरत्नैश्चके। चिरत्नाचार्यस्मृतिविधायिनी श्रुतोपासनाऽमीषां विदितप्रायैव । प्रस्तुतप्रस्तावनाकदम्बकात्मक आनन्दरत्नाकरोऽपि विदुषामेतेषामुपरि सद्भावाऽहोभावं जनयिष्यत्येव । प्रस्तावनापञ्चदशकेऽस्मिन् तत्तद्ग्रन्थोपयोगिनी विचारणा प्रौढ्या प्रतिपादिता वर्तते, ततश्च तत्तद्ग्रन्थाध्ययनाय समुत्सहते चेतो योग्यानाम् । विशिष्टावबोधमन्तरा प्रस्तावनावाचनमपि न सुकर सामान्यजनतानाम् । प्रस्तावनायाः काठिन्यमपाकतुं तत्तत्प्रस्तावनाया अनन्तरं साधीयसी टिप्पणी वितीर्णास्ति । टिप्पणीयं श्रीमता मुनिवराऽभयसागरेण गणिना विदधे, सेयं पिपठिषूणामतिशयेनोपयुक्ता भाविनीति स्पष्टम् । सर्वा इमाः प्रस्तावना अर्धशतकसंवत्सरपूर्वमाविर्भूताः सन्ति । अन्याः शतशो ग्रन्थानां प्रस्तावना अपि सङ्ग्रहरूपेणेत्थं प्रकटीभवेयुस्तदा श्रुतविवृद्धौ परमनिमित्तं भविष्यन्त्येव, स्यात्समेषामज्ञानतिमिरनिराकरणकुशलः सम्यग्ज्ञानसूर्योदय इति ॥ (राजपुर) विजयधर्मधुरन्धरसूरिः (तणसा) पौषशुक्लापञ्चमी (सौराष्ट्र) ग्लौतनयः ___ श्रामण्यशुद्धिहेतवः ० आगमपर्यालोचनम् गीतार्थनिश्राविहृतिः संयम-यतना परेता श्रामण्यशुद्धेः प्रधान हेतवः ॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सम्पादन सम्बन्धि............ श्रद्धाभक्तिभरोपनीताऽपूर्वहृदुल्लासपरिपूताऽन्तरङ्गबहुमानगर्भश्रुतभक्तिवरप्रतिभूरुपं सरससुविशदजिनागम वरश्रुतोभयालम्बनेनापारभववारांनिधितरणेप्सूनां सद्विवेकचक्षुष्कानां सुजनमतल्लिकानां प्रवरकरकुशेशययोरुपदीक्रियमाणमिदं हि ग्रन्थरत्नमापाततोऽपि सुभगविद्याविलासाञ्चितं सत् प्रवरतात्विकबोधोत्पादनप्रत्यलं प्रतीयमानं सुनिपुणधिया पठनादिषु प्रेरयमाणमन्वर्थाभिधानं सुबहुविवेकभ्राजिनां हि वाचकवर्याणां ग्रन्थस्याऽन्तरङ्गस्वरूपस्य संक्षिप्य दर्शनायोत्कतामुत्पादयेदेव, न हि चित्रमत्र, अत' एव तत्सन्तुष्ट येऽल्पो ह्यनल्पार्थशालिगभीरतमरहस्यपरिपूरितग्रन्थवस्तूनां परिचयात्मको ह्येष प्रयासों वितन्यते । ग्रन्थो ह्ययं न हि स्वतन्त्रः, न वाऽस्य प्रन्थरूपेण विरचनाय प्रकृतग्रन्थान्तर्गतनिबन्धकारस्य वा प्रवृत्तिर.प, किन्तु जगज्जन्तुजीवातुभावजीवनोपत्ति-वृध्द्यादिप्रवणजिनशासनापारगगनोद्योतिनां विशिष्टज्योतिष्पिण्डानां समुज्ज्वलश्रुतज्ञानभक्तिसमुपबृंहिताऽऽगमपठनपाठनादिवृद्धिकरणोद्योगाव्युच्छित्तिकरणाशयादिभिर्विशिष्टतमैः प्रवरज्योतिष्पिण्डसमैः,भस्मकराशिग्रहावरोधपरिपुष्टविषमदुष्षमारप्रभावाद्यवष्टब्धजिनशासनप्रथितप्रतापप्रसरवति वैक्रमीये विंशतितमे शतके जीवमात्रस्य विषमदुर्भेयकर्मप्रन्थिविभेदने क्षमस्य द्वादशाङ्गश्रुतमयवाणेः परिचायकानामागमानां पठन-पाठनादिप्रवृत्तिमन्दतायाः व्यासङ्गहानेश्च पुरातनभाण्डागारस्थितहस्तलिखितप्राचीनप्रतीनां कीटकोपदेहिकादिपरिदष्टत्व-प्रतिदौर्लभ्य-लिप्यनवबोधादिकारणैः सुतरां वृद्धिमति सति विशिष्टपूर्वभवाराद्धश्रुतज्ञानबलेन लघीयसि वयसि सुदीक्ष्यात्यल्पसमयादूर्वं गुरुविरहेऽप्यनन्यलब्धसाहाय्यैः प्रतिसमीक्षण-मुद्रणयोग्यताऽऽपादनशुद्धिपरिमार्जनप्रभृतिकार्यजातमदम्यश्रुतभक्तिविजृम्भितोत्साहैरखण्डं सम्पाद्य, स्थाने स्थाने विशालागम वाचनासप्तकञ्चायोज्य श्रमणसधे आगमज्ञानपरिपाटिसमुपजीवकाः 'कलिकालेऽप्रतिमश्रतधरेति यथार्थबिरूदधारकैरागममर्मज्ञैः ध्यानस्थस्वर्गतैः केनाऽपि विधिपूर्वमदत्तमपि याथार्थ्यन स्वतः लब्धम् "आगमोद्धारके"त्युपपदरूपविशेषणं सफलीचक्राणैः श्रीआनन्दसागरसूरीशैः भगवद्भिः एकाधिकेन्द्रसंख्यामिते सुदीर्धे संयमपर्याये रत्नत्रयाराधनमक्षुण्णं प्रकुर्वद्भिः प्रतिवादिपराभवशासनप्रभावना-सत्तीर्थयात्रासङ्घ-सुविशालशिष्यसमुदायपरिकर्मणाऽऽदिविविधधर्मकार्यव्यापृतिमत्त्वेऽपि अस्थिमज्जाऽनुगतश्रुतानुरागपरिप्रेरितधिषणाव्यापारैः पूर्वभवीयविशिष्टक्षयोपशमबलेन पादोनद्विशत (१७५) मितागम--प्रकरण--चरित्र--कथाग्रन्थप्रभृतीनां ग्रन्थरत्नानां सुविशुद्ध--स्वच्छ-सरलबोधानुगुणं सम्पादनं प्रकृत्य विविधधर्मप्रेमिगृहस्थाऽऽदोन प्रबोध्य सुमहार्घसुन्दरतमपत्रेषु सम्मुद्रय जिनवाणीसमाराधनसमीहावतां विद्वन्मतल्लजानां प्रकरण--कथाग्रन्थादिसमभ्यासेनाराधनाया पथि भावोम्लासप्राप्तीहावतां बालजीवानाश्च हिताय प्रसिद्धिमानीतम् । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेषु च त्र्यशीति (८३) संख्यमन्येषु पूज्यपादैरागमपारदृश्वभिरागमोद्धारकैः बहुश्रुतसूरिपुरन्दरैरागमोद्धारकाचार्यपादैः बालजीवानां संक्षेपतोऽपि समस्तग्रन्थसारतत्त्वपरिचायनक्षमाः विद्वद्भोग्यप्रौढभाषाशैलीनिबद्धाः सुरुचिरहृयप्रयोगावलीभ्राजिताः सुन्दरतमाः प्रस्तावनाः प्रस्तावनो--पक्रमोपोद्धातो-पक्रमणिकादिरूपेणालेखिताः । - ताश्च येषु ग्रन्थेषु सन्ति, तेषां नामानि प्रस्तावनाऽऽलेखनसमयनिर्देशसहितानि स्वेवम्:सं. ग्रन्थनाम कदा लिखिता? १ श्रीत्रैविद्यगोष्ठी विक्रम सं. १९६६ मासो सु. ६. २ श्रीवीतरागस्तोत्रम् १९६७ पौष कृ. ५ ३ श्रीस्याद्वादभाषा १९६७ माघ सु. १५ ५ श्रीपाक्षिकसूत्रम् १९६७ जे. सु. ११ ५ श्रीकल्पसूत्रम् १९६७ असाड मु. १४ ६ श्रीअध्यात्ममतपरीक्षा १९६७ ७ श्रीवंदारूवृत्तिः १९६८ ८ श्रीछन्दोऽनुशाशनम् ९ श्रीजल्पकल्पलता १९६८ भा. सु. १५ १० श्रीयोगदृष्टि-समुच्चयः १९६८ भा. कृ. १३ ११ श्रीकर्मग्रन्थः १९६८ १२ श्रीपञ्चाशक ग्रन्थः १९६८ १३ श्रीकर्मप्रकृतिः १९६९ फा. कृ--२ १४ श्रीधर्मपरीक्षा १९६९ १५ श्रीषट्पुरुषचरित्रम् १९७१ माग. कृ. १२ १६ श्रीकल्पसूत्रम् १९७० श्रा. सु. १ .१७ श्रीस्थूलभद्रचरित्रम् १९७१ पौ. सु. ६ १८ श्रीललितविस्तरा-पञ्जिका १९७१ श्रा. कृ. २ १९ श्रीउपदेश-रत्नाकरः १९७१ श्रा. कृ. ९ २० श्रीमलयसुन्दरी-चरित्रम् । १९७२ पौ. सु. ५ २१ श्रीगुणस्थान-क्रमारोहः १९७२ जे. कृ. ६ २२ श्रीसम्यक्त्व-परीक्षा-.. उपदेशशतको ... १९७३ का.क । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्थनाम २३ श्रीधर्मकल्पद्रुमः २४ श्रीधर्मसङ्ग्रहः भाग २ २५ श्रीश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः २६ श्रीप्रश्नोत्तर--रत्नाकरः २७ श्रीउपमितिभवप्रपञ्चकथा २८ श्रीकल्पसूत्र-सुबोधिका २९ श्रीश्रीपालचरित्रम् (प्राकृतम्) ३० श्रीविंशतिस्थानकचरित्रम् ३१ श्रीधर्मबिन्दु-प्रकरणम् ३२ श्रीप्रकरणसमुच्चयः ३३ श्रीसुबोधा समाचारी ३४ श्रीप्रवचनसारोद्धारः ३५ श्रोचारप्रदीपः ३६ श्रीनवपदप्रकरणलघुवृत्तिः ३७ श्रीपंचवस्तुप्रकरणम् ३८ श्रीनवपदप्रकरणबृहद्वृत्तिः ३९ श्रीनन्यादीनाम् अकारादिः ४. श्रीयुक्तिप्रबोधः ११ श्रीशास्त्रवार्तासमुच्चयः १२ श्रीजीवसमासः ४३ श्रीनन्दिचूर्णिवृत्तिः ४४ श्रीमहावीरचरित्रम् ४५ श्रीवन्दारवृत्तिः (द्वि. सं.) १६ श्रीपञ्चाशकादीनाम् अकारादिः १७ श्रीउत्तराध्ययनचूर्णिः १८ श्रीदशवैकालिकचूर्णिः १९ श्रीतत्त्वतरङ्गिणी कदा लिखिता? विक्रम. सं. १९७३ माग. कृ. १३. १९७४ फा. सु. ५ १९७५ जे. कृ. १२ १९७५ आसो. सु. १३ १९७६ १९७९ श्रा. सु. ११ १९७९ मासो कृ. ५ १९७९ १९८० फा. सु. ५ १९८० फा. सु. ५ १९८. १९८१ आसो कृ. १२ १९८१ १९८३ का. सु. ३ १९८३ का. सु. ९ १९८३ मासाड कृ. ९ १९८४ पो. कृ. १३ १९८४ असाड कृ. १ १९८४ श्रा. सु. ३. १९८४ श्री. सु. ३ १९८४ १९८५ १९८५ माग. सु. ५ १९८६ आसो सु. १ १९८९ आसो सु. १ १९८९ फा. सु. ३ १९९. भा. कृ. १ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रन्यनाम कदा किविता ! विक्रम सं. ५० श्रीललितविस्तरा टिप्पणम् १९९. भा. कृ.८ ५१ श्रीसिद्धप्रभाव्याकरणम् १९९० मासो मु.२ ५२ श्रीआवश्यकसूत्रं (मलयगिरिवृत्तिः) भा. ३ १९९२ माह सु. २ ५३ श्रीतत्वार्थहारिभद्रीयवृत्तिः १९९२ माह सु.६ ५४ श्रीषोडशकप्रकरणम् १९९२ ५५ श्रीविशेषावश्यकभाष्यम् १९९३ माग सु. ११ ५६ श्रीयतिदिनचर्या १९९३ फा. कु. १ ५७ श्रीप्रवचनपरीक्षा ५८ श्रीबुद्धिसागरः १९९३ वै. सु. १३ ५९ श्रीकल्पकौमुदी १९९३ मा. मु. ६० श्रीउत्पादादिसिद्धिः १९९३ मासो कृ. ११ ६१ श्रीपञ्चवस्तुभाषान्तरम् १९९३ ५२ श्रीपुष्पमाला-उपदेशमाला १९९३ ६३ श्रीमङगाकारादिः १९९३ ६४ श्रीप्रवचन परीक्षानी महत्ता १९९३ ६५ श्रेतत्त्वार्थ कर्ततन्मतनिर्णयः १९९३ ६६ श्रीकथाकोषः १९९५ का, सु. ५ ६७ श्रीकल्पसमर्थनम् १९९१ माग.सु.४ ६८ श्रीकृष्णचरित्रम् १९९. वै. कृ. ७ ६९. श्रीश्रेणिक-चरित्रम् १९९४ जे. सु. १ ७० श्रीभवभावना १९९४ जे. सु. १५ ७१ श्रीप्रवज्याविधानकुलकम् १९९४ असार १ ७२ श्रीनम० माहात्म्यम् १९९४ मसाड सु. १० ७३. श्रीदेववंदनभाष्यम् १९९४ भा. मु. २ ७४ श्रीश्राद्धदिनकृत्यम् भा. १ १९९४ पासो सु. १५ ७५ श्रीश्राद्धदिनकृत्यम् भा. २ १९९५ चैत्र सु. १५ ७६ श्रीस्वाध्यायप्रकाशः १९९५ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. प्रन्थनाम ७७ श्रीप्रशमरति - प्रकरणम् ७८ श्री अध्यात्म कल्पदुमः ८९ श्रीपञ्चाशकप्रकरणम् (द्वि. आ . ) ८० श्रीआचाराङ्गचूर्णिः ८१ श्रीउपाङ्गाकारादिः ८२ श्रीलघुसिद्धप्रभा ८३ श्रीउपदेश - रत्नाकरः १० ● कदा लिखिता ? विक्रम सं. १९९६ चै. कृ. ६ १९९७ का. सु. ५ १९९७ वै. सु. ३ १९९८ २००५ का. सु. १५ २००५ माग. सु. २ २००५ एतासु च नैकविधा सामग्नी पूज्यागमोद्धारक पादैः प्रकृष्टतमशैल्या सङ्कलिता परिदृश्यते । अतः पूज्यागमवाचनादातुः सूविर्यस्य व्यक्तित्वमनभिजानानां विदुषां बालजीवानाञ्च मानसे वैक्रमीयविंशतितमशताब्द्या अप्रतिमश्रुतघररूपेणागमोद्धारकस्य परिचायनाय शैलाणानरेश - सेमलियापंचेडाप्रभृति-संस्थानाधीशानां हृदि धर्मबीजवपनपटूपदेशलब्धिसम्पन्नानामागमावताररूपाणामेतेषां सूरिवर्याणां परमविनेयानां मुख्येषु द्वात्रिंशच्छिष्येषु लघुतमवयसि दीक्षितत्वेन सुहृद्यज्ञानार्जनसुसंयमपालनादिगुण कदम्बेन चाऽतिप्रीतिपात्राणां पूज्यवर्याणां गणिवर्याणां श्रीसूर्योदयसागरजितां महाभागानां मनसि बहुश्रुतसूरिपुरन्दराणां स्वगुरुवर्यांणां निष्प्रतिमागधवैदुष्प्रभावनाये हि भक्तिप्रेरितः शुभोऽध्यवसायो चेतसि प्रादुर्बभूव, यत् - " एतासां समासां प्रस्तावनानां यदि व्यवस्थिता सङ्कलना क्रियेत तर्हि विद्वत्यभामनस्तोषकारिणां विदुषां मनसि पूज्याङमोद्धार काssवार्यवर्यस्यागाधाऽद्विर्त याऽनन्यसाधारगी सर्वतोमुख प्रौढवैदुष्यावबोधनूलिका चमत्कृतिः स्यादिति । " अज्ञाताऽप्रतर्कित शुभवेलायामुत्पन्नो ह्ययमध्यवसायः गुरुभक्ति - श्रुतोपासनादिप्रबलत मे रणादिप्रगुणितः शनैः शनैः यथाऽवसरं पूज्याऽऽगमत्तत्त्वज्ञ ऽऽगमसुगूढमर्मोद्घाटनपटिष्ठश्नयोपशमविभ्राजि पूज्यपादागमोद्धारकश्री सम्पादितपादोनशतद्वयाधिक विशालग्रन्थवारांराशितः पुण्याssगमवारांनिधिकुशलपरिकर्मितधीर प्रावणि कोत्तं सायमानसूरिभगवद् लिखित प्रस्तावना सनाथग्रन्थरत्नानि विचिनुय तद्गतप्रस्तावना -पक्रमो - पाद्यात भूमिकाऽऽदिविविधशीर्षकरूपेण पूज्याऽऽगपोद्धारकसूरिपादाssलेखितवरनिबन्धानां मुद्रणयोग्य प्रतिलिपिकरणकारणादिरूपेण वर्यसङ्कतनारूपेण मूर्त्तभावमभजत् कतिपयैः वर्षैः । एवं सङ्कलनात्मकं पुण्यकार्य विदधतां सहृदयानां मनीषिसत्तमानां पूग्यवर्याणां गणिवर्याणां श्रीसूर्योदयसागरजी महाभागानामा बाल्यतोऽध्ययन-संवसन - विविधविद्याक्षेत्र परिकर्मणादिषु सहभागिल्वरूपं प्रवरभागधेय लभ्य मलभ्य लाभलघिमिव सम्प्राप्यात्मनः सुभगत्वमेतत् पंक्ति के स्वकेन लब्धमस्ति । Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन हेतुना यथाऽवसरं श्रीमद्भिः पूज्यवर्यैः वीतरागोपासना-श्रुतभक्ति-कर्मग्रन्थादिसूक्ष्मतात्विकविचारसुदक्षः धर्मस्नेहप्रपूरितकरुणाप्रेरितैः सद्भिः सूर्योदयसागरगणिभिः सुतरां प्रयतनेन राद्धप्रगुणितरसवतीस्थालवत् समस्तं हि सङ्कलनं पूज्याऽऽगमोद्धारकश्रीवर्यकृपाकटाक्षद्रव्यप्राप्तिलम्भेनाऽपि वञ्चितस्य पूज्यवर्याणामगाघशक्तिप्रसरबजाऽपेक्षयाऽतितुच्छशक्तिमतोऽपि प्रकृतपंक्तिलेखकस्य पुरतः समुपन्यस्तं, साग्रहं सानुरोधं चैतत्सङ्कलनं व्यवस्थितरूपेण सम्पादनाय प्रेरितोऽयं जनः, समर्थितं च विशदाऽऽन्तरनावप्रकटीकरणेन यत्-"ज्याऽऽगमचिरस्थायित्वक्लप्तिप्रवराध्यवसायवतां बहुश्रुतप्रव. राणां वादिमतंगजसिंहानां सूरिवर्याणांप्रवरातिशयितवैदुभ्यं यार्थार्थेन विद्यावारिधिव्यालोडनक्षमविदुषां मनसि प्रतिबिम्ब्येत, तथाऽयं प्रस्तावनासङ्ग्रहः सुरुचिरशैल्या समुपस्थापनोयः विद्वज्जनसमक्षं" इति प्रबलप्रेरणयाप्रोत्साहितोऽयं सेवकजनः । ___ उररीकृतश्चामोदपूर्णहृदयेनैतत्व्याजेन पूज्यपादाऽऽगमोद्धारकश्रीणांद्रव्य तोऽपरिचितव्यक्तित्वस्य याथार्थ्यावबोधेन सता श्रुतज्ञानभक्ति-सद्गुरुवर्यसेवा-धर्मस्नेहिकल्याणमित्रातिगपूज्यवर्याबाल्यसहोषितानां गणिवर्यानामान्तरप्रेरणासफलीभवनाऽऽदिविपुललाभानपेक्ष्य शक्ति-मतिसामर्थ्याननुरुपमतिमहाभगीरथप्रयत्नसाध्यमपि एतत् सम्पादनपुण्यकार्य देवगुरुकृपाकटीक्षकणिकाया अप्यचिन्त्य सामर्थ्यस्यानुभूतत्वात्तदीयोपष्टम्भविश्वासबलेनैतत्पङ्क्तिलेखकेन । पश्चदशाधिकद्विसहस्रमितवैक्रमाब्दीये वर्षे इयं घटना । ततश्चान्यायकार्यव्यापृतिमत्वेऽपि यथावसरं यथानुगुण्य सम्पादनाय प्रवृत्तियायोगकरणेन मुद्रणयोग्यस्वरूपेणैतं सज्जं विधाय विंशत्यधिकद्विसहस्रतमे वर्षे एतन्मुद्रणं संस्थया प्रारब्धम् । मुद्रणालयविषमतादिहेतुना वर्षाष्टकमितदीर्घसमयेनाऽपि एतत्प्रकाशनस्य सम्पूर्णरूपेणाशक्यप्रतीतेः पञ्चदशप्रस्तावनासमहात्मकप्रथमविभागस्य प्रकाशनं न्याय्यमवसरोचितञ्च संप्रधार्य सङ्कलनाकारकगणिवरानामर्थसहायोपदेशदातृणां गणीन्द्राणाञ्च प्रेरणया संस्थया लघुतमस्वरूपोऽपि प्रथमो हि विभागः प्रकाश्यते । यद्यपि "आकृतिर्गुणान् कथयती" त्यामाणकानुसारं समस्ता अपि प्रस्तावना यदि एकस्मिन्नेव प्रन्ये स्युः तर्हि विशालकायत्वं ग्रन्थस्य प्रभावोत्पादकत्वञ्च स्यात् । परं ! मुद्रणालयाऽननुकूल्यादिविषमताहेतोः तादृशैकविशालकायग्रन्थप्रतीक्षायां कतिपयवर्षाणामयापि संभवात् "अल्पारम्भाः क्षेमकराः" इति न्यायानुसारं महर्धवस्तूनां च परिचयाय "नमूना" (सेंपल इत्यांगलभाषायां) इति शब्दवाच्यवस्त्वंशानां विक्रयमंजूषा(शो केइस)यां स्थापनस्य व्यापारिणां धोरणमनुसृत्य वैत ग्रंथरत्नं प्रथम विभागरूपेणाऽपि प्रकटण्य पूज्यागमतात्पर्यज्ञशिरोमणीनां देवसूरतपागच्छसामाचारीसंरक्षकाणां सूरीश्वराणां अप्रतिमवैदुष्यवारानिधिगतविविधरत्नराशिपरिचयः गुणानुरागिनां विदुषां सौकर्येण स्यादिति प्रशस्ताध्यवसायेनैतत्प्रकाशनमुचितज्ञधिया विधीयमानं सत्प्रमोदावहमिति । एतस्मिंश्च प्रथमे विभागेऽधोनिर्दिष्टग्रन्थस्थप्रस्तावनाः पूज्याऽऽगमोद्धारकदेवैलिखिताः समु Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिताः सन्ति । तथाहि :१ श्रीविगोष्ठी २ श्री वीतरागस्तोत्रम् ३ श्रीस्याद्वादभाषा ४ श्रीपाक्षिकसूत्रम् ५ श्रीकल्पसूत्रम् ६ श्री मध्यात्ममतपरीक्षा ७ श्रीवन्दारुवृत्तिः ८ श्रीछन्दोऽनुशासनम् ९ श्री जल्पकम्पलता • श्रीयोगदृष्टिसमुच्चयः वीर. सं. २४९८ वि. सं. २४२८ फा. कृ. ११. शनिवारे कल्याणनगर शाहपुर - राजनगर अहमदाबाद ११ श्री कर्मग्रन्थः १२ श्रीपञ्चाशक ग्रन्थः १३ श्रीकर्मप्रकृतिः १४ श्रीधर्मपरीक्षा १५ श्रीषट्पुरुषचरित्र एतासु च प्रस्तावना सु पृश्यवर्यैरागमाऽयुच्छित्तिकरणप्र भूष्णु शिला ताम्रप टोत्कीर्णाssगममंदिरसंस्थापकैः सूरिशेखैरः विविधविषय समावेशनपुरस्सरं समस्त ग्रन्थवस्तुनिर्देशः संक्षिप्त शैल्याऽपि सम्यगुपस्थापितोऽस्ति, समीक्षणीयश्च सम्यग् तत्त्वघिया । एतासां च सम्यगनुशीलनाध्ययनादिभिरागमोद्धारकश्रीणामगाधवैदुष्यदर्शनं चमत्कृतिकरं भवेदेवेत्यतः प्रस्तुतसङ्कलनात्मकप्रन्थस्याऽन्वर्थाऽभिधानस्य प्रकाशनं प्रसङ्गोपनीतमौचित्याश्चितश्चायधार्यैतत्सम्पादनशक्तिमतिसाधनाऽप्रगुणतायामपि देवगुरुप्रसत्तिदर्शनतस्तदीयकरुणाकटाक्षबलापूरितमनोगतिमभिसमीक्ष्य सम्पादितमिदं प्रन्थरत्नमागमभक्तिप्रहृतासनाथं समुपदीकृतं च गुणानुरागिविद्वज्जनसमक्ष मानन्दप्रदायि भवत्वित्याशास्यतेऽन्तरङ्गगुणानुरागप्रवृद्धिमता मानसेन । परिक्राम्यते चैतत्ग्रन्थरत्नपठनादिव्यासङ्गप्रवृद्धया श्रुतभक्तिं समुपजीव्य परिशुद्धसंबरपथि प्रगुणताऽऽपादनद्वारा सम्यग्ज्ञानफलाधिगतिं विदध्युः सद्भक्तिभर परिपूत वृद्धिभराचितवृत्तिमन्तो हि भव्यजनाः इति । प्रान्ते च साग्रहं विज्ञप्यते विद्वज्जनो यत्-विहितेऽपि सद्ध्यानपुरः प्रयतने च्छाद्मध्यसुलभं दृष्टिदोषोत्थं मुद्रणदोषोत्थं वाऽशुद्धिसम्भरं "विशोध्य पठन्तु" शीर्षकस्थशुद्धीकृत पाठात्पूर्ति विरचभ्य मर्षयेयुः सम्पादनगतत्रुटि नातं हंसक्षीरन्यायानुसारिणः सुजनोऽवतंसाः विद्वद्वर्याः पाठकजोनत्तंसाः । ॥ शुभं भवतु श्रमण सङ्घस्य ॥ ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः ॥ इति निवेदक: सम्पादनधुरामधौरेयोऽपि वहन् श्रमणसङ्घसेवकः शासनसुभट-महातपस्वि शासनसंरक्षक - पूज्योपाध्यायगुरुदेव श्रीधर्मसागरगणिवर-चरणारविन्दमिलिन्दायमानः अभयसागरः Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनापीयूष-सरणिः निबन्धकःडॉ. रुद्रदेवः त्रिपाठी M.A. PH.D. सांख्य-योग-साहित्याचार्यः (दिल्ही-संस्कृतमहाविधालयप्राध्यापकः) प्रस्तावना-सृष्टिः मस्ति समीक्षकाणां साम्प्रतिकानामियं सार्वत्रिकी परिपाटरी यत् "ते यस्य कस्यचिदपि छधीयसो महीयसो वा प्रन्थस्य प्रकाशनपदीमासढस्य प्रथिमानं समुपहयितुं किमपि तत्पूर्वाभासरूपं प्रास्ताविकं पुरस्कुर्वन्ति" -इति परम्पराप्राप्तप्रणालिकामेतामनुसत्य यत्र तत्र सर्वत्र प्रन्थारम्भविभागेप्रस्तूयन्ते विपश्चिदपश्चिमैः प्रस्तावना: सम्मुखीक्रियन्ते पण्डितपुरन्दरैरामुखानि, उदाहियन्ते विद्याविचारकप्रवणचेतोभिः सचेतोमिरुपोदाताः, सम्भूष्यन्ते भूरिभाषाभावविभावविशदैर्विद्भिर्भूमिकाः, विज्ञाप्यन्ते विविधविचारवीचीनिचयनिचिता विज्ञप्तयः, विनिवेयन्ते प्राचामर्वाचाश्च चिन्तनसश्चितसाहित्यसंवलितानि निवेदनानि., उपक्रम्यन्ते तर्ककर्कशाणामप्रश्नानां समाधानसौकर्येण साषिता उपक्रमाः, उपदीक्रियन्ते 'द्वित्राः शब्दा' इति शीर्षकपुरस्सराण्यपि पुरावृत्तपूरपरिरितानि पुरोवचनानि । कियाऽऽवेचन्ते प्रन्थ-ग्रन्थकृद्-प्रथनकौशल-विषय-काल-स्थल-महत्वादिपेशक्षा विमर्थवेदिकाः प्रस्तावनाऽपरपया इति । प्रस्तावना-विमृष्टिः सेयं बवभिधानान्तरन्तरितझाना अन्धगतस्वारस्यविहितपिधानाऽसाम्येभ्यः पुरस्कृत Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुडधाना स्फुरदुरुविषयविमर्शनिधाना सर्वारम्भपूर्वकृतप्रस्थाना प्रथगौरववर्धनायैव धृतावधाना 'प्रस्तावना' किंस्वरूपेति विचारः प्रज्ञाप्रसादसमधिगतः । तदेवंविधायां विमर्शप्रवृत्तौ "निरुक्त्या शब्दार्थज्ञानं सकर"मिति प्रस्तुतस्य प्रस्तापनाशब्दस्य 'प्र+स्तु+णि+युच्+टाप्' इति व्याकृतिप्रकृतिः । तथा 'प्रस्तूयत इति प्रस्तावना', स्तवनं स्तवः, स्तव एव स्तावः (प्र+स्तु+भावकरणादौ धञ् ), प्रकृष्टः प्रस्तावः, प्रस्ताव एवं प्रस्तावना' चेति निरुक्तिः । परिभाषा चास्याः "तत् आरम्भिकं कथनं वक्तव्यं वा, यस्मिन् कस्यापि विषयस्य विस्तृतिपूर्वकवर्णनात् प्राक् तत्सम्बन्धिन्यः काश्चन मुख्या वार्ताः प्रकटयितुं प्रयत्येते'ति ।" पर्यायपयुक्ताः शब्दाश्च-'आमुखम् , उपोद्घातः, भूमिका, विज्ञप्तिः, विनिवेदनम् , उपक्रमः वित्राः शब्दाः, पुरोवाक्, विमर्शवेदिका-अमृतयः। मूलश्चास्याः-वैदिकमन्त्राणामादौ तत्तन्मन्त्रस्य ऋषि-छन्दो-देवताविस्मारको विनियोग' शब्दः । लौकिकसाहित्ये च दृश्यकाव्यरूपेषु रूपके वावश्यकरूपेण निरूपणीया 'प्रस्तावनेति। यतो हि नाट्यशास्त्रे प्रस्तावनाशब्दस्य प्राथमिकः प्रयोग उपलभ्यते । तत्र हि सूत्रधारः प्रस्तोष्यमाणस्य नाटकस्य कारणं कर्तार नाटक-कथानकं. च सल्लापमाध्यमेन सूचयति, किश्च स्वकार्योत्थ-वीथ्यङ्गवाक्यानि चित्रवाक्यान्यन्यानि वा तत्साधकानि भवन्ति । एवमामुखापरपर्याया चेयं प्रस्तावना 'उद्धात्यकाऽवलगित-कथोद्धात-प्रयोगातिशय-प्रवर्तकादि-पञ्चभिरङ्गैरश्चिता तत्र भवति । प्रत्येकमङ्गे च क्वचिदनवगतार्थानां पदानां प्रश्नः समाधानं, क्वापि पात्रसंसूचनार्थमालापः, कुत्रचिद् वाक्यस्य वाक्यायस्य वा माध्यमेन पात्रप्रवेशः, कुत्रापि प्रयोगे 1-हिन्दी 'मामक' शब्दकोशे 'प्रस्तावना' शन्दः । २-एवंविधाः समानार्थकाः समानभावाः समानमानाः शन्दा भूयांसो भवन्ति प्रयुक्ताः । तत्र हिपरिवर्तन प्रत्ययपरिवर्तन-भावपरिवर्तनानि विशिष्यन्ते । ३-यथा-'पृथिवीति मन्त्रस्य मेरुपृष्ठ ऋषिः, सुतलं छन्दः, कुमो देवता, भासने विनियोगः ।' इत्यादि । ४-भरतमुनेर्नाटयशाने प्रस्तावनालक्षणं यथा "मटी विदूषको वाऽपि पारिपार्श्वक एव वा । सूत्रधारेण सहिताः सरलापं यत्र कुर्वते ॥ चित्रैक्यैिः स्वकार्योंटिगोरन्यथापि वा । भामुखं तछि विज्ञेयं माम्ना प्रस्तावमाऽपि सा ॥" (भन्यायः ११, पये १-१९ तमे । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रयोगसमावेशः, कुहचन च कालकृत्यसमाश्रय इत्यादयो विधय आद्रियन्ते ।' एत एव विधयः संहत्य कालान्तरे प्रन्थप्रस्तावनादौ सामान्य-विशेषरूपेण वा प्रणयनपदवीमाढौकिताः । साम्प्रतं वैदेश्यविद्वत्प्रभावपारवश्याच्च मन्ये सैव नाटकीया प्रस्तावना बहुरूपिणी सती चित्रयति चेतांसि सचेतसाम् । साहित्यिकी प्रस्तावना 'लक्ष्यानुसारीणि लक्षणानि निर्मीयन्त' इति लौकिकी प्रथितिमनुसृत्य साहित्यिकप्रस्तावना-लक्षणाय वयं विचक्षणविनिर्मितप्रस्तावना लक्ष्यीकुर्म : । ता एताः प्रस्तावनाः प्रायेण प्रन्थस्याकार महत्त्वं व्यापकत्वं विषयं तद्गतगूढताश्चवार्य विलिक्ष्यन्ते सुधीभिः । अत एव भवन्ति ताः क्वापि लघीयस्यः क्वचिश्च महीयस्यः । लेखका अपि तत्र हेतवः । यावती तस्य प्रज्ञा यादृशी तस्य चिन्तनशक्तिर्यादृशश्च तस्य स्वाध्यायः । मुद्रणस्थानसङ्कोचं विना प्रसृता प्रस्तावयितुभरती सत्यमेव नानात्वं भजते प्रस्तावना । तत्र हि प्राधान्येन प्रस्तावयितरस्त्रिया मिलन्ति १ लेखकाः २ सम्पादकाः ३ समालोचकाच। तेषु चापि प्रत्येकं प्रस्तावनाकारो मनोव्यापारदृष्टया वस्तुज्ञान-(Cognition) वस्तुचिन्तन (Thinking )-वस्तुलाभ (Aequisition) रूपाणां विचाराणां प्रकाशनाय यतमान : 'संशोधनामिका 'सङ्कलनात्मिकां रसग्रहणात्मिकां वा प्रस्तावनां प्रस्तौति । तत्रापि प्रत्येक प्रस्तावना 'तार्किकदृष्टिशालिनी सती शास्त्रीया' सौन्दर्यदृष्टिशालिनी च सती कलात्मिकेति निगद्यते । इमा अपि पुनः प्रत्येकम्-मआत्मनिष्ठा वस्तुनिष्ठाश्च गदितुं शक्यन्ते । एवं द्वादश प्रकाराः सामान्येनाऽऽकलयितुं शक्का अपि क्रिया-कारक-कारण-करणादिभिर्वैविध्यं भजमाना नानात्वं संश्रयन्ते, तत्र विवेचका एव प्रमाणम् । ५-प्रस्तावनाङ्गानि पथा-' अस्या अगामि उद्धात्यावलगितके द्वे वीथ्याः कयोद्धात-प्रयोगातिशयप्रवर्तकाः । भस्यैवाङ्गानि त्रीणि । एवं पञ्चाङ्गानि ।। उद्धात्यकम्- पदान्यनवगतार्थानि प्रश्नेनावगतार्थेः पदः प्रतिपादयतीति यत्तदुच्यते । अबलगितम्-पात्रसंसूचनाथं यदालपनं तद्रष्टव्यम् । कथोरातः-पत्र सूत्रधारस्य वाक्यं वाक्यार्थ वा गृहीत्वा पात्रं प्रविशति । प्रयोगातिशयः-प्रयोगे तु प्रयोग तु सूत्रधारः प्रयोजयेत् । ततश्च प्रविशेत् पात्रं प्रयोगातिशयो हिसः॥ प्रवर्तका-कालकृत्यं यदाश्रित्य सूत्रधारः प्रवर्तते । . तदाश्रयस्य पात्रस्य प्रवेशस्तु प्रवर्तकः ॥ माटकलक्षणरत्नकोश पृ० ११९-१२३ किश्च प्रस्तावमालक्षस्य मूल-पथयोध्यजसूचनानुसार मालिकाथा मप्यत्र समावेशो भवति, यस्यां प्रहेकि. कारुपेण प्रश्नोत्तराणि सम्पायन्ते । वर्तमानप्रस्तावमास्वपि प्रहेलिकाः प्रश्नोत्तराणि च मियत इति । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवन्ति चात्र प्रस्तावनालेखकस्य कार्याणि-१-विषयावतारः, २-विषयप्रवेशः, ३-विषयकथनं, १-विषयविवरणञ्चेति । विषयसम्बन्धावान्तराज्ञप्ति-स्वरूपप्रकाश-गुणदोषविवेचन-व्यक्ति दर्शन-महत्वमापन-विभूति-पूनाप्रमतीनि कर्माणि च तत्राऽन्तरङ्ग-बहिरङ्गपरीक्षाक्षमतामुत्पादयन्ति । किश्च न्यायाधीश इव ताटस्थ्येन सत्यासत्ये विवेचयन् , बलाबले तुळयन् , नीरक्षीरमिवोचितानुचिते विमलयन् , विवादस्थलानि चिकित्सक इव विमर्शयन् प्रस्तावकः प्रस्तावनां सम्पादयति । ग्रन्थकर्तुः व्यक्तित्वं यथा स्फुरेत् तथा वर्तनमेव भवति बीजं प्रस्तावनायाः । अब यावम निर्मितं केनापि प्रस्तावनाशास्त्रम् । न वा कान्यपि लक्षणानि सन्तिसुतरा निर्धारितानीति लेखकाधीनतैव तत्र तत्र प्रतीतिपथमायाति । प्रन्थलेखकः स्वदृष्ट्याः स्पष्टतां प्रदर्शयति, तत्र च विशिष्य रचनाया मनोभूमिमवतारयन् कि किं कथङ्कारं साधितं ! किश्चाभिप्रेतं ! के चासन् प्रेरकाः! के वाऽऽदर्शास्तस्मिन् स्वीकता ! इत्यादि विस्पष्टयति । सम्पादकस्तु यदि नाम प्राचीनः कोऽपि प्रन्यो भवति तदा तदादर्शप्रतीनां विवरणं, समीक्षापुरस्सरं पाठस्वीकारः, पाठपूर्तेरन्यान्युपादानानि, अन्ये ग्रन्थाः, इतरग्रन्थगतान्युद्धरणानि, समानाः पाठाः, पूर्वसम्पादितपाठानां योगः, प्रतिकूल-पाठशिाना' त्यागः, लिपिदोषस्य कारणात् परिहयाः पाठाः, न्याकरणस्यापप्रयोगाः, मार्षप्रयोगाःः, शन्दान्तराणि रूपान्तराणि च यथायथं प्रस्तौति । समालोचकश्च पाठानुसन्धान भाषान्तरणसमीक्षापूर्वक गुणदोष-विवेचन विधाय कर्त्तव्यनिर्देशं सूचयति । एवं सकलस्याप्यस्य कर्तव्यजातस्य स्वारस्यं पाठकानामुपरि निर्धारित तिष्ठति । पाठकाण त्रिविधा भवन्ति । यथोकं निशीथचूणों पुरिसो तिविहो परिणामगो भपरिणामगो पतिपरिणामगो तो एत्य । अपरिणामग-अतिपरिणामगाणं पडिसेहो। . एतदनुसार १-परिणामकः २-अपरिणामकः ३-अतिपरिणामकश्च सन् पुरुषः पाठकवैविध्य भजति । अपरिणामकोऽपरिपक्वबुद्धेः कारणात्, अतिपरिणामकश्च कुतर्कपूर्णाया बुद्धः सत्वात न भवतोऽधिकारिणौ। परिणामकः = परिपक्वबुद्धिशाली पाठको विषयावगाहनपूर्वकं प्रस्तावनामाध्यमेन पन्थान्तर्निहिततत्त्वं परिचिनोति । एतादृश्या प्रस्तावनया पाठकस्य मन आकृष्टं भवति भूयोभूयः पठनाय मननायात्मसात्करणाय च तदन्तरीहत इति स्पष्टमेव प्रस्तावनाया ऐदंयुगीनं माहात्म्यम् । अदानी प्रकृतमनुसरामः। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत-ग्रन्थकारा देवसूरतपागच्छसंरक्षकैःशैलानानरेशप्रतिबोधकैरागममन्दिरादिसंस्थापकैः श्रुतवाहकागमदिवाकरध्यानस्थस्वर्गतागमाद्धारकाचार्यवर्य-श्रीमदानन्दसागरसूरीश्वरैःस्वीयप्रतिभाबलेनानेकप्रन्थानां निर्मित्या, नैकग्रन्थरस्नानां सम्पादनसम्पत्त्या विविधग्रन्थेषु प्रस्तावनो-पक्रमा-पोद्घातादि विरचनेन चाऽतिमहती श्रुतोपासना विहितेति परमगौरवास्पदं साहितीसुधास्वादनसंपक्तचेतसां सचेतप्तां कृते । आगमोद्धारकाणामितरत् साहित्यजातं बहुधा तद्विनेयेस्तत्कृपापारावारतरङ्गितैश्च प्रकाशित प्रकाश्यते च । सूरीश्वरैरतै : त्रिसप्तत्युत्तरकशतसंख्यकानां ग्रन्थानां सम्पादनमकारि। प्रकाशनसंस्थाश्चश्रीजैनधर्मप्रसार कसभा (भावनगरे), श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाईपुस्तकोद्धारकण्डसंस्था (सुरते), श्री भागमोदयसमितिः श्रेष्ठि श्री ऋषभदेव बीके शरीमलजीत्याख्या पेढो च (रतलामनगरे) श्रीसिद्धचक्रसाहित्यप्रचारकसमितिः (मोहमय्यां), श्रीजैनानन्दपुस्तकालयः (सुरतनगरे), श्रीजैनपुस्तकप्रचारकसंस्था (सुरते), देवकरणमूलजीप्रकाशनं-(नवसारीनगरे), नवपदाराधकसमाजः (मोहमय्यां), यशोविजयजैनपाठशाला (महेसाणा) प्रमृतय आसन् । समग्रेऽपि भारतभूमण्डले पादचारं विस्तवतां सूरीश्वराणां सम्पादनेषु प्रस्तावनानां संयोजना महत्त्वपूर्णाः सन्ति । तत्र तत्र प्रस्तावनासु तेषामपूर्वश्रुतपारगामित्वं विवेचनगाम्भीयं समालोचनौदार्य पाठसन्धानपाण्डित्यं भावाविष्करणवैचित्र्यं गीर्वाणवाणांवैदुष्यं च पुरः पुरः परिस्फुरलक्ष्यते। मा स्म भूवन् वञ्चिताः साम्प्रतिकाः सुरसरस्वतीसमाराधनतत्परा अपि तेषाममोधप्रतिभाप्रसूतसाहित्येनेति घिया तेषामेव घिनेयपरम्परापथिकैः व्याकरण-न्याय ज्योतिषा-ध्यात्म-प्राच्याच्यविज्ञानविधानदीष्णैः श्रीमदुपाध्यायधर्मसागरमहाराजानां चरणोपासकैः श्रीमदमयसागरगणिभिः प्राथम्येन 'आनन्दरत्नाकर' नामकः प्रस्तावनासङ्गहोऽयं प्रथितः । प्रथम विभागाऽऽ मके एतस्मिश्च प्रकाशने सन्ति पञ्चदशङ्ख्याकाः प्रस्तावनाः सङ्ग्रहीताः। एतासु १-आगम-२-भक्ति ३-श्रावकधर्म ४-प्रकरणसिद्धान्त-५-योगशास्त्र-६-अध्यात्मचर्चा७-न्याय-८-कर्मसाहित्य-९-साहित्य-१०-पौराणिकसमक्षाविषयक ग्रन्थान प्रकाशन निमित्तमाकलय्य सूरिपुरन्दरैरेतैः प्रस्तावना लिखिता : सन्ति । तत्रापि प्रस्तावना-उपक्रम-उपोद्घात इति त्रीणि नामानि स्वीकृतानि । प्रस्तावना-पद्धतिः प्रस्तावना-लेखने श्रीजुषामेषां पद्धतिः प्रायेणैवरूपा--- १-आगमप्रस्तावनायां-प्रन्थवाचनप्राचीनत्वं, चूर्णि-टिप्पणादिपरिचयः, विवादस्थानानि, तत्समाधानानि, विशेषावधेयश्चेति । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-भक्तिसाहित्योपक्रमे-आगमावश्यकता, महिमा, वाचना, धर्मजिधृक्षुता, मुनिप्रभावः, कोशनिर्माणं, तात्कालिको स्थितिः, प्रकाशनव्यवस्था, ग्रन्थकारपरिचयः समयादिनिर्णयः, प्रन्थपरिचयः आदर्शप्रतिसूचनश्चेति । ४-प्रकरणसिद्धान्तप्रस्तावनायो-मागमाकर-प्रकरणकर्तृपरिचयः ग्रन्थकारपरिचयः, विवरणकारसूचनं, ग्रन्थपरिचयः, प्रकाशनव्यवस्थासूचना चेति । ५-योगशास्त्रीयोपोद्घाते--प्रन्थरचनाविषयक प्रश्न-कालनिर्धारण-परकथनखण्डन-प्रमाणस्वनिर्णय-ग्रन्थपरिचयादयः । ६-अध्यात्ममतपरीक्षोपक्रमे-श्वेताम्बर-दिगम्बर-द्वैधौमा परिचाय्य विविधानन्यान् वादान् विविच्य, ग्रन्थनिर्माणकारणमुद्धत्य, प्रन्थकारकालः, ग्रन्थपरिचयः, विशेषसूचनाः प्रतिसूचनाश्च प्रतिपादिताः। ७-स्याद्वादभाषाप्रस्तावनायां-ग्रन्थमुद्रणप्रयास-मुद्रापणकारण-ग्रन्थपरिचय ग्रन्थकारकालानुमान-ग्रन्थनामयाथार्थ्य-ग्रन्थकारकृतान्यकृतिपरिचयादयः । ८-कर्मग्रन्थ-कर्मप्रकृत्योरुपोद्धातयोः-इतरधर्मानुयायिनामदृष्टस्वीकारः, कर्मनिबन्धनं, मोक्षचर्चा, ग्रन्थप्रणयनौचित्यं, ग्रन्थावश्यकता, प्रकरणानुसारी ग्रन्थपरिचयः आत्म-विचारः, परेषां मतखण्डनं, ग्रन्थकृत्परिचयस्तत्कृतयश्चेति । ९-साहित्यग्रन्थचतुष्टय्याः प्रस्तावनासु-प्रन्थ-ग्रन्थकार-महिमा, गुरुपम्परा, प्रन्थपरिचयः, शब्द-लिङ्गकाव्य-छन्दोनुशासनानामावश्यकता आक्षेपनिरासः, प्रतिसूचना, उपक्रमपूर्तिः, छन्दोनाम्नां मत-मतान्तरविवेकश्चेति । १०-पौराणिकसमीक्षारूपमस्तावनायां च धर्मविचारः ग्रन्थकार-परिचयः, ग्रन्थपरिचयादयश्च निपुणं प्रतीतिपदवीमानीताः । यत्र तत्र वृत्तिकार-विवरणकार-प्रन्थसम्बन्ध्यन्यसूचनानि पुरस्कृत्य .सूरीश्वरैवैः प्रस्तावना. शब्दस्य सत्यमेव सार्थकता सम्पादिता। प्रस्तावनानां भाषा: ___ शाब्दे ब्रह्मणि साधिकारवचसां लधीयस्यामपि रचनायां पदघटाटोपः, काव्यबन्धुरो बन्धः, सुघटितव्युत्पत्तिशक्तिप्रभा च सावष्टम्भं मुखरीभवन्ति । ___श्रूयते किल श्रीमदानन्दसागरसूरिपुरन्दराणां जिह्वाऽजिरे क्रियाकलापविपुलः सर्वोऽपि धातुगणो विराजते स्म, सर्वास्तद्धितवृत्तयः कण्ठस्थिताः क्रीडन्ति स्म स्वान्तान्तरीलाम्बरे च प्रत्ययघटा. घटिताः कृत्संज्ञा विलसन्ति स्मेति । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत एव प्रत्येक प्रस्तावनायामत्र वयं सुपर्वसरस्वत्याः कमपि विरलं प्रवाहं विलोकयामः । भाषाप्रवाहेऽत्र सानुप्रासाः शब्दाः, यङलुगन्तसिद्धाः क्रियाः, समास-सन्दृब्धानि वाक्यस्खण्डानि क्वचित् विक्लष्ट-प्रयोगाः, सम्प्रदायसिद्धान्तभूयिष्ठा पदावली, शास्त्रकोटिमधिश्रितो वर्णविन्यामोऽनतिप्रसिद्धशब्दाविरलप्रयोगाश्च परिलक्ष्यन्ते । प्रस्तावनागद्यानि ___ कवीनां निकषभूते गद्ये विद्याऽनवद्या द्योतते, हृद्या पद्या माद्यति, यद्यप्यद्यावयं गधते दीर्घदीर्घतरसमासशालि गद्य तथापि दण्डि-सुबन्धु-बाण-सोडूढल-धनपालादीनां गद्यमिव कापि चित्रा शैली श्रीमदागम'द्धारकालेखितासु प्रस्तावनासु निर्वर्ण्यते । एकतश्चर्णकाभिधं' गचं चमत्करोति चित्तं, परतश्चोत्कलिकाप्राय दीर्धसमासाश्रयं गचं च सन्तानयति चेतःप्रहादनम् । मुक्तक-वृत्तगन्धिगद्ययोरपि निपुणोपन्यासः ‘कलिकेव' कलयति कौतुककमनीयताम् । संयुक्तवर्णेषु 'मधुर-श्लिष्ट -विश्लिष्ट-शिथिळ-हादिर्णानां नृत्यत्पदप्रायताऽन्त्यानु १-२-साहित्यदर्पणस्य षष्ठे परिच्छेदे गद्यलक्षणं यथा वृत्तबन्धोज्झितं गद्य मुक्तकं वृत्तगनधि च । भवेदुत्कलिकाप्रायं चूर्णकं च चतुर्विधम् ॥३३०॥ आवं समासरहितं वृत्तभागयुतं परम् । अन्य दीर्घसमासादयं तुर्य चाल्पसमासकम् ॥३३१॥ चूर्णकादिगोदाहरणानि यथा 'वीतरागस्तोत्र'प्रस्तावनायाम्"- तत्रापि निस्सत्त्वाद् देशस्य अतिहसीयस्त्वाद्धर्मबुद्धः, परायणत्वान्मान गिर्यारे हे अ.८ बुद्धत्यारत्वातवमार्गस्य, पलायितप्रायस्वाज्ज्ञानस्य, व्यापृतत्त्वादनार्यभाषारचेः, तुन्द परिमृजबहुलत्वाल्ले कस्य संस्कारहीनत्वान्मतेः, इत्यादि मुक्तकाभिधं गद्यम् )। दीर्घसमासाश्रयमुत्कलिकाप्रायञ्च गद्यं यथा कर्मग्रन्थोपोद्घाते-- 'आकलनीयमिदकं कलावत्कलापाकलनीयाऽकल्प्पाऽकलङ्किताऽविकलकलनकलापरिकलिताऽऽकल्पाविकलितकीर्तिकन्दकमनाऽनेकान्तप्रकटनकोविदकल्पान्तकालविशकलिताकार कविकृताने काकान्तकाकान्तकान्तिकर्तनविकर्तनश्रीमदकलकलाकल्पिताकलनीयार्थ चूर्णकामिधं गद्यं च तत्रैव "भूतिभूषितविग्रहपरिचर्यापराणान् , मतान्तराविष्टान्तरात्मना, यवनारतु विवेकम तिवारिधर पचनाः, भूत्यम्बर भूभूधोद्भूतिनिबन्धनतया'-इति वाक्यखण्डामि । एवमेव वृत्तगन्धीनि, कलिकारूपाणि, संयुक्तवर्णभूयिष्ठानि च गद्यखण्डानि तत्र तत्रोधानि । ३- कलिकालक्षणं यथाह स्तवमालाभाष्ये जीषदेवः कला नाम भवेत्तालनियता पदसन्ततिः । कलाभिः कलिका प्रोक्ता तभेदाः षद् समीरिताः ॥ कलिका चण्डवृत्ताख्या दिगादिगणवत्तका। तथा त्रिभङ्गोवत्ताख्या मण्या मिश्रा च केवला" इति । १- तत्र संयुक्तवर्णानां नियमो दशधा च ते । मधुर-लिष्ट-विश्लिष्ट-शिथिल-हादिनस्वमी । भियन्ते हस्वदीर्धाभ्यां ते दर्यन्ते स्फुटं यथा ॥ -त्यादि श्री गोविन्दविरुदावली भाष्ये Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रासनिबद्धो मधुराक्षरसग्निवेशः सङ्गीतलयलहरी वर्णमैत्रीरूपा अकृतिश्चति पदे पदे प्रस्फुरन्ति । मध्ये मध्ये देदीप्यमानोऽलङ्कारयोगश्च सौवर्णाभरणे मणिगणानामिव किमप्यपूर्व वैचित्र्यं पुष्णाति । अनुसन्धानवैशिष्टयम् _ 'अब्धिलवित एव वानरभटैः, किन्तु तद्गाम्भीर्य तु मन्याचल एव जानाति ' सेयं किंवदन्ती प्रक्रान्ते प्रस्तावनासङग्रहरूपे श्रीआनन्दरत्नाकरेऽपि सार्थिका भवति । यतो हि भिन्न-भिन्नविषयग्रन्थेषु निहितस्य गाम्भीर्यस्याऽऽमूलचूलं मन्थनं विधायैव श्रीमद्भिरागमोद्धारकैः प्रस्तावना आकलिताः । तत्र तास्वनुसन्धानकलाया वास्तविकानि तत्त्वानि सत्यस्यान्वेषण, नवीना उद्भूतयः, नूत्नानि तथ्यानि, नवनवा विचाराः, पक्षपातविरहितानि मूल्याङ्कनानि चेति पूर्णरूपेण प्रतिफलितानि विलोक्यन्ते । ग्रन्थकर्तारं प्रति तटस्थदृष्ट्या न्यायदानं सत्प्रस्तावनाया लक्षणम्। तत्तथाभूतमत्रोपस्थापितमिव प्रतिभाति । श्रीमतामनुसन्धानप्रक्रिया चेयं 'क्रियात्मिका' परिलक्ष्यते । यस्यां स्वोद्देश्य प्रभावशालिन्या पद्धत्या ज्ञानपुरस्सरं समस्यानां संस्थापना, तासां निदानं, समुचितं समाधानं, अन्वीक्षणात्मिकाः प्रवृत्तयः, परीक्षगात्मिका दृष्टयः, तुलनात्मक-विकासात्मक-इतिवृत्तात्मक-विमर्शाणां सङ्कलनं भ्रमनिरासादयश्च विशिष्य भवन्ति । श्र मच्चरणैस्सर्वास्वपि प्रस्तावनासु प्रायः संस्तुतिरूपेण प्रन्थकृतां ग्रन्थानां च महत्त्वमुपस्थापितं, तथा च भाषा-संयमश्च समादृतः । यत्र यत्राऽऽवश्यकताऽभूत् तत्रैवापेक्षितं विवेचनं विहितं, यत्र च सूचनमात्रेण पाठकानां जिज्ञासा प्रतिमियात् तत्र 'अन्ये द्रष्टव्य 'मिति संसूयव संक्षेपितम् । बहुत्र ग्रन्थस्य प्रतिप्रकरणं परिचायितं तत्तद्विषयसंक्षिप्तिका च परिदर्शिता । तुम्नादृष्ट्या छन्दोनुशासनदर्शितनाम्नामन्याचार्यसूचितनाम्नां च तालिका प्रकाशिता । विशिष्टो दायः 'अनन्ता हि वाग्विकल्पाः' इति दृष्ट्या सर्वेऽपि वाग्व्यवहारा आनन्त्यं धारयन्ति विपश्चितश्च तास्तान् व्यवहारान्, कौशलेन प्रकटयन्तों विविधान् मार्गानाश्रयन्ते । भवन्ति च ते निबन्ध-प्रबन्ध-मुक्तक-महाकाव्य-कथानिकाऽऽक्ष्यानादिरूपाः, परं श्रीमदागमोद्धारकसूरिपुङ्गवैरेकोऽनुपम एव मार्गः स्वीकृतः। यस्मिन् नानाग्रन्थरत्नानां वैकटिकरूपेण शोणपरीक्षणमातन्वद्भिरनेकाः प्रस्तावनाः प्रस्ताविताः। मासँस्ते महान्तो भाग्यशालिनो येषां खिनीसंस्पर्शेन चिरं सुषुप्ति संश्रिता मयांसो प्रन्थाश्चेतनाप्रकाशं लन्धवन्तस्तत् प्रकाशपुञ्जश्च 'आनन्दरत्नाकर' रूपेण संगृपात्र प्रकाशितः । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरिवयः प्रस्तावनानां माध्यमैनालोचनाया निकपेषु क्रमशः १-सिद्धान्त २-नियम ३-भादर्शाणां प्रामुख्यं बुद्धिसात् कृत्वा कृतीनां गुणदोष-विमर्शपूर्वक विश्लेषणं च विषाय पाठकेम्यो गो दायः पुरस्कृतः स हि "पाठकानां चेतनाजागरणं, तेषां शानसम्पदाऽभिवर्धन, साहित्यकामिरुचेरुद्बोधनं, धार्मिक-सांस्कृतिकसुरुचीनां विकासः साहित्यस्य तत्कछायाथ मोत्साहनम्, साहित्यसृष्टये प्रेरणादानं, कुत्सितायाः प्रवृत्तेरवरोध' इत्यादिरूपेण विश्राणितः महानिधिरूपेण विद्योतन्ते । मस्तुतं सङ्कलनम् ___ प्रस्तुतस्य सङ्कलनस्यैक विशिष्ट स्थानं संस्कृतसाहित्ये विते । मन्येऽद्य यावदेकमपि पुस्तकमीदृशं म प्रकाशितचरम् । साहित्यकोटौ या विविधा धारा वर्तन्ते, सासु धारासु विरलं स्थानं प्रस्तावनाधाराया अस्ति । किश्च प्रस्तावनानामेवैको ग्रन्थः सङ्कलितः स्यात्, स चापि वि-त्रि खण्डेषु प्रकाशितो भवेदिति तु सर्वथा विस्मयावह एव । विविधेषु प्रकाशितचरेषु प्रन्येषु प्रस्तावनारूपेण विकीर्णानामांसा साहित्यसृष्टीनामेकत्र सङ्कलनं भविष्यता विपश्चितां कृते महदुपयोगि स्यादिति कल्याणकामनया श्रीमदर्मसागरोपाध्यायचरणोपासक-श्रीमदभयसागरगणिमिरिंदं प्रयतितम् । प्रथमलण्डरूपेण चात्र पश्चदश प्रस्तावना माकलिताः । 'आनन्दलहरी'-टिप्पणी इदमपरमस्य ग्रन्थस्य वैशिष्ट्यं यदत्र प्रस्तावनासु वर्णितानां विषयाणां सम्यगवबोधनाय मन्यसम्पादकैरेव 'आनन्दलहरी' नाम्ना टिप्पण्य मालिखिताः । प्रायेण प्रस्तावनाकारः सारल्येन ग्रन्थगतस्वारस्यं पाठकानां पुरस्तात् पुरस्कर्तुमेव प्रयतते, न तमा तत्र काठिन्याशङ्का भकति; परं शासपारावारपारीणा भावा भपि यस्यां भाषाया मवतरन्ति तेषु सामान्यवाचकानां मनीषा कादाचिरकतया विशिष्टेषु स्थलेषु रूढासु पदावलीषु कुण्ठतां बजत्येव, सन्ति चात्रापि बहूनि स्थलानि च्यायासापेक्षानि, इति सकलं सश्चिन्त्यैव प्रस्तावयितृणां हार्दमविकलं सरख्या सरसया सरण्या हद्गता कारयितुं टिप्पणी-विरचनममत् । टिप्पण्यामस्या परमया श्रद्धया, गभीरया पिया, सूक्ष्मेक्षितकया च सूचनानि तानि सन्ति सानि निधितमेव विदुषां तोषाय भविष्यन्तीति नः प्रत्ययः । टिप्पणी गौरवम् बाल्यात् प्रमति जिनशासनोदीरितं श्रमणधर्म स्वीकृत्य व्रतपालन-परीषहसहनेसिमितत्वाधलकृतिपूर्वकं विद्याव्यसनितां दधानैव्याकरण-न्याय-ज्योतिष-साहित्यापखिलशावपारणतः प्राण्यावाच्य Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूगोल-खमोलविज्ञाननदीणैः श्रीमदभयसागरगणिभिरत्रा टिप्पण्या प्रतिस्थलं सङ्ख्यानिर्देशपुरस्सर सर्वविषसौविण्याय निम्नलिखिताः प्रक्रियाः स्वीकृताः. १ सम्बन्धसूचनम्, २ प्रसङ्गनिर्देशः, ३ उद्धरणप्रसङ्ग- विषयादिसूचनम् , ४ पर्यायशब्दाः, ५ पदनिष्पत्तयः, ६ अर्थानुसारिण्यन्वयसङ्गतिः. ७ अन्वयनिरूपणम्, ८ समस्तपदानां विग्रहाः, ९ अर्थविवक्षाविवेकः, १० विशिष्टाभिव्यक्तिः, ११ सर्वनामपदावबोधनम्, १२ सन्धिच्छेदाः, १३ पदसिद्धयः, १४ विशेषणनिर्देशाः, १५ विविधार्थविवेकाः, १६ स्वसम्प्रदायानुसारिणी व्याख्या, १७ सूचितोभावनम् १८ ऐतिह्यविमर्शः, १९ उद्धरणपूर्तयः, २० विविधपाठसूचनानि २१ भावार्थाः, २२ ध्वनितार्थाः, २३ मान्यतानिदर्शनमित्यादयः। एवं सुवर्णे सौरभमिव टिप्पण्य इमा वैदुष्यपूर्वकेण विमर्शेणापूर्वगौरवं धारयन्तीति नाऽत्रशङ्कापहावकाशः। हार्दिकं निवेदनम् _ 'वाग्जन्म-वैफल्यमसनशल्यं गुणादभुते वस्तुनि मौनिता चेत्' इतिश्रीमतों महाकवेहर्षस्य हर्षावहा सदुक्तिः शाश्वती प्रेरणां वितरन्ती गुणगणलाधाम वाचंयमतां भिनत्ति । विश्वस्य विश्वास भाषासु मातृपदं भजन्त्यां भगवत्या निर्जरभारत्या विश्वस्य श्रद्धाय च स्वस्वधर्मभाषाभ्योऽप्यधिक साहित्य संस्कृत एव प्रगीतं सकलधर्माचार्यवयः, जैनसम्प्रदायाचा: संस्कृतसाहित्यस्य भूयसीनां धाराणां प्रवर्धनं स्वस्वसाहित्यद्वारा साधितम् । श्वेताम्बरसम्प्रदाये प्रवर्तमानानामाचार्याणां साहित्यं तत्रापि रङ्गत्तरङ्गर स्तुशतरं राषितं वियते प्राकाश्यमासादिवति साहित्य प्रस्तुतं प्रस्तावनासाहित्यं लहरीलीलायितविलासितं सत् सकलमपि संस्कृतज्ञसमाज रञ्जयदुत्तरोत्तरमवगाहनायोत्सुकयेत् , सङ्खयावन्तश्च मात्सर्यमुत्सार्य सारस्वतं पीयूषमिदं चिरं पेपीयन्तामिति विनिवेद्य विरमामीति शम् । दिल्ली .... निवेदक : . रथयात्रा द्वितीया विपश्चिचरणचंचरीकः . भाषाढ़ शुक्ला २ डॉ. रुद्रदेव त्रिपाठी सं. २०२८ कि. वाचार्यः एम. ए. पी. एच. डी. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहस्रावधानि-सूरिसत्तम-श्रीमुनिसुन्दरसूरि-रचितायाः #FFFFFFF श्री विद्य-गोष्ठ्याः 455 ई प्रस्तावना 听听听听听听听听听听听听听听 अवधारयन्तु 'विदितानवद्यविद्यावृन्दविदीर्णमोहान्धतमसो विदुषः परमवैदुष्यधुराधरणधौरेयानवद्यविद्याव्रजावदातात्मनां तत्रभवतां श्रीमतां मुनिसुन्दराह्वयानां त्रैविद्यनैपुण्यं ग्रन्थस्यास्य 'शैशवविहितस्यावधारणेन; लक्षणादिशास्त्रशिक्षारुचिरत्वमपि न कथञ्चनैतन्निरीक्षणेन "क्षुण्णमवलोकयिष्यते तत्रभवद्भिर्भवद्भिः, सदाचारपरीक्षाक्षमत्वमपि क्षमाधाराणामिवैषां पूज्यानामवलोकनेनैतस्यावतरिष्यत्येव वाग्गोचरातीतं दृष्टिपथं, यतोऽत्रावलोकनीयमवलोकनसौन्दर्यमत्रभवतां प्रयोगवैचित्र्यानुप्रासादिकमलङ्कारविद्वद्यमत्रभवद्भिः । प्रथमं तावद्भट्टारका वितेनुः स्वीयं जयश्रयङ्कविन्यासेन मंगलाचरणं जिनवरनतिमयं । ___ पूज्यानां हि समयोऽयं यद् ग्रन्थार मे “जयश्रीरान्तरारीणा"-मित्यध्यात्मपूर्णहृदयोदध्युल्लासशशधरसमश्रीअध्यात्मकल्पद्रुमस्याद्यपद्ये, “जयश्रियं रातु जिनेन्द्रचन्द्रमा" इत्यनल्पमहिमगुरुगणगरिमोगिरणपवित्रविविधपद्यमय्यां प्रीषल्यां च यथा 'विलोक्यते विज्ञैस्तथान्यसनीयो जयश्रीशब्दः, स एव चात्रापि, न केवलं गीर्वाणवदनावतारिण्यां गीर्वाणभाषायां किंतु स्वभावसुभगानेकार्थततिनिधानकल्पायां प्राकृतवाण्यामपि शान्तरसप्रधानायामयमेवाको न्यासि न्यासनिपुणैरुपदेशरत्नाकरादौ "जयसिरो”-त्याद्यवलोकनाच्छीमद्विहिते। भवन्ति च पुरुषविशेषनिर्मिता ग्रन्था एवंविधाङ्काङ्किताः, यथा-भगवद्भिः श्रीहरिभद्रसूरिपादैविनिर्मितेष्वगण्यगुणाकरेषु ग्रन्थेषु विरहाकोऽङ्कि ''वाराणसीवासजातमदोद्धरविपश्चित्ततिविजयाऽवाप्तययथार्थन्यायविशारदपद-सदालोकलोचनलोभकानेकदुस्तरतरत्नाकरग्रंथशतविधानवितीर्णन्यायाचार्यपदा-ऽऽतक्रियाकरणासादितगण्युपाध्यायवाचकादिपदाः श्रीमद्यशोविजयचर प्र०सं०१ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावनासंग्रहे १२णाश्च ऐकारात संस्थापयामासुः प्रतिग्रन्थारम्भे,परम् आद्यानां प्रायश्चित्तसंबन्धादन्येषांचोपगङ्गमैङ्कारजापविधानात् कवित्व वित्त्वप्राप्तिसद्भावाद्यथाङ्ककरणे स्पष्टतरमुपलक्ष्यते लक्षणादिदक्षैः प्रयोजनं परं न एषां पूज्यानां प्रोक्तमन्तरेणान्यत् ,भविष्यति च कदाचित् तत् परं न तदस्माभि यंलक्षि यदि परं स्यात्केषांचित् ज्ञातं ज्ञापनीया वयमुपकारधिया । ___अनन्तरं चापरगुरुस्मरणस्यावश्यकतामभिमन्यमानैरभियुक्त देवतास्मरणस्थानीयं यथार्थाभिधानभृतां श्रीज्ञानसागरनामधेयानां स्मरणमकारि,समुददीपि च २ प्रस्तुतप्रकरणप्रकरणपटिष्टोपदेशनिदानताज्ञापनेन तेषां विद्यनदीष्णता,२१ जायेतैव च जिज्ञासा जिज्ञासूनां २२श्रीमद्विषयिणी, साच समापनीया सुधीभिः प्रकरणकृद्विद्वहितगुर्वावलोगततत्प्रकरणावलोकनेन, तद्यथा:२४"श्रीसोमसुन्दरगुरुप्रमुखास्तदीय विद्यसागरमगाधमिवावगाह्य । प्राप्योत्तरार्थमणिराशिमनर्घ्यलक्ष्मी-लीलापदं प्रददते पुरुषोत्तमत्वम् ॥१॥" श्रीसोमसुदराचार्यप्रवरा ये प्रकरणकृद्गुरवस्तेऽपि श्रीपूज्यपादवितीर्णोपदेशामृतपानपीनाः। ___ अनेन २७य आचक्षिरेऽनवलब्धग्रन्थसतचाः यदुतः-'न भट्टारकाः श्री सोमसुंदरपादान्तेवासिनः, कथमन्यथा भवेयुद्धयेऽपि सहाध्यायिनः ? कथंकारं च प्रायः समानवयस्कानां गुरुशिष्यभावोऽसंभव्येव च,लघीयद्भ्यः शिष्यार्पणं पूज्येभ्यः कुयुः श्री देवसुदरमिश्राः इतीति, केचित् । परमविचारितरामणीयकमेतत्, यतः ख्यापयन्त्येव पूज्यपादाः स्वयमेव श्रीमद्दीक्षितत्वमात्मनां शिष्यतामप्रतिमां च । २६"शिष्यस्तदीयोऽयमपीति मन्यते, श्रीवाचकेन्द्रष्वगुणोऽपि मादृशः । ग्रहप्रभोः पुत्र इति ग्रहावलौ, न पूज्यते पंगुरपीह किं शनिः ॥२०॥ अहो तेषां कराम्भोज-वीसानां सुप्रभावता । जातो यमौलिगर्योग्योप्यहकं मुनिसुन्दरः ॥२१॥" इतिगुर्वावलीगौरवाविष्का (गुर्वावल्यां)। तन्न प्राक्तनाः कल्पनाशिल्पनिर्मिता विकल्पकल्लोलाः लावयितु स्युः "श्री सोमसुदरसूरिपट्ट एकपञ्चाशत्तमः श्रीमुनिसुदर" इत्यादिव्याख्यानकुलिशं° प्रभविष्णवः । प्रायः समानवयस्कत्वादिकारणानि चालक्षितसाधुपदगौरवार्हाणामेव चेतसि विदध्युर्वासनां, न तु विज्ञातगुरुपदैदम्पर्येतिहासानां'। ___ यच्च विद्यमानेष्वपि किमिति सोमसुदरेषु श्रीमद्देवसुंदरपादवर्णनमित्यनूद्यते तदप्यसमञ्जसमेव, यतो द्वयेऽपि ३२वेविद्यमाना एव ते, सत्सु च देवपादेषु यत्सोमगुरुपादवर्णनं तदेव Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोष्ठी प्रस्ता० ] तेषां तच्छिष्यतासूचकमित्यलं विशेषेण, वर्णनीयता तु श्रीमद्देवसुन्दरपादानामसमभक्तिप्राग्भारनिबृहद्गच्छाधीशत्वेन ३४ पूज्यपूज्यानां चातिशयितपूजास्पदत्व- ' 3 भृतहृदयस्मरणीयत्वद्योतनाय, स्याव्याहतेश्च, अत एव च " तद्विनेय" इत्यभिहितं श्रीमद्भिः । 3६ .30 ' सामान्यतस्तदियता प्रबन्धेन श्रीमतां दीक्षागुरवः श्रीसोमसु दरचरणाः, ज्ञानगुरवः श्रीमन्तो ज्ञानसागराः, गच्छाधिपा वो शाद्य तुच्छफलकल्पनकल्प महीरुहमाना देववदाराध्यपादाः श्रीयुतो देवसुदरसूरय इति निर्णयोऽनाबाधोऽव्याहतश्थ, ज्ञानसागरगुरूणां त्रैविविषयोपदेशाश्रय इति तदणीयो महिमाख्यानं । ४० ततो गोष्ठीविधान भूमिकल्पो विद्वद्विधानयोग्यायोग्यपरीक्षण सम्यग्विज्ञातवाङ्मयविद्वत्समागमोद्भवानन्दनन्दिश्चक्र े वक्रे तराशयैः, ४१ पश्चाच्छास्त्राभ्यासानुयोगावस रोदीर्णप्रतिभाविशुद्धबुद्धयाभोगः १ सद्गुरुसमायोगः २ सद्गुरुविनयप्रयोगः ३ पुस्तकप्राप्तियोगः ४ प्रमत्ततावियोग: ५ सततोपयोगः ६ ४ २ शुद्धयभियोगः ७ देहारोग्यभाग्यादीनि साधनान्यैदयुगीनान्तेवासिवर्गविमृश्यतमान्याचरव्युः ख्यातमाहात्म्याः, आख्याय च विद्वगोष्ठीगुणगणात्र ज्ञानद्रुमोन्मूलनमातङ्गत्रिवर्गविध्वंसनव्यग्रदर्पाऽपाकरणप्रकरणेऽनेकाननणुप्रभाववारांनिधीन् ४४ पुरुषसिंहान् यथार्थावाप्ताभिधानश्रीमद्दिवाकर- वादिचक्रचूडामणिप्रभुश्रीमल्लवादि- ४५ मनोहारिभद्रभरनिर्जितमोहमोषकोपद्रव श्रीमडरिभद्र- ४६ सर्वविसंवादिनिमूलस्वकल्पनाशिल्पिमात्रनिर्मित ग्रथततिवितननविज्ञाऽपगतलञ्जदिगम्बरमद निर्मथन देवसूरिसख्यश्रीदेव सूरिब्रह्म " ४७-४८ गोचरातिगनिरवद्यचा-तुर्विद्यविधानविज्ञाऽमारिपटहोद्घोषणख्यापिताभयप्रदत्वगुणमहिम-महीपालकुमारपालकुमुदकौमुदीपति-श्रीहेमचन्द्राचार्यप्रभृतीन् ज्ञानरत्नाकराणां कृत्यमतनुप्रभावं गुणोपार्जनावश्यकतां 'गुणवद्गृह्यतां लोकानामाराध्यतमतां च गुणिनामाविर्भावयामासुः । ४६ ५० 31 [ 38 ४ लक्षणगोष्ठ चांः-अन्तरेणेक् अध्ययने इति धातु अधीये इति १ उच्यतीति २ व्याघा इति ३, जागृक् निद्राक्षय इत्यंतरा जागर्त्ति इत्यादीनि त्याद्यन्तानि, पंचडलानीति समासे, त्यादौ त्रयोदशरूपाणि धातोरेकस्यासंसृष्टानि विना गमिं जगामेति' 'मारिरेकाम,' 'मामिनीभाम' 'माद्भ्यां' (माभ्यां ) 'दधिसेक्' इत्यादीनि रूपाणि, 'गतिकारके इति, 'नित्यादन्तरङ्ग बलीय इति च न्यायः । छन्दोनुशासन गोष्ठ्याः- मागध्यां ५७५००००००, उपहासिन्यां ४५५९७५००००, आर्यायां ५२९२०००० भेदाः प्रस्तारादयः षट् प्रत्ययाः । काव्यगोष्ठ्यांः–काव्यलक्षणं, शब्दार्थभेदाः, दोषाः, गुणाः, भूषणानि, अर्थवैचित्र्यहेतवः 1 प्रमाणगोष्ठ्यां चः- प्रामाणिकभेदाः, देवगुरुधर्मतत्त्वलक्षणानि । