Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ति स्व. पूज्य गुरूदेव श्री जोरावरमल जी महाराज की स्मृति में आयोजित युवाचार्य श्री मधुकर मुनि ए BAS उवासगदसाओ [मूल- अनुवाद-विवेचन- टिप्पण-परिशिष्ट युक्त] Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क --३ ॐ अर्ह [ परमश्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्य स्मृति में आयोजित ] पंचम गणधर भगवत्सुधर्म - स्वामि-प्रणीत सप्तम अंग उपासकदशांग सूत्र [ मूलपाठ, हिन्दी अनुवाद, विवेचन, परिशिष्ट युक्त ] प्रेरणा (स्व.) उपप्रवर्त्तक शासनसेवी स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज आद्यसंयोजक तथा प्रधान सम्पादक (स्व.) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज 'मधुकर' अनुवादक - विवेचक - सम्पादक डॉ. छगनलाल शास्त्री, एम. ए. (हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, जैनोलोजी) पी-एच. डी. काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान ) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्क ३ निर्देशन आध्यात्मयोगिनी विदुषी महासती श्री उमरावकुंवरजी म.सा. 'अर्चना' सम्पादकमण्डल (स्व.) आचार्य श्री देवेन्द्रमनि जी म.सा. 'शास्त्री' (स्व.) अनुयोगप्रवर्तक मुनि श्री कन्हैयालालजी म.सा. 'कमल' वाणीभूषण श्री रतनमुनि जी म. सा. (स्व.) पंडित श्री शोभाचन्द्रजी भारिल्ल संप्रेरक उ. प्र.मुनि श्री विनयकमारजी 'भीम' चतुर्थ संस्करण जुलाई, २००६ ई. विक्रम संवत् २०६३ प्रकाशक श्री आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) ब्यावर - ३०५९०१ फोन : २५००८७ मुद्रक मेहता ऑफसेट 29, सोमनाथ कॉलोनी, कॉलेज रोड़, ब्यावर-३०५९०१. फोन : ०१४६२-२५३९९० 3 मूल्य : ६५/- रुपये Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published on the Holy Remembrance occasion of Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj Fifth Ganadhar Sudharma Swami Compiled Seventh Anga UPASAKADASANGA SUTRA [Original Text, Hindi Version, Notes, Annotation and Appendices etc.) Inspiring Soul Up-pravartaka Shasansevi (Late) Swami Shri Brijlalji Maharaj Shri Beligger en stor Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Shri Mishrimalji Maharaj Madhukar' Editor & Annotator Dr. ChhaganlalShastri, M.A., Ph. D. Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 3 Direction Mahasati Shri Umravkunwarji M. Sa. "Archana" Board of Editors (Late) Achrya Shri Devendra Muni Ji 'Shastri Anuyogapravartaka Muni shri Kanhaiyalal Ji 'Kamal' Vaani Bhushan Shri Ratan Muni Ji (Late) Pt. Shri Shobhachandra Ji Bharilla 0 Promotor Muni Shri Vinay Kumar Ji "Bhim" Fourth Edition Vikram Samvat 2063 July 2006 Publishers Shri Agam Prakashan Samiti, Shri Brij-Madhukar Smriti Bhawan Pipaliya Bazar, Beawar (Raj.) [India] Pin - 305 901 Phone : 250087 0 Printer Mehta Offset 29, Somnath Colony College Road, BEAWAR 305901 Phone : 01462 - 253990 o Price : Rs. 65/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 महामंत्र ॥ णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोएसव्व साहूणं, एसो पंच णमोक्कारो, सवपावपणासणो॥ मंगलाणं च सवेसिं, पढमं हवइ मंगलं ॥ युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी म. सा. Page #7 --------------------------------------------------------------------------  Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ G0200 समर्पण जिनका हृदय अलौकिक माधुर्य से आप्लावित है, जिनकी वाणी में अदभुत ओज है, जिनकी कर्तव्य-क्षमता अनूठी है, उन्ही श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के आधारस्तम्भ श्रमणसूर्य कविवर्य महास्थविर मरुधरकेसरी प्रवर्तकवय मुनि श्री मिश्रीमलजी महाराज के करकमलों मे सादर सविनय और सभक्ति। 0 मधुकर मुनि (प्रथम संस्करण से) Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्रमण भगवान् महावीर की २५वीं निर्वाण शताब्दी के पावन प्रसंग पर साहित्य प्रकाशन की एक नई उत्साहपूर्ण लहर उठी। भारत की प्रायः प्रत्येक प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थाओं ने अपने-अपने साधनों और समय के अनुरूप भगवान् महावीर से सम्बन्धित साहित्य प्रकाशित किया। इस प्रकार उस समय जैनधर्मदर्शन और भगवान् महावीर के लोकोत्तर जीवन और उनकी कल्याणकारी शिक्षाओं से संबंधित विपुल साहित्य का सजृन व प्रकाशन हुआ। इसी प्रसंग पर स्वर्गीय विद्वद्रत्न युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म. 'मधुकर' के मन में एक उदात्त भावना जागृत हुई कि भगवान् महावीर से सम्बन्धित प्रभूत साहित्य प्रकाशित हो रहा है। यह तो ठीक किन्तु श्रमण भगवान् महावीर के साथ आज हमारा जो सम्पर्क है, वह उनकी जगत-पावन वाणी के माध्यम से है, जिसके सम्बन्ध में कहा गया है-- "सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं ।" अर्थात जगत् के समस्त प्राणियों की रक्षा और दया के लिए ही भगवान् की धर्म-देशना प्रस्फुटित हुई थी। अतएव इस भगवद्वाणी का प्रचार व प्रसार करना प्राणिमात्र की दया का ही कार्य है। विश्वकल्याण के लिए इससे अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई कार्य नहीं हो सकता है। इसलिए उनकी मूल एवं पवित्र वाणी जिन आगमों में हैं, उन आगमों को सर्वसाधारण के लिए सुलभ कराया जाये। युवाचार्यश्री जी ने कतिपय वरिष्ठ आगमप्रेमी श्रावकों तथा विद्वानों के समक्ष अपनी भावना प्रस्तुत की। धीरे-धीरे युवाचार्य श्री जी की भावना और आगमों के संपादन-प्रकाशन की चर्चा बल पकड़ती गई। विवेकशील और साहित्यानुरागी श्रमण व श्रावक वर्ग ने इस पवित्रतम कार्य की सराहना और अनुमोदना की। इस प्रकार जब आगमप्रकाशन के विचार को सभी ओर से पर्याप्त समर्थन मिला तब युवाचार्य श्री जी के वि. सं. २०३५ के ब्यावर चातुर्मास में समाज के अग्रगण्य श्रावकों एवं विद्वानों की एक बैठक आयोजित की गई और प्रकाशन की रूपरेखा पर विचार किया गया। योजना के प्रत्येक पहलू के बारे में सुदीर्घ चिन्तन-मनन के पश्चात् वैशाख शुक्ला १० को जो भगवान् महावीर के केवल ज्ञान कल्याणक का शुभ दिन था, आगमबत्तीसी के प्रकाशन की घोषणा कर दी और कार्य प्रारम्भ कर दिया गया। कार्य की सफलता के लिए विद्वद्वर्ग का अपेक्षित सहयोग प्राप्त हुआ। विद्वज्जन तो ऐसे कार्यों को करने के लिए तत्पर रहते ही हैं और ऐसे कार्यों को करके आत्मपरितोष की अनुभूति करते हैं, किन्तु श्रावक वर्ग ने भी तन-मन-धन से सहयोग देने की तत्परता व्यक्त कर व्यवस्थित कार्य संचालन के लिए ब्यावर में 'श्री आगम प्रकाशन समिति' के नाम से संस्था स्थापित कर आवश्यक धनराशि की व्यवस्था कर दी। [७] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रारम्भ में आचारांग आदि नामक्रमानुसार शास्त्रों को प्रकाशित करने का विचार किया गया था, किन्तु ऐसा अनुभव हुआ कि भगवती जैसे विशाल आगम का संपादन अनुवाद होने आदि में बहुत समय लगेगा और तब तक अन्य आगमों के प्रकाशन को रोक रखने से समय भी अधिक लगेगा और पाठकवर्ग को सैद्धान्तिक बोध कराने के लिए योजना प्रारम्भ की है, वह उद्देश्य भी पूरा होने में विलम्ब होगा तथा यथाशीघ्र शुभ कार्य को सम्पन्न करना चाहिए। अत: यह निर्णय हुआ कि जो-जो शास्त्र होते जायें, उन्हें ही प्रकाशित कर दिया जाये। ___ जैसे-जैसे आगम ग्रन्थ प्रकाशित होते गये, वैसे-वैसे पाठकवर्ग भी विस्तृत होता गया एवं अनेक विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी इन ग्रन्थों को निर्धारित किया गया। अतः पुनः यह निश्चय किया गया कि प्रथम तीन संस्करणो के अप्राप्य हो जाने पर चतुर्थ संस्करण प्रकाशित किया जावें, जिससे सभी पाठकों को पूरी आगमबत्तीसी सदैव उपलब्ध होती रहे । एतदर्थ इस निर्णयानुसार चतुर्थ संस्करण प्रकाशित हो रहा है। ___अनेक प्रबुद्ध संतों, विद्वानों और समाज ने प्रस्तुत प्रकाशनों की प्रशंसा करके हमारे उत्साह का संवर्धन किया है और सहयोग दिया है, उसके लिए आभारी हैं तथा पाठकों से अपेक्षा है कि आगम साहित्य का अध्ययन करके जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में सहयोगी बनें। इसी आशा और विश्वास के साथ -- रतनचंद मोदी कार्याध्यक्ष ज्ञानचन्द बिनायकिया मन्त्री श्री आगम प्रकाशन-समिति, ब्यावर [८] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आमुख (प्रथम संस्करण से ) जैनधर्म, दर्शन व संस्कृति का मूल आधार वीतराग सर्वज्ञ की वाणी है । सर्वज्ञ अर्थात् आत्मद्रष्टा । सम्पूर्ण रूप से आत्मदर्शन करने वाले ही विश्व का समग्र दर्शन कर सकते हैं। जो समग्र को जानते हैं, वे ही तत्वज्ञान का यथार्थ निरूपण कर सकते हैं । परमहितकारी निःश्रेयस् का यथार्थ उपदेश कर सकते हैं। सर्वज्ञों द्वारा कथित तत्वज्ञान, आत्मज्ञान तथा आचार-व्यवहार का सम्यक् परिबोध 'आगम', शास्त्र या सूत्र के नाम से प्रसिद्ध 1 तीर्थंकरों की वाणी मुक्त सुमनों की वृष्टि के समान होती है, महान् प्रज्ञावान् गणधर उसे सूत्र रूप में ग्रथित करके व्यवस्थित 'आगम' का रूप दे देते हैं । आज जिसे हम 'आगम' नाम से अभिहित करते हैं, प्राचीन समय में वे 'गणिपिटक' कहलाते थे। 'गणिपिटक' में समग्र द्वादशांगी का समावेश हो जाता है । पश्चाद्वर्ती काल में इसके अंग, उपांग, मूल, छेद, आदि अनेक भेद किये गये । यह लिखने की परम्परा नहीं थी, तब आगमों को स्मृति के आधार पर या गुरु-परम्परा से सुरक्षित रखा जाता था । भगवान् महावीर के बाद लगभग एक हजार वर्ष तक ' आगम' स्मृति - परम्परा पर ही चले आये थे । स्मृतिदुर्बलता, गुरु परम्परा का विच्छेद तथा अनेक कारणों से धीरे-धीरे आगमज्ञान भी लुप्त होता गया महासरोवर का जल सूखता - सूखता गोष्पद मात्र ही रह गया । तब देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ने श्रमणों का सम्मेलन बुलाकर स्मृति - दोष से लुप्त होते आगमज्ञान को, जिनवाणी को सुरक्षित रखने के पवित्र उद्देश्य से लिपिबद्ध करने का ऐतिहासिक प्रयास किया और जिनवाणी को पुस्तकारूढ़ करके आने वाली पीढ़ी पर अवर्णनीय उपकार किया । यह जैन धर्म, दर्शन एवं संस्कृति की धारा को प्रवहमान रखने का अद्भुत उपक्रम था । आगमों का यह प्रथम सम्पादन वीर - निर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष पश्चात् सम्पन्न हुआ । पुस्तकारूढ होने के बाद जैन आगमों का स्वरूप मूल रूप से तो सुरक्षित हो गया, किन्तु कालदोष, बाहरी आक्रमण, आन्तरिक मतभेद, विग्रह, स्मृति - दुर्बलता एवं प्रमाद आदि कारणों से आगमज्ञान की शुद्ध धारा, अर्थबोध की सम्यक् गुरु-परम्परा धीरे-धीरे क्षीण होने से नहीं रूकी। आगमों के अनेक महत्वपूर्ण सन्दर्भ, पद तथा गूढ अर्थ छिन्न-विच्छिन्न होते चले गए। जो आगम लिखे जाते थे, १. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । [९] Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे भी पूर्ण शुद्ध नहीं होते थे। उनका सम्यक् अर्थ-ज्ञान देने वाले भी विरले ही रहे। अन्य भी अनेक कारणों से आगम-ज्ञान की धारा संकुचित होती गयी। विक्रम की सोलहवीं शताब्दी में लोकाशाह ने एक क्रांतिकारी प्रयत्न किया। आगमों के शुद्ध और यथार्थ अर्थ-ज्ञान को निरूपित करने का एक साहसिक उपक्रम पुन: चालू हुआ। किन्तु कुछ काल बाद पुनः उसमें भी व्यवधान आ गए। साम्प्रदायिक द्वेष, सैद्धान्तिक विग्रह तथा लिपिकारों की भाषाविषयक अल्पज्ञता आगमों की उपलब्धि तथा उनके सम्यक् अर्थबोध में बहुत बड़ा विघ्न बन गए। ___ उन्नीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जब आगम-मुद्रण की परम्परा चली तो पाठकों को कुछ सुविधा हुई। आगमों की प्राचीन टीकाएँ, चूर्णि व नियुक्ति जब प्रकाशित हुई तथा उनके आधार पर आगमों का सरल व स्पष्ट भावबोध मुद्रित होकर पाठकों को सुलभ हुआ तो आगमज्ञान का पठन-पाठन स्वभावत: बढ़ा, सैकड़ों जिज्ञासुओं में आगम-स्वाध्याय की प्रवृत्ति जगी व जैनेतर देशी-विदेशी विद्वान् भी आगमों का अनुशीलन करने लगे। आगमों के प्रकाशन-सम्पादन-मुद्रण के कार्य में जिन विद्वानों तथा मनीषी श्रमणों ने ऐतिहासिक कार्य किया, पर्याप्त सामग्री के अभाव में आज उन सबका नामोल्लेख कर पाना कठिन है। फिर ' स्थानकवासी परम्परा के कुछ महान् मुनियों का नाम ग्रहण अवश्य ही करूँगा। पूज्य श्री अमोलकऋषिजी महाराज स्थानकवासी परम्परा के महान् साहसी व दृढ़ संकल्पबली मुनि थे, जिन्होंने अल्प साधनों के बल पर भी पूरे बत्तीस सूत्रों को हिन्दी में अनूदित करके जन-जन को सुलभ बना दिया। पूरी बत्तीसी का सम्पादन, प्रकाशन एक ऐतिहासिक कार्य था, जिससे सम्पूर्ण स्थानकवासी व तेरापंथी समाज उपकृत हुआ। गुरुदेव पूज्य स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज का एक संकल्प : __मैं जब गुरुदेव स्व. स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज के तत्वावधान में आगमों का अध्ययन कर रहा था तब आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित कुछ आगम उपलब्ध थे। उन्हीं के आधार पर गुरुदेव मुझे अध्ययन कराते थे। उनको देखकर गुरुदेव को लगता था कि यह संस्करण यद्यपि काफी श्रम-साध्य है, एवं अब तक के उपलब्ध संस्करणों में काफी शुद्ध भी है, फिर भी अनेक स्थल अस्पष्ट हैं । मूल पाठ में एवं उसकी वृत्ति में कहीं-कहीं अन्तर भी है, कहीं वृत्ति बहुत संक्षिप्त है। गुरुदेव स्वामी श्री जोरावरमलजी महाराज स्वयं जैन सूत्रों के प्रकाण्ड पण्डित थे। उनकी मेघा बड़ी व्युत्पन्न व तर्कणाप्रधान थी। आगमसाहित्य की यह स्थिति देखकर उन्हें बहुत पीड़ा होती और कई बार उन्होंने व्यक्त भी किया कि आगमों का शुद्ध, सुन्दर व सर्वोपयोगी प्रकाशन हो तो बहुत लोगों का कल्याण होगा, कुछ परिस्थितियों के कारण उनका संकल्प, मात्र भावना तक सीमित रहा। इसी बीच आचार्य श्री जवाहरलालजी महाराज, जैन धर्म दिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज, पूज्य श्री घासीलालजी महाराज आदि विद्वान् मुनियों ने आगमों की सुन्दर व्याख्याएं व टीकाएँ [१०] Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखकर अथवा अपने तत्वावधान में लिखवाकर इसी कमी को पूरा किया है। वर्तमान में तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य श्री तुलसी ने भी यह भगीरथ प्रयत्न प्रारम्भ किया है और अच्छे स्तर से उनका आगम-कार्य चल रहा है। मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' आगमों की वक्तव्यता को अनुयोगों में वर्गीकृत करने का मौलिक एवं महत्वपूर्ण प्रयास कर रहे हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के विद्वान् श्रमण स्व. मुनि श्री पुण्यविजयजी ने आगम सम्पादन की दिशा में बहुत ही व्यवस्थित व उत्तम कोटि का कार्य प्रारम्भ किया था। उनके स्वर्गवास के पश्चात् मुनि श्री जम्बूविजयजी के तत्वावधान में यह सुन्दर प्रयत्न चल रहा है। उक्त सभी कार्यों का विहंगम अवलोकन करने के बाद मेरे मन में एक संकल्प उठा। आज कहीं तो आगमों का मूल मात्र प्रकाशित हो रहा है और कहीं आगमों की विशाल व्याख्याएँ की जा रही हैं। एक, पाठक के लिए दुर्बोध है तो दूसरी जटिल। मध्यम मार्ग का अनुसरण कर आगमवाणी का भावोद्घाटन करने वाला ऐसा प्रयत्न होना चाहिए जो सुबोध भी ही, सरल भी हो, संक्षिप्त हो पर सारपूर्ण व सुगम हो। गुरुदेव ऐसा ही चाहते थे। उसी भावना को लक्ष्य में रखकर मैंने ४-५ वर्ष पूर्व इस विषय में चिन्तन प्रारम्भ किया। सुदीर्घ चिन्तन के पश्चात् वि. सं. २०३६ वैशाख शुक्ला १० महावीर कैवल्यदिवस को दृढ़ निर्णय करके आगम-बत्तीसी का सम्पादन-विवेचन कार्य प्रारम्भ कर दिया और अब पाठकों के हाथों में आगम-ग्रन्थ क्रमश: पहुँच रहे हैं, इसकी मुझे अत्यधिक प्रसन्नता है। आगम-सम्पादन का यह ऐतिहासिक कार्य पूज्य गुरुदेव की पुण्यस्मृति में आयोजित किया गया है। आज उनका पुण्य स्मरण मेरे मन को उल्लसित कर रहा है। साथ ही मेरे वन्दनीय गुरु-भ्राता पूज्य स्वामी श्री हजारीमलजी महाराज की प्रेरणाएँ-उनकी आगम-भक्ति तथा आगम सम्बन्धी तलस्पर्शी ज्ञान, प्राचीन धारणाएँ, मेरा सम्बल बनी है। अतः मैं उन दोनों स्वर्गीय आत्माओं की पुण्यस्मृति में विभोर हूँ। शासनसेवी स्वामीजी श्री ब्रजलालजी महाराज का मार्गदर्शन, उत्साह-संवर्द्धन, सेवाभावी शिष्य मुनि विनयकुमार का साहचर्य-बल, सेवा-सहयोग तथा महासती श्री कानकुँवरजी, महासती श्री झणकारकुँवरजी, परमविदुषी महासती श्री उमरावकुँवरजी, म.सा. अर्चना- की विनम्र प्रेरणाएँ मुझे सदा प्रोत्साहित तथा कार्यनिष्ठ बनाये रखने में सहायक रही हैं। ___ मुझे दृढ़ विश्वास है कि आगम-वाणी के सम्पादन का यह सुदीर्घ प्रयत्न-साध्य कार्य सम्पन्न करने में मुझे सभी सहयोगियों, श्रावकों व विद्वानों का पूर्ण सहकार मिलता रहेगा और मैं अपने लक्ष्य तक पहुँचने में गतिशील बना रहूँगा। इसी आशा के साथ..... -मुनि मिश्रीमल 'मधुकर' [११] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम संस्करण के अर्थ सहयोगी स्व. श्रीमान् सेठ पुखराजजी शीशोदिया (जीवन-रेखा ) सेठ पुखराजजी सा. शीशोदिया के व्यक्तित्व में अनूठापन है। उनकी दृष्टि इतनी पैनी और व्यापक है कि वे अपने आसपास के समाज के एक प्रकार से संचालन और परामर्शदाता होकर रहते हैं। संभवतः उन्हें जितनी चिन्ता अपने गार्हस्थिक कार्यों की रहती है उतनी ही दूसरे कार्यों की भी। श्री शीशोदियाजी के जीवन को देखकर सहसा ही प्राचीन काल के उन श्रावकों की सार्वजनिकता का स्मरण हो आता है जिनसे समाज का हर व्यक्ति सलाह व संरक्षण पाता था । शीशोदियाजी का जन्म सं० १९६८ में मार्गशीर्ष कृष्णपक्ष की चतुर्दशी के दिन ब्यावर में हुआ। पिताजी का नाम श्री हीरालालजी था । आपके पिताजी की आर्थिक स्थिति साधारण थी। शिक्षा भी वाणिज्य क्षेत्र तक सीमित थी। उन दिनों शिक्षा के आज की तरह प्रचुर साधन भी उपलब्ध नहीं थे। पिताजी आपके बाल्यकाल में ही स्वर्गवासी हो गये। इन सब कारणों से शीशोदियाजी को उच्चशिक्षा प्राप्त करने का अवसर प्राप्त नहीं हो सका। किन्तु शिक्षा का फल जिस योग्यता को प्राप्त करना है, और जिन शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों का विकास करना हैं, वह योग्यता और वे शक्तियां उन्हें प्रचुर मात्रा में प्राप्त हैं। उनमें जन्मजात प्रतिभा है। उनकी प्रतिभा की परिधि बहुत विस्तृत है। व्यापारिक क्षेत्र में तथा अन्य सामाजिक और धार्मिक क्षेत्रों में आपको जो सफलता प्राप्त हुई है उसमें आपके व्यक्तित्व की अन्यान्य विशिष्टताओं के साथ आपकी प्रतिभा का वैशिष्ट्य भी कारण हैं। जिसकी आर्थिक स्थिति सामान्य हो और बाल्यावस्था में ही जो पिता के संरक्षण से वंचित हो जाय, उसकी स्थिति कितनी दयनीय हो सकती है, यह कल्पना करना कठिन नहीं है । किन्तु ऐसे विरल नरपुंगव भी देखे जाते हैं जो बिना किसी के सहारे, बिना किसी के सहयोग और बिना किसी की सहायता के केवल मात्र अपने ही व्यक्तित्व के बल पर अपने पुरूषार्थ और पराक्रम से और अपने ही बुद्धिकौशल से जीवन - विकास पथ में आने वाली समस्त बाधाओं को कुचलते हुए आगे से आगे ही बढ़ते जाते हैं और सफलता के शिखर पर जा पहुँचते हैं। आपके पिताजी का स्वर्गवास संवत् १९८० में हुआ। उस वक्त आपके परिवार में दादाजी, माताजी व बहिन थी। पिताजी के स्वर्गवास के पश्चात् शीशोदियाजी के लिये सभी दिशाएँ अन्धकार से व्याप्त हो गई। मगर लाचारी, विवशता, दीनता और हीनता की भावना उनके निकट भी नही फटक सकी। यही नहीं परिस्थितियों की प्रतिकूलता ने आपके साहस, संकल्प और मनोबल को अधिक सुदृढ़ किया और आप कर्मभूमि के क्षेत्र में उतर पड़े। मात्र बारह वर्ष की उम्र में आपने २००, दो सौ रूपया ऋण लेकर साधारण व्यवसाय प्रारंभ किया । स्वल्प-सी पूंजी और वह भी पराई, कितनी लगन और कितनी सावधानी उसे बढ़ाने के लिए बरतनी पड़ी होगी और कितना श्रम करना पड़ा होगा, यह अनुमान करना भी कठिन है। मगर प्रबल इच्छाशक्ति और [१२] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष है। पुरूषार्थ के सामने सारी प्रतिकूलताएं समाप्त हो जाती है और सफलता का सिंहद्वार खुल जाता है, इस सत्य के प्रत्यक्ष उदाहरण शीशोदियाजी हैं। आज शीशोदियाजी बड़े लक्षाधीश है और नगर के गणमान्य व्यक्तियों में हैं। ब्यावर नगर आपके व्यवसाय का मुख्य केन्द्र है। ब्यावर के अलग-अलग बाजारों में तीन दुकानें हैं। एक दुकान अजमेर में है। किशनगढ़-मदनगंज, विजयनगर और सोजत रोड में भी आपकी दुकानें रह चुकी हैं। प्रमुख रूप से आप आढ़त का ही धंधा करते है। आपका व्यापारिक क्षेत्र अधिकांश भारतवर्ष है। शीशोदियाजी का व्यापारिक कार्य इतना सुव्यवस्थित और सुचारू रहता है कि आपकी दुकान पर काम करने वाले भागीदारों तथा मुनीमों की भी नगर में कीमत बढ़ जाती है। आपके यहाँ कार्य करना व्यक्ति की एक बड़ी योग्यता (qualification)समझी जाती है। आपकी फर्मों से जो भी पार्टनर या मुनीम अलग हुए हैं, वे आज बड़ी शान व योग्यता से अपना अच्छा व्यवसाय चला रहे हैं। उन्होंने भी व्यवसाय में नाम कमाया है। ऐसी स्थिति में आपके सुपुत्र भी यदि व्यापारनिष्णात हों तो यह स्वाभाविक ही है। उन्होंने आपका बहुत-सा उत्तरदायित्व संभाल लिया है। इसी कारण आपको सार्वजनिक, धार्मिक एवं सामाजिक कार्यों के लिये अवकाश मिल जाता है। नगर की अनेक संस्थाओं से आप जुड़े हुए हैं। किसी अध्यक्ष, किसी के कार्याध्यक्ष, किसी के उपाध्यक्ष, किसी के मंत्री, किसी के कोषाध्यक्ष, किसी के सलाहकार व सदस्य आदि पदों पर रह कर सेवा कर रहे हैं तथा अनेकों संस्थाओं की सेवा की है। मगर विशेषता यह है कि जिस संस्था का कार्यभार आप संभालते है उसे पूरी रूचि और लगन के साथ सम्पन्न करते हैं। श्री मरूधरकेसरी साहित्य प्रकाशन समिति, मुनि श्री हजारीमल स्मृति प्रकाशन, आगम प्रकाशन समिति, श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन वीर संघ के तो आप प्रमुख आधार है। नगर की अन्य गोशाला, चेम्बर सर्राफान आदि संस्थाओं को भी पूरा योगदान दे रहे हैं। इस प्रकार शीशोदियाजी पूर्णरूप से आत्मनिर्मित एवं आत्मप्रतिष्ठित सज्जन हैं। अपनी ही योग्यता और अध्यवसाय के बल पर आपने लाखों की सम्पत्ति उपार्जित की है। मगर सम्पत्ति उपार्जित करके ही आपने सन्तोष नहीं माना, वरन उसका सामाजिक एवं धार्मिक कार्यों में सदुपयोग भी कर रहे हैं। एक लाख रूपयों से आपने एक पारमार्थिक ट्रस्ट की स्थापना की है। इसके अतिरिक्त आपके पास से कभी कोई खाली हाथ नहीं जाता। आपने कई संस्थाओं की अच्छी खासी सहायता की है। आगम प्रकाशन समिति के आप महास्तम्भ हैं और कार्यवाहक अध्यक्ष की हैसियत से आपही उसका संचालन कर रहे हैं। प्रस्तुत 'उपासकदशांग' सूत्र के प्रकाशन का सम्पूर्ण व्ययभार समिति के कार्यवाहक अध्यक्ष श्री शीशोदियाजी ने ही वहन करके महत्त्वपूर्ण योग दिया है। समिति इस उदार सहयोग के लिये आपकी ऋणी है। [१३] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से ) धर्म का मुख्य आधार किसी भी धर्म के चिर जीवन का मूल आधार उसका वाङ् मय है। वाङ् मय में वे सिद्धान्त सुरक्षित होते हैं, जिन पर धर्म का प्रासाद अवस्थित रहता है। शाखा प्रशाखाओं की बात को छोड़ दें, भारतीय धर्मों में वैदिक, बौद्ध और जैन मुख्य हैं । वैदिकधर्म का मूल साहित्य वेद है, बौद्धधर्म का पिटक है, उसी प्रकार जैनधर्म का मूल साहित्य आगमों के रूप में उपलब्ध है। आगम आगम विशिष्ट ज्ञान के सूचक है, जो प्रत्यक्ष या तत्सदृश बोध से जुड़ा । दूसरे शब्दों में यों कहा जा सकता है - आवरक हेतुओं या कर्मों के अपगम से जिनका ज्ञान सर्वथा निर्मल एवं शुद्ध हो गया, अविसंवादी हो गया, ऐसे आप्त पुरूषों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों का संकलन आगम है ।" आगमों के रूप में जो प्रमुख साहित्य हमें आज प्राप्त हैं, वह अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर द्वारा भाषित और उनके प्रमुख शिष्यों - गणधरों द्वारा संग्रथित हैं । आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है --": 'अर्हत् अर्थ भाषित करते हैं। गणधर धर्मशासन या धर्मसंघ के हितार्थ निपुणतापूर्वक सूत्ररूप में उसका ग्रथन करते हैं। यों सूत्र का प्रवर्तन होता है । २ इसका तात्पर्य यह हुआ कि भगवान् महावीर ने जो भाव अपनी देशना में व्यक्त किये, वे गणधरों द्वारा शब्दबद्ध किये गये । आगमों की भाषा वेदों की भाषा प्राचीन संस्कृत है, जिसे छन्दस् या वैदिकी कहा जाता है। बौद्धपिटक पाली में हैं, जो मागधी प्राकृत पर आधृत है। जैन आगमों की भाषा अर्द्धमागधी प्राकृत है। अर्हत् इसी में अपनी धर्मदेशना देते हैं । समवायांग सूत्र में लिखा है 'भगवान् अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का आख्यान करते हैं । भगवान् द्वारा भाषित अर्द्धमागधी 44 १. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः । उपचारादाप्तवचनं चं ॥ --प्रमाणनयतत्त्वालोक ४.. १, २ । २. अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गंथति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तेइ ॥ -- आवश्यक निर्युक्ति ९२ । [१४] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाषा आर्य, अनार्य, द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी, सरीसृप-रेंगने वाले जीव आदि सभी की भाषा में परिणत हो जाती है; उनके लिए हितकर, कल्याणकर तथा सुखकर होती है। आचारांगचूर्णि में भी इसी आशय का उल्लेख है। वहाँ कहा गया है कि स्त्री, बालक, वृद्ध, अनपढ-सभी पर कृपा कर सब प्राणियों के प्रति समदर्शी महापुरूषों ने अर्द्धमागधी भाषा में सिद्धान्तों का उपदेश किया। _अर्द्धमागधी प्राकृत का एक भेद है। दशवैकालिक वृत्ति में भगवान् के उपदेश का प्राकृत में होने का उल्लेख करते हुए पूर्वोक्त जैसा ही भाव व्यक्त किया गया है "चारित्र की कामना करने वाले बालक, स्त्री, वृद्ध, मूर्ख-अनपढ़-सभी लोगों पर अनुग्रह करने के लिाये तत्वद्रष्टाओं ने सिद्धान्त की रचना प्राकृत में की।"२ अर्द्धमागधी __ भगवान महावीर का युग एक ऐसा समय था जब धार्मिक जगत् में अनेक प्रकार के आग्रह बद्धमूल थे। उनमें भाषा का आग्रह भी एक था। संस्कृत धर्म निरूपण की भाषा मानी जाती थी। संस्कृत का जन-साधारण में प्रचलन नही था। सामान्य जन उसे समझ नहीं सकते थे। साधारण समय बोलचाल में प्राकृतों का प्रचलन था। देश भेद से उनके कई प्रकार थे, जिनमें मागधी, अर्द्धमागधी, शौरसेनी, पैशाची तथा महाराष्ट्री प्रमुख थी। पूर्व भारत में अर्द्धमागधी और मागधी तथा पश्चिम में शौरसेनी का प्रचलन था। उत्तर पश्चिम पैशाची का क्षेत्र था। मध्य देश में महाराष्ट्री का प्रयोग हाता था। शौरसेनी और मागधी के बीच के क्षेत्र में अर्द्धमागधी का प्रचलन था। यों अद्धमागधी, मागधी और शौरसेनी क बीच की भाषा सिद्ध होती है। अर्थात् इसका कुछ रूप मागधी जैसा और कुछ शौरसेनी जैसा है, अर्द्धमागधी ऐसा नाम पड़ने में सम्भवतः यही कारण रहा हो। मागधी के तीन मुख्य लक्षण है। वहाँ श, ष, स-तीनों के लिए केवल तालव्य श का प्रयोग होता है । र के स्थान पर ल आता है। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन में ए विभक्ति का उपयोग होता है। अर्द्धमागधी में इन तीन में लगभग आधे लक्षण मिलते हैं। तालव्य श का वहाँ बिलकुल प्रयोग नहीं होता। अकारान्त संज्ञाओं में प्रथमा एक वचन मेंए का प्रयोग अधिकांश होता है। र के स्थान पर ल का प्रयोग कहीं-कहीं होता है। अर्द्धमागधी की विभक्ति-रचना में एक विशेषता और है, वहाँ सप्तमी विभक्ति में ए और म्मि के साथ-साथ अंसि प्रत्यय का भी प्रयोग होता है जैसे-नयरे नयरम्मि, नयरंसि। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ। सावि य णं अद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं दुप्पय-चउप्पय-मिय-पसु-सरीसिवाणं अप्पणो हिय-सिव सुहयभासत्ताए परिणमइ। -समवायांगसूत्र ३४. २२. २३ । २. बालस्त्रीवृद्धमूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम्। अनुग्रहार्थ तत्वज्ञैः सिद्धान्तः प्राकृतः कृतः॥ -दशवैकालिक वृत्ति पृष्ठ २२३ । [१५] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि ने औपपातिकसूत्र में जहाँ भगवान् महावीर की देशना के वर्णन के प्रसंग में अर्द्धमागधी भाषा का उल्लेख हुआ है, वहाँ अर्द्धमागधी को ऐसी भाषा के रूप में व्याख्यात किया है, जिसमें मागधी में प्रयुक्त होने वाले ल और श का कहीं-कहीं प्रयोग तथा प्राकृत का अधिकांशतः प्रयोग था। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की टीका में भी उन्होनें इसी प्रकार उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में कुछ मागधी के तथा कुछ प्राकृत के लक्षण पाये जाते हैं। आचार्य अभयदेव ने प्राकृत का यहाँ सम्भवतः शौरसेनी के लिए प्रयोग किया है। उनके समय में शौरसेनी प्राकृत का अधिक प्रचलन रहा हो। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृतव्याकरण में अर्द्धमागधी को आर्ष [ऋषियों की भाषा] कहा है। उन्होंने लिखा है कि आर्षभाषा पर व्याकरण के सब नियम लागू नहीं होते, क्योंकि उसमें बहुत से विकल्प है। इसका तात्पर्य यह यह हुआ कि अर्द्धमागधी में दूसरी प्राकृतों का भी मिश्रण है। एक दूसरे प्राकृत वैयाकरण मार्कण्डेय ने अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख किया है कि वह शौरसेनी के बहुत निकट है अर्थात् उसमें शौरसेनी के बहुत लक्षण प्राप्त होते हैं । इसका भी यही आशय है कि बहुत से लक्षण शौरसेनी के तथा कुछ लक्षण मागधी के मिलने से यह अर्द्धमागधी कहलाई। क्रमदीश्वर ने ऐसा उल्लेख किया है कि अर्द्धमागधी में मागधी और महाराष्ट्री का मिश्रण है। इसका भी ऐसा ही फलित निकलता है कि अर्द्धमागधी में मागधी के अतिरिक्त शौरसेनी का भी मिश्रण रहा है और महाराष्ट्री का भी रहा है। निशीथचूर्णि में अर्द्धमागधी के सम्बन्ध में उल्लेख है कि वह मगध के आधे भाग में बोली जाने वाली भाषा थी तथा उसमें अट्ठाईस देशी भाषाओं का मिश्रण था। इन वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है कि अर्द्धमागधी उस समय प्राकृत-क्षेत्र की सम्पर्क-भाषा (Lingua-Franca) के रूप में प्रयुक्त थी, जो बाद में भी कुछ शताब्दियों तक चलती रही। कुछ विद्वानों के अनुसार अशोक के अभिलेखों की मूल भाषा यही थी, जिसको स्थानीय रूपों में रूपान्तरित किया गया था। भगवान् महावीर ने अपने उपदेश का माध्यम ऐसी ही भाषा को लिया, जिस तक जन १. अद्धमागहाए भासाए त्ति रसोर्लशौ मागध्यामित्यादि यन्मागधभाषालक्षणं तेनापरिपूर्णा प्राकृतभाषालक्षणबहुला अर्द्धमागधीत्युच्यते। -उववाई सूत्र सटीक पृष्ठ २२४-२५ । । (श्रीयुक्त राय धनपतिसिंह बहादुर आगम संग्रह जैन बुक सोसायटी, कलकत्ता द्वारा प्रकाशित) २. आर्ष-ऋषीणामिदमार्षम्। आर्ष प्राकृतं बहुलं भवति। . तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः। आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते॥-सिद्धहेमशब्दानुशासन ८.१.