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावनासंग्रहे प्रस्तावनामात्रमेतदखिलमहदेव-निग्रन्थगुरु-निष्कलङ्क-धर्मयथास्थितवस्तुतत्त्वप्रतिपादनस्य । देवलक्षणं तत्र तावद्विपश्चि-द्वन्दवेद्यविद्यावर्यता निजगदू रागादिदोषानालीढत्वममलकेवल५२परिवढितां प्रतिहतात्मगुणप्रहननप्रत्यलघातिकर्मनिचयतां प्रशमामृतनिमग्नवदनेन्दुविकस्वरारविन्ददलप्रख्यनयनद्वन्द्वज्ञापितक्रोधादितिरस्कृति ५५ बालकमनीयकामिनीशून्याङ्कानुमापितस्मरतिरस्कारं द्विषद्दारणक्टुप्तास्त्रायोगख्यापितदोषप्लोष; व्यतिरेकेण निदर्शयामासुरन्येषां विस्तरतोऽतथात्वं अरक्तद्विष्टानां देवतत्त्वपरीक्षणाय परीक्षाचणाः । प्रोक्तवन्तः प्रवचनसौधस्तम्भश्रीमडारिभद्रीयलोकतत्ववचांसि "नेत्रनिरोक्ष्ये"त्यादितो “यस्य निखिलाश्च दोषा" इत्येतदन्तं ५६ श्लोकितदेव-तत्वाय स्तोकश्लोकास्पदाञ्छलोकान् , तथा “ईशःकिमिति", "ब्रह्मा चर्माक्ष-सूत्री"-ति च पद्ययुगल्याऽमलया परोक्तमप्यन्ववादिषुर्देवस्वरूपनिरूपकं । प्रतिपादितौ परेण मनुष्यमात्राऽसर्वज्ञत्वाख्यावदेवत्वदर्शको निषेधाय देवत्वस्यासिद्धयादिदोषाघातत्वदर्शनेन निरस्याऽसमकल्याणकरणप्रवणकल्याणकमहिमोद्भावनेन निरचैपुश्चेतनाभृच्चणाः श्रीजिनस्यैव यथार्थी देवतचावतारितां ६३लोकातिगावाप्तावस्थानां च सिद्धानां ६४प्लुष्टाऽनन्तकालप्रचितमूलनिचयकर्मनिकराणां स्वभावज्ञानदर्शन-वीर्यसुखानन्त्ययुक्तानामिति । . गरिमगुरुतास्पदश्रीगुरुतत्वपरीक्षणे समस्तश्रेयोवितरणदक्षसम्यग्दर्शनज्ञानचरणाराधन६'चश्ववस्तदुपदेशनपराः पञ्चमहाबतीधूर्धरणधौरेया गौरवार्हा गुरवो निरचायिषत "निश्चयाख्याननिपुणैः, प्रणिगदितं चाऽऽगमनिष्णातैरारम्भपरिग्रहनिरतानामगुरुत्वं माध्यस्थ्येन । ... अभ्युदयनिःश्रेयससाधनसाधीयोधर्मनिरूपणे अभयदान मिथ्यावचनादत्तादानाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो निवत्तिः, क्रोधमानमायालोभाभिधानकषायचतुष्कधिक्कृतिः विनयार्जवादिगुणाधिकारश्च यत्र सुप्रयत्नप्रतिपादितः स एव धर्मः, कुतीर्थिककथितस्य तु तस्यातथात्वं जीवतत्वावबोधनद्रक्षणप्रयत्नाभावादसर्वज्ञप्रणीतत्वात् निस्त्रिंशपरिगृहितत्वाच ततं ततबोधांशुभिः पूज्यैः ।। तत्राद्य हेतौ स्नानादेर्धर्मता सप्रसङ्गा निराकृता, प्रतिष्ठापितं चापां सजीवत्वं प्रकरणतो वीतरागाणामेव यथार्थवादित्वं च, द्वितीये च ७२ तदागमतत्प्रकाशकानामसर्वज्ञत्वं तदागमानां च परस्परविरुद्धार्थाविर्भावकताविनाभाविता-हिंसाद्यतिनिकृष्टोपदेशदानपटुता च साधिता, तृतीयस्मिंस्तु तस्मिन् सविस्तरं तत्परिगृहीतृणां निस्त्रिंशता भवाभिनन्दिता च प्रादुर्भाविता ।। ____ तदेवं देवगुरुधर्मरूपा तच्चत्रयी अत्राऽऽतताऽतनुबोधैः शैशवेप्यऽ शैशवमतिभिरिति यथार्थाभिधाऽस्य त्रैविद्यगोष्ठीति । यतो नात्र विश्वे वेविद्यते कापि "विद्याऽवदातकल्याणाऽपरा विहायैतत्तचत्रयीं, वेदनाद्विचारणात् प्रापणार्हत्वाचास्या नांशतोऽपि विद्यात्वं जंघन्यते । यथावदवबोधश्चा समाप्ति निरीक्षणादेवाऽस्या भावी । न हि सूर्यप्रयोजनं "मुकुराकान्ततद्विम्बेन बोभूयमानमवलोक्यते । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्यगोष्ठी प्रस्ता. ] [. तथा चाशासे लब्ध्वाऽनया प्रस्तावनया प्रमेयं प्रमेयं समग्रामेनामध्येतु श्रोतुवा प्रयतेरन् प्रक्र्तेरैश्चैतदभिहिते तचत्रयाराधनेऽनल्पकल्पनातिगफलसंपत्तिसंपादनसमर्थ इति सागरान्तानन्दनामधेयः। पूज्यानां चरित्रं नात्र विस्तरतो निरूपितं सोमसौभाग्य-हीरसौभायगुर्वावल्यादिषु मुद्रितचरेषु यथार्ह निरूपितत्वान्निरूपकैः, स्खलनायाश्च छद्मस्थस्वभावत्वादना ग्रहाया यदि कोप्यत्र मुद्रणादौ भवेदोषः प्रमायः परमकारुणिकैविधाय करुणामनुग्रहाभिलाषुके मयि, ज्ञापयितव्यश्च यदस्मिन्नस्मिन् स्थानेऽमुकोऽमुको दोषो, यतो द्वितीयावृत्तौ विदधामि विशोधनं, तस्येह जातदोषस्य च वितरामि मिथ्यादुष्कृतं सकलजिनमार्गाराधनसावधानपूज्यचरणश्रीसङ्घसमक्षमिति १९६६ आश्विनशुक्लषष्ठ्यां सुरतपत्तनेऽलेख्यानन्देन । रागद्वेषौ हतौ येन, जगत्त्रयभयङ्करौ । स त्राणं परमात्मा मे, स्वप्ने वा जागरेऽपि वा ॥ कत्थ अम्हारिसा पाणी । दूसमादोसदूसिआ ॥ हा ! अणाहा ! कहं हुता ! जइ ण हुतो जिणागमो ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ पूज्यागमोद्धारकश्रीलिखितप्रस्तावना विषमपदार्थसूचिका आनन्द-लहरी-टिप्पणी १ श्री विद्यगोष्ठी kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk १. "विदित" पदस्य सामान्यतः 'ज्ञात' रुपोऽर्थः सम्भवति, तथाऽपि प्रकरणसङ्गतिवशादत्र "प्रथित =प्रसिद्धे"-त्यर्थोऽवबोध्यः । २. अन्धतमः-गाढान्धकारः । ३. परमवैदुष्यरूपा या धुरा तस्याः धरणे धौरेयाः वृषभाः, तथा अनवद्याः निर्मलाश्च याः विद्याः तासां ब्रजेन=समूहेन अवदातः निर्मलः आत्मा येषां ते, ततश्च कर्मधारयः । ४. तिसृणां विद्यानां समाहारः त्रिविद्यं स्वार्थे अण्प्रत्ययकरणेन 'विद्य' पदनिष्पत्तिरत्र ज्ञेया। ५. ग्रन्थप्रान्त्यभागे उपान्त्यश्लोकस्थेन "बाल्येऽपि कर्मकुतुकान्मुनिसुन्दरेणे"तिपदकदम्बकेनैततस्पष्टीभवति। ६. लक्ष्यन्ते-बुद्धिविषयीक्रियन्ते सदसच्छब्दा येनेति लक्षणं व्याकरणशास्त्रम्। ७. न्यूनतादूषितमित्यर्थः। ८. मर्यादावाचि इदं पदम् । ९. "विलोक्यते" इत्यस्य “जयश्रीशब्दः" इत्यनेन सहान्वयः । ___ तथा च “यथा........कल्पद्रुमस्याऽऽद्यपद्ये........गुर्वावल्यां विज्ञैस्तथा (ग्रन्थारम्भे स्वमर्यादासूचकत्वेन) न्यसनीयः जयश्रीप्रदः जयश्रीशब्द: विलोक्यते, स एव च अत्राऽपि" इत्यन्वयो विज्ञेयः १०. अत्र खलु पूज्यपादागमोद्धारकैः विज्ञनिष्पक्षपातिसद्गुरूपासनाशून्यमनस्कोभावित-प्राकृतभाषा निस्सार त्वाऽसारत्वप्रतिपादनगर्भविशेषणप्रयोगद्वारा प्राकृत-भाषाया महत्त्वं व्यञ्जितमस्ति । ११. वाराणस्याः वासेन जातो यः मदस्तेन उद्धरा या विपश्चितां ततिः श्रेणिः तस्याः विजयेनावाप्तं यथार्थ यत् न्यायविशारदपदं यैः। तथा सन-प्रशस्तः य आलोकः=भावप्रकाशः तद्वन्ती लोचने येषां तेषों लोभकाः मोहकाः । तथा आप्तक्रिया योगवहनाऽऽदिरूपा तस्याः करणेन आलादितं गण्युपाध्यायवाचकादिपदं यैः । इतिअर्थानुसारिणी खल्वत्राऽन्वयसङ्गतिर्विज्ञेया। १२. चरणशब्दोऽत्राऽऽप्ताऽभिजाताऽभिसन्धिरूपमर्यादाया पूज्यत्ववाचकः । १३. पूज्याचार्य-हरिभद्रसूरीणामित्यर्थः । १४. सांसारिकभागिनेय-हंसपरमहंसमुनिपराभवस्य बौद्धाभिरचितस्य निराचिकीर्षयाऽमर्षातिरेकात् सर्वान तान् बौद्धविद्विषः सुतप्ततैलकटाहे वलदङ्गारभृतचूल्लिकोपरिस्थे काकरूपेणाभिचारप्रकारेणाऽऽकर्ण्य जुहूषापापस्य प्रायश्चित्तरूपेण गुरुवर्यप्रेरितवृद्धसाध्वीसङ्केतात् पश्चात्तापपथ्यधिव्रजता सूरिवरेण चतुश्चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशतसम्मितग्रन्थाभिनवरचना सङ्कल्पिता, तेषां च प्रान्त्यभागे "विरह" पदोल्लेखः समुट्टङ्कितोऽस्ति । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औ० गो० प्र० टिप्पणी ] १५. वेत्ति प्रकर्षेण जानाति योऽसौ वित्=विद्वान् , तस्य भावः वित्त्वं, विद्वत्त्वमित्यर्थः । १६. ग्रन्थारम्भे ऐकारप्रयोगरूपाकरणे इत्यहः। १७. लक्ष्यते वस्तुतत्वं येनेति व्युत्पत्या सत्तर्कशास्त्रमत्राभिप्रेतमित्यवसीयते । तेन च सत्तर्कशास्त्रानुमित्या दिनिपुणैरित्यर्थः। १८. प्रस्तुतग्रन्थकर्तृणां पू० श्रीमुनिसुन्दरसूरीश्वराणामित्यर्थः । १९. इष्टतमार्थपरकमिदं पदम् । २०. अत्र शब्दानुप्रासविधया प्रकरणस्य प्रस्तुतस्य प्र=प्रकर्षेण करणं विरचनमित्यर्थः प्रज्ञाप्यते । २१. 'नदीष्ण' शब्दो हि सर्वदिग्गामितद्विषयकपाण्डित्यसूचकः अतोऽत्र नदीष्णता=प्रकाण्डपाण्डित्य मित्यर्थः । २२. पूज्यायार्य श्री ज्ञानसागरसूरिविषयिणीत्यर्थः । २३. श्रीदेवसुन्दरसूरिवर्याणां विनेयोत्तंसानां सूरीणां वर्णनप्रसङ्गो गुर्वावल्यां ३२६ श्लोकतः प्रवृत्तोऽस्ति । २४. गुर्वावली श्लो० ६४५ । २५. श्रीज्ञानसागरसूरीयमित्यर्थः । २६. 'पूज्यपाद' शब्देनात्र श्रीज्ञानसागरसूरीशपरामर्शः । २७. अत्र “ये" पदेनाऽद्यतनैतिह्यविदुषामध्यात्मकल्पद्रमगुर्जरानुवादकारिप्रभृतीनामनिश्रितगुरूणां परामर्शः । २८. पूज्याचार्यश्रीमुनिसुन्दरसूरिवराः। २९. श्लोकद्वयमेतत् गुर्वावल्यां ४२०-४२१ सा ख्याङ्कितं दृश्यते । ३०. अत्र वज्रार्थसूचक कुलिश'पदेनाऽसदुद्भावितकुतकैरधृष्यत्वं व्यज्यते । ३१. विज्ञाते गुरुपदस्य ऐदम्पर्येतिहासे यैस्तेषामिति विग्रहोऽत्रावबोध्यः, ततश्व गुरुपदस्य गुरुपरम्परागम्य निश्रोपजीव्यकृपालभ्यैदम्पर्यस्य पट्टावलीगम्यघटनासमुच्चयरुपैतिह्यस्य च ज्ञातव्यत्वस्यावश्यकतानिर्दे शोऽत्र पज्यवर्यैः कृतोऽस्ति। ३२. अतिशयेन विदिताः ख्याताः इत्यर्थः । ३३. अत्रार्थद्वयं सङ्गच्छेत, तथाहिः बृहद्गच्छस्य तपगच्छस्य पूर्वसंज्ञारूपस्य अधीशत्वेन, अथवा बृहतः पूज्यश्रीसोमसुन्दरसूरिसन्निभनानाविधपदस्थमुनिगणैः शिष्यप्रशिष्यादिभिश्च महाप्रमाणस्य गच्छस्य समुदायस्य अधीशत्वेन इति।। ३४. पूज्याः-श्री सोमसुन्दरसूरिपादाः तैरपि पूज्यास्तेषाम् इति व्युत्पत्तिरत्रावबोध्या। ३५. गुर्वावलीप्रशस्तेश्वरमभागे " इति श्रीयुगप्रधानावतार श्रीमत्तपागच्छाधिराज........."श्री देवसुन्दर सूरि..........."तद्विनेयश्रीमुनिसुन्दराणां" इति सम्बधोट्टकोऽभावबोध्यः । ३६. अत्र विनेयपदस्य शिष्यार्थत्वमविवक्ष्याज्ञावर्तित्वरूपसामान्यार्थस्य विवक्षा ज्ञेया, समर्थ्यते चाप्येतत् गुर्वावली (श्लो. ३४५) गत" श्रीसोमसुन्दरगुरुप्रमुखास्तदीय “मितिश्लोके गुरुपदोल्लेखेन, ३७. उद्देशादिरूपं यदतुच्छं उत्कृष्ट फलं, तस्य कल्पनं संपादनं तत्र कल्पमहीरूहः कल्पवृक्षः, तद्वन्मानं शास्त्रे प्रमाणं येषां ते इति विग्रहोऽर्थानुसारी ज्ञेयः ।। _ 'उद्दे शादि' पदे आदिपदेन समुद्देशानुज्ञागणसम्बन्धिविविधज्ञानदर्शनचारित्राद्याराधनोत्सपककार्यानुज्ञादीनि ग्राह्यानि । ३८. श्रिया यौति=मिश्रीभवति योऽसौ इति व्युत्पत्त्या विवपकरणेन च निष्पन्नं "श्रीयुत्" शब्दय प्रथमा बहुवचनमिदं विज्ञेयम्। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावनासंग्रहे ३९. विदुषां सम्बन्धिना विधानविषयकानां योग्याऽयोग्यानां परीक्षणेन सम्यग विज्ञातं वाङमयं यैः एता दृशविद्भिः सह जातेन समागमेन उद्भवः यस्यैतादृशाऽऽनन्दरूपा नन्दिः, ४०. वक्रादितरः तत्प्रतिपक्षी सरल आशयो येषां तैः । ४१. शास्त्राभ्यासः अध्ययनपाठस्वरूपः, अनुयोगः पाठन-वाचनाऽऽदिरूषः; तयोरवसरे उदीर्णा उदयमापन्ना ___या प्रतिभा,तया विशुद्धा या बुद्धिस्तस्या आभोगः विस्तार इत्यर्थः । ४२. शुद्धेः-मानसिकऋजुताऽऽदिरूपायाः अभि-समन्तात् योगः प्राप्तिरित्यर्थः । ४३. ज्ञानरूपद्मस्योन्मूलने मातङ्गसमानां त्रिवर्गस्य विध्वंसने व्यग्राणाञ्च दर्पस्य अपाकरणं यस्मात् एतादृशे प्रकरणे इति सम्बन्धः । ४४. न अणुः-अनणु-महान् , सचाऽसौ-प्रभावः, स एव वाः-जलं, तस्य वारांनिधिः समुद्रस्तत्तुल्यात् । ४५. मनोहारिणा भद्रभरेण निर्जितः मोहाऽऽख्यमोषक (चौर) स्य उपद्रवो यैः, एतादृशाः श्रीहरिभद्राः । ४६. सर्वा चासौ विसंवादिनी निर्मूला च या स्वकल्पना, सैव शिल्पिरूपा, तेनैव निर्मितायाः ग्रन्थततेः वित नने प्रचारादिरूपे विज्ञाः पटिष्ठाः, अत एव अपगतलज्जाः ये दिगम्बराः तेषां मदस्य निर्मथने देव सूरिणा-सुरगुरुणा-बृहस्पतिना सह सख्यं येषां ते एतादृशा ये देवसूरयः । ४७. शब्दरत्नमहोदधावयं हि शब्दः श्रेष्ठत्वार्थसूचको निर्दिष्टोस्तीति। . ४८. गोचरातीतं अतिप्रमाणं निरवद्यं वत् चातुर्विद्यविधान, तस्मिन् विज्ञाः, अमारिपटहोद्घोषणया ख्या पितः अभयप्रदत्वगुणमहिमा यस्य एतादृशमहीपालकुमारपालरूपकुमुदस्य कौमुदीपतिः चन्द्रस्त्तत्तुल्या ये श्रीहेमचन्द्राचार्याः। ४९. पूर्वोक्त “पुरुषसिंहान्" इत्यस्य विशेषणमिदम् । ५०. आन्तरबहुमानवाची अयं शब्दो विज्ञेयः। । ५१. विपश्चितां वि तां=विदुषां वृन्दैः वेद्या या वर्यता श्रेष्ठता येषामिति विग्रहः । ५२. स्वामित्वमित्यर्थः । ५३. प्रतिहतः दूरं निरस्तः आत्मगुणानां पहनने-विघातकरणे प्रत्यलानां समर्थानां घातिकर्मणां निचयः येनेति विग्रहः । ५४. प्रशमामृते निमग्नः यः वदनेन्दुः, विकस्वराणामरविन्ददलानां प्रख्यं समानं यत् नयनद्वन्द्वं च ताभ्यां ज्ञापिता क्रोधादेस्तिरस्कृतिर्येनेति विग्रहः । ५५. बालानामज्ञजीवानां कमनीया या कामिनी तया शून्यो योऽङ्क-उत्सङ्कस्तेनानुमापितः स्मरस्य तिरस्कारः ... येन तमिति विग्रहः । ५६. द्विषतां शत्रूणां दारणाय क्लप्तानि यानि अस्त्राणि आयुधानि तेषामयोगेन असम्बन्धेन ख्यापितः दोषानां (रागादीनां)=प्लोषः समूलनाशः येन तमिति विग्रहः । ५७. अन्येषां कुदेवादीनाम् । ५८. परीक्षानिपुणा इत्यर्थः । ५९. श्लोकितं प्रशंसितं देवतत्त्वं यैः तथा अस्तोकः=बहुः यः श्लोकः प्रशंसा तदास्पदाश्च ये, ततश्चोभयो समास इति सङ्गतिरर्थानुरोधेन समीचीना प्रतिभाति । ६०. 'ख्यौ अदेवत्व०' इति सन्धिच्छेदः । ६१. असिद्धयादि-दोषा-घ्रातत्वदर्शनेन देवत्वस्य निषेधाय परेण प्रतिपादितौ मनुष्यत्वाऽसर्वज्ञत्वाख्यौ अदे वत्वदर्शकौ (हेतू) असम............निरस्य इत्यन्वयोऽत्र ज्ञेयः । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रै गो० प्र० टिप्पणी] ६२. चेतनाभृच्चणाः चेतनां बिभ्रति ये ते चेतनाभृतः संसारिणः तेषु निपुणाः इति । ६३. लोकोत्तरेत्यर्थः । ६४. अनन्तकालेन प्रचितः वृद्धिं गतः भूलानां निचयः येषामित्येतादृशर्मणां निकरः प्लुष्टः दग्धः यैरिति । ६५. निपुणाः तत्पराः वा इत्यर्थः।। ६६. 'तत्' पदेन सम्यग्दर्शनादित्रयरूप-मोक्षमार्गग्रहणम् । ६७. निश्चयेन असंदिग्धं आख्याने निरूपणे निपुणैः इति भावः । ६८. तस्य धर्मस्य, अतथात्वं अधर्मत्वं, एतत्पदयोः “तत"-भित्यनेन सह सम्बन्धः । ६६. ततं=विस्तारेण निरूपितं तताः विस्तृताः बोधस्य ज्ञानस्य अंशवः किरणानि येषामिति विग्रहः । ७०. जीवतत्त्वावबोध-पूर्वक-यतनाऽभावरूपे इति शेषः । ७१. असर्वज्ञ-प्रणीतत्व-रूपे। ७२. अत्र तत्पदेन कुतीर्थिककथितधर्मपरामर्शः, ततश्च तस्य-कुतिर्थिककथितधर्मस्य आगमः येभ्यः तथा तस्य=कुतीर्थिककथितधर्मस्य प्रकाशकाश्च ये, एतादृशानां तेषामिति भावः । ७३. निस्त्रिंश-परिगृहीत रूपे। ७४. न विद्यते शैशवं येषामिति अशैशवाः प्रौढविद्वांसः तेषां मतिरिव मतिः येषां तैरिति विग्रहः। ७५. अवदाता चासौ कल्याणा चेति कर्मधारयोऽत्रावबोध्यः । ७६. अत्र विद्धातोः प्राप्ति-ज्ञान-विचाररूपाणां त्रयाणाम् अर्थाणां पूज्यपादैः सङ्गतीकृताऽस्ति । ७७. हन्धातोः यान्तं रूपमिदम् ।। ७८. दर्पणवाची भयं शब्दः । ८९. प्रमा-बुद्धिस्तद्विषयीभूतं प्रमेयं प्रमाणविषयीभूतं सत्पदार्थमित्यर्थः । ८०. आग्रहरहितायाः इत्यर्थः, इदं च 'स्खलनाया' इत्यस्याः विशेषणम् । एतेन च पूज्यपादैः स्खलनामात्रस्य छद्मस्थस्वभावत्वं निराकृत्य निराग्रहत्व-माहात्म्यं ध्वनितम् । ८१. 'भाविनि भूतोपचार' -रूपन्यायमङ्गीकृत्यात्र 'जात' पद-प्रयोगोऽवबोध्यः ।। ८२. श्रीसङ्घस्य पूज्यतमत्वे हेतुत्वेन श्रीजिनमाराधनसावधानत्वमत्र निदर्य पूज्यपादाः समूहमात्रस्य सङ्गत्वं निराकृतवन्त;। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 945454545454441454545454545455 श्रीआगमोद्धारकालेखितप्रस्तावनासंग्रहस्वरूपे । श्री अानन्दरत्नाकरे __द्वितीयं रत्नं श्रीवीतरागस्तोत्रस्य उपक्रमः 9999 'सकलैहिकामुष्मिकहितकृद्धितकारक-'पुन्नागनिर्मितास्तोकश्लोकास्पदा-तीन्द्रियेतरपदार्थसार्थस्वरूपाविर्भावक लोकोत्तरीयग्रन्थतत्यवधारणपीनबुद्धिप्राग्भाराणाम् सकर्णानां नाऽसमाकर्णितमेतघदुत “यस्य कस्यापि मतस्य ' सौष्ठवमितरच्च तदीयागमस्तोमावगमेनैवागम्यते," "तत एवं 'यतोऽभिमन्तव्यपदार्थानां तथ्येतरत्वविचारणासरण्यवतारः । अत एव चावाऽप्ता -खिललोकालोकगताशेषपदार्थसार्थावलोकनप्रत्यल-समस्तज्ञानावरणीयसमूलकाषंकषणप्रभव प्रभूतप्रभुतास्पदकेवला अपि श्रीमदकलङ्काराध्यपादाः श्रीसर्वज्ञाः प्रकटयामासुः प्रकटप्रभावात्यस्तमितकुमतततानुकर्मप्रवेकविस्तारकप्रवादैः श्रीमद्गणधरैरुदयप्रक्षिप्तगणभृत्कर्मभिर्ज्ञानचतुष्टयपीयूषपूरान्तःकरणैः 'उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वे' त्यनन्यसाधारणनिश्शेषवस्तुव्रजावस्थिताबाध्यधर्मदर्शनपटीयोवचत्रितयरत्नत्रयसमाखण्डज्योतिद्वारेण द्वादशाङ्गीतीर्थ सकलसुरासुरनरेश्वरगणोपकारक्षम विद्वद्वन्दनमस्यम् । ___तच्च यावदपश्चिमपूर्वभृच्छीमद्देवर्डिगणिक्षमाश्रमणम' पश्चिमानुपमातिशयसाम्राज्यसार्वभौमहिमवदाविभूतभागीरथीद्वादशाङ्गी तीर्थान्तरगतमपूर्वचमत्कारचिन्तामणि रोहणायमाणमासीदसाधारणमनीषाधारणलब्ध्युपेतमुनिगणधौरेयधृतं पुस्तकगणमृत एव, परं प्रेक्ष्यावसर्पिणीप्रभावहसद्धीगणम् मुनिगणमुपकारकरणपटवः पूज्यपादाः सम्मील्याचार्यपञ्चशती १६वमानागमरत्नरत्नाकरोपमां सौराष्ट्रराष्ट्रराजमानायां "तचज्ञानश्रीवलभ्यां वलभ्यामुद्भावयामासुः शासनं 'विशसितप्रबलकर्मबलकेतनं पुस्तकारूढं सिद्धान्ततया सर्वसम्मताक्सिंवादमतीयम् । तदारत एव चासंयममयासंयतसंसारपारावारवर्धनमपि संयमवर्धनतयोपकरोति १६ पुस्तकवृन्दमर्हाणामहमर्हच्छासननभोङ्गणतारारूपाणां मुनिवराणाम् । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीत० स्तोत्र० प्रस्ता०] [११ स्पष्टितं च स्पष्टमेतत्स्पष्टतमबोधकिरणैयुगप्रधानप्रवरैः २"श्रीमत्तत्वार्थदीपनप्रदीप्रप्रदीपोपमतत्वार्थ-२२सार्वदिकसाधुकल्पकल्पनकल्पवृहत्कल्पप्रभृतिषु परमार्थपथप्रधानावधारणैः, अन्यथातु २"नाभविष्यदेव २"सकलजन्तुजातासाधारण पातवितरणविज्ञपारमार्थिकतत्वप्रधानासाधारणाचरणावगमनज्योतिरन्तरा विवेकचक्षुरुद्वाटनमैदयुगीनानां २ दुष्पमासमयोद्भूतानेकवाचालकुतीर्थिकवाचालितदिगन्तरालानुपलभ्यदिगालोकानाम् , २ तदन्तरेण च कथङ्कारमभविष्यत् सदाचारसौधसोपानारोहोऽप्या रुढानार्यजनप्रबलासङ्गजातप्रबलानार्याचारप्रभावेऽत्र युगे धर्मजिघृक्षाऽपि ! आस्तां २ तावद् दूरादेवानवगतद्रव्यभावानुकम्पाप्रथनप्रत्यलधर्ममार्ग-कामस्नेहदृष्टिरागमदिरोन्मत्तविहितानेकदुर्गमविध्नसरित्सवोत्तरणाधिगतशमसाम्राज्यसाधनसावधानसर्वसङ्गपरित्यागमहाव्रताङ्गीकारादिविधानं स्याद् 3°भवेयुश्चारम्भपरिग्रहासक्तप्रबलमिथ्यात्वमोहमदिराविह्वलान्तःकरणाविरतिराक्षसीजग्धजीवस्वरुपरमणतासत्तचा एव मुनय इति शासनोन्मूलनमित्यलम् प्रसक्तानुप्रसङ्गन । विरचिताश्च वीतरागचरणसरोजकिजल्कमधुकराभैः श्रीवस्तुपाल-कुमारपाल-साधुपेथडादिभिरनेके कोशा ज्ञानयुतिद्युतिकोशा इव भव्याब्जोबोधिनो वीतरागमतानूनमहिमासरिच्छ्रोतः प्रभवपृथ्वीधरायमानाः परञ्च हुण्डावसर्पिणीपञ्चमाररजनीरजनीचरायमाणदुष्टम्लेच्छादिभूमिपैरज्ञानतत्यवष्टब्धहृदयैर्यत्याभासैः श्रावकाभासैश्च तचातत्वविवेचनविमुखतास्वीकृतपुस्तकद्रव्यैर्विनाशिता ज्वालिताः, क्षिप्ता जलेऽतनुप्रवाहे, चिता भित्तौ, हीनाचारैनीताश्च हानि स्वीयानाचारोपद्रवरक्षणबद्धबुद्धिभिः, तथाच शेपाः शेषीभूता एवोद्भावयन्ति शासनोद्भावनामसमप्रभावनाम् । ___ तत्रापि निःस्सचाद्देशस्य, अतिह्नसीयस्त्वाद्धर्मबुद्धः, परायणत्वान्मानगिर्यारोहे, अनवबुद्धत्वात्तत्वातच्चमार्गस्य, पलायितप्रायत्वाज्ज्ञानस्य, व्याप्तत्वादनार्यभाषारुचेः, तुन्दपरिमृजबहुलत्वाल्लोकानाम् , संस्कारहीनत्वान्मतेः, अरुचेः संस्कृतभाषायाः, पूत्कारप्रायत्वगणनावतारित्वात्प्राकृतग्रन्थानाम-राजभाषावादार्यभाषाया, अनार्यभाषाया अविरतत्वान्नराणाम् , ४ जेमनवारविस्तारितजयपताकिन्वाज्जनानाम् , 'वाद्यशब्दवाचालितत्वाद्यशसः, चन्द्रोदयाद्युपकरणकरणमावोत्तीर्णमतिप्राग्भारत्वादचिमताम् , ४गौर्जर्याद्यपभ्रंशभाषाप्रधानत्वात्पूजाकारणप्रवणोपदेशकानाम् , विरलतमीभतान्येवाधुना सिद्धान्त साधनसिद्धान्तपुस्तकानि, नातः परं विज्ञानामस्ति विषादपदमन्यत् जगत्रयेऽपि । ४"परं अवलोक्यैतद्विवेकविलोचनेन स्थापयामास गूर्जरदेशीयश्रीसुरतपत्तनीयगुलाबचन्द्राख्यो देवचन्द्रतनुजोऽविगीतसिद्धान्तप्रसोधनपटुप्रसाधितज्ञानदिवाकर-श्रीमद्गणमत्प्रभृतिसकलवाङ्मयवितानविस्तारणलब्धावतारः, स्ववस्तृदेवचन्द्रपादव्यवस्थापितसप्ततिसहस्र(७००००) मानद्रम्मव्यवस्थायां पुस्तकप्रसारणप्रवणान् शेषानपस्तित्कार्यवाहकात्र जीवनचन्द्रनगीनचन्द्रादीन् परस्कृत्य, व्यवस्थाम् तत्र चानेकतरगूढतचप्रकाशनप्रभाकरसिद्धान्तलेखनव्य Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] प्रस्तावनासंग्रहे वस्था सतीमप्यनाहत्यापपुस्तकप्रसारमात्रजायमानबहुद्रव्यव्ययां झटिति पुस्तकप्रसरणप्रगुणां मुद्रणकलां मुख्यतयाऽधिचकार, भगिन्याश्च स्वीयाया विद्युन्मत्या द्रव्यं तत्र सम्मील्य समानीय च कलान्तरोपार्जितं चान्यद्रविणजातं लक्षोन्मितं लक्ष्यं लक्षणविदां, तत्र चादितो मङ्गलाचरणमिव शिष्टानां परममङ्गलभूतमिदमुपचक्रमे मुद्रितुं ज्ञानधनैः साधुभिः संशोध्येति । प्रस्ताव्य व्यवस्थाम् प्रस्ताव्यतेऽधुना प्रक्रान्तो ग्रन्थः कर्तृ श्रोत्रधिकारप्रमाणादिभिः । तत्रावधीयतां तावदवधारणादीधनैरिदम् , यदुत विधातारोऽस्य विहितनिवाराधनमोचनाष्टादशदेशामारिपटहलब्धाकल्पस्थायियशःशरीराः, ४ सार्वत्रिकोटिग्रन्थ ग्रथनलक्षितसर्वज्ञानतारत्ववितीर्णकलिकालसर्वज्ञविरुदाः, अनवद्य चातुर्विद्यविधानख्यातब्रह्मातिगप्रभावाऽष्टादशदेशाधिपतिकुमारपालक्ष्मापालबोधनस्मारितसातिशयमुनिगणाः श्रीमन्तो भगवन्तो हेमचन्द्राचार्याः, तुच्छं चेदं यद् व्यागृणन्त्यलब्धतन्माहात्म्याब्धिमध्याः सार्धत्रिकोटिग्रन्थग्रथनाऽसम्भवमिति, पाठमात्रग्रन्थग्रथनपटीयस्त्वात्तेषाम् , श्रूयत उपलक्ष्यते लेखककुण्डस्थानादिविलोकनेन स्पष्टतरं विदुषामरक्तद्विष्टानां चैतत् । सूरिप्रवराश्चैते कदा कतमं भमण्डलं मण्डयामासुः ? कदा च सूर्यास्तमयेनेव रजनी प्रचारमवाप सूरिवरास्तमयेन कुमतध्वान्तततिः विस्तृतिम् ? कस्मै च योग्यतमाय पुरुषोत्तमाय ५२विधायैनमर्पयामासुः, कश्चाधिकारोऽत्र विद्वद्वन्दवेद्य आत्मकल्याणजनक ? इति प्रवृत्तायां विचारणायाम् निर्णीयते तावत्स्पष्टं स्पष्टितत्वात् “कुमारपालभूपालः प्राप्नोतु फलमोप्सित"मिति श्रीमद्विहितादेवैतदीयश्लोकात्कुमारपालक्ष्मापालसमकालीनत्वम् । कुमारपालभूपालानेहाश्च गुर्जरभूपपट्टावल्यादिविलोकनतो निश्चीयते वैक्रमीयद्वादशशतीयो, यतो विक्रमसंवन्नवनवत्यधिकैकादशशतमिते राज्याभिषेकस्त्रिंशदधिकद्वादशशतके च तस्य स्वर्गम इति । तथाच सूरिपादसमयोऽप्येष एव । स्वचरणन्यायपावितभमण्डलनिणेयोप्यत एव सम्यक्तया जायत एव, यतः ५ पुण्यतमजननिवासतिरस्कृतविबुधालयविबुधालयं श्रीमत्पत्तनपुरमगहिल्लोपपदमभूत्परमार्हतानां राजर्षिपदव्यलतानां श्रीकुमारपालभपानाम् राज्यस्थानम् , तथा च प्रायेण श्रीमतां गूर्जरधरित्र्यामेव विहारस्तत्रत्यागण्यपण्यपूरप्लावितान्तःकरणानामेव च ५४परस्परविरोधदुर्गन्धभृद्वाणीवाचक "सुरगुरुतिरस्कारिभारतीप्राग्भारभूषितवदनमलयनिःसृताविरुद्धपरमागमोदितिश्रवणभाग्यमभूदिति, वास्तव्याश्चैते तत्रभवन्तो भगवन्नो गार्हस्थ्ये गूर्जरीयधन्धूकाख्य एव ग्रामे, एतत्प्रभृतिकं सविस्तरं "वृत्तान्तमुपलभ्यं "श्रीमतां कुमारपालप्रबन्धादिति । स्पष्टमेव चोपरिष्टनिःष्टङ्कितश्लोकोत्तरार्धविचारणेन प्रकटीभविष्यति यदुत श्रीकुमारपालपावनप्राधान्येन प्रणीतिरस्य, किंवदन्ती चेयं तत्र तदनुसारिण्येव च भणितिरवचूर्णिकाराणामपि वीतरागस्तोत्राणां श्रीविशालराजप्रभूणामवचूर्णी, यदुतार्हतधर्मप्राप्तिकालादर्वाक् राजर्षिभिः Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीत स्तोत्र प्रस्ता] [ १३. कृतमभून यन्मांसभक्षणं, समयसद्भावे चावगतेऽवबुद्धम् 'चउहिं ठाणेहिं णेरइयाउत्ताए कम्मं पगरेई' इत्यादि, आगनादवसरे जाताश्चासमप्रगुणाश्चातापभाजनं, भालमौलिमणि लालितपादपीठा राजर्षयो याचितवन्तश्च परमगुरवे प्रायश्चितप्रतिपतिम् , श्रीमद्गुरुभिश्वावसरोचितं द्वात्रिंशद्दशनभक्षितत्वान्मांसस्य तच्छुद्धये तावन्मिता एवान्वर्थाः समर्पिताः प्रकाशास्तत्र द्वादश तायद्योगशास्त्रीया विंशतिश्चादीपाः, प्रतिदिन सभ्यस्यैव ८ च ते ५ दन्तान्तःकरणशोवनं प्रकाशानां द्वात्रिंशं व्यधा पीपु भोजनं चक्र श्चैते यथामभिवां प्रकाशानां, सन्ति चैत एतदिवा एव, यथावज्ज्ञानं चैगामेतनिधत्वस्य भवेद्यथावत्परिशीलनादेव, परं तत्सिद्धय एवाधिकारदर्शनं निदर्शनमात्रमेव विधीयतेऽस्मामिस्तथा चान्तिमं केऽत्राधिकारा इति प्रश्ननिर्वचनमपि भविष्यति स्पष्टं तत्र । प्रथमे तावत्प्रस्तावनास्तवे श्रीमद्वीतरागलक्षणमालक्षयन्तः प्रथमादिसप्तम्यन्तविभक्त्यन्तान्योन्यसम्बद्धश्लोककदम्बकदर्शनेन परमदेवानामाराध्यताहेतुभतं परात्मत्वं परंज्योतिष्मत्वं परमपरमेष्ठित्वं तमोविनाशविभाकरत्वं सर्वक्लेशमूलोन्मूलकत्वं सुरासुरनमस्यत्वं पुरुषार्थप्रसाधकाखिलविद्याविर्भावकत्व-मतीतानागतवर्तमानकालवत्तिपदार्थसार्थसंविधारित्वं विज्ञानानन्दब्रह्मैकात्म्यं च निष्टङ्कय श्रद्धेय-ध्येय-शरण्य-नाथवत्स्पृहा-कृतार्थकिङ्कर-वाणीपवित्रताऽऽदि च निश्चिक्युनिर्णयचणाः दर्शयामासुश्च वी रागस्तवानां मनुष्यभवफलतां श्रद्धालूनां विश्रृङ्खलवाणीवादिनामपि रुचिरताम् ।१। द्वितीयस्मिन् सहजातिशयस्तवे,श्रीमज्जिनानामतिशयचतुष्कं निरदेशि निर्देशप्रधानर्देहस्य तेषां नैर्मन्य-सौगन्ध्य-नीरोगता-स्वेदराहित्यानि, रुधिरामिषश्वैत्यं, श्वाससौरभ्यमाहारनीहारविध्यदृश्यत्वं चेति निवन्धनेन ॥ २॥ ___ तृतीये च सर्वाभिमुख्यं पर्पत्समावेशं वचनैक्यसाग्रयोजनशतगतगदनाशकत्वमीतिविद्रावकत्वं वैरविलापावं निर्मारित्वमतिवष्टयनावृष्टिस्वपरचक्रभिदुर्भिक्षभेत्तत्वं भामण्डलवचमित्येवं कर्मकक्षोन्मूलनजातकादशातिशयवर्णनम् ॥ ३ ॥ चतुर्थे तु 'सुरकृतामेकोनविंशातिशयानां व्यावर्णयन्तः पुरतश्चक्राभिसरणमिन्द्रध्वजोच्छ्रयं पङ्कजपादन्यासं चतुरास्यत्वं प्राकारत्रितयपरिगावं कमका मुख्यमवस्थितकेशरोमनखश्मश्रुतां विषयाप्रातिकूल्यं समकालमशेषत्तु सद्भावं सुगन्ध्युदकवृष्टिं पक्षिप्रादक्षिण्यं वाय्वानुकूल्यं वृक्षाग्राभिनतिं कोटिसुरासुरसेव्यत्वं प्रकटयामासुः छत्रत्रयं सपादपीठं मृगेन्द्रासनं पुष्पवृष्टि दुन्दुभिं चैत्यद्रुमं चमरवीज्यमानतां चाग्रतः प्रातिहार्यस्तवे आविर्भावयिष्यन्तीत्युपेक्षितमिदं षट्कमिति मन्ये ।। ४ ॥ पञ्चमे प्रातिहार्यस्तवेऽशोकवृक्ष--सुरपुष्पवृष्टि-दिव्यध्वनि-दुन्दुभ्या-ऽऽतपत्रत्रयी-चामरसिंहासन-भामण्डलान्याख्यन् ख्यातकीर्तयो भावार्हन्त्यचिह्मभूतानि ॥५॥ षष्ठे प्रतिपक्षनिरासस्तवे परमदेवे माध्यस्थ्यमपि दौः स्थ्यनिबन्धतया निवेद्य प्रतिप Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ ] [ प्रस्तावना संग्रहे पक्षस्य रागादिमत्रं, परेषां योगमुद्रारहितानां त्रातृत्वाभावं मलीमसाचारमुपस्थादिविकारवत्तां चाख्याय रागादिनियुक्तानां देवत्वासम्भवं समाचचक्षिरे विचक्षणाः ||६|| सप्तमे जगत्कर्तृत्वनिरासस्तवे निष्कर्मत्वेनाङ्गवदनवक्तृत्वशास्तृत्वाभाव ईश्वरस्य, सदेहत्वेऽपि च न विधाता क्रीडा कृपान्यतराभावाद, दुःखादिविधानद पता कर्मजन्ये वैचित्र्ये च नार्थवत्ता, स्वभावस्तु निःसत्ताक एवोत्तरे, ज्ञातृत्वरूपकर्तृत्वे च केवलिनां सयोगायोगभिन्नत्वाद्भगवतां न विवादः, शासनसाम्राज्यान्तर्वर्त्तिनां च नेयं व्याबाधा लेशतोऽपीति प्रतिपादितं सुनिर्णीत सिद्धान्ततच्च प्रतिपादनपरैः ||७|| अष्टमेऽनेकान्तप्रकरणस्तवे वस्तुजातस्यानेकान्तमुद्रान्तवर्त्तित्वं तदभावे कृतनाशाकृतागमौ अनिवार्यौ समवतरतः, आत्मनि तु सर्वथा नित्याऽनित्यतया स्वीक्रियमाणे पुण्यपापयोरभोगो बन्धमोक्षयोरनुपपत्तिश्च घटादेरपि क्षणिकाक्षणिकैकान्तेऽर्थक्रियाभावो वस्तुसत्ताबाधकः क्रमयोगपद्याभ्यामभिमतोनेकान्तश्चानुभवसिद्धो वस्तुस्वरूपस्थापको निराबाध इति प्रदर्श्य निरदेशि योगसाङ्ख्यबौद्धलक्षणवादिनाम् शकुन्तपोतन्यायादनेकान्ताभ्युपगन्तृत्वं यथास्थितागमनिर्देशप्रधानैरुन्मत्तगदितो विरोधश्वानेकान्तीयो यस्तं गुडनागरभेषजमेचकादिसकलविश्वविदितवस्तुदृष्टान्तवलेन निराकृत्य दुग्धदधिगोरसदृष्टान्तेन वस्तुव्रजस्य निरणैषुरुत्पादव्ययत्रौव्यरूपतां निरूपिता कलङ्कितज्ञान पुरुषसकलितागमाः ||८|| उ नवमे कलिप्रशंसास्तवेऽल्पकाललभ्यफलत्वाद्दुर्लभकृपालाभात् श्राद्ध श्रोतृसुधीवक्तृसंयोगाद्युगान्तरस्यापि बहूच्छुङ्खलकत्वात्कल्याणपरीक्षाप्रवणत्वात् निशादिषु दीपादिवद्दुर्लभत्वत्पादाब्जसेवालब्धेरपरयुगप्राप्तत्वदर्शनाधिगतेर्विषहरत्वच्छासनमणिप्राप्तेः कल्याणकरः काल उपश्लोकित इति कलिर्विद्वद्वन्दवन्यैः ||९|| दशमेऽद्भुतस्तवे सप्रकाशं प्रकाशयामासुः शासनसतच्चप्रकाशका वीतरागाणां भगवतां स्वेश्वरप्रसच्यन्योन्याश्रयभिदां सहस्राक्षानिरीक्ष्यरूपवत्तां सहस्रजिह्वावर्णनीयगुणवत्तां लवसप्तमादिनिर्जरसन्देहापहारितामानन्दसुखसक्तिविरक्त्योरुपेक्षोपकारित्वयोः परमनिग्रन्थसार्वभौमत्वयोरेकाधिकरणनिवेशं नारकामोदकत्वं शमरूपकृपाद्भुतत्वं चेत्यधिप्रकाशम् ||१०|| एकादशेऽचिन्त्यमहिमस्तवेऽचिन्त्यबुद्धिप्राग्भारा अचिन्त्यगुणगणवत्तां निजगदुररागे मुक्तभोगमद्वेषे द्विषद्यातं निर्जिंगीपभीतभीतत्वे जगत्त्रयजयं, दानादानाभावेपि प्रभुतामौदासीन्येSपि देहदानानुपाकृतसङ्गतिं भीमकान्तगुणवच्चेन साम्राज्यसाधनेऽपि विगतरागद्वेपतां, देवत्वेपि सकलगुणनिलयतां, महीयसां महत्तां महनीयतां महात्मनां गुणावहां यथार्थतया ॥ ११ ॥ द्वादशे वैराग्यस्तवे आजन्मवैराग्यवत्तां सुखकारणविषयक वैराग्यवत्तां विवेकशात निबन्धनमोक्षस्थितवैराग्यतां नित्यतां मरुन्नरेन्द्रश्रूयुपभोगकालरत्यभावं सुखदुःखभवमोक्षविषय कौदासीन्यं परती Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५ वीत. स्तोत्र प्रस्तावना ] थिंकाभ्युपगताराध्याङ्गीकृतदुःख गर्भमोहगर्भानालीढज्ञानगर्भसगर्भतां सततसम्यगौदासीन्येपि विश्वविश्वोपकारितां चाविश्वक्र : कोविदचक्रचूडामणयः || १२॥ त्रयोदशे हेतुनिरासस्तवे ( विरोधस्तवे ) अनाहूतः सहायोऽकारणो वत्सलोऽनभ्यर्थितः साधुसम्बन्धो बान्धवोऽनक्तः स्निग्वोऽमृष्ट उज्जवलोऽधौतोऽमलशीलोऽचण्डो वीरवृत्ति: शमी समवृतिः कर्मकुटिलकण्टकक्कुट्टकोऽभवो महेशोऽगदो नारायणोऽराजसो ब्रह्मानुक्षितः फलोदग्रोऽनिपातो गरीयानसङ्कल्पितः कल्पद्रुसङ्गो जनेशो निर्ममः कृपात्मा मध्यस्थो जगत्त्राता ऽगोपितो रत्ननिधिरवृतः कल्पोऽचिन्त्यश्चिन्तामणिर्निखिलेपि जगति नान्यो वीतरागाद्भवतोऽपरः इति प्राचरख्युः प्रख्यातख्यातयो महात्मनः ||१३|| चतुर्दशे योगसिद्धिस्तवे श्लथत्वेन मनोवाक्कायचेष्टासमाहारान्मनः शल्यवियोगः, करणानां संवरप्रचाराभावेन जयोऽष्टांगयोगस्य बाल्यात्सात्मीभावश्चिरपरिचितेषु विषयेषु विरागः, योगेऽदृष्टेपि लोलीभावो हिंसकानामुपकार आश्रितानामुपेक्षापकारिणि तथा रागो यथा न परेषामुपकारिणि सुख्यहं दुःख्यहं वेति ज्ञानाभात्रकृत्समाधिर्ध्याता ध्यानं ध्यानं ध्येयमित्येतत् त्रयस्यैक्यमिति च विलक्षणमहिमा जगद्गुरूणामेवेति जगदुः सूरयः || १४ || पञ्चदशे भक्तिस्तवे उदात्तशान्तमुद्रया जगत्त्रयीजयस्त्वदनङ्गीकारः चिन्तामणिच्यवं सुधावैयर्थ्यं करोति विपर्यस्तमतीनां त्वयि यो धारयति रूक्षां दृष्टि तं न चेदन्तरा तत्रभवदुपदिष्टा कृपा स्यादवक्ष्यत् साक्षाद्भूय कृशानुः भस्मसात्करोत्विति त्वदविरुद्धशासनापरहिंसाद्य हितकर्मपपथोदेशप्रवणशासनयोः साम्यं स्यात्तेषामेव येषाममृतविषयोस्तत् त्वदपलापिनामनेडमूकता श्रेयस्करी, मन्दयायिताया उन्मार्गप्रवृत्तस्य श्रेयस्त्वात्, तत्रभवच्छासनामृतरससिक्तानां नमस्कार्यता, त्वच्चरणपूता भूरपि भव्यभावुकलम्भयित्रीति नमोऽस्तु तस्यायपि, त्वद्गुणमकरन्दपानलम्पटत्वेन प्रशस्तं मे जनुर्ज्ञानादिधनलब्धा कृतकृत्यश्चास्म्यहमिति भक्तिविस्मितमानसा मीमांसितवन्तो मीमांसामांसलम् ||१५|| , षोडशे आत्मगर्हास्तवेऽविगर्हितात्मानः समाहितात्मनां स्मरणीयां समाचख्युरेकतः परमगुरुप्रणीत प्रवचनपीयूषपानोद्गता परमपथप्रवीणतान्यतश्चानादिकालीना रागद्वेषावेगजाता मूर्छा, रागगरलमूर्च्छितानामवाच्यकर्मकारिता, क्षणं सक्तो मुक्तः क्रुद्धः क्षमीत्यसाधारणा कारिता कपिचेष्टा मोहमदिरया, प्राप्यापि बोधिं मनोवाक्काय दुश्चेष्टान्वितः त्वच्छरणगतोऽप्यभिभूये मोहादि - भिरपहारेण दुर्लनलाभरन्नत्रितयस्य त्वमेव तारको मम इति लग्नोऽस्मि भवत्पादयोस्त्वप्रसादलब्धेयती भूमिदानीं मोपेक्षिथाः, कृपापरस्त्वं पात्रं चासाधारणं कृपाया अहं, त्वमतो भव युक्तानुष्ठानर इति || १६ ।। सप्तदशे शरणस्तवे कृतस्वकृतदुष्कृतगर्हासुकृतानुमोदतः शरणं यामि, भवतु मिथ्यादुष्कृतं Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [ प्रस्तावना संग्र मनोवाक्कायजानां कृतादिभेदानां दुष्कृतानामपुनः क्रियान्त्रितं रत्नत्रितयगोचरमनुमन्येऽहं सुकृतमहदादीनामहच्चादिकमनुमोदयामि त्वां त्वत्फलभूतान् सिद्धाँस्त्वच्छासनरतान् मुनींस्त्वच्छासनं च शरणं प्रपद्ये, सर्वान् सच्चान् क्षमयामि क्षाम्यन्तु च तेऽस्तु च मैत्री तेषु आपरमपदावा तेव शरणं ममेति तेनुः शरणक्रियामतथामवितथामवितथवादाः ||१७|| अष्टादशे कठोरस्तवे शेषापरदेववैलक्षण्यं क्रोध लोभभयाक्रान्तजगद्वैलक्षण्यमेव प्रभोर्लक्षणं कृतलक्षणा निरचैषुः कृतलक्ष्णतया परं नैतत्संसारकाच कामलिपरितानामसुमतामायाति यथार्हं श्रद्धानगोचरे विना सम्यक्त्वाञ्जनम् ||१८|| एकोनविंशे आज्ञास्तवे पालनमेवाज्ञाया भगवद्ध्यानं निःश्रेयसकरं निग्रहानुग्रहकर्त्तृणां परेषां वर्धिन्येव संसारारण्यस्याज्ञा, विगतरागाणामाराधनम् अचिन्त्यमण्यादितो भवत्येवाभीष्टदं, पर्याया अपि पराज्ञाराधना, तदाराधनविराधननिबन्धनत्वान्निर्वाणानिर्वाणयोः, सा चाश्रवसंवरयोहेयोपादेयतारूपैव तदाराधकाश्च निर्वाणपथनिभृता अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति ॥ १९ ॥ विंशे आशीःस्तवे च त्वत्पादरजःकणा निवसन्तां मूर्ध्नि मम दृशौ क्षालयेतां मलमनक्षणभवं, लुठनैरस्तु किणावलिः प्रायश्चित्तमसेव्यप्रणामस्य, रोमाञ्चकण्टका असद्दर्शनवासनां तुदन्तु त्वदास्यपीयूषपानादस्तु मदीयलोचनाम्भोजानां निर्निमेषता, नेत्रे त्वदीयवदन लासिनी, करौ त्वदुपास्तितत्परौ, श्रोत्रे त्वद्गुणग्रहणपरे भवतः सदा, स्वस्त्यस्त्वेतस्यै वाण्यै या तत्रभवद्गुणावगाहप्रत्यग्रा ओमिति स्वीक्रियस्व यद्दासः प्रेष्यः सेवकः किङ्करोऽहं ते इति, इत्येवमनून प्रतिभाप्राग्भारवर्णनातिगं जगद्गुरुं वर्णयामासुस्तत्रभवन्तोऽत्रेति विज्ञापते ।। २० ।। ६५ एतत्पर्यवसाने यदुत न लब्धचरा आदर्शा अस्यानेके । न च शुद्धाः परमावश्यकं श्रद्धापीयूषपीनानां श्राद्धानामेतस्य पठनमिति " मुद्रणोपक्रमोद्भव आगसि मिथ्यादुष्कृतं प्रार्थयते सकलभ्रमण सङ्घसेवकः आनन्दान्धिरस्तु च लेखक पाठकमुद्रापकाध्येतॄणां श्रेयो निःश्रेयसपर्यवसानं बोधिवी जावाप्तिद्वारेति । सिन्ध्वृत्वङ्केन्दुमानेऽब्दे, (१९६७) पौष मास्यसि दले । पञ्चम्यां सुरतद्रङ्ग, श्रेयसेऽस्तु लिपीकृतः ॥ 1 Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फफफफफफफफफफफफफफफफफफफ फफफफफफफ पूज्यागमोद्धारक श्रीलिखितप्रस्तावनाविषमपदार्थसूचिका ग्रानन्द- लहरी - टिप्पणी फफफफफफफफफफफ २ श्रीवीतराग स्तोत्रोपक्रमः फफफफफफफफफफफफफफफफ १. सकलम् ऐहिकम आमुष्मिकं च हितं कुर्वन्ति ये ते इति व्युत्पत्तिरत्रात्रसेया, विशेषणं चेदं प्रयतते बोध्यम् । २. 'शब्द' कोशाधारेण 'नाग' शब्दः श्रेष्ठार्थवाची अप्यस्तीत्यतोऽत्र 'पुन्नाग' शब्दस्य पुरुषश्रेष्ठ त्यर्थोऽवगम्यः । ३. आध्यात्मिकहितसाधनप्रगुणानामेव ग्रन्थानां हितावहत्वद्योतनायेदं विशेषणमुपन्यस्तमस्ति । ४. असौष्ठवमित्यर्थः । ५. तत एव = आगमस्तोमात्रगमादेव, इदं हि पदं अग्रेतन 'तथ्ये " "वतारः' पदेन सहान्वेयम् । ६. यतः = यस्माद्धेतोः । ७. भत्र 'चावाप्त' पदस्य समस्तवाक्यान्त्यभागगत 'केवल' पदेन सह सम्बन्धः । ८. प्रभूता = अतिप्रमाणा या प्रभुता = तीर्थकृन्नामकर्मविपाकजन्यैश्वर्यमहिमारूपा, तस्याः आस्पदरूपं यत् केवलं=केवलज्ञानमिति सङ्गतिरत्र कार्या । ९. प्रकश्वासौ प्रभावस्तेन अति = अत्यर्थं अस्तमिताः कुमतैः तताः भतनवो ये कर्मणां प्रवेकानां = प्रवाहानां विस्तारकाः ये प्रवादाः = मतान्तराणि यैरिति विग्रहोsर्थानुसारी बोध्यः । १०. साहजिक तथा भव्यत्यादिवशेनोद्यमापन्नस्यापि गणभृत्संज्ञकर्मण उदयप्रक्षितत्वमत्र निदर्य पूज्या - गमोद्धार श्रीपादाः सकलद्वादशाङ्गोपनिषद्भूतत्रिपदीद्वाराऽऽगमरचनाया कुटुम्बतारणभावनालब्धजन्म गणभृत्कर्मोपहितत्वं व्यञ्जितवन्तः । ११. अनन्यसाधारणा निश्शेषवस्तुव्रजे अवस्थिता ये अवाध्याः धर्माः तेषां दर्शने पटीयः = अतिनिपुणं यत् वचस्त्रितयं, तस्य रत्नत्रयसमा या अखंडज्योतिस्तद्द्वारेणेतिव्युत्पत्तिरर्थानुसारेणात्र विज्ञेया । १२. अत्र च श्रीमद्भिरा. मात्रता रैः सूरिभिः शब्दप्रयोगवैशिष्टये नाद्भुतार्थनिर्देशः कृतोऽस्ति, तथाहि : अपश्चिमः=नास्ति पश्चिमः यस्मात् इति व्युत्पत्या चरम इत्यर्थः अतिशयानां यत् साम्राज्यं तस्य सार्वभौमः = सर्वदिगन्तव्यापिसाम्राज्यपतिः = चक्री, अर्थात् धर्मचक्री = तीर्थकर इत्यर्थः । एवं च अपश्चिमाश्वसौ. अतिशय साम्राज्यसार्वभौमश्च ेति कर्मधारयेण 'चरमतीर्थंकरे' त्यर्थाभिव्यक्तिरत्र शब्दवैशिष्ट्येन विहिता | Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ ] [ प्रस्तावनासंग्रहे १४. रोहणागिरिः खलु रत्नानां विविधजातिगुणसम्पन्नानां सुमहर्घाणां प्रभवभूमिरभिगीयते, तस्य चात्र चिन्तामणिसदृशदेवाधिष्ठित सप्रभाव महिम भ्राजिरत्नस्य प्रभवत्वेन निर्देशविधया पूज्याऽऽगमनदीष्णाः एवं सूचयन्ति यद् श्रुतज्ञानाऽऽगमपठनपाठनाऽऽदि महत्त्वपूर्णशक्तिविकासे प्रत्यलं, ततश्च चमत्कारास्तु वामकरलीलायमानाश्चागमधरस्य । एवञ्च आगमानां सर्वातिशायिमहत्त्वं ख्यापितम् । १५. अत्र स्पष्टनामाऽनिर्देशेऽपि सन्दर्भसङ्गतिवशतः पूज्यपादश्रीदेवद्धगरणीनां परामर्शः । अथवा योगशास्त्राऽऽदिमताऽनुसारं 'श्रीस्कन्दिलाचार्यपादैरपि पुस्तकारूढत्त्वं श्रुतस्य कारितमितिप्रसिद्धपक्षान्तरस्यापि सङग्रहार्थमनिर्दिष्टनाम्नैव 'पूज्यपादाः' इत्युल्लेखः कृतो भवेत् । १६. एतत्पदेन श्रुतस्य पुस्तकाऽऽरोहणप्रसङ्गे श्रुतधरगीतार्थसूरिपादानां सम्मीलनं पाश्र्चात्त्यानां पाठे शङ्काशङ कुव्यालोडनाऽक्षमत्वसूचकं ध्वनितम् । १७. तत्त्वज्ञानस्य या श्रीः तस्याः वलभी-वंशपंजररूपा छदिः तस्यां, अर्थात् श्रुतज्ञानस्य पुस्तका - Ssरोहणभूमित्वेनैदंयुगीनभव्यानां श्रुतज्ञानाधाररूपा हि सा नगरी 'वलभी' पदेन सान्वर्थं व्यज्यते । १८. विशसितं = कर्त्तितम् प्रबलस्य कर्मबलस्य = कर्मसैन्यस्य केतनं = ध्वजः येनेति विग्रहः । १९. अर्हाणां = योग्यानां एतेन गुर्वनुज्ञया धारणाऽऽदिशक्ति-परिणतिनैर्मल्य-विनीताऽऽदिगुणसम्पन्नानामेव पुस्तकानामुपयोग करणेऽधिकृतिरिति व्यज्यते । २०. अर्ह = योग्यं, संयमानुकूलमिति यावत । एतेन श्रुतज्ञानपठनादिव्याजेन गुर्वननुज्ञया मर्यादाविलोपेन वा मोहवृद्धिहेतुभूतसुन्दरमोहक-रूपरागाऽऽदिमत्पदार्थानां ज्ञानोपकरणव्याजेनाऽपि ग्रहणं न हि युक्तिमदिति पूज्यपादाss ममर्मज्ञसूरिपादाः सूचयन्ति । २१. श्रीमाँश्चासौ तत्त्वभूतानामर्थानां दीपने स्वरूपप्रकाशने दीप्तः = तेजस्वी यः प्रदीपस्तस्योपमा यस्यैतादृशश्वासौ तत्त्वार्थश्चेति व्युत्पत्तिरर्थानुसारिणी अत्र सङ्गच्छनीया । २२. सर्वदा = सर्वकालम् आशासनव्यवस्थां प्रभवति योऽसौ इत्येतादृशार्थेऽत्र 'सार्वदिक' पदं विज्ञेयम् । २३. परमार्थस्य = मोक्षसाधनारूपस्य यः पंथाः = रत्नत्रयीसमाराधनलक्षणः तत् प्रधानमवधारणं = 1 - निश्चयात्मकसङ्कल्पनं येषां तैरिति विग्रहोत्र समूहनीयः । २४. 'नाऽभविष्यवि' - त्यस्याप्रेतन 'चक्षुरूद्घाटन'- मित्यनेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः । २५. सकलजन्तुजातस्याऽसाधारणसातस्य वितरणे वित्तं = निपुणं, पारमार्थिकतत्त्वप्रधानं च यदसाधारणाचरणम्, तस्यावगमनमवबोधस्तद्रूपज्योतिरन्तरा इति पदसङ्गतिर्विज्ञेया । २६. दुष्षमासमये उद्भूताः अनेके वाचालाः ये कुतीर्थिकाः तैर्वाचालितं = मुखरीकृतं यत् दिगन्तरालं, तेना Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत स्तोत्र प्रस्ता. टि.] [१९ ऽनुपलभ्यः दिगवलोकः प्रस्तुतमार्गसूचकदिशाया अवलोकः येषां तेषाम् , दिग्व्यामोहमूदानामि त्यर्थः । २७. 'तत्' पदेन विवेकचक्षुषस्तदुद्घाटनस्य वा परामर्शो विज्ञेयः । २८. आरूढः सततं सञ्जातः यः अनार्यजनानां प्रबलो हि आसङ्ग = परिचयाऽऽदिः, तेन जातः प्रबलश्वासौ अनार्याचारः, तस्य प्रभावो यस्मिन्निति मर्मार्थाऽनुसारं व्युत्पत्तिरूहनीयाऽत्र । २९. अनवगतः द्रव्य-भावाऽनुकम्पाप्रथने प्रत्यल:=समर्थः धर्ममार्गः यैः, तथा काम-स्नेह-दृष्टि रागरूप मदिरया उन्मत्तैः विहिता ये अनेकदुर्गमविघ्नाः=धर्माराधनान्तरायाः, त एव सरित्प्लवः= नदीप्रवाहः, तस्योत्तरणायाधिगतं यत् शमसाम्राज्यं तस्य साधने सावधानं = तत्परं यत् सर्वसङ्गपरित्याग महा-व्रताऽङ्गीकाराऽऽदि, तस्य विधानं = पालनादि इत्यन्वयगर्भः समासोऽत्र सम्यग् संगमनीयः । ३०. आरंभपरिग्रहाऽऽसक्ताः, प्रबलमोहमिथ्यात्वमदिराविह्वलान्तःकरणाः, अविरतिराक्षसीजग्धजीवस्वरूप रमणतासतत्त्वाः इत्येवंभूताः मुनय इति विशेषणत्रयसङ्गतिः सम्यक् योजनीया । ३१. 'किञ्जल्क' पदेन पद्मपरागः केशराऽपरपर्यायोऽत्र विज्ञेयः । ३२. श्रुतेः = तेजसः कोशः =निधिरित्येवं सूर्यार्थवाचीदं पदं बोध्यम् । ३३. हुंडा=निकृष्ठा याऽवसर्पिणी तत्सत्को यः पञ्चमाऽरः स एव रजनी, तस्यां रजनीचरवदाऽऽचरमाणाश्च, दुष्टम्लेच्छाऽऽदिभूमिपाश्च इत्येतादृशाः इत्यन्वयः । एतद्धि 'यत्याऽऽभास' पदविशेषणं शेयम् । ३४. दर्शनान्तरीयपूजापद्धत्यनुसारेण देवपूजायां ढौकितस्य, नैवेद्यादेः पूजाद्रव्यस्य वा प्रसादरूपेण भक्तभ्यः प्रदीयमानं हि द्रव्यं 'शेषा' पदव्यवहार्यमत्र निर्दिश्य पूज्यवर्यैः कालाऽऽदिविषमाऽनुभावतः पुण्याउपकर्षाद्वा नष्टप्रायं बहप्रमाणमपि श्रतमत्यलपतरप्रमाणेऽवशिष्टमपि आराधकममक्षणामाराधकभाव वृद्धयर्थमतीवोपयोगि, अत एव च यदवशिष्टं तदपि शेषा'वत् बहुमानाई मिति ध्वनितम् । ३५. शोभाप्रकर्षवाची अयं हि शब्दोऽत्र गमनीयः । ३६. एतद्धि असमा = अमाधारणा प्रभावना यत्रेति बिगृह्य 'उद्भावनायाः' विशेषणमवबोध्यम् । ३७. ऐदंयुगीनजनानामिति शेषः । ३८. मुग्धजनैरिति शेषः । ३९. यथावदस्पष्टलक्ष्यवतामुदरमात्रपूर्तिकृतां निरपेक्षानां ध्येयशून्यानां हि लोकानां परामर्शोऽत्र 'तुन्द परिमृज' पदेन मार्मिकरूपेण विहितोऽस्ति । ४०. विविधरसमयनानाभोजनवस्तुविरचनप्रवणैः-जनप्रशंसास्पृहालुभिश्च जनैः जयपताकाग्रहणमिवाभिम न्यते बाहुल्येनैतर्हितनयुगे विविधभोजनसमारंभेष्वेव कृतार्थताभासः । ४१. सत्त्व-धृति-साहसाऽऽदिसम्पाद्य यशस लोकैषणानुसारमर्थव्ययसाध्यविविधांग्लदेशीयवादित्रवादनशूरै स्समहर्घत्वमधुना बहुलतया पामरजनैर्विहितमस्तीत्यतोऽत्र तत् कटाक्षितं पूज्यपादैरत्र । ४२. मतिवैभवेन स्वपरोपकारकृतौ शासनप्रोद्भासनाया प्रवृत्ति विहाय चक्षुर्मोहकविविधाऽशास्त्रीयदृश्य Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ] [ प्रस्तावना संग्रहे प्रथनसंयुतैश्चन्द्रोदयाऽऽदिविरचनैर्मौलिकाऽऽचारनिष्ठताऽपसर्पणस्याऽसदनुबन्धिविरूपविकृतिमूलत्त्र द्विशेषणेन श्रीमद्भिः । ४३. वीतरागप्रभूणां भक्तिमहोत्सवेषु विविधगेयपूजासुन्दरकार्यक्रमोपपत्तिमात्रमेवाभिलक्ष्यते, इत्येतद्धि न वयैं, जिनभक्त: महार्थत्वात्, शासनानुराग, ढमूलतासम्पादनायैतत् विशेषणं सूचकमुपन्यस्तमस्ति । ४४. परम् = उत्कृष्टुं, अनिष्टुमिति शेषः । ४५. अविगीतः = अनिन्दितश्चासौ सिद्धान्तश्च तस्य प्रसाधने = विविधपठनपाठनाऽऽदिकार्यक्षमतारूपे, पटु = समर्थ, यत् ज्ञानं, तस्य दिवाकराणां श्रीमतां गणभृत्प्रभृतीनां सकलं यत् वाङमयं तस्य वितानस्य = समूहस्य विस्तारणाय लब्धः अवतारः येनेति विग्रहं विवक्ष्य श्रीदेवचन्द्रश्रेष्ठिनोऽपूर्वश्रुतभक्तिरूहनीया सुज्ञविवेकिभिः । ४६. स्ववप्ता = स्वजनक इत्यर्थः । ४७. सूचयित्वेत्यर्थः । ४८. निर्वीराणां = निर्वशानां धनस्य कररूपेण राजाऽऽदेयभागस्य मोचनं = मुत्कलनं, तथा अष्टादशदेशेषु य अमारिपटह, विहितौ च तौ उपदेशद्वारा निर्वीराधनमोच नाष्टादशदेशा मारिपटहौ चेति कर्मधारयं कृत्वा ताभ्यां लब्धं भाकल्पस्थायियशः शरीरं यैरिति व्युत्पत्तिरत्र गमनीया । ४९. सार्धत्रिकोटिमितग्रन्थानां प्रथनेन लक्षितं = अनुमापितं यत् सर्वज्ञावतारत्वं तेन वितीर्णं कलिकालसर्वज्ञबिरुदं येभ्य इति विग्रहः । ५०. ' ग्रन्थ' पदेनाsत्र रचनार्थक 'प्रथि' धातोर्मोलमर्थं लक्ष्यीकृत्य रचनार्थं विवक्ष्य 'श्लोक' रूपार्थस्य च लक्षयोपपत्तिः कार्या ततश्चात्र 'ग्रन्थ' पदस्य श्लोकार्थकत्वं ज्ञेयम् । ५१. अनवद्येन व्याकरण- काव्य- कोश- छन्दरूपविद्याचतुष्टयसम्बन्धिनवशास्त्ररचनारूपेण चातुर्विद्यविधानेनख्यातः ब्रह्मातिगप्रभावो येषां ते तथा ऽष्टादशदेशाधिपतेः कुमारपालक्ष्मापालस्य बोधनेन = धर्ममार्गगामित्वकरणेन स्मारितः सातिशयः मुनिगणः = अवध्याऽऽदिज्ञानसम्पन्न महर्षिगणः यैरिति समस्य द्वन्द्वं कृत्वाऽर्थसङ्गतिः कार्याः । ५२. एनम् = प्रकृतं श्रीवीतरागस्तोत्राख्यं ग्रन्थमिति सन्दर्भ सङ्गत्योहनीयम् । ५३. पुण्यतमाः = संस्कारधनसम्पन्नत्वेन पवित्रतमाः ये जनाः तेषां निवासेन तिरस्कृतः विबुधानां = देवानां आलय: = भूमिः य विबुधालय: = स्वर्गः येनेति व्युत्पत्तिरत्र करणीया । , ५४. परस्परं यः विरोधः स एव यः दुर्गन्ध तं बिभ्रती या वाणी तस्या वाचकाः = भाषकाः सुरगुरवः = नास्तिकाः, तेषां तिरस्कारिणा । भारतीप्राग्भारेण भूषितं यत् वदनं तदेव मलयः तस्मात् निःसृता अविरुद्धा या परमाऽऽगमानाम् उदितिः तस्य श्रवणस्य भाग्यमिति व्युत्पत्तिरर्थानुसारिणी कार्या । ५५. अन्यदर्शनीया ह्येवमामनन्ति यत् : भूतचतुष्टयवादिनास्तिकमतं त्रिबुधगुरुणा सुरगुरुणा बृहस्पतिना जगद्व्यामोहाय प्रकटितमित्यतः नास्तिकानां सुरगुरुपदेन व्याजस्तुतिरूपसंज्ञाऽत्र निर्दिष्टा विज्ञेया । ५६. विज्ञेय मित्यर्थः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीत. स्तोत्र प्रस्तावना ५७. श्रीहेमचन्द्रसूरीणामिति शेषः । ५८. 'अभ्यस्ये'-ति पदस्याऽग्रे 'प्रकाशानां द्वात्रिंश' इति पदेन सह सम्बन्धो योजनीयः । ५९. दन्तशोधनं ( दातण ) अन्तःकरणशोधनं च निर्दिश्याऽत्र पूज्यपादै : प्रस्तुतग्रन्थस्वाध्यायस्याऽति महत्त्वं व्यञ्जितमस्ति । ६०. प्रकाशस्योज्ज्वल-दीप्तिमत्त्वाऽऽदिधर्मकदम्बं प्रस्तुतप्रन्थेऽभ्यासपाठाऽऽदिना संगमय्य ग्रन्थाऽवान्त रभागरूपप्रकाशविंशतेर्यथार्थत्वं सङ्गमनीयम् । ६१. 'शोभा'- मिति पदाऽध्याहारेण 'व्यावर्णयन्तः' इति पदेन सहाऽस्य सम्बन्धसङ्गतिः कार्या। ६२. वाद-प्रतिवादे वादिप्रश्नस्य समाधानरूपे उत्तरे स्वभाववादाऽऽश्रयणं तु निरर्थकमेवेति ध्वन्यतेऽत्र । ६३. यथाद्यपारपारावारनीरधौ प्रवहत्पोतमध्यतः कश्चिच्छकुन्तः = पक्षी उड्डीयेतस्ततो गच्छेदपि, परं कुत्रा प्यवस्थितिहेतुरुपं नगं तरं वाऽलभमानोऽगतिकतया वहमानं तमेव पोतमाश्रयेत् , उडीयोडीय तस्य च तत्रैवाऽऽगमनं सहजसिद्धमेवेति निर्दिश्य तीर्थान्तरीयाणां प्रावादकानामभिनिवेशवतामपि वादिनामभिमतनिजवस्तुनिरूपणेऽनाभोगतोऽप्यनेकान्ताश्रयणं शब्दान्तरतोऽपि करणीयमापतत्येवेति सूच यित्वा श्रीमद्भिः सूरिवर्यैः स्याद्वादस्य सार्वतन्त्रिकत्वं निर्दिष्टम् । ६४. 'तस्यै अपि' इति सन्धिच्छेदो ह्यत्र विज्ञेयः । ६५. मुद्रणस्य उपक्रमे उद्भवः यस्येति विगृह्य प्रकृत मुद्रणे जातस्याशुध्याऽऽदिदोषरूपस्य 'मागमः' निर्देशः कृतः इति विज्ञेयमत्र परमार्थाधीधनैः विद्वद्भिः । - श्रीश्रुतज्ञानमहत्ता 8ज्ञानेषु पञ्चसु पुनः श्रुतमेकमेव, व्याख्याति रूपममलं स्वपराश्रयाङ्कम् । मूकानि शेषमतिमुख्यविबोधनानि, स्वेषां न रूपममलं वदितु क्षमाणि ॥ -पूज्याऽऽगमोद्धारकश्रीविरचित"श्रीजैनगीता" भ.२६ श्लो.६३ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ★★★★★★★★★★★★★★★★★★★★ + श्री आगमोद्धारकालेखितप्रस्तावनासंग्रहस्वरूपे * श्री आनन्दरत्नाकरे XXXXXXXX XXXXX****** ★★★★ ★★★★ तृतीयं रत्न स्याद्वादभाषा-प्रस्तावना ******************* नमोऽर्हद्भयः। अवधेयमिदमवधानधीधनैरेतत्तावद्यदुत प्रमाणाधीनैव मेयसिद्धिस्ततः सम्यग्ज्ञानं निःश्रेयसं च, ऊचुश्चात एव वाचकवर्याः 'प्रमाणनयैरधिगम' इत्यादि, प्रमाणनिरूपणप्रत्यला वाङ्मयवीचिश्वासाधारणा वर्तत एवाभियुक्ततमाचार्यप्रणीता, नच सा 'सुकुमारशेमुषीकाणामन्तिपदामुपकारकारिण्यैदंयुगीनानां तथाविधावतारकारकग्रन्थमृते, तत्रापि ये विस्तृततमा अनेकत्रानुप्रासाधलकृताः कठिनतरवाक्यावबोधाः समासप्रचुराः प्रसक्तानुप्रसक्ताख्यानख्यातमहिमानो मिथ्यात्वध्वंसप्रयोजना वादपरम्परानिबद्धलक्ष्याः सन्ति शतशो ग्रन्थास्तेऽपि न बालानां स्वसमयमात्रावगमहृदयानामुपकर्तारो, योग्यश्चायमेवातस्तेषां ग्रन्थ इति फलेग्रहिमुद्रणादिप्रयासोऽस्यात्रस्य । ___अत्र च प्रमाणे प्रत्यक्षपरोक्षाख्ये आख्याय, व्युत्पादयितु सप्रभेदे यथार्ह विस्तरे, प्रमाणांशभूतान् नयान् विकलादेशतया प्रसिद्धान् "निखिलदर्शनागमवचनमूलभूतान्प्रतिपाद्य च, जीवादितत्वसप्तकमपि निःश्रेयसनिदानसम्यक्त्वविषयतया यथावत् समाचख्युः ख्यातयशसः । श्रीशुभविजयगणयः कदा कतमं च भूमण्डलं मण्डयामासुः पावनतमैश्चरणैः पूज्याः स्वकीयैरिति यथार्थतया न वेविद्ये तदितिहासेतिवृत्तविरलकालोत्पन्नोऽहं, तथाप्यनुमीयते एतावद्यदुत वैक्रमीयसप्तदशशती संवदां तदीयवर्तनाहेतुभूता, यतः श्रीमत्तपोगणगगनमणिश्रीमद्विजयसेनसूरिपादप्रसादितप्रश्नोत्तराणां सङ्ग्राहकाः श्रीमद्धोरसूरीश्वरचरणसरोजचञ्चरीकायमाणा एते, १५पूज्याश्चोक्तशतीना इति निर्विवादं पट्टावली-पट्टक-शिलालेखावलोकनादिना निर्णीयतेऽवसीयते च तद्विहारस्य गुर्जरत्रायां धान्यां "भावात्तद्भावित्वं । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० भा० प्रस्तावना] [२३ चक्राणैश्च पूज्यैरेनं ग्रन्थं प्रान्तव्युत्पादिता जीवादयः पदार्था नित्यानित्यत्वादिधर्मसंवलिता ज्ञानादिधर्मभिन्नाभिन्ना भाष्यतया अभिप्रेता इति यथार्थाभिधाऽस्य 'स्यावादभाषेति, प्रमाणादिनिरूपणं तु तदङ्गमिति तदपि "तथैवाहतं गणिभिः, स्याद्वादानुगतं प्रमाणादि वा निर्णेयतयाभिप्रेतमत्रात्रभवद्भिरिति तथाऽभिधाऽस्य । तत्रभवद्भिः के के कृता ग्रन्था ? इति न ज्ञायते इयत्ता, परं प्रश्नोत्तरसङ्ग्रहावसाने काव्यकल्पलतामकरन्द-स्यावादभाषेति प्रत्यक्षोपलब्धेस्तैस्त्रितयं ग्रन्थानां प्रतेने १ प्रश्नोत्तरसमुच्चयः (सेनप्रश्नापराभिधानः) २ काव्यकल्पलतामकरन्दः ३ स्याद्वादभाषेति च, पश्चाच्च "प्रश्नोत्तरादविष्यन् विहिताः कदाचिद्गन्थाः परं न ते ज्ञायन्ते तदुल्ल खादिदर्शनाऽभावात् , दुर्लभाश्च प्रतयोऽधुनानेककारणत इति तु निर्णीतं प्रस्तावनाकत भिरनेकैस्तथापि भविष्यन्ति सुलभाः प्रतयस्तदवलोकनानि च श्रेष्ठिवर्यदेवचन्द्रलालभ्रातृनियमितपुस्तकोद्धारकोशादित्याशासे सागरान्त आनन्दाभिधानोहं श्रमणसङ्घकृपाभिलाषुकः, प्रार्थये च प्रमाय॑ प्रमादजातामशुद्धिम् वाचयन्त्वेतद् ग्रन्थरत्नम् इति वाचनीयवाचनानिबद्धकक्षान् सज्जनान् , बद्धाञ्जलिश्च तेभ्योऽयं ये ज्ञापयेरनशुद्धि मदीयां मिथ्यादुष्कृतमुररीकृत्याशुद्धिसत्कं याचे चात्मना सर्वान् यत् यथायथमवबुध्यात्रत्यं पदार्थजातं श्रद्दधातु सजनगणः, आचरतु च यथोपदिष्टमागमानुरागरक्तो "निद्वन्द्वपदाप्तय इति ॥ भृगुकच्छे रचिता वै, आनन्दयुतेन सागरेण मया । माघे सुपौर्णमास्याम् , ऋषि-रस-नव-चन्द्र-हायने (१९६७) शुभदा ॥११॥ जैनागम-प्रधानता हा ! हा ! भीषणकाल एष न यतः सत्यार्थदृब्धौ रताः , सूर्याद्याः प्रचुराश्च पुस्तकपरावर्तोद्यताः वादिनः । भूमीशा विबुधाश्च पक्षपतिता दाक्षिण्यलोभोद्यता , अल्पा मार्गरतास्तथापि जयवानाप्तागमः शुद्धवाक् ॥ पू० आगमोद्धाक श्री रचितश्री आगम महिमा श्लो० २३९ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यागमोद्धारक श्रीलिखितप्रस्तावनाविषमपदार्थ सूचिका आनन्द-लहरी - टिप्पणी ३- श्रीस्याद्वादभाषा प्रस्तावना १. धारणाशक्तिविशेषरूपा ह्यवधानधीः, निर्णयकारिका ह्येषा गोयते मतिज्ञानावान्तरभेदरूपेति बोध्यमत्र समीक्षावद्भिः । २. ततः = प्रमाणद्वारा जायमानपदार्थज्ञानादित्यर्थः । ३. दुरवगाहदुरूहतर्कजालसञ्चरणादिष्वसामर्थ्यरूपमत्र बुद्धेः सुकुमारत्वमत्र विज्ञेयम् । ४. प्रसक्तं = विषयानुगतं, अनुप्रसक्तं = प्रकृतोपयोगित्वेन परम्परयाऽपि विषयानुगतम् एतयोरराख्यानेन = निरुपणेन ख्यातः महिमा एकप्रन्थसज्ज्ञानप्रयासेन नैकपदार्थ प्रचुरतरज्ञान सम्पन्नताकरणरूपः येषांः ते इति व्युत्पत्तिरर्थानुसारं विज्ञेयाऽत्र । ५. स्वस्य = अभिमतस्य, जिनोक्तस्येति यावत् समयस्य = सिद्धान्तस्य अवगमे - ज्ञाने हृदयं चेतः तत्परतारूपं येषां तेषामिति समासेन स्वमतजिज्ञासूनामिति भावः । ६. सप्रभेदे यथार्ह = बालजीवधारणाशक्ति अनुरूपं विस्तरः ययोस्ते । एतद्धि 'प्रमारणे' इत्यस्य विशेषणम्, तयोः व्युत्पत्तिः = स्पष्टबोधं कारयितु' 'नयान् प्रतिपाद्ये'त्य सम्बन्धो ज्ञेयः । ७. निखिलानां =समस्तानां दर्शनानामागम-वचनानां = मूलभूतशास्त्रवाक्याणां मूलभूतान् इतिव्युत्पादनीयमत्र, विशेषणं चैतत् “नयान्" इत्यस्य ज्ञेयम् । ८. 'इति ह आस = इति' व्युत्पत्त्या एवमत्र पुरा आसीदिति आप्ताभिजनक्रमागततत्तद्व्यक्तिस्थल विशेषाणां घटनादिकानाञ्च मौखिकवार्त्ताणां सङ्कलनम् = इतिहासः । भिन्नभिन्न देशकालेषु घटितघटनानां केनापि प्रकारेण लिपिबद्धरूपतया सङ्कलनम् = इतिवृत्तम् । एते विरले यत्र काले तस्मिन् काले उत्पन्नः इति व्युत्पत्तिमर्धसङ्गतिद्वारा कृत्वा दुर्लभैतिह्यसामग्रीको ह्ययं काल इति ध्वननाऽत्र पूज्यवर्यैः विहिता । ९. 'संवत्' शब्दोहि वर्षावाची अव्ययश्च तथाप्यत्र “प्रकृतिवदनुकरण" मिति न्यायेन षष्ठीबहुवचनं सङ्गमनीयम् । १०. ' वर्त्तना' शब्दो यत्रास्तित्व- विद्यमानतार्थपरकोS - वबोध्यः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० भा० प्र० टिप्पणी] [२५ ११. बहुवचनान्तपूज्यशब्देनात्र मुख्यतः श्रीविजयसेनसूरीश्वराणां गौणभावेन च 'विजयहीरसूरीश्व राणा'मपि परामर्शो विज्ञेयः ।। १२. 'पट्टक'शब्देनाऽत्र प्राचीनभाण्डागारेष्विदानीमुपलभ्यमानानां साधुमर्यादापट्टक-विहारपट्टक-क्षेत्रादेश मर्यादापट्टकादीनां सङ्केतः पूज्यवर्यैः विहितोऽस्ति । १३. अत्र 'तत्' पदेन ग्रंथकर्त्तणां श्रीशुभविजयानां परामर्शः । १४. 'तत्' पदेनैतत्र गूर्जरदेशस्य सूचनमवगन्तव्यं प्रेक्षावद्भिः विद्वद्भिः । । १५. अत्र भाष्यशब्दप्रयोगः नहि ग्रन्थव्याख्याविशेषार्थपरकः, किन्तु भाषित बदितुं योग्याः-शक्या इति विगृह्य उच्चारणाईत्वरुपार्थे भाष्यता'शब्दप्रयोगोऽवबोध्यः सम्यगधिगतशास्त्रतत्त्वमर्मज्ञैः समीक्षावद्भिः विद्वद्भिः। १६. पदार्थानां भाषाप्रयोगाईत्वेनेति विज्ञेयम् । १७. श्रीसेनप्रभापराह्वात् प्रश्नोत्तरसमुच्चयाख्यग्रन्थादितिभावः ।। १८. सुखदुःख-शीतोष्ण-प्रियाप्रियादिद्वन्द्वैः दुःखहेतुभिः मुक्तस्य मोक्षापरपर्यायस्य परमपदस्य सूचकमिदं पदम्। जिनशासनना आराधकनी उच्च मनोदशा "जैना ब्रुवन्ति जगती-सकलाऽसुमत्सु , मैत्र्या यदत्र भुवने दुरित न कोऽपि । भो ! सन्दधातु यदि चाकृत प्राक् तथापि , धर्मात् प्रणाश्य फलवेदनभाक् तु माऽस्तु ।। भावानुकम्पनयुता मनसा स्पृहन्ते , यन्मुच्यतां जगदिदं सकलाधभारात् । नास्तीह यद्यपि समस्त जनस्य मुक्तिः , सम्बन्धिजीवनपरोक्तिरिवेह योग्यम् ॥" । -पू० ध्यानस्थ स्व० आगममर्मज्ञ ____ आगमोद्धारकश्री रचित जैन गीता अ० १३ श्लोक २९--३० Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकालेखित प्रस्तावना संग्रह स्वरूपे श्री आनन्दरत्नाकरे चतुर्थं रत्नं पाक्षिकसूत्रस्योपक्रमः विदितपूर्वमेतद्विदुषां सुतरां यदुत प्रथमान्तिमतीर्थानुसारिणां मुनिवर्याणां नियतैव कल्पमर्यादा, कल्पचाचेलक्यादि प्रभेदेन तत्र तत्र तत्रभवद्भिः सूरिप्रवरैः प्रतिपाद्यत एव दशधा, स्थितिकल्पिकाश्चात एव मुनिपुङ्गवाः, एतादृशः सर्वेप्येत आचेलक्यादयः कल्पास्तृतीयौषधकल्पा एव सामान्येन, तथापि "साम्य- 'तत्प्ररूप कचतुर्विंशत्यात्मस्तव-तदर्शकगुणवत्प्रतिपत्ति-स्वीकृतानवद्यवृत्तिसावद्यनिवृत्ति विषयकातिचारालोचनादिमिथ्यादुष्कृतदाना-शुद्धदुषणदुषकायोत्सर्गावर्गानवाप्ता -- वाप्तगुण स्थैर्यात्मकावश्य विधेयावश्यकानन्यस्वरूपः प्रतिक्रमणकल्पो विशेषेण तथाविधोऽत एव चापश्चिमतीर्थपतिशासनोल्लेखे 'सप्रतिक्रमणो धर्म' इति तत्र तत्र गणभृत्पादै रविकलसाधनसामग्रीसावधानानगारशिरोमणिवर्णनादौ स्पष्टतरं वर्ण्यते । १२ तथा च निष्प्रतिक्रमणाः श्रीमद्वीरजिनपतिशासन वहिर्भूता एवावबोद्धव्याः, सङ्गिरन्ते च केचिदनवद्यपारमर्षतत्वावगमशून्या यदुत - "प्रतिक्रमणं तावत्प्रमत्तान्तानामेव, "समणेण सावएण ये” त्याद्यागमोऽपि तादृशश्रमणानामेव तत्कर्चव्यताख्यायकतयानुगमनीयः, अन्यथा ""नो सन्त्यावश्यकानि षडि" ति वचनमा' वक्ष्यद्विरोधं बाधकमपि चावश्यकाकरणे तेषामेव ये प्रमादपङ्कजालनिमग्नाः, स्पष्टं चैतत् “प्रमाद्यावश्यकत्यागादि” त्यत्रेति ।", परं नैते मीमांसन्ते मांसलमीमांसाजुषोऽपि मीमांसितमभियुक्ततमैः स्पष्टं यदुत - किं समग्रमप्यह: तेऽप्रमत्ततयावतिष्ठन्ते सर्वदा प्रतिक्रमणकाले वा केवलमायात्यप्रमत्तत्वमावश्य ४ कावारकमिति कृत्वा ? प्रथमे प्रथितोऽकीर्त्तिपटहस्तादृशामाप्तागमचाधितवादिनां यनो नान्तमुहूर्त्तमतिवृत्य विद्यतेऽप्रमत्तभावोऽपि प्रमाद्यतो वाऽऽ" वासकानुष्ठानकाले तु "तदवाप्त्यां ̈तदकरणमिति वचनं कस्य न हास्याय स्यात् प्रेक्षावतः १ यतः किमितरेऽनुष्ठानकालेऽप्यावश्यकानां प्रमत्तास्तेषां वा " तथाविधानामनुमतमनुष्ठानमेतेषामभियुक्तैर्भवेदिति विचार्यतां क्षणं निरीक्षणचक्षुष्कैः । १४ १८ २० Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० भा० प्रस्तावना] [२७ ननु निष्फलं तर्हि “नो सन्ती"-त्यादि "प्रमायावे"-त्यादि च वर्णनं वर्णन'चणानां सूरीणां गुणस्थानक्रमारोहगमिति चेत् अस्तु भवादृशामधः२२स्थानान्वेषणपरतया श्रीमतामपि तेषां कलङ्कदान नदीष्णानां २४तत्तथा. वस्तुतस्तु पूज्यपादैरप्रमत्ततामहिमाख्यापकतापरमन्वशासीदं, तथा चाऽऽ-"त्मशोधि कारकाणी' त्यध्याहृत्य व्याख्येयं, तदेवश्च 'आवश्यकानि तत्रात्मशद्धिविधायकानि न सन्ति' इति फलितोऽर्थः स्यात्तत एव चानन्तरमूचिवांसोऽनूचानप्रवरा यदुत-२७"सततध्यानसंयोगाच्छुडिः स्वाभाविकी यत" इति, श्रुत्वा चैवमुपवर्ण्यमानं फलमग्रमत्तताया यो विजह्यात्कश्चित्तानीति२८ शिष्टवान् “प्रमाद्यावे"-त्यादिना, विगतप्रमादस्तु तथानुष्ठानप्रवत्त एव स्यात्नच तस्य तजिहासा भवेत् स्वप्नेऽप्य भव्यानामिवानादिकालीनसंसारजिहासेवावाप्ताश्चाप्रमत्ता एव वन्दनककायोत्सर्गप्रतिक्रमणादिप्रवत्ता अनेक महात्मानोऽपवर्ग शीतलाचार्यभागिनेयाद्या इत्यलमप्रस्तुतेन । स्थितं चेदं यदपश्चिमपरमेश्वरपथानुसारिणः कुर्वन्त्येवावश्यकं सामायिकाद्यध्ययनपटकरूपं, तदपि पञ्चधा, देवसिक-रात्रिक-पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिकभेदात् , 3°एतद्भवीय-प्रतिभवीये अपीति तु निरक्षराणां प्रलपितं, यतो नातीतका ठाद्भिन्ने एते, अनागतप्रतिक्रान्तिस्तु नाऽऽप्ताऽऽगममूला “अईयं पउिक्कमामी" त्यादिवचनात् , प्रत्याख्यानरूपापि सा नान्यभवीया स्यात् , न च सात्र परिगणनीयाऽऽवश्यकप्रकरणे, आराधनावसरे तु ३२"जमिहभवियमण्णभविय"-मित्यादि यत्प्रोच्यते प्रवचनवेदिभिस्तत् सामान्यालोचनादिरूपतया विरताविरत प्रभृतिसाधारण्येनैव च, प्रतिक्रान्तं च ४"इह वा भवे अनेसु घे"-त्यनेन तदिति उनार्थवत्ताधिक्यस्यावश्यकयोः, यहा संलेखनाराधनारूपं तदिति नावश्यकता तस्य, प्रतिनियत कालानुष्ठ यत्वाभावात् विधानाभावात् । अविधानेपि प्रायश्चित्तासेवनानेहोऽभावाच्च तथाऽस्य कल्पत्वे तु स्युरेवैते दैवसिकादिवदिति कृतम् प्रसक्तानुप्रसक्तन । ___ अवश्यं च पञ्चधाप्येतदनुष्ठे यमाद्यान्तिमयति पतिसमाराधनतत्परयतिभिः ४०"दुण्हं पण पडिक्कमणे"-तिप्रवचनवचनात् , नतु 'मध्यमत्रिजगत्पतिमार्गानुसारिवत्तद्वयमेव, वक्रजडानामैदंयुगीनानामेषामेवंविधकर्नव्यहत्वस्यैव समादेशादुपकारकत्वात् अप्रमादवर्धकत्वाच्च । किश्च प्रत्यहं देवसिकरात्रिके विधेये अधुनातनैमुनिवरिष्ठः, प्रतिपक्षं प्रतिचतुर्मासं प्रतिसंवत्सरं च तत्काल एव तत्तत् विधेयं नतु द्वाविंशतिजिनपतिमार्गानुगानगारस्तोमवत् ४२ "दुण्हं सय दुकाल”-मित्यादिवचनात् कारणजात एव प्रतिक्रमणद्वयं चेति, श्रावकास्तु वीतरागवानुसारिणोऽपि सर्वविरतानुसारिण इति न तेषां पार्थक्येन प्रतिक्रमणादिव्यवस्थेति तत्त्वं ।। प्रतिक्रमणेषु च सत्स्वपि कालादिभेदेन पञ्चविधेषु विहायोत्सर्गाऽऽ'दिसामान्यभेदं नकोपि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [ प्रस्तावना संग्रह तथाविधो विशेषोऽतिरिच्य दैवसिकपाक्षिके, तत्र दैवसिकप्रतिक्रमणे श्रमणसत्कं प्रतिक्रमणं सव्याख्याकमाविष्कृतपूर्वमेवैतत्कोशाध्यक्षादिभिः, पाक्षिकावश्यके चावश्यकमनगाराणामे ४ तन्मुख्यतयेत्युपक्रान्तं मुद्रितु तैरेव । परं ग्रन्थरत्न ऽत्रोपक्रान्त विचारणीयमेतद्विचारचणानाम् यदुत - कस्कोऽस्य विधाता ? कथास्य रचनाधारभूतः कालः ? कस्मै वा निर्मितं ? के वाऽधिकाराः ? कस्कोऽत्र विवरिता ? कदा कतमस्य भूमण्डलस्य मण्डनं ? इत्यादि प्रश्नवृन्दम् । तत्र प्रथमं तावद्विदितप्रवचनरहस्यानां विदितचरमेतद्यदुत पाक्षिकं प्रतिक्रमणं श्रीमजिनपादैः प्रणीतं जिनाज्ञानुसारिसाधुसन्ततिहिताय सप्रतिक्रमणधर्मप्रतिपादनादिना तथा च ४५ तदात्वमेवैतस्य, न चास्य श्रूयते परावर्त्तादि, भाषाऽपि च सूत्रानुसारिण्येवात्र, दशवैकालिकादिश्रुतानां यदुत्कीर्त्तनमत्र तत्समग्रश्रुतस्थविरकृतिस्मरणीयताज्ञापनाय लेखनकाले स्थापितमिति नकोऽप्यनाश्वासस्तीर्थानुसारिणां न चर्ते सूरिक्रमविश्रम्भमन्तरा च श्रुतस्थविरप्रत्ययं साक्षाद्वीरविभुव्याख्यातमपि प्रमाणयितुं पार्यते केनापि, तथा चेतराऽऽगमग्रन्थादावपि पश्चात्कालभाव - वृत्तान्ताद्यवेक्ष्यत इति न कोप्यनाश्वासः ४६ पूर्वोक्तादेव हेतोः ४७ पूर्वोक्तानां । एवं च विधातारोऽस्य श्रीमद्गणभृत्पादाः सङ्कलितं च लेखनकाल एवंविधतया सूरिसमूहैरेवमेवच यतिप्रतिक्रमणादावप्यवसेयं, तथा च किमिदमे तादृशमभूत्तदेति संशयानास्तीर्थबाह्या निरस्ता श्रद्धानशून्याः, विधानाने हाऽपि निर्णीतप्राय एवानेन गणभृतां विधातृत्वेन, किमन्यद्वा स्यात् प्रतिक्रमणं, आवश्यकं च तेषामपि पूज्यात्मानामावश्यकानुष्ठानमिति सत्तैचास्य तदानीं, तीर्थप्रवृत्तिकालश्चास्य रचनाधारभूतस्तदैव च विधेयमेतदिवसावसान इति कृत्वा, भ्रमणसूत्रं ५२ तत्सहचरं चैतदपि विरचितमिति निर्गीयते, अनभ्युपगमस्तु कैश्चिजिनवरे - न्द्रादीनां तदुदितानां यत्सद्धान्तानामपि च क्रियते इति न सोऽनाश्वासनिदानमवितथश्रद्धावतां, तथा स्वान्यात्मशुद्धिरेवार्थोऽस्य निर्माणे हेतुरनन्तरः, परम्परया तु समेपामेव तीर्थकराध्यानुसारिणामपवर्गावाप्तिरस्त्येवेति । * ५ ४ ५ ५. अवधारणीयं चेदमथ धीधनैरत्र यदुत - यद्यत्स्वीक्रियते तत्र तत्र भवेदेवातिचारजातं कर्मोंदयादिना, स्त्रीकृते च सावद्यत्यागाऽनवद्यासेवने यावज्जीवं वाचंयमैः तत्र सावद्यत्याग एव चोपस्थापनावेलायां पञ्च महाव्रतान्यारोप्य " शिक्षके दृढीक्रियते इति रात्रिभोजनविरमणषष्ठानां महाव्रतानां पञ्चानां प्रतिक्रान्तिः स्वाध्यायस्य चानवद्ययोगमूलरूपस्याऽ " " वाचितादावतिचारजाते प्रतिक्रन्तव्यमिति श्रतोत्कीर्त्तनाऽत्र कीर्त्तिता पर्यन्ते सूरिभिः, ० मध्ये सावद्याद्यकादिस्थानप्रतिक्रमणं तु सावद्यातिचारजातप्रतिक्रमाय सामान्येनेति सामान्यतोऽधिकारनिर्देशः । ५ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीत. स्तोत्र प्रस्तावना ] [२९ विशेषतस्तु निर्देश एवमत्र यदुत-"मङ्गलादीनि स्फातिमन्ति भवन्ति शास्त्राणो-ति" मङ्गलमुपादायाऽऽदौ श्रोता च सिद्धाभिधेय एव श्रोतु प्रवर्त्तत इत्यदर्शि तदपि, प्रयोजनं चेमं १ गुणरत्नसागरमविराध्य तीर्णसंसारा ये' इत्यादिना सूचितं, सम्बन्धोपि चैतदनुसार्येवेति न पृथक प्रतिपादितः, __ एवं प्रस्ताव्य सक्षेपेणोद्दिष्टानि महाव्रतानि पञ्च रात्रिभोजनविरमणठाष्ठानि यथोद्देश न्यायेन प्रथमे तत्र व्रते तावदुच्चार्य सूक्ष्मबादरत्रसस्थावरादिवधविषयकत्रिविधत्रिविधविरतिरूपां प्रतिज्ञां सङ्क्षपेण प्रतिक्रान्तिस्तावत्तदनु च विशेषतः प्रतिचिक्रमिषुभिव्यक्षेत्रकालभावतः प्रतिक्रमणीयं प्राणातिपातं विभज्य, धर्मस्य केवलिप्रज्ञप्तत्वादिद्वाविंशतिविशेषणविशिष्टस्याज्ञानत्वादिषोडशविशेषणविशिष्टनात्मना यदैहिकान्यभविकं तद्विषयकं कृतादि निन्दयित्वा, पुनरहंदादिसाक्षिकं प्रतिज्ञाय, विशेषेण व्रत उपस्थाय, दुःखक्षयाधुद्दिश्योपदर्य दाढर्यञ्च, तत्र प्रतिज्ञातस्तद्रक्षणाय विहारः । एवमेव च मृषावादादत्तादानमैथुनपरिग्रहरात्रिभोजनानामपि यथार्हमवगन्तव्यम् । नवरं मषावादे तदुद्भवः क्रोधलोभभयहास्येभ्यो, द्रव्यादिविभागे त्वाद्य षड् जीवनिकायाः, सर्वलोको, दिवारात्री, रागद्वेषौ चेत्यनुक्रमेण द्रव्याऽऽदिषु तथाऽत्र वाच्यं, परं सर्वद्रव्य-लोकालोको द्रव्य-क्षेत्रयोः परावयौँ । अदत्तादानोद्भवो ग्रामनगराऽरण्याऽल्पबह्वणुस्थूलचित्तवदचित्तवद्विषयतया, द्रव्यक्षेत्रयोः परावर्तस्तु ग्राह्यधार्यद्रव्येषु ग्रामनगरारण्येषु चेति ।। मैथुनोद्भूतिर्दिव्यमानुषतैर्यग्योनिभ्यः, द्रव्यतो रूप-रूपसहगतयोः सचित्ताचित्तआदिषु, क्षेत्रत ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्लोकेषु । परिग्रहप्रभवो द्रव्ये सचित्ताचित्तमिश्रेषु, भावतोऽल्पबहुमूल्ययोः । रात्रिभोजनमशनपानखादिमस्वादिमसंभवं द्रव्यतोऽशनादि, क्षेत्रतस्तापक्षेत्रं, भावतस्तिक्तकटुककषायाम्लमधुरलवणरागद्वेषा इति समुत्कीर्य पञ्चकं महाव्रतानां रात्रिभोजनविरमणव्रतषष्ठानां पापोद्भवतत्प्रवृत्तिहेतु;तन्निवृत्ति-निवृत्तिस्वरूप-तत्फलाऽऽख्यानद्वाराऽऽख्यायि भावनामूलभूतमतिक्रमवर्जनं अप्रशस्तयोगवर्जनादिख्यानेन । भावनास्तु पञ्चविंशतिरेवं मनोगुप्त्ये-षणाऽऽदाने-र्यासमिति-दृष्टानपानऽऽादानैर्हास्य-लोभभय-क्रोधप्रत्याख्यानाऽऽ-लोचितभाषणैरालोचिताऽ-भीक्ष्ण-साधर्मिक-सप्रमाणावग्रहयाचना-ऽनुज्ञापितपानाशनः स्त्रीपण्ढपशुमद्वेश्मासनकुडयान्तरसरागस्त्रीकथा-प्राग्रतस्मरण-स्त्रीरम्या क्षणा-ङ्गसँस्का र-प्रणीतात्यशनवर्जनैः प्रियाप्रियशब्दरूपगन्धरसस्पर्शेषु प्रीत्यप्रीतिपरिहारेण क्रमाद व्रतेषु पञ्चसु । षष्ठं तु न समेषु तीर्थेषु मूलगुणरूपमिति न तद्भावनाः परिगण्यन्तेऽतिक्रमास्तु सूर्यशङ्कितताऽतिमात्राहारादिना । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० ] [ प्रस्तावना संग्रह तदनु प्रतिक्रमणप्रवृत्तस्वरूपं दर्शज्ञानचारित्राणामविराधकः श्रमणधर्मस्थित आलयविहारसमिति गुप्तियुत इतिरूपमुपदर्शयन्तो महात्मानो महात्रतपञ्चकरक्षणप्रतिज्ञां समाचख्युः आख्यश्व सावद्येतरयोगादीनाशातनापर्यन्तानेकार्थींस्त्रयस्त्रिंशदन्तान् परिहार्यधार्यतया महाव्रतप्रतिज्ञापरिपालनाय । निगमयन्तश्च महाव्रतोच्चारणं सविशेषार्हन् महावीरनमस्कारादवक् तदुपकारस्मरणमित्र प्रकटयामासुः स्थेर्यादीननुपमान् महाव्रतगुणान् । " निरवद्ययोगानां स्वाध्यायमूलत्वेन श्रुतसमुत्कीर्तनां तदतिचारप्रतिक्रमणं च चिकीषुभिरङ्गा ऽनङ्गत्वेन प्रतितीर्थं नियताऽनियतत्वेन श्रुतं विभज्यते द्विधा, तत्रापि प्रत्यहं क्रियोपयोग्याऽऽवश्यकं व्यतिरिक्तं चेति व्यतिरिक्तमपि प्रथमपश्चिमपौरुष्यध्येयम् कालिकमितरत्तूत्कालिकमिति सप्रभेदस्यैव तस्याSSख्यानाय क्रमश आवश्यकाध्ययनानि, उत्कालिकानि, कालिकानि, अड्गप्रविष्टानि चाऽऽख्युः ख्यातमहिमानो यथागहन न्यायेनाऽऽख्यातं च तत्रार्हद्भगवदाख्यातगुणादीनां श्रद्धानादि कार्यतया, अन्तःपक्षं कृतानां वाचनाऽऽदीनां दुःखक्षयाद्यर्थमुपसम्पत्तिमकृतानां च तेषां तत्र प्रायश्चित्तप्रतिपच्यादि प्रतिपाद्य, विश्रुतकीर्तिश्रुतधर्मवाचकेभ्यस्तदाऽऽराधकेभ्यश्च निरूप्य नमस्कारमात्मीयानाराधनामिथ्यादुष्कृतं समर्प्य, कीर्त्तिताऽविककीर्त्तिः श्रुतदेवता श्रुताधिष्ठात्री | आवश्यकदीनां विषयाद्युपदर्शनं तु नादृतम् विस्तारभियाऽऽप्रस्तुतादेश्चाभ्यूां वा स्वयं धीमद्भिः । शेषं विध्याऽऽदि क्षामणाऽऽदि च विध्युपयोगीति विभावनीयं प्रेक्षावद्भिः, परमवश्यमेतावताधिकारप्रबन्धेन भविष्यति भव्यानामावश्यकताप्रतिभानमेतस्योपयोगिता चातिशायिनी सूत्रस्य सविवरणस्य मुद्रणस्य च प्रतिभासिष्यत इति न तत्र वाच्यं किञ्चित् । विवरणं त्वेतद्वैक्रमाब्दीयद्वादशशतककालीनाचार्य श्रीमद्यशोदेव पादैर्द्वध्धं श्रोमदणहिल्लपत्तने सौवर्णिकनेमिचन्द्र पौषधशालास्थितैः श्रीमत्सिद्धाधिपे शासति राज्यं श्री मच्चन्द्रकुलोनश्रीवीरमिश्रगणिभुजिष्य शिष्य श्रीचन्द्रसूरिपादपद्ममधुपाभैः, श्री मत्प्रणीतो नान्यः कोप्युपलब्धो ग्रन्थो यदि परं स्याज्ज्ञातः कस्यापि धीधनस्य, ज्ञापनीया वयं सोपस्कारमित्याशास्महे, उपास्महे च तत्पादान् ये यथायथमवगणय्येदं निःश्रेयससाधनाय सफलयेयुः श्रुतोदीरितम्, व्यवस्थादि च ज्ञानोद्धारकोशद्रविणादिविषयं मुद्रितपूर्वं मुद्रित पूर्वेतिन तत्रायासः ॥ मुद्रणे चाऽस्याऽभूत्पुस्तकमेकं मूलाधारभूतमस्मदीयं वैक्रमवर्षीयषोडशशतीयं शुद्धतमं, द्वितीयं च त्यक्तसुगतिमार्गमूललुम्पका नुगतढुण्ढककुमार्गश्रीमदानन्दविजयपादानां शिष्यवरैर्ज्ञानकोशविस्तारप्रयतैः श्रीमत्कान्ति विजयमुनिभिः प्रहितं शुद्धतमेव कृतेऽप्यत्र शोधनादिप्रयासे सुलभत्वाच्छद्मस्थस्खलनस्य दृष्टिदोषादक्षरयोजकदोषाद्वा यत्किञ्चिद्भवेदशुद्धिजातं तद्वाच्यं शोधयित्वा Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१ स्या ० भा० प्र० टिप्पणी] कृपापरैः सत्कृपामभिलाषुकेषु श्रमणसङ्घपादपअचश्चरीकेष्वस्मास्विति प्रार्थयामहे सन्मार्गसजसज्जजनतासमीपगाः। सूरते सुरपस्पर्धिराज्ञि धार्मिकराजिते । लेखः प्रास्तावि सद्धर्माऽनन्दैलेखसुखाकरैः ॥१॥ "समुद्र- रस-नन्दाब्जे (१९६७) मिते विक्रमहायने । ज्येष्ठामूले रवौ तिथ्यामेकादश्यामुदीरितः ॥२।।युग्मम्।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 455555555555555555555555555555 पूज्यागमोद्धारकश्रीलिखितप्रस्तावना विषमपदार्थसूचिका आनन्द लहरी टिप्पणी ४-श्री पाक्षिकसूत्र प्रस्तावना १. श्रामण्यप्रतिपादकग्रन्थेषु छेदसूत्रेषु च बहुत्र साधूनां स्वरूपव्यावर्णन प्रसङ्गे 'ठियकप्पिया' इति विशेषणं प्रयुज्यते। २. यत्प्रयोगे गुणस्यावश्यम्यावित्वं दोषाभावश्चै तादृशौषधस्य कल्पसूत्रवृत्तौ निर्दिष्टस्यात्रोल्लेखः । ३. षडावश्यकानामर्थाधिकारसूचकवस्तुषट्कं क्रमशोऽनेन समस्तपदेन सूचितमस्ति । ४. तस्य-साम्यस्य प्ररूपकाः ये चतुर्विशतिसंख्या आत्मानः महापुरुषाः तीर्थकरा इत्यर्थः तेषां स्तव इति विग्रहोऽवबोध्यः। ५. तथाविधः-तृतीयौषधकल्पः, अत एवाऽवश्यकरणीयत्वेन सार्थकाऽभिधाऽस्याऽऽवश्यकेति । ६. अविकला=युक्ति प्रतीति शेषः, या साधनसामग्री तस्यां तत्पालने सावधाना ये अनगारशिरोमणययः= साधुवर्याः तेषां वर्णनादौ इति समासः । ७. 'तादृश'शब्दस्य प्रमत्तार्थोऽत्राव गम्यः । ८. एतद्धि श्रीगुणस्थानक्रमारोहे एवमुपलभ्यते,। "इत्येतस्मिन् गुणस्थाने नो सन्त्यावश्य कानि षट् । सन्ततध्यान सद्योगाच्छुद्धिः स्वाभाविकी यतः ॥" ____ श्रीगुण० क्रमा० गा. ३६ ९. इदं हि आपूर्वकपद् धातोः क्रियातिपत्तौ प्रथमपुरुषैकवचनमस्ति । १०. गुणस्थानक्रमारोहे एषा गाथोपलभ्यते। प्रमाद्यावश्यकत्यागान्निश्चलं ध्यानकाश्रयेत्। योऽसौ नैवागमं जैनं वेत्ति मिथ्यात्वमोहितः ॥ श्री गुण क्रमा० गा० ३० ११. मांसला=परिपुष्टा चासौ मीमांसा-वस्तुविचारक्षमोहापोहशक्तिः च, तो जुषन्ते भजन्ते ये ते इति व्युत्पत्तिरत्रज्ञेया। १२. अभियुक्ततमैः आप्तवर्यैः स्पष्टं मीमांसितं (अत्र 'अपि' इत्यध्याहार्यम् ) न मीमांसन्ते=समीक्षया विचा रयन्ति इत्यन्वयानुसारमर्थसंगतिः यार्या । १३. तत्पदेनात्राध्यात्मवादव्याजेन क्रियायामरुचिं शासनशैलेरज्ञता प्रतिक्रमणादिक्रियाया ध्यानाद्युत्कृष्टताभि व्यक्तिद्वारा व्यञ्जयन्तः लिंगधारिणो विज्ञेयाः । १४. आवश्यकक्रियास्वरुचिमतां तेषामज्ञशेखरत्वाविष्करणायोपहासगर्भाऽऽक्षेपसूचकमिदं विशेषणम् । १५. अयं हि शब्दः आवश्यकाऽपरपर्याय: 'मावश्यरूनियुक्त्या दिषु प्रसिद्धः, आवश्यकक्रियाकलापानुष्ठि तेानादिगुणानामावासभूतत्वात् । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्षिक० टिमणी] १६. तदवाप्त्यांअप्रमत्तताप्राप्ती। १७. तदकरणं आवश्यकाऽकरणं अप्रमत्तत्वाद्धेतोरावश्यकक्रियाया गतार्थत्वमिति । १८. तेषां सम्यगविधिपूर्वकावश्यककारिणां ।। १९. तथाविधानां अध्यात्माऽऽभासिनां ध्यानाऽऽदिव्याजेन प्रतिक्रमणाद्यकारिणां श्रमणप्रतिरूपकाणां __ 'प्रतिक्रमणकाले त्वस्माकमप्रमत्तता भवति, नाऽतोऽस्माकं प्रतिक्रमणाद्यावश्यकता' इत्यसत्तर्केण सच्छ्र मणानां प्रतिक्रमणक्रियाकृतिव्यङ्ग्यप्रमादशालित्वमिति बलादापद्यते, ततश्च तथाविधपदेनाऽत्र 'प्रमाद वता' मित्यूहनीयम् । २० निरीक्षणार्थ वस्तुसम्यविचारार्थ चक्षुः=अन्तरङ्गसमीक्षाशक्तिः विद्यते येषां ते तैरिति विग्रहेण आलो चनापूर्व वस्तुसारासारनिर्णायकैरिति भावार्थोऽत्र बोध्यः । २१. निपुणानामित्यर्थः । २२. अध्यात्मकक्षाव्याजेन चारित्रमोहोदयप्रभवप्रमादजन्याऽऽध्यात्मिकाऽधस्तनकक्षाऽवरोह एवेष्यते तैः प्रति क्रमणाद्यरुचिमद्भिः श्रमणाभासैः, अतएऽवाधःस्थानस्यान्वेषणे परतै तैषां लक्षिताऽस्ति । २३. लाक्षणिकोऽयं हि शब्दः कुशलापरपर्यायः ।। २३. 'तत्' पदेन प्रतिक्रमणादिक्रियाणामपूर्वमहत्त्वसूचकाऽकाट्ययुक्तिगभंहि गुणस्थानक्रमाऽऽरोहाss. दिवाक्यजालं विज्ञेयम् । २५. 'तथा' पदेन वाद्यभिमतकुयुक्तिबलेन निष्फलत्वस्येष्टापत्तिरत्र तुष्यतुदुर्जनन्यायानुसार विहिता। २६. गुणस्थानक्रमारोहीयषट्त्रिंशत्तमगाथासत्क "न सन्त्यावश्यकानि षडि"-ति पादेऽध्याहारकरणीयता ऽत्र समर्थ्यते एतत्पदेन। २७. एतद्धि गुणस्थानक्रमारोहे गा० ३६ उत्तरार्द्धरूपेणोपलभ्यते । २८. अत्र 'इति' पदेन प्रतिक्रमणादेररुचिवरस्यादिमूलं हि यः कश्चन ध्यानादिव्याजेनाऽनावश्यकत्वम भिमन्येत, अप्रमत्ततायाः फलमावश्यकपरित्याग एवेति विपर्यस्तबुद्धे रिति हेतोः इत्येवंरूपः सामु दायिकाऽर्थोऽवगन्तव्यः। २९. अत्राभव्यानां दृष्टान्तत्वेनोपन्यासं कृत्वा पूज्यवर्या एवं ध्वनयन्ति यत् यथा ह्यभव्यानां संसारत्यागेच्छा कदाऽपि न भवति एवं प्रमादपरिहाणेरूत्तरोत्तरमावश्यक्रियासपयोगजागृतेरनन्यफलरूपत्वात्तत्क्रियानां त्यागस्येच्छाऽपि सुतरामसंभाविनीत्यतः प्रमादराहित्यस्यावश्यकक्रियासानुबन्धनियतत्वा दावश्यकक्रियाणामप्रमत्तत्वस्य च विरोधोद्भावनाऽऽध्यात्मिकाभासश्रमणविहिताऽर्थशून्या विज्ञेयेति । ३०. कैश्चिदतिशयदौर्विदग्ध्यप्रयुक्तवावदूकताशालिभिर्पण्डितम्मन्यैः प्रतिक्रमणसप्तकमभिमन्यते, तत्र चैतद्भवीय-प्रतिभवीय प्रतिक्रमणे द्वे अधिके गण्येते, तयोरस्वारस्यमूलको हि निर्देशोऽत्र । ३१. “भणागयं पच्चक्खामी'-ति प्रसिद्धेः अनागतकालीनपापव्यापारस्य प्रत्याख्यानरूपत्वेन प्रतिक्रमण सम्भवत्वविवक्षायाः निरासोऽत्र विधीयते । ३२. एषा हि गाथा श्रीपर्यन्ताऽऽराधनासूत्रप्रभृत्याराधनाविषयकप्रकरणग्रन्थीया प्रतिभासते, विहितेऽपि प्रयन्ने यथाशब्दं नोपलब्धा, धीधनैः मार्गणीयैषा गाथा। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [प्रस्तावनासंग्रहे ३३. 'प्रभृति' पदेनाऽविरतानामपि प्रहः, तेन प्रतिक्रमणस्य विरतिनयत्यादाराधनाविधिप्रतिरूपत्वं न सङ्गति मङ्गति । ३४. पाक्षिकसूत्रे महाप्रताऽऽलापकेषु एतत् पदकदम्बकं समुपलभ्यते । ३५. अत्र 'तत्' पदेन गतभवीयपापप्रतिक्रान्तिर्विवक्षिता । ३६. शास्त्रविहिते नियतकालेऽतीतभवपापालोचनस्य विहितता न दृश्यते, एवं हि एतत् पापमालोचयि. तव्यमिति विधानमपि नोपलभ्यते, अनुपलम्भेऽपि विधानस्य सापेक्षतया गुरुनिश्रया कासांचित् प्रवृ. त्तीनां लब्धजन्मत्वेऽपि अन्त्यसमये आलोचयितव्यदृष्कृतानां प्रायश्चित्ताऽऽसेवनप्रायोग्यस्य कालस्या पर्याप्यमानत्वात् गतभवपापाऽऽलोचनं न हि प्रतिक्रान्तिकुक्षिगमिति । ३७. गतभवीयपापानामालोचनाया अवश्यकर्त्तव्यत्वरूपकल्प-मर्यादाऽनुपातित्वं यदि चाभविष्यत्तर्हि दैव सिकाऽऽदिप्रतिक्रमणपञ्चकवत् एतद्विधस्यापि सत्तासम्भवोऽभविष्यत् । ३८. अत्र 'यतिपति' पदेन तीर्थकरा विज्ञेयाः। ३९. एतद्धि गाथार्द्धम् सप्ततिशतस्थानकग्रन्थीयं श्री कल्पसूत्रवृत्तौ सुबोधिकायां प्रथमव्याख्याने कल्पदशक वर्णनप्रसङ्गे ( पत्र ३०२ पं० १) एवमुपलभ्यते "देसिय १ राइय २ पक्खिय ३ चाउम्मासिय ४ बच्छरीय ५ णामा । दुण्डं पुण पडिक्कमणा मज्झिमगाणं तु दो पढमा" ॥ इति ॥ ४०. द्वाविंशति तीर्थकर-मार्गानुसारिवदित्यर्थः । तद् द्वयम् दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमणरूपमित्यर्थः । ४१. "तं दुरुह सय दुक्रालं, इयराणं कारणे इउ मुणिणो" सप्ततिशतस्थानकग्रन्थीयैषा गाथा कल्पसूत्र प्रथमव्याख्याने सुबोधिकावृत्तौ (पत्र ३ पृ. २५० ३) समस्ति । ४२. कायोत्सर्गादिसामान्यभेदमित्यर्थः । ४३. एतत्पदेन प्रसङ्गतः प्रक्रान्तं हि पाक्षिकसत्रं विज्ञेयम् । ४४. तदा श्री तीर्थकरकाले भवम् इत्यर्थः । ४५. आगमानां लेखनकाले श्रुतस्थविरैः संकलितत्वरूपादिति शेषः । ४६. तीर्थानुसारिणामागमश्रद्धालूना मित्यर्थः । ४७. गणधरानामर्वाक्काले संकलितानां प्रज्ञापनानन्दीप्रमुखागमानां नामनिर्देशेन पाक्षिक सत्रस्य गणभृत्का लीनत्वमाश्रित्य विप्रतिपत्तिमुखेन संशयदोलारूढाः अधुनातनाः केचन तथाकथितविद्वांसोऽपि श्रमणाः, अतस्तेषां हितायेदं निर्वचनं पूज्यागमोद्धारकनीभिः क्लुप्तमस्ति । ४९. रचनासमय इत्यर्थः । ३९. अवश्यकरणीयमित्यर्थः । ५०. प्रतिक्रमणकरणमित्यर्थः । ५१. 'तत्' पदेन 'श्रमणप्रतिक्रमण' सूत्रस्य परामर्शः । ५२. पाक्षिकसूत्रमित्यर्थः । ५३. 'निर्णायते' इति प्रयोगेनात्रैवं पूज्यपादाः ज्ञापयन्ति यत् ऐतिह्यापेक्षया गुरुचरणोपास्तिसमधिगम्यमुनि मलश्रुतानुसारिणीधीषणाप्रतिभोद्भावितर्कबलेन, 'सिद्धस्य गतिश्चिन्तनीये' इचि न्यायानुसारं सम्यग् Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५ पाक्षिक० टिप्पणी] व्यवस्थापनमुखेन नानाविधागमानुपातियुक्तिवजैर्वस्तुनः प्रामाणिकनिरुपणपद्धतिनैवैतादृशविशृंख लितागमपदार्थानामाश्वासायहऽऽस्वरूपनिष्टङ्कनं सुतरामुपादेयम् । ५४. 'तु' पदेनैतद्विधप्रामाणिकशैल्या सुगुरुनिश्रयोह्यमानपदार्थनिर्णयकरणरीतौ सत्यामपि स्वाभिप्रात्यो ज्जीवितच्छंदोऽनुरोधिकुतर्कानामेव प्रामाण्येनाऽयाथातथ्येनागमिकवस्तूनामश्रद्धाजननफलकं मतिव्यामोहादिजनकं विद्याभिमानादिजनितं यद्वा-तद्वा प्रलपनं न विश्वासाईमभ्युपगमाह चेति स्पष्टतरं दध्वनुरागमतलस्पर्शिसद्बोधमर्मज्ञाः पूज्यपादाः । ५५. प्रथमाद्विवचनान्तमिदं रूपं नपुंसकलिंगीयम् । ५६. नवदीक्षिते इत्यर्थः। ५७. वाचनापृच्छादायकृतायामिति भावः । ५८. उत्कीर्तना नाम नामोल्लेखः । ५९. आलापकपट कानन्तरं श्रुतानां नामोल्लेखालापकादर्वाग् तनद्वावत्वारिंशद्गाथाकदम्बकस्यात्र निर्देशोऽ त्रावबोध्यः । ६०. स्फातिः यथोत्तरं निर्विघ्नं शिष्यप्रशिष्यादिसन्ताने पठनपाठनादिप्रक्रान्तिप्रमुखाऽत्र विज्ञेया । ६१. सिद्धानां अभिधेयत्वेन श्रोतृलक्ष्यगोचरीभूतत्वेन च निर्दिश्य गीतार्थोत्तंसाः सूरिवर्याः आगमानां अब णस्य सिद्धिपदप्रापकत्वं ख्यापितवन्तः । ६२. पाक्षिकसत्रस्य प्रारंभ एव द्वितीय गाथायां "जे अ इमं गुणरयणसायरमविराहिऊण तिण्णसंसारा" इति पदकदम्बकेन ज्ञानस्य गुणरत्नसागरतां तदविराधनामुखेनोगसनायाश्च तदीयायाः संसारतारकत्वं निर्दिश्य पाक्षिकसूत्रस्यास्य श्रुतमहिमागरीयस्त्वपूर्णस्य सम्यश्रवणपाठादिना श्रुतज्ञानस्याऽविराधनादिना संसारपाथोधितरणप्रयोजनत्वेन सूचितवन्तः श्रीमन्तोऽनन्तोपकारिणः गणभृत्सत्तमा इति परमार्थः । ६३. अनुयोगद्वारादिषूपवर्णितमावश्यकव्यतिरिक्तं हि श्रुतमत्रव्यतिरिक्तपदेन विज्ञेयम् । कर -: अंतः प्रार्थना :कत्थ अम्हारिसा पाणी ! दूसमादोसदसिया । हा ! अणाहा ! कहं हुंता, जइ ण हुँतो जिणागमो॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारका लेखित प्रस्तावना संग्रहस्वरूपे श्री नन्दरत्नाकरे पञ्चमं रत्नं श्रीकल्पसूत्रस्योपक्रमः उपादीयतामुपादेयमिदमुपदीक्रियमाणं विधाय करुणा-कटाक्ष-पावने मयि त्रिलोचने कल्पसूत्राभिधानम द्वितीय - महिम- रत्न रत्नाकरं । 9 ननु केन प्राणायि कदा ? कथं ? कुतश्व ? इति न ज्ञायते चेत् ? किमर्थो ग्रहणेन नः ? सत्यं ! भो ! वदान्यमूर्धन्याः ! परं निर्णीततरमेतत्प्रतिवर्षं श्रेयोनिः श्रेयस निबन्धनदर्शन- ज्ञानचारित्र-निदान - पर्युषणापर्वणि समाकर्णनेनास्य पावनस्य सव्याख्यानस्य यदुत प्रणेताऽस्य पूर्ववित्प्रवरः श्रुतकेाली श्रीमद्भद्रबाहु स्वामी, आसीच्चासौ पूज्यतमः श्रीमद कलङ्क-महावीरदेवाधिदेवात् षष्ठयुगीनत्वेन द्वितीयशतके, दुष्षमार - रजनी- 'रजनीचरायमाण - मेधाहान्यादि "घातजन्तुजातोद्धरण- कृपापरीतचेतसाऽनायासेन "आयतकालपरिश्रमलभ्यपूर्वेलाभविकला-नामनगारिणामुपकृत्यै आचार - विषय ' ' कयावदुत्सर्गापवादाध्व दिदृक्षान्त्रित जनमनः संतोषक-श्री छेदसूत्रान्तर्गतदशाध्ययनामक श्रीदशाश्रुतस्कन्धस्याष्टमान्ध्ययनतया नवमादन' 'वमात्प्रत्याख्यानात्षट्-'पञ्चाशदधिकशतद्वयमान- ''माहाविदेहीयहस्तिप्रमाणमपीपुञ्जलेख्यात्पूर्वादुद्धृत्य महा त्मना व्यरचीदम् । निरचायि च ''अथ प्रभवः प्रभुः । शय्यम्भवो यशोभद्रः संभूतिविजयस्तथा ।। भद्रबाहुः स्थूलभद्रः, श्रुतकेवलिनो हि षट् ।” इति कलिकाल सर्वज्ञ श्रीमडे मसूरि वचनाच्त- केवलिता, सा च संपूर्णचतुर्दशपूर्व विदा मेत्र, केवलिता च "लोकालोकाऽऽलोकाऽऽभोगप्रत्यलकेवलालङ्कृत-महर्षि तुल्यप्ररूपणारुषितत्वात् । अपलपन्ति च लुम्पका उप्तस्वश्रेयोमार्गा एनद् वदन्ति च ' नेदमष्टमाध्ययनं दशाश्रुतस्कन्धस्य" इति परं नैतत्समञ्जसं, यतो विलोवयते चूर्णौ विवृतमेतद्दशा " श्रुतीयायां १६ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प० उपक्रमः] लभ्यन्ते च प्रतयोऽपि अष्टमाध्ययनतोल्लेखिन्योऽनेकाः, काचित् काचिच्च तथा लिखिताऽपि प्राचीना, श्रीमति च स्थानाङ्ग स्पष्टमुल्लेखोऽस्याष्टमाध्ययनतया स्थाने १ दशमे, तुर्ये च समवायाख्ये प्रवचनपुरुषाङ्गभूतेऽङ्ग दृश्यतेऽस्यातिदेशो १६"जहा कप्पे” इति वचनेन [इति] नाऽऽरेकाऽस्याऽष्टमाऽध्ययनतायां दशाश्रुतस्कन्धस्य । ____ २०"समणे भगवं महावीरे बहणं समणाणं.” इत्यादिवचनतो नेदं व्यरचि महापुरुषेणाप्पनेने'-त्यप्य तिरेका न हितावहा, २२"सणयं सोदाहरण" मित्यादि वचनादे२३ तस्मिन्नपि केषाश्चित् साङ्गोपाङ्गानां तत्रत्यानां सूत्राणां पासात् सूत्रमिदमेव । एवमेव च २ प्रज्ञापनादौ गौतमायभिधानाङ्कितेऽपि निर्धार्यम् , नतूच्छङ्कलप्रेरितैर्भाव्यं नास्तिकैः । स्वकालावध्यन्तरज्ञापनाय २६चान्तरेषु स्थविरावल्यां चाख्यायि श्रीदेवर्द्धिगणिपूज्यैः स्वं यावत्कालोऽन्तरं च 3°एतस्य एतदाधारेण श्वेताम्बराणां च प्रामाणिकता निश्चीयते 3 'मथुरापुरीयशिलालेखावलोकनतः, यतो दृश्यते ७२तत्रभगवत्यस्मिन्नाऽऽख्यातानि शाखा-कुलाऽऽदीनि, प्राचीनतमाश्च ते लेखा इति सुस्थं समम् । पञ्चशती चाचार्याणां शासनप्रवराणामासीत्तदा पुस्तकाऽऽरोहणससंदि, 3नचर्ते तस्या विश्वासमहेंदाऽऽख्यातोऽप्यर्हताऽऽगमो विश्वासमन्यथा ४ तत्रभवन्नाम्नैव प्रख्यापयेत्सर्वमाविष्कृत्य स्वमनीषाकल्पितं, 'पुराण[प्रभाव]प्रस्थापकान्ययूथिकवत् । तदियतावसेयमेतद् यदुत पर्यवसानस्थविरावलिभेदं रचितमन्येन, नत्वन्यदिति, पाश्चात्यपट्टावलीव तस्या न्यासात् , भाषाशास्त्राऽपेक्षयाऽपि नाऽस्याऽर्वाचीनता, तथाविधस्वादुसुगम पदप्रबन्धमयाउनेककारणानामऽत्राऽवलोकनात्तद्ध तुभूतानाम् । सामाचारी प्रकरणमपि तथा विधसुविहितयोग्यं समाचारवृन्दमाविर्भावयत् किमिव न तोषयेत् सद्गतिनिदानसदाऽऽचारलोलुपान् । ४°तदेवं श्रीमदकलङ्कमहावीरादिऋषभपर्यन्ताञ्जिनाधिपान , "सुधर्मसुधर्मावनतांह्रिपद्मसुधर्माऽऽदिदेवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणपर्यवसानान् स्थविरान् , स्वर्गाऽपवर्गनिबन्धनश्रामण्यसाधक पर्युषणाऽऽदिप्रत्युपेक्षणाऽन्तान् समाचारान् प्रकटयत् प्रकटप्रभावमेतदिति मङ्गलमेव तत्र भवतां श्रमणानाम् , विशेषतश्चाव स्थाने प्रतिष्ठान इवाहतां वर्षावासस्य अनन्तानुबन्धिनिवारणप्रत्यलसांवत्सरिकप्रतिक्रान्तिनिखिलकर्मक्षयक्षमतपःकर्मप्रभृतिप्रचुरतरधर्माधारस्य । अत एव चाऽऽचारोऽप्यं शास्त्रीयो यदुत-यदा भवति श्रमणानां भगवतामर्हताऽवलोकनेन वर्षावासस्य क्षेत्रे चिकीर्षा वर्षावासीया दृढा, तर्हि विद "ध्युनिशीथेषु पञ्चसु निशीथवर्णितकल्पेन कल्प"कर्षणं समस्तसाधुमध्यगता गीतार्थाः, श्रीमज्जिन गणभृदावलिस्मरण-सामाचारीज्ञानानां परममङ्गलत्वात् , परमपुरुषनामतत्समाचारश्रवणेनोद्भूतेर्विघ्न वृन्दारकविलयस्य, Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ [प्रस्तावनासंग्रहे प्रशस्तपरिणामानामविकलकारणतायां च तस्या आवश्यिकी सा ततः। साध्वीनां च स्वाचार". साध्वीनां दिवापि कर्षणम् , परं विहितयोगानामहत्येतत् कर्षणादि । उपेक्ष्या एव च हीनश्रद्धाना योगेषु, न ह्याऽऽप्तोपज्ञमेतद्य दुत ज्ञानकान्तोऽपि क्रियकान्तवद् "कान्तपदप्रदः, ४ आहाराऽशुद्धयाद्याऽऽलम्बनानि तु कूटान्येव सन्ति स्वाऽभिनिवेशित्वाऽऽख्या यकानि च, यतो नह्याऽऽदिष्टं केनापि यद्भक्षणीयमेतदन्यथा भविष्यति यज्ञनियुक्तानां मांसानदनवत्प्रत्य°पाय इति, प्रत्युत प्रायश्चित्तप्रतिपच्यादिना शोधनीयमाऽऽमतमाऽऽम्नायवद्भिः । नह्याऽऽम्नातमाऽऽप्ताऽऽगमे कुत्राप्यऽ 'योगं ज्ञानम् , अज्ञानं चाचार्यत्वादि, श्रीमतां वज्रस्वामिनां पदानुसारिणामप्ययोगित्वाद्वाचनाचार्यपदप्रार्थनाप्रतिहतिः श्रुता ५२चेदाऽऽवश्यकाऽनुयोगिभिरपि कथं तदा योगहीनत्वाऽऽलम्बनं श्रेयस्कामानां श्रेयसे विधेयम् । व्यतिक्रान्तेषु च अशीत्यधिकनवशतकेष्वन्दानां (९८०) श्रीमन्महावीरसत्केषु आनन्दपुरे वर्तमानशासनाधिपचैत्ये पुत्रमरणार्तस्य ध्रुवसेनस्य समाधये साधितं समक्षं सचिवादिपरिषदः समयोत्सवं तन्पुरो वाचनं, ततः प्रभृति सकलश्रमणसङ्घस्यान्वक्षं वाच्यते ५६उदूढयोगैमु. निभिः । अनियमस्तु कल्पसूत्रीययोगस्य नमस्कारवदाचीणे इति । अस्य च जातेष्वपि चूर्णिटीप्पणान्तर्वाच्यादिषु वाचकानां च न तथाविध आनन्दः प्रतिपयुषणं वाचने श्रवणे चापि, “न ह्यविस्तृतमाशु बोधयेदबोध"-मिति वितताऽऽदितः श्रीमद्भिस्तपागणसुरद्रमरक्षण वृतिप्रभधर्मसागरैत्तिरस्यदीपिका चानु अन्वर्थाऽदीपि शुभविजयपादैः,, सत्योरप्यनयोहवृत्त्योः प्राकृतबाहुल्यात् वादगहनत्वात् विस्तृतत्वाच्च कश्चिदाऽऽरब्धा महोपाध्यायश्रीविनयविजयगणिभिः सुबोधिकाऽभिधा वृत्तिः सम्प्रत्युपदीक्रियमाणा , समयश्वास्या अष्टादशीयो वैक्रमः शतकः । ५ शोभावहा स्यादेवेयं चेन्नात्र 'द्वषावेशपुष्टा स्यादुचस्ततिः तन्मूला च यथातथाऽर्थप्रथापरा क्वचित्क्वचिद्वाक्यपद्धतिः । नचोचितमेतत् पयुषणापर्वणि १२सकलनिःश्रेयसाभिलषणीयाऽव्ययपदाध्वारावनकल्पकल्पसमग्रसचक्षामणा प्रधानस्वदोषपरगुणख्यायिनि, ६ पर्वाहोबद्धकर्मणोऽपि दुरन्ततमत्वात् , न चासत्पक्षपोषणे खंडने चावितथस्यासंभाव्यमे "तत् , परमस्तु परम भावाभिपातुकानां श्रेयो मार्जनीयं च मध्यस्थतान्वितदृशा मध्यस्थैः । विवादस्थानानि तावदाचेलवयादीनि अमूनि मुख्यवृत्त्या द्वयोरपि पूज्ययोरनया रीत्या च, श्री धर्मसागरोपाध्यायाः"देवदृष्यापगमे सर्वेषां जिनानामाचेलक्यम् ।" श्री विनयविजयोपाध्यायाः Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक्षिक टिप्पणी] [३९ - 'आधात्ययोः साधिकाद्वर्षादाऽऽचेलक्यं, शेषाणां सर्वेषां न तत् ।" समाधिरत्रः-वर्तमानचतुर्विशत्यपेक्षयाऽऽद्यान्त्ययोर्यावत्रयोदश मासान् सचेलकत्वं चातः परं, परेषां न तथेति सत्यपि . सद्भ तेनाऽनगारवदाऽऽचेलक्यं तीर्थाधिपानामौपचारिकं, किंतु वास्तवमेव, तच्चभवत्यसति वस्त्रे, असत्ता चापगमे देवदूष्यस्य 'असंत चेला य तित्थयरा सव्वे' इति पञ्चकल्पभाष्य वचनात् , ६७"तीर्थकरा जिना असच्चेलाः सन्तोऽचेला भवन्ति शक्रोपनीतदेवदृष्यापगमान्तर" मिति पञ्चाशकसूत्र वृत्त्यादिषु समुपलम्भाच्चेति । श्री धर्मसागरोपाध्यायाः"न मरीचिवचनमुत्सूत्रं कोटाकोटीसागरपरिमित संसृतेः ।" श्री विनयविजयोपाध्यायाः६८समाधिरत्र: "दुब्भासिएण इक्केणे" त्याद्यविरुद्धवाक्यावलोकनार्भाषितता नियतैव, वृद्धिश्वानन्तसंसारस्योत्सूत्रभाषिणो भवत्यनालोचकस्य तीव्राध्यवसायस्य च, स तु तत्र मन्द एव, 'इत्थंपि इहयंपीति' वाक्येऽपिशब्दद्वयोल्लेखात् , व्याख्यातं चाभियुक्तैरावश्यकऽऽवृच्योरप्येवं, उत्सूत्र-दुर्भाषितयोश्च स्पष्ट एव भेदः, ७१"उस्सुत्तो" “दुब्भासिओ" इत्यनयोः स्पष्टं पार्थक्यात् । “उस्सुत्तभासगाण” मित्यादौ चानन्तसंसारिता स्पष्टितैव सूत्रोत्तीर्णवादिनाम् । श्रीधर्म-स्वर्गते वज्रस्वामिनि तुर्य व्युच्छिन्न संहननं ।" श्री विनय०-“संहननवतुष्कं व्युच्छिन्न।" समाधिरत्र:"दुष्कर्मावनिभिद्ववे स्वर्गमीयुषि । व्युच्छिन्नं दशमं पूर्व, तुर्य संहननं तथे-" ति परिशिष्टोक्तेः । "तमि य णिव्वुए अद्धणारायं वुच्छिण्णं” इति वृत्तिचूर्योः स्पष्टोल्लेखाच्च तूर्यस्यैवोच्छित्तिः, तन्दुल वैचारिकादि तु संहननावस्थानकालज्ञापकतयोपपद्यते । __उपदोल्लेखमात्रेण मुख्यानि, समासान्तानित्यत्वादिसमाधेयानि तूपेक्ष्यन्ते, अवेक्ष्यते च 'इत्यार्यरक्षित स्वरूप"मित्युपसंहारे आर्यरक्षभिन्नानामार्यरक्षितानां चरित्रं न्यस्तमित्यनुपयोगसाम्राज्यं, भवति च च्छमस्थस्यानाभोगो ज्ञानावृतिमच्चादिति न केषांचिदपि हानिरनाग्रहवतामिति ध्येयं सुधीभिः ॥ अत्र प्रथमं 'कल्प' शब्दवाच्यस्याचतया कल्पकर्षणकालादिज्ञापकतया चाचेलक्यादिः कल्पो दशधाऽऽख्याय श्रवणं तत्सहचारिचैत्यपरिपाट्यादिकमष्टमतपः सोदाहरणं च महाफलमिति दर्शितं । आचेलक्य "विधानानवधारणेन 'ये सर्वथा नाग्न्यं प्रतिपन्ना' न ते विज्ञाः, यतो न Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावनासंग्रहे महाव्रतनिदान परीपहविजयो हिंसाविरत्यादीनामपि "तथाभावात् , “श्रीपार्श्वसन्तानीयाः श्वेतवाससोन्ये त्वन्त्यार्हत्सन्तानीया इति तु बालप्रलपितं, उभयेषामप्यनभिगमनीयं च । प्रारम्भे च कल्पस्य 'पंचहस्तोत्तर' इत्यत्र श्रीजिनवल्लभोपझं षट्कल्याणकमतं खरतराऽभिमताऽभियुक्तश्रीमडरिभद्रसूर्यऽभयदेवपादवचननिदर्शनेन निर्लोठितं । कल्पकिरणावल्यां चैतद्वयतिकरे प्रवर्तनकारणम-नाभोगोऽ-भिनिवेशोऽ-पूर्वसाधनता स्वपक्षणोत्सवारम्भ, आर्यिकाकर्णनं, तत्कृता स्खलना, हठः कल्याणकीयोत्सवे श्रीजिनवल्लभीय' इत्यादि सविस्तरमुद्दिष्ट गणधरसार्धशतकाधारण, पथावस्तुषटकमिदमेव विवृण्वता व्यवनकल्याणके शक्रस्य समृद्धिः, शृङ्गारः, सातोपभोगश्च वर्णितः, 'मग्नेनापि सुखातिशये तन्निदाने धर्म उद्यमोऽवश्यं विधेय' इति ज्ञापनाय उपब हितश्च शक्रस्तवः, शक्रस्तवोऽप्यत एव हेतोः पठ्यते प्रणिपातदण्डकः 'विकृतं त्वेकदेशे नान्यदि' ति नाऽऽवश्यकाऽऽदि-प्रणिपात दण्डकानां 'दीवो' इत्यादि प्रथमान्तपदहितानां न शकस्तवता । ___यद्यपि च द्वयशीतिरात्रिंदिवातिक्रमे गर्भसक्रमः, प्रतिपादितं चात्राप्येवं, तथापि यच्छक्रस्तवा नन्तरमेव भणितिरविलम्बेन, सा चिरं दुःख्यवस्था नोपनिवन्धनीयेतिहेतोः, तत्वतस्तु व्यशीतितमे दिने, निर्जीणे नीचगोत्र, चलितमासनं, दत्त चोपयोगे ज्ञाते च तत्रावतारे कृतापरावृत्तिगर्भस्य, युक्तं चात एवाभिग्रहधारणमपि तदा । यतः परावर्तिते गर्भे चकाराऽऽक्रन्दं ज्ञातगर्भपरावर्ता स्वप्नचतुर्दशकापहारदर्शनेन देवानन्दा, दृष्ट्वा च तां तथाविधां संजातमातृभक्तिप्राग्भारोऽस्याद्भगवान्निश्चलः, जाता राजसचिवसख्यादिपरिवृता रत्नकुक्षिधारिणी त्रिशला आपनमूर्छा, दृष्ट्वा च दुःखवृन्दं विममर्श प्रभुः परिणामवैचित्र्यं, विदधे चाभिग्रह 'यावन्मातापित जीवनं न प्रजिष्यामी'-त्यात्मकं, वर्णयित्वा च पुण्यप्रारभारसूचनप्रत्यलां दोहदततिं पूर्ति च तस्याः, कर्मोदयादि ज्ञापकज्योतिश्चक्रचारज्ञानपुरस्सरं प्रमोदकारणानि चाख्यायोपनिबन्धुः पूज्यपादा जननमखिलकल्याणकरं निखिलाऽसुमतामनाहतैश्वर्यस्य भगवतः । __महोत्सवं च ततः जनुषः श्रीमतोऽमराधिपविहितं निर्वर्णवांचक्र महोत्सवमभिषेकस्य चालनं चाऽमराऽचलस्य, गार्हस्थ्यं चामलकीक्रीडा-लेखशालामोचनै-न्द्रव्याकरणोत्पत्ति-परिणयन-मातापित्रस्वर्गम-बृहद्भात्राऽऽग्रह-वर्षद्वयाऽवस्थान-सांवत्सरिकदान-प्रव्रज्यामहोत्सव पर्यन्तं स्पष्टं स्पष्टितवन्तः निष्क्रम्यागारात्प्रतिपन्ने च प्रव्रज्यां स्वाभाविक उपसर्गसंसर्गोऽनेकधा जातः सोढश्च सर्वोपिःमहात्मना, तेन ख्यातश्च धन धान्य-राज्य-राष्ट्रवृद्धि प्रभृतेर्मातापितदत्तं वर्धमानाभिधानं परावृत्य महावीराऽऽख्यया त्रिदशगणैः, परीपहोपसर्गेन्द्रियादिरिपुगणपराकरणाजातो यथार्थोऽनगारः। लक्ष्यतेऽनेन ग्रन्थकृतामभिमतमत्र यदुत न केवलो वेषो बहिस्त्यागो वा श्रामण्यं किंतु ब्रतोच्चारण-तत्पालन-परीषहसहने-र्यासमितत्वाद्यलकृतिरेव । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प उपक्रमः ] मननीयं चात्र निर्दिष्टमनगारवर्णनं समितिभिरीर्यादिभिर्गुप्तिभिः कषायैर्विलीनैरन्तर्बहिःशान्तवृत्त्या आश्रयममत्व-किंचन-ग्रन्थो-पलेपरहिततया कांस्यपात्री शङ्ख-जीव-गगन-वायु-शारदसलिलपुष्करपत्र - कूर्म - खडिविहग-भारण्ड- कुञ्जर वृषभ--सिंह- मन्दर--सागर-चन्द्र-सूर्य- जात्यकनक- वसुन्धरा हुताशनदृष्टान्तैः (निरूपितया प्रतिबन्धस्य ) असत्तया च द्रव्य-क्षेत्र काल-भावविषयया सततमात्मश्रेयोऽर्थिभिः साधुभिस्तदनुसृतेर्मोक्षाङ्गतामभिमन्यमानैः । ज्ञान- दर्शन - चारित्राऽऽलय-बिहारवीर्यार्जव मार्दव- लाघव क्षान्ति-मुक्ति-गुप्ति-तुष्टि - सत्य-संयम- तपः सुचरितोपसेवित-निर्माणमार्गाचा - त्मभावनाकारणानि श्रीमत आख्यातानि । [- ४१ कैवल्यं च यथा यादृश, उत्पन्न, जातश्च यथा लोको, गणधारिणश्वेन्द्र भूत्याद्या जीव-कर्मतजीवतच्छरीर- पञ्चभूतसमानजातिनियम बन्ध-- देव-नारक- पुण्य-परलोक-मोक्षसन्देहभाजः कृताहङ्कारादिप्रभवाऽवज्ञाप्राग्भारा अपि अबोधुः(1) सपरिवाराः, निर्ऋतथ भगवान् त्रिंशद्वर्षाणि गार्हस्थ्ये द्वादश साधिकानि छानस्थ्ये त्रिंशत्कैवल्ये परिपाल्य मध्यमाऽपापायां कार्त्तिकामावास्यायां, जातं चान्तरं श्रीमतो देवगिणिनः पुस्तक प्रचारिणोऽशीत्यधिकनवशतमानं, विहारश्च भगवतो जातो मगधावनौ प्राचुर्येग, चतुर्मास्योप्यत एवास्थिक- चम्पा - वैशालिक-वाणिज्य- राजगृहीयनालन्दबाहिरिका-मिथिला-भद्रिका-लम्भिका श्रावस्ती-प्रणीत भूमि-प्रभृतिष्वेव जाताः । 'जन्मपूतं क्षत्रियकुण्डं निवृतिपूता चेयं मध्यमा न तथा वर्णित वर्णनास्पद' मिति कचित्, तन्न चाह, नहि जैनैस्तावदभिमतोत्कृष्टता धनधान्यादिना, किन्त्वात्मसमृद्धयैव, प्राप्तर्द्धिवर्णना तु पुण्यप्राग्भारफलदर्शनाय, तथा च "चिच्चा रज्जं चिच्चा रट्ठ" मिति सूत्रमप्याऽऽह तदानीं तस्याऽ पर्दिकतां कथितश्च "सिद्धस्थे राये" त्यनेन च राज्याऽन्वयः " सिद्धत्थे खत्तिए" इति तु गर्भसंक्रम" कारणतयैवोक्तं क्वचित्क्वचिदिति विमर्शनीयं विबुधैर्विगतमालिन्यैः । तदेवमाऽऽख्यायाऽन्तिमार्हच्चरितमाऽऽसनोपकारित्वेन पश्चानुपूर्व्याऽभिप्रेतत्वाद्वा जिनचरिताऽऽख्यानस्य श्रीपार्श्वप्रभ्वादिचरितानि प्रारब्धानि व्याख्यातुम् । तत्र श्रीपार्श्वप्रभु ने मिजिनयोश्चरिते आवेद्य शेषाणामजितान्तानां विंशतेरन्तराण्येवाख्यातानि विस्तृतिभिया कुतोऽपि वाऽन्यस्मात् कारणात्, तच्च्यवननक्षत्रादि तु सर्वमस्त्येव चावश्यके प्रथमानुयोग प्रधाने वर्त्तमानाऽवसर्पिणीवरव्यवहारप्रवर्त्तकत्वेन चाऽऽविर्भावितं श्रीयुगादिनाथचरितमन्ते सविस्तरं । ८० तत्र श्रीपार्श्वप्रभुवृत्ते तपोऽज्ञानावष्टब्धं, तत्फलं, तद्वतां भवान्तरानुयायिवैरवत्ता, सम्यग्दृक्प्रभावात्तद्वतां श्रेयश्च श्रेयमन्येवमुपद्रवकारिणामपीति । श्रीनेमिजिनेश्वरचरिते परिग्रहप्रसक्तानां भयं स्वजनाद् विबुधवाक्यादप्यनिवृत्तिः शङ्कायाः, प्रेरणं दाराणां विवाहादावतिधर्मिष्ठानां तादृशेऽपि सदयताऽऽशयदाढ्य निर्लोभता चिंतनं, भयास्पद Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] [ प्रस्तावनासमहे० स्य सोदरस्यापि बलहीनत्वाऽऽकाङ्क्षोपायाऽन्वेषणा, तस्य निष्कामता, प्रव्रज्या, पत्यनुयायिता सत्याः, विषयवासना मत्तवाचाल नरवचन चेष्टाप्रसंगेप्यचलतः शीलप्रष्ठानामिति । चरिते युगाऽऽदीश्वरस्य सृष्टिव्यवहारारम्भो, राजादीनामुभय लोकहिताऽपेक्षया शास्तृत्वं, राज्यस्य प्रजोपकारिता, कला-महिलागुणानां चोदाहर्तृ ' ता, निर्वाणाऽभिकाङ्क्षिणां परिहारो राज्यावृद्धे:, निरभिष्वङ्गताऽऽहारे देहे परिजने यत्र कुत्रापि च, मोचनं च भावदयापरीतान्तःकरणतया स्वजनानामपि, उपदेशो राज- रङ्कसमतया, निःश्रेयसायोचितकारिता चोत्तमानामनुत्तमपथप्रवृत्तानां, भक्तिश्चोपकारप्रवराणां कलेवरस्यापि पवित्रपुद्गलानां परिग्रहः श्रेयस्कामानामित्यालोचनीयं विवेकलोचनानां । तदेवं निगदिते निरन्तरोपकारश्रेणिसाधितजन्तु जात कल्याणानां चरिताभिधान आये वाच्ये वाच्ये द्वितीये च स्थविरावलिलक्षगे, आरम्भ वैशले यायावच्छ्रीदेवर्द्धिगणिनस्तावत्स्थूललक्ष्याः स्थविरावल्यः प्रोक्ताः, अनेकानां शाखानां कुलानां च तिरोभूतत्वेन यथार्थतयाऽलक्ष्यमाणत्वात् न यथावल्लक्ष्यन्तेऽधुनाताः ( तनाः) । विशेषतोऽवधारणीयं चेह श्रीमज्जम्बूस्वामिवरिते संस्कारप्राबल्यं, शीलसन्नाहयुतता, प्रतिबोधशक्तिश्वाऽप्रतिहता । वर्ण्यमाने श्रीस्थूलभद्रे भगवति ब्रह्मचर्य संकल्पदाढ्य मागमानुसारिगुरोर्म हिमाऽव्याचाघा 'चतुर्मासीस्थितिः, संसर्गेपि योषितोऽस्खलिता शीलसंपत्तिः, प्रतिबोधशक्त्या मार्गावतारस्तस्यास्तया च रथकारस्य, प्रतिपातः सिंहगुहाश्रयिणो दर्शनमात्रात्, क्लेशपरंपराऽसहनं व्रतस्थितिश्च । श्रीमति वज्रस्वामिनि तु प्राग्भवस्मृतिर्ब्राल्येऽपि वैराग्यं मातुरुगाय रोदनं सभायां बादो, रजोहरणग्रहणायाऽन्याऽनादरः, पदानुसारिता, तीर्थप्रभावना, संघवात्सल्यमुपयोगकुशाग्रता च । आचार्ये आर्यसमिते योगचूर्णप्रभावः, प्रियग्रन्थे च मन्त्रचमत्कार इति । ततो वाच्ये तृतीये पर्युषणाकरणसमाचारी पञ्चाशतैव दिनैरिति निर्णयस्तत्र शास्त्रीयः, चतुर्मासीयाशन - विकृति ग्लानवैयावृत्य-गोचर वर्या-गृहाद्यत्रस्थान-सङ्खडी--लोच-वर्षागमनो-पाश्रयमात्र काऽऽदिग्रहण-क्षमणप्रभृतिः प्रकटीचक्र े प्रकटयशस्कैः पूज्यैरत्र । विद्यन्त एवाऽनेकाः प्रस्तुतटीकाव्यतिरिक्ताष्टीकाः, परमाधुनिकसाधूनां न तथाऽऽनन्दप्रदाः प्राकृताऽऽदिप्राचुर्यात्ता इति प्रार्थिताः पूज्या विबुधविजयैः श्रीरामविजयपादारविन्दमधुकराभैः नूतनवृत्तौ प्रार्थनाभङ्गभीरुभिराख्या पूज्यैः शोविता चेयं श्रीभावविजयगणिभिः श्रीविनय विजयोपाध्याय सपक्षैः । वाचनप्रथा चाऽस्याः पर्युषणापर्वणि प्रायः सर्वत्रेति देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तको द्धारा ख्याल्लक्षद्रम्मात्मकात् मुद्रितायाश्चाप्यस्या मुद्रणमारब्धमस्माज्ज्ञानकोशाचदध्यक्षैः । 53 Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ कल्प. उपक्रमः] विद्यन्तेऽस्प चूर्णिर्मागधी भाषामयी, किरणावली-दीपिके इति च वृत्ती, अन्तर्गच्यानि चाऽपरिमितानि, खाऽऽद्यख्याताः कल्पलताद्याश्च वृत्तयोऽष्टाऽष्टादिव्याख्यानमय्यश्च, सन्त्येवात्र तत्तन्मताऽनुगम्या इति विरम्यतेऽथातःक्षन्तव्यमुक्तं चेदलीकं मतिमोहाऽऽदिना कृपाभिलायुके मयि विवाय कृपां श्रीमदकलङ्क-देवपूज्य-चतुर्वर्ण-श्रमणसङ्घपादपङ्कजचञ्चरीके ॥ मास्यापाढे सिते वर्षे * द्वीपरसनन्देन्दुगे । आनन्दोऽनन्तजिद्भक्तश्चतुर्दश्यां जगाविमम् ।।१।। संसारिजीवानामिच्छा अभिलषन्ति समेऽपि च सौख्यं, ___दुःखेन वर्जितमनन्तम् । ईप्साऽपेतं तत्परमृते ___ऽव्ययं न भुवि कुत्राऽपि ।। ___+ + + ममता-त्यागशिक्षा तन्न विरहय्य चरणं, सत्यपि युगले वियोव-दर्शनयोः । चरणार्हो न च सममः, का वार्चा बाह्यलुब्धस्य ? ॥ पू० श्री आगमोद्वारकाऽऽचार्यप्रणीतभी दानधमें पञ्चपञ्चाशिकाप्रकरण श्लो० ३५-३६ ALBULDAN -AAAHITYA - - * द्वीप षड्नन्द चन्द्रगे Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्रीकल्पसूत्रवृत्ति __सुबोधिका । प्रस्तावना-टिप्पणम् (आनन्द-लहरीसंज्ञम् ) १. अद्वितीयश्चासौ महिमा च, तद्रूपरत्नानां रत्नाकरस्तम् इति विग्रहः । प्रतिपर्युषणायामाबालगोपाल प्रथितकीर्तिभाक्त्वेनाऽऽजैनकुलोत्पन्नसामान्यश्राद्धोत्तमयतीनामवश्यश्रवणीयत्वेनाऽक्षरशः यस्याऽपूर्वजनमनश्चमत्कृत्याऽऽधायकमहिमा समेषां प्रथितोऽस्ति, तस्य सूचैतत्पदेन व्यज्यतेऽत्र पूज्यवर्थः श्रीमद्भिरागमोद्धारकैः। २. एतच्छब्दस्य मुख्यो ह्यर्थ उदारत्व-दातृत्वादिरूपो वर्त्तते, परमत्र लाक्षणिकत्वेन बुद्धिगतौदार्यत्वं विव क्ष्य तद्वत्सु मूर्धन्याः शेखरा इत्यर्थः करणीयः। ३. श्रेयःभूतं परमकल्याणरूपं यत् निःश्रेयसम्=मोक्षाऽऽख्यं, तस्य निबन्धनानां-दर्शन-ज्ञान-चारित्राणां निदानभूतं यत् इति विग्रहः। ४. 'प्रणेतृ' शब्देनाऽत्र सङ्कलनाऽपरर्याय-नि!हणा'-प्रणयनरूपं कर्तवरूपमवबोध्यम् । मौलिकी रच नाऽऽदिरूपं न सङ्गच्छते श्रीमद्भद्रबाहुस्वामिनाम्, दशाश्रुतस्कन्धाऽष्टमाऽध्ययनतया पूर्वगतोद्धृततया चाऽस्य महामहिमशालिनः श्रीकल्पसूत्रस्य ‘पयुषणाकल्पा'ऽपराऽऽख्यस्य प्रथिततमत्वात् । ५. अयं हि शब्दः आगमिकशैलीपरिचितानां नाभिनवः, यतोऽस्मिन्नेव श्रीकल्पसूत्रे तीर्थकृतांऽतत्तच्छा. सनोपज्ञमुक्तिमार्गस्य वहमानत्वनिर्देशप्रसंगे 'पट्टपरम्पराऽर्थे 'युग' शब्दः "युगान्तकृभूमि" पदद्वारा प्रयुक्तोऽस्ति, ततश्चात्र “षष्ठपट्टधरत्वेन"-ति तात्पर्यगर्भोऽर्थोऽवबोध्यः । ६. पीरनिर्वाणसत्कद्वितीयशताब्द्यामित्यर्थः । ७. 'रजनीचर' शब्दो हि सामान्यतः राक्षसार्थवाची वर्तते, परमत्र तुसामान्यतः रात्रिविचरणशीलत्वरूपाऽ. र्थविवक्षया रात्रौ येषां प्रचारः साहजिक एतादृशपापव्यापाराऽऽसक्तदुर्मतिजनतारूपतात्पर्ये 'रजनिचर' पदं ज्ञेयम्। ८. एतत्पदेन सम्पृक्तत्वार्थो ज्ञेयः । ९. कालश्च परिश्रमश्चेति कालपरिश्रमौ, आयतौ विस्तीर्णौ बहू च तौ कालपरिश्रमौ चेति आयतकालपरि श्रमी, ताभ्यां लभ्यानि, एतादृशानि यानि पूर्वाणीति समासं कृत्वा तेषां लाभेन विकलानामिति सम्बन्धयोजना कार्या। १०. इदं हि पदम् समस्तार्थवाचि अत्रापि ज्ञेयम् । ११. 'अवम' शब्दो हि नवीनवाची अप्यस्ति, ततश्च नास्ति अवमं यस्मात् इति विग्रहः । अथवा हीनाऽपर पर्यायोऽप्यऽवम' शब्दोऽस्ति, अतश्च 'अनवमा'-दित्यस्य 'श्रेष्ठात्' इत्यप्यर्थो भवेत् । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प० टिप्पणीः ] [ ४५ १२. पर्युषणापर्वणि प्रतिवर्ष वाच्यमानायां श्रीकल्पसूत्रसुबोधिकावृत्तावन्यत्र च बहुत्र ग्रन्थेषु यथोत्तर द्विगुणहस्तिप्रभितमषीपुञ्जविलेख्यत्वं पूर्वाणां व्यावणितमस्ति, ततश्च यथोत्तरं द्विगुणवृद्धया नवमपूर्वस्य षट्पञ्चाशदधिकद्विशत ( २५६ ) हस्तिमितमषीलेख्यत्वमापद्यते, अनन्न्तरपूर्वस्याष्टमस्य हिं यथोत्तरवृद्धयाऽष्टाविंशत्यधिकशत १२८ हस्तिमितमषीलेख्यत्वात् । १३. आप्ताऽभिजनाऽभिसन्ध्यनुसारं पञ्चधनुःशतभितत्वमेतेषां हस्तिनामभिमन्तव्यं सुज्ञैः । १४. एषा हि सार्द्धगाथा श्रीअभिधानचिन्तामणौ (देवाधिदेवकाण्ड श्लो० ३३-३४३) समुपलभ्यते । १५. लोकश्च अलोकश्च लोकाऽलोकी, तयोरालोकः-ज्ञानं, तस्याऽऽभोगः विस्तारः तस्मै प्रत्यलं समर्थ एता' दृशं यत् केवलं केवलज्ञानं तेनाऽलङ्कता ये महर्षयः केवलिनः, तेषां तुल्यया प्ररूपणया रुषितन्वं सहितत्वं तस्मात् इति विग्रहः । १६. दशाश्रुतस्कन्धसम्बन्धिन्यामिति भावः, 'चूर्णी' इत्यत्राऽस्य सम्बन्धः।। १७. श्रीस्थानाङ्गसूत्रे प्रथमस्थाने (सू० ७५ पत्र ५६ पृ० १ पं० ८) समुपलभ्यते ह्ययमुल्लेखः । १८. सर्वसत्त्वोपकृतिदक्षानामागमानां पुरुषाऽऽकारेण स्थापनायाः 'नन्दिचूरिण' गाथया संपूचितायाः पूज्याऽऽ गमोद्धारकादैः सर्वप्रथमं चित्रापितायाः सूर्यपुराऽऽगममन्दिरभूमिगृहे स्थापितायाश्च "प्रागमपुरुषे". तिसज्ञया प्रथितायाः अत्र विवक्षाऽस्ति । आगम-पुरुषसम्बन्धिमौलिकस्वरूपजिज्ञासुभिः टिप्पणीसम्पादकस्य गूर्जरभाषालिखितं "श्रीप्रागमपुरुषनु रहस्य" संज्ञपुस्तकमवेक्षणीयं धीधनैः । १९. श्रीकल्पसूत्रचरमभागीयसूत्रोल्लेखोऽयम् । २०. शङ्काऽर्थक "आरेका" पदवत् इदमपि पदं शङ्कार्थकमेवेति विज्ञायते । २१. एतदपि 'श्रीकल्पसूत्र' चरमसूत्रीयमिति । २२. एतस्मिन् प्रकृते 'श्रीकल्पसूत्रे'। २३. नवमपूर्वस्थानामित्यर्थः । २४. श्रीफल्पसूत्रम् । २५. चरमसूत्रनिर्दिष्यरूपेण श्रीमहावीरप्रभुनिर्दिष्टम् । २६. 'प्रज्ञापना' सूत्रं हि स्थविरेऽऽरार्यश्यामाचार्यः सङ्कलितं, तथापि उपयोगिनां तेषां तेषां सूत्राणामानु पूर्वीश अक्षरानुपातिसमावशे कृतेऽपि कुत्र कुत्र यथाई सोचस्यापि कृतत्वात् 'विरचित'-मितिप्रथिते रपि समीचीनत्वमवधार्यम् । २७. उच्छृखलैः=कुतर्कबलजीविभिः वादिविशेषः प्रेरितः इति भावः । २८. श्रीवीर-पार्श्व नेमि-ऋषभतीर्थकृतां हि चरितानां प्रान्त्यभागे समुल्लिखितेषु सप्तमे हि व्याख्याने भीनेमि चरित्रादूर्ध्व श्रीऋषभचरित्रादागुल्लिखितेषु जिनान्तरेषु चेत्यर्थः । २९. अष्टमे हि व्याख्याने । ३०. श्रीकल्पसूत्रस्य पुस्तकारूढीकृतस्येत्यर्थः । ३१. मथुरापार्श्ववर्तिकंकालीटोलासंज्ञप्रोत्तुङ्गलघुगिरितुल्यप्रदेशखननलब्धस्य ब्रिटिशगवर्मेट व्यवस्थापि तस्य प्रचुरतरविशिष्टैतिह्यसामग्रीजातस्य समुल्ले खोऽत्राऽऽगमावतारः भीमद्भिविहितोऽस्ति । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनासंग्रहे ३२. नैकप्राचीनशाखा-कुल-गण सूचकत्वेन प्रामाणिकैतिह्यसन्दर्भसङ्गामकत्वेन शिलालेखस्यापि पूज्यत्वाऽर्थ सूचकमिदं विशेषणं सापेक्षतया सङ्गमनीयमत्र । ३३. तस्या: आचार्यपञ्चशत्याः विश्वास प्रामाणिकत्वेन निश्चितिं ऋते विना अर्हता-तीर्थकृता आख्या तोऽपि निरपितोऽपि आगमः श्रतज्ञान विश्वासं='पुस्तकारूढो हि आगमः प्रामाणिक' इति प्रथिति न अर्हेत्=नोचितत्वेन मान्यो भवेदिति अर्थानुसारिणी अन्वययोजना पदानाभवबोध्या। ३४. अन्यथा-वाचनासमये सङ्गतानामाचार्याणां पश्वशत्याऽर्पितया प्रामाणिकत्वमुद्रया विश्वासार्हाणां पुस्तकाऽऽरूढाऽऽगमानां प्रामाणिकत्वव्यवस्थारूपवस्तुस्वीकाराऽभावेहि तत्रभवन्नाम्नैव-श्रीमत्पूज्य. देवद्धिगरणीऽऽक्षमाश्रमणनाम्नैव सर्व पुस्तकारोह्यमाणं श्रुतम् आविष्कृत्य प्रतिपाद्य स्वमनीषाकल्पिवतं-स्त्रमतिकल्पनाप्रथितम् प्रख्यापयेत्-माननीयं भवेत् इति दुरूहाऽनिष्ठाऽऽपत्तिप्रदर्शनेन पूज्याऽऽगममर्मज्ञाऽऽचार्यपादैः श्रीदेवद्धिगणिपादानां श्रुतस्य पुस्तकारोहणादिकं तत्कालीनाऽऽप्ताऽभिजनाऽऽचार्यपञ्चशतीमान्यतरत्वं संसूचितम् । ३५. यथा चाऽन्ययूथिकैः दर्शनान्तरीयैः पुराणानां स्वमतिकल्पनया विरचनां कृत्वा तत्तदाऽऽप्तजनाऽभि सन्धिमूलकत्वव्यवस्था विशकलिता, तथा चात्र जातं भवेत् इति तर्कोत्प्रेक्षाऽत्र बोध्या। ३६. पर्यवसाने अष्टमव्याख्यानप्रान्त्यभागे स्थितं स्थविरावल्याः भेदरुप-पृथगर्थसूचकं श्लोकयुग्मं पुस्तका ऽऽरोहणाऽऽगमवाचनाकारकश्रीयुतदेवाड़िगणिपादपरिचयावहामिति तात्पर्यगमकविग्रहाऽऽधारेणाऽत्र सङ्गतिः कार्या। ३७. 'तत्' पदेनाऽर्वाचीनत्वाऽभावः प्राचीनत्वं वाऽवबोध्यम् । ३८. इदं हि पदं नवमब्याख्यानसूचकं विज्ञेयम् ।। ३९. सद्गतेः निदानरूपे सदाचारे लोलुपाः सततमुद्युक्तास्तानिति विग्रहमत्र सम्प्रधार्य सदाचारपालन निबद्धकक्षानिति भावार्थोऽत्र विज्ञेयः । ४०. भूयोभूयः लुप्यन्ते कर्मादिभिः जीवाः ययेति लोलुपा वासना, सा न विद्यते येषां ते इत्यलोलुपास्तान , मोहोद्रेकरूपवासनारहितानित्यर्थः । ४१. सुष्टु धर्मो विद्यते यस्य स इत्येतादृश सुधर्मा पदेन लक्षणाविधया प्रथमदेवलोकस्य तद्वासिदेवानां तदिन्द्रस्य वा ग्रहणं विधायोपलक्षणात् सर्वैः देवैः अंनते अंहिपने यस्य सः एतादृशसुधर्मा-सुधस्विामीसंज्ञपंचमगणधरः स आदौ यत्र, तथा देवद्धिगणिक्षमाश्रमणः पर्यवसाने यत्र तानिति समा सेनाऽत्राऽर्थसंयोजना गमनीया धीधनैः। । ४२. नवमव्याख्याने पर्युषणाव्यावर्णनमादौ प्रतिलेखनोदे शश्चान्ते' इति-सूचकमेतत् पदमत्र । ४३. एतद्धि पदमप्रेतन “भनन्ता.. "धर्माऽऽधारस्य वर्षाऽऽवासस्य" इत्येतेन सह संयोजनीयं । ४४. अर्हत्ता=अर्हतीति अईन्-योग्यस्तस्य भावः अर्हत्ता योग्यता तस्य अवलोकनेन, एतत्पदस्य वर्षावासस्ये त्यनेन सह सम्बन्धः गमनीयः। ४५. निशीथमर्द्धरात्रमुच्यते" इत्यभिधानसंग्रहोक्तेः प्रस्तुतकल्पसूत्रस्य दशाश्रुतस्कन्धगतत्वहेतुकच्छेद. सूत्रीयगोपनीयत्वं वर्षावासस्थितिकल्पस्य पञ्चरात्रिकमर्यादया प्रारभ्यमाणत्वं संसूच्यते । ४६. एतद्धिपदं बुद्धिरूपपिटकतोऽन्यूनपदमात्राबिन्दुकं यथावस्थितमेव मूलसूत्रस्य श्रद्धाबहुलं पठनं विधेय मिति सूचयति । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प० टिप्पण ] [ ४७ ४७. तत्पराणामित्यर्थः । ४८. कान्तं महानन्दं यत् पदं मुक्तिरूपं तं प्रदत्ते योऽसौ इति विग्रहः । ४९. अश्रद्वानमूलकयोगाऽकरणरुचिमन्तो हि तृणेनाऽऽत्मानं चिच्छादयिषुचौरवद्धि कूटयुक्तिप्रदर्शनमेवं ___कुर्वन्ति यत्-“योगबहने नोबीकल्प्यवस्तूनामाधाकर्माऽऽदिदोषदुष्त्वं तत्तत्क्रियाऽशुद्धिवसतिशुद्धेरभावः, कालग्रहणादिविधिसत्यापनाभावःसंवट्टाऽऽउत्तवागयग्रहणमर्यादाशैथिल्यनित्यादिदोषारत्तिबहुधे". त्येतत्सर्वमसामिति पूज्यागमप्रज्ञावतंसैरभिव्यज्यते । ५०. वैदिकमतावलम्बिभिहि यज्ञादिषु मन्त्रसंस्कृतमांसादेरभक्षणे प्रत्यवायापन्तिः प्ररूप्यते, ततश्च प्रत्य वायभियाऽपि कैश्चित्तदभक्षणेच्छुभिः मन्त्रसंस्कृतत्वादिधिया निर्दोषत्वमभिमत्य मांसाधुपभोगः क्रियते, तद्वदत्र नीवीमध्ये आधाकर्माऽऽदिदोषदुषभुषभोज्यमेवेति न जहांगीरीयाज्ञा कैरपि बलादापाद्यते अतः एतव्याजेन योगेऽश्रद्धानं तु प्रबलमोहोदयाभिव्यञ्जकमिति भावः । ५१. अयोग=योगवहनरहितमित्यर्थः । ५२. आवश्यकसूत्रत्र्याख्या सर्वाऽऽगमानां प्राथम्येन लभ्यते, तस्या अपि ज्ञानं धारयता सामान्यसाधूनामप्येतत् सुविदितं यत् __ "गुरूणां बहिभूमिगमनप्रसङ्गमुपलभ्य साधूनामुपधिविण्टलिकाब्रजं साधुगणत्वेन संनिवेश्य तत्पुरो गम्भीरध्वनिना बिविधाऽऽगमयाचनाऽभिनयं नाटयतां प्रभावकप्रवराणां श्रीवज्रस्वामिनां वाचनामभिलाषुकैः समस्तसाधुभिः वाचनाऽऽचार्यपदप्रदानद्वारा वाचनादानाऽनुग्रहं समभिलषद्भिः विहिताया अनुनयपूर्णप्रार्थनाया: श्रीमद्भिः गुरुवरैः योगवहनपूर्व गुरुनिश्रया श्रुतानध्ययनेन हेतुनाऽस्त्रीकारः कृतः" इत्येतत्प्रसङ्गस्याऽत्रोल्लेख ऊहनीयः समुपासितगुरुचरणैर्विद्वद्भिज्ञवरैः । ५३. 'विहित' मित्यर्थः । एतत्पदस्याऽग्रेतन 'वाचन'-मित्यनेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः । ५४. 'तत्' पदेन पुत्रशोकार्तस्याऽऽनन्दपुराऽधिपतेध्र वसेनस्य निर्देशोऽत्र विज्ञेयः । ५५. अनु अनुकूलमत्राभिमुख्येन अक्षाणां इन्द्रियागामिति विगृह्य समक्षं-प्रत्यक्षमित्यर्थोऽत्र विज्ञेयः । ५६. उत्=उत्कर्षेण गुरुनिश्राऽऽदिना ऊढाः विहिताः तत्तदनुष्ठानाऽऽसेवनाऽऽदिना योगाः श्रुतोपचाररूप तत्तत्तपोऽनुष्ठानानि यैरितिविग्रहद्वारा सम्यग् यथामर्यादं योगवहनकारिसाधूनामुपलक्षणमत्र विज्ञेयम् । ५७. 'वृति'-पदेन धान्याऽऽदिरक्षणार्थ अभिक्षेत्रं कृषकैः दीयमानकण्टकाद्यनभिभवनीयवस्तुजातभित्तिरूपलक्षिता, या च भाषायां 'वाड़' इति कथ्यते। अत्र चैतत्पदरूपकेण पूज्यानां श्रीमतां धर्मसागरोपाध्यायानामविच्छिन्नपरम्पराभ्राजिजिनशासनरक्षाप्रयोजकत्वमभिव्यज्यते । ५८. एतेन वाक्यसन्दर्भेग प्रस्तुतायां वृत्तौ कुत्रचित् दृश्यमानसागरशाखीयविदुषां तेजोऽभिभवकरणे हाऽऽभासं ध्वनन्ती तात्त्विकपर्यालोचनादक्षाणां सुधियां रूचिवैषम्यकारिणी भिष्टकर्करिकान्यायेनाssज्ञानां बुद्धिभेदकारिणी चापेक्षावशंवदत्वपरिहानसूचिका मार्मिकवाक्यपद्धतिः सूचितेत्यस्वारस्यगर्भ सूच्यतेऽत्र श्रीमद्भिरागमावतारानस्थस्वर्गतैरागमोद्धारकपादैः । ५९. प्रत्र खलु 'आवेश' पदेन तत्तन्निमित्तबलेन सरागसंयमाऽऽदिहेतुना साहजिकोत्पद्यमानोर्मिनातरूपा ऽप्रशस्तचित्तवृत्तिसूचनं ज्ञेयम् , तेन च सानुबन्धद्वेषस्य विवक्षा जलयष्टिन्यायेन च प्रासंगिकोत्पद्यमा. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] : [प्रस्ताषावहे नाशुभचित्तवृत्तीनां तत्तन्निमित्तापाये विलीयमानत्वप्रसिद्धिमुपजीव्य प्रस्तुतवृत्तिकत 'णां चित्तदोषे ज्ञातेऽपि महापुरुषत्वाऽध्यायातः ध्वन्यते। . ६०. 'तत्' पदेन पूर्वनिर्दिष्द्वेषाऽऽवेशपरामर्शोऽत्र । ६१. 'यथा-तथा' पदेनाऽत्रोमिमूलकाऽसम्बद्धाऽविचारितपदरचनासम्भवेनाऽत्राऽसङ्गतिप्रायहेतूपन्या साऽऽदिसूचनं ज्ञेयम् ।। ६२. सफलेषु निःश्रेयसेषु-उत्कृषकल्याणरूपेषु अभिलषणीयं यत् अव्ययपदं मोक्षरूपं तस्य योऽध्यारत्नत्रयो समाराधनरूपस्तस्याऽऽराधने कल्पः समर्थः यः कल्पः पर्युषणाकल्पाऽपराव्हदशाश्रुनस्कन्धीयाऽष्टमा. ऽध्ययनरूपकल्पसूत्रं, तस्य समग्रं-रहस्यरूपं यत् सत्त्वानां क्षामणं, तस्य प्राधान्यमुद्दिश्य स्वदोषाः परगुणाः ख्याप्यन्ते यत्रेति समाससङ्गतिरानुसारिणी विज्ञेया। ____ यस्मिन् हि पर्वाधिराजे सकलजीवानां क्षामणं मुख्यं तत्रैव परमपवित्रकल्पसूत्रप्रवणप्रसङ्गे भावेशमूलकाऽसम्बद्धप्रलापरूपसन्दर्भण सुप्रद्वेषसर्वोत्थान हि सर्वथा अनुचितमिति परमार्थः । "अन्यदिने कृतं पापं, पर्वदिने विछुट्यति । पर्वदिने कृतं पापं, वज्रलेपो भविष्यति ॥" -इति प्रथिता गाथाऽत्र स्मर्त्तव्या। . ६४. 'अपि'-पदं हि पर्वदिने कषायोदीरणस्यानौचित्यहेतुना सह पर्वदिनेऽनुचितकृत्यस्य दुरन्ततमत्वरूप हेतोरभ्युच्चयं निर्दिशति । ६५. 'एतत्'-पदेन पर्वदिनेषु कषायोदोरणाऽऽदिपूर्वोक्तहेतुपरामर्शः । ६६. 'परमभावे' जीवनशुद्धिगभूते परमार्थाऽऽलोचने अभिपतन्ति ये ते इति विशुद्धसलक्ष्यशालिना मितिभावः । ६७. श्रीपंचाशक प्रकरणे (पंचा० १७ गा० ११ वृत्तौ) समुपलभ्यते हीदम् । ६८. अत्र हि वृद्वेर्नियमस्याऽभाव इति मध्यमपदलोपिसमासविवक्षा कार्या, तेन सर्वेषामुत्सूत्रभाषकाणामान न्तसंसारो भवेदेवेति न नियम इति विज्ञेयम्।। १६. इयं हि गाथा आवश्यकनियुक्तौ (गा० ४३८) एवमुपलभ्यते, तथाहिः "दुम्भासिएण इक्कण, मरोई दुक्खसायरं पत्तो। भमिनो कोडाकोडिं, सागरसरिसरणामधेजारणं ।।" ७०. परमपूज्यत्वसूचकेनैतत्पदेन पूज्याऽऽचार्यहरिभद्रसूरीणां श्रीयुतमलय गिरिसूरीणां च परामर्शोऽत्र विज्ञयः। ७१. एते हि पदे श्री आवश्यकसूत्रीयप्रतिक्रमणाऽऽख्यचतुर्थाध्ययनगत "इच्छामि ठामि काउस्सगं जो मे देवसिप्रो" इति दैवसिकाऽतिचाराऽऽलोचनसूत्रगते विज्ञेये। ७२. अत्र च प्रकृतविषयसङ्गामकशैल्या विचार्य 'श्रीमावश्यकस्सत्रम्बन्धिन्यो' रित्यध्याहार्यम् । ७३. श्रीतंदुलवैचारिक (सू. १५) वृत्तौ एवं हि पाठ उपलभ्यते यत्: "xxx तथा श्रीवीरात् ५८४ वर्षे श्रीवा शमं पूर्व संहननचतुष्कं च गतमिति." . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्प० टिप्पण ] [ ४९ एतद्धि वर्णनं खलु संहनन चतुष्ककालाऽवस्थितिज्ञापन परमाऽऽवश्यकचूर्णि-वृत्ति-श्रीत्रिषष्टिशलाकापुरुषचरिताऽऽदिग्रंथोल्लेखाऽनुरोधेन सङ्गमनीयम् । अन्यथा चूर्णिकृदाद्यभिमतेन सह विरोधोद्भावनं स्यादिति सद्गुरूत्तंसाऽऽगमतत्त्वतलस्पर्शिगीतार्थमूधंन्याऽऽगमोद्धारकाऽऽचार्यमतल्लिकानां हृद्गतः गर्भार्थः समन्वयशैल्योहनीयः । ७४. आचेलक्यविधानस्य यत् मर्म-रहस्यं तस्याऽनवधारणेनेति मध्यमपदलोपिसमासमुपयुज्याऽत्र सङ्गतिः कार्या। ७५. 'तथा' पदेन महाव्रतनिदानत्वपरामर्शोऽत्राऽवबोध्यः । ७६. एषा हि मान्यता गच्छाऽभिनिवेशवतामुपकेशगच्छीयानां स्वगच्छप्रतिष्ठाविवृतीच्ळावतां स्वाभिमत्येन विकल्पिताऽस्ति । ७७. सुखातिशये मग्नस्याऽपि धर्मोद्यमस्याऽवश्यंविधेयत्वाच्छक्रस्तवस्योपबृह्यत्वादेव हेतोरित्यर्थः । ७८. ज्योतिश्शास्त्रानुसारेणलौकिकजनैरापादितमुख्यत्वनिरासायाऽत्र "ज्ञापक' पदं प्रयुक्त श्रीमद्भिः । एतेन च व्यज्यते यत्-ज्योतिश्शास्त्रं हि कर्मोदयादेापकमेव, न हि तेनैवाऽऽपद्यते बलात् किमपि, आपद्यमानसुखाऽऽदिकं हि प्राक्कृतकर्मोदयाऽपेक्षमित्यतः ज्योतिःशास्त्रसूचितविषमग्रहा. ऽवस्थितिज्ञानेन शोकादेरकरणीयता प्रशस्येति । ७९. ब्राह्मणकुलस्य भिक्षाककल्पकुलत्वेन तदपेक्षया विशिष्टतां सिद्धार्थनरेन्द्रकुलस्य निरूपयत् "खत्तिए" पदं जात्यकुलसूचकं विज्ञेयमिति पूज्याऽऽगमप्रज्ञाः सूरिवर्याः दध्वनुरत्र। ८०. अयं हि शब्दः दृष्टिवादस्य भेदपञ्चकीयतृतीयभेदाऽनुयोगाऽऽन्तरभेदयोः प्रथमानुयोग-गण्डिकानुयोग रूपयोः सूचकःसन् कथा-चरिताऽऽदिग्रन्थानां प्रथमानुयोगत्वेन रूढ़संज्ञां समर्थयति । ८१. समर्थ्यते चैतत् ग्रन्थप्रान्तभागीयप्रशस्तिगतेनाऽमुना श्लोकेन, तथाहिः "श्रीरामविजयपण्डितशिष्य-श्रीविजयविबुधमुख्यानाम् । अभ्यर्थनाऽपि हेतु-विज्ञेयोऽस्याः कृतौ विवृतेः ॥" ८२. एतद्धि व्यक्तीभवति प्रशस्तिगतेनाऽधस्तनश्लोकद्वयेन, तथाहिः "समशोधयंस्तथैनां, पण्डितसंविग्न-सहृदयवतंसाः। श्रीविमलहर्ष-वाचकवंशे, मुक्तामणिसमानाः ॥ धिषणानिर्जितधिषणाः सर्वत्र प्रस्तकांतिकीर्तिकर्पूराः । मीभावविजयवाचककोटीराः, शास्त्रावमुनिकषाः ॥ प्रशस्ति श्लोकौ १३-१४ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकाssलेखित प्रस्तावनासंग्रहस्वरूपे श्रीश्रानन्दरत्नाकरे षष्ठं रत्नं श्रीअध्यात्ममतपरीक्षा प्रस्तावना श्रीमद्वाचकेन्द्राय नमः अध्यात्ममतपरोक्षोपक्रमः समाकर्णित पूर्वमेतद्विपश्चितां यदुत 'श्रीमदकलङ्कज्ञानकलित - जिनेन्द्रप्रणीते जन्तुजात- हिताssवहे पौर्वापर्यविरोधकलङ्कविकलेऽपि च जैनेन्द्रशासने विहायस इव दिनरात्रिभ्यां श्रीश्र - मणसङ्घस्य जातो द्वैधीभावः श्वेताम्बर - दिगम्बराभ्यां द्वयेऽपि च वावद्यन्त एव अहमहमिकया सर्वज्ञानुगतिकतां स्वेषामन्येषां तु संसारापारपारावारपरिभ्रमण निवन्धनमाचख्युर्निन्हवता. केचिनवीनवत्र्मोद्भवभावनाभावितास्तु तृतीयप्रकृतिका इवोभयायो ( १ ) भयानुसारिनराईणालोभान्धा द्वयेषामुत्सर्गापवादाऽनुगतां दिगम्बर श्वेताम्बराणां प्राचख्युः कल्पितामश्रद्धाननिबन्धने सत्यप्यदृष्ट्वैव तद्, आख्यान्ति च त्रयोऽपि यथास्वमाध्यात्मिकां स्वयं स्वयं, कतमषां श्रीमदाप्तमार्गानुसारी यथार्थतयाऽऽध्यात्मिकश्च समुदाय ? इति यद्यपि 'साक्षात्साक्षात्कारिज्ञान विकलेऽस्मिन् किल काले दुवसेयं यथावत्, तथापि यावत्तीर्थं श्रुतधर्मस्य श्रीमदाराध्यतमपादोपदिष्टस्यानुवर्त्तनात्सर्वज्ञोदितेरिव स्यादेव न किं 'ततो निर्णयः ? किमुच्येत च युक्त्य - न्विते तु १, " तस्मिन् सति तन्न भवति, तन्नाऽनाऽऽश्वासः कुत्राप्याऽऽगमगदिते पारगताऽनुमतवे. १२ " ७ भविष्यति चैवमपि आसन्नभव्यानां यथार्थतया तत्त्वाऽथोऽधिगमः श्रद्धानाऽऽदि चाश्रवादीनां, "परेषां तु न विद्यमानेऽपि श्रीमति परमेश्वरे "भास्वत्युलूकानामिव प्रकाशः स्वपरप्रकाशकः भवेत्, अन्यथा स्युरेव " तत्कालीना "अशेषा अपि सभ्याः सत्पदभाजो, न चैतदिष्टमपि मतं केनापि, तथा च "कार्य एव यथार्थतयाऽधिगमाय तच्चानामायासः नह्ययथावद् युक्तं रसायनमप्यपहरेद्वयाधिलेशम् अपि तु कुर्यादेव व्याधिशतानि दुरुद्धराणि, न "चर्ते धर्म विद्यते , Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'कल्प. उपक्रमः ] [ ५१ "सकलाऽनादिरूढमूलाऽऽमयविनाशकं रसायनमपरं, २°कृतमप्यायासं निर्णयाय तत्वानां परोपकारपरायणा विना २'निवन्धं तीर्थप इव गणभृत्प्रतिष्ठां पदार्थसंपत्ति द्वारा न [तं] सफलयितु पारयन्ति, ततश्च युक्त एव श्रीमन्न्यायाचार्याणामायासो यथार्थतत्वनिर्णये तदुपनिबन्धे च. अनुसारिणश्च पूज्याः पूज्यतम चरणानां श्रीमदमास्वातिवाचक-जिनभद्रक्षमाश्रमणकलिकालसर्वज्ञशब्दानुशासनशासनसर्वतन्त्रस्वतन्त्रहेमचन्द्रप्रभूणां पारगतगदिताऽऽगमानां च विद्यमानानामाचारादीनां तीर्थप्रभृतिनदीभूधराणां, परे तु यद्यप्यनुसरन्ति स्वाराध्यतमान् कुन्दकुन्दाऽमरचन्द्र-प्रभाचन्द्राऽऽदीन् वाराणसीदासाद्यास्तत्कालीना नग्नाटाग्रेसरा २ अध्यात्मव्याजेन मोषकाः श्वेताम्बराध्वन इति ख्याताः, परं नावलम्ब यन्त्यागमं पारगतमदिततया, तन्मतं हि "व्युच्छिन्नमेवाऽऽगमकदम्बकं श्रीमद्गणभृत्प्रणीतं समूलं २५तिष्ठते धर्मस्वरूपं इन्द्रनन्द्यादिप्रणीत आगम इति" सत्यपि च चतुरशीतिजल्पपट्टकोल्लिखितेष्यनेकशी विवादसम्भवे मुख्यतयाऽत्र २७ २८तन्मूलभूता धर्मोपकरणधारितादिकाः साधिता न्यायाचार्यैरत्र, व्यक्तो हेतुंदिगम्घरपृच्छाऽऽध्यात्मिकोपहासश्चेति द्वयमत्र निर्माणे, स्पष्टश्चासौ २६ गाथायामेकचत्वारिंशतमान, तथा च यः कश्चित्परुषवाक्प्रसरोऽत्र स तदीयपृछापैचित्र्योपहासमूलक एव भविष्यति इत्यनुमातुसुलभमेव मध्यस्थानां. "न्यायाऽऽचार्यपादाश्च कदा कतमं भूमण्डलं मण्डयामासुः १ का च श्रीमतामुपकारिता ? का च जन्माऽऽदिपाविता भूः ! उ•असाधारणविद्याव्रततिवृन्दारकद्रनिभ श्रीमद्धिनिदानामरवनायमाना के तत्रभवत्पूज्याः पूज्याः ? के च'ततोभवद्भिर्विहिता मिथ्याज्ञानापुरन्धतमसतिरस्कारतत्पर-कल्पान्ततरणिविधानवेधसः सदालोका ग्रन्थालोः ' इत्यादि वेद्यं विद्याऽवदातचतुष्कद्वात्रिंशद्वात्रिंशिकेक्षिभिरिव श्रीमद्ग्रन्थमालातो मुद्रितायाः, शेषा इव शेषीभूताः श्रीमतां ग्रन्थमणयोऽल्पा अपि ख्यापयन्त्येव महिमोदधेर्माहात्म्यमनधं, कथंकारं च कलयामासुरभावं उशेषा अल्पेप्यन्तरे श्रीमतां छन्दोवृत्त्यादिका इति न नियतमनस्यते, सामान्येन तु "ज्ञानावरणनिदान-ज्ञानसाधनोपेक्षादीनि कारणानीति चकास्याच्चतुरेतरजनजातचेतसीत्यलमतीतकालीन3८फलातीतविचारणया. प्रथमगाथोपक्षेपः-स्मृतिमानिन्युस्तावदुपकारितया परगुरु शठाऽसुरकमठविहितविघ्नजलाऽविध्यातध्यानाऽग्निसाधितस्वाऽऽत्मश्रेयांसं श्रीमत्पार्श्वप्रभु °वरीवर्त्तदनगारशतालकृत 'विजयशाखा' 'वीरुत्कन्द-श्रीमद्विजयदानसूरीश्वरपट्टाऽचलाऽचलप्रभ-श्रीमडीरसरिचरणसरोरुहसेवापटपद-श्रीमद्विजयसेनपट-नभोङ्गणनभोमणिं श्रीमन्तं विजयदेवसूरीन्द्रमपरगुरु न्यायाचार्यपादाः कृतज्ञशिरःशेखराः. Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ प्रस्तावनासंग्रहे निर्दिष्टं चाभिधेयनिर्देशकमभिधानं, सम्बन्धप्रयोजनयोस्तु परापरगुरुस्मरणाऽभिधाननिर्दे शेनाभिधेयनिर्देशेन च स्पष्ट एवावगमः, रतः१६गायोपक्षेपः-अध्यात्म, तद्वतो (च) निक्षिप्य चतुर्धा निरस्तं देहादि(द)रिपोपकरणानामध्यात्मप्रतिकूलत्वं, यतो न धर्मोपकरणे रतिः परिणामो रक्षणानुबन्धी, यानविघ्नं शुद्धोपयोगानुपकारिता, स्त्रीवदवश्यमपकारिता. (च) १७तः४१गायोपक्षेपः-रागद्वेषस्वरूपं निशेपचतुष्केनोपदय साधितं प्रवृत्तेर्योगहेतुकत्वं, फलाकाङ्क्षाया एव च रागद्वेषाऽऽपादितत्वं, आहारादेरिव न वस्त्रादेविराधना, परिमाणयुते शुद्धाऽऽहारोपभोगे क्षत्परीषहजय इव सत्यप्युपकरण उपकारके जिताऽऽचेलक्यपरिषहता, निरुपचरिताऽचेलता तु जिनेन्द्राणामेव, तदनुगत्वे तूपदेशादि न युक्तं छअस्थस्य, जिनकल्पस्तु तपःसच-सूत्र-कत्व-बलभावना-निर्णीताऽऽत्मलब्धीनां, कारणिकता त्वाहारस्येव वस्त्रस्य, न च निमू र्छानां द्रव्यतोऽपि परिग्रहता, पापहरणं च ४ तत्सिद्धान्ताऽनुयायिनामित्यादिप्रबन्धेन निरस्तं धर्मोपकरणस्य परिग्रहत्वं. ४२तः५७गाथोपक्षेपः-तादृशाध्यात्मयोग्यो व्यवहारक्रियावान् समिति-गुप्तियुतो वाचंयम इति समुपक्रम्याऽऽहत्यभावकथनेन क्रियालोपका अपेतबोधिवीजाः, प्रमाणं व्यवहारनिश्चयोभयमतं, समौ च द्वावप्येतो, व्रताऽऽदिनिबन्धनं स्वपरत्वव्यवहारो व्यवहारादिति व्यवहारः, कृपणानां भोगाऽभावाद्विषयगद्धानां स्वभावोपलम्भाऽभावानिःसङ्गभावनाया (नया) रागद्वेषविलय इति [न] (१) तथा किन्तु परिणामाद् बन्धमोक्षाविति च "निश्चयः । ५८तः६५गाथोपक्षेपः-द्रव्यभावलिङ्गयोगान्मोक्षो विम्तरश्च तत्र वन्द्यत्वेतरविषयो, व्यवहाराबलवानिश्चयो यतोऽसौ फलसाधकक्रियारमणः, कार्यगुणानां कारणगुणानुरूपत्वाच्छङ्कितं ज्ञानप्राधान्यं सर्वनयमयत्वे च सकलादेशता, तवयमपि ज्ञानस्य सारश्चरणमिति सर्वनयता सर्वमान्यतेति च समर्थ्य निराकृतं. ६६तः७१गाथोपक्षेपः-अभेदवृत्तौ निश्चयाधीनः सकलाऽऽदेश इति प्रमाणता निश्चयस्य, अनुपचार इति भावविषयरतिनिश्चयबलवत्ता न युक्ता अपरोपचारात् कारणजत्वाच, भाववृद्धया यावत्केवली क्षीणाऽज्ञानादिदोषः. ___७२तः१२३गाथोपक्षेप:-क्षुत्तृष्णे न तस्येति पक्षे सिद्धिदूषकत्वे मनुजत्वं तथा, दुःखत्वेऽस्त्येवाऽऽसाां विपाकयुत, क्षुत्तृष्णापरिषहजयश्च 'तत्त्वोऽर्थे' तत्सद्भावाऽऽवेदकः, क्षुदादिहेतुः पर्याप्त्याऽऽदिर्नाऽमातं, मोहहेतुका क्षुत्तष्णा नाऽन्यत्वात् , अवमकोष्ठत्वाऽऽदिनाऽऽहारसंज्ञाऽभावाद् विनापीच्छामाहार इति नाऽतिचारोपि तत्र, प्रशस्तध्यानहेतुरयमिति नाऽब्रह्मवत् आहारचिन्ताऽऽर्त्त Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्या० परीक्षा उपक्रमः ] ध्यानं, क्रन्दनादि अविप्रयोगचिन्ता च न सर्वज्ञस्य, न च विना मोहं घातिवद्वेदनीयं दुःखदं, अनुकूलत्वाऽदि च न मुखाऽऽदिलक्षण मप्रमत्ताऽऽदिष्वभावात् , नाऽज्ञानजमिन्द्रियजं दुःखं, विभोः निम्बरसलबबवेदनीयं,न दग्थरज्जुवत् न च केवलं क्षुधाऽऽदिप्रतिबन्धक, बल-वीर्ययोर्मेदान्न बलहानिर्दोषः, योगकृतक्रियेव बन्धो निर्वीज इति शङ्कायां स्वभावत एव बन्धः कथं न ? वाणी च न कथं स्वाभाविकी ? खेदोदीरणा च न वचनप्रयत्ने, उदीरणं वीर्योद्भवं स्वभावपक्षे तु सुगतगतिः, केवलियोगैनोंदीरणा खेदस्य, प्रमादाऽभावात् , तथा न दुष्प्रणिधानं रागद्वेषाऽभावात् , अतिचारप्रसञ्जकत्वाभावान्नाऽऽहारस्तत्कथेव प्रमादः, न निद्राहेतुदर्शनावरणीयत्वात्तस्याः, स्तोकत्वाऽनुज्ञा तु तन्प्रसङ्गात् , न च वीतमोहानामपवादाः, पात्रं देहवन ममत्वे हेतुः,ध्यानाऽभावान्न तद्व्याधातः, औदारिककायाऽवस्थान-वृद्धी नान्तरेणाऽऽहारं, परमौदारिकत्वाऽऽदिकल्पनं च संहननाऽऽदिसत्त्वादसमञ्जसमेव, पुष्पादिवन मतिज्ञानोत्पाद आहारात् , ईर्यापथिकी गमनादिवत् कथं आहारात् ? योग्यकालविधानानोपकारहानिः, हितादेन व्याधिः, मोहाभावान्न जुगुप्सा पुरीषादेरित्यादि निदर्श्य स्थापिता कवलभोजिता केवलिनां भगवतां. १२४तः१७०गायोपक्षेप:-सिद्धानां चाऽष्टगुणाऽन्विततामाविर्भाव्याऽन्यदीयमतेन सिद्धेषु चारित्रमित्यनूध, चारित्रस्यैहभविकत्वमाऽऽस्थाय, यथास्थितपक्षमचारित्रमित्याख्याय, सिद्धानामुपवर्ण्य भेदान् पञ्चदश, स्त्रीणामभावे सिद्धेः क्षपणकानां चतुर्विधत्वं न स्यात् सङ्घस्येत्यादीनि दर्शितानि बाधकानि, निराकृताश्च चारित्ररहिताऽऽत्महीनत्वादयस्तदुपन्यस्ता हेतवः. १७१तः१८४गाथोपक्षेपः-पर्यन्ते चोपदिष्टमुपदेशसारमय्या सर्वमान्यया गिरा यदुत"संयमयोगे यत्नः स्वर्गाऽपवर्गाऽऽस्पदाऽध्यात्मकनककषपः" ख्यापितं च तत्र भगवद्वचः, “भुक्त्वा भोगान् यत्न इति, सामथ्योभाव इति, कालाभाव" इति च निराकृता दूरभव्योदीरिताः पक्षाः, प्रायश्चित्तप्रकारेण शुद्धौ च चारित्रस्य मिथ्यादुष्कृतस्य शब्दार्थः, सुश्रावकत्वस्य श्रेठता व्युतधर्मणः साधोः, आत्मस्वभावाऽवस्थितिः संविग्नस्य, गीतार्थानां देशनाऽधिकारः एकाकिना विहरणं तु गीतार्थेतरयोयोरप्ययुक्तमिति निर्वर्ण्य, प्रस्तुनप्रकरणनिगमनाय पर्यन्तसाध्यं रागद्वषविलयाऽऽख्यमुपदि, श्रीमद्भिर्याचितं च गीतार्थपार्थात् प्रस्तुतप्रकरणशोधनं ।। प्रशस्तौ च "जैनधर्मप्रसारकपर्षत्प्रसारित-श्रीमद्यशोविजयग्रन्थमालानिर्दिष्टवत् स्वगुरुपारम्पर्य निरदेशि । विशेषस्त्वेपोऽत्र यदुत एतद्विधानं विजयमाने श्रीमद्विजयदेवसूरीन्द्रे जाते च पट्टाऽभिषेके श्रीमत्सुविहितानुष्ठानराग-पडहृदयस्य भीमद्विजयसिंहगुरोः, एष एव च महात्मा "श्रीमत्प्रभृतीनामनेकेषां महापुरुषाणां क्रियोद्धारादेशको, येन विजयतेऽधुना शासनमभीष्टपुरप्रापक-ज्ञानक्रियायुगलोपेतमिति । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ ] | अध्या. परीक्षा उपाय . नोद्विजितव्यं च विदुपास्मात्, (स्मिन्) कचित्कटुकवचनावताराद् , यतो यदाऽन्यैरसमञ्जः 'सतराणि वाक्यानि देवगुरुसम्बन्धानि हास्योपजनकतयाऽऽख्यातानि तदा ४८कोऽन्यो भवेत्ताहशामृते उपाय एतादृशाद्ग्रन्थाऽऽविर्भावात्सरागसंयमिनां, भवति चाऽवज्ञानेऽपि परमाऽऽराध्यानां माध्यस्थ्ये सरागाणां मिथ्यात्वमनन्तानुबन्धिमूलं, नच शक्नोत्यवस्थातु तीव्रभक्तिरागरक्तः शान्ततयाऽबज्ञाने, श्रीमन्महावीरज्ञापितनिषेधेऽपि मध्ये उत्तरप्रत्युत्तरे कुर्वाणो 'गोशा लेन सर्वानुभूतिसुनक्षत्रमुनिपुङ्गवो यथा, भवत्येव च तथाविधेन 'गतमाध्यस्थ्येन वादिना वादसमारम्भे २ईदृश एव प्रसिद्धिः, अबलम्ब्य शासनोद्धाराऽऽदि स्यात्कर्त्तव्यमपि ५३तत् , नहि ५४वल्लभानितापि प्रजा सप्रजस्य राज्यस्य रक्षणाय न म्रियते युद्धादौ, रक्ष्यश्च युद्धादिप्रसङ्गवत्तथाविधवादसमाऽऽरम्भः इत्यलमतिप्रसङ्गेन । . केनापि कारणेनाऽवाच्येन श्रीमद्विहितानां ग्रन्थानामस्त्येवाऽल्पता । मुद्रणे चाऽस्या नाऽनेकान्युपलयभन्ते पुस्तकानि ग्रन्थस्य शोधनादौ घ, न ततस्तथाविधः समाऽऽयोगः, तथापि श्रीम कान्तिविजयमुनिपुङ्गवाहितान्मूलपुस्तकसमानादपि यथामति विधाय प्रयासमकारि शोधनमुद्धारश्च विहितोऽस्या जनमनोहारिण्याः श्रीमत्कृतेः, भवेच्चेत् म्खलितमत्र शोध्यं तत्रभवद्भिराधायाऽभिलापुके श्रीश्रमणसङ्घकृपां ५५समुद्रपर्यवसानमानन्दमादधानेऽभिधानतो महि ।) ''आषाढाऽसितपञ्चम्यां, नन्दादानन्दसाधुना ___ (१९६७) वसु-स्वादा --विवादे, सुरतेऽलेखि पावने ॥१॥" अध्यात्मप्राप्तिः कदा ? . गुरु आणाइ ठियस्स य, बज्झाणुट्टाणसुद्धचित्तस्स । अन्झप्पज्झाणम्मि वि, एगग्गत्तं समुल्लसइ ॥" -श्री अध्यात्ममतपरीक्षा गा. ७७ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्यात्ममतपरीक्षोपक्रम टिप्पणं (आनन्दलहरीसंज्ञ) १. भीमान् चासौ अकलङ्कज्ञानकलितश्चति समस्य एतादृशश्चासौ जिनेन्द्रः, तत्प्रणीते इत्यन्धयः । २. इदं हि पदं 'आकाश' वाचि, ततश्च यथा दिन-रात्रिगतप्रकाशाऽन्धकारकृतो हि भाकाशस्य भास्वर-मली___मसत्वरुपोपाधिभेदः दृश्यतेतद्वयदत्रेत्यन्वयः कार्यः। ३. भृशम् अत्यधिक, अभीक्ष्णं भूयोभ्यः वा, वदन्ति=निरूपयन्ति इत्यर्थः । ४. संसाररूपे अपारे पारावारे समुद्रे भ्रमणस्य निबन्धनं हेतुभूतां निन्हवतामित्यन्वयः । ५. नपुसका इवेत्यर्थः । एते हि श्वेताम्बराणां वा दिगम्बराणामथं न हि किश्चित् लाभं जनयन्ति; प्रत्युत एते तु स्वास्छन्या नुरोधतः यथारुचि उभयत्र प्रविशन्ति । ६. 'कल्पितां' इत्यस्य 'उत्सर्गापवादानुगताम्' इत्यनेन सह सम्बन्धः भथ च स्वाऽभिमतकल्पनयैवैते श्वेताम्बर-दिगम्बरयोः उत्सर्गाऽपवादाऽनुगतत्वं प्रतिपादयन्ति, वस्तुतः प्रकल्प्यमानं हि श्वेताम्बराणामपवादाऽनुगतत्वं दिगम्बराणाञ्चोत्सर्गाऽनुगतत्वं शास्त्रसिद्ध नास्ति। ७. स्वकलितोत्सर्गाऽपवादाऽनुगतत्वस्य अश्रद्धा संजायेत, एतादृशे हेतुबाते सत्यपि “तद अदृष्ट्वव" अर्थात् तद्-स्वकल्पितस्याऽश्रद्धाजनक हेतुकदम्बकं, अदृष्ट्वैव असमीक्ष्यैव इति भावः । ८. साक्षात बाह्या-भ्यन्तरसाहाय्याऽनपेक्षं साक्षात्कारि=अवबोधकारि ज्ञानं केवलज्ञानं, तेन विफले= रहिते इत्यर्थः । ९. ततः श्रतज्ञानात , सर्वज्ञोपदिष्टानुसारिण इति शेषः । १०. काकुवाक्यमिदम् , स्यादेवेत्यर्थः।। ११. तस्मिन् सति युक्त्यन्विते हि भाप्तोपदिष्टश्रुतज्ञाने सति तत् दुरवसे य=दुर्बोध्यम् न भवति इत्यर्थः । १२. अनाऽऽश्वास: अविश्वासः। १३. 'पर'पदेनाऽत्र प्रानिर्दिष्टाऽऽसन्नभव्यप्रतिपक्षाः दूरभव्याः ग्राह्याः, ततः परेषां दूरभव्यानाम् इत्यथः । १४. भास्वति-सूर्ये १५. तत्कालीनाः तीर्थकरसत्तासनाथचतुर्थाऽरके वर्तमानाः । १६. भरोषाः तीर्थकृत्सु रोषाऽभाबवन्तः इति । एतेन तोर्थकृत्सु रोषाऽभावमात्रेण नात्मनीनपथोऽधिगतिः, परन्तु :निषेधात्मकरीतिरिव विधानात्मकशैली अपि परमोपयोगिनी-तिन्यायात् तीर्थकृद्वचनेषु सुद्द ढाऽऽस्थामूलकविश्वासस्यापि शिवाध्वनीनतां प्रबलोपयोगितां प्राचख्युः श्री नन्तोऽनवद्यहृद्यकरुणासनाथाः आगमोद्धारकवर्याः । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दध्वनुश्च तेनैकेनैव पदेन "समताभाष एव परमावश्यकः, एतेनैव च गातार्य समेषामनुष्ठानानामि' त्यादि मोहविवशज्ञानलवदुर्विदग्धानां बृहत्कायपुस्तक-निबन्धाऽऽदिना बुधजनानां बुद्धिभेदकारिणां प्रगल्भवावदूकतामिति । १७. बत्त्वानां यथार्थतया अधिगमाय आयासः कार्य एव इत्यन्वयः । १८. च ऋते इति पदच्छेदः । ऋते=विना इत्यर्थः । १९. 'सकल'पदस्य 'मदृष्टाऽsमयेन सह सम्बन्धः, ततश्च भनादितः रूढानि मूलानिय स्य, अथवा भविद्य मानाऽऽदिरोहवन्ति मूलानि येषां, एतादृशानां सकलानाम् अदृष्टानामः आन्तराणां आमयानां भावरो गाणां विनाशकमित्यर्थः । २०. "तत्त्वानां निर्णयाय कृतमपि यासं परोपकार परायणाः निबन्ध विना..............."न तं सफलयितुं पारयन्ति" इत्यन्वयः । २१. निबन्ध क्रमपद्धपदार्थविचारगर्भसुरचितलेखमित्यर्थः । २२. 'शासन' पदेनाऽत्र व्यवस्थितरचनाऽवबोध्या। २३. व्याजस्तुतिपरमिदं पदं । तेन नग्नाटेभ्योऽपि ये अग्रे सरन्ति उन्मार्गप्रतिपादने" इति भावपरकव्युत्पत्तिरत्रावबोध्या। यतः नग्नाटाः दिगम्बरास्तु व्यवहारमार्गमभिमन्यन्ते, देवदर्शन-षडावश्यकाऽऽदिस्वरूप बाह्यक्रियाकलापं धर्माऽङ्गत्वेन मन्यन्ते, परं वाराणसीदासप्रभवा वाक्छूरा अध्यात्माभासपटवस्तु निश्चयनयमानभिज्ञा अपि शुद्धात्म-द्रव्य-गुण--पर्यायाऽऽदिसुमधुरशब्दजालेन मुक्तिपदप्राप्तयेऽवन्ध्यहेतुभूतं राजमार्गनिभमपि पाह्यक्रियाऽनुष्ठानमयं ध्यवहारमार्गमपलपमानाः वालगोपाऽङ्गनाहितकारिणं शिवाध्वनमेष निन्हुवन्ति. भतः व्याजप्रशंसयाऽत्र पूज्याऽऽगमोद्धारकभीभिरेतेषामुल्लेखः "नग्नाटासरा" इति रहस्यपूर्ण पदेन कृतः प्रतीयते। २४. "अध्यात्मव्याजेन श्वेताम्बराध्वनः मोषकाः इति = एवंरूपेण ख्याताः नग्नाटाप्रेसराः तत्कालीनाः वारा णसीदासायाः' इत्यन्वयः। २५. श्वेताम्बरमान्यताभ्यः विसंवादिन्यः दिगम्बरीया मान्यताः स्थूलरूपेण चतुरशीतिमिताः सन्ति, तासां निर्देशः "चतुरशीतिजल्पपट्टक" रूपेणाऽत्र विहितोऽस्ति, एतत्पट्टकाऽऽधारण गूर्जरपद्यमयी रचना न्यायाऽऽचार्योपाध्यायमतल्लजैरेतैरेव प्राकृताध्यात्ममतपरीक्षाग्रंथप्रणेतृमिः विहिताऽस्ति, सा च पूज्योपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराजप्रणीतानां यथाशक्योपलभ्यमानगूर्जरकृतीनां सम्महस्वरूपे "श्रीगूर्जरसाहित्यसंग्रहाऽऽख्यग्रंथे (प्रथम विभागे) मुद्रिताऽस्ति । २६. मत्र-प्रकृते अध्यात्ममतपरीक्षाऽऽख्ये प्रन्थे इत्यर्थः । २७. भत्र 'तत् पदेन 'विवाद' परामर्शः । पुच्छा दियंघराणं, केवलमज्झप्पिभाण उवहासो। भम्हाणं पुण इहयं दोण्हपि पढिमारवावारो॥गा०४१॥ २८. Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्या० परीक्षा० टिप्पणं ] [ ५७ ३०, असाधारणाः या विद्याः ता एव व्रतत्यः =लताः, तासां वृन्दारकः = समूहः, तदर्थं दुः = वृक्ष:, तन्निभाः, तेषां श्रीमती या वृद्धिः, तस्याः निदानभूतं यत् अमरवनं = नन्दनवन, तदिवाचरन्ति ये ते इति समासो Sर्थक्षी विज्ञेयः । ३१. इदं हि पदं पूज्यपादैरित्यर्थक 'तत्रभवद्भिरितिपदवत् पूज्यार्थकवाचि ज्ञेयमत्र, "अन्येभ्योऽपि दृश्यते" इतिसूत्रेण सप्तम्यन्त- पञ्चम्यन्त-भिन्नविभक्तिकेभ्यो भवदादियागे त्रल् - तसिल प्रत्यययो पूज्याऽर्थे विधानात् । ३२. 'अन्धतमस' शब्दो हि शब्दकोशे गाढान्धकारवाची, ततश्च अन्धतमसः = गाढान्धकारस्य तिरस्कारे तत्परस्य कल्पान्ततरणेः=प्रलयकालीनसूर्यस्य विधानं= चेष्टा इव वेधः = ज्ञानं येषां इति तात्पर्यानुसारी विप्ररचना कार्या । ३३. यथाहि द्वात्रिंशद्वात्रिंशिका प्रस्तावनायां श्रीमतां ग्रन्थप्रणयनाऽऽदिवृत्तं दृश्यते तथा श्रीमद्यशोविजयजैनमन्थमालामुद्रिताऽध्यात्ममतपरीक्षाप्रस्तावनातो विज्ञेयमिति । ३४. शेषाः=देवपूजावशेषरुपाः, "प्रसादी" इतिलोक ( गूर्जर) भाषायाम् । ३५. शेषाः = उपलभ्यमानेतराः प्रन्थमणय इत्यर्थः । ३६. 'ध्रुव' पूर्वक 'सो' धातोः विवक्षया ज्ञानार्थकस्य कर्मणि रूपमिदम् । ३७. ज्ञानाssवरणीयस्य निदानभूतानि ज्ञानसाधनानां पुस्तकादीनामुपेक्षादीनि इत्यन्वयगर्भः समासः । ३८. फलंमतीतं यस्मात् इति विग्रहः, निष्फला इत्यर्थः । ३९. शठश्वासौ असुरः, स चासौ कमठः, तेन विहितब्च तत् विघ्नं= उपसर्गरूपं, तदेव जलं, तेन अविष्यातश्वासौ ध्यानरूपो योऽग्निस्तेन साधितं स्वात्मनः श्रेयः येन तम् इति विग्रहः । ४०. अष्टादश बह्न यो वा शाखाः श्रमणानामासन् तासु साम्प्रतं बाहुल्येन 'विजया' ङ्कितनामधारिणां यतीनां सत्ता यङन्तप्रयोगेणाऽत्र संसूच्यते । ४१. वीरूत् = विस्तारयुता हि लता । ४२. अचला=प्रबलतेजस्विभिरपि ग्रहान्तरसार्थैरधृष्या प्रभा यस्येति विशिष्टार्थविवक्षा - गर्भव्युत्पत्त्या 'सूर्य' वाचि एतत् पदं विज्ञेयम् । आपाततस्तु 'अचल' पदेन स्थिरत्वं शाश्वतत्वं वा प्रतीयेत, तच्चोदयाSस्त-ग्रहणाऽभ्रच्छन्नत्वादिभिः व्यभिचर्येतापि, परं “गुरुगमगम्या हि शब्दानां लक्ष्यार्था' ' इत्यभियुकोक्तेः प्राक्दर्शितव्युत्पत्तिरेवाऽत्र शरणम् । ४३. एतद्धि पदं सप्तम्यन्तं " उपकरणे" इति अत्र विज्ञेयम् । “व्योः” १--३--२३ सूत्रेण स्वरपरकत्वेन आयू आदेशीभूतस्य एतः यूकारलोपोऽत्रविहितोऽस्ति । उपकारके=संयमोपग्रहकारणे उपकरणे इत्यन्वयः । ४४ अमूर्च्छतया जिनाज्ञानुसारं संयमोपकरणानां धारणरुपसिद्धान्तानुसारिणामित्यर्थः । ४५. अत्र " इति प्रतिपादितम्" इति अध्याहार्यम् तस्य च प्राक्तनेन "आहत्य भावकथनेने" तिपदेन सहाऽन्वयः बोध्यः । " Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ ] [ प्रस्तापासङ्ग्र ४६. श्री भावनगर (सौराष्ट्र) स्थ जैनधर्मप्रसार कसभाSSख्यसंस्थया मुद्रिते श्री यशोविजयजनग्रन्थमाला” Sऽख्यग्रन्थनिर्दिष्टस्य गुरुपारम्पर्यस्यात्रत्यगुरुपारम्पर्योत्ल्लेख साम्यमस्ति इति भावः । ४७. 'श्रीमत्' - पदेन ग्रन्थकर्ता णां पूज्योपाध्यायमतल्लिकानां निर्देशो विज्ञेयः । ४८. तादृशां सरागसंयमिनां एतादृशात् प्रन्थाविर्भावात् ऋते कोऽन्यः उपायः भवेत् ? इत्यन्वयः । ४९. परमाऽऽराध्यानामवज्ञानेऽपि सरागाणां माध्यस्थ्ये ( सतीति शेषः), अनन्तानुबन्धिमूलं मिध्यात्वं च भवति इत्यन्वयः । ५०. 'सहे' त्याध्याहार्यमत्र पदम् । ५१. एतद्धि पदं दुराग्रह परायणत्वगमकं विज्ञेयम् । ५२. नैतत् पष्ठ्यन्तम्, किन्तु 'ईदृक्' शब्दस्य स्वार्थेऽच्प्रत्ययं कृत्वा विशेष्यभूत' प्रसिद्धि' शब्दानुसारं पुंल्लिङ्गे प्रथमैकवचनं विज्ञेयम् । ५३. 'तत्'-- पदेन कटुवचनावतारादिकमेतद्ग्रन्थसन्निबद्धं विज्ञेयम् । ५४. 'वल्लभानिता' पदस्य हि 'वल्लभत्वेन मानिता' इत्यर्थस्योद्बोधनमत्रार्थानुसारेण भवति, परं 'वल्लभानिता' प्रयोगनिष्पत्तिस्तु पृषोदरादिकं कमपि नैपातिकसूत्रं शरणीकृत्यैव सङ्गमनीया । ५. समुद्रः = सागरः पर्यवसाने अन्ते यस्य सः एतादृशं आनन्दम् अभिधानतः आदधाने = धारयति मयि = श्रानन्दसागरे इत्यर्थः । ५६. 'वसु' हि सामान्यतः 'अष्ट' संख्यावाचि प्रथितं वर्तते, परमत्र केनाऽपि हेतुना कुत्राऽपि शब्दकोशेऽप्रथित‘सप्तसंयार्थे प्रयुक्तमस्ति, कृतेऽपि भूरि प्रयतने न सम्यक् सन्तोषाऽवह सङ्गतनिर्णयोपलधिर्जाता । गुणपूजा—महत्त्व “पुष्ट्यै गुणानां गुणिनां समादृतिः पूजापदं स्यात् गुणिनां गुणास्पदम् " || पू० आगमो• रचित तीर्थपंचाशिका श्लोक २२ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकाचार्यदेवश्री लिखित प्रस्तावना संकलन स्वरूपे श्री नन्दरत्नाकरे सप्तमं रत्नं 'वन्दारु०' वृत्यपराऽभिधान श्रावकाऽनुष्ठान विधिप्रकरण - उपोद्घातः ॥ श्रीगणधरेन्द्राय नमः॥ ननु भोः विपश्चिन्दविततकीर्त्तिपटहा विद्वद्व्राताः ! निर्णीतचरमेतद् समेषां 'समस्तसमस्ताऽज्ञानाऽन्धतमसानां 'मोक्षप्रोक्षणपर्यवसानानां सकलैहिकाऽऽमुष्मिकाऽकल्प्याऽर्थकल्पनकल्पतरु कल्पे श्रीमदपश्चिमतीर्थपतिप्रणीत आ- शतक्रतु- कीटकरक्षणचणे शासनेऽनुष्ठानानां रसायनोपयोगारम्भे विरेचनमिवानुदिन मुभयसन्ध्यमनुष्ठेयं आवश्यकाऽनुष्ठानमाम्नातमादेयतयाऽऽदौ । ६ आदिश्यते चाऽत एवेद मैदंयुगीन शासनं तत्र तत्र तत्रभवद्भिर्भगवद्भिः सप्रतिक्रमणाSभिधानेन, न चैव माद्यन्ताऽन्यक्षीणाऽष्टकर्मणामरुहताम्, 'एतदेव च सह पञ्चमहाव्रतोच्चारणेन तीर्थान्तरसङ्क्रमणकारणं भेदोपनिबन्धनतया निबध्यते गणधारिभि "रप्रतिहताऽप्रमेयाऽप्रतिमगुणगणधारिभिः; एवमेव च परमाऽऽर्षमपि " अवस्स- कायव्वयं हवइ जम्हा' इत्यनेन''प्रभुसम्मितेनाऽमरगणाऽनुल्लङ्घनीयेनोदाजहारानवद्येन वचनेन, आवश्यकं चाऽध्ययनषटूकाऽऽत्मकाऽऽवश्यकक्रियाऽऽदरण मवश्यकर्त्तव्यता च चैत्यबन्दना गुरुवन्दनाऽऽदीनामपि ४ अदीनानां अविचलपदावाप्त्यविकलनिदानत्वे सम्यक्त्वशुद्धयाऽऽदिना स्वाऽऽत्मविशोधिकारकाणां यथैवानगाराणां तथैव देशसंयमपवित्रिताऽन्नःकरणानामगारिणामपि " तदनुसरतामा ' "वश्यकीयं "" पूर्वोक्त मितिहेतोर्वाच्यैव " तेषामपि " तन्मर्यादेति श्रीमत्पूज्यपादैर्देवेन्द्रसूरिभिराख्याता श्रावकानुष्ठानविधिसञ्ज्ञितैतत्प्रकरणविधानद्वारेण सा " तेषां तथा च व्यक्ततमा २ऽऽस्याः प्रतिदिन मावश्यकता' 'ऽऽवश्यककार्यविधान सावधानान्तःकरणचक्षुष्कानां प्रतिभास्यति २४ प्रदश्येति सामान्येन निदश्यते तच्चनिदर्शननदीष्णानामभिधेयादिप्रतिपादकं किञ्चित्सुगमताऽऽधाय्येतस्य । १ १ प्रणेतारश्चाऽस्य तावद् विधेः श्रावकानुष्ठानस्य सुगृहीतनामधेया भगवन्तो देवेन्द्रसूरयः श्रीमत्ता पगच्छभागीरथी प्रवाहहिमगिरयः श्रीमज्जग चन्द्रसूरीणा'" माचामाम्ल विधान Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० ] [ प्रस्तावनासमहे कार्मणवशीकृत-तपःश्रीलक्षणलक्षणामात्रचमत्कृत-यथार्थार्याचाररक्षणप्रवण-श्रीमेदपाटाधीश-वितीर्ण तपाविरुदानां वचनाऽतिगभागधेयानां २८चित्रवालगच्छोयोपसंपद्ग्रहाऽवसरे सहचारिणः २९दुर्वासनाऽवष्टब्धहृदयकौशिकसहस्रकिरणतपोविधानरूपाऽसाधारणहेतुलब्धजन्मतपः पदोपदीभाव-- वेलायां पारावारस्य 'वेला इवाऽभिन्नसत्ताकाः, ३२प्रभावकपुण्डरीकाणां तेषामेव पट्टपूर्वाञ्चलाऽर्थमप्रभा अद्वितीयाः । जन्मादिसमयश्चैषाम्___ "तदादि बाणद्विपभानु १२८५ वर्षे, श्रीविक्रमात्माप यदीयगच्छः । बृहद्गणा होऽपि तपेतिनाम, श्रीवस्तुपालादिभिरय॑मानः ॥९६॥ गते स्वः, शैलद्विविश्व१३२७ शरदिस्वगुरुदयेऽपि"-इति युगप्रवरश्रीमन्मुनिसुन्दर(सूरि)प्रणीतगुर्वावलीतो निर्णीयते। तथा च त्रयोदशशतकमाधारभूतोऽनेहाः पूज्यानां, ग्रन्था अपि पूज्यापादेवितताः "३सारवृत्तिदशाः कर्मग्रन्थदीपास्तमोऽपहाः । पञ्चाशिका सिद्धविचारवाच्या भाष्याणि वृत्तं च सुदर्शनायाः। उपासकानां दिनकृत्यसूत्रवत्ती च टोकाऽपि च धर्मरत्ने' इतिपर्यालोचनेनैदंयुगीनजनताहितकरणलब्धप्रभवैरसपत्नज्ञानविभवैरिति स्पष्टतरं । ____स्पष्टीभवति चात एतत् यदुत सवृत्तिकं कर्मग्रन्थपश्चक, श्राद्धदिनकृत्यप्रकरणं, सिद्धप्रामृतवृत्तिधर्मरत्नवृत्तिबहतीत्यादिकाः प्रभूताः प्रभुभिः प्रादुर्भाविता ग्रन्थाः । शैली चैषां भगवतामेषा यदुतोपयुक्ततमानां ग्रन्थानामेव कृतिः, कर्मग्रन्थाऽऽदिविलोककानां सुस्पष्टमेतद् हहृदयगुहायां, दरीदय॑मानः श्रावकानुष्ठानविधिरप्येतादृश एव, यतो न श्रीमन्ती "विरहय्य कैरपि पूज्यैः श्राव काणां बोधनार्थमावश्यकाऽर्थस्य विहितोऽनून एतादृशः पृथक् प्रयासः।। किश्च नैव भवत्यऽज्ञानां दृष्टान्तमन्तरेण 'कान्तातुल्यसरसास्वाददत्ताऽमितहर्षप्रकरकाव्यनिचयहेयोपादेयज्ञानो(हानो)पादानफलप्राप्तिवर्णनात्मकं हेयस्य हानौ ग्रहणे च ग्राह्यस्य तथाविधा प्रवृत्तिः, बालानां तु मुख्यतया "मित्रसम्मित पञ्चाशक प्रभुसम्मिताऽऽवश्यकाऽऽदिशास्त्रेभ्योऽपि विशेषेण दृष्टान्तरूपमेवोपयुक्ततममिति नात्र विवादलेशः, अत एव च कथाऽनुयोगोपयोग एवादिष्ट आदेशप्रधान 'रभियुक्तः बालानामुपदेश्यतया, सत्स्वपि च केवलदृष्टान्ताऽऽदिमयेष्वनेकेषु चग्निपु "साधारणेषु । अत्र ससूत्रवृत्तिदृष्टान्तान्वितत्वेन रचनायाः सुष्ठुतरं सौष्ठवाऽऽपादनमापादितमाप्तवचनप्रवचनाऽऽविर्भूताऽसीमसमतारसाऽऽस्वादोद्भूतकृपापीयूषवारिपूरै यथार्थप्राप्तज्ञानपूरैः रिपुङ्गवैः, विवेचितमपि आवश्यकसूत्रवृन्दं चैत्यवन्दन-गुरुवन्दनाद्यनुक्रमेणातीवोपयुक्तेन विवृतमिति न कोऽपि शङ्काऽवकाशः प्रत्याख्यानसूत्राणामक प्रतिक्रमणसूत्रात् ५°व्याख्याने । - ज्ञापितं ''चानेन 'भगवद्भिविधानदर्शनेन प्रवर्त्तमानगुरुवन्दनस्य ४चिरतरूढिमागतत्वमिति, अवशिष्टं चावसितं प्रतिक्रमणसूत्रस्य सदृष्टान्तव्याख्यानकरणेनेति नमस्काराऽऽख्यात् Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वन्दारु० उपक्रमः ] शासनधुराधरणधौरेय-परमेष्ठिपदभूषित मोक्षसार्थवाह--पुरुषपञ्चकद्रव्यभावस्तुतिरूपात् सूत्रादारभ्ययावत् सर्वाऽतिचारप्रतिक्रमणकारणतया प्रतिक्रमणसंज्ञितसूत्रपर्यवसानमत्र सूत्रवृन्दम् । ___विशेषश्चाऽऽत्राऽयं यदुत-चैत्यवन्दन-गुरुवन्दन-प्रत्याख्यानसूत्राणां व्याख्याने सम्पत्पदाऽधिकार-वर्णप्रमाण गुरुस्वरूप-वन्दननैकार्थ-वन्द्याऽवन्द्याऽऽवश्यक-प्रत्याख्यानस्वरूप-तद्भङ्गा-ऽऽकारशुद्धि-फलप्रमुखा विवेचिता अधिकारा अधिकारितमैकवेद्या ग्रन्थाऽन्तरेभ्योऽपि च दुरवसेयाः तदसमानोपकारकरणपटिष्ठस्याऽस्य मुद्रणमतीवावश्यकमिति न कस्य चतुरस्य चेतसि पोस्फुर्यात् । मुद्रणं चास्य श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाईत्येतन्नामयुगज्ञानोद्धाराऽऽधारभूतद्रष्यनिचयस्योद्भवाऽऽदि तु निवेदितपूर्वमेव मुद्रितरे श्रीमद्वीतरागस्तवोपक्रमे सविस्तरमिति न तवृत्तान्तनिवेदननेनाऽर्थः । मुद्रणाऽऽधारभूता प्रतिरस्य श्रेष्ठि-श्रीमनःसुखभाईविहितज्ञानोद्धारपुस्तकप्रबन्धादायाता । शोधने च क्वचित्क्वचित् द्वासप्तत्यधिकचतुर्दशशतमान (१४७२) विक्रम वर्षीयश्रीभृगुकच्छवास्तयमोदक ज्ञातीय-गोदा-डूंगरलिखापिता प्रतिराधारभूता । ___ भविष्यन्त्यनेकानि स्खलितानि दृष्टिदोषात् सूत्राऽर्थमौढ्याचेति प्रमार्य प्रेक्षणीयमिदमित्यर्थये ६४परमाऽऽनन्दाऽऽलयावाप्त्यसाधारण-कारण-रत्नत्रयनिचयसादरश्रीश्रमणसङ्घपादपङ्कजमधुपायमानानन्दोदन्वदभिधानः सविनयं ज्ञातस्खलितदोषदुरिताऽनुशयः मिथ्यादुष्कृतं वितीर्य परमपदरसिकः ॥ नवसार्या वरपुर्या पार्श्वजिनेशांहिपूत सफलोया॑म् । वसु-रस-नन्देन्दु(१९६८) वर्षे कृत आनन्देन शिवततये ॥११॥ GENDEDEOEDEOEDEREDEO मार्मिक व्याख्या रागत्यागी भवेद् देवः, सङ्गत्यागी गुरुभवेत् । सक्तित्यागी च सम्यक्त्वी, देहत्याग्यव्यये पदे ॥ -पू० आगमोद्धारकाचार्यश्रीप्रणीत ___ यतिधर्मोपदेश गा० ७३६ DEDEDEDDEDEDEEDED Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕ܀܀܀܀܀܀܀܀$ __ पूज्यपादाऽऽगमोद्धारकाचार्यश्रीलिखित प्रस्तावना विषम-पदाऽर्थसूचिका आनन्दलहरी टिप्पणी (वन्दारुवृत्ति-प्रस्तावना) १. समस्त सम्-सम्यक्प्रकारेणाऽस्तं-विक्षिप्तं समस्तं सकलम् अज्ञानरूपम् अन्धतमः यस्तेषामिति व्युत्पत्तिरत्राऽवबोध्या। - इदं हि विशेषणं "अनुष्ठानानां" इति पदस्य विज्ञेयम् । २. मोक्षस्य सर्वकविनिर्जरणरूपस्य प्रोक्षणं-पुङ्खनं ("पुमणु-वधामणु") इति गूर्जर भाषायाम् ) भवति पर्यवसाने येषाम् अनुष्ठानानाम् इति तात्पर्यगामिव्युत्पत्तिरत्रावबोध्या । लौकिकशिष्टसमाचारेऽभ्यईणीयवस्तुन प्रोडनेनाऽऽदराऽऽधिक्यसूचनवदत्र जिनशासने आबा. लवृद्धं प्राणिमात्राऽऽत्मशुद्धिकरणेऽमोघसाधनरूप-विविधक्रियाकलापेन मोहाऽपसर्पणं प्रकुर्वतामनुष्ठानानां राजमार्गत्वं संसूचयन्ति गीतार्थपादाः आगमोद्धारकवर्या सूरिप्रष्ठाः। अपरश्नाऽनुष्ठानानां मोक्षप्रोक्षणपर्यवसानत्वं प्रदश्यैतदपि दध्वनुराचार्यमतल्लिका यत्-प्रावृट्कालीन जलसम्पातलब्धजन्माऽलसकाऽऽदिक्षुद्रजन्तुवृन्दवत् कालविषमताऽऽदिलब्धरूपैःनिवादिभिः विशुद्धाऽऽत्मद्रव्याऽऽलम्बनवादिभिः दुर्निश्चयवाद्वादिप्रमुखैरुद्भावितानां क्रियाप्रतिक्षेप-ज्ञानिनिर्दिष्टकर्तव्याऽपलापाऽऽत्मस्वरूपसंवेदनाऽऽभासप्रभृतिम्वरूपवाचोयुक्तीनां शब्दाऽऽडम्बरफटाऽऽटोपमात्राणामसारत्वमात्महिताऽऽवहदृष्ट्याऽवबोध्यं सद्गुरुचरणसेवालब्धनिर्मलविवेकाऽन्तश्चक्षुष्कैः समीक्षावद्भि विदुषांवरैरिति। ३. सकलाश्च ते ऐहिकाश्चाऽऽमुष्मिकाश्च अकल्प्याः कल्पनाक्षेत्रातीता ये अर्थाः तेषां कल्पनाकल्पने-रचना सूत्रण कल्पतरुकल्पे=कल्पवृक्षसदृशे इति व्युत्पत्तिरत्र सङ्गमनीया। . ४. शतक्रतुः इन्द्रस्तमभिव्याप्य कीटकपर्यन्तं सर्वजीवानां रक्षणे चणं निपुणमिति विग्रहोऽवबोध्यः । ५. अत्र च निर्धारणार्थकषष्ठी सप्तम्यर्थेऽवबोध्या, ततश्च प्रानिर्दिष्टं (समस्तसमस्ताऽज्ञानाऽन्धतमसानों मोक्षप्रोक्षणपर्यवसानानां) विशेषणद्वयं सप्तम्यां परावृत्त्यैवमर्थः सङ्गमनीयोऽत्र, तथाहि-समस्तसमस्ता___ऽज्ञानाऽन्धतमसेषु मोक्षप्रोक्षणपर्यवज्ञानेषु अनुष्ठानेषु (मध्ये) इति । ६. 'प्ररूप्यते' इत्यर्थः । ७. 'आदिः प्रथमः, अन्त्यः चतुर्विंशतितमः ताभ्यामन्ये=द्वाविंशतिसङ्ख्याः , क्षीणाऽष्टकर्मणः ये तेषा मितिव्युत्पत्तिरत्र । ८. अर्हतां तीर्थकराणामित्यर्थः। . . Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [६३ वन्दारू० टिप्पणं ] व्युत्पत्त्यर्थस्तु कर्मबीजप्ररोहाऽभाववद्भिरिति भवति, किन्तु तस्य सर्वसिद्धसाधारण्येनाऽत्रव्याख्यानबलेन रुट्या वा तीर्थकतामित्यर्थाऽवगमो न्याय्यः । ६. एतत्पदेनाऽत्र प्रकृतोपयोगि प्रक्रम्यमाणं "सप्रतिक्रमणधर्मवत्त्व" विवक्ष्यते। १०. श्रीउत्तराऽध्ययनप्रभृतिसूत्राऽऽदिषु श्रीपार्श्वसन्तानीयश्रीकेशिगणाधिपवर्णनप्रसङ्ग" इत्यऽध्याहार्य मत्र तात्पर्यगामिक्या धिया समुपासितगुरुकुलवद्भिः । ११. 