३। ३. भाषाविज्ञान : डॉ. भोलानाथ तिवारी पृष्ठ १७८ । (प्रकाशक-किताब महल, इलाहाबाद १९६१ ई.) [१६] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधारण की सीधी पहुँच हो। अर्द्धमागधी में यह बात थी। प्राकृतभाषी क्षेत्रों के बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ, शिक्षित, अशिक्षित-सभी उसे समझ सकते थे। अंग-साहित्य गणधरों द्वारा भगवान् का उपदेश निम्नांकित बारह अंगों के रूप में संग्रथित हुआ १. आचार, २. सूत्रकृत्, ३. स्थान, ४. समवाय, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति, ६. ज्ञातृधर्मकथा, ७. उपासकदशा, 6. अन्तकृद्दशा, ९. अनत्तरौपपातिकदशा, १०. प्रश्नव्याकरण, ११. विपाक, १२. दृष्टिवाद। प्राचीनकाल में शास्त्र-ज्ञान को कण्ठस्थ रखने की परम्परा थी। वेद, पिटक और आगम-ये तीनों ही कण्ठस्थ-परम्परा से चलते रहे । उस समय लोगों की स्मरणशक्ति, दैहिक संहनन, बल उत्कृष्ट था। आगम-संकलन : प्रथम प्रयास भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग ५६० वर्ष पश्चात् तक आगम-ज्ञान की परम्परा यथावत् रूप में गतिशील रही। उसके बाद एक विघ्न हुआ। मगध में बारह वर्ष का दुष्काल पड़ा। यह चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन-काल की घटना है। जैन श्रमण इधर-उधर बिखर गये। अनेक काल-कवलित हो गये। जैन संघ को आगम-ज्ञान की सुरक्षा की चिन्ता हुई। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर पाटलिपुत्र में आगमों को व्यवस्थित करने हेतु स्थूलभद्र के नेतृत्व में जैन साधुओं का एक सम्मेलन आयोजित हुआ। इसमें ग्यारह अंगों का संकलन किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद किसी को भी स्मरण नहीं था। दृष्टिवाद के ज्ञाता केवल भद्रबाहु थे। वे उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना में लगे हुए थे। उनसे वह ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया गया। दृष्टिवाद के चवदह पूर्वो में से दस पूर्व तक का अर्थ ज्ञान स्थूलभद्र प्राप्त कर सके। चार पूर्वो का केवल पाठ उन्हें प्राप्त हुआ। आगमों के संकलन का यह पहला प्रयास था। इसे आगमों की प्रथम वाचना या पाटलिपुत्रवाचना कहा जाता हैं। यों आगमों का संकलन तो कर लिया गया पर उन्हें सुरक्षित बनाये रखने का क्रम वही कण्ठाग्रता का ही रहा। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि वेद यहाँ व्याकरणनिष्ठ संस्कृत में निबद्ध थे, जैन आगम लोक-भाषा में निर्मित थे, जो व्याकरण के कठिन नियमों से नहीं बन्धी थी, इसलिए आने वाले समय के साथ-साथ उनमें भाषा की दृष्टि से कुछ-कुछ परिवर्तन भी स्थान पाने लगा। वेदों में ऐसा सम्भव नहीं हो सका। इसका एक कारण और था, वेदों की शब्द-रचना को यथावत् रूप में बनाये रखने के लिए उसमें पाठ के संहितापाठ, पदपाठ, क्रमपाठ, जटापाठ-ये पाँच रूप रखे गये, जिनके कारण किसी भी मन्त्र का एक भी शब्द इधर से उधर नहीं हो सकता। आगामों के साथ ऐसी बात सम्भव नहीं थी। द्वितीय प्रयास भगवान् महावीर के निर्वाण के ८२७-८४० वर्ष के मध्य आगमों को सुव्यवस्थित करने का [१७] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक और प्रयत्न हुआ। उस समय भी पहले जैसा एक भयानक दुष्काल पड़ा था, जिसमें भिक्षा न मिलने के कारण अनेक जैन मुनि परलोकवासी हो गये। आगमों के अभ्यास का क्रम यथावत् रूप में चालू नहीं रहा। इसलिए वे विस्मृत होने लगे। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मथुरा में साधुओं का सम्मेलन हुआ। जिन जिन को जैसा स्मरण था, संकलित कर आगम सुव्यवस्थित किये गये। इसे माथुरी वाचना कहा जाता है। आगम-संकलन का यह दूसरा प्रयास था। इसी समय के आसपास सौराष्ट्र के अन्तर्गत वलभी में नागार्जुन सूरि के नेतृत्व में भी साधुओं का वैसा ही सम्मेलन हुआ, जिसमें आगम-संकलन का प्रयास हुआ। यह उपर्युक्त दूसरे प्रयत्न या वाचना के अन्तर्गत ही आता है। वैसे इसे वलभी की प्रथम वाचना भी कहा जाता है। तृतीय प्रयास ___ अब तक वही कण्ठस्थ क्रम ही चलता रहा था। आगे, इसमें कुछ कठिनाई अनुभव होने लगी। लोगों की स्मृति पहले से दुर्बल हो गई, दैहिक संहनन भी वैसा नहीं रहा। अत: उतने विशाल ज्ञान को स्मृति में बनाये रखना कठिन प्रतीत होने लगा। आगम विसमृत होने लगे। अतः पूर्वोक्त दूसरे प्रयत्न के पश्चात् भगवान् महावीर के निर्वाण के ९८० या ९९३ वर्ष बाद वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में पुनः श्रमणों का सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में उपस्थित श्रमणों के समक्ष पिछली दो वाचनाओं का सन्दर्भ विद्यमान था। उस परिपार्श्व में उन्होंने अपनी स्मृति के अनुसार आगमों का संकलन किया। मुख्य आधार के रूप में उन्होंने माथुरी वाचना को रखा। विभिन्न श्रमण-संघों में प्रवृत्त पाठान्तर. वाचना-भेद आदि का समन्वय किया। इस सम्मेलन में आगमों को लिपिबद्ध किया गया, ताकि आगे उनका एक सुनिश्चित रूप सबको प्राप्त रहे। प्रयत्न के बावजूद जिन पाठों का समन्वय संभव नहीं हुआ, वहाँ वाचनान्तर का संकेत किया गया। बारहवां अंग दृष्टिवाद संकलित नहीं किया जा सका, क्योंकि वह श्रमणों को उपस्थित नहीं था। इसलिए उसका विच्छेद घोषित कर दिया गया। जैन आगमों के संकलन के प्रयास में यह तीसरी या अन्तिम वाचना थी। इसे द्वितीय वलभी वाचना भी कहा जाता है। वर्तमान में उपलब्ध जैन आगम इसी वाचना में संकलित आगमों का रूप हैं। उपलब्ध आगम जैनों की श्वेताम्बर-परम्परा द्वारा मान्य हैं। दिगम्बर-परम्परा में इनकी प्रामाणिकता स्वीकृत नहीं है। वहाँ ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ६८३ वर्ष पश्चात् अंग-साहित्य का विलोप हो गया। महावीर-भाषित सिद्धान्तों के सीधे शब्द-समवाय के रूप में वे किसी ग्रन्थ को स्वीकार नहीं करते। उनकी मान्यतानुसार ईसा प्रारंभिक शती में धरसेन नामक आचार्य को दृष्टिवाद अंग के पूर्वगत ग्रन्थ का कुछ अंश उपस्थित था। वे गिरनार पर्वत की चन्द्रगुफा में रहते थे। उन्होंने वहाँ दो प्रज्ञाशील मुनि पुष्पदन्त और भूतबलि को अपना ज्ञान लिपिबद्ध करा दिया। यह षट्खण्डागम के नाम से प्रसिद्ध है। दिगम्बर-परम्परा में इनका आगमवत् आदर है। दोनों मुनियों ने लिपिबद्ध षट्खण्डागम ज्येष्ठ शुक्ला पञ्चमी को संघ के समक्ष प्रस्तुत किये। उस दिन को श्रुत के प्रकाश में आने का महत्त्वपूर्ण दिन माना गया। उसकी श्रुत पञ्चमी के नाम से प्रसिद्धि हो गई। श्रुत-पञ्चमी दिगम्बरसम्प्रदाय का एक महत्त्वपूर्ण धार्मिक पर्व है। [१८] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊपर जिन आगमों के सन्दर्भ में विवेचन किया गया है, श्वेताम्बर - परम्परा में उनकी संख्या के सम्बन्ध में ऐकमत्य नहीं है। उनकी ८४, ४५ तथा ३२ - यों तीन प्रकार की संख्याएं मानी जाती हैं। श्वेताम्बर मन्दिर - मार्गी सम्प्रदाय में ८४ और ४५ की संख्या की भिन्न-भिन्न रूप में मान्यता है । श्वेताम्बर स्थानकवासी तथा तेरापंथी जो अमूर्तिपूजक सम्प्रदाय हैं, में ३२ की संख्या स्वीकृत है, जो इस प्रकार है: विपाक । ११ अंग- आचार, सूत्रकृत्, स्थान, समवाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण, १२ उपांग-औपपातिक, राजप्रश्रीय, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा । ४ छेद-व्यवहार, वृहत्कल्प, निशीथ, दशाश्रुतस्कन्ध । ४ मूल - दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, नन्दी, अनुयोगद्वार । १ आवश्यक । कुल ३२ यों ग्यारह अंग तथा इक्कीस अंगबाह्य कुल बत्तीस होते हैं । चार अनुयोग व्याख्याक्रम, विषयगत भेद आदि की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने आगमों को चार भागों में वर्गीकृत किया, जो अनुयोग कहलाते हैं । ये इस प्रकार है- १. चरणकरणानुयोग- इसमें आत्मविकास के मूलगुण-आचार, व्रत सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, संयम, वैयावृत्य, ब्रह्मचर्य, तप, कषाय- निग्रह आदि तथा उत्तरगुण-पिण्डविशुद्धि, समिति, भावना, प्रतिमा, इन्द्रिय - निग्रह, प्रतिलेखन, गुप्ति तथा अभिग्रह आदि का विवेचन है । २. धर्मकथानुयोग- इसमें दया, दान, शील, क्षमा, आर्जव, मार्दव आदि धर्म के अंगों का विवेचन है । इसके लिए विशेष रूप से आख्यानों या कथानकों का आधार लिया गया है। ३. गणितानुयोग - इसमें गणितसम्बन्धी या गणित पर आधृत वर्णन की मुख्यता है । ४. द्रव्यानुयोग-इसमें जीव, अजीव आदि छह द्रव्यों या नौ तत्त्वों का विस्तृत व सुक्ष्म विवेचनविश्लेषण है । पूर्वोक्त ३२ आगमों का इन ४ अनुयोगों में इस प्रकार समावेश किया जा सकता है: चरणकरणानपुयोग में आचारांग तथा प्रश्नव्याकरण ये दो अंगसूत्र, दशवैकालिक-यह एक मूलसूत्र, निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प एवं दशाश्रुतस्कंध ये चार छेदसूत्र तथा आवश्यक यों कुल आठ सूत्र आते हैं । धर्मकथानुयोग में ज्ञातृधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिकदशा तथा विपाकये पांच अंगसुत्र, औपपातिक, राजप्रश्नीय, निरयावली, कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका व वृष्णिदशा [१९] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ये सात उपांगसूत्र एवं उत्तराध्ययन-यह एक मूलसूत्र यों कुल तेरह सूत्र आते हैं। गणितानुयोग में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रपज्ञप्ति तथा सूर्यपज्ञप्ति-ये तीन उपांगसूत्र आते हैं। द्रव्यानुयोग में सूत्रकृत्, स्थान, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति-ये चार अंगसूत्र, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना-ये दो उपांगसूत्र एवं नन्दी व अनुयोगद्वार, ये दो मूलसूत्र-यों कुल आठ सूत्र आते हैं। उपासकदशा प्रस्तुत विवेचन के परिपार्श्व में उपासकदशा धर्मकथानुयोग का भाग है। इसके नाम से प्रकट है, इसमें उपासकों या श्रावकों के कथानक हैं। जैनधर्म में साधना की दृष्टि से श्रमण-संघ तथा श्रमणोपासक-धर्म के रूप में दो प्रकार से विभाजन किया गया है। श्रमण शब्द साधु या सर्वत्यागी संयमी के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रमण के लिए आत्मसाधना ही सर्वस्व है। दैहिक जीवन का निर्वाह होता है, यह एक बात है पर साधना की कीमत पर श्रमण वैसा नहीं कर सकता। शरीर चला जाए, यह उसे स्वीकार होता है पर साधना में जरा भी आंच आए, यह सब किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसकी व्रताराधनासंयमपालन में विकल्प का स्थान नहीं है । जिस दिन वह श्रमण-जीवन में आता है, "सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि" अर्थात् आज से सभी सावद्य-पापसहित योगों-मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ, इस संकल्प के साथ आता है। वह मन, वचन, काय-इन तीनों योगों तथा कृत, कारित, अनुमोदित-इन तीनों करणों द्वारा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से सर्वथा विरत हो जाता है। वह न कभी हिंसा करता है, न करवाता है, न अनमोदन करता है। ऐसा वह मन से सोचता नहीं. वचन से बोलता नहीं। सभी व्रतों पर यही क्रम लागू होता है । अपवाद या विकल्पशून्य होने से यहाँ व्रत · महाव्रतों की संज्ञा ले लेते हैं। महर्षि पतञ्जलि ने भी उन यमों या व्रतों को जिनमें जाति, देश, काल, समय आदि की सीमा नहीं होती, जो सार्वभौम-सब अवस्थाओं में पालन करने-योग्य होते हैं अर्थात् जहाँ किसी भी प्रकार का अपवाद स्वीकृत नहीं है, महाव्रत कहा है।' गृही उपासक का साधनाक्रम ___ महाव्रतों की समग्र, परिपूर्ण या निरपवाद आराधना हर किसी के लिए शक्य नहीं है। कुछ ही दृढचेता, आत्मबली और संस्कारी पूरूष ऐसे होते हैं, जो इसे साध सकने में समर्थ हों। महाव्रतों की साधना की अपेक्षा हलका, सुकर एक और मार्ग है, जिसमें साधक अपनी शक्ति के अनुसार ससीम रूप में व्रत स्वीकार करता है। ऐसे साधक के लिए जैन शास्त्रों में श्रमणोपासक शब्द का व्यवहार है। श्रमण और उपासक-ये दो शब्द इसमें हैं । उपासक का शब्दिक अर्थ उप-समीप बैठने वाला २ है। जो श्रमण की सन्निधि में बैठता है अर्थात् श्रमण से सद् ज्ञान तथा व्रत स्वीकार करता है, १. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् । पातञ्जलयोगदर्शन साधनापाद ३१ १. उप-समीपे, आस्ते-इत्युपासकः। [२०] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके महाव्रतमय जीवन में अनुप्राणित हाकर स्वयं भी साधना या उपासना के पथ पर आरूढ होता है, वह श्रमणोपासक है। उपासना या आराधना के सधने का मार्ग यही है। केवल कुछ पढ़ लेने से, सुन लेने से जीवन बदल जाय, यह संभव नहीं होता। साधनामय, महाव्रतमय-उच्च साधनामय जीवन का सान्निध्य, दर्शन-व्यक्ति के मन में एक लगन और टीस पैदा करते हैं, उस ओर बढ़ने की। अतः गृही साधक के लिए जो श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ, वह वास्तव में बड़ा अर्थपूर्ण है। ऐसे ही सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद् में बड़ी सुन्दर व्याख्या है। वहाँ लिखा है "साधनोद्यत व्यक्ति में जब बल जागरित होता है, वह उठता है अर्थात् भीतरी तैयारी करता है। उठकर परिचरण करता है-आत्मबल संजोकर उस ओर गतिमान् होता है। फिर वह गुरू के समीप बैठता है, उनका जीवन देखता है, उनसे [धर्म-तत्त्व का] श्रवण करता है, सुने हुए पर मनन करता है, उद्बुद्ध होता है और जीवन में तदनुरूप आचरण करता है, ऐसा होने पर ज्ञात को आचरित कर वह विज्ञाता-विशिष्ट ज्ञाता कहा जाता है।" उपनिषत्कार ने साधना के फलित होने का मनोवैज्ञानिक दष्टि से बहत ही सन्दर विश्लेषण किया है। श्रमणोपासक की भी भूमिका लगभग ऐसी ही होती है। केवल श्रमण के पास बैठने से वह श्रमणोपासक नहीं बन जाता, न वह सुनने मात्र से ही वैसा हो जाता है, श्रमणोपासकत्व का तो यथार्थ कियान्वयन तब होता है, जब वह असत् से विरत होता है, सत् में अनुरत होता है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में वह सम्यक् सावध का प्रत्याख्यान करता है, व्रत स्वीकार करता है। श्रमणोपासक के लिए एक दूसरा शब्द श्रावक है । वह शब्द 'श्रु' धातु से बना है। श्रावक का अर्थ सुनने वाला है। यहाँ श्रावक-सुननेवाला लाक्षणिक शब्द है। श्रमण का उपदेश सुन लेने से वह श्रोता तो होता है पर श्रावक नहीं हो जाता। उसे श्रावक संज्ञा तभी प्राप्त होती है, जब वह व्रत अंगीकार करता है। श्रावक के व्रतः एक मनोवैज्ञानिक क्रम जैनधर्म में श्रमणोपासक या श्रावक के व्रत-स्वीकार का क्रम भी बड़ा वैज्ञानिक है। वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपिरग्रह का स्वीकार तो करता है पर सीमित रूप में। अर्थात् अपने में जितना आत्मबल और सामर्थ्य संजो पाता है, तदनुरूप कुछ अपवादों के साथ वह इन व्रतों को ग्रहण करता है। यों श्रावक द्वारा स्वीकार किये जाने वाले व्रत श्रमण के व्रतों से परिपालन की दृष्टि से न्यून या छोटे होते हैं, इसलिए उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। व्रत अपने आपमें महत् या अणु नहीं होता। महत् या अणु विशेषण व्रत के साथ पालक की क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, जहाँ साधक अपने आत्मबल में कमी या न्यूनता नही देखता, वह सम्पूर्ण रूप में, सर्वथा व्रत १. स यदा बली भवति, अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवित, मन्ता भवति, बोद्धा भवित, कर्ता भवित, विज्ञाता भवति। -छान्दोग्योपनिषद ७.८.१ [२१] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालन में उद्यत रहता है। वह महान् कार्य है। इसीलिए उसके व्रत महाव्रत की संज्ञा पा लेते हैं। सीमा और अपवादों के साथ जहाँ साधक व्रत का पालन करता है, वहाँ उस द्वारा व्रत का पालन-अनुसरण न्यून या छोटा है, उस कारण व्रत के साथ अणु जुड़ जाता है। __ एक बहुत बड़ी विशेषता जैनधर्म की यह है कि श्रावकों के व्रतों में अपवादों का कोई इत्थंभूत एक रूप नहीं है। एक ही अहिंसाव्रत अनेक आराधकों द्वारा अनेक प्रकार के अपवादों के साथ स्वीकार किया जा सकता हैं । विभिन्न व्यक्तियों की क्षमताएं, सामर्थ्य विविध प्रकार का होता है। उत्साह, आत्मबल, पराक्रम एक जैसा नहीं होता। अनगिनत व्यक्तियों में वह अपने-अपने क्षयोपशम के अनुरूप अनगिनत प्रकार का हो सकता है। अतएव अपवाद स्वीकार करने में व्यक्ति का अपना स्वातन्त्र्य है। उस पर अपवाद बलात् आरोपित नहीं किये जा सकते। इससे कम, अधिक-सभी तरह की शक्ति वाले साधनोत्सुक व्यक्तियों को साधना में आने का अवसर मिल जाता है। फिर धीरे-धीरे साधक अपनी शक्ति को बढ़ाता हुआ आगे बढ़ता जाता है। अपवादों को कम करता जाता है। वैसा करते-करते वह श्रमणोपासक की भूमिका में श्रमणभूत-श्रमणसदृश तक बन सकता है। यह गहरा वैज्ञानिक तथ्य है। आगे बढना. प्रगति करना जैसा अप्रतिबद्ध आदि निन्द्र मानस से सधता हैं. वैसा प्रतिबद्ध और निगृहीत मानस से नहीं सध सकता। यह अतिशयोक्ति नहीं है कि गृही साधना में जैन धर्म की यह पद्धति निःसन्देह बेजोड़ है। अतिचार-वर्जन आदि द्वारा उसकी मनोवैज्ञानिकता और गहरी हो जाती है, जिससे व्रती जीवन का एक सार्वजनीन पवित्र रूप निखार पाता है। उपासकदशा : प्रेरक विषयवस्तु . उपासकदशा अंगसूत्रों में एकमात्र ऐसा सूत्र है, जिसमें सम्पूर्णता श्रमणोपासक या श्रावकजीवन की चर्चा है । भगवान् महावीर के समसामयिक आनन्द, कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, कुंडकौलिक, सकडालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता तथा शालिहीपिता-इन दस श्रमणोपासकों के जीवन का इसमें चित्रण है। भगवान् महावीर के ये प्रमुख श्रावक थे। समृद्ध जीवनः ऐहिक भी : पारलौकिक भी उपासकदशा के पहले अध्ययन में आनन्द नामक श्रावक के उपासनामय जीवन का लेखाजोखा है। विविध प्रसंगों में आये वर्णन से स्पष्ट है कि तब भारत की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी थी। आनन्द तथा प्रस्तुत सूत्र में वर्णित अन्य श्रावकों के वैभव के जो आँकड़े दिये हैं, वे सहसा कपोलकल्पितसे लगते हैं पर वस्तुस्थिति वैसी नहीं है। वास्तव में विशालभूमि, वृहत् पशुधन, अपेक्षाकृत कम जनसंख्या आदि के कारण 'कुछ एक' वैसे विशिष्ट धनी भी होते थे। धन की मूल्यवता अक्सर स्वर्णमुद्राओं में आंकी जाती थी। __ऐसा लगता है, उस समय के समृद्धिशाली जनों का मानस उत्तरोत्तर सम्पत्ति बढ़ाते रहने की लालसा में अपनी निश्चिन्तता खोना नहीं चाहता था। ऐसी वृद्धि में उनका विश्वास नहीं था, जो कभी सब कुछ ही विलुप्त कर दे। इसलिए यहाँ वर्णित दसों श्रमणोपासकों के सुरक्षित निधि (Reserve fund) के रूप में उनकी पूंजी का तृतीयांश पृथक् रखा रहता था। घर के परिवार के उपयोग हेतु दैनन्दिन [२२] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सामान, साधन, सामग्री आदि में भी अपनी सम्पत्ति का तृतीयांश वे लगाये रहते थे । वहाँ उपयोगिता, सुविधा तथा शान या प्रतिष्ठा का भाव भी था । दान, भोग और नाश-धन की इन तीनों गतियों से वे अभिज्ञ थे, इसलिए समुचित भोग में भी उनकी रूचि थी । तृतीयांश व्यापार में लगा रहता था । व्यापार में कदाचित् हानि भी हो जाए, सारी पूंजी चली जाए तो भी उनका प्रशस्त एवं प्रतिष्ठापन्न व्यवस्थाक्रम टूटता नहीं था। इसलिए उनके जीवन में एक निश्चिन्तता और अनाकुलता का भाव था । तभी यह सम्भव हो सका कि उन्होंने श्रमण भगवान् महावीर के दर्शन और सान्निध्य का लाभ प्राप्त कर अपना जीवन भोग से त्याग की ओर मोड़ दिया । आत्मप्रेरणा से अनुप्राणित होकर व्यक्ति जब त्यागमय जीवन स्वीकार करता है तो उसे जैसे भोग में आनन्द आता था, त्याग में आनन्द आने लगता है और विशेषता यह है कि यह आनन्द पवित्र, स्वस्थ एवं श्रेयस्कर होता है । सहसा आश्चर्य होता है, आनन्द तथा दूसरे श्रमणोपासक के अत्यन्त समृति और सुखसुविधामय जीवन को एक ओर देखते हैं, दूसरी ओर यह देखते हैं, जब वे त्याग के पथ पर आगे बढ़ते हैं तो उधर इतने तन्मय हो जाते है कि भोग स्वयं छूटते जाते हैं । देह अस्थि-कंकाल बन जाता है, पर वे परम परितुष्ट और प्रहृष्ट रहते हैं । त्याग के रस की अनुभूति के बिना यह कभी सम्भव नहीं हो पाता । एक अद्भुत घटना : सत्य की गरिमा आनन्द के जीवन की एक घटना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । तपश्चरण एवं साधना के फलस्वरूप अवधिज्ञानावरण के क्षयोपशम से आन्नद अवधिज्ञानी हो जाता है । भगवान् महावीर के प्रमुख अन्तेवासी गौतम से अवधिज्ञान की सीमा के सम्बन्ध में हुए वार्तालाप में एक विवादास्पद प्रसंग बन जाता है । भगवान् महावीर आनन्द के मन्तव्य को ठीक बतलाते हैं। गौतम आनन्द के पास आकर क्षमा-याचना करते हैं। बड़ा उद्बोधक प्रसंग यह है । आनन्द एक गृही साधक था । गौतम भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरों में सबसे मुख्य थे। पर, कितनी ऋजुता और अहंकार-शून्यता का भाव उनमें था । वे प्रसन्नतापूर्वक अपने अनुयायी- अपने उपासक से क्षमा मांगते हैं। जैनदर्शन का कितना ऊँचा आदर्श यह है, व्यक्ति बड़ा है। सत्य के प्रति हर किसी को अभिनत होना ही चाहिए। इससे फलित और निकलता है, साधना के मार्ग में एक गृही भी बहुत आगे बढ़ सकता है क्योंकि साधना के उत्कर्ष का आधार आत्मपरिणामों की विशुद्धता है । उसे जो जितना साध ले, वह उतना ही ऊर्ध्वगमन कर सकता 1 | साधना की कसौटी श्रेयांसि बहुविघ्नानि-श्रेयस्कर कार्यों में अनेक विघ्न आते ही है, अक्सर यह देखते हैं, पढ़ते हैं। प्रस्तुत आगम के दस उपासकों में से छह के जीवन में उपसर्ग या विघ्न आये। उनमें चार अन्ततः विघ्नों से विचलित हुए पर तत्काल सम्हल गये । दो सर्वथा अविचल और अडोल रहे । उपसर्ग अनुकूल-प्रतिकूल या मोहक - ध्वंसक - दोनों प्रकार के ही होते हैं । दूसरे अध्ययन का प्रसंग है, श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में साधनारत था। एक देव ने उसे विचलित करने के लिए उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। उसके पुत्रों की नृशंस हत्या कर [२३] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाली पर वह दृढ़चेता उपासक तिलमात्र भी विचलित नहीं हुआ। यद्यपि यह देव की विक्रियाजन्य माया थी पर कामदेव को तो यथार्थ भासित हो रही थी। मनुष्य किसी भी कार्य में तब तक सुदृढ रह सकता है, जब तक उसके सामने मौत का भय न आए। पर, कामदेव ने दैहिक विध्वंस की परवाह नहीं की। तब देव ने उसके हृदय के कोमलतम अंश का संस्पर्श किया। पिता को पत्रों से बहुत प्यार होता है। जिनके पुत्र नहीं होता, वे उसके लिए तड़फते रहते हैं । कामदेव के सामने उसके देखते-देखते तीनों पुत्रों की हत्या कर दी गई पर वह आत्मबली साधक निष्प्रकम्प रहा। तभी तो भगवान् महावीर ने साधुसाध्वियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उसे प्रस्तुत किया। जो भीषण विघ्न-बाधाओं के बावजूद धर्म में सुदृढ बना रहता है, वह निश्चय ही औरों के लिए आदर्श है। तीसरे अध्ययन में चुलनीपिता का प्रसंग है। चुलनीपिता को भी ऐसे ही विघ्न का सामना करना पड़ा। पुत्रों की हत्या से तो वह अविचल रहा पर देव ने जब उसकी पूजनीया माँ की हत्या की धमकी दी तो वह विचलित हो गया। माँ के प्रति रही अपनी ममता वह जीत नहीं सका। वह तो अध्यात्म की ऊँची साधना में था, जहाँ ऐसी ममता बाधा नहीं बननी चाहिए, पर बनी। चुलनीपिता भूल का प्रायश्चित्त कर शुद्ध हुआ। चौथे अध्ययन में श्रमणोपासक सुरादेव का कथानक है। उनकी साधना में भी विघ्न आया। पुत्रों की हत्या से उपसर्गकारी देव ने जब उसे अप्रभावित देखा तो उसने शरीर में भीषण सोलह रोग उत्पन्न कर देने की धमकी दी। मनुष्य मौत को स्वीकार कर सकता है, पर अत्यन्त भयानक रोगों से जर्जर देह उसके लिए मौत से कहीं अधिक भयावह बन जाती है, सुरादेव के साथ भी यही घटित हुआ। उसका व्रत भग्न हो गया। उसने आत्म-परिष्कार किया। पांचवे अध्ययन में चुल्लशतक सम्पत्ति-नाश की धमकी से व्रत-च्युत हुआ। कुछ लोगों के लिए धन पुत्र, माता, प्राण-इन सबसे प्यारा होता है। वे और सब सह लेते हैं पर धन के विनाश की आशंका उन्हें अत्यन्त आतुर तथा आकुल बना देती है। चुल्लशतक तीनों पुत्रों की हत्या तक चुप रहा पर आलभिका [नगरी] की गली-गली में उसकी सम्पत्ति बिखेर देने की बात से वह कांप गया। सातवें अध्ययन में सकडालपुत्र का कथानक है। वह भी पुत्रों की हत्या तक तो अविचल रहा पर उसकी पत्नी अग्निमित्रा जो न केवल गृहस्वामिनी थी, उसके धार्मिक जीवन में अनन्य सहयोगिनी भी थी, की हत्या की धमकी जब सामने आई तो वह हिम्मत छोड़ बैठा। यहाँ एक बात विशेष महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति अपने मन में रही किसी दुर्बलता के कारण एक बार स्थानच्युत होकर पुनः आत्मपरिष्कार कर, प्रायश्चित कर, शुद्ध होकर ध्येयनिष्ठ बन जाय तो वह भूल फिर नहीं रहती। भूल होना असंभव नहीं है पर भूल हो जाने पर उसे समझ लेना, उसके लिए अन्तर-खेद अनुभव करना, फिर अपने स्वीकृत साधना-पथ पर गतिमान् हो जाना-यह व्या उच्चता का चिह्न है । छओं उपासकों के भूल के प्रसंग इसी प्रकार के हैं । जीवन में अवशिष्ट रही ममता, आसक्ति आदि के कारण उनमें विचलन तो आया पर वह टिक नहीं पाया। __ आठवें अध्ययन में श्रमणोपासक महाशतक के सामने एक विचित्र अनुकूल विघ्न आता है। उसकी प्रमुख पत्नी रेवती, जो घोर मद्य-मांस-लोलुपता-और कामुक थी, पोषधशाला में पोषध और [२४] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यान में स्थित पति को विचलित करना चाहती है। एक ओर त्याग का तीव्र ज्यातिर्मय सूर्य था, दूसरी ओर पाप की कालिमामयी तमिस्त्रा। त्याग की ज्योति को ग्रसने के लिए कालिमा खूब झपटी पर वह सर्वथा अकृतकार्य रही। रेवती महाशतक को नहीं डिगा सकी। पर, एक छोटी-सी भूल महाशतक से तब बनी। रेवती की दुश्चेष्टओं से उसके मन में क्रोध का भाव पैदा हुआ। उसे अवधिज्ञान प्राप्त था। रेवती की सात दिन के भीतर भीषण रोग, पीडा एवं वेदना के साथ होने वाली मृत्यु की भविष्यवाणी उसने अपनी अवधिज्ञान के सहारे कर दी। मृत्यु के भय से रेवती अत्यन्त व्यकक्त किया जाए, यह वांछनीय नहीं है। जो सत्य दुसरों के मन में भय और आतंक उत्पन्न कर दे, वक्ता को वह बोलने में विशेष विचार तथा संकोच करना होता है। इसलिए भगवान् महावीर ने अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को भेजकर महाशतक को सावधान किया। महाशतक पुनः आत्मस्थ हुआ। ___ छठे अध्ययन का चरितनायक कुण्डकौलिक एक तत्त्वनिष्णात श्रावक के रूप में चित्रित किया गया है। एक देव और कुण्डकौलिक के बीच नियतिवाद से देव निरूत्तर हो जाता है। भगवान् महावीर विज्ञ कुण्डकौलिक का नाम श्रमण-श्रमणियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उपस्थित करते हैं। कुण्डकौलिक का जीवन श्रावक-श्राविकाओं के लिए तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने हेतु एक प्रेरणास्पद उदाहरण है। यथार्थ की ओर रूझान उपासकदशा के दसों अध्ययनों के चरितनायकों का लौकिक जीवन अत्यन्त सुखमय था। उन्हें सभी भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रचुर और पर्याप्त रूप से प्राप्त थी। यदि यही जीवन का प्राप्य होता तो उनके लिए और कुछ करणीय रह ही नहीं जाता। क्यों वे अपने प्राप्त सुखों को घटाते-घटाते बिलकुल मिटा देते? पर वे विवेकशील थे। भौतिक सुखों की नश्वरता को जानते थे। अत: जीवन का यथार्थ प्राप्य. जिसे पाए बिना और सब कछ पा लेने अन्तर्विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ होते नहीं, को प्राप्त करने की मानव में तो एक अव्यक्त उत्कण्ठा होती है, वह उन सबमें तत्क्षण जाग उठती है, ज्यों ही उन्हें भगवान् महावीर का सान्निध्य प्राप्त होता है। जागरित उत्कण्ठा जब क्रियान्विति के मार्ग पर आगे बढ़ी तो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गईऔर उन साधकों के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वे देहसुख को मानो सर्वथा भूल गये। त्याग में, आत्मस्वरूप के अधिगम में अपने आपको उन्होंने इतना खो दिया कि अत्यन्त कृश और क्षीण होते जाते अपने शरीर की भी उन्हें चिन्ता नहीं रही। भोग का त्याग में यह सुखद पर्यवसान था। साधारणतया जीवन में ऐसा सध पाना बहुत कठिन लगता है। सुख-सुविधा और अनुकूलता के वातावरण में पला मानव उन्हें छोड़ने की बात सुनते ही घबरा उठता है। पर, वह दुर्बलचेता पुरूषों की बात है। उपनिषद् के ऋषि ने 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' यह जो कहा है, बड़ा मार्मिक है। बलहीन-अन्तर्बलरहित व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकता। पर, बलशीलअन्तःपराक्रमशाली पुरूष वह सब सहज ही कर डालता है, जिससे दुर्बल जन काँप उठते हैं। सामाजिक दायित्व से मुक्ति : अवकाश मनुष्य जीवन भर अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा लौकिक दायित्वों के निर्वाह में ही लगा [२५] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहे, भारतीय चिन्तनधारा में यह स्वीकृत नहीं है । वहाँ यह वाञ्छनीय है कि जब पुत्र घर का, परिवार का, सामाजिक सम्बन्धों का दायित्व निभाने योग्य हो जाएँ, व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम भाग आत्मा के चिन्तन, मनन, अनुशीलन आदि में लगाए । वैदिकधर्म में इसके लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-यों चार आश्रमों का क्रम । ब्रह्मचर्याश्रम विद्याध्ययन और योग्यता - संपादन का काल है । गृहस्थाश्रम सांसारिक उत्तरदायित्व - निर्वाह का समय है । वानप्रस्थाश्रम गृहस्थ और संन्यास के बीच का काल है, जहाँ व्यक्ति लौकिक आसक्ति से क्रमशः दूर होता हुआ सन्यास के निकट पहुँचने का प्रयास करता है।'