'अप्रतिहताश्च ते अप्रतिमाश्च अनन्यसाधारणा ये गुणास्तेषां गणस्तं धारयन्ति ये ते' इति व्युत्पत्तिः । १२. एषा हि गाथा श्रीअनुयोगद्वारसूत्रे (सप्तविंशतितमसूत्रानन्तर तृतीयगाथात्वेन आगमोदयसमितिप्रका शितमुद्रितपत्राकारपुस्तके एकत्रिंशत्तमपत्रस्य प्रथमपृष्ठौ द्वितीयपङ्क्तौ ,) दृश्यते । १३. शास्त्रकाराणां वचांसि खलु त्रिरूपाणि, तथाहिः १ प्रभुसम्मितानि, २ मित्रसम्मितानि, ३ कान्तासम्मितानि, १ आज्ञाप्रधानानि निर्विचार समर्पितभावेन स्वीकार्याणि प्रभुसम्मितानि । २ युक्तिप्रधानानि गुणदोषविचारबहुलानि निरवद्यश्रद्धामूलं स्वीकार्याणि-मित्रसम्मितानि । ३ परमोदात्तकरुणाग णि तत्तन्महापुरुषचरित्रप्रसङ्गोल्लेखबहुलानि भाववात्सल्यमूलानि उत्कृष्टधर्मानुरागोज्जीवनबलेन स्वीकार्याणि--कान्तासम्मितानि । अत्र हि श्रीऋषभदेव-महावीरप्रभुतीर्थकृतोः शासने दोषे सत्यसति वाऽपि नियतं समयवेलयाऽवश्यं कार्याणि आवश्यकानीति सूचयन्ती ("अवस्सव्वकाय." श्रीअनुयोगद्वारसूत्रगाथा) गाथा प्रभुसम्मितवचने आज्ञाप्रधानेऽवतरति । १४. "दीन" शब्दो हि "दैङ् हानौ" इतिधातुपाठाधारेण हीनशक्तिकत्वाऽर्थे यौगिकरूपेण भवति रूढिश्च वर्त्ततेऽशरणाऽऽधाररहित-कान्दिशीकजनस्य विक्लवताऽर्थसूचने, तथापि अत्राऽर्थाऽनुसन्धानतः' यौगिकाऽर्थहीनशक्तित्वं विवक्ष्य 'प्रदीनाना'-मित्यस्याऽहीनशक्तिकानाम् , अर्थात् 'सम्पूर्णशक्तिमता' मित्यर्थसङ्गतिस्तात्पर्यानुरोधेन करणीया। एतत्पदस्याऽन्वयः अग्रेतनेन "अविचलपदाऽवाप्स्यविकलनिदानत्वे" इत्यनेन सह बोध्यः । तेन अविचलं यत् पदं = मोक्षरूपं, तस्याऽवाप्तेरविकलं निदानत्वं, तत्र भदीनानां = सम्पूर्णशक्तिमतां चैत्यवन्दनगुरुवन्दनाऽऽदीनामिति योजना कार्या। १५. अत्र 'तत्' पदेन सम्यक्त्वशुद्धयाऽऽदिना स्वाऽऽत्मविशुद्धिकारकाऽनगारवत् अविचलपदाऽवाप्तिहेतु भूतचैत्यवन्दनाऽऽदीनामवश्यकर्त्तव्यत्वं बोध्यम्। '.. १६. आवश्यकमित्यर्थः। स्वार्थे 'इय्' प्रत्ययोऽत्राऽवबोध्यः । १७. 'पूर्वोक्त'-पदेनाऽत्रोपरिनिर्दिष्टमावश्यकक्रियायाः सोपयोगित्वमाद्याऽन्तिमतीर्थकृतां शासनस्य सप्रति क्रमणधर्मवत्त्वमित्यादि समूहनीयं धीमद्भिः। १८. श्रमणोपासकानामात्मविशोधीच्छावतामित्यर्थः । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] १९. आवश्यकाऽनुष्ठानमर्यादेति भावः । २०. आवश्यकानुष्ठानमर्यादा । २१. प्रतिक्रामकानां श्रावकाणाम् । २२. प्रस्तुतकृतेः 'श्रावकानुष्ठानविधि' - संज्ञायाः । २३. आवश्यकानां=सामायिकादीनां षण्णां यत् कार्य, तस्य विधाने सावधानमन्तःकरणचक्षुः येषामिति - व्युत्पत्तिमत्र विरचय्यैतत्पद्गत 'सावधान'-- पदेनैतत् समभिव्यज्यते यत् क्रियमाणसामायिकाऽऽद्यावश्यकेषु विवेरावश्यकत्वं परमाऽनाहार्यमिति, तदर्थ चैतत्प्रन्थप्रणयनं हि सार्थकमिति । २४. अत्र शब्दानामन्वय एवं करणीयो यत्-" इति प्रदर्श्य एतस्य किञ्चित् सुगमताधायि अभिघेयाऽऽदिप्रतिपादनं तत्त्वनिदर्शनदीष्णानां सामान्येन निदर्श्यते" इति । २५. कुशलाऽपरपर्यायोह्ययं शब्दः वैयाकरणमतल्लिकानां समभिज्ञातः । २६. आचामाम्लानां=नीरस - निर्विकृत्यान्नमात्रैकवारभोजनरूपाणां विधानरूपं यत् कार्म्मणं, तेन वशीकृता या तपः श्रीः, तस्याः लक्षणं स्त्ररूपं, तस्या लक्षणेन अवलोकनेन चमत्कृतः । पुनश्च यथार्थवाऽसौ आर्याणां च आचारः, तस्य रक्षणे प्रवणः, इत्येवंविशिष्टो यः मेदपाटाधीशः- मेवाडसंज्ञितदेशस्य स्वामी महाराणा श्रीजंसिहाऽऽख्यः, तेन वितीर्णं 'तपा' विरुदं येभ्यः, तेषामिति व्युत्वत्तिरर्थाऽनुकूलाऽत्र कार्या । २७. वचनानि अतिगतं भागधेयं येषां तेषां वचनाऽगोचर भाग्यशालिनामित्यर्थः । २८. पट्टावरल्याऽऽदिग्रंथेष्वनुपलाभ्यमानमेतद्धिवृत्तं नीयं प्रथांतर समीक्षया । प्रस्तावनासम सद्गुरुचरणसेवालभ्यमानमार्मिकधीषणादद्भिरुह. २६, दुर्वासनाभिरवष्टब्धं यत् हृदयं तदेव कौशिकः, धूकः तदर्थं सहस्रकिरणतुल्यं यत्तपः तस्य विधानं तद्र पो योऽसाधारण हेतुस्तेन लब्धं जन्म यस्यैतादृशस्य 'तप' पदस्य- 'तपा' इति विरुदस्य उपदीभावःसमर्पण (महाराणाजे नृसिंहसंज्ञितमेदपाटाऽधिपतिराजसभायामितिशेषः) तद्वेलायामिति व्युत्पत्तिः सङ्गमनीया । ३०. समुद्रस्येत्यर्थः । ३१. वेला = जलवृद्धि:. 'भरती' इति लोकभाषायाम् । ३२. प्रभावकेषु = प्रकर्षेण भव्यजनानां धर्मभावना कारकेषु, पुण्डरीकाः = पुण्डरीकाऽऽख्यश्वेतकमलबच्छ्र ेष्ठाः तेषां प्रभावक श्रेष्ठानामित्यर्थः । ३३. काल इत्यर्थः । ३४. श्रीमद्भिर्देवेन्द्रसूरीश्वर विहितग्रन्थाश्चेमेऽनया गाथयाऽवबुध्यन्ते, तथाहि : १ श्रीदशाश्रुतस्कन्धसूत्रवृत्तिः २ श्रीकर्मन्थपञ्चकम् Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदासवृति प्रस्ता० टि०] ३. श्री सिद्धपंचाशिकाप्रकरणम् , ४. श्री चैत्यवंदनभाष्यम् , ५. श्री गुरु ,, , , ६. श्री प्रत्याख्यान ,, , ७. श्री सुदर्शना-चरित्रम् , ८. श्री श्राद्धदिनकृत्यसूत्रम् , ९. श्री ,, ,, , वृत्तिः, १०. श्री धर्मरत्नप्रकरणवृत्तिः (बृहती), ३५. ऐदंयुगीनी वा जनता तस्याः हितस्य करणाय लब्धः प्रभवः यैस्तैरिति व्युत्पत्तिर्विज्ञेया । ३६. सपत्नः-सधर्मा, न सपत्नः असपत्नः स चासौ ज्ञानस्य विभवः येषां तैरिति विग्रहः । ३७. 'विना' इत्यर्थः । ३८. अनूनः सम्पूर्णः उपयोगीति भावः । ३९. एतद्धि पदं ' दृष्टान्त' मित्यस्य विशेषणरूपं विज्ञेयम् । एतस्य हि तात्पर्यगामी विग्रह एवं बोध्यः ---- कान्तायास्तुल्यः सरसो य आस्वादः, दत्त अमितश्चासौ हर्षस्य प्रकारो येन, एतादृशकाव्यनिचयः, हेयोपादेययोः ज्ञानं (हान) उपादानं, तयो फलप्राप्तेः वर्णनम् , इत्येतत्त्रयाऽऽत्मकं दृष्टान्तं विना इत्यन्वयः सङ्गमनीयः । ४०. त्यागे इत्यर्थः । ४१. श्री पञ्चाशकादि-ग्रन्थानां बुद्धिगम्य-तर्क-युक्तिबहुलनीत्या सिद्धांतप्रतिपादकत्वादत्र मित्रसम्मितत्व मुदाहृतमस्ति । ४२. श्रीआवश्यकादिग्रन्थानां सर्वज्ञमूलकत्वात् सर्वजीवहितकारिनैकविध-मोक्षमार्गस्याऽऽज्ञाप्राधान्येन प्रतिपादनात् प्रभुसम्मितत्वमत्र निदर्शितमस्ति । ४३. धर्मप्रधानाः याः कथास्तासामुनयोगो व्याख्यानं तस्योपयोगः कर्तव्यबुद्धिरित्यन्वयसङ्गतिरत्र कार्या । ४४. आदेश:-आज्ञा सा प्रधानं येषां तैरिति विग्रहः । अस्य पदस्य भावार्थो ह्ययमत्र बोद्धव्यो यत् “विश्वजनीनतामूलक-भाववात्सल्यवारांनिधि–परमोपकारि-श्रीतीर्थकृतां व्यत्यास-विपर्यासाऽऽदिमूलभूतमोहविलयहेतुक-सकलजीवातु-सदुपदेशप्रणेतृणामाज्ञाया एव प्राधान्यमस्ति, मुमुक्षूणां स्वेप्सितप्राप्तये" इति संसूचनायाऽत्र पूज्यपादाऽऽगमोद्धारकवर्यैः “आज्ञाप्रधान' रिति मार्मिक विशेषणं प्रयुक्तमस्ति । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [ बंदासवृति प्रस्ता० टि० ४५. एतत्पदस्य सामान्यतो ह्यर्थः "प्रामाणिकजनै "रिति भवति, परमत्र लाक्षणिकशैल्या “परमोत्कृष्टज्ञानमूलक-प्रामाणिकत्वभ्राजिभिस्तीर्थकृद्भि" रिति सङ्गमनीयम् । ४६. एतद्धि पदं "चरित्रेषु" इत्यस्य विशेषणं । विशेषतः कस्याऽप्येकविषयस्य मुख्यत्वं यत्र न भवेत्तानि हि साधारणानि चरित्राणि व्यपदिश्यन्ते । ४७. आप्तवचनरूपं यत् प्रवचनं तेनाऽऽविर्भूतो योऽसीमश्चासौ समतारसस्याऽऽस्वादः, तेनोद्भूतो यः कृपारूपपीयूषरूपवारिणः पूरः येषां तै ।। ४८. यथार्थश्चासौ प्राप्तः ज्ञानस्यः पूरः समूहः यैः । ४९. क्रमेणति शेषः । ५०. एतस्य ह्यन्वयः प्राक्तनेन “प्रत्याख्यानसूत्राणा "मित्यनेन सह विज्ञेयः । ५१. अत्र हि 'च' पदं वाक्यालङ्काररुपं विज्ञेयम् , न समुच्चयवाचकं, प्राक्तनस्य विषयस्याऽत्राऽनवतारात् । ५२. 'अनेन' इत्यनेन प्राक्तनविषयस्य वन्दनकसूत्रादर्वाक् प्रत्याख्यानसूत्रव्याख्यासङ्गतिरुपस्य नाऽत्र परामर्शोऽबबुध्यते, तात्पर्यसङ्गतेरभावात् , परमत्र 'अनेन' पदेन ग्रन्थकृतां बुद्धिस्थस्य प्रकृतस्य 'श्रावकानुष्ठान विधि संज्ञग्रन्थस्यैतद्गतवन्दनसूत्रव्याख्यासन्दर्भस्य वा परामर्शः सङ्गच्छते। ५३, “विधानानि-भेदास्तेषां दर्शनेनाऽत्र ग्रन्थे निरुप्यमाणवन्दनविधौ'-इत्यर्थसङ्गतिरत्र कार्या । अथवा विधान-विधिः पद्धतिरिति यावत् , तस्य दर्शनेन, अर्थात् अत्र ग्रन्थे प्रतिपाद्यमानवन्दनकविधिसन्दर्भेऽवलोकनेनेति भावः । ____एतेनाऽऽगमोद्धारकपादा एतदभिव्यञ्जयन्ति यत् “वर्तमानकाले या वन्दनप्रणालिका प्रचलति, तस्याः प्राचीनत्वमाप्ताऽभिसन्धिमूलकत्वमेतद्ग्रन्थगतविधिसन्दर्भेणाऽध्यवसीयते” इति । ५४. अत्राऽलुक्समासोऽवबोध्यः । ५५. निर्दिश्यमानं तत्‘सम्पदा'ऽऽदिद्वारत्रयोदशकं भाष्यत्रयाऽऽख्यग्रन्थवर्णितमत्र विवेचनया वर्णितमस्ति । ५६. अतिशयेनाऽधिकारीति अधिकारितमः, तैरेवैकवेद्या इति व्युत्पत्ति कृत्वाऽत्र ग्रंथे वर्णिताऽधिकार त्रयोदशकाऽऽदिवर्णितवस्तुजातस्याऽधिकारानुरुपं गुरुगमवेद्यत्वं समभिव्यञ्जयन्ति श्रीमन्त आगमो द्धारकपूज्यपादाः । ५७. न हि समस्तमेतत् पदम् , किन्तु 'तस्मादि'त्यर्थ परकं तत्' इत्यव्ययमत्र बोव्यम् । ५८. 'प्र' पूर्वक 'स्फुर्' धातोः यङन्तस्य सप्तमी (विध्यर्थ ) रुपमिदम् । ५९. एतेन समस्तेन पदेन 'शेठ देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धारफंड" संस्थाया अभिख्या सूचिताऽस्ति । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंदासवृति प्रस्ता० टि०] [६७ ६०. पूर्वं निवेदितमिति निवेदितपूर्वमिति समासोऽत्र बाहुलकाद्याश्रयणेन सङ्गच्छते । ६१. पूर्व मुद्रित इति मुद्रितचरः इति विग्रहः, भूतपूर्वार्थे चरट्प्रत्ययस्याऽत्र विधानमस्ति । ६२. 'श्रेष्ठी श्रीमनसुखभाई'ना विहेतः ज्ञानोद्धाराथ पुस्तकानां प्रबन्धः यत्र यस्माद्वे व्युत्पतिमत्तित्र संगमय्यत्पदेन “राजनगर (अहमदाबाद) स्थित शेठ मनुसुखभाई भगुभाई ट्रस्ट" संज्ञसंस्थासूचन मत्र बोध्यम् । ६३. अयं हि शब्दः “लाडवाश्रीमालीज्ञातिसूचको विज्ञेयः, 'लाडवाश्रीमाली 'तिपदस्याऽऽप्तैतिह्य वित् प्रमाणितोऽर्थ एवमपि श्रूयमाणोस्ति यत् "लाटदेशीया लाटदेशादागता वा श्रीमालीज्ञातीयाः लाडवाश्रीमालीत्यर्थे लाडश्रीमालीया उच्यन्ते," । ___ एतज्जातीयानां बाहुल्यं भृगुकच्छे तत्प्रान्तीयमण्डले इदानीमस्ति, भृगुकच्छप्रदेशस्य परमार्हत कुमारपालमहाराजराज्यकाले तदूर्द्धमपि च लाटदेशत्वेन व्यवहृतिरभियुक्तप्रमाणिता श्रूयतेऽपि । ६४. परमश्चासौ सर्वोत्कृष्टश्चासौ आनन्दश्च तस्याऽऽलयः मोक्षः तस्याऽऽप्तेरसाधारणं कारणं यत् रत्नत्रयं, तस्य निचयः व्यवस्थिताऽनेकधर्मक्रियासमूहरूपः, तस्मिन् सादरश्चासौ श्रमणप्रधानसङ्घः तस्य पादपङ्कजयोः मधुपवदाचरमाण इति तात्पर्यलक्षी अन्वयो विज्ञेयः । ६५. जातानि यानि स्खलितानि तान्येव दोषाः तद्रुपं यत् दुरितं तत्संबन्धी अनुशयः---पश्चात्तापो विद्यते यस्येति विग्रहः । ६६. सफलत्वमत्र सम्पूणार्थवाचि न विज्ञेयं, परं पार्श्वजिनेशांद्रिपूतत्वरूपकलासहितत्वं विवक्ष्यम् । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XUSUNUYUNUOV* MOASAGASSÁGASAASAASAASÁSAHAAHHHX श्री आगमोदारकाऽऽलेखित-प्रस्तावनासंग्रहस्वरूपे आनन्दरत्नाकरे अष्टमं रत्नं श्रीछन्दोऽनुशासन-ग्रन्थस्य उपक्रमः MOMOMUMUNUNSYUMMMMMMMMUX MMMMMMMMMMM* ॥ श्री गणधरेन्द्राय नमः ॥ ननु भोः सहृदयहृदयाऽऽलवालोद्गताऽनवद्यविद्याव्रततिफलयुगलाऽऽस्वादसतृष्णाऽन्तःकरणाः सहृदयाः निर्णीतचरमेतद् विद्वद्वन्दारकै: सर्वतन्त्रानुकूल्येन निबिडतर-जडिमाऽवष्टब्ध-मानसवृत्तिप्रातिकूल्येन यदुत “न तावते शब्दानुशासनाद प्रतिमसुधारसायमानाऽनवद्यशब्दसृष्टिशर्वरीशायमानात्स्य:- शिवश्रीप्रदानपटुराविर्भवति अपेतपको बोधो, यथार्थवादिता तु न भवत्येव कथङ्कारमपि तमन्तरेण, आगमोऽप्येतदेव निवेदयति निर्णीतमोक्षगमनानामसुमतां "वयणविहत्तीइ कुसलो' इत्यादिना गतपापेनाऽऽलापेन । जातेऽपि च विभक्तिवचनाऽऽख्यातकृदादिवोधे यावन वेविदितः शब्दानां यथावल्लिङ्गविभागो न तावद्भवत्युत्तरणं मृषावादाख्यायाः पापव्याघ्यावसथायाः, आबालमनुभवसिद्धमिदं यदुत लिङ्गपरावर्त्तमात्रेणोद्भूतिः साक्षात् क्रोधकृशानो: श्रूयमाणेषु स्वाश्रितवचनेष्वप्रतिक्रिया। १०अवगतेऽप्येतस्मिन् । 'द्वितये १२पापपङ्कापहारशोधिविततये न भवति यावन्नाऽऽत्मायत्तीकृतम विकलविभावाऽनुभावव्यभिचार्याऽऽदिसंकलितस्वभाव-रसभावाभिधानरत्ननिधानं काव्यानुशासनं तावद्यथावद्वक्त्रायभिप्रेता १४ऽर्थबोधोऽपरबोधनं १५ च यथार्थतया नायक-प्रतिनायकादीनामभिप्रायक्रियादेः। तद्यक्तमेव १ अतीता-ऽनाऽऽगत वर्तमानकालीनाऽतीन्द्रियाऽर्थ-ज्ञानसम्पन्नताऽऽदिप्रभावलब्ध-कलिकालसर्वज्ञत्वविरुदानां भगवतां क्रमेण श्रीसिद्धहेमाख्यं पाणिनीयाद्यखिलशब्दाऽनुशासन-यशस्तारागण-प्रभापटल-विकर्तनप्रभमनूनं १८त्रिमुन्यसमापितं १ समाप्तं शब्दानुशासनं, २ बालसुबोध्ययथावत्पृथग्ज्ञानकरणोपयोगिकरण 'मक्षराऽनुक्रमाऽऽक्रान्तयश:शरीरं लिङ्गानुशासनं, २२काव्यतद्धेतुस्वरूपगुणदोपरसादिस्वरूपविभावनापूर्वादर्शायमानमनुपम काव्यानुशासनं चेति त्रयस्याप्रतिमस्य श्रीमद्धेमचन्द्रप्रभूणां जगति २३रचनं । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दो० ३५० ] परं यावन्नाधिजग्मे विदुषा २४शकलितशङ्कादो छन्दोऽनुशासन मनेकच्छन्दोविज्ञानपोपं न तावद्यथावदुच्चारः काव्यानां निर्दोषत्वाधानं च सम्पनीपद्यते, कौतस्कुती च २ छन्दोभङ्ग-विरतिप्रभृतिविवेकवाग्मिता तु ? तदवश्यमादरणीय मखण्डपण्डानुगत विचाराणां २८धीसाराणामेतदपि२६ ३०प्रागुदीरितानीरितानुशासनत्रयी वेति न तत्र काचन ३'विचारकणिका वेविद्यते २२विद्याव्रततिततिभूरुहां २३उज्झितमुहां २ स्वीकुर्वताम्हाम् । आविर्भावयितारश्चानवद्याऽनुशासनचतुष्काऽनुशासनाऽलंभविष्ण्वनुशासनचतुष्कस्य प्रसिद्धतमाः, जीवनवृत्तमपि च तत्रभवतां भगवतां न केनाप्यविदितमाबालगोपाङ्गनं ख्याततरं समासेने तरथाकरणे तु नैव ३"तस्य तथा समीहा६ शक्तिश्च, ४°प्रस्तुताऽपश्चिमानुशासनमानातिरेकतरस्य तस्य मध्यमतयाऽपि भावान्न ४२तत्रापि यत्नो, न च योग्योपि मादृशोऽयं जनस्तादृगितिहाससाधनहीनसाधनतया यथावत्तया। ____परं सत्लु भरत-जयदेव-पिङ्गलाऽऽदिपणीतेप्वनेकेष्वनवद्येषु छन्दोऽनुशासनेषु किमिति ४ २सुवामधुरीकारकरणमिव किमिव न बोमवीति हास्यास्पदमेतद्रचनमिति चतुरचक्रचेतसि च वा स्यात् ! नच तच्चतुरं विचक्षणचक्रवालशोभा-(चङ्गता) वहं, यतो ४४नेदृग्गुम्फ सुगमं वा तेष्वेकतरमपि । अन्यच्च तत्र तत्र केवलवेदोपयोगिच्छन्दोनुशासनेनाऽऽपादितं ४५तत्तद्विशेषोपयोगि, प्रस्तुतं केवल-लोकोपयोगि-च्छन्दोऽनुशासनसमर्थमाविर्भावयाञ्चक्रुराराध्यतममनुशासनम् । एतच्च निःशेषस्यास्यानुशासनस्याभ्यासाद्यथावत् स्यादवधारितं परमाऽऽद्यश्लोकेऽपि तावत् भगवद्भिः 'लोकोपयोगिनां वक्ष्ये, छन्दसामनुशासनम्' इत्युत्तरार्द्धन निदर्शितम् । शब्दाऽनुशासनादिभिः समानकर्तृकत्वं तूदाजहू : 'सिद्धशब्द-काव्यानुशासनः' इत्यनेन स्वयमेव भगवन्तः, दृब्धं चेदं श्रीमद्भिश्चौलुक्येश्वरे श्रीपरमाईतकुमारपाले मारिघोषडिण्डिमवादके शासति राज्यम् , यत उपलभ्यते तत्र तत्र श्रीसिद्धराजस्याऽस्य च राजर्षेः स्तुतिरुद्राहियमाणेति । अत्र चाऽध्यायाऽष्टकं प्रणीतं ४ प्रज्ञाऽवदातत्व ऽवज्ञातपुरन्दरगुरुभिस्तत्रादौ सज्ञाऽऽद्याऽध्याये द्वितीये च जाति शेष-जातिदण्डकानां छन्दांसि चत्वारि शतानि अधिकान्येकादशभिः, अत्र च क्षन्तव्यमागो दृष्टिदोषजं यत्सप्तनवत्यधिकशतद्वय्यतिक्रमेऽपिच्छन्दसा पुनश्चतुर्नवत्यधिकाच्छतमानादकारम्भो जातोऽस्ति । तृतीये चाऽध्यायेऽर्धसमवृत्तानि हरिणप्लूताद्यानि अतिरुचिराऽवसानानि वक्त्रप्रकरणं चाऽनुष्टुभिः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ छन्दो० ३५० ४५ ४६ ५० अत्र च येऽनवधार्य ४ " निस्सीमप्रतिभाप्राग्भारपराकृत- पुरन्दरगुरु-सरस्वती युगलस्य सर्वतन्त्र स्वतन्त्र धिषणाऽन्वितत्वमुदाजहुः परिशिष्टपर्वणि दुरुद्वरं विरोधं छन्दसां केषाञ्चित्, तैर्नावबुद्धं द्वाविंशतितमपत्रीयं प्रायेणेतिपदम्, अवबुद्धं वा ईर्ष्यालुतया ० जैनधर्मधुरन्धरेभ्यो न स्मृतं तथैव षष्ठपत्रगतं 'सर्वजातीनामपीति वृद्धाः' इत्यादि, यदि चावधारितमभविष्यत्तत्तदा नालीकमुदपादयिष्यत्कलङ्कम्, मन्ये प्रमार्जयिष्यन्ति स्वयं ते इति न विशेषेण समीक्ष्यतेऽत्र । अत्रैव पदचतुरुद्भूर्वममृतधारान्तम् उद्गताप्रकरणं सप्तभिः उपस्थित-प्रचुपितप्रकरणं च, त्रिभिः सौम्य - ज्योतिषी च निरूपितवन्तो विषमवृत्तप्रकरणे मात्राछन्दसि च वैतालीयं त्रिंशता, मात्रासमकादि नवभिर्निर्वर्ण्य निगमितवन्तोऽध्यायं तृतीयम् । तुर्ये चाध्याये आर्या - गलितक खज्जक- शीर्षकाख्यानि वृत्तानि ख्यातान्यनेकधा, अत्र च आ तृतीयाध्यायात्संस्कृत एवोदाहरणानि "अलब्धमध्यस्वमतिहृद निर्व्यूढप्रवाहककल्पानि चाऽखिलान्येतानि, परतच आर्याप्रकरणे च प्रायेण संस्कृत-भाषाभाषितान्येव, परं कचित् क्वचिदस्त्येवाऽप्राकृतजनरू चिविषयीभूतं जीवस्वभावगुणतया मूलभाषातया प्राकृतगीयुदाहरणवर्णनम्, गलितकाsदौ तु तानि तत्रैवोपनिबद्धानि । पञ्चमे त्वध्यायेोत्साहादीनि छन्दांसि मुख्यतया व्यावर्णिताऽपभ्रंशभाषोदाहरणानि ख्यापितानि षष्ठे षट्पदी - चतुष्पदीनां शासनम्, सप्तमे चानेकधा व्यावर्ण्य द्विपयभिधानमतिरुचिरतरं प्रकरणं, प्रान्ते प्रस्तार- नष्टोद्दिष्ट-सर्वेकाऽऽदिगलक्रिया-सङ्ख्याऽध्वयोगesson षट् प्रतिपादिताः प्रत्ययाः २ प्रत्येयाः प्रतीतप्रतिभानामष्टमेऽध्याये सूरिभिः । तदेवमतीवोपयोगिनोऽस्याऽऽरन्धं मुद्रणं मोहमयी नगरीवास्तव्यगुणगरीयस्त्वलन्धगुरुगरिम्णा श्रीसङ्घेन परयाऽस्माकमखिल भ्रमण सङ्घपादपङ्कजचञ्चरीकायमानानां प्रेरणया, क्षन्तव्यं चक्षान्त्यादिनिखिलाऽक्षतगुणाऽगारतया रत्नाकरायमानैर्निर्मानै ५४ रमेयगुणरत्नरत्ना करायमानश्रीमज्जिनवरोदितोदितोदितशासन-शासनप्रभावकैर्वितीर्य दयां " मन्तुक्षमा मूलभूतामस्मा स्विति प्रार्थयामहे " आत्मगुणलीनमानस - चरणपङ्कजपट्पदा आनन्दोदन्वदभिधानाः ॥ नवसारमासार - पूर्णायामार्य राजनि । ५५. X श्री पार्श्वपादपूतायामपूर्यानन्दसाधुभिः ||१|| ५. एतन्मुद्रणाधारभूता प्रतिः श्रीराजनगरीय श्री उमा भ्रातृश्रेष्ठिभाण्डागाराल्लब्धपूर्वा दुर्लभैव च प्रतिरस्येति भविष्यन्त्यशुद्धयः प्रचुरा अत्र, ज्ञापनीया वयं परं ता यतो द्वितीयसंस्करणे सह भव्यजनैरस्माकमुपकारकारिण्यो द्रुततरमिति प्रार्थनाऽवधारणीया धीमद्भिर्भवद्भिः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दो० ३५० पूर्तिः] [. * श्री छन्दोऽनुशासनोपक्रमपूर्तिः * क्वचित्किञ्चिदनुसृत्य भवेन्मतान्तरमुपन्यस्तं नामान्तरमिति छन्दोरचनाकर्तृणामपरेषामभिप्रेतानि आख्यानान्तराणि दिदर्शयिषया बाहुल्यं केवलं भरतस्यैकस्यापि मतेनेति तनाम्नाऽन्यनाम्ना चान्यानि समुदितानि संग्रहितान्यत्राभिधानान्तराणि । अन्यनामनि यत्रोपलब्धो विशेषो लिखितः सोऽपि इति चिन्हे कृत्वान्तरे, भविष्यति च विदुषामेतदवलोकनेनापि "सकलप्रमाणपथावतीर्णच्छन्दोऽनुशासनप्रवणापरग्रन्थनवनीतास्पदत्वमस्य छन्दोऽनुशासनाभिगानस्य शास्त्रत्य ॥ भरतमते ३-केशा-धूः मुकुलं-वीथी सुमुखी-द्रुतपादगतिः । मृगी-तडित् शफरिका-गिरा ७ कमलदलाक्षी-रुचिरमुखी मदना-रजनी ४-उष्णिक शिखा द्रुतविलम्बित-हरिणप्लुतम् सुमुखी-ललिता कलिका-भोगवती भुजङ्गप्रयातम्-अप्रमेया विलासिनी-जया हरिविलसितं- द्रुत) गतिः स्रग्विणी-पद्मिनी समृद्धिः -पुण्यम् प्रमाणी-मत्तचेष्टितम् ९ नन्दिनी-मनोवती सुमतिः-भ्रमरी ५-भुजगशिशुसृता-मधुकरिका १० मालिनी-नान्दीमुखी विदग्धका-चागुरा पणव-कुवलयमाला ११ ऋषभगजविलसितं पङ्क्तिः -कुन्तलतन्वी ___(मन्सगाः इत्यपि) मत्तगजविलसितम् सती-शिखा रुक्मवती-पुष्पसमृद्धिः १२ पृथ्वी-विलम्बितगतिः अभिमुखी-कमलमुखी ६-श्री रुचिरा (यत्यनियमे | मन्दाक्रान्ता-श्रीधरा रमणी-नलिनी प्रत्यवबोधः) शशिवदना-मकरशीर्षा स्वागता-(भद्रिका) अपरवक्त्रम् (अत्र चाङ्कस्थानानि छन्दोऽनुशासनप्रतिगतपृष्ठसूचकानि ज्ञेयानि । प्रथमनाम मूलप्रतिस्थं द्वितीयं च नाम भरतमुनिमान्यतानुसारं विज्ञेयम् । सं०) Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ ] [ छन्दो० ३५० पूर्तिः अन्यमते ३ स्त्री-पद्मम् वैश्वदेवी-चन्द्रकान्ता स्रक्-माला (पिङ्गल:) मदः पुष्पम् मालती-वरतनुः चित्रा-मण्डूकी चञ्चला पक्ति:-अक्षरोपपदा प्रमुदितवदना-गौरी कलभाषिणी-अरविन्दकम् अभिमुखी-मृगचपला प्रमुदितवदना-चञ्चलाक्षी । सुन्दरं-मणिभूषणं, रमणीयम् शशिवदना-मुकुलिता तामरसं-कमलविलासिनी |१६ संगतं-पद्ममुखी, सुरता ४ कलिका-सोपानम् विभावरी-चसन्तचत्वरम् समुद्धरणं-सोपानकम् हरिविलसितम्-चपला मेघावली-वसन्ता कामुकी (सुगौः) सोमडकम् मधुकरिका-वज्रम् |१३ सुवक्त्रा-अचला जयानन्दं प्रवरललितम् ९ कामिनी-तरङ्गवती कुटिलगति:-नर्तकी १७ वंशपत्रपतितं-वंशदलम् १० रुक्मवती-चम्पकमाला नन्दिनी-कनकप्रभा, अतिशायिनी-यादवी रुक्मवती-सुभावा जयाः-सुमंगली हरिणी-वृषभललितम् कुमुदिनी-कुसुमसमुदिता कुटनं-भ्रमरः अवितथं-नकूटकं (जयदेवः) माला-प्रमिता त्वरितगतिः-लघुगतिः-चपला १८ काश्ची-वाचालकाञ्ची ११ श्रीः-सान्द्रपदम् १४ वसन्तः-नान्दीमुखी उज्जवलं-मालिका श्येनी-निःश्रेणिका वसन्ततिलका-उद्धर्पिणी उत्तरमालिका १२ वंशस्थ-वसन्तमअरी (सैतवः) निशा तारका वंशस्थं-अभ्रवंशा सिंहोन्नता-काश्यपः भङ्गी-विच्छित्तिः कलहंसः-द्रुतपदा वलना-लता |१९ मेघविस्फूर्जिता-रम्भा कलहंसः-मुखरम् धृति:-मणिकटकम् (स्वयम्भूः)वञ्चितं-विचितम् उज्ज्वलं-चपलनेत्रा स्खलितं-महिता २० मुद्रा-उज्ज्वलम् कुसुमविचित्रा-मदनविकारा कान्ता-वनमयूरः चित्रमाला-सुप्रभा कुसुमविचित्रा-गजलुलितम् कुटिलं-हंसश्येनी कामलता-उपमालिका कल्याणं-काश्चनम् १५ शशिकला-चन्द्रावर्ता २१ सिद्धिः-चित्रलता प्रियंवदा-मत्तकोकिलम् । (पिङ्गलः) रुचिरा-शशिवदना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दो० उप० पूर्तिः ] २२. मदिरा-लताकुसुमम् २३. हंसगति : - महातरुणी दयितम् २४. मेघमाला - भङ्गा नीलालका (अर्धसमे) मालभारिणी 5 मार्मिक - सुभाषित 5 उपक्रान्तिश्छन्दसामकाराद्यनुक्रमेण नाऽत्राऽऽचीर्णा, यतो मूलमंत्र पाथक्येन मुद्रितमेव, उदाहरणची तु नैवेतादृशे प्रकरणे उपयोगिनीति न तत्राऽऽद्रियामहे, यदि च भविष्यति द्वितीयावृत्तौ सोपयोगिताऽस्याः, तामपि प्रकाशयिष्यामः । ★ परस्वभावे रमणं विहाय, नितम्बिनी (विषमे ) कलिका - मञ्जरी (पिङ्गलः) [ ७३ रमस्व जीवाऽऽत्मगुणे शुभे त्वम् ॥ ★ उद्वीक्षतेऽनुक्षणमात्मरूपं स एव मार्गे प्रतिपन्न आत्मा ॥ ★ कर्माणूनां रसततिमशुभां साम्यरूढः क्षिणोति ॥ ★ शुद्धं रूपं मंधु संसारक्षत्यै ॥ – पू० ध्यानस्थ-स्वर्गत आगमोद्धारकश्री- विरचित - सूक्त -संचयतः । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఉదదదదదదదదదదదదదదదదదదదTOON श्रीपूज्यपादागमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीलिखितप्रस्तावना ___ विषमपदार्थसूचिका आनन्दलहरी-टिप्पणी ___ (छन्दोऽनुशासनम् ) XPREPAREERTex १. सहृदयानां हृदयं तदेवालवालः तत्रोद्गता याऽनवद्या विद्यारूपा व्रततिः-लता, तस्याः फलयुगलं सम्यग्ज्ञान-क्रियारूपं, तस्याऽऽस्वादार्थ सतृष्णं-उत्कंठायुक्तं अन्तःकरणं येषां ते इति व्युत्पत्ति रत्रार्थानुपातानुसारं विज्ञेया । २. सर्वानि च यानि तन्त्राणि-दर्शनान्तरीयशास्त्राणि । तेषामानुकूल्येन, सर्वदर्शनसम्मतरीत्येत्यर्थः । ३. अतिशयेन निबिडा या चासौ जडिमा अज्ञानदशा तयाऽवष्टब्धा, व्याप्ता या मानसवृत्तिः, तस्याः प्रातिकूल्येन गाढाऽज्ञानदशाबलोत्पद्यमानविरुद्धभावाऽपसारणेनेत्यर्थः । ४. नास्ति प्रतिमा-साधर्म्यवती व्यक्तिः यस्यैतादृशो यः सुधारसः, तद्वदाचरमाणा या अनघा= दोषरहिता शब्दसृष्टिः तस्याः शर्वरीशः चंद्रस्तद्वदाचरमाणादिति विग्रहः । ५. स्वः स्वर्गः, शिवश्रीः-मुक्तिलक्ष्मीः, तयोः प्रदाने पटुः निपुण इति विग्रहः । ६. पङ्कस्य मलिनत्वार्थे विवक्षां कृत्वा अत्र 'निर्मल' इत्यर्थसङ्गतिः कार्या । ७. एषा हि गाथा प्रायः निशीथचूर्णिगता संभाव्यते । ८. पापरूपा या व्याघ्री भावजीवितव्याघातिका, तस्या आवसथा वसतिः, तस्या इति व्युत्पत्तिः । ९. स्वसम्बन्धि-वाणीव्यवहारेष्वित्यर्थः । १०. एतद्धि विशेषणं "क्रोधकृशानोः उद्भूतिः' इत्यस्य विज्ञेयम् । ११. शब्दानुऽशासन-लिङ्गाऽनुशासनस्वरूपे । १२. पापरुपपङ्कस्याऽपहारः-निरासः, तद्रूपा या शोधिस्तस्याः विततिः प्रसारस्तस्मै । १३. अविकलैः व्यवस्थितस्वरूपैः विभावाऽनुभावाऽव्यभिचार्यादिभिः संकलितः स्वभावो येषामेतादृशानां रस-भावादीनां यदभिधानं तान्येव रत्नानि, तेषां निधानरूप इति विग्रहः । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छन्दो० उप० टिप्प०] १४. एतत् पदस्य प्राक्तनेन 'न भवति' इत्यनेन सहाऽन्वयो बोध्यः । १५. एतस्याऽपि "न भवति" इत्यनेन सहाऽन्वयः । १६. अतीतश्च अनागतश्च वर्तमानश्च योऽसौ कालस्तमथवा येऽतीन्द्रिया अर्थास्तेषां ज्ञानेन सम्पन्नता___ऽऽदिरूपो यः प्रभावस्तेन लब्धं कलिकालसर्वज्ञत्वरूपं बिरुदं यैस्तेषामिति विग्रहोऽत्रावबोध्यः । - इदं हि पदं अग्रेतन "श्रीहेमचन्द्रप्रभूणा''मित्यस्य विशेषणं विज्ञेयम् ॥ १७. पाणिनीयाद्यानि च तानि अखिलानि=समस्तानि शब्दानुशासनानि तेषां यशःरूपो यस्तारागणः, तस्य या प्रभा, तस्याः पटले विकर्तनः-सूर्यस्तत्समप्रभम् इति व्युत्पत्तिः । १८. इदं हि पदं सर्वव्याकरणेषु मूर्धन्यरूपेण गीयमानस्य पाणिनीय-व्याकरणस्याऽपूर्णताद्योतकं काकूत्प्रेक्षागमकं विज्ञेयम् । ___महर्षिपाणिनिना सूत्राणि रचितानि, मुनिकात्यायनेन वात्र्तिकं विरचितम् , भगवता पतञ्जलिना महाभाष्यं सन्दृब्धम् , तथाऽपि पाणीनीयं शब्दाऽनुशासनं बहुत्र शब्दव्या वृतावसमर्थमूनं वाऽनुभूयते विद्वद्भिः । १९. सम्पूर्ण सर्वप्रकारेणेत्यर्थपूरकमिदं पदम् , नहि सम्पूर्णीकृतमित्यर्थः । २०. बालैः सुष्टु बोध्येत यथा तथाप्रकारं, यथावत् यथार्थ पृथग् व्यवस्थितरीत्या यद् ज्ञानं, तस्य - करणे उपयोगिकरणभूतमित्यर्थः । २१. स्वर-व्यञ्जनानामाबालप्रथितानुक्रमसङ्गतिनाऽवधारणादिसौकर्यगुणयुक्तमित्यथैः ।। २२. काव्यं, तस्य हेतवः, स्वरूपं, गुणाः, दोषाः, रसः, तदादीनां यत् स्वरूपं तस्य विभावना=पर्यालोचनं तदर्थ अपूर्वः=विलक्षणः आदर्श: दर्पणं तद्वदाचर्यमाणमिति तात्पर्यानुसारी विग्रहः । २३. अस्य पदस्य सन्दर्भादिगतस्य “तयुक्तमेवे" त्यनेन सहान्वयः । एवं च तम् अतीताऽनागत..........सर्वज्ञत्वबिरुदानां भगवतां श्रीमद्धेमचन्द्रप्रभूणां क्रमेण श्री सिद्धहेमाख्यं......शब्दानुशासनम्..........लिङ्गानुशासनं........काव्यानु शासनं चेति जगति अप्रतिमरचनं युक्तमेव" इति तात्पर्यानुगुणोऽन्वयः ? बोध्यः । २४. शकलितः खण्डीकृतः शङ्कारूपो दोषः येनेति व्युत्पत्तिः । २५. अनेकेषां छन्दसां विज्ञानरूपः योगः यस्मादिति व्युत्पत्तिर्विज्ञेयाऽत्र । २६. छन्दोभङ्गाः उच्चारे वर्णमात्रा दिन्यूनाधिक्येन स्खलनं, विरतिः छन्दसि कुत्र कियदक्षरेषु कियतीसु मात्रासु च विरामः, एतत्प्रभृतियों विवेकस्तेन या वाग्मिता-कुशलता इति विग्रहः । २७. अखण्डा-सम्पूर्णा या पण्डा=सदसद्विवेकशालिनी बुद्धिः, तयाऽनुगताः विचाराः येषां, तेषां । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] [ छन्दो० उप० रिप्पं० २८. धीः बुद्धिः सारा=अधीना येषां तेषां, श्रेष्ठबुद्धिमतामित्यर्थः । २९. छन्दोऽनुशासनमपि। ३०. प्राक् उदीरिता=व्यावर्णिता चासौ, अनीरिता नाम कस्यापीरणं सहायकर्म नास्ति यस्यामित्ये तादृशी या अनुशासनत्रयी शब्दानुशासन-लिङ्गानुशासन-काव्यानुशासनरूपा । ३१. अत्र हि 'कणिका'शब्दप्रयोग एतद्ग्रंथस्योपयोगित्वेन स्वीकृतौ न कस्याश्चिदल्पप्रमाणाया अपि शङ्काया लेशमात्रप्रसर इति ध्वनयति । ३२. विद्यारूपा या प्रतत्यः लताः तासां ततिः श्रेणिः, समूहो वा, तदर्थं भूरुहः वृक्षा इव ये तेषां । विद्यासम्पन्नविदुषामित्यर्थः । ३३. मोहयति यत् तत् मुह मोहः (क्विबन्तप्रयोगः) उज्झितः मुहौस्ते तेषां, वस्तुविचारे व्यामोह रहितानामित्यर्थः । ३४. ऊहा=पूर्वापरसङ्गतिपर्यालोचनस्वरूपा तां स्वीकुर्वताम् , पूर्वाऽपरसङ्गतसमीक्षाविचारशक्ति मतामित्यर्थः । ३५. अनवयं यत् अनुशासनं व्यवस्था, तद्रूपाणां शब्द-लिङ्ग-काव्यछन्दःरूपविद्यानां ज्ञानानां यत् चतुष्कं तस्य यत् अनुशासनं-सम्यक्बोधस्तत्र अलंभविष्णु-समथै यत् अनुशासनचतुष्कं= शब्दानुशासन-लिङ्गानुशासन-काव्यानुशासन-छन्दोऽनुशासनरूपशास्त्रचतुप्कं तस्येति व्युत्पत्ति. रानुसारिणी विज्ञेया । ३६. इतरथा नाम प्राङ्निर्दिष्टसमासादितरः विस्तरस्तथाकरणे=विस्तरतः व्यावर्णने । ३७. तस्य-जीवनचरित्रस्य । ३८. तथा विस्तरतः व्यावर्णनारूपेण । ३९. स्थल-समय-सङ्कोचादिकारणत इति शेषः । ४०. प्रस्तुत छन्दोऽनुशासनरूपं अपश्चिमं=अन्तिमं यदनुशासनं, तस्य मानेन सापेक्षत्वरूपेण अतिशयेनाऽतिरेकः महत्त्वरूपो यस्य इति तात्पर्यगामी विग्रहः । एतद्धि विशेषणं अग्रे निर्दिष्ट तस्ये तिपदलक्ष्यजीवनचरित्रस्य विज्ञेयम् । एतस्य विशेषणस्य अयं भावः अनुमीयते यत् । एतद्धि छन्दोऽनुशासनं प्रणिनीषितानुशासनचतुष्टयेऽन्तिमं, अतः एतस्य हि मुद्रणावसरे ग्रन्थकर्तुः जीवनचरित्रं नाऽतिसंक्षेप-विस्तरेणाऽपि समुल्लिखनीयमिति । ४१. जीवनचरित्रस्य । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ t ७७ छन्दो० उप० टिप्प० ] ४२. तत्राऽपि = मध्यमरोत्या जीवनचरित्राssलेखनेsपि । ४३. सुधा=अमृतं तस्य मधुरीकार : - मधुरीकरणं तस्य करणं = चेष्टेति भावः । ४४. चतुराणां = विचारदक्षाणां यत् चक्रं तत्त्वसमीक्षा - गोष्ठयादिषु बोभूयमानं वृत्ताकारेण जायमानपर्षदो रूपं, लक्षणया चक्राकार स्थितपर्षदि संमिलित विदुषामपि चक्रत्वेन व्यवहृतिमपेक्ष्य जाता - वेकवचनं च विवक्ष्याsत्र तस्य चेतसि इति सङ्गन्तव्यम् । ४५. ईदृक्=प्रस्तुतग्रन्थसदृशः गुम्फः रचनाप्रकारः विद्यते यस्य तदिति विग्रहः । ४६. तत्तद्विशेषा = वेदादयस्तेषामुपयोगि इति विग्रहः । ४७. प्रज्ञाया यदवदातत्वम्–नैर्मल्यं, तेनावज्ञातः पुरन्दरस्य- इन्द्रस्य गुरुः=बृहस्पतिर्यैरिति विग्रहः । ४८. निस्सीमा चासौ प्रतिभा च तस्याः यः प्राग्भारः तेन पराकृतम् = अभिभूतं पुरन्दरगुरु-सरस्वत्योः न तस्य इति तात्पर्यगामी विग्रहः । ४९. सर्वतन्त्रेषु =सर्वशास्त्रेषु स्वतन्त्रा साहाय्याऽपेक्षारहिता चाऽसौ घोषणा = बुद्धिस्तयाऽन्वितत्वम् इति भावः । ५०. अत्र चतुर्थी “क्रुद्रुद् हेर्ष्यासूयार्थाना " मिति (२-२-) सूत्रेण व्याप्याऽर्थे ज्ञेया। ५१. न लब्धं मध्यं=अवगाहो यस्याः, एतादृशो यः मतिरूपो हूहः तस्मात् निर्व्यूढश्चासौ प्रवाहः, तत्कल्पानि इति व्युत्पत्तिः । ५२. प्रतीतिविषयं नेया इत्यर्थः । ५३. प्रतीता = प्रख्याता प्रतिभा येषां तेषाम् । ५४. अमेयानि च तानि गुणरत्नानि तेषां रत्नाकरायमानाः, तथा श्रीमद्भिः जिनवरैरुदितं यत् उदितोदितं=अतिशयेन उदयापन्नं शासनं = नियमनं यस्यैतादृशशासनस्य प्रभावकाः तैरिति भावः । ५५. मन्तुरपराधः तस्य या क्षमा तस्याः मूलभूतानाम् । ५६. आत्मनो ये गुणाः मौलिकशक्तिविशेषाः, तेषु लीनं मानसं येषां तेषां चरणपङ्कजयोः षट्पदरूपा इत्यर्थानुकारिणी व्युत्पत्तिर्ज्ञेयाऽत्र । ५७. सकलाश्च ते प्रमाणपथि अवतीर्णाश्च छन्दसामनुशासने प्रवणाः, अपरे च ते ग्रन्थाश्च तेषां यत् नवनीतं=सारभागः तस्यात्पत्वमिति तात्पर्यगामी विग्रहोत्राऽवबोद्धव्यः । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ UNUNUNUN USISASSASSASSASSASSSÁSBANSASSİSAS ASOS ASSOSX श्रीआगमोद्धारकाऽऽलेखित-प्रस्तावनासंग्रहस्वरूपे आनन्दरत्नाकरे NICOOOOOOOOOOOK नवमं रत्नं श्रीजल्पकल्पलता-प्रस्तावना XMQMUMUHAMMAMMUAMMUSK विदितपूर्वमेतद्विदुषां समेपा' मपेतद्वेषपुषां 'हृद्गुहाऽऽहितधर्मधैर्यकेसरिकिशोरपोषाणां यत वैक्रमीये त्रयोदशे शतके 'निखिलखिलस्खलनाऽस्खलितबलप्राग्भारपुण्यसंभारभ्राजिष्णुभवनहतमारविकारसंचार-विधिवद्विधूतराज्यादिसमस्तसारनिकराऽनादिकालीनकर्मततिनिहतिप्रभप्रभावलब्ध- रमारामादिसङ्गव्यासक्तपारगतपुरुषोत्तमपशुपतिप्रभृतिलौकिकगणाऽय॑देवसंदोहा वितर्य-परमयोगिवेद्य-केवलावलोकनलम्पट-केवलविच्छीमज्जिनेन्द्रशासनानुसारिशासनश्रीपत्यास्थाने भास्करायितं श्रीमद्भि राशाम्बरपराभूतिसमर्पणप्रवणैर्यथार्थाभिधानैः श्रीदेवसूरिभिः । स्पष्टं चैतत् स्पष्टितगुर्वावली-बोधजातस्वान्तपरिकर्मणां'श्रीदेवसूरिरपरश्च जगत्प्रसिद्धो, वादीश्वरोऽस्त गुणचन्द्रमदोऽपि बाल्ये ॥१३॥ येनादित श्चतुरशीतिसुवादिवेलालब्धोल्लसज्जयरमामदकेलिशाली। वादावहे कुमुदचन्द्रदिगम्बरेन्द्रः, श्रीसिद्धभूमिपतिसंसदि पत्तनेऽस्मिन् ॥१४॥ -इत्यादिविलोककाना मखिलविन्मतजोषकाणाम् । समजायन्तच श्रीसिद्धाधिपहृदरविन्दावासपद्मापरिवृढा वादाद्यगण्यलब्धिनिधानभूता लोके० समस्तसारेतरनिरीक्षणचणे वन्धतमचरणकमलाः श्रीमन्तोऽनेकवादविजयलब्धकीर्तिमुखरितदिक्चक्रवालवादिगजघटाविशरणनदीष्ण-शार्दूलशौर्यशरणशिष्यश्रेणिविस्फारितयशोनिचयाः अनेके शिष्या भुजिष्याः। प्रादुर्भूतश्च भाग्यवाःप्रवाहप्रोषितसद्बुद्धिकस्तूरिपरिमलानां "ब्राह्मणश्रमणं” इतिन्यायसत्यापनसादराणां १४ दिवसनाथालोकप्रसर इवोलूकानां द्विजातीनां मत्सरोऽनू नो । विवेकेक्षणक्षोदकः । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অন্ধ গলা ]। [७९ हेतोरमुष्मादेव श्रीमता ''परमपुण्यपाथेयपुष्टात्मश्रीमद्वर्णनीयपादानामागमनोत्सधे. ऽकाण्ड एवारब्धं विवादलास्यं वाराणसीवासवासितानिवर्त्तनीयासममोहनीयमलमुषितान्तःकरणनिलयज्योतिरालयाविवेकालयेन शंकरग्रामण्या, पर्यनुयुक्ताः परमगुरवः "शैशव- यौवन - वार्धक्यरूपावस्थात्रितयविहिताऽनेकदुर्दमवादिवृन्दजागर्जद्गजघटाकुम्भकषणकण्ठीरवायमाणा वाद्युपाध्यलकृताः स्वाभाविकसौभाग्यभङ्गीपरिवृतकरणाः 'प्रतिभाप्राग्भार पराभूतपीयूषपायिप्रणयार्चितचरणदेवाचार्याः श्रीमदाराध्यपादाः श्रीमद्देवाचार्याः कान्तासम्मिततया शब्दार्थप्राधान्यं प्रोज्झ्य २२केवलरसप्राधान्यावगाढानेकस्वरूपे काव्यविषयेऽर्थप्राधान्यमनुसृत्य 'साधनीयार्थसिद्धिसाधनसाधनसावधानायामान्वीक्षिक्यां चौष्ठगोष्ठीमिषेण । तादृशे चावसरे "ऽवसरवेदवेधसामन्तिपदामुपस्थानं नाऽसमञ्जसं प्रत्युतोभयपक्षनिष्पक्षपातप्रशंसाप्रबन्धास्पदम् , अन्तर्भाषणादि-प्रतिबन्धकापत्तिस्त्वा२ पाद्यमानास्थानधर्माख्यानकुशलवार्ता वृत्तान्तप्रख्येष्वन्तेवास्यधिकारबहिर्भूतेषु, श्रीमतां च २'चौलुक्यचन्द्रश्रीसिद्धराजमौलिमुकुटद्योतिचरणचरणरुहामनेके अभवन् श्रीमन्तो रत्नप्रभ-माणिक्यमुनि-महेन्द्रसिंहाद्याः २"गुरुप्रवरपरिचर्यापर्याप्त्याप्तपारमर्षादिप्रचुरतरराद्धान्तसिद्धान्ता वादविजयाहवाहूतजयश्रियः"सिद्धान्ततत्त्वनदीष्णताकनकनिकषपट्टा विदिता जगतीतले जगज्जन्तुजातजीवितत्राणक्षमक्षमादिगुणगणाङ्गीभूताः, समापतितश्च मल्लप्रतिमल्लन्यायेन वादसमरो 'जगज्जनयितृविषयस्तत्र मुनिमाणिक्येन माणिक्यदृढतातिशायिना माणिक्येन महात्मना, एष एव महात्माऽपरेष्वप्येतादृशेषु शेषेषु प्रयोजनेषु दिनकर इव दिने स्वप्रभाव प्रादुरभावयदेव । प्रभावकचरितेऽपि श्रीमद्देवसूरीयप्रबन्धे तत्प्रभावः परमो बोबुध्यत एव, यतस्तत्र कुमुदचन्द्रवादप्रकरणे । अथाह देवसूरीणां, माणिक्याख्यो विनेयराट् ॥ कः कण्ठीरवकण्ठकेसरसटाभारं स्पृशत्यधिणा, कः कुन्तेन शितेन नेत्रकुहरे कण्डूयनं काङ्क्षति । कः सन्नाति पन्नगेश्वरशिरोरत्नावतंसश्रिये, यः श्वेताम्बरदर्शनस्य कुरुते वन्द्यस्य निन्दानिमाम् ॥९४॥ अथ चोवाच माणिक्य, विज्ञप्ति लिख मामिकाम् । श्रीमत्पत्तनसङ्घाय, विनयातिशयस्पृशम् ॥१११॥' Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [जल्पकल्प० प्रस्ता. एष एव च महात्मा महो हातुमशक्त इहापीति कुशलोदन्तानुयोगमासूत्र्य भट्टमणितितति'मनतिक्रम्याततवानास्थानं वादस्य जगत्कर्तृत्वसद्भावेतरद्रूपं । न चात्र "नोधमैनोद्यधिषणाधिगतधर्माधारागमधारैर्यदुत न तावच्छङ्करोऽनुमन्यते जगत्कृर्तृतां, यतोऽद्वैतवादरसिको हि सः, स्पष्टं चैतत्तदीयशरीरकमीमांसायां पदे पदे, यत'स्तदितिहासाऽनुशीलनशालिभिः "प्रतिभाभारिभिर्भगवद्गीताभाष्यवाक्यव्रजम'मरुकमहीपतिमहिषीसमाजिगमिषाविषयक- पद्मपादान्तेवासिव्यक्तवचनवीथिविनोदनानुनहरिप्रभवानुकरणख्यानंचावष्टम्भयद्भिः कथमेकान्तो ब्रह्मकान्तिक: "कान्तस्तेषामित्येकान्तयितुमेकान्तःकरणीभवितुमाभाव्येत । ___ नैवाथवाऽस्ति तस्य स्ववचननियन्त्रितस्यान्योऽध्वा, यतः प्राक् प्रकटितवान् यदुत 'सर्वाऽऽस्तिकवर्गवर्णितप्राप्तिकमनीयकैलासवासाऽसाधारणकारणकाशीविकाशाऽवकाशादागैमेमोति, तेन लब्धापूर्वलाभक्षयकृत्क्रियाकारिताऽऽविष्कारादनन्तरं किमन्यद् देयं "स्यादनुत्तरमुत्तरमनुत्तममनीषिणा *मिति तदेवोत्तरितवान् । . भवतु वाऽसम्मतं, ४ 'वेदानुसारिसमस्तसृष्टिस्पृगनुसरणायाश्रितं, परं तत्रोपन्यस्तो•ऽनेकसन्यस्तेतराश्रितो हेतुः कार्यत्वाख्यः कार्यसाधकतया, ""पिष्टश्चासौ "तिलपेष पुष्टप्रतिभेन ५ °मुनिामणिक्येन श्रीमता माणिक्येन सावयवत्व-संस्थानवत्त्वविकारित्व-कृतमितिप्रतिभोत्पादकत्वविकल्पशिलासूनुना ५२तमसिद्ध विदधता, आविर्भावितमेतद् विततेन श्रीमता ग्रन्थकृताऽऽद्येन गुणवाद्येन स्तबकेन । ५५तत्राऽन्तराऽन्तरार्थ क्रिया-घटनापद्धतिप्रकटन--कूटस्थनित्यतानिराचरीकरणाऽऽकाशीयकाष्ठाक्रमवावदि (दी) ति-नभोद्रव्यावस्थानिबन्धनव्यापकता-सहगत्वरत्व-सप्रदेशत्वाऽऽदि संपादितं ५ "लक्षणसमीक्षणविचक्षणेक्षणीय स्वरूपवृन्दम् , ५८विचाखण्डितं चाऽचेतनोपादानाऽभूतभाविप्रागसतः स्वकारणसत्तासमवायेत्यादिकं कार्यरूपं. प्रकल्पितं तच्चिदुत्पादवियदुत्पादाऽपवर्गाऽवस्थाऽवस्थानादिना यथायथं मतिमन्मनश्चकोरचन्द्रायमाणप्रबन्धेन । द्वितीये तु "तस्मिन्विस्मितिविधायि यद् गृहीत-मुक्ताक्षराऽसमस्तपदाऽष्टादशाशा-नियतानुप्रास-गुप्तश्लोक-श्लेषश्लिष्ट-करपल्लवी-वाक्यान्त-वर्णैक्य-कृग्धातुक-चेक्रीयितक्रिया-नामधातुगम्यास्तिकाचं न्यगादि 'निगदितमहिम्ना महानुभावेन ततमाततकाव्यकोविदताऽनुयोगाऽनुयुक्तये । आन्वीक्षिक्यां तु 'आयस्तयककर्तृहेतुविशेषविशेषकर्त्तनाय दूषणमुदघोषि “घुष्टामरयशसा, तत्र "विरुद्धत्वमवरुद्धत्वात्सशरीरत्वेन कर्तृतायाः 'स्वाभा Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्पकल्पलता०] [८१ विकोत्पादुकतसकलितमूर्तीनां तरुगुल्मतृणाऽऽदीना' "मकलितधीमद्धेतुकानामवाधबोधबोधनादकान्ताऽकामविरक्तानामनैकान्तिकता। विकल्पितं च "विरुद्धबुद्धिकुदबुद्धिककुबोधविततध्वान्ततमोऽरातिना मुनिपतिपादपनपरागपानपीनमधुपायिनाऽगोचरे' गणेशजनयितुर्विद्यादिप्रभावाननु चतुर्की, 'चराघरोद्भवचरीकृतिचर्यायामा यतमप्रेक्ष्य प्रयोजनवत्ता-कर्मेरिति-स्वभावतादृश्याऽऽभिधमभिहितं भिदा त्रितयं त्रिपुरासुरपुरत्रितयमिव । तथाच न चेद् बाधा कार्यप्रत्यक्षेऽप्यप्रत्यक्षत्वे कः कतुः एवापरः कालात्ययापदिष्ट: कालत्रयेऽपीत्यभिप्रायात् , अशरीरत्वेन नैवासौ विश्वविधाता विश्वीयेऽर्थनिचये ततः सत्प्रतिपक्षता, दर्शिता उपाधिभेदा अपि । ... स्तबके "चाऽस्तोकयुक्तिस्तबके तृतीयस्मिन्नुदीराम्बभूवे महाप्रभावेण यत् स्रष्टुः सृष्टरक्यमितरद्वा, व्यापकत्वे तस्य वपुषाऽशुचिपदार्थपलिपरीतता, ज्ञानरूपेण तु तथात्वे न विधायिता विश्वस्य, ५ असावश्याऽविनाभूता यथार्थोदितिनोदनपटिष्ठता पशुपतेरिव 'द्रव्यादिनवानवार्थतावादिनः, तमश्छाययोरप्यपराभवनीयच्छाययोरखाधबोधविषयत्वात् । पर्यन्ते प्रस्तष्टं स्पष्टितं च धर्माऽधर्माऽऽकाश-काल-पुद्गलाऽऽदीनां यथायथं रूपं ."संक्षेपेणातितमेनावगम्य चागमेशितशयवासपवित्रपवित्राङ्गे यथार्थमवगमं सोऽवीभणदर्भकभारत्यभिधया यतिवर्यम् । . सर्व "चैतच्छ्रीमद्रत्नमण्डनसिद्धान्ततत्त्वरत्नमण्डितात्मान आविर्भावितवन्त: श्रीमन्तो रत्नमण्डनाः, श्रीमन्तश्च श्रीमद्रत्नशेखरसूरिवर्येषु भासमानेषु ८ श्रीमज्जिनशासननभोभागभानुमालिषु श्रीमन्नन्दिरत्न-पादमकरन्द-मुग्धमनोमधुपाः । ___सरिवराणां भूमण्डलभामिनीमण्डनकालश्च षोडशशतीयो वैक्रम इति श्रीहीरसौभाग्य-सोमसौभाग्य-विजयप्रशस्तिप्रभृतिग्रन्थतत्यवलोकनतो निश्चेचीयते निर्णयचणैर्मनीषिभिरिति "श्रीप्रभूणामपि स एवाऽनेहा, ८५नचोपलब्धिसृतिमायाता इतरे श्रीमदीया ग्रन्थाः, भविष्यन्ति परं अष्टमपत्रऽवोचाम चेत्युपलब्धेरनुमितेः, परं स्युश्चेदवगता निपुर्णपिनीयोऽहमिति प्रार्थये सुध्यनघकपावृष्टिमभिलाषुकः * * * ॥ वीरात् २४३८ तम वर्षे भाद्रपद-पूर्णिमायां लिखितम् ॥ .. Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PORONOUTORRECOREDEECTIVECORNETICOREATRETRERENTS श्रीपूज्यपादाऽऽगमोक्षद्धारकाचार्यश्रीलिखितप्रस्तावना विषमपदार्थसूचिका आनन्दलहरी-टिप्पणी (जल्पकल्पलता-प्रस्तावना) WIRDANDDDDDDDDDDDDDDAR १. पुषणं-पुष् , (पुष् धातोः क्विबन्तरूपम् । द्वेषस्य पुष-द्वेषपुष , अपेतः द्वेषपुइ येषां तेषामिति विग्रहः, द्वेषपोषणरूपाऽनर्थप्रवृत्तिरहितानां मध्यस्थानामित्यर्थः । २. हृदयरूपिणी या गुहा तस्याम् आहितः विहितः धर्मविषयकधैर्य (आपत्तिकालेऽपि मनःस्थिरता) रूपकेसरिकिशोरस्य पोषः (पोषणं पोष इति घञन्तरूपम् ) यैस्तैरिति व्युत्पत्तिरर्थानुगामिका विज्ञेयाऽत्र । ३. (अ) निखिलानि च तानि खिलानि-विघ्नाः, तेषां याः स्खलनाः, ताभिरस्खलितं बलं यस्यैतादृश • प्राग्भार(श्रेष्ठ )पुण्यस्य संभारः=समूहः, तेन भ्राजिष्णुः, भूधनः=देहः येषां ते इति प्रथमोऽशः । (आ) हतः प्रस्खलितः मारस्य कामस्य विकाराणां संचारः यैरिति द्वितीयोऽशः । (इ) विधिवत् =औचित्यविनियोगपूर्वकं विधूतः=विशेषेण ज्ञानगर्भवैराग्यरूपेण धूतः त्यक्तः समस्तश्चासौ साराणां श्रेष्ठानां (वस्तूनामिति शेषः) निकरः-समूहः यैरिति तृतीयोऽशः । (ई) अनादिकालीना या कर्मणां सन्ततिः परम्परा, तस्याः निहतिः-मूलोच्छेदरूपेण निश्शेषेण विनाशः, तस्य प्रभुः=समर्थः, एतादृशः प्रभावः लब्धः यैरिति चतुर्थोऽशः । (उ) रमा च रामा चेति रमारामे, ते आदौ येषां एतादृशसङ्गेषु-परिग्रहेषु वि=विशेषेण आसक्ताः प्रबलमोहोदयजन्यगृद्भिवन्तः, एतादृशाः ये पारगत( बुद्ध )पुरुषोत्तम( विष्णु )पशुपति( महादेव )प्रभृतिभिः लौकिकगणैः स्थूलबुद्धिजनैः अर्घ्यः यः देवसंदोहः, तेन वितर्कयितुमपि न शक्येत यस्य=जिनेशितुरनुपमाऽऽत्मवैभवसामर्थ्यम् एतादृशः इति पश्चमोऽशः । (ऊ) परमयोगिभिः - केवलज्ञानिभिः वेत्तुं शक्याः-ये अप्रतिमाद्भुताऽऽत्मसमृद्धिमन्त इति षष्ठोंऽशः । (ऋ) केवलं समस्तं लोकालोकविषयं पदार्थजातं तस्य अवलोकने समस्तपर्यायसहितविशिष्ट ज्ञाने लम्पटासाहजिकरीत्या प्रवणा केवलवित्=केवलज्ञानं येषां ते इति सप्तमोऽशः । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्पकल्प टिप्प० ] [ ८३ उपरिनिर्दिष्टविशेषणसप्तक- संसूच्यमान - विशिष्ट - गुणालङ्कृता ये श्रीमन्तो जिनेन्द्रास्तेषां शासनं = आज्ञानिर्देशरूपं तदनुसरति यत् तत् शासनं तद्रूपा, या श्रीः तस्याः पतिः = राजा, तस्य आस्थानं = राजसभा तस्मिन् इति सद्गुरूपासनासमुपबृंहित निर्मलधीगम्याऽर्थानुसन्धानलब्धजन्मा विग्रहः बृहत्कायसमस्तपदस्यैतस्य विज्ञेयः । ४. आशाम्बरेभ्यः=दिगम्बरेभ्यः पराभूतेः = पराजयस्य समर्पणं तस्मिन् प्रवणैः समर्थैरिति । ५. स्पष्टिता = विशदतरं वर्णिता गुरूणां आवली = क्रमागतपरम्परा यत्रैतादृशा या गुर्वावलीनाम्नी कृतिः, तस्याः बोधेन जातं स्वान्तसः = निजचेतसः परिकर्मणं = अज्ञानज्ञानरूपेणाऽवबोधेन येषां तेषामिति विग्रहः । ६. पूज्याssचार्य श्री देवसूरिभिः बाल्यावस्थायामप्रौढ दशायामपि गुणचन्द्राऽव्य-दिगम्बरवादिपराभवः कृत आसीत् एतदर्थसंसूचनमत्र विहितमस्ति । ७. चतुरशीतयश्च ते सुवादिनः = प्रखरविद्वत्तादर्पशालिनः वाद कुशलाः पंडिताः, तद्रूपा या वेला = समुद्रजले वृद्धि:, तया लब्धः उल्लसन् चासौ जयः, तद्रूपा या रमा, तस्याः मदः, तस्य केलिना शालते योऽसौ इति विग्रहः । चतुरशीतिवादस्थले महत्तम - विद्वधुरंधरवादकलाकुशल- पण्डितानां पराभवेनोत्पन्न-मदप्राग्भारस्य श्री कुमुदचन्द्रवादिनः निर्देशोऽत्र विज्ञेयः । ८. अखिलं=समस्तं निरवशेषं विदन्ति ये ते सर्वज्ञा इत्यर्थः, तेषां मतं शासनं, तस्य जोषकाणां = सेवकानां सर्वज्ञशासनानुयायिनामित्यर्थः । ९. श्रीसिद्धाधिपः=श्रीसिद्धराज जयसिंहः तस्य हृद्रूपमरविंदम्, तत्रावासः यस्याः, एतादृशी पद्मा= शोभा, तया तस्यां वा परिवृढाः श्रेष्ठाः इति विग्रहः । १०. समस्तं यत् सारेतरयोः = सारासारयोः निरीक्षणं तत्र निपुणः तस्मिन्, एतद्धि पदं लोके इत्यस्य विशेषणम् । ११. अनेके च ते वादाश्च तेषां विजयेन लब्धा या कीर्तिः, तया मुखरितं दिशां चक्रवालं यैः, एतादृशा ये वादिगजानां घटाः श्रेणयः, तासां विशरणे = विनाशे नदीष्णोः यः शार्दूलः = सिंहः, तस्य यत् शौर्य, तस्य शरणभूता = आश्रयस्थानरूपा या शिष्य श्रेणिः, तया विस्फारितः=प्रसारितः यशसां निचयो येषामिति व्युत्पत्तिरर्थानुसारिणी विज्ञेया । १२. सेवकाऽपरपर्यायमिदं पदं लक्षणया विशिष्टसेवाभावाञ्चितचेतस्कविनेयोत्तंसगमकं विज्ञेयं । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४] [ जल्पकल्प० टिप्प० १३. कुत्सितं च तद्भाग्यं च इति अभाग्यं (नञोऽत्र कुत्सार्थपरकत्वात् ), तद्रूपं यत् वाः जलं तस्य प्रवाहेन प्रोषितः दूरीभूतः सद्बुद्धिरूपाया कस्तुर्याः परिमलो येषां तेषामिति विग्रहः । __एतद्धि मत्सराऽऽधीनानां द्विजन्मनामशुभाऽऽयफलककर्मपरवशानां साहजिक-वारिप्रवाहवत् सर्वव्यापिन्याः सद्बुद्धेः शून्यत्वस्य कृत्रिमत्वं ध्वन्यते । १४. दिवसनाथः सूर्यः, तस्याऽऽलोकः-प्रकाशः, तस्य प्रसरे इति विग्रहः । १५. विवेकरूपं यत् ( ईक्ष्यतेऽनेनेति) ईक्षणं चक्षुः, तस्य क्षोदकः=नाशकः, इत्येतेन पदेन मत्स.. रस्य विवेकविरोधित्वं व्यज्यते । १६. परमं च तत् पुण्यं, तद्रूपं यत् पाथेयं, तेन पुष्टः आत्मा येषां, एतादृशानां श्रीमतां वर्णनीय . पादानामिति व्युत्पत्तिरत्र विज्ञेया । १७. विवादस्य चर्चात्मकवादस्य लास्यं नृत्यं इति व्युत्पत्तिरत्र, किंतु अत्र 'लास्य'पदनैतदभिव्यज्यते .. यत् 'फलाधायकशक्तिविरहेऽपि वैदुष्याऽभिमानमूलकवावदूकतया विवादप्रवणताऽऽदृतेति ।' . १८. वाराणस्यां यो वासः तेन वासितः, अत एव अनिवर्तनीयश्चासौ असमः=विलक्षणो यो मोहनीय रूपमलः, तेन मुषितं अन्तःकरणे निलयः स्थानं यस्याः ज्योतेः विवेकरूपप्रकाशस्य यत् आलयं, . तथा चाऽविवेकस्याऽऽलयभूतः तेनेति विग्रहः तात्पर्यानुसारी बोध्यः । .. १९. शैशवं बाल्यावस्था च, यौवनं युवावस्था, वार्धक्यं वृद्धावस्था च, एतद्रूपानामवस्थानां यत् त्रितयं, तत्र विहितं यदनेकेषां दुर्दमानां वादिनां वृन्दरूपाया जागर्जती अतिशयेन विद्यामदेनोन्मादप्रयुक्तवचोवती गजघटा=करिश्रेणी, तस्याः कुम्भस्य गण्डस्थलस्य कषणं हिंसनं, तेन कण्ठीरवः= सिंहस्तद्वदाचरमाणा इति व्युत्पत्तिरत्राऽवबोध्या । २०. स्वाभाविकं च यत् सौभाग्यं तस्य या भङ्गी विविधता, तया परिवृतानि व्याप्तानि करणानि= इन्द्रियाणि येषां ते इति । २१. प्रतिभायाः यः प्राग्भारः, तेन पराभूताः, पीयूषं पिबन्ति ये ते (ताच्छील्येन)=देवाः, तैः प्रणयेन अर्यितौ चरणौ येषां, एतादृशाः देवाचार्या=बृहस्पतयः यैरितिविग्रहः । २२. केवलं=निरपेक्षं यत् रसस्य प्राधान्यं तेनाऽवगाढं व्याप्तं अनेकस्वरूपं यस्यैतादृशे इति । २३. साधनीयाः ये अर्थास्तेषां या सिद्धिः, तस्य साधने करणे साधनानि हेतवः तत्र सावधाना तत्परा या तस्यामिति व्युत्पत्तिः । २४. भवसरः प्रस्तावः समुचितकार्यकरणस्येतिशेषः,तद्रूपो यो वेदः, तस्य वेधा=ब्रह्मा, तत्तुल्यानामिति । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८५ जल्पकल्पलता०] २५. आपाद्यमानं यत् आस्थाने सभायां धर्माख्यानं तथा कुशलवार्ता-सुखशाता, तस्या यः वृत्तान्तः तत्प्रख्येषु-तत्कथकेषु इति तात्पर्यानुसारं विग्रहोऽवबोध्यः । २६. चौलुक्याः चुलुकाभिजनवंशोद्भवा राजानः, तेषु चंद्रतुल्यो यः श्रीसिद्धराजः,तस्य मौलिः मस्तकं, तत्रस्थमुकुटेन द्योतितं चरणरूपं चरणं-जलं तत्र रुह कमलं येषां, तेषामिति विग्रहः । २७. गुरूणां ये प्रवरा :श्रेष्ठाः तेषां परिचर्याया-चरणोपासनाया पर्याप्तिः साफल्यं, तेनावाऽऽप्ताः पारमर्षादयः ये प्रचुरतरा : ये राद्धान्ताः स्थिरतरमतविशेषास्तेषां सिद्धान्ताः यैरितिवित्रहः । २८. वादस्य यो विजयस्तद्रूपो य आहवः युद्धं, तत्र आहूता जयश्रीः यैरिति व्युत्पत्तिः। २९. सिद्धान्तभूतं यत् तत्त्वं, तस्य नदीष्णता कौशल्यं, तदेव कनकं, तस्य निकषपट्टरूपा ये ते इति ३०. जगति वर्तमाना ये जन्तवः, तेषां जातस्य जीवितस्य त्राणे क्षमाः ये क्षमादयो-गुणास्तेषां ___गणस्याऽङ्गीभूता ये ते इति । ३१. जगतः संसारस्य जनयिता-उत्पादकस्तद्विषय इति । ३२. माणिक्यं श्रेष्ठरत्नम् , तस्य या दृढता-अनिर्भयता तमतिशेते योऽसौ तेनेति । ३३. जगतः कर्तृत्वं तस्य सद्भावः सत्ता, इतरत्-असद्भावस्तद्रूपमिति । ३४. शङ्कनीयमित्यर्थः । ३५. अनोद्या=अशंकनीया या धिषणा=बुद्धिस्तयाऽधिगताश्च ते धर्मस्याऽऽधारभूता ये आगमास्तान् . धारयति ये ते तैरिति । ३६. तस्य शङ्कराख्यविदुषः इतिहासस्तस्यानुशीलनं तदादिभिरिति । ३७. प्रतिभायाः भारः समूहः विद्यते येषां तैरिति । ३८. अमरुकनगरस्य यो महीपतिः राजा, तस्य महिषी पट्टराणी, तस्याः समाजिगमिषा=समागमेच्छा, तद्विषयकं, तथा पद्मपादाऽऽख्यान्तेवासिना व्यक्ता प्रकटीकृता या वचनानां वीथिः-पद्धतिः, तस्य या विनोदना, तया नुन्नं-प्रेरितं यत् हरिप्रभवस्यानुकरणख्यानमिति तात्पर्यानुसारी विग्रहो ऽत्रावबोध्यः । ३९. सुंदर इत्यर्थः। ४०. अत्राऽन्वयसङ्गतिरेवमवबोध्या-"अथवा स्ववचन नियंत्रितस्य तस्य अन्यः अध्वा न अस्ति" इति । ४१. सर्वे च ते आस्तिकाः तेषां यो वर्गः, तेन वर्णितः प्राप्तिः यस्यैतादृशः, कमनीयश्चासौ कैलासे वासः तस्य यत् असाधारणकारणंकाश्यां विनाशभूते योऽवकाशः निवासः तस्मादिति । ४२. अत्र आगमम् - आगमनमित्यर्थः । ४३. लब्धो यः अपूर्वस्य-विशिष्टधर्म्यक्रियाद्वाराजन्यस्याऽदृष्टविशेषस्य लाभः, तस्य क्षयं करोति योऽसौ, एतादृश्याः क्रियायाः कारितो य आविष्कारः तस्मादिति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६] [ जल्पकल्पलता ४४. न उत्तरः-श्रेष्ठः यस्मादिति अनुपमित्यर्थः । ४५. न उत्तमा यस्मादन्येषां मनीषा, एतादृशी मनीषा विद्यते येषां तेषामिति । ४६. वेदाननुसरते या समस्ता चासौ सृष्टिः, तां स्पृशंति येते तेषामनुसरणमिति । ४७. अनेके च ते सन्न्यस्ताः सत्प्रतिपक्षाः, इतरे च ये दोषा, तैराश्रित इति । ४८. पिष्टः-चूर्णीकृतः । ४९ तिला यथा पिष्यन्ते तथा । ५०. पुष्टा=प्रबला प्रतिभा विद्यते यस्य तेनेति । ५१. सावयवत्वम् , संस्थानवत्त्वम् , विकारित्वं, कृतं इतिरूपा ये प्रतिभाया-उत्पादकत्वं येषां ते विकल्पा एव शिलासूः लघुः पिषणयाषाणः (लोढी) तेनेति । ५२. तम्-कार्यत्वाख्यं हेतुम् । ५३. विततेन=विस्तृतेन, इदं हि विशेषणं "स्तबकेन" इत्यस्य ज्ञेयम् ५४. गुणैः वदितुं योग्यो योऽसौ इति, गुणश्रेष्ठ इत्यर्थः । ५५. तत्र-प्रथमे स्तबके। ५६. अर्थः प्रयोजनं, तस्य क्रिया, इतरदर्शन्यभिमतं वस्तुनो हि गमकलक्षणभूतमिदमर्थक्रियाकारित्वम् । ५७. लक्षणानि वस्तुनः गमकानि, तेषां समीक्षणे विचक्षणाः निपुणाः, तैरीक्षणीयमिति । ५८. यङ्लुबन्तपमिरूम् अतिशयेन खण्डितमित्यर्थः । ५९. तस्मिन् स्तबके इत्यर्थ । ६०. 'गृहीत'पदस्याऽग्रेतनाऽ'क्षर पदेन सह सम्बन्धो विज्ञेयः । तेन प्रहेलिकाभेदगत गृहीताक्षर — भेदो 'ऽत्र बोध्यः ६१. निगदितः विशेषेण वर्णितः महात्मभिः महिमा यस्य तेनेति । ६२. ततम् निबद्धम् आतता=विस्तृतीया काव्येषु कोविदता, तस्या अनुयुक्तये इति । ६३. आये स्तबके वर्णितो यः कर्तृरूपो हेतुविशेषः, तस्य विशेषतः कर्तनाय इति । ६४. घुष्टं अमरैः यशः यस्य तेन । ६५. विरुद्धत्वनामकहेत्वाभासदूषितत्वमित्यर्थः । ६६. स्वाभाविकीया उत्पादकता उत्पत्तिशीलता, तया आसकलिता-व्याप्ता मूत्ति: स्वरूपं येषामिति । ६७. अकलितः अज्ञातः धीमद्भिः हेतुः उत्पत्तिकारणं येषामिति । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्पकल्पलता ] ६८. उदबोधः = विशिष्टरूपेण बोधनं तस्मादिति । ६९. विरुद्धाऽसौ बुद्धिश्च तां करोति योऽसौ, एतादृशो यः अबुद्धिकानां कुबोधः, स एव विततं = विस्तीर्ण यत् ध्वान्तं=अन्धकारः तस्य तमोऽरातिः सूर्यः तेनेति विग्रहः । ७०. मुनिपतिः=तीर्थकृत्, तस्य यत् पादपद्मं तस्य परागस्य पानेन पीनः = पुष्टः मधुपायी= भ्रमरस्तेनेति । ७१. गणेशः = गणपतिः, तस्य जनयिता = पुराणाद्यानुसारेण महादेवः = शङ्करः, नामसाम्येनाऽत्रापि शङ्कराख्यवादिनः अगोचरे = बुद्धिक्षेत्रागोचरे इति तात्पर्यसङ्गतिरत्र दृश्यते । [ ७२. चरं च तत् अचरं च तस्य य उद्भवः तस्य या चरीकृतिः, अतिशयेन कृतिः तस्य चर्या तस्यमिति । ७३. आर्यतमैः प्रेक्ष्यं प्रयोजनवत्ता - कर्मे रिति-स्वभावतादृश्य इत्येतदभिधम् इति ज्ञेयम् । ७४. अस्तोकाः = बहव्यश्च ताः युक्तयः, तासां स्तबकरूपे इति । ७५. यथार्थोदितिः=सत्यनिरूपणा, तस्य नोदनायां पटिष्ठता = निपुणता इति । ७६. द्रव्यादीनां नवानां अनवार्थतां वदंते ये ते इति । ७७. अतिशयेन संक्षेपेण इत्यर्थे “अतित मेण संक्षेपेणे" तिप्रयोगोऽत्र । ७८. आगमस्य ईशिता = रचयिता तीर्थकरः गणधरो वा, तस्य शयौ पदौ, तत्र वासेन पवित्रीभूतं पवित्रमङ्गं तस्मिन्निति । ७९. श्रीमद् - शोभायुक्तं यत् रत्नजटितभूषणं, तद्रूपा ये सिद्धान्ताः, तद्गतैः तत्त्वभूतैः रत्नैः मण्डित आत्मा येषामिति । ८०. श्रीमज्जिनानां शासनरूपो यो नभोभागः, तत्र भानुमाली = सूर्यः तद्रूपेषु इति । ८१. श्रीमतां मन्दिरत्नानां पादयोः मकरन्दे मुग्धमनः मधुपवत् ये ते इति । ८२. भूमण्डलमेव भामिनी तस्याः मण्डनं तस्य काल इति । ८३. निर्णयकुशलैरिति । ८४. श्रियाः प्रभवः तेषामिति । ८५. उपलब्धिः ज्ञानं तस्या, सृतिः- पंथः तामिति । ८६. ५रमित्यस्याsत्र “ परन्तु " इति अर्थः । ८७. “च” इति पदेनान्यग्रन्थानामुपलब्धेरनुमितिर्जायते । ८८. सुधीनां अनघा या कृपा, तस्याः वृष्टिः तामिति । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकाssलेखित प्रस्तावनासंग्रहरूपे श्री आनन्दरत्नाकरे दशमं रत्नं श्रीयोगदृष्टि० उपोद्घातः योगदृष्ट्युपद्धातः ॥ श्री गणधरेन्द्राय बोभवतु नतितयः ॥ यदुत अवधारयन्तु 'अनवधृतधिषणाऽधिगमाधरीकृत धिषणाधिषणास्तत्रभवन्तः शुभवन्तः सैदपर्य प्रकरण मे दुपदीक्रियमाण े ममानमानोन्मान वितरणचणमुद्विश्या' ऽक्षताद्यन्तेक्षणीयं प्रणेतारोऽस्य स्याद्वादज्योतिप्रभाप्रचयाऽवाप्ताऽबाधबोध्यपदार्थ प्रकर- प्रतिहतानादिकालीनशुभेतरवासनाभिव्यञ्जक पशुवधतगम्यगमाद्यनार्यकार्यकारणबद्धकक्ष – जैमिनीयाऽबाध्यप्रत्यक्षाssदिप्रमाणमचयप्रमितिप्रमेयस मुदयापह्नवप्रचुरका प्रेक्षा सरश्रीव्यासादिमतगाः श्रीश्वेताम्बर - गाग्रणीपदप्रतिष्ठिताः श्रीमन्तो हरिभद्रसूरयः । प्रादुर्भविष्यत्येव पर्यनुयोजकानां परमपदप्रदानपट्वबाधबोधप्रेप्सूनाम 'खिलाडखिलबोधधुराधरेयमान्या प्रश्नततिरस्मिन् यदुत कदा किमर्थं चाssविर्भावो बोभूयाञ्चक्रेऽस्य ग्रन्थचक्रे ? | तत्र प्रथमे तावत् पर्यनुयोगे - 9 "पंच पणसीए, विक्कमकालाओ झत्ति-अत्थमिओ । हरिभद्दसूरिरो, धम्मरओ देउ मुक्खसुहं" ॥५३॥ इतिविचार सारसारोदाहारात् स्पष्टं स्पष्टीभवति स्पष्टतमयथार्थेतिहास - ग्रन्थाऽभ्यासानां (यत्) "वैक्रमीये शतके षष्ठे सूरीणामज्ञानध्वान्तत तितिरस्करणतरणीनां भूमण्डलभाभिनीतिलकायिता सत्ता ।" ये चाऽनवबुद्ध सिद्धान्ततत्त्वाः संगिरन्ते यदु " न स्यात्तावन्मात्रेऽन्तराले सति व्यवस्थिताऽऽगमव्यावर्णनं विस्तृततरं, सिद्धान्त - पुस्तकाऽऽरोहकालोऽपि यतः स एवेति भाव्यमनेइसाचीनेनेति” (ए) तदयुक्ततमता प्रतिभापथमापतिष्यति तदीयां चतुश्चत्वारिंशदधिकग्रन्थ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयोगदृष्टि० उपोद्घातः ] [ ८९ चतुर्दशशतीमवाप्तबौधैर्वार्धक्येऽपि विनिर्मितां प्रायश्चित्तरूपतया स्वीकृतां कृतधीविषयविषयां विलोककानां विवेचकानां, व्यक्त विबुधव्यक्तीनां सामर्थ्यप्रतिभानं तत्र, तथा च नोक्ताऽऽशङ्काकणिकापि । १ १ अन्यच्च पुस्तक व्यवस्थाया व्यवस्थया विद्वद्भिः संभूय भूयो भव्यभव्याऽवबोधनिबन्धनबन्धुरतोद्बोधनेन प्रतिष्ठितत्वात् न तत्कालो लोकोक्तिप्रसारवत् नवीनकृतिख्यातिबद्वाऽत्र त्राणकारी तेषां यथायथं । तत्त्वार्थसाधक-तत्वार्थवृत्तिकृत्सिद्धसेन गणीनां वचनततिग्रुपजीविनः श्रीमन्तः साधु साधितसाध्या इति तदवक्तमाः स्पष्टतममित्यपि न " विचारचणचणीयं यतः " तथा चाऽऽह महामतिः" इत्यादिवाक्यवृन्देन वर्णितो महामतिः सिद्धसेन दिवाकरो यथार्थाभिधानः १२ कुविकल्प विश्वच्छायाच्छेदनच्छेक - शतसहस्रग्रन्थग्रथनाबोधतमस्तत्यवष्टब्धान्तःकरण विकासकरणकोविदतमत्वाद्, यतो दरीदृश्यन्त एव पूज्यपादवर्णितानां "प्रसिद्धानां प्रमाणानां" इत्यादीनां वचनवृन्दानां श्रीमद्दिवाकरपादप्रणीतेष्वेव न्यायाऽवताराऽऽदिषु मूलत आविर्भावः । श्रीमत्सिद्धसेनगणयस्तु द्वितीयाऽध्यायवृत्तौ संज्ञां व्याख्यायन्तो व्याख्यामुपवर्णितवन्तः श्रीनन्दीसूत्रीयां हारिभद्रीं, तथाच द्वयेषां "श्रीमद्दिवाकर - गणिपदोपाधीनां सूरीणां पार्थक्य विलोकनेन स्पष्टं प्रतिभास्यति श्रीमतां तत्कालीनत्वं । १५ यच्च श्रीमत्सिद्धर्षि समकालीनतामाकलय्य स्वान्तेन १४ ध्वस्तज्ञानधाम्ना प्रतिपाद्यते तेषामत्रचीनता "आचार्यहरिभद्रो मे, धर्मबोध करो गुरुः" इति भवप्रपञ्च प्रपञ्चनपटूपमितभवप्रपञ्च कथामालम्बमानेन, तदपि पूर्वाऽपरविचारशून्यमेव, यतो वक्ति महात्माऽसौ स्वयं “ अनागतं परिज्ञाय" इति, तथा च नैते समकालीना द्वये । न च चर्च्यमेतत् यदुत गुरु-शिष्याऽऽदिव्यवहारो नाऽसमकालीन इति, यतो व्यवहारविशेषाणां विशेषतया व्यवहारात्, न वाऽत्र व्यवहारव्याहृतिरस्ति, किन्तु ख्यातात्मन उपकारित्वयेनापि विहितं महात्मना, न च विवाद: स्वयंख्यातरि लब्धख्यातौ ख्यातरि । तथा चोपमितिभवप्रपञ्चीयः प्रथमः प्रस्तावः । “ये च मम सदुपदेशदायिनो भगवन्तः सूरयस्ते विशिष्टज्ञाना एव, यतः कालव्यवहितैरनागतमेव तैर्ज्ञातः समस्तोऽपि मदीयवृत्तान्तः, स्वसंवेदनसंसि - द्धमेतदस्माकमिति । " “देशकालव्यवहितानामपि जन्तूनां छद्मस्थाऽवस्थायामपि वर्त्तमानाः ।" तथाच निवादं विद्वद्वृन्दवेद्यं निर्णयमेनमा तिष्ठामहे १२ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [ श्रीयोगदृष्टि० उपोल्यातः ....... "यत् नैते पूज्यपादाः श्रीमतः सिद्धसेनगणेरर्वाचीनाः, सिद्धर्षेः समकालीनाथ, किन्तु प्राचीनाः ''पूर्वोक्तयन्थसम्मतशरवृत्तवार्त्तशरीरवृत्तयः ।" अत एव च १७"कतिपयप्रवचनाऽर्थतारतारकविशेषानुपदिदर्शयिषुः" इति श्रीमदभयदेवप्रभूक्तं पश्चाशकीयं वाक्यं क्राम्यति मतिमतां मनसि, १ नेदीयस्त्वात्पूर्वविक्छेदस्य केषाश्चित्तदर्थानां तैरवधारणाद्धेतोः । . अपि चात एवोदीरितं “पटुतमबोधलोचनतया" इति । - तथा च १९प्रभुप्रभविष्णुवदनमलयनिसृतानां प्रकरणसुगन्धीनां कुतः प्रादुर्भावो ? परीवर्तमानवीतरागागमाम्बरे २१तथाविधवचनव्रजाऽनवलोकनादिति कल्पितं कूटकल्पनाकल्पनकोविदः कुट्टितं निष्टङ्कनीय । प्रयोजनं सामान्यतो विदितं 'लोकरूढितत्प्रभावलब्धप्रभवग्रन्थविशेष "सिद्धान्तसारा"ऽऽदिविलोकनतः प्रायश्चित्तस्य प्रतिपत्ति: २४पञ्चेन्द्रियप्रचयपरासुकरणकल्पनाकर्तननदीष्णुः, तथापि व्यक्तं "आत्मानुस्मरणाय च" (२०५) 'अतः परोपकारोऽपि (२०६) इति समालोकनात् लोककानामात्माऽन्योपकार इति प्रतिभापथमागमिष्यति । अभिधेयनिर्णये तु यद्यप्यन्यैः “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः" (पा. १-२) इति लक्षितं, तथापि शून्यतायां मूर्छिताधने कावस्थायामपि तथाभावादन्यथापि च "तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानं" (पा० १३) इति फलानुकूल्याभावाल्लक्षणं लक्षितं लक्षणैकचक्षुष्कैः प्रभुभि र्भावसारं "मोक्षयोजनभावेन" (११) इति वाक्येन तादृग्मोक्षानुकूलचेष्टामात्रस्य योगलक्षणलक्ष्यत्वं, तथाच को भेदो भवतां गुप्तेर्योगस्येति निरस्ततरां । एषैव चेच्छा-२५शास्त्र-सामर्थ्यपर्यन्तानुधावनधौरेयी धारणाऽन्यथा सामर्थ्यस्य व्याघातादित्यलं प्रसक्तानुप्रसक्तेन। अत्राऽभिधेयस्य योगस्य बालबोधानुसारी विभागश्चिकीर्षित इति प्रथमं "मित्रा तारा बला दीप्रा स्थिरा प्रभा परा" इति नामत उद्दिश्य दृष्टयोऽष्टौ, तत्स्वरूपं, तत्रत्यो बोधः, खेदाऽऽदिदोषाऽपनोदोऽद्वेषाऽऽदिगुणप्राप्तिश्च यथायथं निष्टङ्किता । २ विपश्चिद्विज्ञानवेद्य चाऽत्र सञ्चारितं चारित्रचङ्गिमाऽऽधारैः योगबीजानि, शिष्टानुसारिता, अवश्चक्योगत्रयं, अवेद्यसंवेद्यपदं, भवाभिनन्दिलक्षणानि, कुतर्कनैरर्थक्यं, शास्त्रप्राधान्यं, सर्वज्ञमताऽभेदः, २ प्राणिवैचित्र्यनिबन्धनदेशनावैचित्र्यमित्याया चतुर्थ्या Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयोगदृष्टि० उपोद्घातः ] दृष्टेः, आक्षेपकज्ञानं, भवव्याधिक्षयः, नित्यानित्यैकान्तनिरासः, गोत्र कुल-प्रवृत्तचक्रयोगस्वरूपं, इच्छा-प्रवृत्ति-स्थिर-सिद्धियमस्वरूपं, इत्यादि चाऽऽसमाप्तेः। संपादितं चैवं श्रीमद्भिर्मोक्षमभिलाषुकानां गुणस्थानवृन्दमिव विचारणीयतमं योगाऽङ्गाऽऽदिकामनावतां दृष्ट्यष्टकं क्रमभावि । ___ तथाचाऽस्य २८विततैवाऽऽवश्यकी मुद्रणेति आरब्धमेतन्मुद्रापयितुं २ इटाल्याविषयनिवासिना विद्वद्वर्येण सुएलीत्याबानेन, चित्रतरं चैतदेव यदुत न यत्र तादृशो भाषाध्यापकाः, तद्भाषाप्रचुरपुस्तकप्राप्तिस्तत्परिचयश्च, धर्मश्चान्य एव बाह्यदृष्ट्या, तथापि प्रस्तुतप्रकरणे. तेन परिश्रमः प्रारब्धः, समाप्तश्च निर्वेतनः । मुद्रणं तु गौर्जरीयसुरतपत्तनामिजनश्रेष्ठिवदेवचन्द्रलालभ्रातृनियुक्त-पुस्तकोद्धारमात्रोपयोगिलक्षद्रम्मव्यवस्थापत्रनियमित-कुसीदव्ययव्यवस्थाकारकश्रेष्ठि-नगीनभ्रातृभिरनुष्ठितं । प्रान्ते प्रार्थये विगतप्रार्थनार्थान् सज्जनान् मान्यतमान् इदं यदुत ग्रन्थकृतां शोधकस्य मुद्रापकस्य च चरितं चित्ते निचीय सफलीकार्या कृतिस्तेषां यथावदायन्ताऽवलोकनेन तदुक्ताऽनुशीलनेन च यथाशक्तीति १२सज्जनमनोऽनुसारिसरलसरण्यनुगन्ताऽऽनन्दोदन्वान् । स्तम्भपार्श्वप्रभोः पाद-भव्येच्छाकल्पशाखिभिः। समृद्धे स्तम्भतीर्थेऽयमुपोदरात उपस्कृतः॥१॥ 'वसु-रस-नन्द -निशेश प्रमिते भावसितत्रयोदश्याम् । आनन्देनानन्दे, यथार्थवार्तः समो ह्येषः ॥२॥ मोहनीयकर्मप्रबलता "xxx मोहस्य तिमिरेणोपमा सा दर्शनमोहनीयस्य यथार्थ-तत्त्वबोधश्रद्धानप्रतिपन्थकत्वमाश्रित्योक्तेति ज्ञेयं । _____ बुद्धो हि केवलिप्रज्ञप्तो धर्मोऽवश्य मोहतिमिरं विनाशयति, अनन्तशोऽप्यात्तानि चारित्रानि मोक्षफलमाप्तिं प्रत्यफलान्येव ज्ञातानि । ____ भगवतः केवलिनो धर्मस्य बोधरूपस्य लब्धिस्तु न जातु कस्यापि मोधीभवति, यतो यः कोऽप्यसुमान् लभते भगवतः केवलिनो धर्मस्य बोधि, स नियमादन्तरपाधपुद्गलावर्तादनावृत्तिपदं लभेतैव, ततो यथार्थमुक्तं भगवता केवलिना प्रज्ञप्तधर्ममधिकृत्य 'मोहतिमिरंसुमाली 'त्ति । -पू. आगमो० आचार्यप्रणीता श्री पंचसूत्र सं० टीका Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఆయనను ఉ దయం నుండి సంయుక श्रीपूज्यपादागमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीलिखितप्रस्तावना विषमपदार्थसूचिका आनन्दलहरी-टिप्पणी (श्रीयोगद्दिष्ट० उपोद्घातः) Haryay vaerrerrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrror १. अनवधृतः स्थिरीभूतो यः धिषणायाः बुद्धरधिगमः प्राप्तिः, तया अधरीकृता धिषणस्य बृह___ स्पतेः धिषणा=बुद्धिः यैरिति व्युत्पत्तिरत्र शब्दानुप्रासमिश्रितार्थगभीरस्यैतस्य पदस्य ज्ञेया। २. अमानं-मानरहितं यत् मानं-ज्ञानं, तस्य उन्मानं प्रमाणातीतं यत् वितरणं-दानं, तत्र चणं निपुणमिति तात्पर्यगामी विग्रहोऽत्र बोध्यः । ३. अक्षतं अखंडं यथा स्यात्तथा, आदिश्चान्तश्चति आदितः अंतं यावत् ईक्षणीय अवलोकनयोग्य मिति विग्रहः । ४. स्याद्वादः सापेक्षवादः तद्रूपो यो ज्योतिष्पतिः सूर्यः, तस्य प्रभायाः प्रचयः समूहः, तेनाऽवाप्तः अबाध बाधारहितं यथा स्यात्तथा बोध्यानां पदार्थानां प्रकरः यैरिति एकोऽशः । प्रतिहताश्च ते अनादिकालीना या शुभेतरा अशुभा चासौ वासना, तस्या अभिव्यअकानि यानि पशूनां वधः, अगम्यानां गम इत्यादीनि च तानि अनार्याणि कार्याणि तेषां कारणे-कारापणे बद्धकक्षाः ये जैमिनीयाः जैमिनीमतानुसारिणः, तथा अबाध्यानि-बाधितुमशक्यानि यानि प्रत्यक्षाऽऽदीनि प्रमाणानि तेषां प्रचयः-समूहः, तेन जायमाना या प्रमितिः ज्ञान तेन प्रचेयाः (धातूनामनेकार्थत्पात् 'चि' धातोरत्र ज्ञानपरकत्वं विवक्ष्य ) प्रकर्षेण ज्ञेयाः ये प्रमेयाः: सद्भूतपदार्थाः, तेषां समुदयस्यापन्हवे अपलापे प्रचुरः प्रेक्षायाः प्रसरो येषां ते श्रीज्यासादयश्च, तेषां गणाः समूहाः यैरिति तात्पर्यानुगामी अर्थानुसन्धानबललब्धजन्मा विग्रहो ऽवबोध्यः । ५. परमं च तत् पदं च, तस्य प्रदाने पटुः क्षमः योऽबाधः=बाधारहितो यो बोधः, तस्य प्रेप्सवः= प्रकर्षणाप्तुमिच्छवः तेषामिति । ६. न विद्यते खिलः विघ्नाऽवरोधः यत्रैतादृशश्चासौ योऽखिलः समस्तः बोधः=ज्ञानं, तद्रूपा या धुरा तत्र धौरेयाः धुरावहनसमर्थवृषभतुल्याः, तैः मान्येति विग्रहः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीयोगदृष्टि० उपो० टिप्पणी ] [ ९३ ७. स्पष्टतमश्चासौ यथार्थश्च इतिहासग्रन्थानां-पूर्ववृत्तघटनासंकलनरूपग्रन्थानां अभ्यासो येषामिति ___व्युत्पत्तिरत्र ज्ञेया। ८. कृता-पदार्थनिर्णये समर्था या धीः, तस्या यो विषयः अवगाहक्षेत्रं, स विषयो यस्याः तामिति विग्रहः । ९. भव्यश्चासौ भव्यानां तत्त्वज्ञानयोग्यानां योऽवबोधः, तत्र निबंधनरूपा या बन्धुरता-मनोहरता तस्या उद्बोधनेनेति । १०. तत्त्वभूता=यथार्थज्ञानयोग्या ये अर्थाः जीवादिपदार्थाः, तेषां साधकं विषयस्वरूपनिष्टङ्कनेन यत् तत्त्वार्थाख्यं सूत्रं प्रकरणं वा, तस्या वृत्तिमकुर्वन् ये ते सिद्धसेनाख्यगणयः तेषामिति व्युत्पत्तिरत्र ज्ञेया। ११. विचारे चणाः=निपुणाः तैः चर्वणीय ग्रहणयोग्यमिति भावानुसारी विग्रहः । १२. कुविकल्पानां विश्वा=समस्ता या च्छाया तस्याः, छेदने छेकाः=निपुणाः समर्था वा ये शत सहस्र-परिमिता ये ग्रन्थाः, तेषां या ग्रथना=रचना, तस्या अबोधरूपं यत् तमः, तस्याः ततिः= परम्परा, तयाऽवष्टब्धं व्याप्तं यदन्तःकरणं, तस्याः विकासकरणे कोविदतमत्वाद् इति विग्रहः तात्पर्य-गामकशैल्या सङ्गमनीयः । १३. श्रीमदिवाकराख्यं च गणिसंज्ञं च यत् पदं-गुणपूजास्थानं, ते उपाधी प्रशस्यविशेषणरूपे येषां तेषामिति विग्रहः। १४. ध्वस्तं ज्ञानरूपं धाम तेजः यस्मात् इति । १५. भवस्य संसारस्य यः प्रपञ्चः, तस्य प्रपञ्चनं=विस्तारेण कथनं, तत्र पटुः समर्था या उपमितिभव प्रपञ्चा, तामिति । १६. पूर्वोक्ता ये ग्रन्थाः तेषां संमता या शरद्-वर्ष तत्र वृत्तं जातं वार्तशरीरं वार्ताकथारूपं यत् शरीरं, तत्र वृत्तिः येषामिति विग्रहः । १७. कतिपये च ते प्रवचनानामर्थरूपा ये ताराः तेजस्विनो ये तारकविशेषाः तान् इति । १८. समीपकालवर्तित्वादिति भावः । १९. प्रभोः पूज्यस्य प्रभविष्णु-विशिष्टशक्तरुत्पत्तिस्थानभूतं यद् वदनं मुखं तद्रूपान् मलयात्= सुगंधिचन्दनवृक्षमूलभूमिरूपपर्वतविशेषात् निःसृतानामिति । २०. वरीवर्तमाना=अतिशयेन भव्यजीवानामुपकारकरणशीलत्वेन वर्तमाना ये वीतरागप्रभुप्रणीता ये आगमाः तद्रूपे अम्बरे आकाशे इति । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ [ श्रीयोगदृष्टि० उपो० टिप्पणी २१. तथाविधानां पूर्वधरकालसमीपवर्त्तित्वानुमापकानां वचनव्रजानामनवलोकनात् इति । २२. कूटा असत्या या कल्पना, तस्याः यत् कल्पनं, तत्र कोविदैः इति । २३. लोकरू ढेः बहुजनप्रसिद्धकिंवदन्तीरूपायाः, तथा तेषां प्रभावेन लब्धः प्रभवः=उत्पत्तिः यस्यैता दृशग्रन्थविशेषरूपाणां सिद्धान्तसारादीनां विलोकनतः, इति हेतुद्वयमत्र प्रयोजनरूपेणोपन्यस्तं पूज्यागमोद्धारकाचार्यमतल्लज-ध्यानस्थस्वर्गतागमावतारसूरिपुरंदरैरत्र । २४. पञ्चेन्द्रियाणां इन्द्रियपञ्चकधारिणां प्राणिनां यः प्रचयः समूहः चतुश्चत्वारिंशदधिकचतुर्दशशत सङ्खयबौद्धविद्वद्गणरूपः, तस्य परासुकरणं मारणं, तस्याः या कल्पना, तस्याः कर्त्तने दूरीकरणे नदीष्णुः समर्था इति व्युत्पत्तिः । एतद्धि पदं प्रायश्चित्तस्य प्रतिपत्तिः इत्यस्य विशेषणम् । २५. इच्छा-शास्त्र-सामर्थ्यानां यः पर्यन्तः तस्य अनुधावने धौ रेय ( वृषभ) तुल्या या इति विग्रहः । इच्छायोग-शास्त्रयोग-सामर्थ्ययोगेतियोगभेदत्रयसूचनमत्र विहितं सुसूक्ष्मागमतत्त्वपटिष्ठव्या ख्याप्रवणैरागमोद्धारकबहुश्रुतैः । २६. विपश्चितां-तत्त्वबोधसमर्थानां यत् विज्ञानं विशिष्ट-तत्त्वनिर्णयक्षमं ज्ञानं, तेन वेद्यम् इति । २७. प्राणिनां यत् वैचित्र्यं मोहावरणक्षयोपशमहेतुकं, तन्निबंधनं यत् देशनायाः वैचित्र्यमिति व्युत्प त्तिरर्थानुसारिणी ज्ञेयाऽत्र । २८. स्पष्टैवेति भावः । २९. इटालीसंज्ञदेशनिवासिना इति । ३० तभाषाया-संस्कृतभाषायाः प्रचुराणि च तानि पुस्तकानि, तेषां प्राप्तिरिति विग्रहः । ३१. गौर्जरीयं च-गूर्जरदेशसंनिविष्टं यत् सुरताख्यं पत्तनं, तत्रत्यश्चासौ अभिजनः=कुलीनः यः श्रेष्ठिवर्य देवचन्द्रलालभ्राता, तेन नियुक्तं पुस्तकानामुद्धारमात्रे उपयोगि यत् लक्षद्रम्माणां व्यवस्थापत्रं, तत्र नियमित व्यवस्थापितं यत् कुसीदस्य-व्याजस्य व्ययः, तस्य व्यवस्थायाः कारकैः श्रेष्ठि नगीनभ्रातृभिरिति तात्पर्यसङ्गामिकया शैल्या अन्वय-विग्रही चावबोध्यौ । ३२. सज्जनानां तत्त्वरूचिमतां तत्त्वपथगामुकानां वा यत् मनः, तदनुसारिणी या सरलसरणिः-सरल पन्थाः जिनाज्ञानुसारं जीवनशक्तिव्यवस्थात्मकः, तस्या अनुगन्ता-अनुगमनशील इति व्युत्पत्तिः। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ఇదేం పం పం wasaccessmanabaddatabasahakabadabaabaashabashaase श्री आगमोद्धारकाऽऽलेखित-प्रस्तावनासंग्रहरूपे ॥कर्मग्रन्थोपोद्धातः॥ . एकादशमं रत्नं विजयते विजिताऽन्तराऽरातिधर्गो महापुरुषवर्ग: xemorre a rrayeraibar - आकलनीयमिदकं 'कलावत्कलापाऽऽकलनीया-ऽकल्प्याऽकलङ्किताऽविकलकलनकलापरिकलिता-ऽऽकल्पाऽविकलितकीर्तिकन्दकमनाउनेकान्तप्रकटनकोविदकल्पान्तकालाविशकलिताऽऽकारकलिकृताऽनेकाऽकान्तैकान्तर्भकान्तिकर्तनविकर्तन-श्रीमदकलंककलाकल्पिताऽकलनीवार्थकदंबककल्पकल्पाऽऽकर्णनकान्ततमसंस्कारकलितैः कोविदकुलोत्तंसकैः, यदुत समेऽप्यास्तिका विहाय 'विविधविधानधुरन्धराऽक्षुण्णप्रत्यक्षप्रभृतिप्रमाणप्रथाप्रतीताऽर्थसमूहाऽपोहाऽऽहायौहान् वेदान्तिन 'उत्तरमीमांसामांसलमीमांसावतारव्यापकचणान् जगद्वैचित्र्याऽन्यथानुपपश्येकलक्षणा तोर्भवान्तरानुयायिन आत्मनः शुभाऽशुभसाधनक्षममदृष्टमनु पचरितमुररीकृतवन्तः। .. न चाऽतिरिच्य भूतिभूषितविग्रहपरिचर्यापरायणान् केनचिदपि यत्किश्चिद्वेदिना मतान्तराऽऽविष्टाऽन्तरात्मना "तस्य स्वयं फलप्रदानपाटवतायामङ्गीचे क्रीयते विवादः सौगता-ऽनीश्वर सांख्य-जैमिनीय-वेदान्तिनामन्यतमेन । . यवनास्तु विवेकमतिवारिधरपवना नैवात्राऽहन्ति विवादाऽऽस्थानतां । युक्तं च तस्या (१) अल्लोपनिषद्विरचनमिवोन्मूल्य यथार्थाऽर्थदर्शकपथप्रवणं पारमर्ष १ भूभूभृद्विरचनाऽङ्गीकरणप्रवणता ( प्रवणानां ) वितण्डाऽऽदीनाम पकर्णितसन्मार्गाणां तत्त्वतोद्गिरणे विचक्षणानां १२तद्विषया स्वीकृतिः, १३कल्पितकायपरिकरितताऽन्याऽदृष्टपरिभोग इत्याद्याश्च के नाऽऽरोपिता अनारोपणीयाः कस्यांचिदपि व्यक्त्यां १३दोषास्तन्मूलाः। अंगीचक्राणा अपि १४भूत्यंबरं भू-भूधरोद्भूतिनिबन्धनतया स्वः-श्वभ्राऽऽदिभ्रमणप्रेरकतया च नाऽशेषशेषशास्तृसंमतं निशिततरयुक्त्यसिविशसितोच्छिष्टशिष्टाऽशस्ययुक्तिप्रयुक्तिव्रततीवातन्वेना Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ [ श्रीकर्मप्रथोपोद्घातः दृष्टमत- मतितासिधुनिर्मूलं । तन्न 'तत्र साधीयान् साधनीयः प्रयासः प्रज्ञावद्भिः । "प्रकरणकरणनिपुणकरणनिकरैर्भगवद्भिरपि नाऽत एव तत्सिद्धौ विहितं विशेषण किश्चिदत्र, परं काव्यमेव तत्रभवत्प्रणीतं जगद्वैचित्र्यरव्यापकत्वेनाऽदृष्टवैचित्र्य विवेचकमेकं मननीयतममेतद्विलोकनीयं विलोककैः, यथा "क्ष्माभृद-रङ्ककयोमनीषि-जडयोः सद्रूपनीरूपयोः, ___ श्रीमद्-दुर्गतयोर्बलाऽबलवतोर्नीरोरोगार्त्तयोः । सौभाग्याऽसुभगत्वसंगमजुषोस्तुल्येऽपि नृत्वेऽन्तरं, यत् तत् कर्मनिवन्धनं तदपि नो जीवं विना युक्तिमत् ॥१॥" नचाऽश्चदौचितीमेतादृगवलोक्य वैचित्र्यं नाऽनुमन्येत सुकृत-दुरितसद्भावं सद्भूतपदार्थप्रत्यायनपरायणो २२नेति । २'दुरन्ताऽनन्तयातनाकेतनोद्विग्न-संवेगवेगपरिवृढानामेतादृग्वैचित्र्योपनिबन्धकमदृष्टवैचित्र्यमेव निखिलाऽभीप्सिताऽनूनशर्मास्पदं प्रति महात्मनांपराणयनहेतुः। मोक्षोऽपि च २ चोक्ष आचचक्षे २ अधिगतलोकाऽलोकाऽवलोकनलम्पटकेवलाऽऽलोकभ्यालिंगनैखिकालविद्भि २"स्तस्याऽऽत्यन्तिकाद्वियोगात् । न च भवति संभावनाऽऽस्पदमेतत् , यदुत 'सत्यावारकेंऽशतोऽपि प्रकाश्यं प्रकाशते यथावत्प्रकाशकः' प्रतिरूपवस्त्वोत स्वस्वरूपं निरूपयेत्स्वस्वरूपं वस्तु । ततोऽनुग्रहोपघातनिबन्धनतया २"मृतवेनाऽन्तरा' °फलदानाऽपाटवतायां सत्यामपि कालान्तरेणैव फलप्रदानसौष्ठवाऽवलोकनाद् बन्ध 'मोक्षाऽऽदिव्यवहारविषयत्वेन द्रव्यरूपस्याऽऽस्मनो यावत्फलप्रदानमवस्थानेनाविष्वग्भावितया वा द्रव्यत्वेनाऽज्ञानात्मकत्वाऽऽदिनाऽचेतनत्वेनाऽनुमतमविरुद्धपदार्थप्रस्फुरणपटुप्रतिभावबद्धान्त:करणैः २४सुकरणैः । ____ अदृष्टदष्टो जीवः कथं दृष्टाऽदृष्टफलाऽभिकांक्षी स्वस्वरूपाऽबोधिप्रवर्तितपुद्गलप्रचयमयपदार्थोपचयापचय जहर्षशोकोऽपि समवगम्याऽव्याबाधमात्मरूपमात्मानं सुखमवतिष्ठेचाव नोदितसुकृत-दुरितनोदनाविलयप्रभवयथास्थितात्मस्वरूपाविर्भावः। न चर्ते "प्रतिबन्धकस्वरूप-तदागमननिदान-तद्वन्धहेतु-तत्स्थान-तदुच्छेद-फल कारणाऽऽद्यवगमं सुकरा.स्यात् "नुन्न जगत्रितयाऽनुन्नरूपस्य विजिगमिषेति युक्त एवाऽऽरंभोऽस्यै ४ तद्विधस्य तत्रभवतां देवेन्द्रसूरीणां। विशेषतश्चास्यैदंयुगीनस्य प्राणिगणस्य 'दुष्षमाररक्षःप्रतिक्षणविनाश्यमानमेघादिगुणनिकायस्य दुरवसेयान् पञ्चसंग्रह-कर्मप्रकृत्यादेरतिगहनतमा बालज्ञेयमिदं लघुतम कुर्वतां Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीकमप्रोपोद्घातः ] [ ९७ संग्रह तेषा ४४ मुपकारसुकृतिनां । विभागश्चा" स्या' 'गमतीर्थ का रे भगवद्भिर्विहितः समिति - (५) संरव्यय । । क्रमेण गाथाश्चात्र षष्टि ६० चतुस्त्रिंशत् ३४पञ्चविंशति २५षडशीतिः ८६शतं १००च ४० मिता अनेक ४८ सहस्रगाथाभ्यास दुरवसेयतत्त्वावसायिन्यः । विभागश्च षष्ठः श्रीचन्द्र महत्तरपादप्रणीतो दृष्टिवादनिस्यन्दभूतोऽ" मन्दानन्दप्रद शब्दार्थमयः ० संग्रहणी - कल्प इति न तत्र प्रभुभिरातत आयासः, 'उष्णताप्रचया विष्टाम्बुत तिखि यतो निमूळतामेवे - यात्तत् तथा तन्यमानमिति । ५२ ५३ ** प्रक्रान्ते प्रक्रमपञ्चके च दृब्धा आधे कर्मविपाकाऽऽरव्ये कर्मणां मूलो- तराः प्रकृतयस्तदुदयोद्भवमनुभवनीयं फलं च । न चैवं " सैदंपर्य * ४ कर्मप्रकृति मकरव्याकरणमुपलब्धिमाश्रितं परत्र तीर्थे, कौतस्कुती च तद्बन्धादिवैचित्र्य - विवेचना ? बन्धहेतवोऽपि च निबद्धा "भव द्भयपरिजिहीर्षुणा मिष्टसिद्धयै । अत्र चावधेयमिदं - यदुताsसाधारणगुणयुगलयुक्त आत्माऽनुभूयते एवाऽनुभवदक्षैः, तत्तारम्यावलोकनं च न स्वाभाविकं संभवेदात्मत्वाऽविशेषात् भेदकमन्तरा, प्रतिप्राणि पौर्वापर्येणापि व तारतम्यप्रकृतिप्रेक्षणाद् मेदकस्वीकार आवश्यकः । न चाऽसौ चेतनो घटाकोटिमाटीकते निष्टङ्कित तत्वाध्वनि । 'अदृश्यता चाण्वादिवन्न सूक्ष्मत्वादनौचित्यश्चिता । * तथा च " तद्द्द्वयप्रतिबन्धकमत्राऽनुक्रमेण ज्ञान-दर्शनाssवरणीयत्वेनाऽऽख्यातं । भेदाश्च तयोः सामान्य- विशेषव्याख्यानस्यार्थबोधकत्वदर्शनात्तथैवातताः । तस एव च बुद्धेरनियता न व्याघातिनी । ' E सुख-दुःखसाधनसिद्धावपि तद्भावाऽभावौ प्राणिवैचित्र्येणाऽनुभूयेते इति वेदनीयस्य समेदयुग्मस्याऽऽख्यानं। यथार्थाऽर्थदर्शनदर्शन श्रद्धान- तदाचारप्रतिबन्धकाऽध्यक्षाऽनुभवादाख्येयं "उद्देश्यैकत्वेन द्विभेदं मोहनीयं, कषायाश्च क्रोध-मान- माया लोभाऽऽख्यास्तथाविधा हास्यादयस्तु ‘'तत्कारणानि तत्तेऽपि व्याख्यायन्ते एतद्भेदतयैव । ६२ आयुर्नाम - गोत्राणि तु विचित्राण्यागच्छन्त्येवाऽनुभूत्याऽऽस्पदमिति न तद्भेदेषु विस्रम्भाऽभावः । चरमेऽन्तराये च सामान्यविशेषरूपेण शक्तिपञ्चकं दान-लाभ वीर्य-भोगोपभोगाऽऽख्यं विद्यत इति तदायातिप्रतिबन्धकमपि तावत्संख्यावदेव प्रतिज्ञातं ४ संख्यावच्छेदवरकैः । ६ अनेन च ये केचन दुर्विदग्धतमा आनन्दगिरि - वाचस्पतिमिश्राऽऽद्या अनाकलय्यातमविकलं मतं अनाघ्राय च तत्रस्थमर्थसार्थव्याख्यानं दीप्रदीपे झम्पापातमिव शलभा ब्रह्म १३ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] [ श्रीकर्मग्रन्थोपोद्धातः सूत्रभाष्यव्याख्यायां कर्मव्याख्याने जैनसंमततया जैनजातासंमतं विषमयमसत्यतममुद्गार निपात्यात्मानमधमाध्वनि न्युदगृणन् , ते तथैवोद्भाविता भाविताऽऽत्मनां पुरः । कृतं वाऽनेन, यत्तथास्वभावा एव ते, यन्न हि मक्षिकाणामन्यथा भवेत् । स्वभावो यत्सत्यप्युत्तमे चन्दने सुरभिणि "समियति ता वर्चीगन्धाद्याघ्रातुं । एतद्विधमेव चाऽनाकर्णनीयतमं सकर्णानां गेहेशूरतरप्रलपितं कामकलानिष्णतेप्सुजगदशंकरशंकरचरितं "स्वमप्रभावोपलब्धमिव सबाधैः । कर्मसु चाष्टस्वत्र प्रथम-द्वितीयच-तुर्थाऽन्त्यानि धातिसंज्ञकानि, यतस्ते घ्नत्येवात्मनां ज्ञानादीन् गुणान् । अन्यत्तु चतुष्कं तेषां तत्तत्स्वभावाऽऽविर्भावे सहचारि, ततो न घातुकता तस्य। तथा चात्मनः स्वाभाविकसुखाऽन्वितत्वं वेदनीयस्य चाऽधातुकत्वं नाऽऽविर्भावयेद् विरुद्धतां । प्रान्ते चान्तरायकारणे यज्जिनाऽर्चाविरुद्धताया दर्शनं कारणतया, तभिभालनीयं लुप्तविवेकलोचनैर्यथार्थतया ज्ञेयं च ज्ञातमध्यस्थमार्गतत्त्वैर्यदुत नोत्पत्तिकालाल्लुम्पकानामारव्यायते ख्यातयशस्काऽऽहतै भर्जिनप्रतिनिधिप्रतिपत्तिपराकरणमशुभतरादृष्टदन्दशूकदष्टं, किंतु तस्य तथात्वेन प्रागपि । ततः द्वितीये कर्मस्तवे च सुभटसिंहस्य कृतसंग्रामगुणग्रामवर्णनमिव जिनपतेः प्रतिष्ठितं यशः समाख्यातुं कर्मघातकरणक्रियां निकटभव्यानुकरणीयामाचिख्यासवो भट्टारका भणितवन्तो गुणस्थानकानां मुक्तिसौधसोपानकानामभिधाः, अदृष्टानां क्रमशो बन्धो-दयो-दीरणा- सत्ताश्च । तेषु यथार्थतयाऽवलोकनेनाऽऽसां भविष्यति भावुकपुंगवानां स्वाऽऽत्मनोऽवस्थानं जिगमिषाप्राप्तिश्च कदा कदा १ क्व क्वेति ? । साक्षाद्भविष्यति च भगवतामाप्तानां सिद्धिराप्तताया अनुकरणीयता च तदाचाराणां चेतसि सचेतनानां । तृतीयस्मिन् बन्धस्वामित्वाऽऽख्ये प्रकरणे च प्रादुश्चक्रुः पूज्यतमाः कर्मणां केषां केषां ? के के जीवा बन्धका ? इति । तत्र प्रथमं गतिरिन्द्रियाणि काया योगा वेदाः कषाया ज्ञानानि संयमा दर्शनानि लेश्या भव्यः सम्यकत्वं संज्ञिन आहारक इत्येतास्तता मार्गणाश्चतुर्दश। अत्र च "सर्वसंसार्यसुमच्चिन्तनावश्यकतया न व्याख्याप्रज्ञप्त्यादाविवाऽनिन्द्रिया - Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मग्रन्थोपोधातः ] [ ९९ कायाऽयोगाऽवेदाऽकषायाऽऽदीनां गणना । गणना च ज्ञानाऽऽदिविरुद्धानां अज्ञाना-विरतिमिथ्यात्व सास्वादनाऽऽदीनां देशविरतिमिश्रादीनां मिश्राणामपि च सर्वसंसाराऽन्तर्गतगतिमद्व्याप्तये। तथा च द्वापष्टिरेव मार्गणाः सर्वाः । सर्वासु चैतासु चिन्तितो बन्धो मुख्यतया, क्वचित् प्रकृतीनामाविष्कृता संख्या। क्वचितु लाघवाऽर्थितया उदयाऽऽद्यपि चाऽनुषङ्गतोऽन्वादवायितुं (१) गुणस्थानद्वारा दर्शितो दृष्टबोधमार्गभगवद्भिर्बन्धः। भविष्यति भविनां भावुकाभिलाषिणां भद्रंकरी चिन्ताऽतो यत्स्वयं क्व क्व मार्गणानां ? केषां केषां बन्धक आसीत् प्राक् ? विद्यते अनाराधने चात्मगुणानां भावी चेत्यात्मिका अनेकधा । चिन्तनं तु पूज्यैरन्योऽन्यव्यभिचाराद् गत्याऽऽदीनां बन्धस्य क्वचित्क्वचिद्विशेषादनेकधा-बोधनस्य दृढतरसंस्कारविधानप्रत्यलत्वाच्च बन्धस्य गत्यादिभिर्भाणितं । तुर्ये तु तेनुस्ततयशस: षडशीतिकाऽऽरव्ये विभागे ख्याततया दर्शयितुं भव्येभ्यो बन्धाऽऽदि, तद्हेतुगणं च जीवस्थानानि, मार्गणास्थानानि, गुणस्थानानि उपयोगा योगाः लेश्याबन्धोऽल्पबहुत्वं चेति द्वाराणि । ___ तत्र चतुर्दश, चर्तुदश, द्वादश, पञ्चदश, षट्, चत्वारः, क्रमेण भेदा यावद्बन्धं विवृताश्च परस्परेषु मनोहरया पद्धत्या । भविष्यति च तदवलोकनादेव यथावदाभोगो भूरिप्रतिभानां । ___न च वर्णिका शक्या वर्णयितुं पारयति चरिकतु तदास्वादं वा सा, प्रथमं प्रोच्य सामान्येन साधितवन्तो विस्तरेण द्विषष्टायादिभेदैर्जीवानां गुणस्थानोपयोगाऽऽदीन् दर्शयामासीना(?) "दृष्टाऽशेषदर्शनदर्शनपरमार्थाः। प्रथमे प्रतिपादितेऽपि प्रकरणे बन्धहेतुसंघाते किमिदमत्र पुनरिति न चतुरैश्चिन्तनीय चेतसि । यतः प्रथमं तावत् सामान्येन प्रथमे हेतेवोऽत्रैव च पुरा मूलप्रकृतीनां बन्धो न्यरूपि । पश्चात्तु ये मूलहेतवो बन्धस्य मिथ्यात्वाऽऽद्या यावन्तश्च गुणस्थानेषु येषु येषु याश्च प्रकृतयो यद्यन्मूलास्तत्तत्सर्व समाचक्षत 'प्रसभमाहितहितबुद्धिनिधयः। पश्चात् प्रकटितवन्तः प्रकटतरप्रतिभा गत्यादीनां विचारमल्पबहुत्वाभ्यां मार्गणानां तद्वतिजीवद्वारा उदयो दीरणाऽऽदिस्थानानि च । भावाश्चौपशमिकाद्याः षट् तत्प्रभेदा गुणाद्याश्रितत्वं जीवाजीवालि गितादि च व्याख्यायिषत ख्यातख्यातिभिः। अत्राऽपि सामान्यतः शिष्टं धर्मादीनां द्रव्यत्वं चेदभविष्यदवगतमपगतकालुष्यहृदयेनाऽऽ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० ] ७२ [ श्री कर्मग्रन्थोपोद्घातः नन्दगिर्याद्यैर्नैव वाचालतां प्राकटयिष्यत् " जगज्जैत्ररागादिद्विषत्संमोहजेतृ श्रीमज्जिनोक्त्यनुसारिमतमन्तव्य मिग्लासया ( चिखंड विषया), परं ! किं कुर्यान्नरो हीनभाग्यो ? यन्न स स्वयं सन्मार्गप्राप्तो, न च तदीप्मुः परानिमिमज्जिषुश्चाविशेषेण च तथाभूतः शाक्तमतासक्तयोगोऽनृतवादकलंकितजिव्हाकरालः । " पश्चाज्जीवादीनामल्पबहुत्वाद्युपयोगि - संख्यातादिव्या चिख्यासया संख्यातक-परीत-युक्तस्वपदयुक्ताऽसंख्यातकाऽनन्तकानां सप्तानां जघन्य मध्यमोत्कृष्टभेदान् भाषितवन्तो ४ भाषाचणा भासितलोकालोकलीनाऽर्थ जातज्ञानलब्धबोधिलाभाः । ७५ ७ ७६ अत्र च प्रथमं प्रेक्ष्य " " प्रोक्तप्रकारप्रकरं प्रहीणदृष्टिरागाणां प्रादुरभविष्यच्छंकरस्य " सभ्यस्तधर्मग्रामणेरलीकाऽर्थव्याकरणपटुता हृदये, यतो न तेनाऽधिगतं असंख्याऽनन्तयोरपि पार्थक्यं "कर्म पृथक्करण प्राप्तयथार्थबोधिजैनमतानुमतं । कथमन्यथा न्यास्थदसौ जीवानामनन्तावयववत्तां आत्मप्रमाणविचारे आप्तोदितिविचारणीयो परं नाऽसंभवीदं तादृशे श्वपचपराकृते कामशूकरे पदार्थविचारशून्यहृदये भक्षितदृष्टिरागहृत्पूरे । यतः स स्वयमेवाऽऽत्मनः पारमार्थिकमबद्धत्वं व्यावहारिकं चाऽन्यथात्वमभ्युपगम्य कथञ्चिद्वादम पजानानो दृष्टः प्रागेव । ८० अन्यच्च यैः कैश्चिच्चकासामासिरे वितथां वाणी वितर्ति वितत्य यदुत " यद्यनन्तः कथं ज्ञेयोऽर्थो ? ज्ञेयश्चेत् कथमनन्तः १ संपूर्णाऽवलोकनस्य संपूर्णताऽविनाभावित्वात्, संपूर्णता च सान्तस्य न त्वन्यस्ये” ति, ते उद्घाटिताः प्रकटितस्वाऽज्ञानप्रचयतया, यतो नावबुद्धं बोधस्यापि तथैवाऽनन्तत्वं । तथा च तादृशाऽतादृशपरिच्छेद: कथमिवाऽनुचितिमंच्यात्, येनोदितिः शुभाऽऽयतिस्तेषां । अत एव चाsने हसाऽनन्तेनाऽनन्तानामितिः सिद्धौ सिद्धा सेत्स्यति च । न चानन्तात्परा संख्या । ४ तस्य नवमस्य मतेन केषाञ्चित्सर्वथैवाभावात् । येषामपि चाऽस्ति सा नवमी साऽप्यसंभाक्न्येिव, यतस्तत्र क्षिप्तास्त्रिर्वर्गयित्वाऽलोकाकाशे क्षिप्ते केवलद्विकपर्यायाः । तथा च नाऽन्तस्तथाविधं प्रतिस्पर्धिनमन्तरा । ८५ ८ विचाराश्चाऽतितमां सूक्ष्माः ख्यापिता अत्र केचित् कर्मस्वरूप विवेचने नाक्ताः केचिपारंपर्येण केचिन्मुख्यतयाऽपरे " इतरथा । अत एव चोपसंहार "मुपरचयन् ? उपनिबबन्धुबन्धुरतरं " इय सुहुमत्थवियारो " इति । संज्ञा चौषा प्राक्तनी यथा ( यतः) पूर्वाभियुक्तैः रचितपूर्वमस्त्येव तदभिधेयं प्रकरणं । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कर्मग्रन्थोपोद्घातः ] [१०१ एवमेव कर्मविपाकस्तवादीनि नामधेयान्यपि प्राचीनान्येव । यतो वेविद्यन्त एव प्राचीनतमानि प्राकृतान्य "प्राकृतजनाकर्णनीयानि । वरीवृतति च तानि तत्र तत्र तत्रभवदनगाराऽगारिसत्कभांडागारे । मोमुद्रितानि चात्र संस्कृतानि त्वेतदनुसारीण्येव, न त्वेतन्मूलानीति नैवाऽत्र संमोहो निर्मोहानुसारिणां । षडशीतिकेत्यभिधा तु षडशीतिगाथामानत्वादेवमेव च शतक इति च । सप्ततिरिति तु "संख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः" सूत्रेण कमत्ययाऽभावात् , प्राचीनाऽपि चैषैव संज्ञेति । चतुष्कं प्रकरणानामेतत्तज्जिज्ञानामत्याग्रहवविज्ञप्तेः प्रागेव प्रादुरकृत संसदियं, मंक्षु तत्प्रादुर्भावनकारणेनैव च न तत्र प्रस्तावनाऽऽदिकं किमपि प्रास्तावि, समयस्याऽतिहस्वत्वात्, समस्तानां समग्रेव च तथाविधोपकारिणीति समालोचनया चापि । तत एव च षष्टोऽभियुक्ततमैः परैरभिब्धोऽपि सहैव नीतः प्राकाश्यतां प्रास्तावितश्चेति चेतनीयं चेतनावच्चतुरच क्रेणापक्रे चेतसि । __ पञ्चमे तु शतकाऽऽरव्ये कर्मप्रकरणे प्रतिज्ञातमेतत् प्रतिपाद्यतया प्रभुभिर्यदुत ध्रुवं या आयान्ति बन्ध, उदये वर्वृतति, सत्तायां गुणस्थाने वृत्तिताऽन्विता याचाऽऽत्मगुणघातप्रत्यलत्वेन घातिन्यस्तत्रापि या देशघातिन्यः सर्वघातिन्यश्च, याः पुण्यप्रकृतयो, याच परावर्तमानाः सर्वास्ताः सप्रतिपक्षाः प्रतिपादनीयाः, क्षेत्र-जीव-भव-पुद्गलविपाकदर्शिन्यो, मूलोतरप्रकृतिगता भूयस्काभाल्पतराऽवस्थिताऽवक्तव्यभेदाः,प्रकृति-स्थिति-रस-प्रदेशाऽऽद्याः उत्कृष्टजघन्येतराभ्यां बन्धप्रभेदास्तत्स्वामिनः, सोत्तराणां मूलमकृतीनां अबाधाकाल:, क्षुल्लकभवस्वरूपं, योगिकाऽल्पबहुत्वमबन्धकाल:, शुभाऽशुभद्विस्थानकाऽऽदिरसनिरूपणा, औदारिकाधा वर्गणा, अष्टौ अग्रहणान्तरिता, उभयतः कर्मदलिकस्वरूपं, तबन्धे विभागः, कर्मणां क्षपणोपयोगिनी गुणश्रेणिरचना, गुणस्थानकानामन्तरं, पल्पोपम-सागरोपम पुद्रलाऽऽवर्ताः सूक्ष्मतरभेदाः, अल्पबहुत्वं, योगस्थान-प्रकृति-प्रदेशबन्ध-स्थितिबन्धाऽध्यवसायस्थान-स्थितिविशेषानुभागबन्धाऽध्यवसायस्थानाऽनुभागस्थाननां, श्रेणिस्वरूपं, उपशम-क्षपकश्रेणिस्वरूपं इत्येवं श्रद्धाभरभाजनज्ञेयस्वरूपमतितमां गहनं व्यवगाह्य कर्मप्रकृति-पञ्चसंग्रहाऽद्यनल्पतरगृढं ग्रन्थकदंबकं सूक्ष्मग्रन्थं प्रथितवन्तोऽनेक दुर्गमविचाराऽऽरूढं प्रकरणं । भवति च समाप्तात्र श्रीमद्देवेन्द्रसूरिकृतिः। कदा कतमं भूमंडलं मंडयामासु' में डितशासनाम्बराः ? किमर्थ चायास एष ? केषां च पूज्यतमानां परिचर्याया (परिचर्यया) अवाप्तसच्चारित्राः १ के वा भगवन्तः समस्ताऽनस्तमितसुखसन्दोहसाधनस्याद्वादसाधितसाधीयः शुचिताञ्चिताऽऽगमाऽभ्यासकल्पव्रतती Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ j [ श्री कर्मग्रन्थोपोद्घातः कन्दकल्पाः १० तत्रभवदुद्देश-प्रव्राजनाद्याचार्याः? के वा' 'भगवच्चरणचश्चरीकमकरन्दमत्तमनोमधुपा ? १० इत्यादि ज्ञेयमत्र विद्वद्वन्दारकाणां १० बहीयः,परं १० "तज्ज्ञेयं यथायथंश्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाइजैनपुस्तकोद्धारकोशद्वारा मुद्रिताया वन्दादरुवृत्त: प्रस्तावनातः । किञ्चिच्चात्रैव प्रकरणे प्रणीता या १०५श्रीमद्धृदयपद्मप्रभवप्रस्तावनापीयूषाऽशनतरङ्गिणी, तदवलोकनतोऽपि स्फुटं सिद्धिमेष्यति । विस्तरार्थना तु विलोकनीया गुर्वावली पट्टापली च १० तत्प्रबन्धबन्धुरा । षष्ठं तु कर्मस्वरूपनिरूपणप्रवणं वाङ्मयं सप्तत्याऽऽख्यं, संभाव्यते १० दृष्टिवादवदनाऽ. तिक्रान्तवेदवादकब्रह्मसहस्राऽनन्तार्थज्ञापनदृढदृष्टिवादपानपीयूषपीनप्रवचनप्रधानतरः पुरुषविशेपोऽस्य संदृब्धा, यतो दृश्यतेऽस्याऽऽदिगाथायो “णीसंदं दिहिषायस्स" इत्यमृतायमानं वाक्यं । प्रान्तेऽपि "रुहरबहुभंगदिठिवायाओ" इति च । दृष्टिवादश्च १०८श्रीमदकलंकाऽस्यपद्मइदनिर्गत "उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा" इतित्रिपथगायमानाऽशेषविश्वव्याप्तवस्तु विसराऽनुसारिपदत्रयीपानोद्भूत-भूतोद्भवद्भाविभावाऽवभासनप्रभुभारतीभरगणभृत्प्रणीतद्वादशाऽङ्गीगणिपिटकात्यभागः १० षण्णवतशताऽष्टसहस्रमानाविचलमान-महाविदेहमातङ्गमानमित-मषीमालालेख्यवाच्यो, व्युच्छिन्नश्चायं ११० श्रीमदपश्चिमपारगतपरमगत्यधिगतिसमतिक्रान्तशतकद्वय इति । नूनं निर्मातारोऽस्य निर्ग्रन्थाऽग्रेसरा: प्राचीनतमा: श्रीमन्तश्चन्द्रमहत्तराः। यद्यपि न भिन्ना बहुश आसीरञ्छाखास्तदा, तथाऽपि सामान्यतोऽभूवस्ताः श्रीमति कल्पे ११ समस्तसमग्रवेदीशानवृत्तशासनापरगुरुपरम्परापद्मावबोधपद्मवान्धवाखिलखिलस्खलनावाप्यासाधारणाननशर्माश्रयनिःश्रेयससाधनसमर्थसामाचारी विचारविस्तृतविभवानल्पप्रतिष्ठाकल्पे श्रीमद्भ्यो यशोभद्रेभ्य एव व्याख्याता वृत्तविस्ताराः शाखाः। प्राचीनाश्च तत एते ११२सुराऽसुरविसरपरिसर्यावसरसंसृष्टशिरःशेखरखरतरमयूखमालासङ्गाः तत्रभवन्तः । एतावताऽवश्यं वावसिष्यति मानसे मनस्विनामेतत् यदुत प्रकरणमेतत्प्राचीनतमं श्रद्धेयतमं चेति। षष्ठत्वं तु श्रीमद्देवेन्द्रपादोपज्ञपूर्वप्रस्तावितप्रकरणपश्चकप्रसिद्धिसिद्धं, अत एव च नाऽस्य चूर्णिकाराः पुरातना अपि अपश्चितवन्तः षष्ठतां । सिद्धिश्चाऽस्मादपि प्रकरणस्यैतस्य चिरंतनतायाभूर्णिकारपूज्याऽभिधानाऽनुपलंभात्, विवरितारस्तु प्रस्तुतस्य ११३प्रवचनवृत्तिविधानाऽवातावतारकीर्तिनटीनाटित नाकनाथा: श्रीमन्तो मलयगिरिपादाः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कर्मग्रन्थोपोधातः] [ १०३ तत्रभवतां तेषामपि भगवतां नैवाऽवगम्यते इतिहा ११४ इतिहाससाधनशून्याऽनेहःसाधित. साधनैरधुनातनैः। प्रणीताश्च भगवद्भिस्तावद्राजप्रश्नीयाऽऽदीनामुपाङ्गानां व्यवहारस्य धर्मसंग्रहिण्या नन्याः पञ्चसंग्रह-कर्मप्रकृत्योः पीठिकाया बृहत्कल्पस्याऽऽवश्यकस्य यावत्कुन्थुजिन विवृत्तयोऽनेका उपलभ्यन्ते अधुनाऽपि १५धूतैनोभरैर्भाग्यभराद् धर्मसाराऽऽदीनां तु ता नाऽऽगच्छन्ति गोचरं । शब्दाऽनुशासनं तुं साधितं प्रतिष्ठितं श्रीमद्भिविद्यत एव । भविष्यति चाऽस्य प्रादुर्भाव: ""'प्रादुर्भावकगोष्ठीसंसत्संमत्यां भविष्यन्त्यां।। प्रस्तुतं प्रकरणं यत्सप्ततिरित्याख्यया ख्यातं तत्र गाथापरिमाणमेव कारणं । यच्चाऽनेकत्रोपलभ्यन्तेऽधिका एतास्ता भाष्यसत्काः सुगमतायै संगमिता अवगन्तव्याः कैश्चिद्विपश्चिद्भिः । अत्र तु पार्थक्येनाऽवबोधाय पृथगेव न्यस्ता अङ्कतः। ___ अत्र च कर्मप्रकृतयो विचार्यन्ते पन्धो-दयो दीरणा-सत्तारूपैः संवेधमनुसंधाय पर सहस्राः परंलक्षाच्च (१) विकल्पा जाजायन्ते । निरूपणमेतदेव दर्शयते विलोककानां प्रस्तुतप्रकरणस्य सर्वविन्मूलता दृष्टिवादोद्भूतत्वं च। ते च जीवस्थान-गुणस्थानाऽऽदिभिरपि चिन्तिता एव गत्यादिभिर्मार्गणाभिरपि तथैव मूलोत्तरमकृतीराश्रित्योदयाऽऽदीनां चिन्तयित्वा चैवं गुणस्थानकान्याश्रित्य बन्धमुपशान्तिं क्षयं चाऽऽविश्वकार। प्रादुर्भावितश्च प्रान्ते ११ ऊनार्थपूरणपूर्वकपरिकथनप्रार्थनापरो वचोविसरो व्याख्यायाऽशेषकर्मक्षयोपपद्यमानाऽव्याबाधपदस्थिति ११८मखिलभव्यजननिःशेषप्रयोजनोपनिषद्भूतां प्रान्त्यमङ्गलरूपामित्याख्याति ११ लोकख्यातख्यातिश्रीमदकलंककलनावगतत्रिजगतीगतचराचरपदार्थप्रकरश्रीमज्जिनवरेन्द्रोदित्युदितानूनरत्नत्रयासमप्रभावभावितान्तरामो२० दन्दन्ताभिधोऽ १२१ शुध्ध्यागोजातैनोऽपनयनप्रभुप्रभूत्तमोपदिष्टमर्पयित्वा मिथ्यादुष्कृतमिति शं सर्वेभ्योलेखकपाठकेभ्योः॥ १ २२सुरपालिशिरोरत्नद्योतिक्रमयुगाय ते ।। शान्ते ? ११३ शान्तिनिशान्तोऽयमार्पि १२४ याम्यर्हणायतिः ॥१॥ त्वया निर्णा शिताऽशेषाऽशिवेनाऽ १२५न्तितशात्रवे । १२ मृगग्रामेऽयमग्रन्थि १२ ग्रन्थोद्घातो १२८मुदब्धिना ॥२॥ Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XWWW. BBWSS* asasasasasasaswaaaaaasasasasasasasasasasasas X 8. श्री पूज्यपादागमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीलिखितप्रस्तावना विषमपदार्थसचिका आनन्दलहरी-टिप्णी (श्री कर्मग्रंथोपोद्घातः) COMPRAWWWWWWWWWWWWWWWWWWWW aaaaaaaaaaax १. अत्र हि कलावत्....इत्यत आरभ्य कलित इति पर्यन्तं पङ्कित्रयमितो हि समासोऽस्ति, तस्य चाऽर्थानुसारिणः सप्त अंशा अवबुध्यन्ते, तयाहि :(अ) कलावतां कलापेनाऽऽकलनीयाः बुद्धिगम्या इत्येकोऽशः। (आ) अकल्प्यं च तत् अकलङ्कितं च यत् अविकलं संपूर्ण कलनं-ज्ञानं, तस्य कलया नैपुण्येन परिकलिताः सहिताः इति द्वितीयोऽशः । (इ) आकल्पा-समर्था चासौ अविकलिता-न्यूनतारहिता या कीर्तिः तस्याः कंदः=मूलं, तद्रूपो यः कमनः सुन्दरः अनेकांतः स्याद्वादः तस्य प्रकटने कोविदाः कुशलाः इति तृती योऽशः। (इ) कल्पान्तकाले प्रलयकालेऽपि अविशसितः अखण्डीभूतः आकारः स्वरूपं (यैर्निर्दिष्ट वस्तु जातस्येति शेषः) येषामिति चतुर्थोऽशः । (उ) कलिः विषमकालः, तेन कृताः अनेके अकान्ताः=असुन्दराः एकान्ताः-एकान्तवादेन प्रतिपाद्यमान स्वच्छंदतामूलकपदार्थनिरूपणानि तद्रूपा ये ऋक्षाः तारकाणि, तेषां या कान्तिः तेजः, तस्याः कर्तने-अपाकरणे विकर्तनः=सूर्यः तत्सदृशा ये इति पंचमोऽशः । (ऊ) श्रीमंतो ये अफलंकाः रागादिकलंकरहिताः तीर्थंकरा इत्यर्थः, पूर्वोक्तांश पंचकं हि अत्र संयोज्यम् । तीर्थंकरा हि कीदृशा ? इति प्रश्ननिर्वचने पूर्वोक्तविशेषणपश्चकं संयोज्यम् । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मप्रन्थ० उपो० टिपण्णी ] [ १०५ (*) श्रीमदकलङ्कानां =श्रीमत् तीर्थकृतां या कला = ज्ञानं (केवलरूपं ), तया कल्पिताः = ज्ञाताः ये अकलनीयानां=सामान्यज्ञानिनाऽनवगम्यानां अर्थानां पदार्थानां कदंबकः = समूहः यस्मिन् एतादृशो यः कल्पः=समर्थः (जीवनशुद्धाविति शेषः) यः कल्पः = आचारशास्त्रम्, तस्याऽऽकर्णनेन=विधिपूर्वकश्रवणेन कान्ततमाः = अतिसुन्दराः ये संस्काराः = श्रवणफलरुपाः यथाशक्यसन्मार्गप्रवृत्तिरुपाः तैः, कलिताः =सहिताः, तैरिति तात्पर्यानुसारी अर्थोऽवबोध्यः । विविध=आध्यात्मिकादिभेदभिन्नं यत् विधानं = क्रियानुष्ठानं तस्मिन् धुरन्धराणि धुरावहनसमर्थ वर्यबलीवर्दतुल्यानि (मुख्यानीति यावत् ) यानि अक्षुण्णानि - केनाऽप्यप्रतिहतानि च प्रत्यक्षप्रभृतीनि प्रमाणानि - पदार्थस्वरुपज्ञापकानि साधनानि तेषां प्रथया = सफलकार्यवत्तया, प्रतीताः = बुद्धिगम्याः (स्पष्टा इति यावत् ) ये अर्था: - घट - पटादिवस्तूनि तेषां समूहस्य अपो = "ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्ये" - त्या दिविविधप्रतिपादनेन जगन्मिथ्यात्वसिद्धिरुपे मायाजाल - स्वरुप सादृश्येन निराकरणे आहार्याः अध्यारोपादिमूलकाः ऊहाः = विविधतर्काः येषामिति व्युत्पत्तिरर्थानुसारिणी अत्र ज्ञेया । ३. उत्तरमीमांसायाः = मीमांसाशास्त्रस्य उत्तरभागरूपस्य वेदान्ताऽपरपर्यायस्य मांसला = परिपुष्टा या मीमांसा=विविधविचारणा तद्वतां अतिशयेन ख्यापयन्ति = असत्त्वेऽपि शब्दवैकदुष्यतर्कप्रमाणबद्धत्वादिफटाटोपेन प्रदर्शयन्ति ये ते, तेषु निपुणतरा वा तान् इति व्युत्पत्तिः । ४. जगतः=संसारस्य वैचित्र्यं = नानाविधविरोधाक्रान्तत्वं, तस्य अन्यथाऽनुपपत्तिरेवैकं लक्षणं = स्वरुपं यस्य, तस्मात् इति । ५. 'अनुपचरित' पदेन पूज्यागममर्मज्ञा सूरिवर्या एवं दध्वनुरत्र यत् - " असदेव माया बन्धनं भ्रान्तिरूपं वेदान्त्यभिमतं न सम्यग् इति । " ६. भूतिः = भस्म, तेन भूषितः यो विग्रहः शरीरं, तस्य परिचर्या = भूयोभूयः स्नान-शौचाssदिरुपा तत्र परायणाः = तत्पराः तानिति विग्रहः । अथवा - भूतिना=भस्मना भूषितः विग्रहः शरीरं यस्य स महादेवः शम्भुः, तस्य परिचर्यायां = सेवायां परायणास्तानित्यप्यर्थोऽत्र सङ्गच्छते । यथायोगं सङ्गतिरुहनीया समुपासितगुरुकुलैर्मतिमद्भिः । ७. 'तत्' पदेन प्रानिर्दिष्टस्य " अदृष्टस्य " कर्माऽपरापर्यायस्य ग्रहणमवबोध्यम् । ८. विवेकः = हेयोपादेय निर्णयः तदनुकूला या मतिः तद्रूपवारिधराणां = मेघानां पवनरुपाः ये ते इति । १४ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिप्पणी पवनेन हि मेघा विशीर्यन्ते, पवनानां विवेकबुद्धेरभावत्वं स्वाऽज्ञानमूलकप्रवृत्तिवातेन विवेकबुद्धेहनिर्नाशस्य करणेन सूच्यते । ९. यथार्थाश्च ते अर्थाश्च तेषां यः पन्थाः, तत्र प्रवणं तत्परमिति विग्रहः । १०. भूः पृथ्वी, भूभृत्-पर्वतः (उपलक्षणत्वात् समस्तपदार्थानां) तयोः विरचनं निर्माणं, तस्याङ्गीकरणे =स्वीकारे प्रवणाःतत्पराः तेषामिति व्युत्पत्तिः । ___ अत्र 'प्रवणता' मूलपाठस्य सङ्गतेरनुपलम्भात् कोष्टकमध्ये प्रवणानां पाठं विन्यस्य तदनुसारिणी अर्थयोजना कृताऽस्ति, साराऽसारत्वमूहनीयं धीधनैः । ११. अपकर्णितः कर्णाभ्यां भवधीरितः सन्मार्गः तत्त्वनिर्णयपद्धतिः यैरिति व्युत्पत्तिरत्र ज्ञेया । एतत्पदेन वितंडाऽऽदीनां वस्तूनामितरैः दार्शनिकैः मोक्षप्राप्तिहेतुभूततत्त्वज्ञानाङ्गभूतत्व मान्यताया असारत्वमभिध्वन्यते । १२. अत्र 'तत् ' पदेन यवनानां तन्मान्यतायाः वा परामर्शः सम्भाव्यते । १३. कल्पितः प्रमाणबलेन प्रतीतिपथमवतीर्यमाणः चासौ कायः शरीरम् (यवनादिभिरशरीरखुदा पदवाध्येश्वरादृष्टवाणीगमकम् ) तेन परिकलितेति विग्रहः । १३. अत्र 'तत् पदेन यवनानां तन्मान्यतायाः वा स्वीकृतेः परामर्शोऽवबुध्यते । १४. भूतिः भस्म, एव अंबरं वस्त्रं यस्य ( निर्वस्त्रत्वेन दिगंबरत्वेन वा भूतेरम्बरखकल्पनाऽत्रौचिती मश्चति) एतादृशश्च शम्भुः शङ्करपदवाच्यो हि देवता, तमिति । १५. अशेषाश्च ते शेषाः-जगत्कर्तृत्ववादीतरवादिनः शास्तारः शास्त्रतत्त्वोपदेष्टारः,तेषां सम्मतं प्रमाणी भूतमितिविग्रहः । अतिशयेन निशितः युक्तिरुपोऽसिः खगं, तेन विशकलितः=विलूनितश्चासौ उद्दालितः विकतितो वा उच्छिष्टा-तैः तैः दूषणवातैः चुम्बिताः शिष्टैः मध्यस्थविचारकज्ञानिभिः अशस्याः अमान्याः अप्रमाणीकृताः याः युक्तयः प्रयुक्तयश्च तद्पाणां व्रततीनां = लतानां वातश्चेति तत्त्वं तेनेति । १७. 'तन्' धातोः सन्नन्ताद्यतनीरूपमिदम् । तनो वा (४-१-१०५सि.पृ.) इति सूत्रेण सन्नन्त तन् धातोर्विकल्पेन दीर्घत्वं भवतीति सम्यक् । १८. तत्र ईश्वरवादनिराकरणविषये । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिपप्णी ] १०७ १९. प्रकरणानां अल्पाक्षराणां महार्थानां तात्त्विक ग्रन्थानां करणं - विरचनं, तत्र निपुणानि = कार्यदक्षानि करणानि मतिप्राग्भार=सरलशैलि - गम्भीरार्थसमावेशकशब्दरचनाऽऽ दीनि तेषां निकरः = समूहः येषु तैरिति व्युत्पत्तिः । २०. अत्र हि तात्पर्यानुगामी अन्वय एवमबोध्यः तथा हि: एतादृक् वैचित्र्यमवलोक्य सद्भूतपदार्थप्रत्यायनपरायणो ना सुकृत- दुरितसद्भावं न अनुमन्येत इति औचितीं न च अञ्चत् " इति "L २१. सद्भूतानां = वस्तुगत्याऽस्तित्वशालिनां पदार्थानां प्रत्यायने प्रमाणसिद्धिज्ञाने परायणः = तत्परः इति विग्रहः । २२. नृ शब्दस्य प्रथमैकवचनमत्र विज्ञेयम् अतः अग्रेतन 'इति' पदस्येकारेण सह सन्ध्या 'नेति' स्वरुपस्य 'न इति ' एवं सन्धिविच्छेदो न कार्यः । २३. दुरन्ताः अनन्ताश्व ताः यातनाः = पीडाः तासां केतनं गृहं संसाररूपं, तत उद्विग्नाः तथा च संवेगः=तीव्रमोक्षाभिलाषः, तस्य वेगः प्रवर्धमानगतिः, तेन परिवृढाः पूज्याः, ततश्व दुरन्ता .... द्विग्नाश्च संवेगवेगपरिवृढाश्चेति द्वन्द्वसमास:, तेषामिति व्युत्पत्तिरत्र ज्ञेया । २४. निखिलैः=समस्तप्राणिभिः अभीप्सितं च तत् अनूनं सम्पूर्ण च तत् शर्म= सुखं तस्यास्पदं = स्थानम् इति । अथवा निखिलानामभीप्सितानाम् अनूनशर्मणः आस्पदमिति । अथवा निखिलैरभीप्सितस्य अनूनशर्मण आस्पदमिति । एतद्धि पदं निराबाध - शाश्वत - मोक्षाऽऽख्यपदसूचकं विज्ञेयम् । २५. चोक्षः = निर्मलः कलङ्करहितः एतत्पदेनान्यतीर्यैः मुक्तखरूपेऽपि भगवति तीर्थनिकारा दिना हेतुना पुनरवतरण लीला प्रदर्शनाऽऽदिकलङ्काञ्चितत्वमभिमन्यते तस्यासारत्वं व्यज्यते । २६. अधिगतम् = लोकालोकयोरवलोकने लम्पटस्य केवलाऽऽलोकस्य श्रियाः आलिंगनं यैस्तैरिति व्युत्पत्तिरत्र विज्ञेया । २७. तस्य कर्मणः इति २८. 'उत' 'इति' स्वस्वरुपं = स्वस्मिन् स्वरुपे स्थिरं वस्तु प्रतिरूपवस्त्वा = सादृश्यवता वस्तुना स्वरूपरूपं निरुपयेत्' इति शब्दसंयोजना विज्ञेया, परं तात्पर्यसङ्गतिः सम्यक् नाऽवबुध्यते इत्यत उद्य धीधनैरत्र सम्यङ् गुरुनिश्रया । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ ] श्रीकर्मग्रन्थ० उपा० टिप्पणी २९. मूर्तत्वेन हेतुनेति शेषः, मूर्त्तत्वादेव कर्मणः अनुग्रहो-पघातकारकत्वं सङ्गच्छेत । ३०. उदयकालादूर्ध्वमित्यर्थः । ३१. बंध-मोक्षादिव्यवहारश्च द्रव्यविषयक एव संभवति न गुणसम्बन्धीति ज्ञेयमेतेन पदेन । ३२. अत्राऽऽत्मनः द्रव्यरूपत्वमुपदय द्रव्येणाऽऽत्मना सहाऽविष्वग्भावित्वं कर्मणः प्रदर्थ कर्मणोऽपि द्रव्यरुपता पौद्गलिकताऽत्र प्रतिपाद्यते । ३३. अविरुद्धाश्च ये पदार्थाः तेषां यत् प्रस्फुरणं तस्यै पटुःया प्रतिभा तया भवबद्धं व्याप्त अन्तः करणं यैषां तैरिति विग्रहः । ३४. सु-सुन्दराणि करणानि इंद्रियादीनि येषां तैरिति । ३५. स्वस्य यत् स्वरुपं तस्याऽबोधिः अज्ञानं, तया प्रवर्तितः निष्पादितः यः पुद्गलानां कार्मण वर्गणागतानां प्रचयः समूहः तन्मयाः तेन पुद्गलसमूहेन निर्वर्तितौ यौ पदार्थानां संसारिवस्तूनां चयापचयौ-लाभ-हानी, ताभ्यां जातौ हर्ष-शोको यस्येति तात्पर्यानुसारी व्युत्पत्तिरत्र बोध्या। ३६. यावत् उदित........स्वरुपाविर्भावः न ( भवेदिति शेषः ) तावदित्यध्याहार्यम् , कथं सुखमव तिष्ठेत ? इति सम्बन्धः । ३७. उदितो उदयाऽवस्थामापन्नौ सुकृतदुरितो=शुभाशुभकर्मणी तयोः नोदना-शुभाशुभप्रेरणा तस्याः विलयेन प्रभवः उत्पत्तिः यस्यैतादृशश्चासौ यथास्थितस्य आत्मस्वरुपस्य आविर्भाव इति विग्रहः । ३८. प्रतिबन्धकस्य आत्मस्वरुपाच्छादकस्य स्वरुपं, तस्यः कर्मण आगमनस्य आश्रवस्य निदानानि =हेतवः, तस्यः, कर्मणः बन्धस्य हेतवः, तेषां, बंधहेतूनां स्थानानि तस्यः कर्मणः उच्छेदः समूलनाशः तस्य फलं कारणानि च इत्यादीनामवगमः ज्ञानं तमितिविग्रहः । ३९. नुन्नं प्रेरितं (अव्यवस्थितीकृतमिति वा ) जगतां ऊर्ध्वाधोतिर्यग्रुपाणां त्रितयस्य अनुन्न= अप्रेय यथावस्थितं रुपं स्वरुपं येन तस्य इदं हि 'कर्मणः' इत्यस्य विशेषणम् । ४०. एतद्विधस्य-कार्मगः स्वरुपादिख्यापकस्येति भावः । ४१. दुष्पमा अवसर्पिण्याः पञ्चमकालः, स चासौ अरः कालचक्रविभागरुपः स, चासो राक्षसः, तेन प्रतिक्षणं विनाश्यमानः=अपसर्पणेन स्वरुप हान्या वा अस्तव्यस्तीक्रियमाणः मेघादीनां बुद्धिप्रभृतीनां गुणानां निकायः समूहः यस्येति व्युत्पत्तिरत्रार्थानुसारिणी ज्ञेया । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मग्रन्थ० उपा० टिप्पणी 1 इदं च विशेषणं " प्राणिगणस्य " इत्यस्य विज्ञेयम् । ४२. दुरवसेयात् दुर्बोधात् इत्यर्थ । ४३. ' कुर्वता 'मित्यस्य प्राक्तनवाक्यगतेन " युक्त एव आरंभ" इत्यन्तेन सहान्वयो विज्ञेयः । ४४. अपकारे सुष्ठु कृतिनः = कुशलाः निपुणा वा ये ते तेषामिति । ४५. अस्य कर्मग्रंथस्य । t १०९ ४६. आगमे = बालमतिभिः दुरवगाह्ये शास्त्रसमुद्रे तीर्थः जलावतरणपद्धति कर्मप्रन्थविरचनारुपां कुर्वन्ति तैरिति व्युत्पत्तिः तात्पर्यानुसारिणी ज्ञेयाऽत्र । ४७. मिताः = प्रमाणयुक्ताः इत्यर्थः । ४८. अनेकास सहस्रार्णा गाथानामभ्यासेन (अपि) दुरवसेयं = दुःखेन अवबोध्यं यत् तत्वं, तस्य अवसायिन्यः = ज्ञापिका इति भावः । अमन्दश्चासौ आनन्दश्च तस्य प्रदौ च तौ शब्दार्थो तन्मय इति व्युत्पत्तिः । ५०. एष च शब्दः प्राचीनतराप्ताभिजन प्रयुक्तपरिभाषया रुढः नानाविधार्थसमूह सङ्क्षेपार्थे, ततश्च लघुनि शब्दकलेवरे महतोऽभिमहाविशालस्यार्थस्य सङ्ग्राहके षष्ठे हि कर्मप्रन्येऽल्पधी दुबे ध्याना मनेकेषां पदार्थानां सूचनं हि सद्ग्रहणी - पदेनाऽत्र विहितं प्रतीयते । ५१. उष्णता - तेजः सन्निधानेनोद्भूतावस्थाविशेषः, तस्य प्रचयेन = समूहेन आविष्टा = व्याप्ता या अम्बुनः=जलस्य ततिः या बाष्परूपावस्था इति व्युत्पत्तिरत्रार्थानुसारमूह्या । ५२. तथा= व्याख्यारूपेण विशदीकरणप्रकारेण तन्यमानं विधीयमानं तत् = सङग्रहणी कल्पत्वमिति तात्पर्यसङ्गामिकान्वयशैली अवबोध्याऽत्र । एवं चास्य वाक्यस्यैवं भावः प्रतीयते यत् - " यदि च कर्मग्रन्थपञ्चकरचनावत् यदि दृष्टिवाद-निस्यन्दभूतस्याऽर्थगभीरस्य षष्ठकर्मग्रन्थस्याऽपि विवेचनाप्राधान्येन प्राणयनं क्रियेत, तर्हि परोपकारिसत्तमैः पूर्वाचार्यैः यत् संक्षिप्तशैल्या नानापदार्थानां विशिष्टपद्धत्या सङ्कलनेन सूक्ष्मा सूक्ष्मधीमतां यद्धि हितं सम्पाद्यते तद्धि विशीर्येत । ५३. ऐदंपर्येण = मार्मिक रहस्येन सहितमिति यावत् । ५४. कर्मणां या प्रकृतयः तासां यः प्रकरः = समूहः तस्य व्याकरण - विवेचनमिति यावत् । ५५. परत्र = जिनशासनादम्येषु दर्शनेषु । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिप्पणी ५६. भवभृतः = संसारिजीवाः, तेषां यत् भयं = भवभ्रमणादिभवं, तस्य परिहारेच्छावतां भव्यजीवानामित्यर्थः । ५७. अत्र चैवमन्वयः बोध्यः यत् " अण्वादिवत् सूक्ष्मत्वात् अदृश्यता न अनौचित्यश्चिता " इति । ५८. तत् ' पदेनाsत्र चेतनाशक्तेः प्राधान्येन ज्ञान-दर्शनरूपत्वं विवक्षणीयम् । " ५९. यथार्थाश्च ते अर्थाश्च तेषां यत् दर्शनं = अवलोकनं तत्स्वरूपं यत् दर्शनं सम्यकूत्वं तेन जायमानं यत् श्रद्धानं तद्बलेन जायमानश्च य आचारः, तयोयै प्रतिबन्धकौ तयोः अध्यक्ष =प्रत्यक्षं य अनुभवः तस्मात् । ६०. उद्देश्यं = द्वयोरपि व्यामोहजनकत्वरुपलक्ष्यं, तस्य एकत्वेनेति भावः । ६१. 'तत्' पदेनाऽत्र कषायाणां परामर्शः 1 ६२. 'एतत् ' पदेनाऽत्र ' मोहनीय 'स्य अवबोध कार्य: । ६३. अत्र ' आयाति ' पदेन विपाकरूपोऽर्थो विवक्षितः प्रतीयते । ६४. सम्=सम्यक् प्रकारेण ख्यानं प्रकथनं येषां तेषां पदार्थानां अवच्छेदः -सम्पूर्णज्ञानं, तेन तत्र वारकैः = श्रेष्ठैरिति व्युत्पत्तिरत्रार्थानुसारिणी विज्ञेया । ६५. सम् = सम्यक् प्रकारेण इति = गच्छन्ति, सङ्गच्छन्तीति यावत् । ६६. कामसम्बन्धिनी या कथा तत्र निष्णता = कुशलत्वं, तस्या इप्सुः = अभिलाषुकः, तथा जगताम् शं=सुखं यो न करोति एतादृशः यः शंकर पदेन शंकराचार्य परामर्शोऽत्र तस्य श्वरितमिति यावत् । ६०. संबाधैः स्वप्नप्रभावोपलब्धमिवेति सम्बन्धसंयोजना गम्या । - तेन चायमर्थ:यः - यत् वातादिबाधान्वितानां यथा स्वप्नप्राप्तिर्भवति, तत्प्रभावेनोपलभ्यते हि यथा स्वप्ने आलजालरूपं तदिवेति तात्पर्यानुसारी अर्थसङ्गतिरत्र ज्ञेया । ६८. जिनानां=तीर्थकृतां प्रतिनिधिरूपाः याः प्रतिमाः, तासां प्रतिपत्तेः दर्शनपूजाद्यायाः पराकरणम् = निरसनम् - खण्डनमिति यावत् । ६९. सर्वेषां संसारिणाम् असुमतां प्राणिनां चिन्तनस्यावश्यकतया इति व्युत्पत्तिः । ७०. दृष्टः अशेषानां समस्तानां दर्शनानां दर्शनस्य - वस्तुनिर्णयस्य परमार्थः यैरिति 1 Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिप्पणी ! ७१. आहिता = विहिता या हितबुद्धिस्तस्या निधय इति । " ७२. जगतां जैत्राः = जयनशीला ये रागादयो द्विषन्तः शत्रवः, तेषां यः स्वाभिमानरूपसम्मोह : अथवा तैरुत्पाद्यमानः यः सम्मोहः तस्य जेतारः श्रीमज्जिनाः, तेषामुक्तयः = वचनानि, तदनुसारि यत् मतम्, = जिनशासनम् तस्य म्ला निकरणे या इति व्युत्पत्तिरत्रार्थानुसारिणी विज्ञेया । [ १११ ७३. अनृतवादेन=असत्यभाषणेन कलङ्किता या जिवा तया कराल इति । ७४. भाषानिपुणा इत्यर्थः । ७५. भासितः लोके अलोके च लीनो योऽर्थजातः, यस्यैतादृशज्ञानिनः तीर्थकृतः ज्ञानेन लब्धः बोधः जिनशासनस्य लाभः यैरिति व्युत्पत्तिः । ७६. प्रोतश्वासौ प्रकाराणां अवान्तरमेदतः प्रकारः योऽसौ तम् एतद्धि संख्याताऽसंख्यातादिराशेः सम्बन्धि पदं ज्ञेयम् । ७७. इदं हि पदं वक्रोक्तिमूलकं छेषपरकं विज्ञेयम् । तेन चापातत अर्थ एवं ज्ञायते यत् सन्न्यस्तः= संन्यासी - दण्डी, तस्य ये धर्माः आचाराः तत्रामणीः तस्येति । एतया व्युत्पत्त्या शङ्कराचार्यस्य संन्यासीनामप्रणयत्वं प्रदर्शितम् । किंतु लेषपरयया व्युत्पत्त्या तु कटाक्षपूर्णोऽर्थ एवमपि ज्ञायते यत् सम्=समन्ततः न्यस्ताः = दूरीकरणरूपेण स्थापिताः धर्माः = सदाचार विशेषाः यैस्तैः एतादृशा ये दुर्विदग्धतमा दुर्भाग्यशेखराः तेषामप्रणीः तस्येति । दृष्टिरागपटलावृत विवेकेन तेन सम्यगनवबोधमूलकं हि जैनाभिमतानां कतिपयपदार्थानां खण्डनस्य दुस्साहसं कृतमस्ति । अत एतादृशकठोरोक्तिप्रयोगोऽत्र ' वक्रे हि काष्ठे वक्रं कर्त्तनमिति ' सूक्तिमूलो हि ज्ञेयः । ७८. कर्मणां पृथक् करणेन पृथक्करणाय वा प्राप्ता यथार्था बोधिः यैरेतादृशजैनानां यत् मतं तस्याऽनुमतमिति तात्पर्यानुसारिणी व्युत्पत्तिरत्राऽवबोध्या ? ७९. निर्-आङ्पूर्वकस्थाधातोरद्यत्तनीरूपं विज्ञेयम् । ८०. श्वपचेन=चण्डालेन पराकृते अभिभूते । दन्तकथाssधारेण शङ्कराचार्यस्य गङ्गास्नानात् प्रत्यावृत्तस्य चण्डालेन प्रतिभावता वाचोयुक्त्या कृतस्य पराभवस्याऽत्र सूचनमस्ति । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [श्रीकर्मग्रन्थ. उपो० टिप्पणी ८१. भक्षितः दृष्टिरागरुपी हत्पूरः मदेन हृदयं पूरयति योऽसौ धत्त्रः इत्यर्थः, येनेति विग्रहः । ४२. निहवस्थानान्तर्गतप्रतिज्ञाऽपलापरुपस्य दोषस्याऽत्र सूचनमेतत्पदेन विहितं दृश्यते । ८३. इतिः गमनम् । ८४. अत्र ह्यन्वय एवमवबोध्यः “केषाञ्चित् मतेन नवमस्य तस्य (अनंतस्य) सर्वथैवाऽभावात्" इति । ८५. क्षिप्ताः इत्यस्य अग्रेतनेन केवलद्विकपर्यायाः इत्यन्तेन पदेनसहाऽन्वयोऽवबोध्यः । ४६. विवेचनेन अक्ताः इति पदच्छेदः, अक्ताः इति अङ्ग् धातोः रुपं विज्ञेयम्, तस्य य व्याप्ताः इतिरुपोऽर्थो ज्ञेयः । ८७. इतरथा गौणत्वेनेत्यर्थः । ८८. अत्र चैकवचनप्रयोगः अग्रेतनेन 'उपनिवबन्धु 'रित्येतेन सहासङ्गतः प्रतीयते । सामर्थ्य गमनञ्च सद्गुरूपनिश्रयोहनीयं धीधनैः । ८९. अप्राकृताः=संस्कारसम्पन्ना ये जनाः तैराकर्णनीयानि । ९०. चेतना=विशिष्टज्ञानशक्तिः, तद्वन्तः ये चतुराः तेषां चक्रं तेनेति । ९१. अवक्रे-सरले इत्यर्थः । ९२. अत्र ह्येवमन्वयोऽवबोध्यः यत् " गहनं अनल्पतरगूढं कर्मप्रकृति-पञ्चसङ्ग्रहादिग्रन्थकद म्बकं अवगाह्यम्" इति । ९३. वि=विशेषेण अवगाह्य-मर्मस्पर्शिधिया आलोड्य इति । ९४. अनल्पतरः अतिशयेन भूयान् गूढः अर्थः यस्येति । ९५. सूक्ष्मः=निपुणधीगम्यः ग्रन्थः=रचना यथा स्यात् तथा इति क्रियाविशेषणं हीदं ज्ञेयम् । ९६. अनेके दुर्गताः स्थूलधिया दुरवसेयाः ये विचाराः तत्वनिर्णयाः ते आरुढाः यत्र इति । ९७. मंडितं विभूषितं शासनरुपं अम्बरं-आकाशं यैरिति । ९८. अत्र षष्ठ्यन्तं हि पदं सङ्गतं न भवति, अर्थानुसन्धानेन तृतीयान्तं 'परिचर्यया' इति सङ्गच्छते । ९९. समस्तं सम्पूर्ण यत् अनस्तमित सदोदीयमानं यत् सुखं, तस्य यः सन्दोहः, तस्य साधनरुपः यः स्याद्वादः, तेन साधिता साधीयसी श्रेष्ठा या शूचिता पवित्रता, तया अञ्चितः य Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कर्मव्रन्थ० उपो० टिप्पणी ] [ ११३. = मूलं आगमानामभ्यासः, तद्रूपः यः कल्पः = कल्पवृक्षः, तस्य या व्रतती = लता, तस्याः कन्दः = तत्कल्पा इति तात्पर्यानुसारी अर्थो विज्ञेयः । १०. तत्रभवतां पूज्यानां उद्देशः = आगमानामध्यापनं प्रत्रजनं = संयमावाप्तिः इत्यादिसम्बन्धिनो ये आचार्याः = गुरव इति । १०१. भगवतां = गुरुपादानां चरणरूपौ यौ चञ्चरीकौ कमले, तस्य यः मकरन्दः तेनः मत्तः मनःरुपः मधुपः भ्रमरोः येषामिति विग्रहः । १०२. अत्र ह्येवमन्वयोऽवबोध्यः यत् – ' इत्यादि विद्वद्वृन्दारकाणां बंधीय अत्र ज्ञेयम् इति । १०३. अतिशयेन विपुलम् । १०४. अत्र ह्येवमन्वयसङ्गतिः यत् - " वरं तत् यथायथं श्रेष्ठि........द्वारा मुद्रिताया वन्दारुवः प्रस्तावनातः ज्ञेयम् ।” १०५. श्रीमतां = पूज्यवर्याणां हृदयरूपं यत् पद्मं तस्मात् प्रभवः = उत्पत्तिः, यस्यैतादृशी या प्रस्तावना, तद्रुपिणी पीयूषाशनानां देवानां तेषां तरङ्गिणी नदी स्वर्गगेति यावत् । १०६. — तत्’पदेन पूज्याचार्य श्री देवेन्द्रसूरीश्वरपरामर्शः करणीयः । १०७. दृष्टिवादस्य=द्वादशाङ्गस्य यत् वदनं = स्वरूपनिरूपणं, तेन अतिक्रान्तं वेदानां यजुर्वेदादीनां वादकस्य = उ चारकस्य ब्रह्मणः सहस्रं येन, तथा अनन्तानामर्थानां ज्ञापने दृढं दृष्टिवादस्य = पानम् =भर्थश्रवणम्, तदेव पीयूषं तेन पीनं यत् प्रवचनं श्रुतज्ञानं, तेन प्रधानतरः, स चासौ इति चात्र तात्पर्यगामिकयोहया शब्दार्थसङ्गतिः कार्या । १०८. श्रीमन्तो ये अकलङ्काः = कलङ्कशून्याः तीर्थकृतः, तेषामास्यरूपं यत् पद्महदः, तस्मात् निर्गता या " उप्पण्णे वा विगमेइ वा धुवेइ=वा " इति रुपा या त्रिपथगा = गङ्गा तद्वदाचरमाणा, अशेषे विश्वे व्याप्तः यः वस्तूनां विस्तरः, तदनुसारिणी या पदत्रयी तस्याः पानं, तेनोद्भूतं यत् उद्भवतां=वर्तमानकालीनानां भाविनां भावानामवभासनं, तस्मै प्रभुः = समर्था या भारती = वाणी, तस्याः भरः समूहः, यैरवाप्तः एतादृशो ये गणभृतः = गणधराः, तैः प्रणीता या द्वादशाङ्गी, तद्रूपं यत् गणिन: = आचार्यस्य यत् पिटकं, तस्य अन्त्यभाग इति तात्पर्यानुसारी अन्वयोऽत्र समूहनीयः । " १०९ षडधिकानि नवतिः शतानि यत्रैतादृशानि अष्ट सहस्राणि (८०९६) तद्रूपं मानं येषां तथा अविचलं यत् मानं पञ्चशतधनुः प्रमाणं एतादृशा ये महाविदेहक्षेत्रीया ये मातङ्गाः = १५ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ ] [ श्रीकर्मप्रन्थ० उपो० टिप्पणी हस्तयः = तेषां मानेन शरीरभारप्रमाणेन मिता या मषी लेखनोपयोगी श्यामदर्णिका, तस्या या माळा, तेन लेख्यः = लिखितुं शक्यः वाच्योऽर्थः यस्येति तात्पर्यानुसारि प्रज्ञयोहनीयम् । एतेन हि पदेन परमपवित्रात्मविशुद्धिकरणप्रत्यल - जीवमात्र वैरविरोधक्षमापनाऽनन्या साधारणपर्वाधिराजरुपश्रींपर्युषणाकल्पाऽपरपर्याय - श्रुतोत्तंसश्री कल्पसूत्रसुबोधिकावृत्तौ प्रथम ब्याख्याने श्रौपर्युषणाकल्पाऽद्वितीयमहिमव्यावर्णनप्रसङ्गे श्रीमद्भिः विनयविजयोपाध्यायपादैः चतुर्दशपूर्वाणां यथोत्तरं एकस्य द्विगुणवृद्धया सर्वाग्रेण षण्णवत्यधिशताधिकाष्टसहस्रमहाविदेहक्षेत्रीयपञ्चशतवनुरुच्चमित हस्तिप्रमितमषोपुञ्ज विलेख्यत्वं यत् प्रतिपादितमस्ति, तस्य स्मारणं विहितमस्ति पूज्याऽऽगमोद्धारकाचार्यपादैः । ११०. श्रीमान् अपश्चिमः = चरमः यः पारगतः = तीर्थकृत् श्रीमहावीरवर्धमानस्वामी, तेषां परमा चोत्कृष्टा च या सिद्धिरुपा, तस्या अधिगतिः = प्राप्तिः, ततः समतिक्रान्तं यत् शतकद्वयं वर्षशतद्वयरुप मिति । १११. समस्ताश्च ते समग्रवेदिनः = सम्पूर्णज्ञानिनः, तेषां ये ईशाना: = स्वामिनः, तीर्थंकरा इत्यर्थः तेषां वृत्तानि = चरित्राणि तेषा मित्ये कोंऽशः । शासनस्य अपरा=न यस्मात् परा उत्कृष्टा वर्त्तते एतादृशी या गुरूणां = गणधरादि गुरुवर्याणां परम्परा सैव, पद्मं कमलं, तस्याऽवबोधे पद्मबान्धवः सूर्यः, तत्समो यो विचार इत्य सम्बन्धः, इति द्वितीयोऽशः । = अखिलानि यानि खिलानि = दोषाऽऽसेवन रूपाणि, ताभ्यः जायमाना याः स्खलनाः तासां "विशोधित" इति पदमध्याहार्यमत्रार्थानुसन्धानबलतोऽनुल्लिखितमपि । विशोधितः अवाप्यं यत् असाधारणं = विशिष्टं अनूनं = सम्पूर्ण यत् शर्म= सुखं, तस्याश्रयभूतो यो निःश्रेयसः - मोक्षः, तस्य साधनाय समर्थ या सामाचारी तस्याः, इति तृतीयोऽशः । एवं च समस्त समग्र वेदौशानवृत्तस्य - शासनाऽपरगुरूपरम्परापभावबोधपद्मबान्धवस्य अखिलखिलस्खलना(विशोधि) ऽवाप्याऽसाधारणाऽनूनशर्माऽऽश्रय निःश्रेयससाधनसमर्थसामाचार्याश्व यो विचारः, Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिप्पणी ] तस्मै विस्तृतविभवा माहात्म्यवती या अन:पप्रतिष्ठा, तस्यै कल्पः समर्थः तस्मिन् । एतद्धि प्राक्तने 'श्रीमति कल्पे' इति पदसूच्यश्रीकल्पसूत्रस्य विशेषणं विज्ञेयम् । ११२. सुराणां असुराणां यः विसरः=समूहः, तत्कृता या परिचर्या पूजाख्यातिः, तदवसरे संसृष्टः= सम्यक्प्रकारेण व्याप्तः शिरसां शेखराणां-मुकुटानां खरतरा=विशिष्ट दीप्तिमन्तो ये मयूखाः= किरणानि, तेषां या माला=श्रेणिः, तस्या सङ्गः-दीपनरूपः येषुदी इति तात्पर्यानुसारिणी व्युत्पत्तिरत्रावबोध्या। ११३. प्रवचनस्य-आवश्यकादेरागमस्य या वृत्तिः टीका, तस्याः विधानं-विरचनं, तेनाऽवाप्तः अवतारः यस्याः, एतादृशी या कीर्तिरूपा नटी, तया नाटितः शिरोधूननाऽऽदिना नाकनाथः=इंद्रः यैरिति । ११४. इतिहासस्य-पुरातनवृत्तस्य साधनैः साक्षीरूपतत्कालीनोल्लेखादिभिः शून्यो योऽनेहाः कालः __ अतिप्राचीनः इत्यर्थः, तदर्थ साधितानि-सज्जीकृतानि विविधग्रन्थाऽऽलोडनोत्प्रेक्षणादिभिः साधनानि-तत्कालीनघटनाप्रमाणीकारे समर्थानि येरिति व्युत्पत्तिः । ११५. धूतः दूरीकृतः एनसां-पापानां भरो यैरिति । ११६. प्रादुर्भावका-एतत्प्रन्थप्रकाशिका या गोष्ठी संसत् श्री जैनधर्मप्रसारकाऽऽख्या, तस्याः सम्मत्येति । ११७. ऊनो योऽर्थः, तस्य पूरणं पूर्व स्मिन् यत्रैतादृशं यत् परिकथनं, तस्य प्रार्थनायां पर इति । ११८. अखिला ये भव्यजनाः, तेषां निःशेषानां समस्तानां प्रयोजनानाम् उपनिषद्भूता-मूलाधार स्वरूपा तामिति । ११९. लोके ख्याता ख्यातिः यस्याः, एतादृशी चासौ श्रीमती अकलंका-विशुद्धा या कलना केवल ज्ञानाऽवभासरूपा, तयाऽवगतः त्रिजगतीगतः चराऽचरपदार्थानां प्रकरः समूहः यैरेतादृशाः ये श्रीमन्तः जिनवरेन्द्राः, तेषां या उदितयः वचनानि, तैः उदितः प्रकटीभूतः अनुनस्यसम्पूर्णस्य रत्नत्रयस्य सम्यग्दर्शनादेः असमः असाधारणः यः प्रभावः-कर्मध्वंसिसामर्थ्यरूपः, तेन भावितः अन्तरात्मा यस्येति व्युत्पत्तिः। १२०. उदन्वत् सागरः स अन्ते यस्या एतादृशी अभिधा=नाम विद्यते यस्येति । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ [ श्रीकर्मग्रन्थ० उपो० टिप्पणी अत्र " भीमो भीमसेन " इतिन्यायात् 'आनन्दः' इति अध्याहारगम्यमनन्यसाधारणनिरभिमानिता गुणव्यसनित्वं पूज्याऽऽगमोद्धारकश्रीणा सूचितं दृश्यते । १२१. अशुद्धिरूपं यद् आग : - अपराधरूपं तेन जातं यद् एनः पापं तस्यापनयने = दूरीकरणे प्रभु = समर्थम्, तथा प्रभूणां=पूजार्हाणां उत्तमः श्रेष्ठः तीर्थकृदिति यावत् तैरुपदिष्टम् चेति । १२२. सुराणां पालयः =श्रेणयः, तासां ये शिरोरत्नानि - शिरः स्थमुकुटरत्नानि तैः द्योति क्रमयुगं = चरणद्वन्द्वं यस्य तस्मै । १२३. शान्तेः=स्वास्थ्यरूपायाः निशान्तः गृहं तद्रूपः अयं ग्रन्थ इति । १२४. याम्या=संयमयोग्या अर्हणा = पूजा आयतौ = भाविनि काले येनेति तात्पर्यानुगामी विग्रहो - saraबोध्यः । १२५. निः = निःशेषेन नाशितम् = ध्वस्तम् अशेषं च तत् अशिवं येनेति । १२६. शत्रूणां समूहः शात्रवः, अन्तितः = विनाशितः शात्रवः येन तस्मिन्निति । १२७. मृगग्रामे == मीयागाम इति प्रसिद्धे । १२८. ग्रन्थस्य=‘देवो देवदत्त' इति न्यायेन प्रस्तुतकर्मग्रन्थस्य, उद्घातः = उपोद्घातः प्रस्तावनारूप इति । १२९. मुद्=आनन्दः स चासौ अब्धिः = आनंदसागरः तेनेति । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकाऽऽलेखित-प्रस्तावनासंग्रहरूपे श्रीआनन्द रत्नाकरे एकादशमं रत्नं श्रीपंचाशकग्रन्थ प्रस्तावना Ma r garerak वन्दनवजो विस्तरतुतरां श्रीवीतरागेभ्योऽनवरतरम् । विदाकुर्वन्तु विदिताऽनवद्यविद्यावर्या ! एतद् यदुत श्रीमद्मिरिन्द्रादिश्रेणिमौलिनम्रक्रमकमलैजिनेन्द्रे'जगजन्तुजातजीवातुदेशनावितरणवित्तैर्विस्तारितेऽनाबाधेऽमर्त्य नरनायकनिकरनिषेवणीये आगमाकरे यावद्देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमणान् क्षमाभूषितधर्मकायचणान५. पूर्वाऽपूर्ववस्तुवातविकसनविभाकरप्रभाणि पूर्वाण्यवेविद्यन्त वेद्यमानानि । न च ततस्तादृश उपयोगस्तदानींतनानां प्रकरणादिभ्या; परम् उपलभ्य तद्विनाशम" विनश्वरपथकाक्षिभिरनेकैः कृतानि तथाविधपटुतमबोधलोचनै रपूर्वाऽर्थधारणक्षममनीषा शीलितैःप्रकरणानि। तत्र च भगवन्तः १ शुभवन्त: श्रीमद्हरिभद्रसूरिपादाः १ 'कुशाग्रमतिमत्तामादधाना विशेषतस्तानि सव्याख्याकानि सूत्राणां व्याख्यानानि च १२दुर्गमदुर्गपद्यावत्सुखारोहाणि निरुपयामासुः १३श्रीमदविरुद्धहितकृदुपदेशदेशनदक्षजिनागमे । पूज्याश्च प्राक् तावद् १४व्यासाऽऽदिप्रणीतप्रणालिकाऽऽपूरितहृदयाः प्रतिज्ञातपूर्विणो यदुत-" नाऽवधातुं शक्नोमि यदुक्तं पद्यादिकमर्थ, तस्य भवाम्यन्ते वासितापरिकरित" इति। . तदेवं गते च कियत्यप्यनेहसि पवित्राचाराचरणप्राप्तात्विार्यामुखकजानिःसरत् .१ "दो चक्की चक्की केसव" इत्याद्यावश्यकनियुक्तिगतं वाक्यमवाततार श्रुतिपथं । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ ] [ श्रीपंचाशकग्रन्थ प्रस्तावनां ૧ ૧ २ ર नचावबुबुधे तैस्तदर्थो लेशेनापि, अवाप्तस्थैर्या न्यास्थिषत च तेन पूज्या "आर्याssoयाऽङ्गणे, द्वित्रि' रखधारितेऽपि नाऽवधारितमेव तद्वाच्यमिति विहाय २० विवेकविलोचनलोपनबद्धलक्ष्यं मानं ' आपेतुः पार्श्वे तस्या आर्यायाः २ २ तत्त्वान्वेषित्वाऽनुकूलभावतया व्यनंसिषत ताः, अपृच्छिषत च - " का भवतीषु भणति भट्टपुङ्गवाऽबोधनीयं बोध्यमेतत् किं च तदिति " । ૨ ૨ " ર २७ तदा च ४ यथार्थाssख्या नख्यातख्यातय भार्याः स्वमहत्तरां निरदिक्षन् याकिन्याख्यां । सा च २६ तामार्यां पठितपूर्विणी, ( अतः साऽऽर्या भट्टपुङ्गवनोदनयाऽपाठि तयाऽपि ) तथापि नाबोधि " प्रकरणाऽऽदिबोधबोध्या सा, तथैव द्वित्रिरप्युद्घोषितायां नाऽवजग्मुर्गन्धमपि तस्या आर्योदिताया आर्याया वाच्यस्य । २८ २ २६ ३ तथा च " सत्यप्रतिज्ञा व्यवहारा " इति सत्यापयन्तो वादे त्रिरुच्चरिते न बुध्यते चेदापनपद्यते निग्रहस्थानेन न्यत्कृतिमिति यथार्थतया वेविद्यमानाः स्वीयां प्रादुश्चक्रुः प्रतिज्ञां, ब्यजिज्ञपँश्च तदर्थशुश्रूषामन्तः करणकृतनिवासां, न्यबोधिषत तदर्थमप्यार्यया परार्थ करणधृतकायया, निभालय तागाचारविचारं स्वान्तरागरक्ता ययाचिरे व्रतं " व्रतधनपतिप्रवर्तितं । पठितश्च परमविनीतया तयाऽधिकारोऽत्राऽकलङ्कश्री मज्जिन भट्ट (ट) सूरिसंज्ञकाऽऽचार्यप्रवराणां । जाताऽभिलाषाऽतिरेका याता ४ स्तदीयाऽऽवासाऽलङ्कृत मावसथं । जाते च विशेषनिर्णये जगृहु: परस्परविरोधाऽनवरूद्धं पश्वादिप्राणिगणरक्षणचणं १ " यथार्थ - पदार्थसार्थसाधकं अत्रमुत्राऽनेकाऽर्थित प्रेप्सामदानपटुताप्राप्तसुपर्व पृथ्वीरुहप्रसिद्धिकं सदाचारमयं ४० यथावादकरणलब्ध की र्ति कन्याव रणवरस्वयंवरस्रजं ४ गुरुक्रम सेवनासकलितमूर्ति ४२ गर्हणाकणविसकलितं ४१ देवादितत्त्वत्रितययाथार्थ्यावधारणामूलं सावद्ययोगजातोज्झनसंकल्प ४ महाव्रतधर्माप्रयम् । ३ ३ ' ३ १ ४ ४ अवाप्तवोधाश्च ग्रन्थकरणे सस्मरुः के प्रभुपादास्तामेव बोधदात्रीं ४ मिथ्यात्वोच्चाटनशाकिनीं श्रीयाकिनीं सर्वत्र " धर्मतो याकिनी महत्तरासूनुः " इति स्वान्तध्वान्तविध्वंस विभाकरस्मृतिकरणपटुना पठनेन । ५० विहिताश्च विश्वपूज्यपादैः श्रीमद्भिरनेकाः (के) ४८ सूक्ष्मा वितताय ग्रन्थाः, मुद्रितपूर्वा अप्यनेकाः परं प्रस्तुतं प्रकरणं विशेषत उपयुक्ततरमपि अनगारेतरव्यवहारवेदकतया न केनचिदपि मुद्रितमित्यारब्धमस्य मुद्रणं श्रेष्ठिसौभाग्यचन्द्रस्य कर्पूरचन्द्रात्मजस्य प्रेरणा तदीयमातुर्वीरुबाई नान्या वित्तन पोरबंदरस्थपरमानन्दस्य करसनात्मजस्यवित्तेन चानन्द्गणपतिप्रदापितया १२ । ५१ ४ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीपंचाशकप्रन्थप्रस्तावना ] [१९ - मूलतो वृत्ततो वाऽप्यनुन्मुद्रितस्य मुद्रणे ५४साधीयसी ५५साधनतां साधयामासुः ५ 'संसदध्यापका ज्येष्ठारामाऽभिधानाः ५७शास्त्रविद्वर्या ५८आदर्शकरण- मुद्रणान्वीक्षणशोधनादिभिर्बहुतरैः प्रकारैः। अनेकाः साधवस्तु ५५ दत्तपूर्विण एव साहाय्यमस्या एवं विधेषु विविधं प्रवितरन्ति, विश्राणितं च प्रकृतेऽपि प्रकरणमुद्रितकरणकार्ये साहाय्यमसाधारणं तै:, किन्तु "प्रभाकरप्रभावितानसाधनवर्णनमिव प्रसिद्धत्वान्नाऽतिशयावहमिदमेषामिति न तत्राऽऽयासोऽणीयानपि, न च ते तदनाप्तितोऽनाप्तभावनानेदीयस्तां दवेयु: कणशोऽपि कल्पितां । प्रकरणे च प्रारब्धे प्रेक्ष्यमाणकोनविंशतिमकरणबातमपूर्णमिति कश्चित् , तन्न तत्र तस्य विहाय ६४ कल्पनाकोविदतां विचक्षणाना ५मीक्षणीयमाविर्भवति किश्चित् , यतो वृद्धव्याख्यानुसायनुयोगेऽन्यत्र च न किमपि तादृश "माततं वाक्यादि प्रमाणभूत मन्वीक्ष्यत आख्यायते वा। पश्चाशकाऽऽख्याख्यातिस्तु प्रतिप्रकरणं प्रक्लप्तानां पञ्चाशतो गाथाना मविगानेन विज्ञाना 'दविगीतैव, अन्यथाऽष्टकानामष्टानामेव वर्णनीयत्वापत्तिः न तु द्वात्रिंशतो दृश्यमानाया यथार्थता, कृतमतिप्रसक्तेन । विघृतं चेदं विख्यातकीर्तिभिः श्रीमदभयदेव भावाचार्यपादैः । प्रभूणां सत्ता तु वैक्रमीय एकादशे शतक इति ख्याततरं । न च तेषां गन्धोऽपि खरतरत्वेऽत्राऽन्येष्वपि (च) तद्ग्रन्थेषु वा, न चाऽत्र तत्प्रस्ताव इत्युपरमामीतः । प्रकरणेषु चाऽत्र प्रथमे श्रावकधर्माऽधिकाराऽऽख्ये श्रावकप्रज्ञप्त्यादावुमास्वातिपादैः प्रणीतोऽपि गम्भीरेदम्पर्ययुतः ७ सलक्षणश्च लक्षितो धर्मोऽगारिणः । यद्यपि वृत्तिकृत्पादप्रदर्शितं “सम्यग्दर्शनसंपन्नः षड्विधावश्यकनिरतश्च श्रावकः भवतीति " श्रीउमास्वातीयं वचनवरं नाऽऽयात्युपलब्धिपथं तत्वार्थाऽऽदिषु श्रावकधर्माधिकारेऽन्य त्राऽपि च, परमनुमीयत एतद्-यदुताऽऽसीत्खलु संस्कृतव्याहृत्योदाहृता तैः पूज्यैरन्यापि दृश्यमानप्राकृतभिन्ना श्रावकप्रज्ञप्तिरिति । द्वितीये जिनदीक्षाऽभिधे सम्यग्धर्मे चित्तस्थापनैव दीक्षा विवृता, धर्माभिलाषुकैः पुनः पुनः प्रेक्षणीयमाचरणीयं चैतदुक्तं, एतदभाव एव धर्मावनत्यादिहेतुरैदंयुगीनानामित्यस्मन्मतिः। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [ श्रीपंचाशकग्रन्थप्रस्तावना अत्र च यद्यपि न विद्यते गाथाषट्कं पूरकं पञ्चाशतो गाथानां, चतुश्चत्वारिंशत एवोपलम्भाव, परं 'व्यवहारेण किश्चिदनस्यापि सम्पूर्णताख्यायिना यद्वाऽन्येषां तथात्वा मध्यगस्यातथाभूतस्यापि तथात्वमिति न पश्चाशकताक्षतिः । प्रत्याख्यान च द्रव्य-भाववन्दना-पूजानन्तरमाख्यायमानैराकाराऽखण्डत्वमनुमोदयद्भिदर्शितं बहुमान्य पाठाखण्डत्वं ।। विधाने च जिनभवनस्य व्याख्याते सप्तमे यदुक्तं " पेच्छिस्सं इत्थमहं, वंदणगणिमित्तमागए साहू" इति दर्शयद्भिश्चैत्यवासिताऽनगाराणां समूलकापं कषिता८४ऽन्यत्रापि प्रतिपादितं चैवमेव पूज्यैः " ८५देयं तु न यतिभ्यः" इत्यनघवाक्येन । यत्तु “तिष्ठन्ति ते यथा तथा कार्य" इति प्रोचिरे भगवन्तस्तत्तु जिनाऽऽगमव्याख्यानायाऽवस्थानाऽऽज्ञामूलकं, अत एव " चेइहरागम-सवणं" इति। श्रावकाऽहोरात्रविधौ विहितं विधिरसिकं। यात्रापश्चाशके स्पष्टमाख्यातं श्रीमहावीप्रभोः कल्याणकपञ्चकं, अवधार्य चैतत्सूत्रकृच्छ्रीमद्धरिभद्रसूरीणांवृत्तिकृतां च श्रीमद्भयदेवसूरीणां भीरुता चेदाशातनायास्त्याज्य: षट्कल्याणककदाग्रह स्तद्र सिकैः, तीर्थकराऽऽशातनाप्युत्सूत्रप्ररूपणोत्थै "वमेवापयास्यतीति ध्येयम् । कल्पस्वरूपाऽऽख्याने स्पष्टमाख्यातमागमैदम्पर्यविद्भिः पूज्यैः "तित्थगरऽसंतचेला"। व्याख्यातं च व्याख्याचणै:-" तीर्थकरा जिनाः। असच्चेलाः सन्तोऽचेला भवन्ति, शक्रोपनीतदेवघ्याऽपगमानन्तरमिति"। अवलोक्य चैतच्छ्रीमत्तीर्थकरवाक्योत्तीर्णवादभीरवो नैतादृग्वाक्यानुसारिकिरणावलीवाक्यविलोपका भविष्यन्तीति । ___ आख्यातं च ख्यातकीर्तिभिरुपस्थापनाविधिं येऽनुपस्थापनारसिका ये 'चाऽपरीक्ष्योपस्थापकाः सर्वे ते सम्यग् निभालयित्वा २ऽऽज्ञास्वरूप सम्यक् प्रवर्तन्तां, यथा स्याद्यथेप्सितपदलाभः । विधिवेदिनो विद्वांसो विलोक्य वाक्यं वीतरागीयं “अइयारो होउ वा मा वे" त्याद्यात्मकं विकल्पकोविदत्वमात्मनोऽपाकृत्य "स्याच्चेदतिचारः प्रतिक्रमणं, किंम Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचाशकग्रन्थप्रस्तावना] [ १२१ न्यथा तत्करणेनेति ध्यानं वा तावत्कालं विधेयमिति वा" प्रतिक्रमणीयामरुचिं विहास्यन्ति। अधिकेऽपि गाथाद्वये "सप्तदशे पूर्ववत्पश्चाशकत्वम् । प्रशस्तौ च प्रस्तावितवन्तः पूज्यपादाः परम्परां स्वीयामनघां " चन्द्रकुलाऽम्बरस्य" इतिवाक्येन वित्ततमचन्द्रकुलीनत्वमात्मनां । ____ "चतुरधिकविंशतियुते वर्षसहस्रे शते च सिद्धेयं ” इति विरचनवर्णसङ्ख्याऽऽख्याय्याख्यातृभिः। न च तत्र खरतरविरुदगन्धोऽप्यायाति समयमितमतीनामिति हेय आग्रहः "खरतरास्त" इतिरुपो "निरूपणाचणेन । विलोकनीयं तावत्प्रान्ते एतद् यदुत तादृग्भिरपि संस्कारितेयं श्रीमद्रोणाचार्यपादैः पुक्तमेवेदं तादृशां भवभ्रान्तिभीरूणां भगवतां । प्रमाणं च वृत्तरस्याः सार्धसप्ताऽधिकाष्टौ सहस्राणि, मूलं त्वेकोनविंशतिः पञ्चाशतामित्याग्रुपदा १०°ऽवलोकनीयाऽर्थलेशानर्थ येऽन्ते प्रस्तुतोपोद्घातस्य यत् परिशिष्टं ..श्रीमतपूज्यपादोद्भवकालादि योगदृष्टिसमुच्चयालेष्ठि-देवचन्द्रलालभाइज्ञानोद्वार. व्यवस्थातो १०४ निर्मिताज्ज्ञेयं । ज्ञापनीयं चाऽशुद्ध्यादि,यदुपकारपुरस्सरमुपादाय द्वितीयावृत्तौ संस्करिष्य इति १०५ रत्नगणरोहणश्रीश्रमणसङ्घचरणकजमकरन्दमधुप १० आनन्दः सकलसवनिःश्रेयसाकासी ॥ १०८कुष्ठामयविधंसि-प्रभावविख्यातस्तम्भन: पार्श्वः । यत्पावितवांस्तत्रस्थितेन विहितोऽयमारम्भः ॥ पीरात् २४३८ वर्षे वीरनिर्वाणदिवसे लिखितम् ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. 8. ५. ७. ८. श्री पूज्यपादागमोद्धारकाऽऽचार्यश्रीलिखित प्रस्तावनाविषमपदार्थसूचिका आनन्दलहरी - टिप्पणी ( श्रीपञ्चाशकग्रन्थप्रस्तावना ) ९. विदिता : - प्रख्याताश्च ते अनवद्यामिः - निर्मलाभिः विद्यामिः वर्याः श्रेष्ठाः, अथवा विदिताः–सुज्ञाताः अनवद्याश्च ताः विद्या यैस्तेषुवर्या इति तात्पर्यानुसारिणी व्युत्पत्तिरत्र विसेया । इन्द्रादीनां या श्रेणिः, तस्याः या मौलयः - मुकुटीः, ते च नम्राः - नमनशीला यत्र - एतादशाः क्रमक्रमलानिः - चरण कमलानि येषां तैरिति । एतद्वाक्यस्यचान्यवसङ्गतिरत्रैवं विज्ञेया " तदानींतनानां प्रकरणादिभ्य तादृश उपयोगः न, ततः " अर्थात् - तदानींतनानां - पूर्वगतश्रुतसद्भावकाले वर्तमानानां विविधप्रकरणादिग्रन्थानां पठनादितः तादृशः - इदानीन्तनजनानां यथा सुखावबोधादिकं भवति तथा उपयोगः न ततः - न जातः इत्यर्थः । अविनश्वरः–शाश्वतो यः पंथा: - मुक्तिमार्गः तस्य कांश्क्षिभिः इति - मुमुक्षुभिरिति यावत् । तथाविधः - कालापहा निव्यपेक्षया पटुतमो - अन्यापेक्षया अतिशयेन पटुः - कार्यलसमर्थश्वासौ बेrधः - ज्ञानं, तदेव लोचनं येषां तैरिति । जगतां ये जन्तवः तेषां जातः - समूहः, तस्मै जीवातुः - जीवनौषधम् एतादृशी या देशना तस्याः वितरणं-दानं तत्रवित्ताः प्रख्याताः तैरिति । नया भूषितश्चासौ धर्मकायः, तत्र निपुणाः - सदुपयोग देद्वारा तानिति । अर्वाणि च तानि पूर्वाणि यानि वस्तूनि तेषां व्रातः, तस्य विकसनं = स्वरूपप्रकाशः, तदर्थं विभाकरः - सूर्यः, स इव प्रभा येषां तानि इति । अपूर्वश्चासौ मर्थश्च तस्य धारणं - चेतस्यवधारणम्, तत्र क्षमा - समर्था या मनीषा - बुद्धिविशेषः, तस्याः शीलितं येषां तैरिति । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपञ्चाशक प्रस्ता०० ] १०. शुभं - परार्थ करणरूपं विद्यते येषां ते इति । ११. कुशस्याग्रतुल्या मतिः येषां तद्भावमिति । १२. दुर्गमश्चासौ दुर्गः - वप्रः ( किल्लो ) तस्य पद्या - - सुगमपदपद्धतिस्तद्वदिति । १३. श्रीमान् अविरुद्ध श्वासौ हितकृत् य उपदेशस्तस्य देशने-दाने दक्षः, एतादृशो यो जिनाम तस्मिन् इति । १४. व्यासादयः ये अन्यतीर्थ्यधर्माचार्याः, तैः प्रणीता या प्रणालिका शास्त्रपद्धतिरुपा, तथा आपूरितं हृदयं येषां तैरिति । १५. अन्तेवासिता - शिष्यत्वं, तया परिकरित इति । १६. पवित्राश्च ते अचाराश्च तेषामाचरणेन - आसेवनया प्राप्तम् आर्यात्वम् = श्रेष्ठत्वम् यया, तादृश्या आर्यायाः =साळ्याः मुखकजात् - वदनकमलादिति । १७. इयं हि गाथा सम्पूर्णैवं विज्ञेया : ××× " चक्किदुगं, हरिपणगं, चक्कीण केसवो चक्की । केसव चक्की केसव, दुचक्की केसव चक्की य ॥" १८. आर्यानां - साध्वीनां आलय: - उपाश्रयः, तस्याङ्गणं तस्मिन् इति । १९. सोपयोगमवबोधार्थं प्रयतितेऽपीति । २०. विवेकरूपं यत् विलोचनं - विशिष्ट नेत्रं, तस्य लोचने बद्धं लक्ष्यं येनेति । २१. आङ्पूर्वक' यत्' धातोः परोक्षारूपमिदम् । एतेन च प्रयोगेणैवमत्र ध्वन्यते यत् यथा हि पतनं न स्वेच्छापूर्वकम्, तथाऽत्रहार्दिक्या अपि प्रतिज्ञाया महत्त्वमुररीकुर्वाणा पूज्यपादाः आन्तरिक भावुकत्वविवशीभूताः मानहानिमपि विगणय्यैव प्रेर्यमाणा इव कयाऽप्यान्तरशक्तिना साध्वीनिकटं जग्मुरिति सूभ्यते । २२. 'वि' पूर्वम् ' नम्' धातोरयतन्यामात्मनेपदरूपमिदम् । आत्मनेपदप्रयोगेणैतस्य नमस्कारस्य स्वारसिकत्वं सूच्यते । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [ श्रीपञ्चाशक प्रस्थाटि. २३. भदाः-विद्वांसः, तेषु पुंगवाः श्रेष्ठाःभवादृशाः तैःन बुध्येतैतादृशमिति विग्रहः। अत्र 'भदपुङ्गव' पदप्रयोगः मार्मिककाकुगों विज्ञेयः । २४. यथार्थस्य- यथाऽवस्थितस्य आख्यानं-निरुपणं, तेन ख्याता-विदिता ख्यातिः-आर्यात्व रूपा यासां ता इति । २५. स्वस्य संयमवालिका नाविनां गुरुपदस्थितां प्रवत्तिनी मित्यर्थः । २६. आर्याछन्दसि निबद्धां तां गाथामित्यर्थः । २७. भट्टपुङ्गवस्य-विद्वश्रेष्ठस्य तस्य हरिभद्रपुरोहितस्य नोदनया-प्रेरणयेति । २८. प्रकरणाऽऽदीनां- तद्गाथाब्यावर्णितवस्तुनिरूपकलधुग्रन्थविशेषानां बोधेन-परिज्ञानेन बोध्या इति । २९. परेषां अर्थः-उपकृतिरुपः, तस्य करणं, तस्मै धृतः कायःययेति । ३०. स्वस्यान्तः-चिहनं, तत्रस्थरागेन-हार्दिकप्रेम्णा रक्ता इति, याथार्थ्यनान्तरपरावृत्तितः मौलिकप्रीतिवन्त इति । ३१. व्रतानि-महाव्रतानि अणुव्रतानि च, तान्येव धनं, तस्य पतिः तीर्थकृत् , तेन प्रवर्तितमिति । ३२. दीक्षाप्रदानादिस्वरुप इति परिशेषः । ३३. जातः अभिलाषायाः-संयमग्रहणस्वरुपाया अतिरेकःयेषामिति । ३४. तेषां-श्रीजिनभटसूरीणां सम्बन्धी च आवासः-वसनं, तेनालङ्कृतम्-शोभितमिति । ३५. उपाश्रयमिति । ३६. परस्पर विरोधेन-वदतोव्याधातादिरूपेण अनवरुद्ध-अव्याप्तमिति । ३७. पशुपदमत्रोपलक्षणेन प्राणिमात्रगमकं विज्ञेयम् । ततश्च समस्तप्राणिगणस्य रक्षणे निपुणमिति । ३८. यथार्थाः ये पदार्थाः, तेषां यः सार्थः, तस्य साधकमिति । ३९. अत्र=इहलोके अमुत्र-परलोके अनेकेषां अर्थितानां इच्छाविषयीभूतानां प्रेप्सा प्रकर्षण लब्धुमिच्छा, तस्य प्रदाने पटुतया=कुशलतया प्राप्ता सुपर्वणां देवानां पृथ्वीरहस्य कल्पवृक्षस्य प्रसिद्धियेनेति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपञ्चाशकप्रस्तारि०] [ १२५ ४०. यथा वादः कथनं तथा करणं सक्रियत्वं, एतेन लब्धा या कीर्तिरूपाया कन्याया बरणे वरा स्वयंवरस्रक् येनेति । ४१. गुरूणां दीक्षादातृणां क्रमयोः चरणयोः सेवनया आसकलिता मूर्तिः यस्य तमिति । ४२. गर्हणा=निंदा अर्थात् निन्दास्पदत्वम् तस्याः कणेनाऽपि विसकलित विरहितमिति । ४३. देवादीनि यानि तत्त्वानि, तेषां त्रितयस्य याथार्थ्यस्य सत्यस्वरूपस्य अवधारणा=निश्चयस्तदेव मूलं यस्येति। ४४. सावधानां=आज्ञाविरुद्धानां योगानां प्रवृत्तीनां जातः उज्मनस्य त्यागस्य संकल्पः यत्र तमिति । ४५. महान्ति च-सर्वविरतिरूपाणि तानि व्रतानि हिंसाविरमणादीनि, तान्येव धर्मेषु-ज्ञानिनिर्दिष्टेषु विविधप्रकारेषु अग्र्यम्=श्रेष्ठमिति । ४६. मिथ्यात्वस्य मोहोदयावेशतः विपरीतासद्ग्राहस्य उच्चाटने शाकिनीरूपामिति । ४७. स्वान्तस्य चेतसः यः ध्धान्तः अज्ञानरूपान्धकारः, तस्य विध्वंसः विलयः, तदर्थ विभाकरः सूर्यः, तस्य स्मृतिकरणे पटु-समर्थ तेनेति । ४८. सूक्ष्माः संक्षिप्ताः विवक्षावशादेतादृशपदप्रयोगोऽत्र । ४९. वितताः विस्तृताः । ५०. अनगाराः साधवः, इतरे च-गृहस्थाः, तेषां व्यवहारस्य वेदकः ज्ञापकः, तभावस्तत्ता तयेति । ५१. "आनन्दगणपति" पदेन पूज्यागमोद्धारकाचार्यप्रवरेण निजनामसूचनं विहितमस्त्यत्र । ५२. 'प्रदापितये ' त्यस्य प्राक्तनेन 'प्रेरणये !-त्यनेन सह सम्बन्धो विज्ञेयः । ५३. न उत्=उत्कर्षेण मुद्रितः प्रकाशं नीत इति, तस्य । ५४. श्रेष्ठामित्यर्थः । ५५. सहायतादानरूपामित्यर्थः । ५६. 'संसत् ' पदेनाऽत्र भावनगरीयश्रीजैनधर्मप्रसारकसभा सूचिताऽत्र । ५७. शास्त्राणि ये विदन्ति, तेषु वर्याः श्रेष्ठा इति । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ [ श्रीपञ्चाशकप्रस्ता०टि. ५८. आदर्शस्य=मुद्रणयोग्यस्यलेखस्य करणम्-विधानं, मुद्रणं-मुद्रायन्त्रे दानं, अन्वीक्षणं सम्यक् ध्यानपूर्व शुद्धि-स्वच्छतादिनिभालनं, शोधनं-मुद्रणपत्रादीनामित्येवमादिभिरिति । ५९. पूर्व दत्तवन्त इति यावत् । ६०. प्रकरणस्य प्रस्तुतग्रन्थस्य मुद्रितकरण प्रकाशकरणं तद्रूपे कार्ये । ६१. प्रभाकरः सूर्यः, तस्य प्रभा कान्तिसमूहः, तस्य साधनस्य सम्पादनस्य वर्णनम् इति । ६२. न आप्त-अनाप्त, एतादृशी या भावना, तस्याः नेदीयस्ता समीपता तामिति । ६३. "दु" गतौ इति भौवादिकधातोः सप्तमी (विध्यर्थ) रूपमिदम् । ६४. कल्पनायां कोविदता=निपुणता, तामिति । ६५. ईक्षणीयम्-विचारणीयमिति । ६६. वृद्धानां पुरातनानामाचार्यविशेषाणां व्याख्याया अनुसारिणि अनुयोगे इति । ६७. उपन्यस्तमिति । ६८. दृश्यते इत्यर्थः । ६९. प्रस्ताव्यते इत्यर्थः । ७०. त्रुटिरहितमित्यर्थः । ७१. प्रशस्तेत्यर्थः । ७२. भावाचार्य पदेनाऽत्र पूज्याभयदेवसूरीणां प्रकृष्टसाधनानुसारित्वं ध्वन्यते । ७३. अत्र 'तत् ' पदेन खरतर चर्यापरामर्शः । ७४. गम्भीरं स्थूलधियाऽनवगम्यं च तत् ऐदम्पर्य=रहस्यं तेन युतः इति । ७५. लक्षग-स्वरूपाख्यानं, तेन सहित इति । ७६. श्रावकधर्मनिरुपकेषु अन्येषु ग्रन्थेष्वित्यर्थः । ७७. संस्कृतभाषानिबद्धोद्धरणेनेत्यर्थः । ७८. इदानीमुपलभ्यमानप्राकृतभाषानिबद्ध " श्रावकज्ञप्ति" ग्रंथतः भिन्नेत्यर्थः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीपञ्चाशकप्रस्ता०ट० 1 ७९. शिष्टजनसम्मतेन लोकप्रचलितेनेति शेषः । ८०. द्वितीयपञ्चाशकभिन्नानामित्यर्थः । ८१. द्वितीयस्येत्यर्थः ८२. पश्चाशकपदवाच्यत्वमिति । ८३. सूत्रपाठे कुत्रचित् कतिपयानां पदानां प्रसंगविशेषेऽनुपयोगित्वेन प्रतीयमानानामिति सतां पाठस्याऽखण्डत्व व्यवस्था गीतार्थमान्येति भावः । ८४. षोडशकादिषु प्रन्थेषु । ८५. “ देयं तु न यतिभ्यः " इति हि पदं श्रीषोडशकप्रकरणीय - षष्ठषोडशकस्य पंचदशम गाथायाः समस्ति - ८६. 'तत्' पदेन षटूकल्याणकवाद परामर्शः । ८७. षट्कल्याणका ग्रहपरित्यजनेनैवेति । ८८. श्रीमन्तो ये तीर्थकराः तेषां वाक्येभ्यः उत्तीर्णः = उत्सूत्ररूपः तस्य वादे भीरव इति । उत्सूत्र भाषणभयशीला इत्यर्थः । [ १२७ ८९. ' एतादृक् ' पदेनाऽत्र पञ्चाशकव्यावार्णितऽचेलकत्व निर्देशः, एतादृक् वाक्यं अनुसरति यत् एतादृशं यत् किरणावली - पूज्योपाध्यायधर्म सागरगणिपुङ्गवग्रथिता श्री कल्पसूत्रटीका तस्याः वाक्यं = कल्पदशकव्यावर्णनप्रसङ्गे आचेलक्य रूप प्रथमकल्पविवृत्यवसरे प्रदर्शितं तीर्थंकराणां चेला सत्त्वरूपं तस्य विलोपकाः = खण्डयितारः । अर्थात् श्रीमद्भिर्विनयविजयोपाध्यायैः सुबोधिकावृत्तौ चिखण्डितं पूज्योपाध्यायधर्मावतारगणिवरग्रथितकिरणावलीवाक्यमाचेलक्यसम्बन्धि उल्लिख्य छास्थ्यप्रयुक्तानाभोग मतिधारणान्तरं प्रदर्शितमस्ति । एतद्धि न चारू, बोधवैचित्र्यादिकमत्र हेतुरिति प्रदर्श्यते अत्रामोद्धारकबहुश्रुतगीतार्थोत्तसैरिति । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [ श्रीपञ्चाशकप्रस्ताहिक ९०. उपस्थापना=वृद्धदीक्षा-महावतारोपणं वा, तत्र ये न रसिकाः स्वारस्यमूलकप्रवृत्तिमन्त इति । ९१. शास्त्रामर्यादया यथोचितषड्जीवनिकाययतना-ज्ञानपरिणतिसमीक्षादिस्वरूपपरीक्षामकृत्वेत्यर्थः । ९२. आज्ञा=गीतार्थनिश्रया ज्ञानपरिणतिसमीक्षास्वरूपा, तस्याः स्वरूपमिति । ९३. एतत्पदस्य प्राक्तनेन 'विलोक्ये '-त्यनेन सह सम्बन्धः। ९४. सप्तदशतमे हि पश्चाशके इत्यर्थः । ९५. प्रसिद्धतमेत्यर्थः । ९६. समयः जिनागमः तेन मिता=प्रमाणोपेता व्यवस्थितेति यावत्-मतिः येषामित्यर्थः । ९७. निरूपणायां प्रतिपादनायां चणः=निपुणः तेनेति । ९८. प्रवरप्रावचनिकधुरंधरैः समर्थैरागमपारगामिभिरिति यावत् । ९९. स्वकृतविवरणग्रन्थमन्यसुविहितसूरिपाचे संशोधनार्थ दानरूपमित्यर्थः । १००. अवलोकनीयाश्च आन्तरेण विवेकचक्षुषा ते अर्थलेशाः पदार्थ विशेषाः, तानिति । १०१. अवशिष्टमित्यर्थः । १०२. श्रीमतां पूज्यपादानाम् उद्भवः जन्म तस्य कालादि । १०३. एतद्धि पदं इदानीन्तनभाषायां 'फंड' पदवाच्यगमकमिति । १०४. 'निर्मित'पदं ह्यत्र प्रकाशिकाऽर्थपदकं विज्ञेयम् । १०५. रत्नानां गणः=समूहः तदर्थ यो रोहणगिरिः रत्नखानिमान् पर्वतः, तदूपो यः श्री श्रमणप्रधानः ___ सङ्घस्तस्य चरणरूपौ यौ कजौ तयोः मकरन्दस्य मधुपः भ्रमर इति । १.६. एतेन संक्षिप्तेन पदेन सम्पादकेन स्वनाम सूचितमस्त्यत्र । तद्धि श्रीआनन्दसागरगणिरूपमत्र विज्ञेयम् । १०७. कुष्ठरूपो य आमयः, श्रीअभयदेवसूरीशतनुसम्बन्धी, तस्य विध्वंसी-विनाशकारी यः प्रभावः= अतिशयविशेषः, तेन विख्यातः प्रसिद्धिमाप्तः, एतादृशः यः श्रीस्तम्भनाख्यः इति । १०८. 'यत् ' पदेन श्रीस्तम्भनतीर्थसंज्ञया प्रख्यातं खंभातनामकं पुरमत्र विवक्षितमस्ति । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमोद्धारकाऽऽलेखित-प्रस्तावना-संग्रहरूपे श्रीआनन्दरत्नाकरे द्वादशमं रत्नं श्रीकर्मप्रकृत्युपोद्घातः MPREHEYEARHaran Xathistates ॥ प्रपोस्फुरीतु प्रणतिप्रवाह: पारमैश्वर्यमयपरमेश्वरपादयोः॥ 'जगति'तावद् विज्ञानविषये वर्गो विदुषां वर्तनावर्तनीमवतीर्णो 'विश्वोऽपि 'प्राणभृदूवारोऽहमहमिकापुरस्सरं प्रवृत्तिमाद्रियमाणो विद्यत इति विदाङ्करोति । न चाऽस्ति "साध्यता प्रतिप्राणि प्रसिद्धपूर्वेषु प्राणिषु 'स्व-स्वविषयकसुखिदुःखित्वाऽनेकविषय विषयकै-ककर्तृ त्वभू-तविलक्षणविज्ञानवत्त्व - दृश्यमानभूतसंहतिकारित्वादिभिः कणशोऽपि जीवाऽस्तित्वाऽभ्युपगमाऽवाप्तसार्थाऽऽस्तिकसंज्ञान् १२ ससंज्ञानानभि, यद्यप्यपजानीत एव कश्चित्पारमार्थिकी जीवसत्तां केवलमुररीकृत्य ब्रह्माऽद्वितीयतां दरीदृश्यमानविचित्रभूतवृत्तिसनाथां१५ कश्चिदास्तिकाभिधानावहः, तिरस्करोति'" च लोका. यितैरप्यतिरस्कृतमाबालगोपालाङ्गनाजनसिद्ध ६ २०व्यवहारैकमूलमध्यक्षं, तथाऽपि वेविद्यत एव २ घ्यावहारिकी २२वर्ण्यमानाऽभिप्रेयमाणा च जीवास्तिता २४तत्कैरिति २५नाऽोऽमीभिर्विदुषां विवादेनास्तित्वेऽसुमतां, तद्वदेव प्रतिप्राणि सुख-दुःखादिवैचित्र्यस्य तात्त्विकस्योपलम्भान्न २ बोभूयते २८कश्चिदिष्टेष्टाऽविरुद्धपरमार्थाभिधायिन्याप्तागमे “ पुढो सत्ता पुढो कम्मा" इति २६वर्णनचणे विप्रतिपन्नः, ३ भवेदितरथा प्रतिप्राणि प्रसिद्धस्य सुखदुःखव्यवहारस्य, प्रचुराऽनर्थनिबन्धनाऽज्ञानस्य, समस्ताऽर्थसाधनसमर्थज्ञानस्य, विविधोपदेश्योपदेशकभावस्य, विविधगतिभ्रमणभोग्य-सुकृत-दुरितावलेः सर्वथा समुच्छेदसंपत्तिः। अस्ति च 'तुल्यसाधनानां फले विशेषात् सुख-दुःखवैचित्र्योपलब्धे:, ३२अविषमकारणस्य कार्यवैचित्र्यस्याऽकारणत्वप्रसङ्गात् गर्भावताराद्यसमयवैचित्र्यनिबन्धनस्य ४ तत्करणकाल(फलप्राप्ति) तदुभयाऽभिसंधायकवस्तुविशेष(स्य) २५सद्भावसिद्धेः स्वीकार्यमवश्यं 'शुभाइ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ] [ श्रीकर्मकृत्पद्यातः ** ४ * ૨ ५० ५१ ४८ ** ५ ५ ५ ६ ५ शुभभयमेददृष्टं । एतावति व साधने विद्यमानेऽपि येऽपलपन्त्यात्मनामदृष्टस्य च सतां ते कीदृश इत्यालोचनीयं स्वयं विविक्तसदसन्मार्गैः सद्भिः । अदृष्टं चानेकधाऽनेकविधतत्कार्योपलब्धेः । यद्यप्यन्यैरस्य कल्पिते भिदे शुभाशुभे इत्याकलय्य शुभाशुभतां व्यवहारपथाश्रितां, भेदा अपि च व्यवहारानुसारिण एव श्रिता ४४ भूघनगुणघातावगुणवर्गविधान सावधानाः, न ४ त्वात्मतद्गुणघातादिप्रवणा अभ्युपगता निरन्तर मनुगम्यामीयाभियुक्ततर्ति, तथापि लोकाऽलोकाऽवलोकनलम्पट केवल वेदोऽवलोकितसूक्ष्मदृरा - मूर्त●पवहितेतरार्थसार्थाः सर्वविदोऽवगम्य यथायथमात्मनां ४ वारमा वृतं वृन्दं त द्गुणानामावारकं 'चाऽतच्चश्रद्धा - पापाविरमण - क्रोधाद्यन्तराऽरातिवर्ग - स्वान्ताऽऽदि* व्यापारोजित मुर्ज स्थलं ' ' अनुकूले तर सामग्रीसंयोजनसमुद्भाविताकाशाद्यतीत मूर्तिक पदार्थनिवहातिक्रान्तरूपं कर्मणामष्टकं रूपपरीतस्वरूपं यत्न संपाद्यक्षयं निर्दिदिक्षुर्दीक्षितेतरजनेभ्यो ऽशेष कर्म कायकपणकल्पनाको विदेभ्यः "तस्य बन्धादिस्वरूपं निबबन्धुश्च मालाकरा इव पूज्यपादा २ गणधारिण उदीर्णप्राग्भवभव्य भावभूतश्रेयोभावनोद्भावितगणभृत्कर्मादिया'तशक्राद्यखिलना किनरनिकायासाधारणगणेशितृत्वाः सुमनस इव सुमनसः "सुमनस्त्वापवर्गित्वसाधनसमर्थार्थार्थनीया वाचो "जगदीश्वरास्यनिसृता भव्यवारहितैकनिहितान्तः करणाः सूत्रेणेव " नियुक्त निरवशेषार्थ समृहम् चनसमर्थेना तिलघीय सोपेतेन • गुणैर्द्वात्रिंशता निपुणतमेन सूत्रेण द्वादशाङ्गीमयेन, गभीरतराश्रातताः पदार्थाः " "परमकृपानुगतहृदयंगमैर्द्वादशेऽङ्गे सिद्धान्तितं च " सिद्धान्ततत्त्वामृतपानपीवरैः " पीवरभागधेयैमंगवद्भिरभियुक्तो तरङ्गानामेकादशकं ४ बाल - स्त्री - मन्द-मूर्खाणामतुलोपकारकृतये श्रीमद्भिगुणगणधुराधरणधौरेयैरुद्धृतं द्वादशादङ्गादिति । ,६२ * ६५ ६ ६ ७ २ ७३ " ७४ ७१ ८ ८ हेतुश्चैष एव तथाविधानां गहनतमानां कर्मग्रन्थ- कर्मप्रकृति - पञ्चसङ्ग्रह - सप्ततिका "प्रभृतीनामनन्यस्थानानां तत एवोद्धारे । न हि नाते व्यवस्थितिरनर्घाणां रत्नानामन्तरा रत्नाकरं । प्रमाणं चाप्येतदेव, तस्य सत्तासमीक्षायां प्रेक्षाचक्षुष्काणामनन्यप्रणेयपदार्थप्रपञ्चप्रपश्ञ्चनपटुप्रकरणप्रचयप्रवरसाधनता सिद्धिर्या, स्पष्टं चैतत्पूर्वाणां चतुर्दशानां चतुर्णां (द्वयोः) सदावस्थितदिष्टनियतपरिमाणवद्विदेहजसामजानां भपीपुजेर्लेख्याद्वितीयात्पूर्वात् पञ्चमाद्विंशतिप्राभृतमानाद्वस्तुनश्चतुर्थात्कर्मप्रकृत्याख्यात्प्राभृतात् आपोद्धारनदीरयो (य) वाहमित्यागमीयगमावगमानां ८८ ६२ 16 1x ८३ ५३ द ४७ ७६ ८० τη ८ ५ ८ निबन्धनं चेदमेव ६१ " दृष्टिवादनदीष्णानां प्रस्तुतप्रकरणोनतापूर्णतननविज्ञप्तेः "गाथायां षट्पञ्चाशत्तमायां अष्टकरणप्रकरणप्रभृते: पूर्णतायां, ४ तदेवमवसितमभिधेयं कर्मणां बन्धादीति । न च वाच्यं निष्प्रयोजनमिदमात्मश्रेयोऽर्थिनां ज्ञान-दर्शन- चारित्राणां निःश्रेयस εθ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मप्रकृत्युपोद्घातः [ १३१ निदानानामन्यतमस्याऽसिद्धेः, "सज्ज्ञान-चारित्रमूलस्य सद्दर्शनस्य तत्त्वार्थश्रदानाऽऽत्मकस्यात्म तद्गुण-तदावरण-तद्धेतु-बन्धनिरोध-नाश-समूलक्षयादीनामनवगमेऽवस्थानासम्भवात् । अत एवोदितमुदितदयानिझरैः " दविए दंसणसोही" त्ति । १०२किं च यावन्नाऽवगतं कर्मणां प्रकृत्यादि उच्छेदश्च मूलतो न तावदवगच्छत्यास्मनो विशुध्धेरपकर्षात्कर्षों वृद्धयादि च गुणानां । न च विजानाति निरोधोपायं गुणस्थाने १०४ मोक्षसौधसोपानसन्निभे विधेयं समारोहेण । न चाऽधिगच्छति तात्त्विकं गतिभ्यश्चतसुभ्यो निर्वेद १०५कर्मकण्ठीरवकदर्थनाकल्पितव्यथाविचिन्तनततं । तदावश्यकमेवाऽध्ययनं १० द्रव्याऽनुयोगाऽनिमेषनदीप्रवाहप्रवर्तनपार्वतीपितृपर्वतप्रभस्यैतादृशस्य प्रकरणस्य। सत्येव च सद्दर्शने स्यादुद्भूतिर्ज्ञान-चरणयुगस्येति । " आद्यत्रयमज्ञानमपि, भवति मिथ्यात्वसंयुक्तम्" " सयऽसयविसेसणाओ, भवहेउजदिच्छिओवलंभाओ। णाणफलाभावाओ, मिच्छादिठिस्स अण्णाणं ॥१॥" " णाऽदंसणिस्स गाणं, णाणेण विणा ण हंति चरणगुणा" .."