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्' ऐसा वैदिकधर्म में जो शास्त्र - वचन है, उसका आशय ब्रह्मचर्याश्रम द्वारा ऋषिऋण द्वारा पितृऋण तथा वानप्रस्थाश्रम द्वारा देवऋण अपाकृत कर चुकाकर मनुष्य अपना मन मोक्ष में लगाए । अर्थात् सांसारिक वाञ्छाओं से सर्वथा पृथक् होकर अपना जीवन मोक्ष की आराधना में लगा दे। जैनधर्म में ऐसी आश्रम व्यवस्था तो नहीं है पर श्रावक-जीवन में क्रमशः मोक्ष की ओर आगे बढने का सुव्यवस्थित मार्ग है। श्रावक - प्रतिमाएँ इसका एक रूप है, जहाँ गृही साधक उत्तरोत्तर मोक्षोन्मुखता, तितिक्षा और संयत जीवन-चर्या में गतिमान् रहता है । भगवान् महावीर के ये दसों श्रावक विवेकशील थे । भगवान् से उन्होंने जो पाया, उसे सुनने तक ही सीमित नहीं रखा, जो उन सब द्वारा तत्काल श्रावक - व्रत स्वीकार कर लेने से प्रकट है। उन्होंने मन ही मन यह भाव भी संजोए रखा कि यथासमय लौकिक दायित्वों, सम्बन्धों और आसक्तियों से मुक्त होकर वे अधिकांशतः धर्म की आराधना में अपने को जोड़ दें । आनन्द के वर्णन में उल्लेख है कि भगवान् महावीर से व्रत ग्रहण कर वह १४ वर्ष तक उस ओर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया । १५ वें वर्ष में एक रात उसके मन में विचार आया कि अब उसके पुत्र योग्य हो गये हैं । अब उसे पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों से अवकाश ले लेना चाहिए। उस समय के लोग बड़े दृढनिश्चयी थे । सद् विचार को क्रियान्वित करने में वे विलम्ब नहीं करते थे। आनन्द ने भी विलम्ब नही किया दूसरे दिन उसने अपने पारिवारिकों, मित्रों तथा नागरिकों को दावत दी, अपने विचार से सब को अवगत कराया और उन सब के साक्ष्य में अपने बड़े पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व सौंपा। बहुत से लोगों को दावत देने में प्रदर्शन की बात नही थी । उसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। समाज के मान्य तथा सम्भ्रान्त व्यक्तियों के बीच उत्तरदायित्व सौंपने का एक महत्त्व था । उन सबकी उपस्थिति में पुत्र द्वारा दायित्व स्वीकार करना भी महत्त्वपूर्ण था । यों विधिवत् दायित्व स्वीकार करने वाला उससे मुकरता नहीं। बहुत लोगों का लिहाज, उनके प्रति रही श्रद्धा, उनके साथ के सुखद सम्बन्ध उसे दायित्व - निर्वाह की प्रेरणा देते रहते हैं । जैसा आनन्द ने किया, वैसा ही अन्य नौ श्रमणोपासकों ने किया । अर्थात् उन्होंने भी सामुहिक भोज के साथ अनेक सम्भ्रान्त जनों की उपस्थिति में अपने-अपने पुत्रों को सामाजिक व पारिवारिक कार्यों के संवहन में अपने-अपने स्थान पर नियुक्त किया। बहुत सुन्दर चिन्तन तथा तदनुरूप आचरण उनका था। इस दृष्टि से भारत का प्राचीन काल बहुत ही उत्तम और स्पृहणीय था। महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश में भगवान् राम के पूर्वज सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है- [२६] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सूर्यवंशी राजा बचपन में विद्याध्ययन करते थे, यौवन में सांसारिक सुख भोगते थे, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति-मोक्षमार्ग का अवलम्बन करते थे और अन्त में योग या समाधिपूर्वक देहत्याग करते थे। विवेक का तकाजा है, व्यक्ति एक पशु या साधारण जन की मौत क्यों मरे। उसे योग या समाधिपूर्वक मरना चाहिए। वह पशु नही हँ, मननशील मानव है । इन दसों उपासकों ने ऐसा ही किया। इन दसों की मृत्यु-समाधियम मृत्यु पवित्र और उत्तम मृत्यु थी। वहाँ मरण शोक नही, महोत्सव बन जाता है। समाधिपूर्वक देह-त्याग निश्चित ही मरण-महोत्सव है। पर, इसके अधिकारी आत्मबली पुरूष ही होते है, जिनका जीवन विभाव से स्वभाव की ओर मुड़ जाता है। सामाजिक स्थिति दसों श्रमणोपासकों के पास गोधनों का प्राचुर्य था। इससे प्रकट है कि गोपालन का उन दिनों भारत में काफी प्रचलन था। इतनी गाये रखने वाले के पास कृषिभूमि भी उसी अनुपात में होनी चाहिए। आनन्द की कृषिभूमि ५०० हल परिमाण बतलाई गई है। गाय दूध, दही तथा घृत के उपयोग का पशु तो था ही, उसके बछडे बैलों के रूप में खेती के, सामान ढोने के तथा रथ आदि सवारियों के वाहन खींचने के उपयोग में आते थे। उस समय के जन-जीवन में वास्तव में गाय और बैल का बड़ा महत्त्व था। उन दिनों लोगों का जीवन बड़ा व्यवस्थित था। हर कार्य का अपना विधिक्रम और व्यवस्थाक्रम था। भगवान् महावीर के दर्शन हेतु शिवनन्दा अदि के जाने का जब प्रसंग आता है, वहाँ धार्मिक उत्तम यान का उल्लेख है, जो बैलों द्वारा खींचा जाता था। वह एक विशेष रथ था, जिसकी धार्मिक कार्यों हेतु जाने में सवारी के लिए उपयोग होता था। आनन्द ने श्रावक-व्रत ग्रहण करते समय खाद्य, पेय परिधेय, भोग, उपभोग आदि का जो परिमाण किया, उससे उस समय के रहन-सहन पर काफी प्रकाश पड़ता है। अभ्यंगन-विधि के परिमाण में शतपाक एवं सहस्त्रपाक तैलों का उल्लेख है। इससे यह प्रकट होता है कि तब आयर्वेद काफी विकसित था। औषधियों से बहुत प्रकार के गुणकारी, बहुमूल्य तैल तैयार किये जाते थे। __खानपान, रहन-सहन आदि बहुत परिमार्जित थे। आनन्द दतौन के लिए हरी मुलैठी का परिमाण करता है; मस्तक, केश आदि धोने के लिए दूधिया आंवले का और उबटनों में गेहूं आदि के आटे के साथ सुगन्धित पदार्थ मिलाकर तैयार की गई पीठी का परिमाण करता है। विशिष्टि लोग देह पर चन्दन, कुंकम आदि का लेप भी करते थे। लोगों में आभूषण धारण करने की भी रूचि थी। बड़े लोग संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषण पहनते थे। पुरूषों में अंगूठी पहनने का विशेष रिवाज था। आनन्द ने अपनी नामांकित अंगूठी के रूप में आभूषण-परिमाण किया था। रथ में जुतने वाले बैलों को भी बड़े लोग सोने, चांदी के गहने १. शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम् । वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजान् ॥ --रघुवंश सर्ग १ [२७] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहनाते थे। चांदी की घंटियां गले में बांधते थे । उन्हें सुन्दर रूप में सजाते थे। सातवें अध्ययन में अमित्रा के धार्मिक यान का यहाँ वर्णन आया है, उससे यह प्रकट होता है । भोजन के बाद सुपारी, पान, पान के मसाले आदि सेवन करने की भी लोगों में प्रवृत्ति थी । प्रस्तुत गन्थ में वर्णित दस श्रावकों में से नौ के एक-एक पत्नी थी । महाशतक के तेरह पत्त्रियां थी। उससे यह प्रकट होता है कि उस समय बहुपत्नीप्रथा का भी कहीं कहीं प्रचलन था । पितृगृह से कन्याओं का विवाह के अवसर पर सम्पन्न घरानों में उपहार के रूप में चल, अचल सम्पत्ति देने का रिवाज था, जिस पर उन्ही [ पुत्रियों ] का अधिकार रहता । महाशतक की सभी पत्नियों को वैसी सम्पत्ति प्राप्त थी । जहाँ अनेक पत्नियाँ होती, वहाँ सौतियां डाह भी होता, जो महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती के चरित्र से प्रकट है। उसने अपनी सभी सौतों की हत्या करवा डाली और उनके हिस्से की सम्पत्ति हड़प ली । प्रायः प्रत्येक नगर के बाहर उद्यान होता जहाँ सन्त महात्मा ठहरते । ऐसे उद्यान लोगों के सार्वजनिक उपयोग के लिए होते। छठे और सातवें अध्ययन में सहस्त्राम्रवन - उद्यान का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है, ऐसे उद्यान भी उन दिनों रहे हों, जहाँ आम के हजार पेड़ लगे हों। यह सम्भव भी है क्योंकि जिन प्रदशों का प्रसंग है, वहाँ आम की बहुतायत से पैदावार होती थी, आज भी होती है । ध्यान, चिन्तन, मनन तथा आराधना के लिए शान्त स्थान चाहिए । अतः श्रमणोपासक विशेष उपासना हेतु पोषधशालाओं का उपयोग करते । इसके अतिरिक्त ध्यान एवं उपासना के लिए वे वाटिकाओं के रूप में अपने व्यक्तिगत शान्त वातावरणमय स्थान भी रखते । छठे और सातवें अध्ययनः में कुण्डकौलिक और सकडालपुत्र द्वारा अपनी अशोक वाटिकाओं में जाकर धर्मोपासना करने का उल्लेख है । श्रमणोपासक आनन्द के व्रतग्रहण के सन्दर्भ में उपभोग - परिभोग- परिमाणव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत १५ कर्मदानों का वर्णन है, जो श्रावक के लिए अनाचरणीय हैं। वहाँ जिन कामों का कर्मादानों में पाँचवाँ स्फोटन - कर्म है। इसमें खानें खोदना, पत्थर फोड़ना आदि का समावेश है । इससे प्रकट होता है कि खनिज व्यवसाय उन दिनों प्रचलित था । समृद्ध व्यापारी ऐसे कार्यो के ठेके लेते रहे हों, उन्हें करवाने की व्यवस्था करते रहे हों । हाथी-दाँत, हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी तब चलता था, जो दन्त - वाणिज्यसंज्ञक छठे कर्मादान में व्यक्त है । दास-प्रथा का तब भारत में प्रचलन था । दसवाँ कर्मादान केश-वाणिज्य इसका सूचक है। - वाणिज्य में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-बिक्री के साथसाथ दास-दासियों की खरीद-बिकी का धन्धा भी शामिल था । सम्पत्ति में चतुष्पद प्राणियों के साथसाथ द्विपद प्राणियों की भी गिनती होती थी । द्विपदों में मुख्यतः दास-दासी आते थे। इस काम को कर्मादान के रूप में स्वीकार करने का यह आशय है कि एक श्रावक दास प्रथा के कुत्सित काम से [२८] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचे, मनुष्यों का क्रय-विक्रय न करे। इससे यह भी ध्वनित होता है, जैन परम्परा दास-प्रथा के विरूद्ध थी। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन आगम न केवल जैनधर्म के सिद्धान्त, आचार, रीति नीति आदि के ज्ञान हेतु ही पढ़ने आवश्यक हैं वरन् अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व के भारतीय समाज के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से भी उनका अनुशीलन आवश्यक और उपयोगी है। वास्तव में प्राकृत जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक ही उस काल से सम्बद्ध ऐसा साहित्य है, जिसमें जन-जीवन के सभी अंगों का वर्णन, विवेचन हुआ। यह ऐसा साहित्य नहीं है, जिसमें केवल राजन्यवर्ग या अभिजात्यवर्ग का स्तवन या गुणकीर्तन हुआ हो। इसमें किसान, मजदूर, चरवाहे, व्यापारी, स्वामी, सेवक, राजा, मन्त्री, अधिकारी आदि समाज के सभी छोटे-बड़े वर्गों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भाषा, शैली जैसा ऊपर सूचित किया गया है, जैन आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में हैं, जिस पर महाराष्ट्री का काफी प्रभाव है। इसलिए डॉ. हर्मन जैकोबी ने तो जैन आगमों की भाषा को जैन महाराष्ट्री की संज्ञा भी दे दी थी पर उसे मान्यता पाप्त नहीं हुई। उपासकदशा में व्यवहृत अर्द्धमागधी में महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का काफी प्रयोग देखा जाता है, जैसे उदाहरणार्थ इसमें 'सावग' और 'सावय' ये दोनों प्रकार के रूप आये हैं। भाषा सरल, प्राञ्जल और प्रवाहमय है। वर्णन में सजीवता है। कई वर्णन तो बड़े ही मार्मिक और अन्त:स्पर्शी हैं । उदाहरणार्थ दूसरे अध्ययन में श्रमणोपासक कामदेव को विचलित करने के लिए उपसर्गकारी देव का वर्णन है। देव के पिशाच-रूप का जो वर्णन वहाँ हुआ है; वह आश्चर्य, भय और जुगुप्सा--तीनों का सजीव चित्र उपस्थित करता है। वहाँ उल्लेख है, उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे, वह गिरगिटों और चूहों की माला पहने था, उसने अपनी देह पर दुपट्टे की तरह सांपों को लपेट रखा था, उसका शरीर पाँच रंगों के बहुविध केशों से ढंका था। कितनी विचित्र कल्पना यह है । और भी विस्मयकर अनेक विशेषण वहाँ हैं। जैसी कि आगमों की शैली है, एक ही बात कई बार पुनरावृत्त होती रहती है। जैसे किसी ने किसी से कुछ सुना, यदि उसे अन्यत्र इसे कहना हो तो यह सारी की सारी बात दुहरायेगा। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर ऐसा हुआ है। अनावश्यक अति विस्तार से बचने के लिए आगमों में सर्वसामान्य वर्णनों के लिए 'जाव' और 'वण्णओ' द्वारा संकेत कर दिया जाता है, जिसके अनुसार अन्य आगमों से यह वर्णन ले लिया जाता है। शताब्दियों तक कण्ठाग्र-विधि से आगमों को सुरक्षित रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत हआ। सामान्यतः राजा. श्रेष्ठी. सार्थवाह, नगर. उद्यान. चैत्य. सरोवर आदि का वर्णन प्रायः एक जैसा होता है। अतः इनके लिए वर्णन का एक विशेष स्वरूप (Standard) मान लिया गया, जिसे साधारणतया सभी राजाओं, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों, नगरों, उद्यानों, चैत्यों, सरोवरों आदि के लिए उपयोग में लिया जाता रहा। प्रस्तुत आगम में भी ऐसा ही हुआ है। हिन्दी अनुवाद सहित आगमप्रकाशन : भारत में कतिपय जैन आगमों का मूल तथा सटीक रूप में समय-समय पर प्रकाशन होता रहा है। [२९] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राष्ट्रभाषा हिन्दी में अनुवाद के साथ बत्तीसों आगमों का सबसे पहला प्रकाशन अब से लगभग छह दशक पूर्व दक्षिण हैदराबाद में हुआ। इनका संपादन तथा अनुवाद लब्धप्रतिष्ठ आगम-विद्वान् समादरणीय मुनि श्री अमोलकऋषिजी महाराज ने किया। तब के समय और स्थिति को देखते हुए निश्चय ही यह एक महत्त्वपूर्ण कार्य था। तबसे पूर्व हिन्दी भाषी जनों को आगम पढ़ने का अवसर ही प्राप्त नहीं था। इन आगमों का सभी जैन सम्प्रदायों मुनियों और श्रावकों ने उपयोग किया। श्रुत-सेवा का वास्तव में यह एक श्लाघनीय कार्य था। आज वे आगम अप्राप्य (Out of Print) हैं। बत्तीसों आगमों के संपादन, अनुवाद एवं प्रकाशन का दूसरा प्रयास लगभग, उसके दो दशक बाद जैन शास्त्राचार्य पज्य श्री घासीलाल जी महाराज द्वारा करांची से चाल हआ। वर्षों के परिश्रम से वह अहमदाबाद में सम्पन्न हुआ। उन्होंने स्वरचित संस्कृत टीका तथा हिन्दी तथा हिन्दी एवं गुजराती अनुवाद के साथ सम्पादन किया। वे भी आज सम्पूर्ण रूप में प्राप्त नहीं हैं। फुटकर रूप में आगम-प्रकाशन कार्य सामान्यतः गतिशील रहा। वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्रथम आचार्य आगम-बाङ् मय के महान् अध्येता, प्रबुद्ध मनीषी पूज्य आत्माराम जी महाराज द्वारा कतिपय आगमों का संस्कृत-छाया, हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या के साथ सम्पादन किया गया, जो वास्तव में बड़ा उपयोगी सिद्ध हुआ। आज वे सब आगम भी प्राप्त नहीं हैं । जैन श्वेताम्बर तेरापंथ की ओर से भी आगमप्रकाशन का कार्य चल रहा है। विस्तृत विवेचना, टिप्पणी आदि के साथ कतिपय आगम प्रकाश में आयें है। सभी प्रयास जो हुए हैं, हो रहे हैं, अभिनन्दनीय हैं। आज की आवश्यकता हिन्दी जागत् में वर्षों से आज की प्रांजल भाषा तथा अधुनातन शैली में हिन्दी अनुवाद के साथ आगम प्रकाशन की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी। देश का हिन्दी-भाषी क्षेत्र बहुत विशाल है। हिन्दी - भाषा में कोई साहित्य देने का अर्थ है कोटि-कोटि मानवों तक उसे पहुंचाना। जैन आगम केवल विद्वद्भोग्य नहीं हैं, जन-जन के लिए उनकी महनीय उपयोगिता है। आज के समस्यासंकुल युग में, जब मानव को शान्ति का मार्ग चाहिए, वे और भी उपयोगी हैं। जन-जन के लिए वे उपयोगी हो सकें, इस हेतु मूलग्राही भावबोधक अनुवाद और जहाँ अपेक्षित हो, सरल रूप में संक्षिप्त विवेचन के साथ आगमों का प्रकाशन हिन्दी-जगत् के लिए आज की अनुपेक्षणीय आवश्यकता है। जैन जगत् के लिए आज की अनुपेक्षणीय आवश्यकता है। जैन जगत् के सुप्रसिद्ध विद्वान् एवं लेखक, पण्डितरत्न, वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमणसंघ के युवाचार्य पूज्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज के मन में बहुत समय से यह बात थी। उन्हीं की आध्यात्मिक प्रेरणा की यह फल-निष्पत्ति है कि ब्यावर [राजस्थान] में आगम-संपादन, अनुवाद त्वरापूर्वक गतिशील है। सहभागित्व पिछले कुछ वर्षों से श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज से मेरा श्रद्धा एवं सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध है। उनके निश्छल, निर्मल, सरल व्यक्तित्व की मेरे मन पर एक छाप है। वे वरिष्ठ विद्वान् तो हैं ही, साथ ही साथ विद्वानों एवं गुणियों का बड़ा आदर करते हैं। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि मुझे उनका [३०] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार्दिक अनुग्रह एव सात्त्विक स्नेह प्राप्त है। पिछले तीस वर्षों से भारतीय विद्या (Indology) और विशेषतः प्राकृत तथा जैन विधा (Jainology) के क्षेत्र में अध्ययन, अनुसन्धान, लेखन, अध्यापन आदि के सन्दर्भ में कार्यरत रहा हूँ। यह मेरी आन्तरिक अभिरूचि का विषय है, व्यवसाय नहीं। अत: मुझे प्रसन्नता का अनुभव हुआ। मेड़ता निवासी मेरे अनन्य मित्र युवा साधक एवं साहित्यसेवी श्रीमान् जतनराजजी मेहता, जो आगम प्रकाशन समिति के महामन्त्री मनोनीत हुए, ने भी मुझे विशेष रूप से प्रेरित किया। श्रुत की सेवा का सुन्दर अवसर जान, मैंने उधर उत्साह दिखाया। सातवें अंग उपासकदशा का कार्य मेरे जिम्मे आया। मैंने उपासकदशा का कार्य हाथ में लिया। सम्पादन, अनुवाद, विवेचन पहला कार्य पाठ-सम्पादन का था। मैंने उपासकदशा के निम्नाङ्कित संस्करण हस्तगत किये१. उपासकदशासूत्रम्-सम्पादक, डॉ० एम०ए० रूडोल्फ हार्नले। प्रकाशक-बंगाल एशियाटिक सोसायटी कलकत्ता। प्रथम संस्करण : १८९० ई० २. श्रीमद् अभयदेवाचार्यविहितविवरणयुतं श्रीमद् उपासकदशांगम्। प्रकाशक-आगमोदय समिति, महेसाणा, प्रथम संस्करण १९२० ई० ३. उपासकदशांगसूत्रम्-वृतिरचयिता-जैनशास्त्राचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराज। प्रकाशक-श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ, कराची। प्रथम संस्करणः १९३६ ई० ४. श्री उपासकदशांगसूत्र-अनुवादक-जैनधर्मदिवाकर आचार्य श्री आत्मारामजी महाराज । प्रकाशक-आचार्य __ श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना। प्रथम संस्करण : १९६४ ई० । ५. उपासकदशांगसूत्रम-अनुवाद-वी० घीसूलाल पितलिया। प्रकाशक-अ० भा० साधुमार्गी जैन संस्कृति ___रक्षक संघ, सैलाना [मध्यप्रदेश] । प्रथम संस्करण : १९७७ ई०। ६. उवासगदसाओ-श्रीमद् अभयदेव सूरि विरचित मूल अने टीकाना अनुवाद सहित [लिपि-देवनागरी, भाषा-गुजराती] अनुवादक अने प्रकाशक-पं० भगवानदास हर्षचन्द्र । प्रथम संस्करण : वि० सं० १९९२ ई०, जैनानन्द पुस्तकालय, गोपीपुरा, सूरत। ७. अंगसुत्ताणि-३.सम्पादक-मुनि नथमलजी। प्रकाशक-जैन विश्व भारती, लाडनूं। प्रथम संस्करण : सं० २०३१ ई०। उपासकदशांग-अनुवादक, सम्पादक-डॉ० जीवराज घेलाभाई दोशी, अहमदाबाद [देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा] । ९. उपासकदशासूत्र-सम्पादक, अनुवादक-बाल-ब्रह्मचारी पं० श्री अमोलकऋषिजी महाराज। प्रकाशकहैदाराबाद-सिकंन्दराबाद जैन संघ, हैदराबाद [दक्षिण] । वीराब्द २४४२-२४४६ ई० । इन सब प्रतियों का मिलान कर, भिन्न-भिन्न प्रतियों की उपयोगी पूरकता का उपयोग कर त्रुटिरहित एवं प्रमाणिक पाठ ग्रहण करने का प्रयास किया गया है। संख्याक्रम, पैरेग्राफ, विरामचिह्न आदि के रूप में [३१] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभाजन, सुव्यवस्थित उपस्थापन का पूरा ध्यान रखा गया है। प्राकृत अपने युग की जीवित भाषा थी। जीवित भाषा में विविध स्थानीय उच्चारण-भेद से एक ही शब्द के एकाधिक उच्चारण बोलचाल में रहने संभावित है, जैसे नगर के लिए नयर, णयर-दोनों ही रूप सम्भव हैं। प्राचीन प्रतियों में भी दोनों ही प्रकार के रूप मिलते हैं। यों जिन-जिन शब्दों के एकाधिक रूप हैं, उनको उपलब्ध प्रतियों की प्रामाणिकता के आधार पर उसी रूप में रखा गया है। 'जाव' से सूचित पाठों के सम्बन्ध में ऐसा क्रम रखा गया है 'जाव' से संकेतित पाठ को पहली बार तो सम्बद्ध पूरक आगम से लेकर यथावत् रूप में कोष्ठक में दे दिया गया हैं, आगे उसी पाठ का सूचक 'जाव' जहाँ-जहाँ आया है, वहाँ पाद-टिप्पण में उस पिछले सूत्र का संकेत कर दिया गया हैं, जहाँ वह पाठ उद्धृत है। प्रायः प्रकाशित संस्करणों में 'जाव' से सूचित पाठ को कोष्ठक आदि में उद्धृत करने का क्रम नहीं रहा है। विस्तार से बचने के लिए संभत: ऐसा किया गया हो। अधिक विस्तार न हो, यह तो वाञ्छित है पर यह भी आवश्यक है कि 'जाव' द्वारा अमुख विषय का जो वर्णन अभीप्सित है, उससे पाठक अवगत हों। उसे उपस्थित किये बिना पाठकों को पठनीय विषय का परा ज्ञान नहीं हो पाता। अतः 'जाव' से सूचित पाठ की सर्वथा उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। हाँ, इतना अवश्य है, एक ही 'जाव' के पाठ को जितने स्थानों पर वह आया हो, सर्वत्र देना वाञ्छित नहीं है। इससे ग्रन्थ का अनावश्यक कलेवर बढ़ जाता है। जाव' से सूचित पाठ इतना अधिक हो जाता है कि पढ़ते समय पाठकों को मूल पाठ स्वायत्त करने में भी कठिनाई होती हैं। हिन्दी अनुवाद में भाषा का क्रम ऐसा रखा गया है, जिससे पाठक मूल पाठ के बिना भी उसको स्वतन्त्र रूप से पढ़े तो एक जैसा प्रवाह बना रहे। प्रत्येक अध्ययन के प्रारम्भ में उसका सार-संक्षेप में दिया गया है, जिसमें अध्ययनगत विषय का संक्षिप्त विवरण है। जिन सूत्रों में वर्णित विषयों की विशेष व्याख्या अपेक्षित हुई, उसे विवेचन में दिया गया है। यह ध्यान रखा गया हैं, विवेचन में अनावश्यक विस्तार न हो, आवश्यक बात छूटे नहीं। ___ प्रस्तुत आगम के सम्पादन, अनुवाद एवं विवेचन में अहर्निश पाठ आठ मास तक के किये गये श्रम की यह फलनिष्पत्ति है। इस बीच परम श्रद्धेय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी महाराज तथा वयोवृद्ध एवं ज्ञानवृद्ध मनीषी विद्वद्वर पं० शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की ओर से मुझे सतत स्फूर्तिप्रद प्रेरणाएं प्राप्त होती रहीं, जिससे मेरा उत्साह सर्वथा वृद्धिगत होता रहा। मैं हृदय से आभारी हूँ। इस कार्य में प्रारम्भ से ही मेरे साहित्यिक सहकर्मी प्रबद्ध साहित्यसेवी श्री शंकरलालजी पारीक, लाडनू कार्य के समापन पर्यन्त सहयोगी रहे हैं। प्रेस के लिए पाण्डुलिपियाँ तैयार करने में उनका पूरा साथ रहा। [३२] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम्-वाड्मय के अनुरागी, अध्यात्म व संयम में अभिरूचिशील, सहस्त्राब्दियों पूर्व के भारतीय जीवन के जिज्ञासु सुधी जन यदि प्रस्तुत ग्रन्थ से कुछ भी लाभान्वित हुए तो मैं अपना श्रम सार्थक मानूंगा । : कैवल्यधाम, सरदारशहर [राजस्थान ] दिनांक ९-४-८० -डॉ० छगनलाल शास्त्री एम० ए० [हिन्दी संस्कृत, प्राकृत तथा जैनोलोजी ] पी-एच० डी० काव्यतीर्थ, विद्यामहोदधि भू० पू० प्रवक्ता - - इन्स्टीट्यूट ऑफ प्राकृत, जैनोलोजी एण्ड अहिंसा, वैशाली [बिहार ] HO 卐 [३३] ७. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका पहला अध्याय शीर्षक सार : संक्षेप २. जम्बू की जिज्ञासा : सुधर्मा का उत्तर आनन्द गाथापति वैभव सामाजिक प्रतिष्ठा शिवनन्दा कोल्लाक सन्निवेश भगवान् महावीर का समवसरण आनन्द द्वारा वन्दना धर्म-देशना आनन्द की प्रतिक्रिया व्रतग्रहण [क] अहिंसाव्रत [ख] सत्य-व्रत [ग] अस्तेय-व्रत [घ] स्वदार-सन्तोष [6] इच्छा-परिमाण [च] उपभोग-परिभोग-परिमाण [छ] अनर्थ-दण्ड-विरमण अतिचार [क] सम्यक्त्व के अतिचार [ख] अहिंसा-व्रत के अतिचार [ग] सत्य-व्रत के अतिचार [घ] अस्तेय-व्रत के अतिचार [ङ] स्वदारसन्तोष-व्रत के अतिचार [च] इच्छा-परिमाण-व्रत के अतिचार [छ] दिग्व्रत के अतिचार [ज] उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अतिचार ३. [३४] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [झ] अनर्थदण्ड-विरमण के अतिचार [] सामायिक-व्रत के अतिचार [ट] देशावकाशिक-व्रत के अतिचार [ठ] पोषधोपवास-व्रत के अतिचार [ड] यथासंविभाग-व्रत के अतिचार [ढ] मरणान्तिक संलेखना के अतिचार । आनन्द द्वारा अभिग्रह आनन्द का भविष्य आनन्द : अवधिज्ञान १४. दूसरा अध्याय सार : सक्षेप श्रमणोपासक कामदेव देव द्वारा पिशाच के रूप में उपसर्ग हाथी के रूप में उपसर्ग सर्प के रूप में उपसर्ग देव का पराभव : हिंसा पर अहिंसा की विजय भगवान् महावीर का पदार्पण : कामदेव द्वारा वन्दन-नमन भगवान् द्वारा कामदेव की वर्धापना कामदेव : स्वर्गारोहण १०० १०२ १०७ १०८ ११० तीसरा अध्ययन 359 सार : संक्षेप २. श्रमणोपासक चुलनीपिता - उपसर्गकारी देव : प्रादुर्भाव __ पुत्र वध की धमकी चुलनीपिता की निर्भीकता बड़े पुत्र की हत्या ७. मंझले व छोटे पुत्र की हत्या मातृवध की धमकी चुलनीपिता का क्षोभ : कोलाहल . माता का आगमन : जिज्ञासा ११२ ११५ ११६ ११६ ११७ ११७ ११७ ११८ १२० १२० [३५] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. ११. चुलनीपिता का उत्तर चुलनीपिता द्वारा प्रायश्चित्त जीवन का उपासनामय अन्त १३. ন १. २. ३. ५. १. २. ३. ४. ५. ६. १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. सार: संक्षेप श्रमणोपासक सुरादेव देव द्वारा पुत्रों की हत्या भीषण व्याधियों की धमकी • सुरादेव का क्षोभ जीवन का उपसंहार सार: संक्षेप श्रमणोपासक चुल्लशतक देव द्वारा विन सम्पत्ति विनाश की धमकी विचलन : प्रायश्चित्त दिव्य गति सार: संक्षेप श्रमणोपासक कुंडकौलिक अशोक वाटिका में ध्यान - निरत देव द्वारा नियतिवाद का प्रतिपादन कुंडकौलिक का प्रश्न देव का उत्तर कुडकौलिक द्वारा खण्डन देव की पराजय चौथा अध्ययन पांचवां अध्ययन छठा अध्ययन भगवान् द्वारा कुंडकौलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा शान्तिमय देहावसान [ ३६ ] १२१ १२३ १२५ १२६ १२८ १२८ १२९ १३० १३१ १३३ १३५ १३५ १३६ १३७ १३८ १३९ x x x x x x x x x x १४२ १४३ १४८ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन १४९ १५३ १५४ १५५ १५९ १६० १६१ १६२ १६२ सार : संक्षेप आजीविकोपासक सकडालपुत्र सम्पत्ति : व्यवसाय देव द्वारा सूचना सकडालपुत्र की कल्पना भगवान् महावीर का सान्निध्य सकडालपुत्र पर प्रभाव भगवान् का कुंभकारापण में पदार्पण नियतिवाद पर चर्चा बोधिलाभ सकडालपुत्र एवं अग्निमित्रा द्वारा व्रत-ग्रहण १२. भगवान् का प्रस्थान गोशालक का आगमन १४. सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा गोशालक द्वारा भगवान का गण-कीर्तन गोशालक का कभंकारापण में आगमन १७. निराशापूर्ण गमन १८. देवकृत उपसर्ग १९. अन्तःशुद्धि : आराधना : अन्त १६४ ११. १६५ १६९ १६९ १३. १७० १५. १७० ६. १७६ १७७ १७७ १७९ आठवां अध्ययन १८१ १८५ १८८ १८८ 359 सार : संक्षेप श्रमणोपासक महाशतक पत्नियां : उनकी सम्पत्ति महाशतक द्वारा व्रतसाधना रेवती की दुर्लालसा रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता महाशतक : अध्यात्म की दिशा में महाशतक को डिगाने हेतु रेवती का कामुक उपक्रम महाशतक की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना आमरण अनशन १८९ १९० १९२ १९३ ९. १९४ १९४ [३७] Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ ११. अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव १२. रेवती द्वारा पुनः असफल कुचेष्टा १३. महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन १४. रेवती का दुःखमय अन्त १५. गौतम द्वारा भगवान् का प्रेरणा-सन्देश १६. महाशतक द्वारा प्रायश्चित्त १९५ १९५ १९७ १९७ २०० नौवां अध्ययन सार : संक्षेप गाथापति नन्दिनीपिता व्रत-आराधना साधनामय जीवन : अवसान २०३ २०४ दसवां अध्ययन सार : संक्षेप गाथापति सालिहीपिता सफल साधना उपसंहार संग्रह-गाथाएं परिशिष्ट १ : शब्दसूची परिशिष्ट २ : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची २०५ २०६ २०६ २०८ २०९ २१४ २४० [३८] Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचमगणहर-सिरिसुहम्मसामिविरइयं सत्तमं अंगं उवासगदसाओ पंचमगणधर-श्रीमत्सुधर्मस्वामि-विरचितं सप्तमम् अङ्गम उपासकदशा Page #43 --------------------------------------------------------------------------  Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपासकदशांगसूत्र प्रथम अध्ययन सार-संक्षेप घटना तब की है, जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, अपनी धर्म देशना से जन-मानस में अध्यात्म का संचार कर रहे थे । उत्तर बिहार के एक भाग में, जहाँ लिच्छवियों का गणराज्य था, वाणिज्यग्राम नामक नगर था । वह लिच्छवियों की राजधानी वैशाली के पास ही था । बनिया- गाँव नामक आज भी एक गाँव भूमि में है। सम्भवतः वाणिज्यग्राम का ही वह अवशेष हो । वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक एक सद्गृहस्थ निवास करता था । वह बहुत सम्पन्न, समृद्ध और वैभवशाली था । ऐसे जनों के लिए जैन आगम - साहित्य में गाथापति शब्द का प्रयोग हुआ है। करोड़ों सुवर्णमुद्राओं में सम्पत्ति, धन, धान्य, भूमि, गोधन इत्यादि की जो प्रचुरता आनन्द के यहाँ थी, उसके आधार पर आज के मुल्यांकन में वह अरबपति की स्थिति में पहुँचता था । कृषि उसका मुख्य व्यवसाय था । उसके यहाँ दसदस हजार गायों के चार गोकुल थे। गाथापति आनन्द समृद्धिशाली होने के साथ-साथ समाज में बहुत प्रतिष्ठित था, सभी वर्ग के लोगों द्वारा सम्मानित था। बहुत बद्धिमान् था, व्यवहार कुशल था, मिलनसार था, इसलिए सभी लोग अपने कार्यों में उससे परामर्श लेते थे। सभी का उसमें अत्यधिक विश्वास था, इसलिए अपनी गोपनीय बात भी उसके सामने प्रकट करने में किसी को संकोच नहीं होता था। यों वह सुख, समृद्धि, सम्पन्नता और प्रतिष्ठा का जीवन जी रहा था। उसकी धर्मपत्नी का नाम शिवनन्दा था। वह रूपवती, गुणवती एवं पति-परायण थी। अपने पति के प्रति उसमें असीम अनुराग, श्रद्धा और समर्पण था । आनन्द के परिवारिक जन भी सम्पन्न और सुखी थे । सब आनन्द को आदर और सम्मान देते थे । आनन्द के जीवन में एक नया मोड़ आया। संयोगवश श्रमण भगवान् महावीर अपने पाद - विहार के बीच वाणिज्यग्राम पधारे। वहाँ का राजा जितशत्रु अपने सामन्तों, अधिकारियों और पारिवारिकों के साथ भगवान् के दर्शन के लिए गया । अन्यान्य सम्भ्रान्त नागरिक और धर्मानुरागी जन भी पहुँचे । आनन्द को भी विदित हुआ । उसके मन में भी भगवान् के दर्शन की उत्सुकता जागी । वह कोल्लाक सन्निवेश - स्थित दूतीपलाश चैत्य में पहुँचा, जहाँ भगवान् विराजित थे । कोल्लाक सन्निवेश वाणिज्यग्राम का उपनगर था । आनन्द ने भक्तिपूर्वक . भगवान् को वन्दन - नमन किया। भगवान् ने धर्म देशना दी। जीव, अजीव आदि तत्त्वों का बोध प्रदान किया, अनगार- श्रमण-धर्म तथा अगार-गृहि-धर्म या श्रावक-धर्म की व्याख्या की। आनन्द प्रभावित हुआ। उसने भगवान् से पाँच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत-यों श्रावक के बारह व्रत Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपासकदशांगसूत्र स्वीकार किए। अब तक जीवन हिंसा, भोग एवं परिग्रह आदि की दृष्टि से अमर्यादित था, उसने उसे मर्यादित एवं सीमित बनाया। असीम लालसा और तृष्णा को नियमित, नियन्त्रित किया। फलतः उसका खान-पान, रहन-सहन. स्त्र. भोगोपभोग सभी पहले की अपेक्षा बहत सीमित, सादे हो गए। आनन्द एक विवेकशील और अध्यवसायी पुरूष था। वैसे सादे, सरल और संयमोन्मुख जीवन में वह सहज भाव से रम गया। आनन्द ने सोचा, मैंने जीवन में जो उद्बोध प्राप्त किया है, अपने आचार को तदनुरूप ढाला है, अच्छा हो, मेरी सहधर्मिणी शिवनन्दा भी वैसा करे। उसने घर आकर अपनी पत्नी से कहा-देवानुप्रिये! तुम भी भगवान् के दर्शन करो, वन्दन करो, बहुत अच्छा हो, गृहि-धर्म स्वीकार करो। आनन्द व्यक्ति की स्वतन्त्रता का मूल्य समझता था, इसलिए उसने अपनी पत्नी पर कोई दबाव नहीं डाला, अनुरोधमात्र किया। शिवनन्दा को अपने पति का अनुरोध अच्छा लगा। वह भगवान् महावीर की सेवा में उपस्थित हुई, धर्म सुना। उसने भी बड़ी श्रद्धा और उत्साह के साथ श्रावक-व्रत स्वीकार किए। भगवान् महावीर कुछ समय बाद वहाँ से विहार कर गए। आनन्द का जीवन अब और भी सखी था। वह धर्माराधनापर्वक अपने कार्य में लगा रहा। चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। एक बार की बात है, आनन्द सोया था, रात के अन्तिम पहर में उसकी नींद टूटी। धर्म-चिन्तन करते हुए वह सोचने लगा-जिस सामाजिक स्थिति में मैं हूँ, अनेक विशिष्ट जनों से सम्बन्धित होने के क धर्माराधना में यथेष्ट समय दे नहीं पाता। अच्छा हो, अब मैं सामाजिक और लौकिक दायित्वों से मुक्ति ले लूं और अपना जीवन धर्म की आराधना में अधिक से अधिक लगाऊं। उसका विचार निश्चय में बदल गया। दूसरे दिन उसने एक भोज आयोजित किया। सभी पारिवारिक जनों को आमन्त्रित किया, भोजन कराया, सत्कार किया। अपना निश्चय सबके सामने प्रकट किया। अपने बड़े पत्र को कटुम्ब का भार सौंपा, सामाजिक दायित्व एवं सम्बन्धों को भली भाँति निभाने की शिक्षा दी। उसने विशेष रूप से उस समय उपस्थित जनों से कहा कि अब वे उसे गृहस्थ-सम्बन्धी किसी भी काम में कुछ भी न पूछे। यों आनन्द ने सहर्ष कौटुम्बिक और सामाजिक जीवन से अपने को पृथक् कर लिया। वह साधु जैसा जीवन बिताने को उद्यत हो गया। आनन्द कोल्लाक सन्निवेश में स्थित पोषधशाला में धर्मोपासना करने लगा। उसने क्रमशः श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की उत्तम एवं पवित्र भावपूर्वक आराधना की। उग्र तपोमय जीवन व्यतीत करने से उसका शरीर सूख गया, यहाँ तक कि शरीर की नाड़ियाँ दिखाई देने लगीं। एक बार की बात है, रात्रि के अन्तिम पहर में धर्म-चिन्तन करते