इत्याधागमाञ्जनव्यक्तविवेकविलोचनतेजसां न कथञ्चनाऽपि विद्यते साध्यतास्पदं । निमित्तं चैतदेवात्र १. प्रथन-विवरण-बोधन-मुद्रणाऽऽदावधेयं धीमद्भिरनन्यत् । प्रणेतारश्चैतस्याः प्रकृतायाः कर्मप्रकृत्याः श्रीमन्तः शिवशर्माऽऽचार्यपादाः पूर्वधराः प्रबलतमत्वा ११°देवैषां प्रामाण्यस्य यत्र ११ कुहचनापि समारोहति विरोधगन्धोऽपि सूत्रेण प्रचलितेन तदातनेन, तत्र नैवाऽप्रामाणिकतामापादयितुं पार्यते केनचनाऽपीस्यारूत्रं कार्मग्रन्थिक-सैद्धान्तिकमिति मतद्वयं । . अद एव च जैनानां ११ कल्पनाकोविदपदार्थपटीयस्ता नाऽऽगमवाक्यं विरहय्येति मामाणिकतानिबन्धनं पूज्यपादानां पूर्वधरत्वस्याऽऽख्यापकं च, ११४अन्यथा-विधस्य ११तथास्पर्धाकोट्यामागमेनारोहाभावादिति । परं कदा कतमं च भूषयामासु मण्डलं भगवत्पादाः ? के च 'तारङ्माहात्म्यभानुविभावनमास्वन्ती गुरव १ इति न निश्चीयतेतरां, ११ "भगवन्महिम्नां रष्टिवादमूलत्वस्य Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ ] [ श्रीकर्मप्रकृत्युपोद्घात च संसिद्धिः मदीयकथनमपेक्ष्य प्रस्तुतात् प्रकरणाज्ज्ञानविषयीकृताद् भाविनी विशेषेणेति ११तदेवोपदीक्रियते कृतिभ्यः। प्रकरणे चाऽत्र क्रमशो द्वयधिकशतै (१-२)कादशाधिकशत (११) दशै(१०)"कान्ननव(८९)त्येकसप्तति(७१) त्रि(३) भिर्गाथानां 'बन्धन सङ्क्रमो-'द्वर्तना-पवर्तनो-'दीरणोपशमना'-"निधत्ति- निकाचनायैः करणैः उदयः सत्ता च द्वात्रिंशता(३१) सप्तपश्चाशता(५७) च सर्वसङ्ख्या च पंचसप्तत्यधिकचतुःशत्या (४७५) गाथाभिः निरूपिषत १२°सद्भूतवस्तुस्वरूपनिरूपणैकचक्षुष्कर्भगवद्भिः । उद्वर्तना-पवर्तने निधत्ति-निकाचने चाऽत्र संमीलितान्येव सङ्ख्यायामिति १२'सङ्ख्येयं ६२२सङ्ख्यावद्भिः स्वयं, विशेषतोऽभिधेयमभिहितमनुक्रमणिकायामस्या इति न तत्राऽऽयासाऽऽरम्भः । विघृता चेयं उभयैः पूज्यैर्गीर्वाणवाण्या श्रीमद्भिर्मलयगिरिपादैः १२ काशी विबुधविजयाऽऽवाप्तन्याय-विशारद-प्रचुरग्रन्थग्रथनवितीर्णन्यायाचार्य-पदोभयी--भूषितभूधनैर्महोपाध्यायैर्यशोविजयगणिभिः, मूलभूता चोभयोर्विवृत्योचूर्णिरेव प्राक्तनपूज्यनिर्धारितविशेषनामभिः श्रीमद्विरहाचार्यसत्ताकालादपि प्राची निर्मिताऽत एव गुणोत्कीर्तनद्वाराऽम्यप्टौषुरत्रारम्भे "अयं गुणश्चूर्णिकृतः समग्रो यदस्मदादिर्वदतीह किंचित्" इत्यादिना। सत्स्वप्येवं विवरणत्रिकेषु सुगमत्वात् संस्कृतवाणीविलासप्रियत्वात्सुलभपुस्तकत्वाच्च प्राक्रन्तैषा मुद्रितुं श्रीजैनधर्मप्रसारकसंसत्प्रयासेन श्रेष्ठिश्रीदेवचन्द्र-लालभाई जैनपुस्तकोद्धार-द्रव्यव्ययेन, सम्पूर्णतामगमच्च मुद्रणमस्याः । ___ मन्ये १२४उपयोगिकार्यव्ययः संसदो द्रम्माणां, आशासे च १२५भविष्यति भविष्यति १२६ विवृतेरन्यस्या अपि विस्तृतेरुन्मुद्रणं । १२ परिकलय्यनां यथावत् कर्मविपाकभीताः १२समाचरन्तु सज्जना ज्ञानपीयूषपूर्णा १२आत्मस्वच्छसाधनसावधाना १२६अनाश्रवन्यवदानासाधारणसाधनाः क्रिया १३° यथावदाप्तोदिता इत्यर्थयमान आनन्द उदन्वदन्तामिधानः समापयत्येना-मुपक्रान्ति १३ गुणगणरत्नरोहणमोक्षमार्गारोहणश्रमणसङ्घचरणकमलचञ्चरीको वितीय १३२ प्रमादादिदोषोद्भवविरुद्धोच्चारणोद्भूतदुरितरजोदूरणसमीरणं मिथ्यादुष्कृतं १३३श्रीसार्वादिसाक्षिकम् ।। प्रतिपद्यसिते पक्षे फाल्गुनिकेऽङ्करसाङ्कविधु (१९६९) मिते वर्षे ॥ श्रीक मान्दीदिमामानन्दः कर्मकक्षाग्निम् (कमततिबोधम्॥१॥ विज्ञप्तिरेषाऽध्येत्रध्यापकेभ्यो यदुत गाथानां मा भूत् त्रुटिरिति नाऽत्र प्रत्यधिकार पादादिधृतिः॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rasiddakakkadkiase __ पूज्यपादागमोद्धारकाऽऽचार्याले खित-प्रस्तावना विषम-पदार्थ-सूचिका आनन्द-लहरी-टिप्पणी ( श्री कर्मप्रकृत्युपोद्घातः) १. अत्र सुसूक्ष्मबुद्धिगम्य अन्वय एवमवबोध्यः “ विदुषां वर्गः विदाङ्करोति (यत्) विज्ञानविषये तावद् जगति वर्तनावर्तनमवतीर्णा विश्वोऽपि प्राणभृद्वारः अहमहमिकापुरस्सरं प्रवृत्ति आदिय माणः विद्यते " इति । २. वि-विशिष्टं ज्ञानं विज्ञानं तस्य विषये-विषयभूते इति । ३. विदुषां-सूक्ष्मधीमतां वर्ग-समूह इति । ५. वर्तना-आचरणा, तस्याः वर्तनी पद्धतिः, ताम् इति । ५. समस्तोऽपोत्यर्थः । ६. प्राणभृताः-जीवानां वार:समूहः इति । ७. " साध्यता प्रतिप्राणि" इत्यस्यात्राऽयमों यत् सर्वेषु प्राणिषु साध्यत्वअनुमानादिभिः जीवा स्तित्वप्रतिपादनरुपम् । ८. प्रसिद्धाः प्रमाणादिभिः अग्रे वक्ष्यमाणैककर्तृत्वादिहेतुभिश्च पूर्व ये ते, तेषु । ९. स्वस्वविषयका ये सुखि-दुःखित्वरुपा अनेके च ते विषयाः, तद्विषयकं यत् एकस्य कर्तृत्वम्, भूतेभ्यो विलक्षणं यत् विज्ञानं, तद्वत्त्वम् , दृश्यमानानि यानि भूतानि, तेषां संहतिः-एकत्रीभवनं तत्कारित्वं तदादिभिः । १०. एतत्पदस्य प्राक्तनेन " साध्यता" पदेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः । ११. जीवस्य अस्तित्वस्य अभ्युपगमेन अवाप्ता सार्था-अर्थानुगुणा आस्तिक्यसंज्ञा यैः तान् । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीकर्मप्रकृत्युपो० टिप्पणी १३४ १२. संज्ञया विशिष्टावबोधशक्त्या सहिता, ये ते, तान् । १३. एतद्धि पदं अप्रेतनेन “जीवसत्तामि "त्यनेन सह सङ्गमनीयम् । अपोपसर्गसहित 'ज्ञा' धातोः “निन्हवे ज्ञः" ( ३-३-६८) इतिश्रीसिद्धहेमीयसूत्रोण निमवाऽपलापाथै आत्मनेपदमत्र विहितं ततश्च अपलपते इत्यर्थोऽत्रावबोध्यः । १४. एतद्धि पदं क्रियाविशेषणं विज्ञेयम्, ततश्च ब्रह्माद्वैतवादोररीकारणमेवं केवलं पुरस्कृत्य जीवस्यव परमार्थतो सत्तेति भावः । १५. अत्यन्त भूयोभूयः वा दृश्यमानानि यानि विचित्राणि नानाधर्मवन्ति भूतानि, तेषां वृत्तिः=वर्तनं= सद्भावः, तेन सनाथाम् । एतद्धि पदं प्राक्तन "जीवसत्ता" पदस्य विशेषणमभ्युपगन्तव्यम् । "जीवसत्तां" इति पदमत्र पुनः संयोज्यं । १६. आस्तिक इति यदभिधानं नाम, तम् आवहति धारयति योऽसौ। नामत एव आस्तिक इत्यर्थः वस्तुतस्तु ब्रह्माद्वैतवादोपगमनेन सर्वप्रत्यक्षभूतपञ्चकाऽपलापकरणेन अस्तित्ववादानभ्युपगमनेन आस्तिकपदस्यान्वर्थसङ्गतेरभावान्नाममात्रम् एवैतेषामास्तिकत्वमिति । १७. एतत्पदस्याऽप्रेतनेन " अध्यक्षं" पदेन सहाऽन्वयो विधेयः । १४. लोकैः अतीव स्थूलबुद्धिभिः दृष्टमात्रमेवाऽभिमन्यद्भिः जनैःसहःअयन=गतिः येषां तैरिति व्युत्पत्या • चार्वाकसंज्ञैः नास्तिकैः इति अर्थोऽवबोध्यः । १९. बालात् आरभ्य गोपाना=अतीव स्थूलबुद्धिमतां यो अङ्गनाजनः=त्रीगणः, तेन सिद्ध-प्रतीति विषयीभूतमिति । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३५ श्रीकर्मप्रकृत्युपो० टिपप्णी ] २०. व्यवहारस्य सकलजनप्रचलितस्य कार्यपद्धतेः एकं च तत् मूलमिति । २१. एतत्पदस्याग्रेतनेन " जीवास्तिता" इति पदेन सह सम्बन्धो विज्ञेयः। एतेन च वेदान्तिनामभिमताया व्यावहारिकसत्तायाः जीवसम्बन्धिवाः निर्देशोऽत्र । २२. स्वरूपतोऽसतो वस्तुनः प्रतिपादनमात्ररूपव्यवहारिकसत्ता हि खल व्यावर्णनमात्रमेवेति धन्यतेऽत्र " वर्ण्यमाने"-तिपदेन । २३. एतत्पदेनाऽपि स्वमन्तव्यदृढीकरणार्थमभिप्रेयते न हि याथार्थेन सङ्गगच्छते इति ध्वन्यते । २४. तत्कैः तत्सम्बन्धिभिरित्यर्थः, वेदान्तिभिरिति भावः । २५. न प्रयोजनमित्यर्थः । २६. वेदान्तिभिः इत्यर्थः । २७. एतत्पदस्य अप्रेतनेन " विप्रतिपन्नः" इति पदेन सह सम्बन्धः । २८. इष्ट-मोक्षसाधकत्वेन, इष्टस्य चाविरुद्धो यः परमार्थः, तस्य अभिधायिनि इत्यन्वयसङ्गतिः कार्या। आपाततस्तु अत्र " दृष्टेष्टाविरुद्ध-परमार्थाभिधायिनि ” इति पाठः सुसङ्गतः प्रतीयते, परमत्र मुदितप्रतौ " कश्चिदिष्टेष्टाऽविरुद्धे " ति पाठः दृश्यते, मुद्रणदोषजन्यो ह्ययंपाठोऽनुमीयते तत्त्वं तु सुजैः सुधीभिः मध्यस्थवृत्या परिज्ञेयम् । २९. वर्णने चणः = निपुणः तस्मिन् । ३०. कर्मणोऽसत्त्वे इत्यर्थः । ३१. तुल्यानि-स्थूलदृष्टया एकरूपाणि समानानीति यावत् येषां तेषामिति । ३२. अविषमानिसमानानि कारणानि यस्य, तस्य । ३३. गर्भे अवतारः, तस्य आयो यः समयः, तत्र यत् वैचित्र्यं, तस्य यत् निबन्धनं, तस्य । ३४. तस्य कर्मणः करणस्य यः कालः, फलस्य च सुखदुःखादिरुपस्य या प्राप्तिः, तदुभयस्य अभि संधायकस्य वस्तुविशेषस्येति अर्थानुसारी अन्वयोऽत्र ज्ञेयः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्रीकर्म० असो टिप्राणी अत्र सन्दर्भसङ्गतिवशात् बलादक्षिप्तं फलप्राप्ति". पदमत्रार्थोहसङ्गतिवशाद सहप्रेक्षोज्जीवितं न्यस्तमस्ति । तस्य सारासारत्वं धीधर्मः प्रेक्षावद्भिः सदगुरुत्तंसचरणोपनिश्रया परिकर्मितबलेन सङ्गमनीयम् । ३५. पञ्चम्यन्तमिदं पदमर्थानुसन्धानबलतो ज्ञेयम् । ३६. शुभश्च अशुभञ्चेति शुभाशुभे, तद्रूपौ उभयौ भेदौ यस्य तत् इति विग्रहः । ३७. वस्तुपरिच्छेदनसमर्थहेतुव्रजस्योपक्षेपोऽत्र ज्ञेयः । ३८. क्विबम्त कीदृश् शब्दस्य प्रथमाबहुवचनान्तमिदं रूपम् । ३९. विविक्तः प्रज्ञया पृथकूकृतः सन् चासन् मार्गश्च यैरिति । ४०. 'भिदा' इति शब्दस्याकारान्तस्त्रीलिङ्गस्य प्रथमाद्विवचनान्तमिदंरूपम् । ४१. अत्र चान्वय एवं ज्ञेयः " यद्यपि अन्यः व्यवहारपथाश्रितां शुभाशुभतां कलय्य अस्य शुभा' शुभे भिदे कल्पिते" इति ? १२. अवापि अन्वय एवं ज्ञेयः-" भूघनगुण............सावधानाः भेदा अपि व्यवहारानुसारिण ४. एवं श्रिताः "। अत्र तैरिति सन्दर्भसङ्गत्या अध्याहार्यम् । ४३. व्यवहारं जनसाधारणा स्थूलधीविषयां आचरणपद्धतिम् अनुसरंति ये ते इति विग्रहः । ४४. भूधनं-शरीरम्, उपलक्षणत्वात् पुद्गलाः, तस्य ये गुणा, तेषां घातरूपो योऽवगुणः, तस्य यो वर्गः, तस्य विधाने सावधाना इति तात्पर्यानुसारी विग्रहः । ४५. आत्मा च तस्य च गुणाश्च, तेषां घातादौ प्रवणा इति । ४६. आत्मीयाः ये अभियुक्ताः मान्यतयाः सज्जनाः तेषां या ततिः, ताम् इति । ४७. लोकश्च अलोकश्च इति लोकालोको, तयोः अवलोकनं-अवबोधः तत्र लम्पटं यत् केवलवेदः केवलज्ञानं, तेन अवलोकिताः सूक्ष्माः दुराः दूरस्थाः अमूर्ताः वर्णादिरहिता अरूपिणः इत्यर्थः, व्यवहिता-कटकुड्यादिभिरावृताः एतादशाश्च इतरे ये पदार्थाः, तेषां सार्थः यरिति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भीकर्मप्रकृतिउपा० टिप्पणी ] १८. सर्व विदन्ति ये ते इति, सर्वज्ञा इत्यर्थः । १९. वार=समूहमिति । ५०. कर्मपरमाणुभिरिति सङ्गगमनीयमत्र । ५१. सद्गुणानां वृन्दमित्यन्वयः । ५२. भावरणकारकमित्यर्थः । वअ च समुच्चयश्च 'आत्मनां वारं, तद्गुणानां आवृतं वृन्दं आवारकं च ' इति पदत्रयस्य कार्यः, तं चावगम्येति । ५३. अतत्वभूता अतत्त्वविषयिणी वा या श्रद्धा, पापानां च विरमणस्य-त्यागस्याऽभावः, क्रोधादीनाम् अन्तरारातीनां वर्गः, स्वान्तं मनः तदादियोगानां व्यापाराः । एतेषां च समुच्चयद्वन्द्वः। ततश्च अतत्त्वश्रद्धा....स्वान्तादिव्यापाराणाम् ऊर्जितम्-सामर्थ्य इति तात्पर्यानुसारी विन- .. होऽत्राववोध्यः। ५४. ऊर्जः विशिष्टा शक्तिः, तेन सहितमित्यर्थः । ५५. अनुकूला चासौ इतरा च-प्रतिकूला या सामग्री, तस्याः संयोजनेन समुद्भावितं, तथा आका शादीनां अतीतमूर्तिकानां अमूर्ताणां, अरूपिणामितियावत्, पदार्थानां यः निवहः समूहः, स चासौ अतिक्रान्तः येनेति ततश्च "अनुकूले........समुद्भावितं आकाशाद्यतीत....निवहातिक्रान्त" रूपं यस्य तमिति । ५६. रूपं परि-परितः समन्तात् ईतं गतं यस्मात् । सच्चेदं स्वरूपं यस्य तमिति ५७, यत्नेन सम्=मूलतोऽपि पायः कर्तुशक्य क्षमः यस्य तमिति । ५८. एतत्पदस्य प्राक्तनेन “कर्मणामष्टकं” इति पदेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः। ... Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] [ श्रीकर्मप्रकृत्युपोद्घात टिप्पणी ५९. दीक्षिताः साधवः इतरे-गृहस्थाः, ते च ते जनाः तेभ्यः। ६०. अशेषाणि च तानि कर्माणि, तेषां कायः सङ्घातः तस्य कषणं विनाशनं, तस्य कल्पना ____ सम्पादनं, तत्र कोविदाः निपुणतमा तेभ्यः । ६१. कर्मण इत्यर्थः । ६२. गणं वाचनासम्बन्धसम्पृक्त साधुसमुदायं धारयन्ति रत्नत्रयाराधनादिप्रकारेण स्त्यवरुपेण इति गणधारिणः गणधरा इर्थः । सुरक्षादि ६३. उदीर्णा चासौ प्राग्भवे भव्यभावभूता श्रेष्ठाध्यवसायरूपा या श्रेयोभावना=निजसम्पर्क समा गमिनां सर्वथा कल्याणकरणरूपा, तया उद्भावितं यत् गणभृत्कर्म, तस्योदयेनाप्तयत् शक्रा. दयो ये अखिलाः नाकिनः=देवाः, नराश्च-मनुष्याः, तेषां निकायः समूहः, तस्मिन् यत् न साधारणं (येन केनचित् प्राप्यमिति यावत् ) गणस्य ईशिता श्रुतानुसारेण सारादिकर्ता गणधरः, तस्य भावः तत्त्वं येनेति विग्रहः । ६४. पुष्पाणि इत्यर्थः । ६५. सुष्टु मानससंयुक्ता इत्यर्थः । ६६. सुमनस्त्वं-देवत्वं, अपवर्गः मोक्षस्तद्यत्वं, तस्य साधनं सम्पादनं, तत्र समर्थो योऽर्थः=धर्म रूपः, तस्य ये अर्थिनः=जिज्ञासवः, तैः अर्थनीयाः काङ्क्षाविषयभूता इति । ६७. जगतां ईश्वरः=तीर्थकृत्, तस्य आस्यात् वदनात् निःसृताः उपदेशसमये इति । ६८. भव्यानां मोक्षेच्छूनां वारः समूहः, तस्य हिते श्रेयःसम्पादने एक निहितं अन्तःकरणं यैरिति । ६९. नियुक्ताः शब्दभञ्जनरूपनियुक्तिव्याख्याताः, निरवशेषाः समस्तनयगर्भिताः ये अर्थाः, तेपां समूहस्य सूचने समर्थः तेनेति । ७०. अनुयोगद्वारसूत्रप्रसिद्धगुणद्वात्रिंशत्या सूचनमत्र । ७१. परमा=निष्कारणत्वात्युपकाराऽवाञ्छदिगुणविशिष्टा चासौ कृपा , तया अनुगताः सहिताः, तथा हृदयं-सुजनानां चेतः गच्छन्ति ये ते, परमकृपानुगताश्च हृदयङ्गमाश्च इति द्वन्द्वः, तैः । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीकर्मप्रकृत्यु० टिप्पणी ] ७२. सिद्धान्तानां यत् तत्त्वरूपं अमृतं, तस्य पानेन पीवराः-पुष्टाः, तैरिति । ७३. पीवरं प्रकृष्टपुण्योदयपुष्टं भागधेय शुभकर्मसङ्घातरूपं येषां तैरिति । ७४. अभियुक्ताः श्रेष्ठविचारनिर्णयबुद्धिसम्पन्नाः, तेषु उत्तमाः, तैः । ७५. गुणानां यो गणः, तस्य धुयायाः धरणे धौरेयाः, तैः । ७६. द्वादशमात् दृष्टिवादाख्यात् अङ्गात् आचारांजैकादशकस्य समुद्धाररूपेयं वार्ताऽतीव सूक्ष्म... बुद्धिसद्गुरूसमुपासना-सुविनीततरादिगुणसम्पदाबलपरिकर्मितप्रतिभयोहनीया । ७७. न अन्यं स्थानं मूलरुपेण येषां, तेषामिति । ७८. दृष्टिवादत इत्यर्थः । ७९. 'नह' धातोः बन्धनार्थत्वेऽपि धातूनामनेकार्थत्वादत्र जायते इत्यर्थोऽवबोण्यः । ८०. अत्र एतत्पदेन पूर्वगतोद्धरणं विज्ञेयं । ८१. कर्मप्रकृत्यादेरित्यर्थः । ८२. प्रेक्षा=विचारबुद्धिः, सैव चक्षुः येषां तेषाम् । ८३. न अन्यैः प्रणेतुं शक्याः, एतादृशा ये पदार्थाः, तेषां चः प्रपश्चः-विस्तारः, तस्य प्रपश्चनं करणं, तस्मै पनि समर्थानि, यानि प्रकरणानि तेषां यः प्रचयः, तस्य या प्रवरसाधनता=समर्थहेतुता (कर्मस्वरुपसूक्ष्मज्ञानाधिगमस्येत्यध्याहार्यमत्र) तस्याः सिद्धिरिति विग्रहोऽत्र तात्पर्यानुसारी अपगन्तव्यः। ८४. " स्पष्टं चैतत्” इति पदद्वयस्याऽप्रेतनेन "इति आगमीयगमाऽवगमानां " इत्यनेन सह सम्बन्धो विज्ञेय । ८५. निर्धारणे इयं षष्ठी। ८६. अत्र हि पूज्यागममर्मज्ञ-टङ्कशालिश्रुतस्वामिभिरागमोद्धारकैः केनाऽपि प्रज्ञाविशेषवद्रुह्येन "चतुर्णा" पद प्रयोगः कृतः, किंतु शास्त्रनिर्दिष्ट-पूर्वगतश्रुतलिखनोपयोगिमषीपुन-प्रमाणप्रमितहस्तिव्यावर्णन प्रसङ्गे पूर्वाणां यथोत्तरं द्विगुणता व्यावर्णिता, ततश्च द्वितीयस्मात् पूर्वात् Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ श्रीकर्मप्रकृत्यु० टिप्पणी कर्मप्रकृत्यादेरुद्धृतत्वात् द्वितीयपूर्वस्य हस्तिद्वय प्रमितममषीलेख्यतासङ्गच्छते, कथश्चात्र " चतुर्णां " पद प्रयोगः ? इति स्थूलबुध्याऽतीव विचारणीयं भवति । तृतीयपूर्वस्य च हस्ति चतुष्कमितमषीलेख्यत्वं जाघटीति ? तथाऽप्यत्र कृत 'चतुणां' पदप्रयोगस्यार्हत्वं सद्गुरुसमुपासनयाऽधिगतनिर्मलघोषणाधवलेन सङ्गमनीयम् । ૨૪૦ ] ८७. सदा = कालादिनिमित्तानपेक्षं अवस्थिताः पञ्चधनुश्शतमानप्रमिताः दिष्टाः - सर्ववेदिर्भिनिर्दिष्टाः ये नियतपरिमाणवन्तः ये विदेहे महाविदेह क्षेत्रे जाता ये सामना:- हस्तिनः तेषामिति । ८८. अत्र चान्वय एवमवबोध्यः यत् “ विंशतिप्राभृतमानात् पञ्चमात् वस्तुनः कर्मप्रकृत्याख्यात् चतुर्थात् प्रभृतात् " इति । ८९. " उद्धारनदीरयो (य) वाइम् आप " इति पदच्छेदोऽन्वयश्च बोध्यः, अर्थात् कर्मप्रकृत्यादिकमिदं शास्त्रं द्वितीयपूर्वगतपञ्चमवस्तुनः चतुर्थात् प्राभृतात् उद्धृतम् । ९०. एतत् पदस्यानेन " प्रस्तुत.... विज्ञप्तेः " इत्यनेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः । ९१. दृष्टिवादे द्वादशाङ्गरूपे नदीष्णाः, निपुणाः तेषाम् । ९२. प्रस्तुतप्रकरणस्य ऊनतायाः पूरणं पूर्तिः, तस्याः तननस्य या विज्ञप्तिः, तस्याः । ९३. एतत्रतनं हि टिप्पणं शुद्धिपत्रकतो विज्ञेयम् । ९४. समाप्तमित्यर्थः । ९५. कर्मप्रकृत्यादिज्ञानमित्यर्थः । ९६. निःश्रेयसस्य = मोक्षस्य निदानानां हेतूनामिति । ९७. सञ्ज्ञानं च चारित्रं चेति द्वन्द्वः, तयोः मूलं तस्येति विग्रहः । ९८. एतत्पदस्याततेन " अवस्थानासंभवात् " इत्यनेन सहान्वयः । ९९. तत्त्वानामर्थानां यत् श्रद्धानं, तदात्मकस्य सम्यग्दर्शनस्य स्वरुपविशेषणमेतत् । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृत्युo fernt ] [ १४१ १००. आत्मा च, तस्यात्मनो ये गुणाः, तेषां गुणानां यानि आवरणानि, तस्याऽऽरवरणस्य हेतवः, बन्धस्य निरोधः, नाशः समूलश्चासौ क्षयश्च एतेषामष्टानां पदानां द्वन्द्वः, तदादयः तेषाम् । १०१. उदितः दयायाः निर्झरो येषां तैः । १०२. किं च यावत् कर्मणां प्रकृत्यादि मूलतः उच्छेदश्च यावन्नावगतम्, तावत् आत्मनः विशुद्धैः उत्कर्षाऽपकर्षै गुणानां वृद्धयादि च नाऽवगच्छति । इत्यन्ववसङ्गतिश्च कार्या श्रीधनैः । १०३. अत्र चैवमन्वयसङ्गतिः कार्या यत् - " मोक्षसौधसोपानसन्निभे गुणस्थाने समारोहेण विधेयं निरोधोपायं न च विजानाति " इति । १०४. मोक्षरूपो यः सौधः, तस्य यत् सोपानं तत्सन्निभे इति । १०५. कर्मरूपो यः कष्ठीरवः, तस्य या कदर्थना, तया कल्पिता या व्यथा, तस्याः विचिन्तनं, तेन ततं विहितम् । १०६. द्रव्यानुयोगरूपा या अनिमेषानाम्: = देवानाम्, नदीः स्वर्ग गा, तस्याः यः प्रवाहः, तस्य प्रवर्तमे पार्वत्याः पिता=हिमालयः, स चासौ पर्वतः, तस्य प्रभा इव प्रभा यस्य तस्य । १०७. इत्यादयों ये आगमाः तेषामञ्जनेन व्यक्तं विवेकरुप यत् विलोचनस्य तेजः येषां तेषामिति । १०८. प्रथनं = प्रकाशनं, विवरणं व्याख्या, बोधनं- ज्ञापनं, मुद्रणं चेति द्वन्द्वः सदादौ । १०९. अद्वितीयमित्यर्थः । ११०. एषां ग्रंथकर्तृणां पूर्वधारत्वादेवः । १११. कुत्रापि इत्यर्थः । ११२. इदमेवेत्यर्थः, एतत् पदस्यान्व योऽप्रेतनेन " प्रामाणिकता निबन्धनं " इत्यनेन सह विज्ञेयः । ११३. कल्पनया कोविदा ये पदार्थाः तेषां पटीयस्ता इति विग्रहः । ११४. पूर्वधरत्व निमित्तकप्रामाणिकत्वरहितस्येत्यर्थः । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [ श्रीकमप्रकृत्यु टिप्पणी ११५. आगमेन सह तथा स्पर्धाकोट्यामारोहा, भावादित्यन्वयः। ११६. तादृग् यत् माहात्म्यं, तद्रूपो यो भानुः, तस्य विभावनेन भास्वन्तः दीप्तिमन्तः इति । ११७. भगवतः ग्रंथकर्तुः महिम्नां प्रभावाणामिति । ११८. भगवन्महिम्नां दृष्टिवादमूलत्वमेवेत्यर्थः । ११९. एकोननवतिपदस्येदंरूपम् । १२०. सद्भूतं यद् वस्तूनां स्वरूपं, तस्य निरुपणे एक-श्रेष्ठं चक्षुः येषां, तैः । १२१. धातूनामनेकार्थत्वात् ज्ञेयमित्यर्थः ।। १२२. गणनापात्रैः श्रेष्ठैरिस्यर्थः । १२३. काश्यां विबुधानां-विदुषां विनयेन अवाप्त न्यायविशारदेति, प्रचुराणां प्रन्थानां प्रथनेन वितीर्ण न्यायाचार्येति, पदयोरुभयी, तया भूषितं भूधनं वपुः येषां तैः । १२४. उपयोगिनि कार्य व्ययः इति । १२५. भविष्यकाले इत्यर्थः। १२६. अन्यस्याः विस्तृतेः विवृतेः उन्मुद्रणम् इत्यन्वयःऽत्रावबोध्यः । १२७. योग्यविवेचममत्या परिज्ञायेत्यर्थः । १२८. एतत्पदस्य अग्रे क्रिया इति पदेन सहाऽन्वयो ज्ञेयः । १२९. आत्मनः स्वच्छा चाऽसौ या साधना, तत्र सावधाना इति विग्रहः।। १३०. यथावत् सविधि इत्यर्थः । एतत् पदस्य प्राक्तनेन 'समाचरन्तु' इत्यनेन सहाऽन्वयो विज्ञेयः । १३१. गुणगणरूपाणि यानि रत्नानि, तेषां रोहणः रोहणगिरिः यः, स. चासौ मोक्षमार्गस्तस्य आरोहणे, निपुणः एतादृशो यः श्रमणसंघः, तस्य चरणकमले चश्वरीकः भ्रमर इत्यर्थः । १३२. प्रमादादिदोषरूद्भवः यस्य, तथा विरुद्धोच्चारणेन उद्भूतं यत् दुरितं, तदेव रजः, तस्य दूरणे-दूरीकरणे समीरणः पवनः, तमिति । १३३. सर्वं जानाति योऽसौ सार्वः सर्वज्ञः, श्री सार्व आदि येषां साक्षिणः यत्रेति । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१४२ A) 5 मार्मिकाणि सदाचारसूत्राणि ॥ २) [श्री उपमितिभवप्रपञ्चाकया-प्रन्यतः] * सेवनीया दयालुता! * न विधेयः परपरिभवः ! * मोकव्या कोपनता ? * वर्जनीयो दुर्जनसंसर्गः! * विरहितव्याऽलोकवादिता! * अभ्यसनीयो गुणानुरागः! * न कार्या चौर्यबुद्धिः। ___* त्यजनीयो मिण्यामिमानः! * पारणीयः परदाराभिलाषः ! *. परिहर्तव्यो धनादिवर्गः * निघया दु:खितदुःखात्राणेच्छा! * पूजनीया गुरवः! * वन्दनीया देवसवाः ! * सम्माननीयः परिजनः ! * पूरणीयः प्रणयिलोकः! * अनुवर्तनीयो मित्रवर्गः! * न भाषणीयः परावर्णवादः ! * प्रहीतव्याः परगुणाः! * लजनीयं निजगुणषिकत्थनेन! * स्मर्तव्यमणीयोऽपि सुकृतम् ! * पतितन्यं परार्थे । * सम्भाषणीय प्रथमं विशिष्टलोका! * अनुमोदनीयो धार्मिकमनः ! * न विधेयं मोद्धट्टनम् ! * भवितम्यं सुषेषाचारः।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४३ B ) पूज्यपादागमोद्धारकाचार्यश्रीप्रणीतः श्रुतज्ञान. म....हि.... मा.... [ आर्या ......वृत्तम् ] पृथ्याद्या व्यवहार्याः, सदा निगोदास्तथा व्यवहार्याः । यद दधति तमस्तिमिरं, भिनत्ति पटलं तयोहिं श्रुतम् ॥ सुरगणनराः सदा यत्, श्रयन्त आत्मावलम्बनं मत्त्वा । अविगान नमन्ति च पुनः पुनः श्रुतमहोऽर्हन्ति ॥ [ अनुष्टुपू. वृत्तम् ] जिनास्तीर्थं नृपा नीति प्रजाः पालि नवां नवाम् । सुवते तां परं धत्ते श्रुतमेव चिरं ननु ॥ [भुजङ्गप्रयात... वृत्तम् ] जिनेशाः सुरेशाः नरेशाः सदैव, तिमिस्रावलिं स्फेटयन्तीद्धरूपाम् । हदासां जनानां यदाऽप्यावलम्बं श्रुतं सत्ततो नम्यमेवाप्तवर्गैः ॥ जगजन्ममृत्यामयाक्तिव्यथान, व्रजैर्व्याधितं सारहीनं शरण्यम् । ससारं सदार्थ यदन्यन्न चैति, सदा तच्छ्रुतं संश्रयन्ते सुबोधाः ॥ सदा सौख्यखानेः समीहा जनानां यका स्थाद् गतान्ता गताबाधवार्ता । यथेष्टा न चोना न चान्या श्रुतात् सा, बुधैः संश्रितं तत् स्तुयात् को न विज्ञः ? ॥ [ उपजाति... वृत्तम् ] पयोविहीनं न सरो विभाति, सरोविहीनं नगरं न चाऽपि । जनेन हीनं नगरं जगत्यां वृत्तेन हीनं श्रुतमेवमिद्धम् ॥ [ बसंततिलका... वृत्तम् ] अध्यक्षमेतत् परपक्षिणां बुधे, वचः सघण्टारवमुञ्चकैर्ननु । श्रुतस्य साम्राज्यमिदं वरेण्यं शिवस्य चारित्रमनंह उद्धतम् ॥ [ शिखरिणी...वृत्तम् ] इदं शाखं भव्यैः शिवगतिपथाबद्धहृदयै— रन्यत् संचिन्त्यं नहि सुलभमेतद् भवजले । कुतीयैराक्रान्ते विपुलतर पुण्यैरधिगतं, समाराध्यैतद् भो ! वृजत सदानन्दपदवीम् ॥ श्रीभागमोद्धारक कृतिसन्दोह -द्वितीयभाग [पत्र ५३ तः ५५] उद्धतम् Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारकाऽऽलेखितपस्तावनासंग्रहस्वरूपे श्रीआनन्दरत्नाकरे चतुर्दशमं रत्न धर्मपरीक्षायाः प्रस्तावना ** **** ********* **** ॥ श्रीमद्गौतमगणधरेन्द्रोपासितपार्था विजयन्ते श्रीवीरपादाः॥ 'साधयन्तु सिद्धसाधननिबन्धनधृतिधौरेया धीमन्तः 'पारगतगदिताऽऽगमाऽम्बरविचरणावाप्तवैनतेयपतिविख्यातयः प्रस्तुते श्रीमत्सागरशाखाविधाविहितपबवन्ध्यमानपद्मसागरगण्युबोधिते धर्मपरीक्षापद्माकरे केलिमनघां 'खान्यासाधारणधर्मधारणाधैर्यपदा, वसतिरत्र क्षीरोदतनयाया इव पद्मे भवभ्रान्तिदारियदारणदृब्धारम्भाया विश्रम्भविधाननदीष्णाया "निष्णातखनिबन्धनाया "यथार्थविश्वाधीशव्याहृताऽव्याहतवाङ्मयज्ञप्त्याचरणमूलायास्तत्त्वार्थपारमार्थिकाऽध्यवसायनिश्चितिरूपायाः "श्रद्धानलक्ष्म्या "उज्झितगृहकुटुम्बदेहममत्वानां महात्मनामपि स्पृहणीयायाः, प्रवचनस्य च स्यादुतिः "श्रदायाश्चेत् तदाविर्भावकविषयभावुकभावान्वितं चोभूयेत "चेतश्चतुरचक्रस्य । स्वरूपं च परमेश्वरस्य" प्रत्यपीपदन् परमपूज्याः श्रीमद्धरिभद्राधा "लोकनिर्णयननिपुणलोकतत्त्वनिर्णयायेषु यथायथं युक्त्युद्भावनादिना, श्रीमद्भिः पूज्यपादैरपि प्रकृते तदेव निव्यूढं, न च चर्वितचर्वणता, पुराणादीनां पराभिमतानां यदभिमतं वृत्तान्तं "स्वाभियुक्तदृब्धानां, तस्य परमेश्वरस्वरूपस्यैवाऽत्र प्रतिपिपादिषितत्वात् , प्रतिपादनमपि नाऽत्र केवलं तदीयाऽऽगमतदर्थमात्रदेशनेन, किन्तु ! प्रथमं "तत्पतिनिधिमर्थ प्रतिपाघाऽनिष्ट"तमत्वमश्रद्धेयतयोररीकार्य पश्चात्तदभिमतत्वं प्रदर्य परमं "निग्रहस्थानमानीय "समीचीनाऽऽप्ताऽभ्युपगत्युपगमेन वादिना, ततश्चेदमतीवाख्यायकं "स्वरूपस्प “नाट्यमिवाऽनईदेवतानां “कर्मक्षमूलकषणकरीन्द्राणां श्रीमतां जिनेश्वराणामाप, आवश्यकमेव पुराणप्रचुरे काले "तदभिमतदेवताविशेषाणां "तदितरेषां च स्वरूपाख्यानं, ग्रन्थविधानविशेषफलमप्येतदेव । १९ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [ धर्मपरीक्षायाः प्रस्तावना एवं च देवपरीक्षायां प्रवणत्वेपि ग्रन्थस्याधिकृतस्य धर्मार्थमेव तस्याः चेक्रियमाणत्वात्तत्मणीतस्य धर्मस्यापि परीक्षा संपनीपद्यते एवाऽनायासमिति नाऽऽयुक्ताऽभिधाऽस्य "धर्मपरीक्षा" इति । "मित्रस्या "त्महितविधिपद्मप्रबोधपद्महस्तस्या ऽव्ययपदाप्तिहेतुमा तोदिताविरुद्धवृषावगतिं ज्ञापितुं यदनुष्ठितं पवनवेगस्य मनोवेगेनाऽसाधारणोपकृतये दिनानामष्टकेन तद् दृब्धमत्र तत्रभवद्भिः "शुभवद्भव्यवृन्दविज्ञानाय । ग्रन्थविरचनचतुरा ग्रन्थकृतः "तपोगणकल्पद्रुमावनवृतिकल्पप्रभुश्रीमद्धर्मसागरोपाध्यायचरणाऽन्तेवासिताऽवाप्ताऽव्याहतविज्ञानततयः स्वोपज्ञवृत्तियुक्तान् नयप्रकाशादीन"नन्यसाधारणारम्भानुभावयामासुः, श्रीमन्महोपाध्यायकालस्य च विदिततमत्वात् न तप्रायास आरब्धः। यद्यपि नोपलब्धिपथमायाता विहाय द्वित्रान् प्रभुपणीतान् ग्रन्थान् परे ग्रन्थाः वस्तुरत्नरत्नाकरास्तथाप्यवलोकनेने तेषां प्रभुपादानामतितमामनुमीयते एव शेमुषी "सिद्धान्ततर्कलक्षणादिगोचरा। - अत एव "निर्वसनाऽमितगतिसूर्याततायाः विविधच्छन्दोमय्या अस्या अनुष्टुपछन्दोभिर्षिधाने "नोनता, समानविषये च “समानतन्त्ररचनायाः प्रकारान्तरेण विधानं तादृशो वाऽवस्थापनं समानतन्त्रविदृब्धशास्त्रच्छायाविधानादिवन - दोषायेति ध्येयं धीमद्भिः, "बालबोधादिसमप्रयोजनत्वात् तथाविधानं गुणकृदिति निर्धारितं श्रीमद्भिरभविष्यदिति "तथाप्रवृत्तिमादधुर्धत धिषणाधौरेयाः इत्यनुमिमीमहे "उदन्वदन्ता आनन्दाः । मुद्रणादिवृत्तान्तस्तु मुद्रितपूर्वोऽनेकश इति न तत्राऽऽयासः॥ __नन्द रसाई नि'शाधिप-(१९६९) मितेऽसिते माघमासि शरदि दले । श्रीकी श्रीपार्श्वप्रभाववत्यां तताऽऽनन्दात् ॥१॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 米李李李李李李李李李李李李李李李李 पूज्यपादागमोद्धारकाचार्यश्री-लिखित-प्रस्तावना- . विषम-पदाऽर्थ-सूचिका श्रीआनन्द-लहरी-टिप्पणी (धर्मपरीक्षायाः प्रस्तावना) ******** *********** १. विधीयतामित्यर्थपरकस्याऽस्य , पदस्याऽप्रेतनेन "अनघां केलिं" इत्यनेन सहाऽन्धयो ऽवगन्तव्यः। २. सिद्धानि च तानि साधनानि मोक्षाऽऽख्यपरमपुरुषार्थहेतुभूतानि ज्ञानाभ्यास-दर्शनवि शुद्धयादीनि तेषां निबन्धनभूता-परमाधारभूता या धृतिः मनसः स्वास्थ्यम्-श्रद्धादायम् एकाग्रता वा, तस्याः तस्यां वा धौरेयाः वृषभसमाः, सुविशिष्टधृतिप्रधानान्तःकरणा इत्यर्थः । एतदविशेषणस्याऽत्र हि साफल्यमेतद्ग्रन्थगतपुराणप्रतिपादित-चित्रविचित्रमतततिश्रवणेनाऽऽपाततः धृतिविकलानां हि पुंसां संशयदोलान्दोलितत्वनिवारणाय सुदृढश्रद्धापरि परितधृतिपदस्याऽत्यन्तमावश्यकतेति सूचनेन विज्ञेयम् । ३. पारगताः तीर्थकृतः, तैः गदिताः अर्थरुपेण ये आगमाः, त एव अम्बरम् आकाशम् , आत्मशक्तिव्याप्तिप्रभूष्णुत्वात् , तत्र विचरणेन=विविधनयसापेक्षं चरणेन-वस्तुविचारणात्मकेन अवाप्ता वैनतेयाः-सुदीर्घोड्डयनशक्तिभाक्त्वेन विख्याताः गरुत्मन्तः, गरुडापरपर्यायाः, तेषां पतिः-सर्वातिशायिसुदीर्घतमोड्डयनशक्तिशाली, तस्य या विख्यातिः सा यैस्ते इति शब्द व्युत्पत्तिरत्राऽवसेया । अत्र वैनतेयपदवाध्य-गरुडोपमाप्रदर्शनद्वारेण जिनशासनाभ्यन्तरस्वरूपज्ञविदुषां नयसापेक्षं विविधपदार्थानां सुसूक्ष्मतात्त्विकविचारप्रभुत्वं व्यावर्ण्य सुविशालजैनागमाकाश विचरणक्षमत्वं ध्वनितमस्त्यागमोद्धारकैराचार्यपादैःबहुश्रुतसूरिवरोत्तसैरिति । ४. श्रीमती विविधशासनप्रभावकविद्वन्मतल्लजमुनिपुङ्गवादिद्वारा शोभावती या सागरशाखा प्राक्कालीनविजय-चंद्र-निधान-रुचि-मुनि-हंस-तिलक-रत्न-सागरप्रभृतिशाखाऽष्टादशक Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [धर्मपरीक्षायाः टिप्पणी भ्राजिमुनिमण्डलरूपमहावटवृक्षप्रभेदरूपा, तस्याः ये विधातारः प्रभावकत्वेन प्रथितत्वकर्तारः, तैः पिहितानि-मान्यकृतानि सुन्दरोत्तमशासनसेवादीनि वस्तूनि, तान्येव पद्मानि, तेषां पद्मबन्धुः-सूर्यस्तद्वदाचरमाणा ये पद्मसागरगणयः, तैरूद्बोधिते इति व्युत्पत्तिस्त्र तात्पर्यानु गुण्येन सङ्गमनीया । ५. स्वस्य अन्यस्य वा असाधारणं विशिष्टं यत् धर्मस्य धारणायाः-सुदृढास्थायाः धैर्य-धृत्तिमत्वं, • तस्य प्रदामिति विग्रहः । ६. 'वसतिः' पदस्य अग्रेतनेन 'श्रद्धानलक्ष्म्याः ' इति पदेन सहाऽन्वयो ज्ञेयः । ७. क्षीरोदः क्षीरसमुद्रः, तस्य तनया-पुराणप्रथितदेवासुरविहितसमुद्रमथनप्रसङ्गोद्भूतरत्न चतुर्दशकमध्ये प्रादुर्भवनेन पुत्री लक्ष्मीः, तस्याः । ८. भवे जन्मजरामरणादिविवर्तरूपे चातुर्गतिके संसारे या भ्रान्तिः विविधयोनिसमुत्पादः, तदेव दारिद्यम् आत्मलक्ष्मीराहित्यम् , तस्य दारणे-विनाशने दृब्धः आरम्भः यया इति । एतद्धि विशेषणमवेतन-"श्रद्धानलक्ष्म्याः " पदस्य ज्ञेयम् । ९. विश्रम्भः-सुदृढसमुचितविश्वासः, तस्य विधाने समुत्पादने नदीष्णा-निपुणा, तस्याः । .. एतदपि "श्रद्धानलक्ष्म्या " इत्यस्य विशेषणम् । १०. निष्णातः कुशलः, तस्य भावः-निष्णातत्वं, तस्य निबन्धनायाः प्रबलहेतुरूपायाः । इदं हि पदं "श्रद्धानन्दम्या" इति पदेन सह संयोज्यम् । एतत्पदेन पूज्यपादाऽऽगमोद्धारकाऽऽ चार्यदेवा एवं ध्वनयन्ति यत् यस्मिन् कस्मिन्नपि वस्तुनि निष्णातत्वं न ज्ञानप्राचुर्यमूलमभिमन्येत सद्भिः, परं विशिष्टयथार्थश्रद्धानबलेनैव निष्णातत्वं निश्चप्रचं संगच्छते । ११. यथार्थं च तत् विश्वाधीशेन-त्रिलोकनाथेन व्याहृतं च यद् अव्याहतं-न केनाऽपि प्रबलतर्क बुद्धिबलेनाऽपि विप्रकृष्टदेश-कालेऽपि वा प्रतिहन्तुं शक्यमेतादृशं वाङ्मय-शास्त्रम् , तस्य ज्ञप्तिः-ज्ञानं, तथा तस्य तदानुगुण्येनाऽऽचरणं, एतद्द्यं मूले यस्या इति । एतदपि पदं "श्रद्धानलक्ष्म्या " इत्यस्याऽवगन्तव्यम् । एतेन पदेनैवं सूच्यते यत् श्रद्धाऽप्यव्यक्तरूपा न हि श्रेयस्करी, किन्तु शास्त्रीयज्ञानसदनुकूलाऽऽचारशुद्धिद्वयसनाथैवाऽऽदरणीयेति । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षायाः टिप्पणी १२. तत्त्वभूता येऽर्थाः, तेषां पारमार्थिकः याथार्थ्याञ्चितः योऽध्यवसायः, तत्बलेन निश्चितिः टंक शाली निर्णयः, तदेव रूपं यस्याः । एतदपि "श्रद्धानलक्ष्म्याः " इत्यनेन पदेन सह संयोजनीयम् । १३. श्रद्धानम् हार्दिकान्तरप्रतीतिरूपेण सैव लक्ष्मीः आत्मशोभाविवर्द्धकत्वेन, तस्याः । १४. उग्झितं-परित्यक्तं गृहस्य कुटुम्बस्य देहस्य च ममत्त्वंरागमूलकप्रीतिः यैः, तेषाम् । १५. एतत्पदस्य प्राक्तनेन "प्रवचनस्य" इति पदेन सहाऽन्वयः । १६. तस्याः श्रद्धाया आविर्भावकाः-प्रकटीकारका ये विषयाः, तेषां ये भवुकाः=चित्तस्य विशिष्टाऽवस्थाकारका भावाः अवस्थाविशेषाः, तैरन्वितम्, इति व्युत्पत्तिरत्राऽवसेया । १७. चतुराः-साराऽसारनिर्णायकधीसहिताः, तेषां चक्रम् समूहः, तस्य । १८. विशेषेण प्रतिपादितवन्त इत्यर्थः । १९. लोकस्य समस्तविश्वस्य निर्णयनं-स्वरूपस्य याथार्थ्यावगमः, तस्मिन् प्रत्यलाः समर्थाः ये लोकतत्त्वनिर्णयाचाः एतत्संज्ञितग्रन्थमुख्या ये ग्रन्थाः, तेषु । २०. चर्वितस्य प्ररूपितस्य चर्वणम् पुनर्निरूपणम्, तस्य भावस्तत्ता । २१. स्वस्य सम्मता ये अभियुक्ताः मान्यतमाः पुरुषाः, तैः दृब्धाः रचितास्तेषाम् । २२. तदीयाश्च ते आगमाश्च सदीयाऽऽगमाः जैनेतरशास्त्राणि, तेषाम् अर्थमात्रस्य देशनम् निरू पणम् , तेन । २३. तस्य तदीयाऽऽगमेषूपवर्णितस्य प्रतिनिधिम् तत्सदृशम् इत्यर्थः । २४. अनिष्टतमत्वम् प्रस्तुतविषयेण सहाऽसम्बद्धत्वेन सुतरामनिष्टम् इत्यर्थः । २५. निग्रहस्थानम् न्यायशास्त्रप्रसिद्धं वादिपराभवस्थानविशेषमित्यर्थः । २६. समीचीनानाम् आज्ञानां या अभ्युपगतिः तस्या अभ्युपगमेन । २७. एतद्धि पदमप्रेतनेन "जिनेश्वराणामि"त्यनेन सह सम्बद्धं वर्तते । २८. अन्यदेवानां देवत्वाऽननुगुणक्रियाजातं हि नटकर्मतुल्यं विवश्यैतत्पदप्रयोगोऽत्र विहित इति प्रतीयते । ___ ततश्च देवत्वस्याऽनर्हाणाम् योग्यतारहितानां देवानां नाट्यं हि यथा अत्र प्रस्तुतं तथा जिनेश्वराणां स्वरूपमपि प्रतिपादितमस्तीत्यर्थः । २९. कर्मरूपी यो वृक्षस्तस्य मूलानां वृक्षाधाररूपाणां कन्दविशेषाणाम्, कषणे-उत्खनने करीन्द्राः = मत्तगजेन्द्रतुल्याः, तेषाम् । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८j [ धर्मपरीक्षाया टिप्पणी ३०. तैः = जैनेतरैः अभिमता ये देवताविशेषाः = हरिहराऽऽदयः, तेषाम् । ३१. तेभ्यः = जैनेतरमान्यदेवेभ्य इतरे ये देवास्तीर्थकराऽऽदयः, तेषामित्यर्थः । ३२. देवस्य स्वरूपस्य परीक्षा, तस्यामिति मध्यमपदलोपी समासोऽत्र विज्ञेयः । ३३. परीक्षाया इत्यर्थः । ३४. अत्र 'तत्' पदेन 'देव' पदपरामर्शः, तात्पर्यगामिकया प्रज्ञयोहनीयः । ३५. 'मित्रस्य' इति हि विशेषणमवेतनस्य 'पवनवेगस्येति पदस्य विज्ञेयम् । ३६. आत्मनः हितम् = परमार्थप्राप्तिः, तस्य या विधिः = पद्धतिः, सैव पद्म = कमलं, तस्य प्रबोधाय - विकसनाय पद्महस्तः = सूर्यः, तत्समः, तस्येति विग्रहाऽनुसारिणी सङ्गतिः कार्या । ३७. अव्ययम् = शाश्वतं यत् पदम् , तस्याऽऽप्तिः प्रापणम् , तस्य हेतुः, तम् । ३८. भाप्तैः = सर्वजीवहितकृद्भिः ऊदितः = प्ररूपितः, यः अविरुद्धः = पूर्वाऽपरविरोधाऽऽदिरहित श्चासौ वृषः = धर्मः, तस्य अवगतिः = ज्ञानम् , ताम् । ३९. शुभम् = पुण्यमस्ति येषां ते शुभवन्तः, पुण्यशालिनः, एते च ते भव्याः = धर्माहप्राणिनः, तेषां यत् वृन्दं = समूहः, तस्य वि = विशेषेण ज्ञानाय इति । ४०. तपोगणः = 'तपागच्छे'ति संज्ञया रूढः यः साधुसमुदायः, स एव कल्पद्रुमः - मोक्षपुरुषार्थसाधकधर्माऽऽराधनविविधोपष्टम्भकसाधनप्रदत्वात् । तस्य भवनम् = कुमतिपरिकल्पितनानातर्कजालरूपापातैः प्रतिपन्थिभिः रक्षणम् । तदर्थ या वृतिः रक्षककण्टकभित्तिः, तत्कल्पाः तत्सदृशाः ये च प्रभवः श्रीमन्तो धर्मसागरोपाध्यायाः। तेषामन्तेवासितया - निकटोषणशैल्या अवाप्ता अव्याहता विज्ञानस्य = विशिष्टज्ञानस्य ततिः = परम्परा यैरिति । ४१. प्रथकृतं विहाय अन्यसाधारणः आरम्भः - सर्जनं न विद्यते येषाम् , तान् । ४२. प्रभवः = प्रस्तुतग्रन्थकृतः, तैः प्रणीताः, तान् । ४३. वस्तूनि - प्रतिपाद्यविषयसम्बन्धीनि एव स्नानि, तेषां रत्नाकरः = समुद्रा इव ये ते । ४४. एतेषाम् = ग्रन्थरत्नप्रणेतृणाम् । ४५. सिद्धान्तः = आगमः, तर्कः = न्यायशास्त्रम् , लक्षणम् - शब्दशास्त्रं व्याकरणमिति वा, तदादि गोचरा एतद्विषयिणीति । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मपरीक्षायाः टिप्पणी] [१४१ ४६. निर्वसनाः - दिगम्बराः ये अमितगतिसूरयः, तैरातता = विरचिता, तस्याः । ४७. 'न ऊनता' इति सन्धिच्छेदः । ४८. समानं च तत् तन्त्रम् = शास्त्रम् , तस्य या रचना, तस्याः । ४९. समानं तन्त्रम् = शास्त्रं येषां तैर्विदृब्धं यत् शास्त्रम् , तस्य छायायाः = संस्कृतादिभाषान्तर विधानम् , तस्याः विधानाऽऽदिवत् इति । ५०. बालानां बोधः, तदादि समं प्रयोजनं येषाम् , तत्त्वम् , तस्मात् । ५१. तथा = समानरचनादिरूपं विधानमिति । ५२. तथा = सदृशरचनाऽऽदिना प्रवृत्तिः, ताम् । ५३ धृता चाऽसौ धिषणा च, तस्याः धौरेयाः = वृषभा इति । ५६. उदन्वान् = सागरः मन्ते येषाम् ते । स...म्य....क्....ह....दि....धा........णी ...!!! | ० विरागतासम्पत्त्यै स्वाध्यायः परमावश्यकः । • विरागता हि शास्त्रज्ञताकषोपलः । • गोतार्थत्वं वै सद्गुरूपास्तिगम्य-शास्त्रज्ञतोपजिवितमस्ति । । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीआगमोद्धारकाऽऽलेखित-प्रस्तावना-संग्रहखरूपे १ श्री आनन्द-रत्नाकरे पञ्चदशमं रत्नं श्रीषद्पुरुषचरितोपक्रमः विदिततममेतद् विदुषां 'विदिततत्त्वाऽतत्त्वरूपाणां, यदुत कर्मवैचित्र्यसामोपपादिताऽवस्थावैचित्र्याणां जीवानां 'जीवितमरण-सुखदुःखाऽऽदि-प्रियाऽप्रियपदार्थमाप्ति-. परिहारबद्धकक्षाणां न खल्वेकधैव प्रवृत्तिः, तदभावे फलैक्यं तु दुरापास्तमेव, नितरां नियतिनियमितमदो यदुत कारणाऽनुसारिहि कार्य, मान्यत्वाद विपश्चितामेततसिद्धान्तस्य जायन्ते एव विचित्रप्रवृत्तिका असुमन्तो विचित्रफलमाज इहामुत्र च । ___तदेवमास्थिते के के कीदृशं कीदृशं कारभन्ते ? कीदृशं चाऽवाप्नुवन्ति भावुक"मितरच्च ! इत्यादिका जिज्ञासा लभमाना प्रादुर्भाव मनसि स्थानं तत्त्वज्ञानामृतोदधिलहरीयमाना समिय्यात् , तस्यां च सत्यां "भावुकानां भविकानां स्यादे"वाऽऽत्माऽवलोकनलम्पटा पटुता, न च दीपं विना यथाऽन्धकारे विद्यमानस्यार्थस्योपलब्धिस्तथा विना श्रुतोपदेशमाप्नुयादाप्तोपदिष्टा मात्माऽवबोधसरणिमिति यथायथमुपदर्शयन्तो जीवानां विचित्राः प्रवृत्ती रुपहितविविधफला ग्रन्थकारा भगवन्त उपचक्रुरनवधि "इष्टाऽनिष्टप्रवृत्ति-तत्तत्फलदर्शनाऽभीप्सितमियाऽप्रियसाधनोपादान-हानाः । यद्यपि विततमेतत्स्वरूपं पूज्यपादैः"कर्माहितमिह चाऽमुत्र चाऽधमतरो नरः समारभते । इहफळमेव त्वधमो, विमध्यमस्तूमयफलार्थम् ॥४॥ परलोकहितायैव, प्रवर्त्तते मध्यमः क्रियासु सदा । मोक्षायैव तु घटते, विशिष्टमतिरुत्तमः पुरुषः ॥५॥ यस्तु कतार्थोऽप्युत्तममवाप्य धर्म परेभ्य उपदिशति । नित्यं स उत्तमेभ्योऽप्युत्तम इति पूज्यतम एव ॥६॥" Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीषट्पुरुषचरितोपक्रमः ] [१५१ इति तत्त्वार्थभाष्ये सम्बन्धकारिकाभिस्तिसृभिः कारिकाभिराख्यातं पुरुषषट्कस्वरूपं यथायथम् । "परमार्षे श्रीमहानिशीथेऽपि अवितथमाख्यातं पुरुषषट्कं तदीयाऽऽचाराचा पुरस्सरं, तथापि न तावता " प्रथमकल्पिकानां " शब्दार्थप्राधान्यविवेकाव कलानां "केवलरसप्राधान्याऽनुजीविनामुपकृतिः समुद्भवति "भाविभव्यानामपि भव्यानामिति "रसमाधान्यबोधोत्पत्तये प्रारब्धोऽयं ग्रन्थः पूर्वकालीनगीतार्थगीताऽनवगीताऽर्थसार्थसंबोधबन्धुरैः क्षेमङ्करगणिभिः षड् विधपुरुपस्वरूपबोधकत्वाद्यथार्थाभिधानम् षट्पुरुषचरितमिति । तत्र प्रथमं षट्पुरुषाऽभिधानप्रस्तावदर्शनं तदनु क्रमेण षण्णामपि अधमाधम१ अधम २ विमध्यम ३ मध्यम ४ उत्तम ५ उत्तमोत्तमानां ६ स्वरूपं उपलक्षण-निश्चयाद्यर्थ नामभिर्देशः " तादृगाचार - तत्फलप्राप्तिप्रभृतिकं च यथाईं निजगदुः । दृष्टान्तास्तावदत्र परिपाट्या पुलिन्द १ मोहरति २ श्रीपति ३ जिनचन्द्र ४ महेन्द्र५ जिनेश्वरा ६ इति । भविष्यत्यवलोकनेनैतेषां कर्मविपाकबोधात् "प्रशस्ताऽदृष्टोपायेषु प्रवृत्तिर्भव्यानामिति फलेग्रहिरायासो नः, २४ श्रीमन्तः कदा कतमं भूमण्डलं मण्डयामासुरिति विचारणायां पूज्यैरेव प्रशस्तौ यत् स्वस्य श्रीदेवसुन्दरसूरिचरणाम्भोजषट्पदता प्रत्यपादि, तेन ज्ञायते श्रीमन्तः श्रादेवसुन्दरपादपद्मचञ्चरीकतामा भेजाना बभूवुः । “अथ सर्वशेखराद्दाः ख्याताः क्षेमङ्कराहाश्व । गच्छेशार्ककरा इव दिशि दिशि निघ्नन्ति मोहतमः || ४३३|| २० इति श्रीमुनिसुन्दर रिहृदयहिमवदुद्भत त्रिदशतरङ्गिणी तृतीयस्रोतसि गुर्वावली महाह्रदे विलोकनाज्ज्ञायतेतरामेतत् यदुत 99 " श्रीमन्तो न केवलं देवसुन्दरयुगप्रधानक्रमकजलीनाः, किन्तु गच्छगगनोद्योतविधानविज्ञा अपि ।" श्रीदेवसुन्दर सूरिपादाच “श्रीदेवसुन्दरगणप्रभवोऽधुनेमे " ४९३ । - इति गुर्वावल्याः वचनात् तस्याश्च Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [श्रीषट्पुरुषचरितोपक्रमः "रसरसमनुमितवर्षे"-इतिवचनात् १४६६ वर्षेषु प्रणयनात् पञ्चदशतमे शतके तचरित्रविलोकनाद् गुर्जरायां च विजहरिति प्रतीतेग्रन्थकृतामपि तदैव तस्यामेव सत्तेति निःसंशयं प्रत्येयमाईतैः। ग्रन्थस्याऽस्य प्राग्जातेऽपि मुद्रणे मूल्यवाहुल्यात् प्रसाराभावोऽशुद्धतापाचुर्य प्राकृतच्छायारहितत्वात्मस्तुतग्रन्थाधिकारिणां बालानामसुगमता चेति श्रेष्ठिदेवचन्द्रकोशनियुक्तैरारब्धमस्य मुद्रणं भवतु मुखाकरं सर्वभव्यानामिति समस्तसत्त्वमुखाकाङ्क्षी काडक्षत आनन्दसागरः। श्रीमत्पत्तननगरे मार्गशीर्षकृष्णद्वादश्यां सोमवासरे लिखितम् । 8 गुरुनिश्रयोहनीयं सम्यक्........!!! 8. ज्ञानावरणक्षयोपशमजबुद्धिपटुना - वाचोयुक्तिविस्तर -प्रवरोवदेशकफटा-8 टोपादिसम्प्राप्तावपि मोहनीयक्षयोपशमजान्तरदृष्टिवैशय विना जिनवरेन्द्राणां । शासने ज्ञानित्वं गीतार्थतोपनिबन्धनीभूतं न प्राप्यते. न हि तद् विनाऽऽराधकपथि निष्प्रत्यवायं सञ्चरणं भावि, अतः सम्यक् गुरुनिश्रया मोहक्षयोपयमार्थ समा प्रवृत्तिः परिकर्मणीयेति सुनिगूढं तत्त्वम् सम्यक् परिभावनीयं परिपुष्टान्तरविशुद्धविवेकच-8 क्षुष्कैः धीमइभिः स्वहितकामिभिः ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ འབབ༠༠༠༠བབབས་བབས་བབབ•༠•འབབ༠བབབབས་བབབ་༠བའཁ•༠༠༠༠བབབས་ཡབབes7 - पूज्यपादाऽऽगमोद्वारकाऽऽचार्यश्रीलिखित____ प्रस्तावना-विषम-पदार्थसूचिका * श्री आनन्द-लहरी-टिप्पणी (पदपुरुषचरित्रोपक्रमः) १ विदितम् ज्ञानविषयीकृतम्, तत्त्वम् यथार्थम्, अतत्वम्-अयथार्थ च रुपम्=पदार्थस्वरूपं येषाम्, तेषाम् । २ कर्मणाम् जीवोपात्तपुद्गलविशेषाणाम्, वैचित्र्यस्यमध्यवसाय=निबन्धनभूतरसवैविध्यापादितस्य यत् सामर्थ्यम्, तेन उपपादितम् अवस्थानाम्-विविधदशाविशेषाणां वैचित्र्यं येषाम्, तेषाम् । - ३ जीवितं च मरणं च, सुखं च दुःखं च, तदादयो ये प्रियाश्च अप्रियाश्च पदार्थाः, तेषां क्रमशः प्राप्तये परिहाराय च बद्धः कक्षः यैस्तेषामिति अर्थानुसारिणी व्युत्पत्तिस्त्राऽवबोद्धव्या । ४ 'तत् ' पदेन एकधा प्रवृत्तेः परामर्शः, ततश्च “ एकधा प्रवृत्तेरभावे " इत्यर्थः । ५ अत्र 'फलम् ' इत्यानुसन्धानतो विवक्यम्, विवक्षावशात् शैलीवैचित्र्याद्वाऽत्राऽप्रयुक्तमपि । ६ भावयति मनः स्वश्रेष्ठतादिगुणैः यत तत्, प्रशस्यमित्यर्थः । ७ अभावुकम्-अप्रशस्यमित्यर्थः। ८ अत्र ह्येवमन्वयसङ्गतिः कार्या, " "दिका जिज्ञासा प्रादुर्भाव लभमाना तत्त्वज्ञाना.... लहरीयमाना (सती) मनसि स्थानं समिययात् ", ९ तत्त्वानाम्-हितकारिसत्यपदार्थानां ज्ञानम्=स्वरूपावबोधः, तदेवाऽमृतम, तस्य य उदधिः =समुद्रः, तस्य लहरीवदाचरमाणा इत्यर्थः । १० भावसम्पन्नानामित्यर्थः।। ११ आत्मनः=चैतन्यशक्तिविशिष्टस्य अवलोकनम् अन्तश्चक्षुषा अनुभवेन वा स्वरूपनिर्धारणम्, तस्मै लम्पटा-उत्कण्ठावती वृत्तिरिति व्युत्पत्तिरत्राऽवसेया। १२ आत्मनः जीवद्रव्यस्य, अवबोधःयथार्थेन स्वरूपनिर्णयः, तस्य या सरणिस्ताम् । १३ उपहितम्-प्रवृत्तिविशेषतः विविधं फलं यासां ताः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .१५४] [श्रीषद्पुरुषचारितोपक्रमा १४ इष्टाश्च अनिष्टाश्च प्रवृत्तयः तासां तानि तानि च फलानि, तेषां दर्शनम्, तेन च अभीप्सिते प्रियाणाम् अप्रियाणां साधनानामुपादानहाने येषां ते इति व्युत्पत्तिः । १५ ऋषिभिः तत्त्वदर्शिभिः, सर्वशैरिति यावत्, प्रणीतम् आर्षम्, परमं च तत् आषं च परमार्षम्, तस्मिन् । १६ प्रथमः भूमिकारूपः कल्पः सामर्थ्यानुरूपाचारः विद्यते येषाम्, तेषाम्, बालजीवानामित्यर्थः। १७ शब्दानामर्थः, तस्य प्राधान्यं यत्रैतादृशो यो विवेकस्तेन विकलास्तेषाम् । १८ केवल रसस्य प्राधान्यं यत्र, तेन अनुजीवन्ति ये ते, तेषाम् । १९ भावि भव्यं कल्याणं येषाम्-तेषाम् । २० रसस्य प्राधान्यं यत्र स चासौ बोधस्तदुत्पत्तिः, तस्मै । २१ पूर्वकालीना ये गीतार्थाः, तैः गीतः अनवगीतः भनिन्दितः स चासौ अर्थः, तस्य सार्थः समूहः, तस्य सम्बोधेन सम्यग्ज्ञानेन बन्धुराः मनोहराः तैरिति । २२ तादृक्-स्वस्य दशाऽनुरूपः, स चासौआचारः, तस्य यत् मलम्, तस्य प्राप्तिप्रभृतिकमिति । २३ प्रशस्ताः ये अदृष्टाश्च ते उपायाश्च, तेषु । २४ सफल इत्यर्थः। २५ श्रीमुनिसुन्दरसूरीणां हृदयं तदेव हिमवान्, तत उद्भूता या त्रिदशतरङ्गिणी, तस्याः तृतीये श्रोतसि इति । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रम् पतिः शुद्धः पाठः , १५ तथा न्यसनीयो १ ४ प्रयोजनं, परं १ ५ २ ६ " ६ ७ ७ ७ 99 ७ 9 ७ १८ ८ ८ १० १० ११ १२ १६ 99 २० ७ ३० ७ ३७ २७ २ ७ २९ २ ३ ४ वि... शोध्य... प....उ.... लक्ष, यदि नूयते, तद विद्याः, सा त्रिविधं, स्वार्थे जुहूषायाः पापस्य विश्वं, इत्यर्थः । व्युत्पत्या सूचकः, अतो. पूज्याचार्य • • प्रसङ्गे गुर्वा • कल्पद्रुम ० ततश्च गुरु• कोऽत्राव• निष्पन्न " श्रीयुत " योऽङ्कः = उत्सङ्ग • मनादृत्याऽन्यपुस्तक ० १२ १२ १२ १३ १४ १५ ९ प्राचख्युः १६ ३ स्वत्फलभूतान् " · ५. प्रथतते "धारणाधोधने: ० २३ व्यलङ्कृतानां निबन्धनतया • स्वेनाऽनङ्गवक्तृत्व • "काम लिपरीताना• शब्दस्य पत्रम् पक्तिः शुद्धः पाठः १७ २५ तमपङ्क्तेरूद्धं द्वादशतमः टिप्पणे पूर्तिरेवं ज्ञेया " चरमतीर्थंकर रूपो यो हिमवान् = गङ्गाप्रवहस्थानम्, तत आविर्भूता भागीरथी= गङ्गारूपा या द्वादशाङ्गीति व्युत्पत्तिरत्रावसेया । १८ तमपत्रे मुद्रणदोष पतितं १३ संख्यं टिप्पणमेवमथ बोध्यम् << १८ ११ १९ १८ २० ४ २० ६ २२ ५ २३ ९ २३ २५ २६ ६ २६ ११ २६ २० २७ १० ....न्तु....!!! २७ १९ २१ : २७ २८ २८ द्वादशाङ्गी रूपं यत् तीर्थम् =भवसमुद्रोतारणकल्पं तदेवाऽन्यत् तीर्थ शास्त्ररूपतीर्थापेक्षया तीर्थान्तरभूतद्वादशाशीपं द्वितीयतीर्थंगतं यत् इति विग्रहः । छदिः, तद्रूपा या, तस्याम् । 'न्यते बाहुल्ये • इत्येतद्धि उत्कृष्टम्, °ऽद्भः । चिन्थाः अल्पा क्यादिप्रमेदेम भ्रपादैर विकल • वादिनाम् यतो 'जिहासेव, अवाप्ता • अण्णेसु वे – ” भावात्, अविधानेऽपि प्रायश्चित्ताऽऽसेबनाहोऽभावाच । ५ पक्रान्तम् ९ हिताय, सप्रति Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रम् परितः शुद्धः पाठः पत्रम् परिक्तः शुद्धः पाठः २४ १५ पादाः, संकलित २९ २ फातिमन्ति. ६२ ३ सिद्धा. २९ ३९ ५ असंत चेला ३९ १. 'योपाध्यायाः १. ६ तद्व्यति. १. ८ 'धीरेण । पश्चात् वस्तु. ४. १. स्तवानन्त. १. १६ कृता परापत्ति ४. ३१ व्रतोच्चारण. ११ १ यथा याहशमुत्पन्नम्, ११. जातश्च (3) यथा १२ ११ देवदि. ४२ २७ शोधिता १ २ मागधीभाषा. ३ १५ विबोध. " ११ मौलिकरचना. ४१ १६ कृतां तत्तच्छासनो० १५ ४ अमन्तर. २९ ४ गुणरत्न. २९ ६ जणषष्ठानि क. स्थैर्या. DR. १५ आवश्यकारीना .३.१५ .भियाऽप्रस्तुतादे. ३.१६.. विध्युपयोगि. ३. ११ पयोगिता .. २१ प्रन्थो, यदि ३. २१ मुद्रितपूर्वे. ३०. २८ शुद्धतममेव ३ ५ सद्धर्माऽऽनन्दै. १२. ३२ आवश्यक २३ १३ परततेषां ३३ २२ बुद्धेरिति ३३ २५ 'रुत्तरोत्तर १३ ॥ प्रयत्ने ३. ११ पृ. ३ ३. १. कारणे. ३३ लूनामित्यर्थः ३५ ३ °वहस्वरूप. ३५ . स्वाभिप्रायो ३५ १२ क्तिन. ३५ १५ अभिधेयत्न ३५ २० गणमृत्: ३५ २१ मत्र व्यति. .२६-६ 'भिधानः १७ २९ विघ्नबन्दा० ३८ १ संग्रहे ३९ । कल्प उपक्रमः ४५ ९ रुषितत्वं १६ २४ 'सुधर्मा' पदेन १७ . अश्रद्धान. १८ ८ "श्रुतस्कन्धीया. ४८ १९ शुदेरंग. १८ २२ वृद्ध. १८ २१ णामनन्त. ४९ २ . परमावश्यक. १९ ५ 'मुर्धन्या. ४९ २७ शाखवसु. ५. १३ च्यात्मिकता ५१ १२ नुयायिना. ५५ २१ गुहाण. ५५ ६ तद्वदत्रे. ५६ तमपत्रे २५ तमटिप्पणाले २५तमं टिप्पणे दोषतः पतितं तद्धयेवं देयम्२५-'स्था' धातोः परस्मैपदित्वेऽपि शष्टार्थाववि Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रम् पठिक्तः शुद्धः पाठः पत्रम् पठिकः शुद्धः पाठः बोधायात्रात्मनेपदप्रयोगः परिदृश्यते । "ज्ञोप्सा-स्थेये" (३-३-६४ सिद्धहेम.) इति सूत्रेण निर्णायकाथद्योतमायाऽत्राऽऽत्म नेपदं सङ्गतं परिदृश्यते । ५६ २५ २६ १०० ८ ५६ ३२ २८ ५६ ३३ २९ ५७ १३ रूपाः ५७ १५ रूप. ५७ १७ °मतीतं यस्मा इति । ६१ १९ १९६८ ६४ १२ पन्नमात्रै ६५ १ वंदारुवृत्ति...। ६५ १० युगीनी या जनता ६७ १७ शांहिपूत. ६९ २८ प्लुताचा. ७५ ९ दशा, तयाऽवष्टब्धाव्याप्त ७७ १४ कद्रुहेा. ८१ १४ असार्वज्या० ८१ २४ पत्रेऽत्रोचाम २५ निपुगे प. ६ नतिततयः ८ °मेतदुपदो. ८८ २१ भामिनी. ८८ . यदुत'न, ९७ २. तदायति. ७३ १०. ५ नृतवाद. संन्यस्तधर्म. °मिवाऽनौचिती १.. २३ विवेचनेनाका १०१ २८ मंडित. १०४ १२ तृतीयोऽशः । १०४ १८. °क्तांशपंचकम् । १०५ २५ रूहणीया । १०६ २४ सिदहेम.) १०७ ३ प्राग्भार-सरल. ११० १२ अवबोधः कार्यः । ११० १८ शङ्कराचार्य १११ २ बुद्धिस्तस्या ११२ ७ तस्य व्याप्ताः ११२ २५ शुचिता ११७ ३ द्वादशं १२२ ७ मुकुटाः १२४ २ भट्टाः विद्वांसः १२४६ धमधि बालकत्वेन गुरु० १२४ ६ प्रतिनीमित्यर्थः ३ त्रयोदशं रत्नं ३९ ५ धुरायाः १४. ५ धीषणादि बलेन - - - Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 第一 OoOo Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ seseoses // नमः श्रीजिनशासनाय // doc@deedshedeosacscene पूज्यपादागमोद्धारकाचार्यश्रीविरचित- - चमत्कृतिपूर्ण-स्तोत्रसाहित्यपरिचायकानि कतिपयपद्यानि म erenceses उदयपुरनिकटवर्ति समीनाखेडातीर्थपतिश्रीसमीनापार्श्वनाथ-स्तुतिः खेचर्या खचिते खगोद्भगिपथेऽखंडात्ममार्गादृतिः, खाताशेषकलंकदान्तनिपुणादृष्टावलिखण्डकः / खाना खर्वितजन्तुजातसुविदां खानिः खराणां न यः, खाद्यात् खर्वगणं खगाधमकृतं पार्श्वः समीनाधिपः। // 9 // शान्तं शान्तिमये शमे शरणगं शान्तातपे स्थापितं, स्थैर्य स्थैर्यभृतं सदादितपदं साध्यैकरूपं शिवं / साधु-श्राद्धनिकायनिश्रितपदं शान्त्येकहेतौ शिवे, संस्थातु सततं सपर्यति सदाश्रद्धः शमीशोऽपि यः // 1 // तत् किं नाम पुरं ? समं वदति यत् हीनं क्रमादक्षरैः, भूपं वल्लभया युतं वमनयुक् यदा भवेत् सान्तरं / यत् सन्तं नृपभूधने उशति च प्राहोद्वहन्तं नरं, मर्यादा बुध ? मासमाश्रितमते ब्रूयात् विचिन्त्योत्तरम् // // आगमदर्पणं सर्वभावावभासकम् // आवरण * ही मिटरी * A418-1