हुए आनन्द के मन में विचार आया-यद्यपि अब भी मुझ में आत्म-बल, पराक्रम, श्रद्धा और संवेग की कोई कमी नहीं, पर शारीरिक दृष्टि से मैं कृश एव निर्बल हो गया हूँ। मेरे लिए श्रेयस्कर है, मैं अभी भगवान् महावीर की विद्यमानता में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लूँ । जीवन भर के लिए अन्न-जल का त्याग कर दूँ, मृत्यु की कामना न करते हुए शान्त चित्त से अपना अन्तिम समय व्यतीत करूं। आनन्द एक दृढचेता पुरूष था। जो भी सोचता, उसमें विवेक होता, आत्मा की पुकार होती। फिर उसे कार्य-रूप में परिणत करने में वह विलम्ब नहीं करता। उसने जैसा सोचा, तदनुसार सबेरा होते ही आमरण Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : सार संक्षेप] अनशन स्वीकार कर लिया। ऐहिक जीवन की सब प्रकार की इच्छाओं और आकर्षणों से वह सर्वथा ऊँचा उठ गया। जीवन और मरण दोनों की आकांक्षा से अतीत बन वह आत्म-चिन्तन में लीन हो गया। धर्म के निगूढ चिन्तन और आराधन में संलग्न आनन्द के शुभ एवं उज्जवल परिणामों के कारण अवधिज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम हुआ, उसको अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। भगवान् महावीर विहार करते हुए पधारे, वाणिज्यग्राम केबाहर दूतीपलाश चैत्य में ठहरे। लोग धर्मलाभ लेने लगे। भगवान् के प्रमुख शिष्य गौतम तब निरन्तर बेले-बेले का तप कर रहे थे। वे एक दिन भिक्षा के लिए वाणिज्यग्राम में गए। जब वे कोल्लाक सन्निवेश के पास पहुँचे, उन्होंने आनन्द के आमरण अनशन के सम्बन्ध में सना। उन्होंने सोचा. अच्छा हो मैं भी उधर हो आऊँ। वे पोषधशाला में आनन्द के पास आए। आनन्द का शरीर बहुत क्षीण हो चुका था। अपने स्थान से इधर-उधर होना उसके लिए शक्य नहीं था। उसने आर्य गौतम से अपने निकट पधारने की प्रार्थना की, जिससे वह यथाविधि उन्हें वन्दन कर सके। गौतम निकट आए। आनन्द ने सभक्ति वन्दना किया और एक प्रश्न भी किया- भन्ते! क्या गृहस्थ को अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है? गौतम ने कहा-आनन्द! हो सकता है। तब आनन्द बोला-भगवन् ! मैं एक गृहि-श्रावक की भूमिका में हूं, मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है। मै उसके द्वारा पूर्व की ओर लवणसमुद्र में पांच सौ योजन तक तथा अधोलोक में लोलुपाच्युत नरक तक जानता हूँ, देखता हूँ। इस पर गौतम बोले-आनन्द! गृहस्थ को अवधिज्ञान हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं। तुम से जो यह असत्य भाषण हो गया है, उसकी आलोचना करो, प्रायश्चित करो। __ आनन्द बोला-भगवन् ! क्या जिन-प्रवचन में और यथार्थ भावों के लिए भी आलोचना की जाती है? गौतम ने कहा-आनन्द! ऐसा नहीं होता। तब आनन्द बोला- भगवन् ! जिन-प्रवचन में यदि सत्य और यथार्थ भावों की आलोचना नहीं होती तो आप ही इस सम्बन्ध में आलोचना कीजिये। अर्थात् मैंने जो कहा है, वह असत्य नहीं है। गौतम विचार में पड़ गए। इस सम्बन्ध में भगवान् से पूछने का निश्चय किया। वे भगवान् के पास आए। उन्हें सारा वृत्तान्त सुनाया और पूछा कि आलोचना और प्रायश्चित्त का भागी कौन है? भगवान् ने कहा-गौतम ! तुम ही आलोचना करो और आनन्द से क्षमा याचना भी। आनन्द ने ठीक कहा है। गौतम पवित्र एवं सरलचेता साधक थे। उन्होंने भगवान् महावीर का कथन विनयपूर्वक स्वीकार किया और सरल भाव से अपने दोष की आलोचना की, आनन्द से क्षमा याचना की। आनन्द अपने उज्जवल आत्म-परिणामों में उत्तरोत्तर दृढ और दृढतर होता गया। एक मास की संलेखना के उपरान्त उसने समाधि-मरण प्राप्त किया। देह त्याग कर वह सौधर्म देवलोक के सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशानकोण में स्थित अरूण विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। प्रथम अध्ययन का यह संक्षिप्त सारांश है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन गाथापति आनन्द जम्बू की जिज्ञासा : सुधर्मा का उत्तर १. तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था। वण्णओ। पुण्णभद्दे चेइए। वण्णओ। उस काल - वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे, चम्पा नामक नगरी थी, पूर्णभद्र नामक चैत्य था। दोनों का वर्णन औपपातिकसूत्र से जान लेना चाहिए। विवेचन यहाँ काल और समय-ये दो शब्द आये हैं । साधारणतया ये पर्यायवाची हैं। जैन पारिभाषिक दृष्टि से इनमें अन्तर भी है। काल वर्तना-लक्षण सामान्य समय का वाचक है और समय काल के सूक्ष्मत्तम-सबसे छोटे भाग का सूचक है। पर, यहाँ इन दोनों का इस भेद-मूलक अर्थ के साथ प्रयोग नहीं हुआ है। जैन आगमों की वर्णन-शैली की यह विशेषता है, वहाँ एक ही बात प्रायः अनेक पर्यायवाची, समानार्थक या मिलते-जुलते अर्थ वाले शब्दों द्वारा कही जाती है। भाव को स्पष्ट रूप में प्रकट करने में इससे सहायता मिलती है। पाठकों के सामने किसी घटना, वृत्त या स्थिति का एक बहुत साफ शब्द-चित्र उपस्थित हो जाता है। यहाँ काल का अभिप्राय वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त से है तथा समय उस युग या काल का सूचक है, जब आर्य सुधर्मा विद्यमान थे। यहाँ चम्पा नगरी तथा पर्णभद्र चैत्य का उल्लेख हआ है। दोनों के आगे 'वण्णओ' शब्द आया है। जैन आगमों में नगर, गाँव, उद्यान आदि सामान्य विषयों के वर्णन का एक स्वीकृत रूप है। उदाहरणार्थ, नगरी के वर्णन का जो सामान्य क्रम है, वह सभी नगरियों के लिए काम में आ जाता है। औरों के साथ भी ऐसा ही है। लिखे जाने से पूर्व जैन आगम मौखिक परम्परा से याद रखे जाते थे। याद रखने में सुविधा की दृष्टि से संभवतः यह शैली अपनाई गई हो। वैसे नगर, उद्यान आदि साधारणतया लगभग सदृश होते ही हैं। १२२. तेणं कालेणं तेणं समएणं अज-सुहम्मे समोसरिए, जाव जम्बू समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अज-सुहम्मे नाम थेरे जाति-संपण्णे, कुल-संपण्णे, रूव Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [ ७ संपण्णे, विणय-संपण्णे, नाण-संपण्णे, दंसण-संपण्णे, चरित्त-संपण्णे, लज्जा- संपण्णे, लाघव संपण्णे, ओयेसी, तेयंसी, वच्छंसी, जसंसी, जिय- कोहे, जिय-माणे, जिय-माए, जिय- लोहे, जिय-णिद्दे, जिइंदिए, जिय- परीसहे, जीवियास- मरण-भय-विप्पमुक्के, तवप्हाणे, गुण - प्पहाणे करण-प्पहाणे, चरण-प्पहाणे, निग्गह-प्पहाणे, निच्छय-प्पहाणे, अज्जव - प्पहाणे, मद्दव - प्पहाणे, लाघव- प्पहाणे, खंति- प्पहाणे, गुत्ति-प्पहाणे, मुति - प्पहाणे, विज्जा - पहाणे, मंत-प्पहाणे, बंभ- प्पहाणे, वेय- प्पहाणे, नय-प्पहाणे, नियमप्पहाणे, सच्च-प्पहाणे, सोय-प्पहाणे, नाण-प्पहाणे, दसण-प्पहाणे, चरित्त - प्पहाणे, ओराले, घोरे, घोर-गुणे, घोर-तवस्सी, घोर- बंभचेरवासी, उच्छूढ सरीरे संखित्त-विउलतेउ-लेस्से, चउद्दस - पुव्वी, चउनाणोवगए, पंचहिं अणगार-सएहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुगामं दुइज्जमाणे, सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुण्णभद्दे चेइए तेणेव उवागच्छइ । चंपानयरीए बहिया पुण्णभद्दे चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हइ, ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्ज - सुहम्मस्स थेरस्स जेट्ठे अंतेवासी अज्ज - जंबू नामं अणगारे कासव-गोत्तेणं सत्तुस्सेहे, सम- चउरंस - संठाण - संठिए, वइर-रिसह - णाराय संघयणे, कणग- पुलग - निघस - पम्ह - गोरे, उग्ग-तवे, दित्त तवे, तत्त तवे, महा-तवे, ओराले, घोरे, घोर-गुणे, घोर-तवस्सी, घोर- बंभचेरवासी, उच्छूढ - सरीरे, संखित्त - विउतेल- लेस्से, अज्ज - सुहम्मस्स थेरस्स अदुरसामंते उड्ढं जाणू, अहोसिरे, झाण- कोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तणं से अज्ज - जंबू नामं अणगारे जाय- सड्ढे, जाय-संसए, जाय- कोऊहल्ले, उप्पण्ण-सड्ढे, उप्पण्ण-संसए, उप्पण्ण- कोऊहल्ले संजाय - सड्ढे, संजाय - संसए, संजायकोहल्ले, समुप्पण्ण- सड्ढे, समुप्पण्ण-संसए, समुप्पण्ण- कोऊहल्ले उट्ठाए उट्ठेइ, उट्ठेता जेणेव अज्ज - - सुहम्मे थेरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अज्ज - सुहम्मं थेरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदई णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे । ) पज्जुवासमाणे एवं वयासी - जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव (आइगरेणं, तित्थगरेणं, सयंसंबुद्धेणं, पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं, पुरिसवरगंधहत्थिएणं, लोगुत्तमेणं लोगनाहेणं, लोग पईवेणं, लोग पज्जोयगरेणं, अभयदपणं, सरणदएणं चक्खुदएणं, मग्गदएणं, जीवदएणं, बोहिदएणं धम्मदएणं, धम्मदेसणं धम्म - नायगेणं, धम्मसारहिणा, धम्म- वर चाउरंत - चक्कवट्टिणा, * अप्पडिहय- वर * इससे आगे किसी-किसी प्रति में 'दीवो ताणं सरणगई पइट्ठा' यह पाठ अधिक उपलब्ध होता है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८] [उपासकदशांगसूत्र नाण-दसणधरेणं वियदृछउमेणं जिणेणं, जाणएणं, बुद्धेणं, बोहएणं, मुत्तेणं, मोयगेणं, तिण्णेणं, तारएणं, सिव-मयल-मरूय-मणंत-मक्खय-मव्वाबाहमपुणरावत्तयं सासयं ठाणमुवगएणं, सिद्धि-गइ-नामधेनं ठाणं) संपत्तेणं। ___ छट्ठस्स अंगस्स नायाधम्मकहाणं अयमढे पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते! अंगस्स उवासगदसाणं समणेणं जाव' संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासग दसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता। तं जहा आणंदे कामदेवे य, गाहावइ-चुलणीपिया। सुरादेवे चुल्लसयए, गाहावइ-कुंडकोलिए। सद्दालपुते महासयए, नंदिणीपिया सालिहीपिया॥ जइणं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दस अज्झयणा पण्णत्ता, पढमस्स णं भंते ! समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पण्णत्ते? उस समय आर्य सुधर्मा [श्रमण भगवान महावीर के अन्तेवासी. जाति-सम्पन्न-उत्तम निर्मल मातृपक्षयुक्त, कुल-सम्पन्न-उत्तम निर्मल पितृपक्षयुक्त, बल-सम्पन्न-उत्तम दैहिक शक्तियुक्त, रूपसम्पन्न-रूपवान्-सर्वांग सुन्दर, विनय-सम्पन्न, ज्ञान-सम्पन्न, दर्शन-सम्पन्न, चारित्र-सम्पन्न, लज्जा-सम्पन्न, लाघव-सम्पन्न-हलके-भौतिक पदार्थ और कषाय आदि के भार से रहित, ओजस्वी, तेजस्वी, वचस्वी- . प्रशस्त भाषी अथवा वर्चस्वी-वर्चस् या प्रभाव युक्त, यशस्वी. क्रोधजयी. मानजयी. मायाजयी. लोभजयी. निद्राजयी, इन्द्रियजयी, परिषहजयी-कष्टविजेता, जीवन की इच्छा और मृत्यु के भय से रहित, तपप्रधान, गुण-प्रधान-संयम आदि गुणों की विशेषता से युक्त, करण-प्रधान-आहार-विशुद्धि आदि विशेषता सहित, चारित्र-प्रधान-उत्तम चारित्र-सम्पन्न-दशविध यति-धर्मयुक्त, निग्रह-प्रधान-राग आदि शत्रुओं के निरोधक, निश्चय-प्रधान-सत्य तत्त्व के निश्चित विश्वासी या कर्म-फल की निश्चितता में आश्वस्त, आर्जव-प्रधान-सरलतायुक्त, मार्दव-प्रधान-मृदुतायुक्त, लाघव- प्रधान-आत्मलीनता के कारण किसी भी प्रकार के भार से रहित या स्फूर्ति-शील, शान्ति-प्रधान-क्षमाशील, गुप्ति-प्रधान-मानसिक, वाचिक तथा कायिक प्रवृत्तियों के गोपक--विवेकपूर्वक उनका उपयोग करनेवाले, मुक्ति-प्रधान-कामनाओं से छुटे या मुक्तता की ओर अग्रसर, विद्या-प्रधान-ज्ञान की विविध शाखाओं के पारगामी, मंत्र-प्रधान-सत मंत्र, चिन्तना या विचारणायुक्त, ब्रह्मचर्य-प्रधान, वेद-प्रधान-वेद आदि लौकिक, लोकोत्तर शास्त्रों के ज्ञाता, नय-प्रधान-नैगम आदि नयों के ज्ञाता, नियम-प्रधान--नियमों के पालक, सत्य-प्रधान, शौचप्रधान--आत्मिक शुचिता या पवित्रतायुक्त, ज्ञान-प्रधान--ज्ञान के अनुशीलक, दर्शन-प्रधान--क्षायिक सम्यक्त्वरूप विशेषता से युक्त, चारित्र-प्रधान--चारित्र की परिपालना में निरत, उराल--प्रबल-- १-२-३-४ इसी सूत्र में पूर्व वर्णित के अनुरूप। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [९ साधना में सशक्त, घोर--अदभुत शक्ति-सम्पन्न, घोरगुण--परम उत्तम, जिन्हें धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए, ऐसे गुणों के धारक, घोर-तपस्वी--उग्र तप करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी--कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्त-शरीर--दैहिक सार-संभाल या सजावट आदि से रहित, विशाल तेजोलेश्या अपने भीतर समेटे हुए, चतुर्दश पूर्वधर--चौदह पूर्व-ज्ञान के धारक, चार--मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान से युक्त स्थविर आर्य सुधर्मा, पांच सौ श्रमणों से संपरिवृत--घिरे हुए पूर्वानुपूर्व-- अनुक्रम से आगे बढ़ते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे। पूर्णभद्र चैत्य चम्पा नगरी के बाहर था, वहाँ भगवान् यथाप्रतिरूप-समुचित-साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर ठहरे , संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए रहे। उसी समय की बात है, आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार, जो काश्यप गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्रसंस्थान-संस्थित-देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन--सुदृढ़ अस्थिबंधयुक्त विशिष्ट देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वी-जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे, स्थविर आर्य सुधर्मा के न अधिक दूर, न अधिक निकट संस्थित हो. घटने ऊंचे किये. मस्तक नीचे किए, ध्यान की मुद्रा में, संयत और तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे। तब आर्य जम्बू अनगार के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय--अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे उठे, उठकर जहाँ स्थविर आर्य सुधर्मा थे, आए। आकर स्थविर आर्य सुधर्मा को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोले--भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर ने [जो आदिकर--सर्वज्ञता प्राप्त होने पर पहले पहल श्रुत-धर्म का शुभारम्भ करने वाले, तीर्थकर-श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ के संस्थापक, स्वयंसंबुद्ध--किसी बाह्य निमित्त या सहायता के बिना स्वयं बोध प्राप्त, विशिष्ट अतिशयों से सम्पन्न होने के कारण पुरूषोत्तम, शूरता की अधिकता के कारण पुरूषसिंह, सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने से पुरूषवरपुंडरीक--पुरूषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरूषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोक-नाथ--जगत् के प्रभु, लोक-प्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्म-पथ पर गतिशील, अथवा लोकप्रदीप अर्थात् जनसमूह को प्रकाश देने वाले, लोक-प्रद्योतकर--लोक में धर्म का उद्योत फैलाने-वाले, अभयप्रद, शरणप्रद, चक्षुःप्रद-- अन्तर-चक्षु खोलने वाले, मार्गप्रद, संयम-जीवन तथा बोधि प्रदान करने वाले, धर्मप्रद,धर्मोपदेशक, Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [उपासकदशांगसूत्र धर्मनायक, धर्म-सारथि, तीन ओर महासमुद्र तथा एक ओर हिमवान् की सीमा लिये विशाल भूमण्डल के स्वामी चक्रवर्ती की तरह उत्तम धर्म-साम्राज्य के सम्राट, प्रतिघात विसंवाद या अवरोध रहित उत्तम ज्ञान व दर्शन के धारक, घातिकर्मों से रहित, जिन-राग-द्वेष-विजेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, बुद्ध--बोधयुक्त, बोधकबोधप्रद, मुक्त-बाहरी तथा भीतरी ग्रन्थियां से छूटे हुए, मोचक-मुक्तता के प्रेरक, तीर्ण-संसार-सागर को तैर जाने वाले, तारक--संसार-सागर को तैर जाने की प्रेरणा देने वाले, शिव-मंगलमय, अचल-- स्थिर, अरूज्-- रोग या विध्न रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध--बाधा रहित, पुनरावर्तन रहित सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान के समीप पहुंचे हुए हैं, उसे संप्राप्त करने वाले हैं,] छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सुन चुका हूँ। भगवान् ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया? आर्य सुधर्मा वोले-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये-बतलाए, जो इस प्रकार हैं १. आनन्द, २. कामदेव, ३. गाथापति चुलनीपिता, ४. सुरादेव, ५. चुल्लशतक, ६. गाथापति कुंडकौलिक, ७. सद्दालपुत्र, ८. महाशतक, ९. नन्दिनीपिता, १०. शालिहीपिता। जम्बू ने फिर पूछा-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के जो दस अध्ययन व्याख्यात किए, उनमें उन्होंने पहले अध्ययन का क्या अर्थ-तात्पर्य कहा ? विवेचन सामान्य वर्णन के लिए जैन-आगमों में 'वण्णओ' द्वारा सूचन किया जाता है, जिससे अन्यत्र वर्णित अपेक्षित प्रसंग को प्रस्तुत स्थान पर ले लिया जाता है। उसी प्रकार विशेषणात्मक वर्णन, विस्तार आदि के लिए 'जाव' शब्द द्वारा संकेत करने का भी जैन आगमों मेंप्रचलन है। संबंधित वर्णन को दूसरे आगमों से जहां वह आया हो, गृहीत कर लिया जाता है। यहां भगवान् महावीर और सुधर्मा और जंबू के विशेषणात्मक वर्णन 'जाव' शब्द से सूचित हुए हैं । ज्ञातृधर्मकथा, औपपातिक तथा राजप्रश्रीय सूत्र से ये विशेषणमूलक वर्णन यहां आकलित किए गए हैं। जैसा पहले सूचित किया गया है, संभवतः जैन आगमों की कंठस्थ परम्परा की सुविधा के लिए यह शैली स्वीकार की गई हो। आनन्द गाथापति ३. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था।वण्णओ। तस्स वाणियगामस्स बहिया उत्तर-पुरत्थिमे दिसी-भाए दूइपलासए नामं चेइए। तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्था।वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहावई परिवसइ-अड्ढे जाव (दित्ते, वित्ते विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणे, बहु-धण-जायरूव-रयए, आओग-पओग-संपउत्ते, विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणे, बहु Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [११ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] दासी-दास-गो-महिस-गवेलगपप्पभूए बहु-जणस्स) अपरिभूए। __ आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय--जब भगवान् महावीर विद्यमान थे, वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में दूतीपलाश नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक वहां का राजा था। वहां वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक गाथापति-सम्पन्न गृहस्थ रहता था। आनन्द धनाढ्य, [दीप्त-दीप्तिमान्-प्रभावशाली, सम्पन्न, भवन, शयन--ओढ़ने-बिछौने के वस्त्र, आसन--बैठने के उपकरण, यान-माल-असबाब ढोने की गाडियां एवं वाहन--सवारियां आदि विपुल साधन-सामग्री तथा सोना, चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग-प्रयोग-संप्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग और प्रयोग में निरत-नीतिपूर्वक द्रव्य के उपार्जन में संलग्न था। उसके यहां भोजन कर चुकने के बाद भी खाने पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियां, गायें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियां आदि थीं। लोगों द्वारा अपरिभूत-अतिरस्कृत था--इतना रौबीला था कि कोई उसका तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर पाता था। विवेचन • इस प्रसंग में गाहावई [गाथापति] शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। यह विशेषतः जैन साहित्य में ही प्रयुक्त है। गाहा+वई इन दो शब्दों के मेल से यह बना है। प्राकृत में 'गाहा' आर्या छन्द के लिए भी आता है और घर के अर्थ में भी प्रयुक्त है। इसका एक अर्थ प्रशस्ति भी है । धन, धान्य, समृद्धि, वैभव आदि के कारण बड़ी प्रशस्ति का अधिकारी होने से भी एक सम्पन्न, समृद्ध गृहस्थ के लिए इस शब्द का प्रयोग टीकाकारों ने माना है। पर, गाहा का अधिक संगत अर्थ घर ही प्रतीत होता है। इस प्रसंग से ऐसा प्रकट होता है कि खेती तथा गो-पालन का कार्य तब बहुत उत्तम माना जाता था। समृद्ध गृहस्थ इसे रूचिपूर्वक अपनाते थे। वैभव ४. तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वुड्डि-पउत्ताओ; चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगोसा-हस्सिएणं वएणं होत्था। आनन्द गाथापति का चार करोड़ स्वर्ण खजाने मे रक्खा था, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में लगा था, चार करोड़ स्वर्ण घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगा था ।उसके चार व्रज--गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं । विवेचन यहां प्रयुक्त हिरण्ण [हिरण्य]--स्वर्ण का अभिप्राय उन सोने के सिक्कों से है, जो उस समय प्रचलित रहे हों। सोने के सिक्कों का प्रचलन इस देश में बहुत पुराने समय से चला आ रहा है । भगवान् Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२] [उपासकदशांगसूत्र महावीर के समय के पश्चात् भी भारत में सोने के सिक्के चलते रहे। विदेशी शासकों ने भारत में जो सोने का सिक्का चलाया उसे दीनार कहा जाता था। संस्कृत भाषा में 'दीनार' शब्द ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया गया। मुसलमान बादशाहों के शासन-काल में जो सोने का सिक्का चला, वह मोहर या अशरफी कहा जाता था। उसके बाद भारत में सोने के सिक्कों का प्रचलन बन्द हो गया। सामाजिक प्रतिष्ठा ५.से णं आणंदे गाहावई बहूणं राईसर-जाव (तलवर-माडंबिय-कोडंबिय-इब्भसेट्ठि-सेणावइ) सत्थवाहाणं बहुसु कजेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुटुंबेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिजे पडिपुच्छणिजे सयस्स वि य णं कुटुंबस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं, चक्खू, मेढीभूए जाव (पमाणभूए, आहारभूए, आलंबणभूए, चक्खुभुए) सव्व-कज-वड्ढावए यावि होत्था। आनन्द गाथापति बहुत से राजा--मांडलिक नरपति, ईश्वर--ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरूष [तलवर--राज-सम्मानित विशिष्ट नागरिक, मांडविक या माडंबिक--जागीरदार भूस्वामी कौटुम्बिक-बड़े परिवारों के प्रमुख, इभ्य--वैभवशाली, श्रेष्ठी--सम्पत्ति और सुव्यवहार से प्रतिष्ठा-प्राप्त सेठ, सेनापति] तथा सार्थवाह--अनेक छोटे व्यापारियों को साथ लिए देशान्तर में व्यवसाय करने वाले समर्थ व्यापारी-इन सबके अनेक कार्यों में, कारणों में, मंत्रणाओं में, पारिवारिक समस्याओं में, गोपनीय बातों में, एकान्त में विचारणीय--सार्वजनिक रूप में अप्रकटनीय विषयों में, किए गए निर्णयों में तथा परस्पर के व्यवहारों में पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य व्यक्ति था। वह सारे परिवार का मेढिमुख्यकेन्द्र, प्रमाण--स्थिति स्थापक--प्रतीक, आधार, आलंबन, चक्षु--मार्ग-दर्शक, मेढिभूत [प्रमाणभूत, आधारभूत, आलंबनभूत चक्षुभूत] तथा सर्व-कार्य-वर्धापक-सब प्रकार के कार्यों को आगे बढ़ाने वाला था। विवेचन यहां प्रयुक्त 'तलवर' आदि शब्द उस समय के विशिष्ट जनों के रूप को प्रकट करते हैं ।यह विशेषता विभिन क्षेत्रों से सम्बन्धित थी। आर्थिक, व्यापारिक, शासनिक, व्यावहारिक तथा लोकसंपर्कपरक उन सभी विशेषताओं का संकेत इन शब्दों में प्राप्त होता है, जिनका उस समय के समाज में महत्व और आदर था। आनन्द के व्यापक, प्रभावशाली और आदरणीय व्यक्तित्व का इस प्रसंग से स्पष्ट परिचय प्राप्त होता है। वह इतना उदार, गंभीर और ऊंचे विचारों का व्यक्ति था कि सभी प्रकार के विशिष्ट जन अपने कार्यों में उसे पूछना, उससे सलाह लेना उपयागी मानते थे। इस प्रसंग में एक दूसरी महत्त्व की बात यह है, जो आनन्द के पारिवारिक जीवन की एकता, पारस्परिक निष्ठा और मेल पर प्रकाश डालती है । आनन्द सारे परिवार का केन्द्र-बिन्दु था तथा परिवार के विकास और संवर्धन में तत्पर रहता था। आनन्द के लिए मेढि की उपमा यहां काफी महत्त्वपूर्ण है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [१३ मेढि उस काप्ठ-दंड को कहा जाता है, जिसे खलिहान के बीचोंबीच गाड़ कर, जिससे बांधकर बैलों को अनाज निकालने के लिए चारों ओर घुमाया जाता है। उसके सहारे बैल गतिशील रहते हैं। परिवार में यही स्थिति आनन्द की थी। शिवनन्दा ६. तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स सिवानंदा नामं भारिया होत्था, अहीण-जाव (पडिपुण्ण-पंचिंदिय-सरीरा, लक्खण-वंजण-गुणोववेया, माणुम्माणप्पमाण-पडिपुण्णसुजाय-सव्वंग-सुंदरंगी, ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दसणा) सुरूवा।आणंदस्स गाहावइस्स इट्ठा, आणंदेणं गाहावइणा सद्धिं अणुरत्ता, अविरत्ता, इढे जाव (सद्द-फरिस-रस-रूवगंधे) पंचविहे माणुस्सए काम-भोए पच्चणुभवमाणी विहरइ। ___ आनन्द गाथापति की शिवनन्दा नामक पत्नी थी, [उसके शरीर की पांचों इन्द्रियां अहीनप्रतिपूर्ण--रचना की दृष्टि से अखंडित, सम्पूर्ण, अपने-अपने विषयों में सक्षम थीं, वह उत्तम लक्षणसौभाग्यसूचक हाथ की रेखाएं आदि, व्यंजन--उत्कर्षसूचक तिल, मसा आदि चिह्न तथा गुण-शील, सदाचार, पातिव्रत्य आदि से युक्त थी। दैहिक फैलाव, वजन, ऊंचाई, आदि की दृष्टि से वह परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दरी थी। उसका आकार--स्वरूप चन्द्र के समान सौम्य तथा दर्शन कमनीय था] । ऐसी वह रूपवती थी। आनन्द गाथापति की वह इष्ट-प्रिय थी। वह आनन्द गाथापति के प्रति अनुरक्तअनुरागयुक्त-अत्यन्त स्नेहशील थी। पति के प्रतिकूल होने पर भी वह कभी विरक्त--अनुरागशून्य-- रूष्ट नहीं होती थी। वह अपने पति के साथ इष्ट--प्रिय [शब्द, स्पर्श, रस, रूप तथा गन्धमूलक] पांच प्रकार के सांसारिक काम-भोग भोगती हुई रहती थी। विवेचन प्रस्तुत प्रसंग में नारी के उस प्रशस्त स्वरूप का संक्षेप में बड़ा सुन्दर चित्रण हैं, जिसमें सौन्दर्य और शील दोनों का समावेश है। इसी में नारी की परिपूर्णता है। ___ यहां प्रयुक्त 'अविरक्त' विशेषण पति के प्रति पत्नी के समर्पण-भाव तथा नारी के उदात्त व्यक्तित्व का सूचक है। कोल्लाक सन्निवेश-- ७. तस्स णं वाणियगामस्स बहिया उत्तरपुरत्थिमे दिसी-भाए एत्थ णं कोल्लाए नामं सन्निवेसे होत्था। रिद्ध-स्थिमिय जाव (समिद्धे, पमुइय-जण-जाणवये, आइण्ण-जणमणुस्से, हल-सय-सहस्स-संकिट्ठ-विकिट्ठ-लट्ठ-पण्णत्त-सेउसीमे, कुक्कुड-संडेय-गामपउरे, उच्छु-जव-सालि-कलिये,गो-महिस-गवेलग-प्पभूये, आयारवन्त-चेइय-जुवइ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४] [उपासकदशांगसूत्र विविह-सण्णिविट्ठ-बहुले, उक्कोडिय-गाय-गंठि-भेय-भड-तक्कर-खंडरक्खरहिये, खेमे, णिरूवद्दवे, सुभिक्खे, वीसत्थसुहावासे, अणेग-कोडि-कुडुं बियाइण्ण-णिव्वुय-सुहे, नडनट्टग-जल्ल-मल्ल-मुट्ठिय-वेलंबय-कहग-पवग--लासग-आइक्खग-लंख-मंख-तूणइल्लतुंबवीणिय-अणेग-तालायराणुचरिये, आरामुजाण-अगड-तलाग-दीहिय-वप्पिणिगुणोववेये, नंदणवण-सन्निभ- प्यगासे, उव्विद्ध-विउल-गंभीर-खाय-फलिहे, चक्क-गयभुसुंढि-ओरोह-सयग्धि-जमल-कवाड-घण-दुप्पवेसे, धणु-कुडिल-वंक-पागारपरिक्खित्ते, कविसीसय-वट्ट-रइय-संठिय-विरायमाणे, अट्टालयं-चरिय-दार-गोपुर-तोरणउण्णय-सुविभत-रायमग्गे, छे यायरिय-रइय-दढ-इंदकीले, विवणि-वणिच्छेत्तसिप्पियाइण्ण-निव्वुयसुहे, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-पणियावण-विविह-वत्थुपरिमंडिये,सुरम्मे, नरवइ-पविइण्ण-महिवइ-पहे, अणेगवन-तुरग-मत्तकुंजर-रह-पहकरसीय-संदमाणीयाइण्ण-जाण-जग्गे. विमउल-णवणलिणिसोभियजले, पंडरवरभवणसण्णिमहिये उत्ताणणयणपेच्छणिज्जे,) पासादीए, दरिसणिज्जे, अभिरूवे, पडिरूवे। ___ वाणिजयग्राम के बाहर उत्तर-पूर्व दिशाभाग-ईशान कोण में कोल्लाकनामक सन्निवेश-उपनगर था। वह वैभवशाली, सुरक्षित एवं समृद्ध था। वहां के नागरिक और जनपद के अन्य भागों से आए व्यक्ति वहां आमोद-प्रमोद के प्रचुर साधन होने से प्रमुदित रहते थे, लोगों की वहां घनी आबादी थी, सैकड़ो, हजारों हलों से जुती उसकी समीपवर्ती भूमि सहजतया सुन्दर मार्ग-सीमा सी लगती थी, वहां मुर्गो और युवा सांडों के बहुत से समूह थे, उसके आसपास की भूमि ईख, जौ और धान के पौधों से लहलहाती थी, वहां गायों, भैसों और भेड़ों की प्रचुरता थी, वहां सुन्दर शिल्पकला युक्त चैत्यों और युवतियों के विविध सन्निवेशों-पण्य तरूणियों के पाड़ों-टोलों का बाहुल्य था, वह रिश्वतखोरों, गिरहकटों, बटमारों, चोरों, खंड-रक्षकों--चुंगी वसूल करनेवालों से रहित, सुख-शान्तिमय एवं उपद्रवशून्य था, वहां भिक्षुकों को भिक्षा सूखपूर्वक प्राप्त होती थी, इसलिए वहां निवास करने में सब सुख मानते थे, आश्वस्त थे। अनेक श्रेणी के कौटुम्बिक--पारिवारिक लोगों की घनी बस्ती होते हुए भी वह शान्तिमय था, नट--नाटक दिखाने वाले, नर्तक-नाचने वाले, जल्ल--कलाबाज--रस्सी आदि पर चढ़कर कला दिखाने वाले, मल्ल- पहलवान, मौष्टिक-मुक्केबाज, विडंबक-विदूषक-मसखरे, कथक--कथा कहने वाले, प्लवक--उछलने या नदी आदि में तैरने का प्रदर्शन करने वाले, लासक--वीर रस की गाथाएं या रास गाने वाले, आख्यायक--शुभ-अशुभ बताने वाले, लंख-बांस के सिरे पर खेल दिखाने वाले, मंख--चित्रपट दिखा कर आजीविका चलाने वाले, तूणइल्ल-तूण नामक तन्तु-वाद्य बजाकर आजीविका करने वाले, तुंब-वीणिक--तुंव-वीणा या पूंगी बजाने वाले, तालाचर--ताली बजाकर मनोविनोद करने वाले आदि अनेक जनों से वह सेवित था। आराम--क्रीडा-वाटिका, उद्यान--बगीचे, कुएं, तालाब बावड़ी जल के छोटे-छोटे बांध-इनसे युक्त था, नन्दनवन सा लगता था, वह ऊंची, विस्तीर्ण और गहरी खाई से युक्त था, चक्र, गदा, भसंडि--पत्थर फेंकने का एक विशेष शस्त्र गोफिया, अवरोध--अन्तरप्राकार--शत्र-सेना को रोकने के लिए परकोटे जैसा भीतरी सदढ आवरक साधन, शतध्नी--महायष्टि Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [१५ या महाशिला, जिसके गिराए जाने पर सैकड़ों व्यक्ति दब-कुचलकर मर जाएं, और द्वार के छिद्र रहित कपाटयुगल के कारण जहां प्रवेश कर पाना दुष्कर था, धनुष जैसे टेढे परकोटे से वह घिरा हुआ था, उस परकोटे पर गोल आकार के बने हुए कपिशीर्षकों से वह सुशोभित था, उसके राजमार्ग, अट्टालकपरकोटे के ऊपर निर्मित आश्रय-स्थानों--गुमटियों, चरिक--परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गो, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों--बारियों, गोपुरों--नगर-द्वारों, तोरण--द्वारों से सुशोभित और सुविभक्त थे, उसकी अर्गला और इन्द्रकील--गोपुर के किवाड़ों के आगे जड़े हुए नुकीले भाले जैसी कीलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यों निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित थी, विपणि--हाट-मार्ग, वणिक्-क्षेत्र-- व्यापार-क्षेत्र बाजार के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के आवासित होने के कारण वह सुखसुविधापूर्ण था, तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों चत्वरों-जहां चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दूकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडित--सुशोभित और रमणीय था। राजा की सवारी निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती थी, वहां अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथी, रथ--समूह, शिविका-पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका--पुरूष-प्रमाण पालखियां, यान--गाड़ियां तथा युग्य--पुरातन कालीन गोल्ल देश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे--चौड़े डोली जैसे यान--इनका जमघट लगा रहता था। वहां खिले हुए कमलों से शोभित जल वाले-- जलाशय थे, सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निर्निमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय,] चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप-मनोज्ञ--मन को अपने में रमा लेने वाला तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला था। ८. तत्थ णं कोल्लाए सन्निवेसे आणंदस्स गाहावइस्स बहुए मित्त- नाइ-नियगसयण-संबंधि-परिजणे परिवसइ, अड्ढे जाव' अपरिभूए। वहां कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द गाथापति के अनेक मित्र, ज्ञातिजन-समान आचार-विचार के स्वजातिय लोग, निजक--माता, पिता, पुत्र पुत्री आदि, स्वजन-बन्धु-बान्धव आदि, सम्बन्धी--श्वशुर, मातुल आदि, परिजन--दास, दासी, आदि निवास करते थे, जो समृद्ध एवं सुखी थे। भगवान् महावीर का समवसरण ९. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जावं (आइगरे, तित्थगरे, सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे, पुरिस-सीहे, पुरिस-वर-पुंडरीए, पुरिस-वर-गंधहत्थीए, अभयदए, चक्खुदए, मग्गदए, सरणदए, जीवदए, दीवोत्ताणं, सरण-गई-पइट्ठा, धम्म-वर-चाउरंत-चक्कवट्टी अप्पडिहय-वर-नाण-दसणधरे, विअट्ट-च्छउमे, जिणे, जाणए, तिण्णे, तारए, मुत्ते, मोयए, बुद्धे, बोहए, सव्वण्णू, सव्वदरिसी, सिवमयलमरूअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं, सिद्धि--गइ-नामधेयं ठाणं संपाविउकामे, अरहा, जिणे, केवली, सत्तहत्थुस्सेहे, सम-- चउरंस--संठाण--संठिए, वज--रिसह--नाराय--संघयणे, अणुलोमवाउवेगे, कंक-- १. देखें सूत्र-संख्या ३ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [ उपासकदशांगसूत्र ग्गहणे, कवोय-- परिणामे, सउणि--पोस -- पिट्ठतरोरू-- परिणए, पउमुप्पल--गंध-सरिस--निस्सास--सुरभि - वयणे - छवी, निरायंक-- उत्तम -- पसत्थ - - अइसेय - निरूवम-पले, जल्ल - मल्ल कलंक-- सेय-रय - दोस- वज्जिय- सरीरे, निरूवलेवे, छाया - उज्जोइर्यगमंगे, घण- निचिय -- सुबद्ध-- लक्खणुन्नय - कूडागार - - निभ-पिंडियग्गसिरए, सामलि-- बोंड--घण-निचिय--फोडिय--मिउ-विसय पसत्थ-- सुहुम-- लक्खण- सुगंध -- सुंदर भुयमोयग -- भिंग - नील- - कज्जल - - पहि ट्ठ-- भमर - गण -- निद्ध-- निकुरंब -- निचिय -- कुंचिय-पयाहिणावत्त-मुद्ध-- सिरए, दाडिम-- पुप्फ-पकास -- तवणिज्ज- सरिस - निम्मल-सुणिद्ध-- के संत-- केसभूमी, घण-निचिय - छत्तागारूतमंगदेसे, णिव्वण--सम-- लट्ठ -- मट्ठ--चंदद्ध-सम- णिडाले, उड्डुवइ -- पडि पुण्ण-- सोम-वदणे, अल्लीण -- पमाणजुत्त-सवणे, सुसवणे, पीण-- मंसल - - कवोल -- देसभाए, आणामिय--चाव -- रूइल-किण्हब्भ- राइ -- तणु-कसिण- णिद्ध-भमुहे, अवदालिय-- पुंडरीय--णयणे, कोयासिय-धवल--पत्तलच्छे, गरूलायत - उज्जु--तुंग -- णासे, उवचिय-सिलप्पवाल -- बिंबफल -- सण्णिभाधरोठ्ठे, पंडुर-ससि-सयल -- विमल -- निम्मल - संख- गोक्खीर - फेण-- कुंद--दग- रय - मुणालिया - धवल -- दंत--सेढी, अखंड -- दंते, अप्फुडिय - दंते, अविरल -- दंते, सुणिद्ध- दंते, सुजाय-- दंते, एग-दंत--सेढीविव-अणेग-- दंते, हुयवह- णिद्धंत--धोय--तत्त-तवणिज्ज---रत्ततल-तालु-जीहे, अवट्ठिय- सुविभत्त-चित्त-मंसु, मंसल - संठिय-पसत्थ-सद्दूल -- विउल-- हणुए, चउरंगुल -- सुप्पमाण -- कंबु -- वर -- सरिस - ग्गीवे, वर-- महिस- वराह-- सीह -- सद्दूल--उसभ-- नाग- - वर -- पडिपुण्ण - - विउल -- क्खंधे, जुग-सन्निभ-- पीण--रइय- पीवर - - पउठ्ठ -- संठिय--सुसिलिट्ठ - विसिट्ठ- घण--थिर--सुबद्ध- संधि--पुर -- वर-फलिह - वट्टिय-- भुए, भुय - ईसर - विउल -- भोग-- आदान -- फलिहउच्छूढ - दीह-- बाहू, रत्त--तलोवइय--मउय-मंसल - सुजाय-- लक्खण--पसत्थ-- अच्छिद्दजाल - पाणी, पीवर- कोमल-वरंगुली, आयंबतंब - तलिण- सुइ - रूइल - णिद्ध-णक्खे, चंदपाणि-- लेहे, सूर -- पाणि- लेहे, संख--पाणि- लेहे, चक्क --पाणि- लेहे, दिसा-सोत्थिय -- पाणि-- लेहे, चंद-- सूर - संख - - चक्क - दिसा -- सोत्थिय-पाणि-- लेहे, कणग- सिला--तलुज्जल-- पसत्थ - - समतल - उवचिय-- विच्छिण्ण-- पिहुल-वच्छे, सिरिवच्छं-कियवच्छे, अकरंडुय-- कणग- रूइय-- निम्मल - - सुजाय -- निरूवहय-- देहधारी, अट्ठसहस्स -- पडिपुण्ण-- वरपुरिस - - लक्खणधरे, सण्णय-पासे, संगय-पासे, सुंदर -पासे, सुजाय-पासे, मिय-- माइय-- पीण -- रइय-- पासे, उज्जुय- सम-सहिय-जच्च--तणु-कसिण- णिद्ध-- आइज्ज - लडह-रमणिज्ज - रोम - - राई, झसविहग -- सुजाय-- पीण -- कुच्छी, झसोयरे, सुइ-- करणे, पउम - वियड - णाभे, गंगावत्तक-पयाहिणावत्त--तरंग-भंगुर - १. देखें सूत्र - संख्या ३ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [१७ -रवि-किरण-तरूण--बोहिय--अकोसायंत--पउम--गंभीर--वियड-णाभे, साहय-- सोणंद--मुसल--दप्पण-णिकरिय-वर-कणग-च्छरू-सरिस-वर-वइर-वलिअ--मज्झे पमुइय--वर--तुरय-सीह-वर-वट्टिय-कडी, वरतुरग-सुजाय-गुज्झ-देशे, आइणहउच्च-णिरूवलेवे,वर-वारण-तुल्ल--विक्कम--विलसिय-गई,गय-ससण-सुजाय-सन्निभोरू, समुग्ग-णिमग्ग-गूढ-जाणू, एणी--कुरूविंदावत्त--वट्टाणुपुव्व--जंघे, संठिय--सुसिलिट्ठगूढ-गुप्फे, सुपइट्ठिय--कुम्म--चारू--चलणे, अणुपुव्व-सुसंहयंगुलीए, उण्णय--तणु-तंब-णिद्ध-णक्खे, रत्तुप्पल-पत--मउअ--सुकुमाल कोमल-तले, अट्ठ-सहस्स-वरपुरिस-लक्खणधरे, नग-नगर-मगर-सागर-चक्कंक--वरंक-मंगलंकय--चलणे, विसिट्ठ-रूवे, हुयवह--निळूम--जलिय--तडि-तडिय-तरूण-रवि-किरण-सरिस-तेए, अणासवे, अममे, अकिंचणे, छिन्न--सोए, निरूवलेवे, ववगय-पेम-राग-दोस-मोहे, निग्गंथस्स पवयणस्स देसए, सत्थ-नायगे, पइट्ठावए, समणग--पई, समण-विंद-परिअट्टए चउत्तीस--बद्ध--वयणातिसेसपत्ते, पणतीस-सच्च-वयणातिसे-सपत्ते. आगास-गएणं चक्केणं, आगास-गएणं छत्तेणं, आगास-गयाहिं सेय चामराहिं, आगास-फलिआ-गएणं, सपायपीढेणं, सीहासणेणं, धम्मज्झएणं पुरओ पकढिजमाणेणं, चउद्दसहिंसमण-- सहस्सीहिं, छतीसाए अज्जिया- सहस्सीहिं सद्धिं संपरिवुडे, पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं विहरमाणे ) समोसरिए। परिसा निग्गया कूणिए राया जहा, तहा जियसत्तू निग्गच्छइ। निग्गच्छित्ता जाव (जेणेव दूइपलासए चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते छत्ताईए तित्थयरातिसेसे पासइ, पासित्ता आभिसेक्कं हत्थि-रयणं ठवेइ, ठवित्ता आभिसेक्काओ हत्थि-रयणाओ पच्चोरूहइ, आभिसेक्काओ हत्थि-रयणाओ पच्चोरूहित्ता अवहटु पंच-राय-ककुहाइं, तं जहा--खग्गं, छत्तं उप्फेसं, वाहणाओ, बालवीयणं, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव, उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तं जहा--सच्चित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, अच्चित्ताणं दव्वाणं अविउसरणयाए, एगसाडियं उत्तरासंगं करणेणं, चक्खुफासे अंजलि-पग्गहेणं, मणसो एगत्तभाव-करणेणं समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ, तं जहा--काइआए, वाइआए, माणसिआए। काइआए ताव संकुइयग्गहत्थपाए, सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे पज्जुवासइ, वाइआए--जं जं भगवं वागरेइ, तं तं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते! असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं भंते ! से जहेयं तुब्भे वदह, अपडिकूलमाणे पज्जुवासइ, माणसियाए महया संवेगं जणइत्ता तिव्व-धम्माणुराग-रत्ते) Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [उपासकदशांगसूत्र पज्जुवासइ। उस समय श्रमण--घोर तप या साधना रूप श्रम में निरत, भगवान्--आध्यात्मिक ऐश्वर्यसम्पन्न, महावीर --उपद्रवों तथा विघ्नों के बीच साधना-पथ पर वीरतापूर्वक अविचल भाव से गतिमान् [आदिकर--अपने युग में धर्म के आद्य प्रवर्तक, तीर्थंकर--साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ-धर्मसंघ के प्रतिष्ठापक, स्वयं संबुद्ध--स्वयं-बिना किसी अन्य निमित्त के बोध-प्राप्त, पुरूषोत्तम-पुरूषों में उत्तम, पुरूष सिंह-आत्मशौर्य में पुरूषों में सिंह-सदृश, पुरूषवर-पुंडरीक-मनुष्यों में रहते हुए कमल की तरह निर्लेप--आसक्तिशून्य, पुरूषवर-गंधहस्ती--पुरूषों में उत्तम गन्धहस्ती के सदृशजिस प्रकार गन्धहस्ती के पहुंचते ही सामान्य हाथी भाग जाते हैं, उसी प्रकार क्षेत्र में जिनके प्रवेश करते ही दुर्भिक्ष, महामारी आदि अनिष्ट दूर हो जाते थे, अर्थात् अतिशय तथा प्रभावपूर्ण उत्तम व्यक्तित्व के धनी, अभयप्रदायक- सभी प्राणियों के लिए अभयप्रद-सम्पूर्णतः अहिंसक होने के कारण किसी के लिए भय उत्पन्न नहीं करने वाले, चक्षु-प्रदायक-आन्तरिक नेत्र--सद्ज्ञान देने वाले, मार्ग-प्रदायक सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप साधना-पथ के उद्बोधक, शरणप्रद--जिज्ञासु तथा मुमुक्षु जनों के लिए आश्रयभूत, जीवनप्रद-आध्यात्मिक जीवन के संबल, दीपक सदृश समस्त वस्तुओं के प्रकाशक अथवा संसार-सागर में भटकते जनों के लिए द्वीप समान आश्रयस्थान, प्राणियों के लिए आध्यात्मिक उद्बोधन के नाते शरण, गति एवं आधारभूत चार अन्त-सीमा युक्त पृथ्वी के अधिपति के समान धार्मिक जगत् के चक्रवर्ती, प्रतिघात-बाधा या आवरण रहित उत्तम ज्ञान, दर्शन आदि के धारक, व्यावृत्तछद्मा--अज्ञान आदि आवरण रूप छद्म से अतीत, जिन-राग आदि के जेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग को जीतने का पथ बताने वाले तीर्ण--संसार-सागर को पार कर जानेवाले, तारक--संसार-सागर से पार उतारने वाले, मुक्त--बाहरी और भीतरी ग्रंथियों से छूटे हुए, मोचक-- दूसरों को छुड़ाने वाले, बुद्ध--बोद्धव्य-- जानने योग्य का बोध प्राप्त किये हुए, बोधक--औरों के लिए बोधप्रद, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, शिव--कल्याणमय, अचल--स्थिर निरूपद्रव, अन्तरहित, क्षयरहित बाधारहित, अपुनरावर्तन--जहाँ से फिर जन्म-मरण रूप संसार में आगमन नहीं होता, ऐसी सिद्ध-गति--सिद्धावस्था नामक स्थिति पाने के लिए संप्रवृत्त, अर्हत्--पूजनीय, रागादिविजेता, जिन, केवली--केवलज्ञान युक्त, सात हाथ की दैहिक ऊंचाई से युक्त, समचौरस-संस्थान-संस्थित, वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन--अस्थिबन्ध युक्त, देह के अन्तर्वर्ती पवन के उचित वेग-गतिशीलता से युक्त, कंक पक्षी की तरह निर्दोष गुदाशय युक्त, कबूतर की तरह पाचनशक्ति युक्त उनका अपान-स्थान उसी तरह निर्लेप था जैसे पक्षी का, पीठ और पेट के बीच के दोनों पार्श्व तथा जंधाएं सुपरिणत-सुन्दर-सुगठित थीं, उनका मुख पद्म कमल अथवा पद्म नामक सुगन्धिक द्रव्य तथा उत्पल--नील कमल या उत्पलकुष्ट नामक सुगन्धित द्रव्य जैसी सुरभिमय निःश्वास से युक्त था, छवि-उत्तम छविमान्-उत्तम त्वचा युक्त, नीरोग, उत्तम, प्रशस्त, अत्यन्त श्वेत मांस युक्त, जल्ल--कठिनाई से छूटने वाला मैल, मल्ल--आसानी से छुटनेवाला मैल, कलंक-- दाग, धब्बे, स्वेद-- पसीना तथा रज-दोष-- मिट्टी लगने से विकृति-वर्जित शरीर युक्त,अतएव निरूपलेप- अत्यन्त स्वच्छ, दीप्ति से उद्योतित प्रत्येक अंगयुक्त, अत्यधिक सघन, सुबद्ध स्नायुबंध सहित लक्षणमय पर्वत के शिखर के समान उन्नत उनका मस्तक था, बारीक रेशो से भरे सेमल के फल के हित. उत्तम Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [१९ फटने से निकलते हुए रेशों जेसी कोमल, विशद, प्रशस्त, सूक्ष्म, श्लक्ष्ण--मुलायम, सुरभित, सुन्दर, भुजमोचक, नीलम, भिंग नील, कज्जल प्रहृष्ट--सुपुष्ट भ्रमरवृन्द जैसे चमकीले काले, घने, घुघराले, छल्लेदार केश उनके मस्तक पर थे, जिस त्वचा पर उनके बाल उगे हुए थे, वह अनार के फूल तथा सोने के समान दीप्तिमय, लाल, निर्मल और चिकनी थी, उनका उत्तमांग-- मस्तक का ऊपरी भाग सघन, भरा हुआ और छत्राकार था। उनका ललाट निव्रण-फोड़े-फुन्सी आदि के घाव--चिह्न से रहित, समतल तथा सुन्दर एवं शुद्ध अर्द्ध चन्द्र के सदृश भव्य था, उनका मुख पूर्ण चन्द्र के समान सौम्य था, उनके कान मुख के साथ सुन्दर रूप में संयुक्त और प्रमाणोपेत--समुचित आकृति के थे, इसलिए वे बड़े सुन्दर लगते थे, उनके कपोल मांसल और परिपुष्ट थे, उनकी भौंहे कुछ खींचे हुए धनुष के समान सुन्दर-टेढ़ी, काले बादल की रेखा के समान कृश-- पतली, काली एवं स्निग्ध थी, उनके नयन खिले हुए पुंडरीक- सफेद कमल के समान थे, उनकी आंखे पद्म--कमल की तरह विकसित धवल तथा पत्रल--बरौनी युक्त थी, उनकी नासिका गरूड़ की तरह--गरूड़ की चोंच की तरह लम्बी, सीधी और उन्नत थी, संस्कारित या सुघटित मूंगे की पट्टी-जैसे या बिम्ब फल के सदृश उनके होठ थे, उनके दांतों की श्रेणी निष्कलंक चन्द्रमा के टुकड़े, निर्मल से भी निर्मल शंख, गाय के दूध, फेन, कुंद के फूल, जलकण और कमलनाल के समान सफदे थी, दांत अखंड, परिपूर्ण, अस्फुटित--सुदृढ, टूटफूट रहित, अविरल--परस्पर सटे हुए, सुस्निग्ध--चिकने--आभामय सुजात--सुन्दराकार थे, अनेक दांत एक दन्त-श्रेणी की तरह प्रतीत होते थे, जिह्वा और तालु अग्नि में तपाये हुए और जल से धोये हुए स्वर्ण के समान लाल थे, उनकी दाढ़ी-मूंछ अवस्थित कभी नहीं बढ़ने वाली, सुविभक्त बहुत हलकीसी तथा अद्भुत सुन्दरता लिए हुए थी, ठुड्डी मांसल--सुगठित, सुपुष्ट, प्रशस्त तथा चीते की तरह विपुल-- विस्तीर्ण थी, ग्रीवा-गर्दन-चार अंगुल प्रमाण--चार अंगुल चौड़ी तथा उत्तम शंख के समान त्रिबलियुक्त एवं उन्नत थी, उनके कन्धे प्रबल भैंसे, सूअर, सिंह, चीते, सांड के तथा उत्तम हाथी के कन्धों जैसे परिपूर्ण एवं विस्तीर्ण थे, उनकी भुजाएं युग-गाड़ी के जुए अथवा यूप--यज्ञ स्तम्भ--खुंटे की तरह गोल और लम्बे, सुदृढ़, देखने में आनन्दप्रद, सुपुष्ट कलाइयों से युक्त, सुश्लिष्ट--सुसंगत, विशिष्ट, घन--ठोस, स्थिर, स्नायुओं से यथावत् रूप में सुबद्ध तथा नगर की अर्गला-- आगल के समान गोलाई लिए हुई थीं, इच्छित वस्तु प्राप्त करने के लिए नागराज के फैले हुए विशाल शरीर की तरह उनके दीर्घ बाहु थे, उनके पाणि--कलाई से नीचे के हाथ के भाग उन्नत, कोमल, मांसल तथा सुगठित थे, शुभ लक्षणों से युक्त थे, अंगुलियाँ मिलाने पर उनमें छिद्र दिखाई नहीं देते थे, उनके तल--हथेलियाँ ललाई लिए हए थीं, हाथों की अंगलियाँ पष्ट और सकोमल थीं. उनके नख तांबे की तरह कछ-कछ ललाई लिए हुए, पतले, उजले, रूचिर--देखने में रूचिकर,स्निग्ध, सुकोमल थे, उनकी हथेली चन्द्र, सूर्य, शंख, चक्र, दक्षिणावर्त स्वस्तिक की शुभ रेखाएं थीं, उनका वक्षस्थल--सीना स्वर्ण-शिला के तल के समान उज्जवल, प्रशस्त, समतल, उपचित--मांसल, विस्तीर्ण--चौड़ा, पृथुल--[विशाल] था, उस पर श्रीवत्स--स्वस्तिक का चिह्न था, देह की मांसलता या परिपुष्टता के कारण रीढ़ की हड्डी नहीं दिखाई देती थी, उनका शरीर स्वर्ण के समान कान्तिमान्, निर्मल, सुन्दर निरूपहत--रोग-दोषवर्जित था, उसमें उत्तम पुरूष के १००८ लक्षण पूर्णतया विद्यमान थे, उनकी देह के पार्श्व भाग-- Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [उपासकदशांगसूत्र पसवाड़े नीचे की ओर क्रमशः संकड़े, देह के प्रमाण के अनुरूप, सुन्दर, सुनिष्पन्न, अत्यन्त समुचित परिमाण में मांसलता लिए हुए मनोहर थे, उनके वक्ष और उदर पर सीधे, समान, संहित--एक दूसरे से मिले हुए, उत्कृष्ट कोटि के, सूक्ष्म--हलके, काले, चिकने, उपादेय-उत्तम, लावण्यमय, रमणीय बालों की पंक्ति थी, उनके कुक्षि-प्रदेश--उदर के नीचे के दोनों पार्श्व मत्स्य और पक्षी के समान सुजात-- सुनिष्पन्न--सुन्दर रूप में रचित तथा पीन--परिपुष्ट थे, उनका उदर मत्स्य के जैसा था, उनके उदर का करण--आन्त्र-समूह शुचि-स्वच्छ-निर्मल था, उनकी नाभि कमल की तरह विकट--गूढ, गंगा के भंवर की तरह गोल, दाहिनी ओर चक्कर काटती हुई तरंगों की तरह घुमावदार, सुन्दर , चमकते हुए सूर्य की किरणों से विकसित होते कमल के समान खिली हुई थी तथा उनकी देह का मध्य भाग त्रिकाष्ठिका, मूसल व दर्पण के हत्थे के मध्य-भाग के समान, तलवार की मूठ के समान तथा उत्तम वज्र के समान गोल और पतला था, प्रमुदित--रोग, शोकादि रहित-- स्वस्थ, उत्तम घोड़े तथा उत्तम सिंह की कमर के समान उनकी कमर गोल घेराव लिए थी, उत्तम घोड़े के सुनिष्पन्न गुप्तांग की तरह उनका गुह्य भाग था, उत्तम जाति के अश्व की तरह उनका शरीर 'मलमूत्र' विसर्जन की अपेक्षा से निर्लेप था, श्रेष्ठ हाथी के तुल्य पराक्रम और गम्भीरता लिए उनकी चाल थी, हाथी की सूंड की तरह उनकी दोनों जंघाएं सुगठित थीं, उनके घुटने डिब्बे के ढक्कन की तरह निगूढ़ थे--मांसलता के कारण अनुन्नत-- बाहर नहीं निकले हुए थे, उनकी पिण्डलियाँ हरिणी की पिण्डलियों, कुरूविन्द घास तथा कते हुए सूत की गेंढी की तरह क्रमश:उतार सहित गोल थी, उनके टखने सुन्दर, सुगठित और निगूढ थे, उनके चरण--पैर सप्रतिष्ठित--सन्दर रचनायक्त तथा कछवे की तरह उठे हए होने से मनोज्ञ प्रतीत होते थे.उनके पैरों की अंगलियाँ क्रमश: आनपातिक रूप में छोटी-बडी एवं ससंहत--सन्दर रूप में एक दूसरे से सटी हुईं थीं, पैरों के नख उन्नत, पतले, तांबे की तरह लाल, स्निग्ध--चिकने थे, उनकी पगथलियाँ लाल कमल के पत्ते के समान मृदुल, सुकुमार तथा कोमल थीं, उनके शरीर में उत्तम पुरूषों के १००८ लक्षण प्रकट थे, उनके चरण पर्वत, नगर, मगर, सागर तथा चक्र रूप उत्तम चिह्नों और स्वस्तिक मंगल--चिह्नों से अंकित थे, उनका रूप विशिष्ट--असाधारण था, उनका तेज अग्नि की निधूम ज्वाला, विस्तीर्ण विद्युत तथा अभिनव सूर्य की किरणों के समान था, वे प्राणातिपात आदि आस्त्रव-रहित, ममता-रहित थे, अकिंचन थे, भव-प्रवाह को उच्छिन्न कर चुके थे--जन्म-मरण से अतीत हो चुके थे, निरूपलेप--द्रव्य-दृष्टि से निर्मल देहधारी तथा भाव-दृष्टि से कर्मबन्ध के हेतु रूप उपलेप से रहित थे, प्रेम, राग, द्वेष और मोह का नाश कर चुके थे, निर्ग्रन्थ--प्रवचन के उपदेष्टा, धर्मशासन के नायक--शास्ता, प्रतिष्ठापक तथा श्रमण-पति थे, श्रमणवृन्द से घिरे हुए थे, जिनेश्वरों के चौतीस बुद्ध-अतिशयों से तथा पैंतीस सत्य-वचनातिशयों से युक्त थे, आकाशगत चक्र, छत्र [तीन], आकाशगत चंवर, आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक से बने पादपीठ सहित सिंहासन, धर्मध्वज--ये उनके आगे चल रहे थे, चौदह हजार साधु तथा छत्तीस हजार साध्वियों से संपरिवृत--घिरे हुए थे, आगे से आगे चलते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए सुखपूर्वक विहार करते हुए, भगवान् वाणिज्यग्राम नगर में दूतीपलाश चैत्य में पधारे। ठहरने के लिए यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम व तप से आत्मा को अनुभावित करते हुए विराजमान हुए-टिके ,परिषद् जुड़ी, राजा जितशत्रु राजा कूणिक Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [ २१ की तरह भगवान् के दर्शन वन्दन के लिए निकला, [दूतीपलाश चैत्य में आया ।] आकर भगवान् के न अधिक दूर न अधिक निकट - - समुचित स्थान पर रूका । तीर्थंकरों के छत्र आदि - अतिशयों को देख कर अपनी सवारी के प्रमुख उत्तम हाथी को ठहराया, हाथी से नीचे उतरा, उतर कर तलवार, छत्र, मुकुट, चंवर -- इन राज-चिह्नों को अलग किया, जूते उतारे । भगवान् महावीर जहां थे वहां आया। आकर, सचित--पदार्थों का व्युत्सर्जन --अलग करना, अचित्त--अजीव पदार्थो का अव्युत्-सर्जन -- अलग न करना अखण्ड -- अनसिले वस्त्र -- का उत्तरासंग -- उत्तरीय की तरह कन्धे पर डाल कर धारण करना, धर्म- नायक पर दृष्टि पड़ते ही हाथ जोड़ना, मन को एकाग्र करना--इन पांच नियमों के अनुपालनपूर्वक राजा जितशत्रु भगवान् के सम्मुख गया। भगवान् को तीन बार आदक्षिण-- प्रदक्षिणा कर वन्दना की, नमस्कार किया । वन्दना, नमस्कार कर कायिक, वाचिक, मानविक रूप से पर्युपासना की । कायिक पर्युपासना के रूप में हाथ-पैरों को संकुचित किए हुए - - सिकोड़े हुए, शुश्रूषा -- सुनने की इच्छा करते हुए भगवान् की ओर मुंह किये, विनय से हाथ जोड़े हुए स्थित रहा । वाचिक पुर्वपासना के रूप में-- जो-जो भगवान् बोलते थे, उसके लिए यह ऐसा ही है भन्ते ! यही तथ्य है भगवन् ! यही सत्य है प्रभो ! यही सन्देह - रहित है स्वामी ! यही इच्छित है भन्ते ! यही प्रतीच्छित -- स्वीकृत है, प्रभो! यही इच्छित -- प्रतीच्छित है भन्ते ! जैसा आप कह रहे हैं ! इस प्रकार अनुकूल वचन बोलता रहा ! मानसिक पर्युपासना के रूप में अपने में अत्यन्त संवेग --मुमुक्षु भाव उत्पन्न करता हुआ तीव्र धर्मानुराग से अनुरक्त रहा। आनन्द द्वारा वन्दन १०. तए णं से आणंदे गाहावई इमीसे कहाए लट्ठे समाणे -- एवं खलु समणे जाव (भगवं महावीरे पुव्वाणुपुव्वि चरमाणे गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे इहमागए, इह संपत्ते, इह समोसढे, इहेव वाणियगामस्स नयरस्स बहिया दूइपलासए चेइए अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे ) विहरइ, तं महफ्फलं जाव (खलु भो! देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णाम- गोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमण-वंदण - णमंसण- पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए ! एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अठ्ठस्स गहणयाए ? तं गच्छामि गं देवाप्पा! समणं भगवं महावीरं वंदामि णमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि ) - एवं संपेहेइ, संपेहित्ता पहाए, सुद्धप्पावेसाई मंगलाई बत्थाइं पवर-परिहिए, अप्पमहग्धाभरणालंकिय- सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सकोरेण्ट-मल्ल-दामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मणुस्स वग्गुरा-परिक्खित्ते पाय-विहारचारेणं वाणियग्गामं नयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छड़, निग्गच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [उपासकदशांगसूत्र करेत्ता वंदइ नमसइ जाव' पज्जुवासइ। तब आनन्द गाथापति को इस वार्ता से-प्रसंग से नगर के प्रमुख जनों को भगवान् की वन्दना के लिए जाते देखकर ज्ञात हुआ, श्रमण भगवान् महावीर [यथाक्रम आगे से आगे विहार करते हुए, ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए--एक गांव से दूसरे गांव का स्पर्श करते हुए यहां आए हैं , संप्राप्त हुए हैं, समवसृत हुए हैं,--पधारे हैं। यहीं वाणिज्यग्राम नगर के बाहर दूतीपलाश चैत्य में यथोचित स्थान में टिके है,] संयम और तपपूर्वक आत्म-रमण में लीन हैं। इसलिए मैं उनके दर्शन का महान् फल प्राप्त करूं। [ऐसे अर्हत् भगवान् के नाम, गोत्र का सुनना भी बहुत बड़ी बात है, फिर अभिगमन--सम्मुख जाना, वन्दना, नमन, प्रतिपृच्छा--जिज्ञासा करना-उनसे पूछना, पर्युपासना करना--इनका तो कहना ही क्या? सद्गुण-निप्पन्न, सद्धर्ममय एक सुवचन का श्रवण भी बहुत बड़ी बात है; फिर विपुल-- विस्तृत अर्थ के ग्रहण की तो बात ही क्या? इसलिए अच्छा हो, मैं जाऊं और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन करूं, सत्कार करुं तथा सम्मान करूं । भगवान् कल्याण हैं, मंगल हैं, देव हैं ,तीर्थ-स्वरूप हैं, इनको पर्युपासना करूं।] आनन्द के मन में यों विचार आया। उसने स्नान किया, शुद्ध तथा सभा-योग्य मांगलिक वस्त्र अच्छी तरह पहने। थोड़े से किन्तु बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, अपने घर से निकला, निकल कर कुरंट-पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किये हुए, पुरूषों से घिरा हुआ, पैदल चलता हुआ वाणिज्यग्राम नगर के बीच में से गुजरा जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां पहुंचा। पहुंचकर तीन बार आदक्षिण--प्रदक्षिणा की, वन्दन किया नमस्कार किया, पर्युपासना की।. धर्म-देशना ११. तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स तीसे य महइ-महालियाए परिसाए जाव धम्म-कहा (इसि-परिसाए, मुणि-परिसाए, जइ-परिसाए, देव-परिसाए, अणेग सयाए, अणेग-सयवंदाए, अणेय-सय-वंद-परिवाराए, ओहबले, अइबले, महब्बले, अपरिमिय-बल-वीरिय--तेय--माहप्प--कंतिजुत्ते, सारद-नवत्थणिय-महुर-गंभीर-कोंचणिग्घोस-दुंदुभिस्सरे, उरे वित्थडाए, कठेऽवट्ठियाए, सरस्सईए, जोयणणीहारिणा सरेणं अद्धमागहाए भासाए भासति, अरिहा धम्म परिकहेइ तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अगिलाए धम्ममाइक्खइ। सा वियणं अद्धमागहा भासा तेसिं सव्वेसिं आरियमणारियाणं अप्पणो सभासाए परिणमइ। तं जहा--अत्थि लोए, अत्थि अलोए, एवं जीवा, अजीवा, बंधे, मोक्खे, पुण्णे, पावे, आसवे, संवरे, वेयणा, णिजरा, अरिहंता, चक्कवट्टी, बलदेवा, वासुदेवा, नरगा, नेरइया, तिरक्खजोणिया, तिरिखजोणिणीओ,माया, पिया रिसयो, देवा, देवलोया, सिद्धी, सिद्धा, परिणिव्वाणं, परिणिव्वुया, अत्थि पाणाइवाए, मुसावाए, अदिण्णीदाणे, १. देखें सूत्र-संख्या २ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] . [२३ मेहुणे परिग्गहे। अत्थि कोहे, माणे, माया, लोभे जाव (पेज्जे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुन्ने, परपरिवाए अरइरई, मायामोसे,) मिच्छा-दसण-सल्ले, अत्थि पाणाइवाय-वेरमणे, मुसावाय-वेरमणे, अदिण्णादाण-वेरमणे, मेहुण-वेरमणे, परिग्गह-वेरमणे जाव मिच्छादंसण-सल्ल-विवेगे। सव्वं अत्थिभावं अत्थित्ति वयति, सव्वं णत्थि-भावं णस्थित्ति वयति, सुचिण्णा कम्मा सुचिण्ण-फला भवंति, दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिण्णफला भवंति, फुसइ पुण्ण-पावे, पच्चायंति जीवा, सफले कल्लाण-पावए। धम्ममाइक्खइ-इणमेव निग्गंथे पावयणे सच्चे, अणुत्तरे, के वलिए, संसुद्धे, पडिपुण्णे, णेयाउए, सल्लकत्तणे, सिद्धिमग्गे, मुत्तिमग्गे णिजाणमग्गे, णिव्वाणमग्गे, अवितहमविसंधि सव्वदुक्ख-प्पहीण-मग्गे। इहट्ठिया जीवा सिझंति बुज्झंति मुच्चंति परिणिव्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेति। एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुव्व-कम्मावसेसेण अण्णयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति, महिड्डिएसु जाव महासुक्खेसु दूरंगइएस चिरट्ठिइएसु। तेणं तत्थ देवा भवंति महिड्डिया जाव चिरट्ठिइया हार-विराइयवच्छा जाव पभासेमाणा, कप्पोवगा गतिकल्लाणा ठिइकल्लाणा आगमेसि भद्दा जाव पडिरूवा तमाइक्खइ। एवं खलु चउहि ठाणेहिं जीवा णेरइयत्ताए कम्मं पकरेंति, णेरइयत्ताए कम्म पकरेत्ता रइएसु उववजति, तं जहा महारंभयाए, महापरिग्गहयाए, पंचिंदियवहेणं, कुणिमाहारेणं। एवं एएणं अभिलावेणं तिरिक्ख-जोणिएसु माइल्लयाए, णियडिल्लयाए, अलिय-वयणेणं, उक्कंचणाए, वंचणयाए। मणुस्सेसु पगइभद्दयाए, पगइविणीययाए, साणुक्कोसयाए अमच्छरियाए। देवेसु सरागसंजमेणं, संजमासंजमेण, अकामणिज्जराए, बालतवो-कम्मेणं। तमाइक्खइ-- जह णरगा गम्मंति, जे णरगा जाय-वेयणा णरए। सारीर-माणसाइं, दुक्खाइं तिरिक्खजोणीए॥ माणुस्संच अणिच्चं, वाहि-जरा-मरण-वेयणा-पउरं। देवे य देवलोए, देवढेि देव-सोक्खाई॥ णरगं तिरिक्खजोणिं माणुसभावं च देवलोगं च। सिद्धे य सिद्ध-वसहिं , छज्जीवणियं परिकहे इ॥ जह जीवा बझंति, मुच्चंति जह य परिकिलिस्संति। जह दुक्खाणं अंतं, करेंति केई य अपडिबद्धा॥ अट्ट-दुहट्टिय-चित्ता, जह जीवा दुक्ख-सागरमुवेंति। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [उपासकदशांगसूत्र जह वेरग्गमुवगया, कम्म-समुग्गं विहाडे ति॥ जह रागेण कडाणं, कम्माणं पावओ फल-विवागो। जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुवेंति॥ तमेव धम्मं दुविहं आइक्खइ, तं जहा अगार-धम्म अणगार-धम्मं च। अणगारधम्मो ताव इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वयइ, सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वाओ मुसा-वायाओ वेरमणं,सव्वाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं, सव्वाओ परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वाओ राइ-भोयणाओ वेरमणं। अयमाउसो! अणगार-सामाइए धम्मे पण्णत्ते, एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए निग्गंथे वा निग्गंथी विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। ___ अगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा--पंच अणुव्वयाइं, तिण्णि गुणव्वयाई, चत्तारि सिक्खावयाई। पंच अणुव्वयाइं तं जहा--थूलाओ पाणाइवायाओ वेरमणं, थूलाओ मुसावायाओ वेरमणं, थूलाओ अदिण्णादाणाओ वेरमणं, सदारसंतोसे, इच्छापरिमाणे। तिण्णि गुणव्वयाइं तं जहा--अणत्थदंडवेरमणं, दिसिव्वयं, उवभोग-परिभोगपरिमाणं। चत्तारि सिक्खावयाई तं जहा--सामाइयं देसावगासियं, पोसहोववासे, अतिहि-संविभागे, अपच्छिमा-मारणंतिया-संलेहणा-झूसणा-राहणा, अयमाउसो! अगार-सामाइए धम्मे पण्णत्ते एयस्स धम्मस्स सिक्खाए उवट्ठिए समणोवासए वा समणोवासिया वा विहरमाणे आणाए आराहए भवइ। तए णं सा महइमहालिया मणूसपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट-तट्ठा चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाण-हियया उठाए, उढेइ उद्वित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता अत्थेगइआ मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए। अत्थेगइया पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवण्णा। अवसेसा णं परिसा समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसिता एवं वयासी-- सुयक्खाए ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे, एवं सुपण्णत्ते, सुभासिए, सुविणीए, सुभाविए, अणुत्तरे, ते भंते ! णिग्गंथे पावयणे। धम्मं णं आइक्खमाणा तुब्भं उवसमं आइक्खह । उवसमं आइक्खमाणा विवेगं आइक्खह। विवेगं आइक्खमाणा वेरमणं आइक्खह। वेरमणं आइक्खमाणा अकरणं पावाणं कम्माणं आइक्खह। णत्थि णं अण्णे केइ समणे वा माहणे वा जे एरिसं धम्ममाइक्खित्तए।किमंग पुण एत्तो उत्तरतरं ! एवं वदित्ता जामेव दिसं पाउब्भूआ तामेव दिसं पडिगया) राया य गओ तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर ने आनन्द गाथापति तथा महती परिषद् को धर्मोपदेश Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [२५ किया। [भगवान् महावीर की धर्मदेशना सुनने को उपस्थित परिषद् में ऋषि--द्रष्टा--अतिशय ज्ञानी साधु, मुनि--मौनी या वाक्संयमी साधु यति--चारित्र के प्रति अति यत्नशील श्रमण, देवगण तथा सैकड़ों-सैकड़ों श्रोताओं के समूह उपस्थित थे।] ओघ बली [अव्यवच्छिन्न या एक समान रहने वाले बल के धारक, अतिबली-अत्यधिक बल-सम्पन्न, महाबली,--प्रशस्त बलयुक्त, अपरिमित--असीम वीर्य--आत्मशक्तिजनित बल, तेज, महत्ता तथा कांतियुक्त, शरत्काल के नूतन मेघ के गर्जन, क्रोंच पक्षी के निर्घोष तथा नगाड़े की ध्वनि के समान मधुर गम्भीर स्वर युक्त भगवान् महावीर ने हृदय में विस्तृत होती हुई, कंठ में अवस्थित होती हुई तथा मूर्धा में परिव्याप्त होती सुविभक्त अक्षरों को लिए हुए--पृथक्-पृथक् स्व-स्व स्थानीय उच्चारणयुक्त अक्षरों सहित, अस्पष्ट उच्चारण वर्जित या हकलाहट से रहित, सुव्यक्त अक्षर-सन्निपात--वर्ण-संयोग-वों की व्यवस्थित श्रृंखला लिए हुए, पूर्णता तथा स्वर--माधुरीयुक्त, श्रोताओं की सभी भाषाओं में परिणत होने वाली वाणी द्वारा एक योजन तक पहुँचने वाले स्वर में, अर्द्धमागधी भाषा में धर्म का परिकथन किया। उपस्थित सभी आर्य-अनार्य जनो को अग्लान भाव से--बिना परिश्रान्त हुए धर्म का आख्यान किया। भगवान् द्वारा उद्गीर्ण अर्द्धमागधी भाषा उन सभी आर्यों और अनार्यों की भाषाओं में परिणत हो गई। भगवान् ने जो धर्मदेशना दी, वह इस प्रकार है-- लोक का अस्तित्व है, अलोक का अस्तित्व है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, वेदना, निर्जरा, अर्हत, चक्रवर्ती बलदेव, वासुदेव, नरक, नैरयिक, तिर्यंच्योनि, तिर्यंचयोनिक जीव, माता, पिता, ऋषि , देव देवलोक, सिद्धि, सिद्ध, परिनिर्वाण--कर्मजनित आवरण के क्षीण होने से आत्मिक स्वस्थता--परम शान्ति, परिनिर्वृत्त--परिनिर्वाण युक्त व्यक्ति--इनका अस्तित्व है। प्राणातिपात--हिंसा, मृषावाद--असत्य, अदत्तादान--चोरी, मैथुन, और परिग्रह हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ, [प्रेम--अप्रकट माया व लोभजनित प्रिय या रोचक भाव, द्वेष-- अव्यक्त मान व क्रोध जनित अप्रिय या अप्रीति रूप भाव, कलह--लड़ाई-झगड़ा, अभ्याख्यान--मिथ्या दोषारोपण, पैशुन्य--चुगली अथवा पीठ पीछे किसी के होते-अनहोते दोषों का प्रकटीकरण, परपरिवाद--निन्दा, रति--मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप असंयम में सुख मानना, रूचि दिखाना, अरति--मोहनीय कर्म के उदय के परिणाम-स्वरूप संयम में अरूचि रखना, मायामृषा-- माया या छलपूर्वक झूठ बोलना,] यावत् मिथ्यादर्शन शल्य है। प्राणातिपात-विरमण--हिंसा से विरत होना, मृषावादविरमण--असत्य से विरत होना, अदत्तादानविरमण--चोरी से विरत होना, मैथुनविरमण--मैथुन से विरत होना, परिग्रहविरमण--परिग्रह से विरत होना, यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक--मिथ्या विश्वास रूप कांटे का यथार्थ ज्ञान होना और त्यागना यह सब है-- सभी अस्तिभाव--अपने-अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से अस्तित्व का अस्ति रूप से और सभी नास्तिभाव--पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से नास्तित्व का नास्ति रूप से Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [उपासकदशांगसूत्र प्रतिपादन करते हैं। सुचीर्ण--सुन्दर रूप में--प्रशस्त रूप में संपादित दान, शील, तप आदि कर्म सुचीर्ण--उत्तम फल देने वाले हैं तथा दुश्चीर्ण--अप्रशस्त-पापमय कर्म अशुभ--दुःखमय फल देने वाले हैं। जीव पुण्य तथा पाप का स्पर्श करता है, बन्ध करता है। जीव उत्पन्न होते है--संसारी जीवों का जन्म-मरण है। कल्याण--शुभ कर्म, पाप--अशुभ कर्म फलयुक्त है, निष्फल नहीं होते ।। प्रकारान्तर से भगवान् धर्म का आख्यान--प्रतिपादन करते हैं --यह निर्ग्रन्थप्रवचन, जिनशासन अथवा प्राणी की अन्तर्वर्ती ग्रन्थियों को छुड़ाने वाली आत्मानुशासनमय उपदेश सत्य है, अनुत्तर-- सर्वोत्तम है, केवल--अद्वितीय है अथवा केवली--सर्वज्ञ द्वारा भाषित है, संशुद्ध--अत्यन्त शुद्ध, सर्वथा निर्दोष है, प्रतिपूर्ण--प्रवचन-गुणों में सर्वथा परिपूर्ण है, नैयायिक--न्याय-संगत है--प्रमाण से अबाधित है तथा शल्य-कर्तन माया आदि शल्य--काटों का निवारक है, यह सिद्धि-कृतार्थता या सिद्धावस्था प्राप्त करने का मार्ग-उपाय है, मुक्ति--कर्म रहित अवस्था या निर्लोभता का मार्ग--हेतु है, निर्याण--पुनः नहीं लौटाने वाले जन्म-मरण के चक्र में नही गिराने वाले गमन का मार्ग है, निर्वाण--सकल संतापरहित अवस्था प्राप्त करने का पथ है, अवितथ--सद्भूतार्थ--वास्तविक, अविसन्धि--विच्छेदरहित तथा सब दुःखों को प्रहीण--सर्वथा क्षीण करने का मार्ग है। इसमें स्थित जीव सिद्धि--प्राप्त करते हैं अथवा अणिमा आदि महती सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, बुद्ध-ज्ञानी केवल-ज्ञानी होते है, मुक्त-- भवोपग्राही--जन्म-मरण में लाने वाले कर्मांश में रहित हो जाते है, परिनिवृत होते है-- कर्मकृत संताप से रहित--परम शान्तिमय हो जाते हैं तथा सभी दुःखों का अन्त कर देते हैं । एकार्चा--जिनके एक ही मनुष्य-भव धारण करना बाकी रहा है, ऐसे भदन्त-कल्याणान्वित अथवा निर्ग्रन्थ प्रवचन के भक्त पूर्व कर्मों के बाकी रहने से किन्ही देवलोकों में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे देवलोक महर्द्धिक-- विपुल ऋद्धियों से परिपूर्ण, अत्यन्त सुखमय दूरगतिक--दूर गति से युक्त एवं चिरस्थितिक--लम्बी स्थिति वाले होते हैं। वहां देव रूप में उत्पन्न वे जीव अत्यन्त ऋद्धि-सम्पन्न तथा चिर स्थिति--दीर्घ आयुष्य युक्त होते हैं। उनके वक्षस्थल हारों से सुशोभित होते हैं, वे अपनी दिव्य प्रभा से दसों दिशाओं को प्रभासित उद्योतित करते हैं। वे कल्पोपग देवलोक में देव-शय्या से युवा के रूप में उत्पन्न होते हैं। वे वर्तमान में उत्तम देवगति के धारक तथा भविष्य में भद्र--कल्याण--निर्वाण रूप अवस्था को प्राप्त करने वाले होते हैं , असाधारण रूपवान् होते हैं। भगवान् ने आगे कहा--जीव चार स्थानों--कारणों से--नैरयिक--नरकयोनि का आयुष्य बन्ध करते हैं , फलत: वे विभिन्न नरकों में उत्पन्न होते हैं। वे स्थान या कारण इस प्रकार हैं--१. महाआरम्भ--घोर हिसा के भाव व कर्म, २. महापरिग्रह-अत्यधिक संग्रह के भाव व वैसा आचरण, ३. पंचेन्द्रिय-वध--मनुष्य, तिर्यंच--पशु पक्षी आदि पांच इन्द्रियों वाले प्राणियों का हनन तथा ४. मांस-भक्षण। इन कारणों से जीव तिर्यंचयोनि में उत्पन्न होते हैं --१. मायापूर्ण निकृति--छलपूर्ण जालसाजी, २. अलीक वचन-असत्य भाषण, ३. उत्कंचनता--झूठी प्रशंसा या खुशामद अथवा किसी मूर्ख व्यक्ति को ठगने वाले धूर्त का समीपवर्ती विचक्षण पुरूष के संकोच से कुछ देर के लिए निश्चेष्ट रहना या Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, ४. वंचनता -- प्रतारणा या ठगी । इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं १. प्रकृति - भद्रता -- स्वाभाविक भद्रता -- भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, २. प्रकृति - विनीतता -- स्वाभाविक विनम्रता, ३. सानुक्रोशता -- सदयता, करूणाशीलता तथा ४. अमत्सरता - ईर्ष्या का अभाव । इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते है -- १. सरागसंयम--राग या आसक्तियुक्त चारित्र अथवा राग के क्षय से पूर्व का चारित्र, २. संयमासंमय- देशविरति - - श्रावकधर्म, ३. अकाम - निर्जरा -- मोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशतावश कष्ट सहना, ४. बाल-तप-- मिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या । [ २७ तत्पश्चात् - जैसे नरक में जाते हैं, जो नरक हैं और वहाँ नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं तथा तिर्यंचयोनि में गये हुए जीव जैसा शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं उसे भगवान् बताते हैं 1 मनुष्य जीवन अनित्य है, उसमें व्याधि, वृद्धावस्था मृत्यु और वेदना के प्रचुर कष्ट हैं । देवलोक में देव देवी ऋद्धि और देवी सुख प्राप्त करते हैं । इस प्रकार प्रभु ने नरक, नरकावास, तिर्यञ्च तिर्यञ्च के आवास, मनुष्य, मनुष्य लोक, देव देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय, एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया । जिस प्रकार जीव बंधते हैं- कर्म-बन्ध करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं, कई अप्रतिबद्धअनासक्त व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं, पीड़ा, वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गए कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं- यह सब [ भगवान् ने ] आख्यात किया । -- आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है- अगार-धर्म और अनगार - धर्म । अनगारधर्म में साधक सर्वतः सर्वात्माना -- सम्पूर्ण रूप में, सर्वात्मभाव से सावद्य कार्यों का परित्याग करता हुआ मुंडित होकर, गृहवास से अनगार दशा --मुनि-अवस्था में प्रव्रजित होता है। वह सम्पूर्णत: प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि - भोजन से विरत होता है । भगवान् ने कहा-- आयुष्मन् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा - अभ्यास आचरण में उपस्थित - प्रयत्नशील रहते हुए निर्ग्रन्थ-- साधु या निर्ग्रन्थी--साध्वी आज्ञा [अर्हत्-देशना] के आराधक होते हैं। भगवान् ने अगारधर्म १२ प्रकार का बतलाया--५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत । ५ अणुव्रत इस प्रकार हैं-- १. स्थूल--मोटे तौर पर, अपवाद रखते हुए प्राणातिपात से निवृत होना, २ . स्थूल मृषावाद से निवृत होना, ३. स्थूल अदत्तादान से निवृत होना ४. स्वदारसंतोष-- अपनी परिणीता पत्नीतक मैथुन की सीमा, ५. इच्छा -- परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण। ३. गुणव्रत इस प्रकार हैं-- १. अनर्थदंड - विरमण -- आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८] [उपासकदशांगसूत्र निरर्थक प्रवृत्ति का त्याग, २ दिग्वत--विभिन्न दिशाओं में जाने के सम्बन्ध में मर्यादा या सीमाकरण, ३. उपभोग-परिभोग-परिमाण--उपभोग जिन्हें अनेक बार भोगा जा सके, ऐसी वस्तुएं--जैसे वस्त्र आदि तथा परिभोग जिन्हें एक ही बार भोगा जा सके--जैसे भोजन आदि--इनका परिमाण--सीमाकरण। ४ शिक्षाव्रत इस प्रकार हैं--१. सामायिक--समता या समत्वभाव की साधना के लिए एक नियत समय न्यनतम एक महर्त--४८ मिनट] में किया जाने वाला अभ्यास, २. देशावकासिक--नित्य प्रति अपनी प्रवृत्तियों में निवृत्ति-भाव की वृद्धि का अभ्यास ३. पोषधोप-वास--अध्यात्म-साधना में अग्रसर होने के हेतु यथाविधि आहार, अब्रह्मचर्य आदि का त्याग तथा ४. अतिथि-संविभाग--जिनके आने की कोई तिथि नहीं, ऐसे अनिमंत्रित संयमी साधक या साधर्मिक बन्धुओं को संयमोपयोगी एवं जीवनोपयोगी अपनी अधिकृत सामग्री का एक भाग आदरपूर्वक देना, सदा मन में ऐसी भावना बनाए रखना कि ऐसा अवसर प्राप्त हो। तितिक्षापूर्वक अन्तिम मरण रूप संलेखना-तपश्चरण, आमरण अनशन की आराधनापूर्वक देहत्याग श्रावक की इस जीवन की साधना का पर्यवसान है, जिसकी एक गृही साधक भावना लिए रहता है। भगवान् ने कहा--आयुष्मन् ! यह गृही साधकों का आचरणीय धर्म है। इस धर्म के अनुसरण में प्रयत्नशील होते हुए श्रमणोपासक--श्रावक या श्रमणोपासिका--श्राविका आज्ञा के आराधक होते हैं। तब वह विशाल मनुष्य-परिषद् श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर, हृदय में धारण कर, हृष्ट-तुष्ट--अत्यन्त प्रसन्न हुई, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव किया, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय होकर उठी, उठकर श्रमण भगवान महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा, वन्दन-नमस्कार किया, वन्दन-नमस्कार कर उसमें से कई गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर मुंडित होकर, अनगार या श्रमण के रूप में प्रव्रजित--दीक्षित हुए। कइयों ने पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का गहि-धर्म--श्रावक-धर्म स्वीकार किया। शेष परिषद ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन किया, नमस्कार किया, वंदन-नमस्कार कर कहा--भगवन् ! आप द्वारा सुआख्यात-सुन्दर रूप में कहा गया, सुप्रज्ञप्त--उत्तम रीति से समझाया गया, सुभाषित--हृदयस्पर्शी भाषा में प्रतिपादित किया गया, सुविनीत--शिष्यों में सुष्ठ रूप में विनियोजित--अन्तेवासियों द्वारा सहज रूप में अंगीकृत, सुभावित--प्रशस्त भावों से युक्त निर्ग्रन्थ-प्रवचन--धर्मोपदेश अनुत्तर-सर्वश्रेष्ठ है। आपने धर्म की व्याख्या करते हुए उपशम क्रोध आदि के निरोध का विश्लेषण किया। उपशम की व्याख्या करते हुए विवेक--बाह्य ग्रन्थियों के त्याग का स्वरूप समझाया। विवेक की व्याख्या करते हुए आपने विरमण-विरति या निवृत्ति का निरूपण किया। विरमण की व्याख्या करते हुए आपने पाप-कर्म न करने की विवेचना की। दूसरा कोई श्रमण या ब्राह्मण नहीं हैं, जो ऐसे धर्म का उपदेश कर सके। इससे श्रेष्ठ धर्म के उपदेश की तो बात ही कहां ? यों कहकर वह परिषद् जिस दिशा से आई थी, उसी ओर वापस लौट गई। राजा भी लौट गया। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] आनन्द की प्रतिक्रिया १२. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोच्चा निसम्म हट्ठतुट्ठ जाव (चित्तमाणदिए पीइ-मणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए उठाए उढेइ, उढेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता) एवं वयासी--सदहामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं, भंते ! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते ! तहमेयं, भंते ! अवितहमेयं, भंते ! इच्छियमेयं, भंते ! पडिच्छियमेयं, भंते ! इच्छिय-पडिच्छियमेयं, भंते ! से जहेयं तुब्भे वयह ति कटु, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर-तलवरमाडंबिय-कोडुंबिय-सेट्ठि-सेणावई-सत्थवाहप्पभिइआ मुण्डा भवित्ता अगाराओअणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव (भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवज्जिस्सामि। अहासुहं देवाणुप्पिया ! पडिबंधं करेह। • तब आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित व परितुष्ट होता हुआ यावत [चित्त में आनन्द एवं प्रसन्नता का अनुभव करता हुआ, अत्यन्त सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय होकर उठा, उठकर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर] यों बोला--भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है। निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रुचिकर है। वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित [स्वीकृत] है, इच्छित-प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है, जैसा आपने कहा। देवानुप्रिय ! जिस प्रकार आपके पास अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, श्रेष्ठि, सेनापति एवं सार्थवाह आदि मुंडित होकर, गृह-वास का परित्याग कर अनगार के रूप में प्रवजित हुए, मैं उस प्रकार मुंडित होकर [गृहस्थ-जीवन का परित्याग कर अनगारधर्म में] प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं, इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत मूलक बारह प्रकार का गृहीधर्म--श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहता हूं। ____ आनन्द के यों कहने पर भगवान् ने कहा--देवानुप्रिय ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा ही करो, पर विलम्ब मत करो। व्रत-ग्रहण अहिंसा व्रत १३. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए तप्पढमयाए Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [उपासकदशांगसूत्र थूलगं पाणाइवायं पच्चक्खाइ, जावजीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। तब आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास प्रथम या मुख्य स्थूल प्राणातिपात-- स्थूल हिंसा का प्रत्याख्यान--परित्याग किया, इन शब्दों में-- मैं जीवन पर्यन्त दो करण--कृत व कारित अर्थात करना, कराना तथा तीन योग--मन, वचन एवं काया से स्थूल हिंसा का परित्याग करता हूँ अर्थात् मैं मन से, वचन से तथा शरीर से स्थूल हिंसा न करूगां और न कराऊंगा। सत्य व्रत १४. तयाणंतरं च णं थूलगं मुसावायं पच्चक्खाइ, जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। तदन्तर उसने स्थूल मृषावाद--असत्य का परित्याग किया, इन शब्दों में-- मैं जीवन भर के लिए दो करण और तीन योग से स्थूल मृषावाद का परित्याग करता हूँ अर्थात् मैं मन से, वचन से तथा शरीर से न स्थूल असत्य का प्रयोग करूंगा और न कराऊंगा। अस्तेय व्रत १५. तयाणंतरं च णं थूलगं अदिण्णादाणं पच्चक्खाइ, जावजीवाए दुविहं तिविहेणं, न करेमि, न कारवेमि, मणसा वयसा कायसा। उसके बाद उसने स्थूल अदत्तादान--चोरी का परित्याग किया। इन शब्दों में-- मैं जीवन भर के लिए दो करण और तीन योग से स्थूल चोरी का परित्याग करता हूं अर्थात् मैं मन से वचन से तथा शरीर से न स्थूल चोरी करूंगा न कराऊंगा। स्वदार-संतोष १६. तयाणंतरं च णं सदार-संतोसिए परिमाणं करेइ, नन्नत्थ एक्काए सिवनंदाए भारियाए, अवसेसं सव्वं मेहुणविहिं पच्चक्खामि। फिर उसने स्वदारसन्तोष व्रत के अन्तर्गत मैथुन का परिमाण किया। इन शब्दों में-- अपनी एकमात्र पत्नी शिवनन्दा के अतिरिक्त अवशेष समग्र मैथुनविधि का परित्याग करता हूं। इच्छा-परिमाण १७. तयाणंतरं च णं इच्छा-विहि-परिमाणं करेमाणे हिरण्णसुवण्णविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चउहिं हिरण्णकोडीहिं निहाणपउत्ताहिं, चउहिं वुडिढ्पउत्ताहिं, चउहिं पवित्थर Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] पउत्ताहिं, अवसेसं सव्वं हिरण्णसुवणविहिं पच्चक्खामि । तब उसने इच्छाविधि-- परिग्रह का परिमाण करते हुए स्वर्ण मुद्राओं के विषय में इस प्रकार सीमाकरण किया [ ३१ निधान-निहित चार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं, व्यापार प्रयुक्त चार करोड स्वर्ण मुद्राओं तथा घर व घर के उपकरणों में प्रयुक्त चार करोड़ स्वर्ण मुद्राओं के अतिरिक्त मैं समस्त स्वर्ण मुद्राओं का परित्याग करता हूं । १८. तयाणंतरं चं णं चउप्पयविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चउहिं वएहिं दस गोसाहस्सिएणं वएणं, अवसेसं सव्वं चउप्पयविहिं पच्चक्खामि । फिर उसने चतुष्पद - विधि-- चौपाए पशुरूप संपत्ति के संबंध में परिमाण किया -- दस-दस हजार के चार गोकुलों के अतिरिक्त मैं बाकी सभी चौपाए पशुओं के परिग्रह का परित्याग करता हूं । १९. तयाणंतरं च णं खेत्तवत्थुविहिपरिमाणं करेइ, नन्नथ पंचहिं हलसहिं नियत्तणसइएणं हलेणं अवसेसं सव्वं खेत्तवत्थुविहिं पच्चक्खामि । फिर उसने क्षेत्र -- वास्तु-विधि का परिमाण किया -- सौ निवर्तन (भूमि का एक विशेष माप) के एक हल के हिसाब से पांच सौ हलों के अतिरिक्त मैं समस्त क्षेत्र - - वास्तुविधि का परित्याग करता हूं । विवेचन खेत (क्षेत्र) का अर्थ खेत या खेती करने की भूमि अर्थात् खुली उघाड़ी भूमि है । प्राकृत का वत्थु शब्द संस्कृत में वस्तु भी हो सकता है, वास्तु भी । वस्तु का अर्थ चीज अर्थात बर्तन, खाट, टेबल, कुर्सी, कपड़े आदि रोजाना काम में आनेवाले उपकरण हैं । वास्तु का अर्थ भूमि, बसने की जगह, मकान या आवास है। यहाँ वत्थु का तात्पर्य गाथापति आन्नद की मकान आदि संबंधी भूमि से है । आनन्द की खेती की जमीन के परिमाण के सन्दर्भ में यहाँ नियत्तण-सइएणं (निवर्तनशतिकेन) पद का प्रयोग करते हुए सौ निवर्तनों की एक इकाई को एक हल की जमीन कहा गया है, जिसे आज की भाषा में बीघा कहा जा सकता है। प्राचीन काल में निवर्तन भूमि के एक विशेष माप के अर्थ मे प्रयुक्त रहा है। बीस बांस या दो सौ हाथ लम्बी-चौड़ी (२०० × २०० = ४००० वर्ग हाथ) भूमि को निवर्तन कहा जाता था । २०. तयाणंतरं च णं सगडविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ पंचहिं सगडसएहिं दिसायत्तिएहिं, पञ्चहिं सगड-सएहिं संवाहणिएहिं, अवसेसं सव्वं सगडविहिं पच्चक्खामि। तत्पश्चात् उसने शकटविधि -- गाड़ियों के परिग्रह का परिमाण किया -- १. संस्कृत - - इंगलिश डिक्शनरी : सर मोनियर विलियम्स, पृष्ठ ५६० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [उपासकदशांगसूत्र पांच सौ गाड़ियां दिग्--यात्रिक--बाहर यात्रा में, व्यापार आदि में प्रयुक्त तथा पांच सौ गाड़ियां घर संबंधी माल-असबाव ढोने आदि में प्रयुक्त--के सिवाय मैं सब गाड़ियों के परिग्रह का परित्याग करता हूं। २१. तयाणंतरं च णं वाहणविहिपरिमाणं करेइ, नन्नत्थ चउहिं वाहणेहिं दिसायत्तिएहिं, चउहिं वाहणेहिं संवाहणिएहि, अवसेसं सव्वं वाहणविहिं पच्चक्खामि। फिर उसने वाहनविधि--जलयान रूप परिग्रह का परिमाण किया-- चार वाहन दिग्-यात्रिक तथा चार गृह-उपकरण के संदर्भ में प्रयुक्त--के सिवाय मैं सब प्रकार के वाहन रूप परिग्रह का परित्याग करता हूं। उपभोग-परिभोग-परिमाण २२. तयाणंतरं चणं उवभोगपरिभोगविहिं पच्चक्खाएमाणे, उल्लणियाविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगाए गंध-कासाईए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि। फिर उसने उपभोग-परिभोग-विधि का प्रत्याख्यान करते हुए भीगे हुए शरीर को पोंछने में प्रयुक्त होने वाले अंगोछे--तौलिए आदि का परिमाण किया-- मैं सुगन्धित और लाल-एक प्रकार के अंगोछे के अतिरिक्त बाकी सभी अंगोछे रूप परिग्रह का परित्याग करता हूं। २३. तयाणंतरं च णं दंतवणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं अल्ल-लटठीमहुएणं, अवसेसं दंतवणविहिं पच्चक्खामि। तत्पश्चात् उसने दतौन के संबंध में परिमाण किया-- हरि मुलहठी के अतिरिक्त मैं सब प्रकार के दतौनों का परित्याग करता हूं। २४. तयाणंतरं च णं फलविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं खीरामलएणं, अवसेसं फलविहिं पच्चक्खामि। तदनन्तर उसने फलविधि का परिमाण किया-- मैं क्षीर आमलक--दूधिया आंवले के सिवाय अवशेष फल-विधि का परित्याग करता हूं। विवेचन यहाँ फल-विधि का प्रयोग खाने के फलों के सन्दर्भ में नहीं है, प्रत्युत नेत्र मस्तक आदि के शोधन-प्रक्षालन के काम में आने वाले शुद्धिकारक फलों से हैं। आंवले की इस कार्य में विशेष उपयोगिता है । क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का तात्पर्य उस कच्चे मुलायम आँवले से है, जिसमें गुठली नहीं पड़ी हो और जो दूध की तरह मीठा हो। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [ ३३ यहाँ फलविधि का प्रयोग बाल, मस्तक आदि के शोधन - प्रक्षालन के काम में आने वाले शुद्धिकारक फलों के उपयोग के अर्थ में है। आंवले की इस कार्य में विशेष उपादेयता है। बालों के लिए तो वह बहुत ही लाभप्रद है, एक टॉनिक है। आंवले में लोहा विशेष मात्रा में होता है। अतः बालों की जड़ को मजबूत बनाए रखना, उन्हें काला रखना उसका विशेष गुण है। बालों में लगाने के लिए जाने वाले तैलों में आंवले का तैल मुख्य है 1 बनाए यहाँ आवले में क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का जो उल्लेख आया है, उसका भी अपना विशेष आशय है । क्षीर आमलक का तात्पर्य उस मुलायम, कच्चे आंवले से है, जिसमें गुठली नही पड़ी हो, जो विशेष खट्टा नही हो, जो दूध जैसा मिठास लिए हो। अधिक खट्टे आंवले के प्रयोग से चमड़ी में कुछ रूखापन आ सकता है। जिनकी चमड़ी अधिक कोमल होती है, विशेष खट्टे पदार्थ के संस्पर्श से वह फट सकती । क्षीर आमलक के प्रयोग में यह आशंकित नहीं है । यहाँ फल शब्द खाने के रूप में काम में आनेवाले फलों की दृष्टि से नहीं है, प्रत्युत वृक्ष, पौधे आदि पर फलने वाले पदार्थ की दृष्टि से है। वृक्ष पर लगता है, इसलिए आंवला फल है, परन्तु वह फल के रूप में नहीं खाया जाता । उसका उपयोग विशेषतः औषधि मुरब्बा, चटनी, अचार आदि में होता है । आयुर्वेद की काष्ठादिक औषधियों में आंवले का मुख्य स्थान है । आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसे फल-वर्ग में न लेकर काष्ठादिक औषधि वर्ग में लिया गया है। भावप्रकाश में हरितक्यादि वर्ग में आंवले का वर्णन आया है । वहाँ लिखा है 'आमलक, धात्री, त्रिष्वफला और अमृता - ये आंवले के नाम हैं। आंवले के रस, गुण एवं विपाक आदि हरीतकी -- हरड़ के समान होते हैं। आंवला विशेषतः रक्त पित्त और प्रमेह का नाशक, शुक्रवर्धक एवं रसायन है। रस के खट्टेपन के कारण यह वातनाशक है, मधुरता और शीतलता के कारण यह पित्त को शान्त करता है, रूक्षता और कसैलेपन के कारण यह कफ को मिटाता है । " चरकसंहिता चिकित्सास्थान के अभयामलकीय रसायनपाद मेंआंवले का वर्णन है । वहाँ 44 लिखा है " जो गुण हरीतकी के हैं, आंवले के भी लगभग वैसे ही हैं । किन्तु आंवले का वीर्य हरीतकी १. त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री त्रिष्वफलाऽमृता । हरीतकीसमं धात्री - फलं किन्तु विशेषतः ॥ रक्तपित्तप्रमेहनं परं वृष्यं रसायनम् । हन्ति वातं तदम्लत्वात् पित्तं माधुर्यशैत्यतः ॥ कफं रूक्षकषायत्वात् फलं धाल्यास्त्रिदोषजित् ॥ -- भावप्रकाश हरीतक्यादि वर्ग ३७-३९ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४] [उपासकदशांगसूत्र से भिन्न है। अर्थात् हरीतकी उष्णवीर्य है, आंवला शीतवीर्य । हरीतकी के जो गुण बताए गए है, उन्हें देखते, हरीतकी तथा तत्सदृश गुणयुक्त आवंला अमृत कहे गये है।" चरकसंहिता में वाततपिक एवं कुटीप्रावेशिक के रूप में काय-कल्प चिकित्सा का उल्लेख है। कुटीप्रावेशिक को अधिक प्रभावशाली बतलाते हुए वहाँ विस्तार से वर्णन है। इस चिकित्सा में शोधन के लिए हरीतकी तथा पोषण के लिए आंवले का विशेष रूप से उपयोग होता है। इन्हें रसायन कहा गया है। आचार्य चरक ने रसायन के सेवन से दीर्घ आयु, स्मृतिबुद्धि, तारूण्य--जवानी, कान्ति, वर्ण--ओजमय दैहिक आभा, प्रशस्त स्वर, शरीर-बल, इन्द्रिय-बल आदि प्राप्त होने का उल्लेख किया है। आंवले से च्यवनप्राश, ब्राह्मरसायन, आमलकरसायन आदि पौष्टिक औषधियों के रूप में अनेक अवलेह तैयार किये जाते है। अस्तु। आनन्द यदि फलों के सन्दर्भ में अपवाद रखता तो वह बिहार का निवासी था, बहुत सम्भव है, फलों में आम का अपवाद रखता, जैसे खाद्यानों में बासमती चांवलों में उत्तम कलम जाति के चावल रखे। आम तो फलोंका राजा माना जाता है और बिहार में सर्वोत्तम कोटि का तथा अनेक जातियों का होता है। अथवा उस प्रदेश में तो और भी उत्तम प्रकार के फल होते है, उनमें से और कोई रखता। वस्तुतः जैसा ऊपर कहा गया है, आनन्द ने आंवले को खाने के फल की दृष्टि से अपवाद नहीं रखा, मस्तक, नेत्र, बाल आदि की शुद्धि के लिए ही इसे स्वीकार किया। यह वर्णन भी ऐसे ही सन्दर्भ में है। इससे पहले के तेईसवें सूत्र में आनन्द ने हरी मुलैठी के अतिरिक्त सब प्रकार के दतौनों का परित्याग किया, इससे आगे पच्चीसवे सूत्र में शतपाक तथा सहस्त्रपाक तैलों के अतिरिक्त मालिश के सभी तैलों का सेवन न करने का नियम किया। उसके बाद छब्बीसवें सूत्र में सुगन्धित गन्धाटक के सिवाय सभी उबटनों का परित्याग किया। यहाँ खाने के फल का प्रंसग ही संगत नहीं है। यह तो सारा सन्दर्भ दतौन, स्नान, मालिश, उबटन आदि देह-शुद्धि से सम्बद्ध कार्यों से जुड़ा है। अब एक प्रश्न उठता है, क्या आनन्द ने खाने के किसी भी फल का अपवाद नहीं रखा? हो १. तान् गुणांस्तानि कर्माणि विद्यादामलकेष्वपि। यान्युक्तानि हरीतक्या वीर्यस्त तु विपर्ययः॥ अतश्चामृतकल्पानि विद्यात्कर्मभिरीदृशैः। हरीतकीनां शस्यानि भिषगामलकस्य च ॥ --चरकसंहिता चिकित्सास्थान १ । ३५-३६॥ चरकसंहिता-चिकित्सास्थान १ । १६-२७॥ दीर्घमायुः स्मृति मेघामारोग्यं तरूणं वयः । प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलं परम्॥ वाक्सिद्धिं प्रणति कान्तिं लभते ना रसायनात्। लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम्॥ चरकसंहिता-चिकित्सास्थान १ । ७-८॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [ ३५ सकता है, उसने अपवाद नहीं रखा हो । सामान्यतः सचित्त रूप में सभी फलों को अस्वीकार्य माना हो । इस सम्बन्ध में डा. रूडोल्फ हार्नले ने भी चर्चा की है। उन्होंने भी इसी तरह का संकेत दिया है। २५. तयाणंतरं च णं अब्भंगणविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ समपागसहस्सपागेहिं तल्लेहिं अवसेसं अब्भंगणविहिं पच्चक्खामि । उसके बाद उसने अभ्यंगन-विधि का परिमाण किया -- शतपाक तथा सहस्त्रपाक तैलों के अतिरिक्त मैं और सभी अभ्यंगनविधि - मालिश के तैलों का परित्याग करता हूं। विवेचन शतपाक या सहस्त्रपाक तैल कोई विशिष्ट मूल्यावान् तैल रहे होंगे, जिनमें बहुमूल्य औषधियां पड़ी हों । आचार्य अभयदेव सूरि द्वारा वृत्ति में इस संबंध में किए गए संकेत के अनुसार शतपाक तैल रहा हो, जिसमें १०० प्रकार के द्रव्य पड़े हों, जो सौ दफा पकाया गया हो अथवा जिसका मूल्य सौ कार्षापण रहा हो। कार्षापण प्राचीन भारत में प्रयुक्त एक सिक्का था । वह सोना, चांदी व तांबा इनका अलग-अलग तीन प्रकार का होता था । प्रयुक्त धातु के अनुसार वह स्वर्ण-कार्षापण रजत- कार्षापण या ताम्र- कार्षापण कहा जाता रहा था। स्वर्ण- कार्षापण का वजन १६ मासे, रजत- कार्षापण का वजन १६ पण [तोल विशेष ] और ताम्र- कार्षापण का वजन ८० रत्ती होता था । २ सौ के स्थान पर जहाँ यह क्रम सहस्त्र में आ जाता है, वहां वह तैल सहस्त्रपाक कहा जाता है। २६. तयाणंतरं च णं उव्वट्टणविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ एकेणं सुरहिणा गंधट्टएणं, अवसेसं उव्वट्टणविहिं पच्चक्खामि । इसके बाद उसने उबटन - विधि का परिमाण किया -- एक मात्र सुगन्धित गंधाटक--गेहूँ आदि के आटे के साथ कतिपय सौगन्धिक पदार्थों को मिलाकर तैयार की गई पीठी के अतिरिक्त अन्य सभी उबटनों का मैं परित्याग करता हूं । २७. तयाणंतरं च णं मज्जणविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ अट्ठहिं उट्टिएहिं उदगस्स घडेहिं अवसेसं मज्जणविहिं पच्चक्खामि । उसके बाद उसने स्नान विधि का परिमाण दिया--- -पानी के आठ औष्ट्रिक-ऊंट के आकार के घड़े, जिनका मुंह ऊंट की तरह संकड़ा, गर्दन लम्बी और आकार बड़ा हो, के अतिरिक्त स्नानार्थ जल का परित्याग करता हूं । २८. तयाणंतरं च णं वत्थविहिपरिमाणं करेइ । नन्नत्थ एगेणं खोम - जुयलेणं, अवसेसं १. Uvasagadasao, Lecture I pages 15, 16 २. संस्कृत-इंगलिश डिक्शनरी-सर मोनियर विलियम्स, पृ. १७६ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] [उपासकदशांगसूत्र वत्थविहिं पच्चक्खामि। तब उसने वस्त्रविधि का परिमाण किया-- सूती दो वस्त्रों के सिवाय मैं अन्य वस्त्रों का परित्याग करता हूँ। २९. तयाणंतरं च णं विलेवणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ अगरू-कुंकुमचंदणमादिएहिं अवसेसं विलेवणविहिं पच्चक्खामि। तब उसने विलेपन-विधि का परिमाण किया-- अगर, कुंकुम तथा चन्दन के अतिरिक्त मैं सभी विलेपन-द्रव्यों का परित्याग करता हूं। ३०. तयाणरं च णं पुष्फविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं सुद्ध-पउमेणं, मालइकुसुम-दामेणं वा अवसेसं पुष्फविहिं पच्चक्खामि। इसके पश्चात् उसने पुष्प-विधि का परिमाण किया-- मैं श्वेत कमल तथा मालती के फूलों की माला के सिवाय सभी प्रकार के फूलों को धारण करने का परित्याग करता हूं। ३१. तयाणंतरं च णं आभरणविहिपरिमाणं करेइ।. नन्नत्थ मट्ठ-कण्णेजएहिं नाममुद्दाए य, अवसेसं आभरणविहिं पच्चक्खामि। तब उसने आभरण-विधि का परिमाण किया-- मैं शुद्ध सोने के अचित्रित-सादे कुंडल और नामांकित मुद्रिका--अंगूठी के सिवाय सब प्रकार के गहनों का परित्याग करता हूं। ३२. तयाणंतरं च णं धूवणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ अगरूतुरूक्कधूवमादिएहिं, अवसेसं धूवणविहिं पच्चक्खामि। तदनन्तर उसने धूपनविधि का परिमाण कियाअगर, लोबान तथा धूप के सिवाय मैं सभी धूपनीय वस्तुओं का परित्याग करता हूं। ३३. तयाणंतरं च णं भोयणविहिपरिमाणं करेमाणे, पेजविहिपरिमाणं करे।। नन्नत्थ एगाए कट्ठपेज्जाए, अवसेसं पेज्ज-विहिं पच्चक्खामि। ___ तत्पश्चात् उसने भोजन-विधि के परिमाण के अन्तर्गत पेय-विधि का परिमाण किया-- _ मैं एक मात्र काष्ठ पेय-मूंग का रसा अथवा घी में तले हुए चावलों के बने एक विशेष पेय के अतिरिक्त अवशिष्ट सभी पेय पदार्थों का परित्याग करता हूं। ३४. तयाणंतरं च णं भक्खविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेहिं घयपुण्णेहिं खण्डखज्जएहिं वा, अवसेसं भक्खविहिं पच्चक्खामि। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [३७ उसके अनन्तर उसने भक्ष्य-विधि का परिमाण किया मैं घयपुण्य (घृतपूर्ण)--घेवर, खंडखज (खण्डखाद्य)--खाजे, इन के सिवाय और सभी पकवानों का परित्याग करता हूं। ३५. तयाणंतरं च णं ओदणविहिपरिमाणं करेइ- नन्नत्थ कलमसालि-ओदणेणं, अवसेसं ओदण-विहिं पच्चक्खामि। तब उसने ओदनविधि का परिमाण किया कलम जाति के धान के चावलों के सिवाय मैं और सभी प्रकार के चावलों का परित्याग करता हूं। विवेचन उत्तम जाति के बासमती चावलों का संभवतः कलम एक विशेष प्रकार है। आनन्द विदेहउत्तर बिहार का निवासी या। आज की तरह तब भी संभवतः वहाँ चावल ही मुख्य भोजन था। यही कारण है कि खाने के अनाजों के परिमाण के सन्दर्भ में केवल ओदनविधि का ही उल्लेख आया है, जिसका आशय है विभिन्न चावलों में एक विशेष जाति के चावल का अपवाद रखते हुए अन्यों का परित्याग करना। इससे यह अनुमान होता है कि तब वहां गेहूँ आदि का खाने में प्रचलन नहीं था या बहुत ही कम था। ३६. तयाणंतरं च णं सूवविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ कलायसूवेण वा, मुग्गमाससूवेण वा, अवसेसं सूवविहिं पच्चक्खामि। तत्पश्चात् उसने सूपविधि का परिमाण--दाल के प्रयोग का सीमाकरण किया-- मटर, मूंग और उडद की दाल के सिवाय मैं सभी दालों का परित्याग करता हूँ। ३७. तयाणंतरं च णं घयविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ सारइएणं गोधयमंडेणं. अवसेसं घयविहिं पच्चक्खामि। उसके बाद उसने घृतविधि का परिमाण किया-- शरद्ऋतु के उत्तम गो-घृत के सिवाय मैं सभी प्रकार के घृत का परित्याग करता हूं। विवेचन __ आनन्द के खाद्य, पेय, भोग्य, उपभोग्य तथा सेव्य--जिन-जिन वस्तुओं का अपवाद रखा, अर्थात् अपने उपयोग के लिए जिन वस्तुओं को स्वीकार किया, उन-उन वर्णनों को देखने से प्रतीत होता है कि उपादेयता, उत्तमता, प्रियता आदि की दृष्टि से उसने बहुत विज्ञता से काम लिया। अत्यन्त उपयोगी, स्वास्थ्यवर्द्धक, हितावह एवं रूचि-परिष्कारक पदार्थ उसने भोगोपभोग में रखें। प्रस्तुत सूत्र के अनुसार आनन्द के घृतों में केवल शरद् ऋतु के गो-घृत सेवन का अपवाद रखा। इस Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [उपासकदशांगसूत्र सन्दर्भ में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या आनन्द वर्ष भर शरद्-ऋतु के ही गो-घृत का सेवन करता था? उसने ताजे घी का अपवाद क्यों नही रखा? वास्तव में बात यह है, रस-पोषण की दृष्टि से शरद् ऋतु का छहों ऋतुओं में असाधारण महत्व है। आयुर्वेद के अनुसार शरद् ऋतु में चन्द्रमा की किरणों से अमृत (जीवनरस) टपकता है। इसमें अतिरंजन नहीं है। शरद् ऋतु वह समय है, जो वर्षा और शीत का मध्यवर्ती है। इस ऋतु में वनौषधियों (जड़ी-बूटियों) में, वनस्पतियों में, वृक्षों में, पौधों में, घास-पात में एक विशेष रस-संचार होता है। इसमें फलने वाली वनस्पतियां शक्ति-वर्द्धक, उपयोगी एवं स्वादिष्ट होती हैं। शरद् ऋतु का गो-घृत स्वीकार करने के पीछे बहुत संभव है, आनन्द की यही भावना रही हो। इस समय का घास चरने वाली के घृत में गुणात्मकता की दृष्टि से विशेषता रहती है। आयुर्वेद यह भी मानता है कि एक वर्ष तक का पुराना घृत परिपक्व घृत होता है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष लाभप्रद एवं पाचन में हल्का होता है। ताजा घृत पाचन में भारी होता है। ___ भाव-प्रकाश में घृत के सम्बन्ध में लिखा है- “एक वर्ष व्यतीत होने पर घृत की संज्ञा प्राचीन हो जाती है। वैसा घृत त्रिदोष नाशक होता है-वात, पित्त कफ-तीनों दोषों का समन्वायक होता है । वह मूर्छा, कुष्ट, विष-विकार, उन्माद, अपस्मार तथा तिमिर (आँखों के आगे अंधेरी आना) इन दोषों का नाशक भाव-प्रकाश के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि एक वर्ष तक घृत अखाद्य नही होता। वह उत्तम खाद्य है। पोषक के साथ-साथ दोषनाशक भी है। यदि घृत को खूब गर्म करके छाछ आदि निकाल कर छान कर रखा जाय तो एक वर्ष तक उसमें दुर्गन्ध, दुःस्वाद आदि विकार उत्पन्न नहीं होते। औषधि के रूप में तो घृत जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा माना गया है। भावप्रकाश में लिखा है "घृत जैसे-जैसे अधिक पुराना होता है, वैसे-वैसे उसके गुण अधिक से अधिक बढ़ते जाते है।'' कल्याणकघृत, महाकल्याणकघृत, लशुनाद्यघृत, पंचगव्यघृत, महापंचगव्यघृत, ब्राम्हीघृत, आदि जितने भी आयुर्वेद में विभिन्न रोगों की चिकित्सा हेतु घृत सिद्ध किए जाते हैं, उन में प्राचीन गो-घृत का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ब्राह्मीघृत के सम्बन्ध में चरक-संहिता में लिखा है-- "ब्राह्मी के रस, वच, कूठ और शंखपुष्पी द्वारा सिद्ध पुरातन गो-घृत ब्राह्मीघृत कहा जाता है। १. वर्षादूर्ध्व भवेदाज्यं पुराणं तत् त्रिदोषनुत्। मूर्छाकुष्टविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम्॥ --भावप्रकाश, घृतवर्ग १५ १. यथा यथाऽखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत्। तथा तथा गुणैः स्वैः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् ॥ ___--भावप्रकाश, घृतवर्ग १६ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] - [३९ यह उन्माद, अलक्ष्मी--कान्ति-विहीनता, अपस्मार तथा पाप--देह-कलुषता--इन रोगों को नष्ट करता है।"१ इस परिपार्श्व में चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि आनन्द वर्ष भर शरद् ऋतु के गो-घृत का ही उपयोग करता था। आज भी जिनके यहां गो-धन की प्रचुरता है, वर्षभर घृत का संग्रह रखा जाता है। एक विशेष बात और है, वर्षा आदि अन्य ऋतुओं का घृत टिकाऊ भी नही होता शरद् ऋतु का ही घृत टिकाऊ होता है। इस टिकाऊपन का खास कारण गाय का आहार है,जो शरद् ऋतु में अच्छी परिपक्वता और रस-स्निग्धता लिए रहता है। ३८. तयाणंतरं च णं सागविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ वत्थुसाएण वा, तुंबसाएण वा, सुत्थियसाएण वा, मंडुक्कियसाएण वा, अवसेसं सावविहिं पच्चक्खामि। तदनन्तर उसने शाकविधि का परिमाण किया-- बथुआ, लौकी, सुआपालक तथा भिंडी--इन सागों के सिवाय और सब प्रकार के सागों का परित्याग करता हूं। ३९. तयाणंतरं च णं माहुरयविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं पालंगामहुरएणं, अवसेसें माहुरयविहिं पच्चक्खामि। ___ तत्पश्चात् उसने माधुरकविधि का परिमाण किया-- मैं पालंग माधुरक-शल्लकी (वृक्ष-विशेष) के गोंद से बनाए मधुर पेय के सिवाय अन्य सभी मधुर पेयों का परित्याग करता हूं।' ४०. तयाणंतरं च णं जेमणविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ सेहंबदालियंबेहिं, अवसेसं जेमणविहिं पच्चक्खामि। उसके बाद उसने व्यंजनविधि का परिमाण किया-- ___ मैं कांजी बड़े तथा खटाई पड़े मूंग आदि की दाल के पकौड़ों के सिवाय सब प्रकार के व्यंजनों-चटकीले पदार्थों का परित्याग करता हूं। ४१. तयाणंतरं च णं पाणियविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगेणं अंतलिक्खोदएणं, ब्राह्मरसवचाकुष्ठशङ्कपुष्पीभिरेव च। पुराणं घृतमुन्मादालक्ष्म्यमपस्मारपाप्मजित्॥ --चरकसंहिता, चिकित्सास्थान १०.२४ । २. किन्हीं मनीषी ने दिन के विभाग विशेष की शरद माना है और उस विभाग विशेष में निष्पन्न घी को शारदिक घृत माना है। ३. परम्परागत-अर्थ की अपेक्षा से माधुरकविधि का अर्थ फल विधि है जिसमें फल के साथ मेवे भी गर्भित हैं और पालंग का अर्थ लताजनित आम है। किन्हीं में इसका अर्थ खिरणी (रायण-फल) भी किया है। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०] [उपासकदशांगसूत्र अवसेसं पाणियविहिं पच्चक्खामि। तत्पश्चात् उसने पीने के पानी का परिमाण किया-- मैं एक मात्र आकाश से गिरे--वर्षा के पानी के सिवाय अन्य सब प्रकार के पानी का परित्याग करता हूं। ४२. तयाणंतरं च णं मुहवासविहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ पंच-सोगंधिएणं तंबोलेणं, अवसेसं मुहवासविहिं पच्चक्खामि। तत्पश्चात् उसने मुखवासविधि का परिमाण किया-- पांच सुगन्धित वस्तुओं से युक्त पान के सिवाय मैं मुख को सुगन्धित करने वाले बाकी सभी पदार्थों का परित्याग करता हूं। विवेचन वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि ने पांच सुगन्धित वस्तुओं में इलायची, लौंग, कपूर, दालचीनी तथा जायफल का उल्लेख किया है। ऐसा प्रतीत होता है, समृद्ध जन पान में इनका प्रयोग करते रहे हैं। सुगन्धित होने के साथ साथ स्वास्थ्य की दृष्टि से भी ये लाभकर हैं। अनर्थदण्ड-विरमण ४३. तयाणंतरं च णं चउव्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ।तं जहा-अवज्झाणायरियं, पमायायरियं, हिंसप्पयाणं, पावकम्मोवएसे।। तत्पश्चात उसने चार प्रकार के अनर्थदण्ड-अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, हिंस्त्र-प्रदान तथा पापकर्मोपदेश का प्रत्याख्यान किया। विवेचन बिना किसी उद्देश्य के जो हिंसा की जाती है, उसका समावेश अनर्थदण्ड में होता है । यद्यपि हिंसा तो हिंसा ही है, पर जो लौकिक दृष्टि से आवश्यकता या प्रयोजनवश की जाती है, उसमें तथा निरर्थक की जाने वाली हिंसा में बड़ा भेद है। आवश्यकता या प्रयोजनवश हिंसा करने को जब व्यक्ति बाध्य होता है तो उसकी विवशता देखते उसे व्यावहारिक दृष्टि से क्षम्य भी माना जा सकता है पर जो प्रयोजन या मतलब के बिना हिंसा आदि का आचरण करता है, वह सर्वथा अनुचित है। इसलिए उसे अनर्थदंड कहा जाता है। वृत्तिकार आचार्य अभयदेव सूरि ने धर्म, अर्थ तथा काम रूप प्रयोजन के बिना किये जाने वाले हिंसापूर्ण कार्यों का अनर्थदंड कहा है। अनर्थदंड के अन्तर्गत लिए गए अपध्यानाचरित का अर्थ है--दुश्चिन्तन । दुश्चिन्तन भी एक प्रकार से हिंसा ही है। वह आत्मगुणों का घात करता है। दुश्चिन्तन दो प्रकार का है --आर्त्तध्यान तथा Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [४१ रौद्रध्यान। अभीप्सित वस्तु, जैसे धन-सम्पत्ति, संतति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रूग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितयों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने आदि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है। इन दोनों तरह से होने वाला दश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है। प्रमादाचरित-अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों की निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बधारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है। इनसे संबंधित मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं। हिंस्त्र-प्रदान-हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना जैसे चोर, डाकू तथा शिकारी आदि को हथियार देना, आश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना। ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साहन और सहारा मिलता है, अतः यह अनर्थदंड है। __ पापकर्मोपदेश--औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। उदाहरणार्थ, किसी शिकारी को यह बतलाना कि अमुक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे बहुत प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति की दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीड़ित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करना--इन सबका पाप-कर्मोपदेश में समावेश है। अनर्थदंड में लिए गए ये चारों प्रकार के दुष्कार्य ऐसे हैं, जिनका प्रत्येक धर्मनिष्ठ, शिष्ट व सभ्य नागरिक को परित्याग करना चाहिए। अध्यात्म-उत्कर्ष के साथ-साथ उत्तम और नैतिक नागरिक जीवन की दृष्टि से भी यह बहुत ही आवश्यक है। अतिचार सम्यक्त्व के अतिचार ४४. इह खलु आणंदा! इ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं बयासी-एवं खलु, आणंदा! समणोवासएणं अभिगयजीवजीवेणं जाव (उवलद्धपुण्णपावेणं, आसव-संवर-निजर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसलेणं, असहेजेणं, देवासुरणाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किण्णर-किंपुरिस-गरूल गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओं पावयणाओ अणइक्कमणिज्जेणं) सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा--संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परमासंडसंथवे। भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थो के स्वरूप को यथावत् रूप से जाना है, (पुण्य और पाप का भेद समझा है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, गरूड, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय है विचलित नहीं किया जा सकता है) उसको सम्यक्त्व के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार भगवा Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [उपासकदशांगसूत्र इस प्रकार है-- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड-प्रशंसा तथा पर-पाषंड संस्तव। विवेचन व्रत स्वीकार करना उतना कठिन नही है, जितना दृढता से पालन करना। पालन करने में व्यक्ति को क्षण-क्षण जागरूक रहना होता है। बाधक स्थिति के उत्पन्न होने पर भी अविचल रहना होता है। लिये हुए व्रतों में स्थिरता बनी रहे, उपासक के मन में कमजोरी न आए, इसके लिए अतिचारवर्जन के रूप में जैन साधना-पद्धति में बहुत ही सुन्दर उपाय बतलाया गया है। अतिचार का अर्थ व्रत में किसी प्रकार की दुर्बलता, स्खलना या आंशिक मलिनता आना है। यदि अतिचार को उपासक लांघ नही पाता तो वह अतिचार अनाचार में बदल जाता है। अनाचार का अर्थ है, व्रत का टूट जाना। इसलिए उपासक के लिए आवश्यक है कि वह अतिचारों को यथावत् रूप से समझे तथा जागरूकता और आत्मबल के साथ उनका वर्जन करें। उपासक के लिए सर्वाधिक महत्त्व की वस्तु है सम्यकत्व-यर्थात तत्त्वश्रद्धान--सत्य के प्रति सही आस्था। यदि उपासक सम्यक्त्व को खो दे तो फिर आगे बच ही क्या पाए? आस्था में सत्य का स्थान जब असत्य ले लेगा तो सहज ही आचरण में, जीवन में विपरीतता पल्लवित होगी। इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द को सबसे पहले सम्यक्त्व के अतिचार बतलाए और उनका आचरण न करने का उपदेश दिया। सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है-- शंका--सर्वज्ञ द्वारा भाषित आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि तत्त्वों में सन्देह होना शंका है। मन में सन्देह उत्पन्न होने पर जब आस्था डगमगा जाती है, विश्वास हिल जाता है तो उसे शंका कहा जाता है। शंका होने पर जिज्ञासा का भाव हलका पड़ जाता है। संशय जिज्ञासामूलक है। विश्वास या आस्था को दृढ करने के लिए व्यक्ति जब किसी तत्त्व या विषय के बारे में स्पष्टता हेतु और अधिक जानना चाहता है, प्रश्न करता है, उसे शंका नही कहा जाता, क्योंकि उससे वह अपना विश्वास दढतर करना चाहता है। जैन आगमों में जब भगवान महावीर के साथ प्रश्नोत्तरों का क्रम चला है, प्राश्रिक के मन में संशय उत्पन्न होने की बात कही गई है। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्दभूति गौतम के प्रश्न तथा भगवान् के उत्तर सारे आगम वाङ्मय में बिखरे पड़े हैं। जहाँ गौतम प्रश्न करते हैं, वहां सर्वत्र उनके मन के संशय उत्पन्न होने का उल्लेख है। साथ ही साथ उन्हें परम श्रद्धावान् भी कहा गया है। गौतम का संशय जिज्ञासा-मूलक था। एक सम्यक्त्वी के मन में श्रद्धापूर्ण संशय होना दोष नही है, पर उसे अश्रद्धामूलक शंका नहीं होनी चाहिए। कांक्षा--साधारणतया इसका अर्थ इच्छा को किसी ओर मोड़ देना या झुकना है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ बाहरी दिखावे या आडम्बर या दूसरे प्रलोभनों से प्रभावित होकर किसी दूसरे मत की ओर झुकना है। बाहरी प्रदर्शन से सम्यक्त्वी को प्रभावित नहीं होना चाहिए। विचिकित्सा--मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। उसमें तरह-तरह के संकल्प-विकल्प उठते दद से Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LY प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [४३ रहते है। कभी-कभी उपासक के मन में ऐसे भाव भी उठते हैं -- वह जो धर्म का अनुष्ठान करता है, तप आदि का आचरण करता है, उसका फल होगा या नहीं? ऐसा सन्देह विचिकित्सा कहा गया है। मन में इस प्रकार का सन्देहात्मक भाव पैदा होते ही कार्य-गति में सहज ही शिथिलता आ जाती है, अनुत्साह बढ़ने लगता है। कार्य-सिद्धि में निश्चय ही यह स्थिति बड़ी बाधक है। सम्यक्त्वी को इससे बचना चाहिए। ___पर-पाषंड-प्रशंसा--भाषा-विज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा बदल जाता है। यही स्थिति पाखंड शब्द के साथ है। आज प्रचलित पाखंड या पाखंडी शब्द इसी का रूप है पर तब और अब के अर्थ में सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाखंडी शब्द अन्य मत के व्रतधारक अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा। आज पाखंड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है। ढोंगी को पाखंडी कहा जाता है। प्राचीन काल में पाखंड शब्द के साथ निन्दावाचकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर इस शब्द का अन्य मतावलम्बियों के लिए प्रयोग हुआ है। पर-पाषंड-प्रशंसा सम्यक्त्व का चौथा अतिचार है, जिसका अभिप्राय है, सम्यक्त्वी को अन्य मतावलम्बी का प्रशंसक नही होना चाहिए। यहाँ प्रयुक्त प्रशंसा, व्यावहारिक शिष्टाचार के अर्थ में नहीं है, तात्त्विक अर्थ में है। अन्य मतावलम्बी के प्रशंसक होने का अर्थ है, उसके धार्मिक सिद्धान्तों का सम्मान । यह तभी होता है, जब अपने अभिमत सिद्धान्तों में विश्वास की कमी आ जाय। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह विश्वास में शिथिलता होने का द्योतक है। सोच समझ कर अंगीकार किये गए विश्वास पर व्यक्ति को दृढ रहना ही चाहिये। इस प्रकार के प्रशंसा आदि कार्यों से निश्चय ही विश्वास की दृढ़ता व्याहत होती है। इसलिए यह संकीर्णता नहीं है, आस्था की पुष्टि का एक उपयोगी उपाय है। ___ पर-पाषंड-संस्तव--संस्तव का अर्थ घनिष्ठ सम्पर्क या निकटतापूर्ण परिचय है । परमतावलम्बी पाषंडियों के साथ धार्मिक दृष्टि से वैसा परिचय अथवा सम्पर्क उपासक के लिए उपादेय नहीं है। इससे उसकी आस्था में विचलन पैदा होने की आशंका रहती है। अहिंसा-व्रत अतिचार ४५. तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न सामायरियव्वा। तं जहा-बंधे, वहे, छवि-च्छेए, अइभारे, भत्तपाण-वोच्छेए। इसके बाद श्रमणोपासक की स्थूल-प्राणातिपातविरमण व्रत के पांच प्रमुख अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है-- बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्त-पान-व्यवच्छेद। विवेचन बन्ध-इसका अर्थ बांधना है। पशु आदि को इस प्रकार बांधना, जिससे उनको कष्ट हो, बन्ध Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४] [उपासकदशांगसूत्र में आता है। व्याख्याकारों ने दास आदि को बांधने की भी चर्चा की है। उन्हें भी इस प्रकार बांधना, जिससे उन्हें कष्ट हो, इस अतिचार में शामिल है। दास आदि को बांधने का उल्लेख भारत के उस समय की ओर संकेत करता है, जब दास और दासी पशु तथा अन्याय अधिकृत सामग्री की तरह खरीदे-बेचे जाते थे। स्वामी का उन पर पूर्ण अधिकार होता था। पशुओं की तरह वे जीवन भर के लिए उनकी सेवा करने को बाध्य होते थे। शास्त्रों में बन्ध दो प्रकार के बतलाए गए है-एक अर्थ-बन्ध तथा दूसरा अनर्थ-बन्ध। किसी प्रयोजन या हेतु से बांधना अर्थ-बन्ध में आता है, जैसे किसी रोग की चिकित्सा के लिए बांधना पड़े या किसी आपत्ति से बचाने के लिए बांधना पड़े। प्रयोजन या कारण के बिना बांधना अनर्थ बंध है। जो सर्वथा हिंसा है। यह अनर्थ-दंड-विरमण नामक आठवें व्रत के अन्तर्गत अनर्थ-दंड में जाता है। प्रयोजनवश किए जाने वाले बन्ध के साथ क्रोध, क्रूरता, द्वेष जैसे कलुषित भाव नहीं होने चाहिए। यदि होते हैं तो वह अतिचार है। व्याख्याकारों ने अर्थ-बन्ध को सापेक्ष और निरपेक्ष-दो भेदों में बांटा है। सापेक्षबन्ध वह है, जिससे छूटा जा सके, उदाहरणार्थ--कहीं आग लग जाय, वहाँ पशु बंधा हो, वह यदि हलके रूप में बंधा होगा तो वहाँ से छूट कर बाहर जा सकेगा। ऐसा बन्ध अतिचार में नही आता। पर वह बन्ध, जिससे भयजनक स्थिति उत्पन्न होने पर प्रयत्न करने पर भी छूटा न जा सके, निरपेक्ष बन्ध है। वह अतिचार में आता है। क्योंकि छूट न पाने पर बंधे हुए प्राणी को घोर कष्ट होता है, उसका मरण भी हो सकता है। वध-साधारणतया वध का अर्थ किसी को जान से मारना है। पर यहां वध इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। क्योंकि किसी को जान से मारने पर तो अहिंसा व्रत सर्वथा खंडित ही हो जाता है। वह तो अनाचार है। यहाँ वध घातक प्रहार के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, ऐसा प्रहार जिससे प्रहृत व्यक्ति के अंग, उपांग को हानि पहुँचे। ____ छविच्छेद-छवि का अर्थ सुन्दरता है। इसका एक अर्थ अंग भी किया जाता है। छविच्छेद का तात्पर्य किसी की सुन्दरता, शोभा मिटा देने अर्थात् अंग-भंग कर देने से है। किसी का कोई अंग काट डालने से वह सहज ही छविशून्य हो जाता है। क्रोधावेश में किसी का अंग काट डालना इस अतिचार में शामिल है। मनोरंजन के लिए कुत्ते आदि पालतू पशुओं की पूंछ, कान आदि काट देना भी इस अतिचार में आता है। अतिभार-पशु, दास आदि पर उनकी ताकत से ज्यादा बोझ लादना अतिभार में आता है। आज की भाषा में नौकर, मजदूर, अधिकृत कर्मचारी से इतना ज्यादा काम लेना, जो उसकी शक्ति से बाहर हो, अतिभार ही है। भक्त-पान-व्यवच्छेद--इसका अर्थ खान-पान में बाधा या व्यवधान डालना है। जैसे अपने आश्रित पशु को यथेष्ट चारा एवं पानी समय पर नहीं देना, भूखा-प्यासा रखना। यही बात दास-दासियों पर भी लागू होती है। उनकी भी खान-पान की व्यवस्था में व्यवधान या विच्छेद पैदा करना, इस अतिचार में शामिल है। आज के युग की भाषा में अपने नौकरों तथा कर्मचारियों आदि को समय पर Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [४५ वेतन न देना, वेतन में अनुचित रूप में कटौती कर देना, किसी की आजीविका में बाधा पैदा कर देना, सेवकों तथा आश्रितों से खूब काम लेना, पर उसके अनुपात में उचित व पर्याप्त भोजन न देना, वेतन न देना इस अतिचार में शामिल है। ऐसा करना बुरा कार्य है, जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ है। इन अतिचारों में पशुओं की विशेष चर्चा आने से स्पष्ट है कि तब पशु-पालन एक गृहस्थ के जीवन का आवश्यक भाग था। घर, खेती तथा व्यापार के कार्यों में पशु का विशेष उपयोग था। आज सामाजिक स्थितियाँ बदल गई है। निर्दयता, क्रुरता, अत्याचार आदि अनेक नये रूपों में उभरे है। इसलिए धर्मोपासक को अपनी दैनन्दिन जीवन-चर्या को बारीकी से देखते हुए इन अतिचारों के मूल भाव को ग्रहण करना चाहिए और निर्दयतापूर्ण कार्यों का वर्जन करना चाहिए। सत्यव्रत के अतिचार ४६. तयाणंतरं च णं थूलगस्स मुसावायवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा। तं जहा-सहसा-अब्भक्खाणे, रहसा-अब्भक्खाणे, सदारमंतभेए, मोसोवएसे, कूडलेहकरणे। । तत्पश्चात् स्थूल मृषावादविरमण व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है सहसा-अभ्याख्यान, रहस्य-अभ्याख्यान, स्वदारमंत्रभेद, मृषोपदेश, कूटलेखकरण। विवेचन सहसा-अभ्याख्यान-किसी पर एकाएक बिना सोचे-समझे झूठा आरोप लगा देना। रहस्य-अभ्याख्यान-किसी के रहस्य-गोपनीय बात को प्रकट कर देना। स्वदारमंत्रभेद-अपनी पत्नी की गुप्त बात को बाहर प्रकट कर देना। मृषोपदेश-किसी को गलत राय या असत्यमूलक उपदेश देना। कूटलेखकरण-खोटा या झूठा लेख लिखना, दूसरे को ठगने या धोखा देने के लिए झूठे, जाली कागजात तैयार करना। सहसा अभ्याख्यान-सहसा का अर्थ एकाएक है। जब कोई बात बिना सोचे-विचारे भावुकतावश झट से कही जाती है, वहाँ इस शब्द का प्रयोग होता है। ऐसा करने में विवेक के बजाय भावावेश अधिक काम करता है । सहसा अभ्याख्यान का अर्थ है किसी पर एकाएक बिना सोचे-विचारे दोषारोपण करना। यदि यह दोषारोपण दुर्भावना, दुर्विचार और संक्लेशपूर्वक होता है तो अतिचार नहीं रहता, अनाचार हो जाता है। वहाँ उपासक का व्रत भग्न हो जाता है। सहसा बिना विचारे ऐसा करने में कुछ हलकापन है। पर, उपासक को रोष या भावावेशवश भी इस प्रकार किसी पर दोषारोपण नहीं करना चाहिए। इससे व्रत में दुर्बलता या शिथिलता आती है। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] [उपासकदशांगसूत्र रहस्य-अभ्याख्यान-रहस् का अर्थ एकान्त है उसी से रहस्य शब्द बना है, जिसका भाव एकान्त की बात या गुप्त बात है। रहस्य-अभ्याख्यान का अभिप्राय किसी गुप्त बात को अचानक प्रकट कर देना है। उपासक के लिए यह करणीय नहीं है। ऐसा करने से उसके व्रत में शिथिलता आती है। रहस्य-अभ्याख्यान का एक और अर्थ भी किया जाता है, तदनुसार किसी पर रहस्य-गुप्त रूप में षडयन्त्र आदि करने का दोषारोपण इसका तात्पर्य है। जैसे कुछ व्यक्ति एकान्त में बैठे आपस में बातचीत कर रहे हों। कोई मन में सशंक होकर एकाएक उन पर आरोप लगा दे कि वे अमुक षडयन्त्र कर रहे हैं । इसका भी इस अतिचार में समावेश है। यहाँ भी यह ध्यान देने योग्य है कि जब तक सहसा, अचानक या बिन विचारे ऐसा किया जाता है तभी तक यह अतिचार है। यदि मन में दुर्भावनापूर्वक सोच-विचार के साथ ऐसा आरोप लगाया जाता है तो यह अनाचार हो जाता है, व्रत खंडित हो जाता है। स्वदारमंत्रभेद--वैयक्तिकता, पारिवारिकता तथा सामाजिकता की दृष्टि से व्यक्ति के संबंध एवं पारस्परिक बातें भिन्नता लिए रहती हैं। कुछ बातें ऐसी होती है, जो दो ही व्यक्तियों तक सीमित रहती है; कुछ ऐसी होती है, जो सारे समाज में प्रसारित की जा सकती है। वैयक्तिक संबंधों में पति और पत्नी का संबंध सबसे अधिक घनिष्ठ । उनकी अपनी गुप्त मंत्रणाएं, विचारणाएं आदि भी होती हैं। यदि पति अपनी पत्नी की ऐसी किसी गुप्त बात को, जो प्रकटनीय नहीं है, प्रकट कर दे तो वह स्वदारमंत्र-भेद अतिचार में आता है । व्यावहारिक दृष्टि से भी ऐसा करना उचित नहीं है। जिसकी बात प्रकट की जाती है, अपनी गोपनीयता को उद्घाटित जान उसे दुःख होता है, अथवा अपनी दुर्बलता को प्रकटित जान उसे लजित होना पड़ता है। __ मृषोपदेश-झूठी राय देना या झूठा उपदेश देना मृषोपदेश में आता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है--एक ऐसी बात जिसकी सत्यता, असत्यता, हितकरता, अहितकरता आदि के विषय में व्यक्ति को स्वयं ज्ञान नहीं है, पर वह है वास्तव में असत्य। उसकी वह दूसरों को राय देता है, वैसा करने का उपदेश देता है, यह इस अतिचार में आता है। एक ऐसा व्यक्ति है, जो किसी बात की असत्यता या हानिप्रदता जानता है, पर उसके बावजूद वह औरों को वैसा करने की प्रेरणा करता है, उपदेश देता है तो यह अनाचार है। इसमें व्रत भग्न हो जाता है। क्योंकि वहाँ प्रेरणा या उपदेश करने वाले की नीयत सर्वथा अशुद्ध है। एक ऐसी स्थिति होती है, जिसमें एक व्यक्ति किसी असत्य या अहितकर बात को भी सत्य या हितकर मानता है। हित-बुद्धि से दूसरे को उधर प्रवृत्त करता है। बात तो वस्तुतः असत्य है, पर उस व्यक्ति की नीयत अशुद्ध नहीं है, इसलिए यह दोष अतिचार या अनाचार कोटी में नही आता। कूटलेखकरण--झूठे लेख या दस्तावेज लिखना, झूठे हस्ताक्षर करना आदि कूटलेखकरण में आते है। ऐसा करना अतिचार तभी है, यदि उपासक असावधानी से, अज्ञानवश या अनिच्छापूर्वक ऐसा करता है। यदि कोई जान-बूझ कर दूसरे को धोखा देने के लिए जाली दस्तावेज तैयार करे, जाली मोहर या छाप लगाए, जाली हस्ताक्षर करे तो वह अनाचार में चला जाता है और व्रत खंडित हो जाता है। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] अस्तेय व्रत के अतिचार ४७. तयाणंतरं च णं थूलगस्स अदिण्णादाणवेरमणस्स पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा। तं जहा - तेणाहडे, तक्करप्पओगे, विरूद्ध - रज्जाइक्कमे, कूडतुल्लकूडमाणे, तप्पडिरूवगववहारे । [ ४७ तदन्तर स्थूल अदत्तादानविरमण - व्रत के पाँच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है- स्तेनाहृत, तस्करप्रयोग, विरूद्धराज्यातिक्रम, कूटतुलाकूटमान, तत्प्रतिरूपकव्यवहार । विवेचन स्तेनाहृत- स्तेन का अर्थ चोर होता है, आहृत का अर्थ उस द्वारा चुरा कर लाई हुई वस्तु । ऐसी वस्तु को लेना, खरीदना, रखना । तस्करप्रयोग अपने व्यावसायिक कार्यों में चोरों का उपयोग करना । विरूद्धराज्यातिक्रम-विरोधवश अपने देश से इतर देशों के शासकों द्वारा प्रवेश निषेध की निर्धारित सीमा लांघना, दूसरे राज्यों में प्रवेश करना। इसका एक दूसरा अर्थ भी किया जाता है, जिसके अनुसार राज्य - विरूद्ध कार्य करना इसके अन्तर्गत आता है । कूटतुलाकूटमान -- तोलने और मापने में झूठ का प्रयोग अर्थात् व्यापार देने में कम तोलना या मापना, लेने में ज्यादा तोलना या मापना । तत्प्रतिरूपकव्यवहार-- इसका शब्दार्थ कूट- तुला - कूटमान जैसा व्यवहार है, अर्थात् व्यापार में अनैतिकता व असत्याचरण करना--जैसे अच्छी वस्तु में घटिया वस्तु मिला देना, नकली को असली बतलाना आदि । स्वदारसन्तोष व्रत के अतिचार ४८. तयाणंतरं च णं सदार-संतोसिए पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा- इत्तरियपरिग्गहियागमणे, अपरिग्गहियागमणे, अणंगकीडा, परविवाहकरणे, कामभोगतिव्वाभिलासे । तदनन्तर स्वदारसंतोष व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार इस प्रकार हैं -- इत्वरिक परिगृहीतागमन, अपरिगृहीतागमन अनंगक्रीडा, पर विवाह करण तथा कामभोगतीव्राभिलाष । विवेचन इत्वरिकपरिगृहीतागमन-- इत्वरिक का अर्थ अस्थायी, अल्पकालिक या चला जाने वाला है । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] [उपासकदशांगसूत्र जो स्त्री कुछ समय के लिए किसी पुरूष के साथ रहती है और फिर चली जाती है, पर जितने समय रहती है, उसी की पत्नी के रूप में रहती है और किसी पुरूष के साथ उसका यौन सम्बन्ध नही रहता, उसे इत्वरिका कहा जाता था। यों कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत स्त्री के साथ सहवास करना। इत्वरिका का एक अर्थ अल्पवयस्का भी किया गया है। तदनुसार छोटी आयु की पत्नी के साथ सहवास करना। ये इस व्रत के अतिचार है। ये हीन कामुकता के द्योतक है। इससे अब्रह्मचर्य को प्रोत्साहन मिलता है। अपरिगृहीतागमन--अपरिगृहीता का तात्पर्य उस स्त्री से है, जो किसी के भी द्वारा पत्नी रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है, अथवा जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। इसमें वेश्या आदि का समावेश होता है। इस प्रकार की स्त्री के साथ सहवास करना इस व्रत का दूसरा अतिचार है। ये दोनों अतिचार अतिक्रम आदि की अपेक्षा से समझने चाहिए, अर्थात् अमुक सीमा तक ही ये अतिचार है। उस सीमा का उल्लंघन होने पर अनाचार बन जाते है। अनंग-क्रिडा--कामावेशवश अस्वाभाविक काम-क्रीड़ा करना। इसके अन्तर्गत समलैंगिक संभोग, अप्राकृतिक मैथुन, कृत्रिम कामोपकरणों से विषय-वासना शान्त करना आदि समाविष्ट है। चारित्रिक दृष्टि से ऐसा करना बड़ा हीन कार्य है। इससे कुत्सित काम और व्यभिचार का पोषण मिलता है। यह इस व्रत का तीसरा अतिचार है। पर-विवाह-करण--जैनधर्म के अनुसार उपासक का लक्ष्य ब्रह्मचर्य-साधना है। विवाह तत्वतः आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन की दुर्बलता है। क्योंकि हर कोई संपूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रह नहीं सकता। गृही उपासक का यह ध्येय रहता है कि वह अब्रह्मचर्य से उत्तरोत्तर अधिकाधिक मुक्त होता जाय और एक दिन ऐसा आए कि वह सम्पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का आराधक बन जाय। अतः गृहस्थ को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य के प्रतिगामी हों। इस दृष्टि से इस अतिचार की परिकल्पना है। इसके अनुसार दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाना इस अतिचार में आता है। एक गृहस्थ होने के नाते अपने घर या परिवार के लड़के-लड़कियों के विवाहों में तो उसे सक्रिय और प्रेरक रहना ही होता है और वह अनिवार्य भी है, पर दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाने में उसे उत्सुक और प्रयत्नशील रहना ब्रह्मचर्य-साधना की दृष्टि से उपयुक्त नही है। वैसा करना इस व्रत का चौथा अतिचार है। किन्हीकिन्ही आचार्यों ने अपना दूसरा विवाह करना भी इस अतिचार में ही माना है। __व्यावहारिक दृष्टि से भी दूसरों के इन कार्यों में पड़ना ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ, कहीं कोई व्यक्ति किन्हीं के वैवाहिक संबंध करवाने में सहयोगी है, वह संबंध हो जाय। संयोगवश उस संबंध का निर्वाह ठीक नही हो, अथवा अयोग्य संबंध हो जाय तो संबंध करवाने वाले को भी उलाहना सहना होता है। संबंधित लोग प्रमुखतः उसी को कोसते है कि इसके कारण यह अवांछित और दु:खद सम्बन्ध हुआ। व्रती श्रावक को इससे बचना चाहिए। ___ काम-भोगतीव्राभिलाष--नियंत्रित और व्यवस्थित काम-सेवन मानव की आत्म-दुर्बलता के १. अतिचारता चास्यातिक्रमादिभिः । अभयदेवकृतटीका। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [४९ कारण होता है। उस आवश्यकता की पूर्ति तक व्रत दूषित नहीं होता है, परन्तु उसे काम की तीव्र अभिलाषा या उद्दाम वासना से ग्रस्त नही होना चाहिए, क्योंकि उससे व्रत का उल्लंघन हो सकता है और मर्यादा भंग हो सकती है तथा अन्य अतिचारों-अनाचारों में प्रवृत्ति हो सकती है। तीव्र वैषयिक वासनावश कामोद्दीपक, बाजीकरण औषधि, मादक द्रव्य आदि के सेवन द्वारा व्यक्ति वैसा न करें। चारित्रिक दृष्टि से यह बहुत आवश्यक है। वैसा करना इस व्रत का पांचवां अतिचार है, जिससे उपासक को सर्वथा बचते रहना चाहिए। इच्छा-परिमाणव्रत के अतिचार ४९. तयाणंतरं च णं इच्छा-परिमाणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा। तं जहा-खेत्त-वत्थु-पमाणाइक्कमे, हिरण्ण-सुवण्णपमाणाइक्कमे, दुपयचउप्पयपमाणाइक्कमे, धण-धनपमाणाइक्कमे, कुवियपमाणाइक्कमे। श्रमणोपासक को इच्छा-परिमाण-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चहिए। वे इस प्रकार है-- क्षेत्रवास्तु-प्रमाणातिक्रम, हिरण्यस्वर्ण-प्रमाणातिक्रम, द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणातिक्रम, कुप्य-प्रमाणातिक्रम। विवेचन : धन, वैभव, संपत्ति का सांसारिक जीवन में एक ऐसा आकर्षण है कि समझदार और विवेकशील व्यक्ति भी उसकी मोहकता में फंसा रहता है। इच्छा-परिमाण-व्रत उस मोहकता से छुटकारा दिलाने का मार्ग है। व्यक्ति सांपत्तिक संबंधों को क्रमशः सीमित करता जाय, यही इस व्रत का लक्ष्य है। इस व्रत के जो अतिचार बतलाए गए हैं, उनका सेवन न करना व्यक्ति को इच्छाओं के सीमाकरण की विशेष प्रेरणा देता है। क्षेत्र-वास्तु-प्रमाणातिक्रम--क्षेत्र का अर्थ खेती करने की भूमि है। उपासक व्रत लेते समय जितनी भूमि अपने लिए रखता है, उसका अतिक्रमण वह न करे। वास्तु (वत्थु) का तात्पर्य रहने के मकान, बगीचे आदि हैं । व्रत लेते समय श्रावक इनकी भी सीमा करता है। इन सीमाओं को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है। हिरण्य-स्वर्ण-प्रमाणातिक्रम--व्रत लेते समय उपासक सोना, चांदी आदि बहुमूल्य धातुओं का अपने लिए सीमाकरण करता है, उस सीमाकरण को लांघ जाना इस व्रत का अतिचार है। मोहर, रूपया आदि प्रचलित सिक्के भी इस में आते हैं। द्विपद-चतुष्पद-प्रमाणातिक्रम--द्विपद-दो पैर वाले-मनुष्य-दास-दासी, नौकर-नौकरानियां तथा चतुष्पद-चार पैर वाले-पशु व्रत स्वीकार करते समय इनके संदर्भ में किये गए सीमाकरण का लंघन करना इस अतिचार में शामिल है। जैसा कि पहले सूचित किया गया है, उन दिनों दास-प्रथा का Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [उपासकदशांगसूत्र इस देश में प्रचलन था इसलिए गाय, बैल, भैंस आदि पशुओं की तरह दास, दासी भी स्वामी की सम्पत्ति होते थे। धन-धान्यप्रमाणातिक्रम--मणि, मोती, हीरे, पन्ने आदि रत्न तथा खरीदने-बेचने की वस्तुओं को यहाँ धन कहा गया है। चावल, गेहूँ, जौ, चने आदि अनाज धान्य में आते हैं। धन एवं धान्य के परिमाण को लांघना इस व्रत का अतिचार है। कुप्यप्रमाणातिक्रम--कुप्य का तात्पर्य घर का सामान है, जैसे कपड़े, खाट, आसन, बिछौने, फर्नीचर आदि। इस संबंध में की गई सीमा का लंघन इस व्रत का अतिचार है। यहाँ यह स्मरणीय है कि यह उल्लंघन जब अबुद्धिपूर्वक होता है, अर्थात् वास्तव में उल्लंघन तो होता हो किन्तु व्रतधारक ऐसा समझता हो कि उल्लंघन नहीं हो रहा है, तभी तक वह अतिचार है। जानबूझ कर मर्यादा का अतिक्रमण करने पर अनाचार हो जाता है। दिग्व्रत के अतिचार ५०. तयाणंतरं च णं दिसिव्वयस्स पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा। तं जहा-उड्ढदिसिपमाणाइक्कमे, अहोदिसिपमाणाइक्कमें, तिरियदिसिपमाणाइक्कमे, खेत्तवुड्ढी, सइअंतरद्धा। तदनन्तर दिग्व्रत के पांच अतिचारों का जानना चाहिए। उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है-- ऊर्ध्वदिक्-प्रमाणातिक्रम, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम, तिर्यदिक्-प्रमाणातिक्रम, क्षेत्र-वृद्धि, स्मृत्यन्तर्धान। विवेचन ऊर्ध्वदिक्-प्रमाणातिक्रम-ऊर्ध्व दिशा-ऊंचाई की ओर जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, अधोदिक्-प्रमाणातिक्रम--नीचे की ओर कुए, खदान आदि में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, तिर्यदिक्प्रमाणातिक्रम--तिरछी दिशाओं में जाने की मर्यादा का अतिक्रमण, क्षेत्र-वृद्धि-व्यापार, यात्रा आदि के लिए की गई क्षेत्रमर्यादा का अतिक्रमण, स्मृत्यन्तर्धान-अपने द्वारा की गई दिशाओं आदि की मर्यादा को स्मृति में न रखना-ये इस व्रत के अतिचार है। _ व्रतग्रहण के प्रसंग में यद्यपि दिशाव्रत और शिक्षाव्रतों के ग्रहण करने का उल्लेख नहीं है। तब भी इन व्रतों का ग्रहण समझ लेना चाहिए, क्योंकि पूर्व में आनन्द ने कहा है--दुवालसविहं सावयधम्म पडिवज्जिस्सामि। आगे भी दुवालसविहं सावगधम्म पडिवज्जइ ऐसा पाठ आया है। टीकाकार ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा है--सामायिक आदि शिक्षाव्रत थोड़े काल के और अमुक समय करने योग्य होने से आनन्द ने उस समय ग्रहण नहीं किए। दिग्व्रत भी उस समय ग्रहण नहीं किया, क्योंकि उसकी विरति का अभाव है। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [५१ उपभोग-परिभोग-परिमाण-व्रत के अतिचार ५१. तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोगे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा--भोयणओ य, कम्मओ य। तत्थ णं भोयणओ समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा--सचित्ताहारे, सचित्तपडि वद्धाहारे, अप्पउलिओसहि भक्खणया, दुप्पउलिओसहिभक्खणया, तुच्छोसहिभक्खणया। कम्मओ णं समणोवासएणं पण्णरस कम्मादाणाइं जाणियव्वाइं, न समायरिव्वाइं, तं जहा-इंगालकम्मे, वणकम्मे, साडीकम्मे, भाडीकम्मे, फोडीकम्मे, दंतवाणिज्जे लक्खावाणिज्जे, रसवाणिजे, विसवाणिज्जे, केसवाणिजे, जंतपीलणकम्मे, निलंछणकम्मे, दवग्गिदावणया, सरदहतलायसोसणया, असईजणपोसणया। उपभोग-परिभोग दो प्रकार का कहा गया है--भोजन की अपेक्षा से तथा कर्म की अपेक्षा से। भोजन की अपेक्षा से श्रमणोपासक को उपभोग-परिभोग व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है- सचित्त आहार, सचित्तप्रतिबद्ध आहार, अपक्वओषधि-भक्षणता, दुष्पक्व-ओषधि-भक्षणता तथा तुच्छ ओषधि-भक्षणता। · कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह कर्मादानों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है-- अंगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटीकर्म, स्फोटनकर्म, दन्तवाणिज्य, लाक्षावाणिज्य, रसवाणिज्य, विषवाणिज्य, केशवाणिज्य, यन्त्रपीडनकर्म, निन्छनकर्म, दवाग्निदापन, सर-ह्रद-तडागशोषण तथा असती-जन-पोषण। विवेचन सचित्त आहार--सचित्त का अर्थ सप्राण या सजीव है। बिना पकाई या बिना उबाली हुई शाक-सब्जी. वनस्पति. फल. असंस्कारित अन्न, जल आदि सचित्त पदार्थों में है। यहाँ उनके खाने का प्रसंग है। ज्ञातव्य है कि श्रमणोपासक या श्रावक सचित वस्तुओं का सर्वथा त्यागी नही होता। ऐसा करना उसके लिए अनिवार्य भी नहीं है । वह अपनी क्षमता के अनुसार सचित वस्तुओं का त्याग करता है, एक सीमा करता है। कुछ का अपवाद रखता है, जिनका वह सेवन कर सकता है । जो मर्यादा उसने की है, असावधानी से यदि वह उसका उल्लंघन करता है तो यह सचित्त-आहार अतिचार में आ जाता है। यह असावधानी से सचित सम्बन्धी नियम का उल्लंघन करने की बात है, यदि जान-बुझ कर वह सचित्त-त्याग सम्बन्धी मर्यादा का खंडन करता है तो यह अनाचार हो जाता है, व्रत टूट जाता है। सचित्त-प्रतिबद्ध आहार--सचित्त वस्तु के साथ सटी हुई या लगी हुई वस्तु को खाना सचित्तप्रतिबद्ध आहार है, उदाहरणार्थ बड़ी दाख या खजूर को लिया जा सकता है। उनमें से प्रत्येक के दो भाग Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२] [ उपासकदशांगसूत्र है -- गुठली तथा गूदा या रस । गुठली सचित्त है, गूदा या रस अचित है। पर सचित से प्रतिबद्ध या संलग्न है । यह अतिचार भी उस व्यक्ति की अपेक्षा से है, जिसने सचित्त वस्तुओं की मर्यादा की है। यदि वह सचित्त - संलग्न का सेवन करता है तो उसकी मर्यादा भग्न होती है और यह अतिचार में आता है । अपक्व - ओषधि-भक्षणता पूरी न पकी हुई ओषधि, फल, चनों के छोले आदि खाना । ओषधि के स्थान पर ओदन पाठ भी प्राप्त होता है। ओदन का अर्थ पकाए हुए चावल हैं, तदनुसार एक अर्थ होगा -- कच्चे या अधपके चावल खाना । दुष्पक्व - ओषधि-भक्षणता -- जो वनौषधियाँ, फल आदि देर पकने वाले हैं, उन्हें पके जान कर पूरे न पके रूप में सेवन करना या बुरी रीति से अतिहिंसा से पकाये गये पदार्थों का सेवन करना । जैसे छिलके समेत सेके हुए भुट्टे, छिलके समेत बगारी हुई मटर की फलियाँ आदि; क्योंकि इस ढंग से पकाये हुए पदार्थों में त्रस जीवों की हिंसा भी हो सकती है। तुच्छ-ओषधि-भक्षणता -- जिन वनौषधियों या फलों में खाने योग्य भाग कम हो, निरर्थक या फेंकने योग्य भाग अधिक हो, जैसे गन्ना, सीताफल आदि, इनका सेवन करना । इसका दूसरा अर्थ यह भी है, जिनके खाने में अधिक हिंसा होती हो, जैसे खस-खस के दाने, शामक के दाने, चौलाई आदि का सेवन । इन अतिचारों की परिकल्पना के पीछे यही भावना है कि उपासक भोजन के सन्दर्भ में बहुत जागरूक रहे । जिह्वा-लोलुपता से सदा बचे रहे । जिह्वा के स्वाद को जीतना बड़ा कठिन है, इसीलिए उस ओर उपासक को बहुत सावधान रहना चाहिए । कर्मादान -- कर्म और आदान, इस दो शब्दों में कर्मादान बना है। आदान का अर्थ ग्रहण है । कर्मादान का आशय उन प्रवृत्तियों से है, जिनके कारण ज्ञानावरण आदि कर्मों का प्रबल बन्ध होता है । उन कामों में बहुत अधिक हिंसा होती है । इसलिए श्रावक के लिए वे वर्जित है । ये कर्म सम्बन्धी अतिचार है। श्रावक को इनके त्याग की स्थान-स्थान पर प्रेरणा दी गई है। कहा गया है कि न वह स्वयं इन्हें करे, न दूसरों से कराए और न करने वालों का समर्थन करें । कर्मादानों का विश्लेषण इस प्रकार है- अंगार-कर्म -- अंगार का अर्थ कोयला है । अंगार-कर्म का मुख्य अर्थ कोयले बनाने का धंधा करना है । जिन कामों में अग्नि और कोयलों का बहुत ज्यादा उपयोग हो, वे काम भी इसमें आते है । जैसे - ईटों का भट्टा, चूने का भट्टा, सीमेंट का कारखाना आदि। इन कार्यों में घोर हिंसा होती है। वन - कर्म -- वे धन्धे, जिनका सम्बन्ध वन के साथ है, वन-कर्म में आते है; जैसे कटवा कर जंगल साफ कराना, जंगल के वृक्षों को काट कर लकड़ियाँ बेचना, जंगल काटने के ठेके लेना आदि । हरी वनस्पति के छेदन भेदन तथा तत्सम्बद्ध प्राणि-वध की दृष्टि से ये भी अत्यन्त हिंसा के कार्य है । आजीविका के लिए वन - उत्पादन - संवर्धन करके वृक्षों को काटना- कटवाना भी वन कर्म हैं। शकट-कर्म -- शकट का अर्थ गाड़ी है। यहाँ गाड़ी से तात्पर्य सवारी या माल ढोने के सभी - Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [५३ तरह के वाहनों से है। ऐसे वाहनोंको, उनके भागों या कल-पुों को तैयार करना, बेचना आदि शकटकर्म में शामिल है। आज की स्थिति में रेल, मोटर, स्कूटर, साईकिल, ट्रक, ट्रैक्टर आदि बनाने के कारखानेभी इसमें आ जाते है। भाटीकर्म-भाटी का अर्थ भाड़ा है। बैल, घोड़ा, भैंसा, खच्चर आदि को भाड़े पर देने का व्यापार। स्फोटनकर्म--स्फोटन का अर्थ फोड़ना, तोड़ना या खोदना है। खानें खोदने, पत्थर फोड़ने, कुए, तालाब तथा बावड़ी आदि खोदने का धन्धा स्फोटन-कर्म में आते है। दन्तवाणिज्य-हाथी दांत का व्यापार इसका मुख्य अर्थ है । वैसे हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी उपलक्षण से यहाँ ग्रहण कर लिया जाना चाहिए। लाक्षावाणिज्य--लाख का व्यापार । रसवाणिज्य--मदिरा आदि मादक रसों का व्यापार । वैसे रस शब्द सामान्यतः ईख एवं फलों के रस के लिए भी प्रयुक्त होता है, किन्तु यहाँ वह अर्थ नहीं है। शहद, मांस, चर्बी, मक्खन, दूध, दही, घी, तैल आदि के व्यापार को भी कई आचार्यों ने रसवाणिज्य में ग्रहण किया है। विषवाणिज्य--तरह-तरह के विषों का व्यापार । तलवार, छुरा, कटार, बन्दूक, धनुष, बाण, बारूद, पटाखे आदि हिंसक व घातक वस्तुओं का व्यापार भी विषवाणिज्य के अन्तर्गत लिया जाता है। केशवाणिज्य--यहाँ प्रयुक्त केश शब्द लाक्षणिक है। केश-वाणिज्य का अर्थ दास, दासी, गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-बिक्री आदि का धन्धा है। कुछ आचार्यों ने चमरी गाय की पूंछ के बालों के व्यापार को भी इसमें शामिल किया है। इनके चवर बनते है। मोर-पंख तथा ऊन प्राप्त करने में ऐसा नहीं है। मारे जाने के कारण को लेकर चमरी गाय के बालों का व्यापार इसमें लिया गया है। यंत्रपीडनकर्म--तिल, सरसों, तारामीरा, तोरिया, मूंगफली आदि तिलहनों से कोल्हू या घाणी द्वारा तैल निकालने का व्यवसाय। निलांछनकर्म--बैल, भैंसे आदि को नपुंसक बनाने का व्यवसाय। दवाग्निदापन--वन में आग लगाने का धन्धा। यह आग अत्यन्त भयानक और अनियंत्रित होती है। उससे जंगल के अनेक जंगम-स्थावर प्राणियों का भीषण संहार होता है। सरहदतडागशोषण--सरोवर, झील, तालाब आदि जल-स्थानों को सुखाना। असती-जन-पोषण--व्यभिचार के लिए वेश्या आदि का पोषण करना, उन्हें नियुक्त करना। श्रावक के लिए वास्तव में निन्दनीय कार्य है। इससे समाज में दुश्चरित्रता फैलती है, व्यभिचार को बल मिलता है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [उपासकदशांगसूत्र आखेट हेतु शिकारी कुत्ते आदि पालना, चूहों के लिए बिल्लियाँ पालना-ये सब भी असतीजन-पोषण के अन्तर्गत आते है। - अनर्थदण्ड-विरमण के अतिचार ५२. तयाणंतरं च णं अणदुदंडवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तंजहा--कंदप्पे, कुक्कुदूए, मोहरिए, संजुत्ताहिगरणे, उवभोगपरिभोगाइरित्ते। उसके बाद श्रमणोपासक को अनर्थदंड-विरमण व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है-- कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, संयुक्ताधिकरण तथा उपभोगपरिभोगातिरेक। विवेचन कन्दर्प--काम-वासना को भड़काने वाली चेष्टाएँ करना। कौत्कुच्य--बहुरूपियों की तरह भद्दी व विकृत चेष्टाएँ करना। मौखर्य--निरर्थक डींगें हांकना, व्यर्थ बातें बनाना, बकवास करना। संयुक्ताधिकरण--शस्त्र आदि हिंसामूलक साधनों को इकट्ठा करना। उपभोग-परिभोगातिरेक-- उपभोग तथा परिभोग का अतिरेक-अनावश्यक वृद्धि-उपभोगपरिभोग संबंधी सामग्री तथा उपकरणों को बिना आवश्यकता के संगृहीत करते जाना। ये इस व्रत के अतिचार है। सामायिक व्रत के अतिचार ५३. तयाणंतरं च णं सामाइयस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा तंजहा-मणदुप्पणिहाणे, वयदुप्पणिहाणे, कायदुप्पणिहाणे, सामाइयस्स सइअकरणया, सामाइयस्स अणवट्ठियस्स करणया। तत्पश्चात् श्रमणोपासक को सामायिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-- मन-दुष्प्रणिधान, वचन-दुष्प्रणिधान, काय-दुष्प्रणिधान, सामायिक-स्मृति-अकरणता, सामायिक-अनवस्थित-करणता। विवेचन मन-दुष्प्रणिधान-यहाँ प्रणिधान का अर्थ ध्यान या चिन्तन है। दूषित चिन्तन मन-दुष्प्रणिधान कहा जाता है। सामायिक करते समय राग, द्वेष, ममता, आसक्ति संबंधी बातें मन में लाना, घरेलु समस्याओं की चिन्ता में व्यग्र रहना, यह सामायिक का अतिचार है। सामायिक का उद्देश्य जीवन में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [५५ समता का विकास करना है, क्रोध, मान, माया, लोभ जनित विषमता को क्रमशः मिटाते जाना है। यों करते हुए शुद्ध आत्मस्वरूप में तन्मयता पाना सामायिक का चरम लक्ष्य है। जहाँ सामायिक का यह उद्देश्य बाधित होता है, वहाँ सामायिक एक पारम्परिक विधि के रूप में तो सधती है, उससे जीवन में जो उपलब्धि होनी चाहिए, हो नहीं पाती। इसलिए साधक के लिए यह अपेक्षित है कि वह अपने मन को पवित्र रखे, समता की अनुभूति करे, मानसिक दुश्चिन्तन से बचे। वचन-दष्प्रणिधान-सामायिक करते समय वाणी का दरुपयोग या मिथ्या भाषण करना दसरे के हृदय में चोट पहुँचाने वाली कठोर बात कहना, अध्यात्म के प्रतिकूल लौकिक बातें करना वचनदुष्प्रणिधान है। सामायिक में जिस प्रकार मानसिक दुश्चिन्तन से बचना आवश्यक है, उसी प्रकार वचन के दुष्प्रयोग से भी बचना चाहिए। __ काय-दुष्प्रणिधान--मन और वचन की तरह सामायिक में देह भी व्यवस्थित, सावधान और सुसंयत रहनी चाहिए। देह से ऐसी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए, जिससे हिंसा आदि पापों की आशंका हो। सामायिक-स्मृति-अकरणता-वैसे तो सामायिक सारे जीवन का विषय है, जीवन की साधना है, पर अभ्यास-विधि के अन्तर्गत उसके लिए जैसा पहले सूचित हुआ है, ४८ मिनिट का एक इकाई का समय रक्खा गया है। जब उपासक सामायिक में बैठे, उसे पूरी तरह जागरूक और सावधान रहना चाहिए, समय के साथ-साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सामायिक में है। अर्थात् सामायिकोचित मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों से उसे दूर नहीं हटना है। ये भूलें सामायिक का अतिचार है, जिसके मूल में प्रमाद अजागरूकता या असावधानी है। सामायिक-अनवस्थित-करणता--अवस्थित का अर्थ यथोचित रूप में स्थित रहना है। वैसे न करना अनवस्थितता है। सामायिक में कभी अनवस्थित--अव्यवस्थित नहीं रहना चाहिए। कभी सामायिक कर लेना कभी नहीं करना, कभी सामायिक के समय से पहले उठ जाना-यह व्यक्ति के अव्यवस्थित एवं अस्थिर जीवन का सूचक है। ऐसा व्यक्ति सामायिक साधना में तो असफल रहता ही है, अपने लौकिक जीवन में भी विकास नहीं कर पाता। सामायिक के नियत काल के पूर्ण हुए बिना ही सामायिक व्रत पाल लेना-यह इस अतिचार का मुख्य आशय है। देशावकाशिक व्रत के अतिचार ५४. तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खेवे। तदन्तर श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-- आनयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात तथा बहि:पुद्गल-प्रक्षेप। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६] [उपासकदशांगसूत्र विवेचन देश और अवकाश इन दो शब्दों के मेल से देशावकाशिक शब्द बना है। देश का अर्थ यहाँ एक भाग है। अवकाश का अर्थ जाने या कोई कार्य करने की चेष्टा है। एक भाग तक अपने को सीमित रखना देशावकाशिक व्रत है। छठे दिक् व्रत में दिशा संबंधी परिमाण या मर्यादा जीवन भर के लिए की जाती है, उसका एक दिन-रात के समय के लिए या न्यूनाधिक समय के लिए और अधिक कम कर लेना देशावकाशिक व्रत है। अवकाश का अर्थ निवृत्ति भी होता है। अत: अन्य व्रतों का भी इसी प्रकार हर रोज समय-विशेष के लिए जो संक्षेप किया जाता है, वह भी इस व्रत में आ जाता है। इसको और स्पष्ट यों समझा जाना चाहिए। जैसे एक व्यक्ति चौबीस घंटे के लिए यह मर्यादा करता है कि वह एक मकान से बाहर के पदार्थों का उपभोग नहीं करेगा, बाहर के कार्य संपादित नहीं करेगा, वह मर्यादित भूमि से बाहर जाकर पंचास्त्रवों का सेवन नहीं करेगा, यदि वह नियत क्षेत्र से बाहर के कार्य संकेत से अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा करवाता है, तो वह ली हुई मर्यादा का उल्लंघन करता है। यह देशावकाशिक व्रत का अतिचार है। यह उपासक की मानसिक चंचलता तथा व्रत के प्रति अस्थिरता का द्योतक है। इससे व्रत-पालन की वृत्ति में कमजोरी आती है। व्रत का उद्देश्य नष्ट हो जाता है। इस व्रत के पांच अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- आनयन-प्रयोग--जितने क्षेत्र की मर्यादा की है, उस क्षेत्र में उपयोग के लिए मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तुएं अन्य व्यक्ति से मंगवाना। प्रेष्य-प्रयोग--मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र के कार्यों को संपादित करने हेतु सेवक, पारिवारिक व्यक्ति आदि को भेजना। शब्दानुपात--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का कार्य सामने आ जाने पर, ध्यान में आ जाने पर, छींक कर, खाँसी लेकर या कोई और शब्द कर पड़ौसी आदि से संकेत द्वारा कार्य कराना। रूपानुपात--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए मुंह से कुछ न बोलकर हाथ, अंगुली आदि से संकेत करना। बहिःपुद्गल-प्रक्षेप--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए कंकड़ आदि फेंक कर दूसरों को इशारा करना। ये कार्य करने से यद्यपि व्रत के शब्दात्मक प्रतिपालन में बाधा नहीं आती पर व्रत की आत्मा निश्चय ही इससे व्याहत होती है। साधना का अभ्यास दृढता नहीं पकड़ता, इसलिए इनका वर्जन अत्यन्त आवश्यक है। लौकिक एषणा, आरम्भ आदि सीमित कर जीवन को उत्तरोत्तर आत्म-निरत बनाने में देशावकाशिक व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन का तो अन्तिम लक्ष्य संपूर्ण रूप से आत्म-केन्द्रित होना है। अत्यन्त तीव्र और प्रशस्त आत्मबल वालों की तो बात और है, सामान्यतया हर किसी के लिए यह संभव नहीं कि वह एकाएक ऐसा कर सके, इसलिए उसे शनैः शनैः एषणा, कामना और इच्छा का Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [५७ संवरण करना होता है । इस अभ्यास में यह व्रत बहुत सहायक है। पोषधोपवास-व्रत के अतिचार ५५. तयाणंतरं च णं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियसिज्जासंथारे, अप्पमज्जियदुप्पमज्जियसिज्जासंथारे, अप्पडिलेहिय-दुप्पडिलेहियउच्चारपासवणभूमी, अप्पमज्यिदुप्पमज्जियउच्चारपासवणभूमि, पोसहोववासस्स सम्म अणणुपालणया। ___ तदनन्तर श्रमणोपासक को पोषधोपवास व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-- अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित--शय्या-संस्तारक, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित--शय्या-संस्तारक, अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चारप्रस्त्रवणभूमि, अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-उच्चारप्रस्त्रवणभूमि तथा पोषधोपवास--सम्यक--अननुपालन विवेचन • पोषधोपवास में पोषध एवं उपवास, ये दो शब्द है। पोषध का अर्थ धर्म को पोष या पुष्टि देने वाली क्रिया-विशेष है। उपवास उप उपसर्ग और वास शब्द से बना है। उप का अर्थ समीप है। उपावास का शाब्दिक तात्पर्य आत्मा या आत्मगुणों के समीप वास या अवस्थिति है। आत्मगुणों का सामीप्य या सान्निध्य साधने के कुछ समय के लिए ही सही, बहिर्मुखता निरस्त होती है । बहिर्मुखता या देहोन्मुखता में सबसे अधिक आवश्यक और महत्त्वपूर्ण भोजन है। साधक जब आत्म-तन्मयता में होता है तो भोजन आदि बाह्य वृत्तियों से सहज ही दूर हो जाता है। यह उपवास का तात्त्विक विवेचन है। व्यावहारिक दृष्टि से सूर्योदय से अगले सूर्योदय तक अर्थात् चौबीस घंटे के लिए अशन, पान, खादिम, स्वादिम आहार का त्याग उपवास है। पोषध और उपवास रूप सम्मिलित साधना का अर्थ यह है कि उपवासी उपासक एक सीमित समय-चौबीस घंटे के लिए घर से संबंध तोड़ कर-लगभग साधुवत् होकर एक निश्चित स्थान में निवास करता है। सोने, बैठने, शौच, लघु-शंका आदि के लिए भी स्थान निश्चित कर लेता है । आवश्यक, सीमित उपकरणों को साधु की तरह यतना या सावधानी से रखता है, जिससे हिंसा से बचा जा सके। श्रावक या उपासक के तीन मनोरथों में एक है--"कया णमहं मुडे भवित्ता पव्वइस्सामि"मेरे जीवन में वह अवसर कब आएगा, जब मैं मुंडित होकर प्रवजित होऊँगा। इस मनोरथ या उच्च भावना के परिपोषण व विकास में यह व्रत सहायक है। श्रमण-साधना के अभ्यास का यह एक व्यावहारिक रूप है। जिस तरह एक श्रमण अपने जीवन की हर प्रवृत्ति में जागरूक और सावधान रहता है, उपासक भी इस व्रत में वैसा ही करता है। पोषधोपवास व्रत में सामान्यतः ये चार बातें मुख्य है-- Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [उपासकदशांगसूत्र (१) अशन, पान आदि खाद्य-पेय-पदार्थों का त्याग, (२) शरीर की सज्जा, वेशभूषा, स्नान आदि का त्याग, (३) अब्रह्मचर्य का त्याग, (४) समग्र सावद्य-सपाप कार्य-कलाप का त्याग। वैसे पोषधोपवास चाहे जब किया जा सकता है, पर जैन परंपरा में द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशी एवं चतुर्दशी विशिष्ट पर्व-तिथियों के रूप में स्वीकृत हैं। उनमें भी अष्टमी, चतुर्दशी और पाक्षिक विशिष्ट माना जाता है। पोषधोपवास के अतिचारों का स्पष्टीकरण निम्नांकित है __ अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-शय्यासंस्तार-शय्या का अर्थ पोषध करने का स्थान तथा संस्तार का अर्थ दरी, चटाई आदि सामान्य बिछौना है, जिस पर सोया जा सके। अनदेखे-भाले व लापरवाही से देखे-भाले स्थान व बिछौने का उपयोग करना। अप्रमार्जित-दुष्प्रमार्जित-शय्या-संस्तार-प्रमार्जित न किये हुए-बिना पूंजे अथवा लापरवाही से पूंजे स्थान एवं बिछौने का उपयोग करना। अप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित-उच्चार-प्रस्त्रवणभूमि-अनदेखे-भाले तथा लापरवाही से देखेभाले शौच व लघुशंका के स्थानों का उपयोग करना। पोषधोपवास-सम्यक्-अननुपालन-पोषधोपवास का भली-भाँति--यथाविधि पालन न करना। इन अतिचारों से उपासक को बचना चाहिए। यथासंविभाग-व्रत केअतिचार ५६. तयाणंतरं च णं अहासंविभागस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा, न समायरियव्वा, तं जहा-सचित्त-निक्खेवणया, सचित्तपेहणया, कालाइक्कमे, परववएसे, मच्छरिया। तत्पश्चात् श्रमणोपासक को यथासंविभाग-व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-- सचित्तनिक्षेपणता, सचित्तपिधान, कालातिक्रम, परव्यपदेश तथा मत्सरिता। विवेचन यथा-संविभाग का अर्थ है, उचित रूप से अन्न, पान, वस्त्र आदि का विभाजन--मुनि अथवा चारित्र-सम्पन्न योग्य पात्र को इन स्वाधिकृत वस्तुओं में से एक भाग देना। इस व्रत का नाम अतिथिसंविभाग भी है, जिसका अर्थ है--जिसके आने की कोई निश्चित तिथि या दिन नहीं, ऐसे साधु या संयमी अतिथि को अपनी वस्तुओं में से देना। गृहस्थ का यह बहुत ही उत्तम व आवश्यक कर्तव्य है। इससे उदारता की वृत्ति विकसित होती है, आत्म-गुण उजागर होते हैं। इस व्रत के जो पांच अतिचार माने गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि उपासक की देने की Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [५९ वृत्ति सदा सोत्साह बनी रहे, उसमें क्षीणता न आए। उन अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है-- सचित्त-निक्षेपणता--दान न देने की नीयत से अचित्त-निर्जीव-संयमी के लेने योग्य पदार्थों को सचित-सजीव धान्य आदि में रख देना अथवा लेने योग्य पदार्थों में सचित पदार्थ मिला देना। ऐसा करने से साधु उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता। यह मुख से भिक्षा न देने की बात न कह कर भिक्षा न देने का व्यवहार से धूर्तता पूर्ण उपक्रम है। सचित्त-पिधान-दान न देने की भावना से सचित्त वस्तु से अचित वस्तु को ढक देना, ताकि संयमी उसे स्वीकार न कर सके। कालातिक्रम-काल या समय का अतिक्रम-उल्लंघन करना। भिक्षा का समय टाल कर भिक्षा देने की तत्परता दिखाना समय टल जाने से आने वाला साधु या अतिथि भोजन नहीं लेता, क्योंकि तब तक उसका भोजन हो चुकता है। यह झूठा सत्कार है। ऐसा करने वाला व्यक्ति मन ही मन यह जानता है कि उसे भिक्षा या भोजन देना नहीं पड़ेगा, उसकी बात भी रह जायगी, यों कुछ लगे बिना ही सत्कार हो जायगा। परव्यपदेश-न देने की नीयत से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना। मत्सरिता-मत्सर या ईर्ष्यावश आहार आदि देना। ईर्ष्या का अर्थ यहां यह है-जैसे कोई व्यक्ति देखता है, अमुक ने ऐसा दान दिया है तो उसके मन में आता है, मैं उससे कम थोड़ा ही हूं मैं भी दूं। ऐसा करने में दान की भावना नहीं है, अंहकार की भावना है। किन्हीं ने मत्सरिता का अर्थ कृपणता या कंजूसी किया है। तदनुसार दान देने में कंजूसी करना इस अतिचार में आता है। कहीं कहीं मत्सरिता का अर्थ क्रोध भी किया गया है, उनके अनुसार क्रोधपूर्वक भिक्षा या भोजन देना, यह अतिचार है। मरणान्तिक-संलेखना के अतिचार ५७. तयाणंतरं च णं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे। तदन्तर अपश्चिम-मरणांतिक-संलेषणा-जोषणाआराधना के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है-- ___ इहलोक-आशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्रयोग, मरण-आशंसाप्रयोग तथा काम-भोग-आशंसाप्रयोग। विवेचन जैनदर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है-आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति। उस पर कर्मों के जो आवरण आए हुए है, उन्हें क्षीण करते हुए इस दिशा में बढ़ते जाना, साधना की यात्रा है। देह उसमें उपयोगी है। सांसारिक कार्य जो देह से सधते है, वे तो प्रासंगिक है, आध्यात्मिक दृष्टि से Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०] [उपासकदशांगसूत्र देह का यथार्थ उपयोग, संवर तथा निर्जरामूलक धर्म का अनुसरण है। उपासक या साधक अपनी देह की परिपालना इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहयोगी है। न कोई सदा युवा रहता है और न स्वस्थ, सुपुष्ट ही। युवा वृद्ध हो जाता है, स्वस्थ रूग्ण हो जाता है और सुपुष्ट दुर्बल। एक ऐसा समय आ जाता है, जब देह अपने निर्वाह के लिए स्वयं दूसरों का सहारा चाहने लगती है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति धार्मिक क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन में उत्साह घटने लगता है, कमजोरी आने लगती है, विचार मलिन होने लगते है, जीवन एक भार लगने लगता है। भार को तो ढोना पड़ता है। विवेकी साधक ऐसा क्यों करे? जैनदर्शन वहां साधक को एक मार्ग देता है। साधक शान्ति एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह खान-पान का परित्याग कर देता है और एकान्त या पवित्र स्थान में आत्मचिन्तन करता हुआ भावों की उच्च भूमिका पर आरूढ हो जाता है। इस व्रत को संलेषणा कहा जाता है। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने संलेषणा का अर्थ शरीर एवं कषायों को कृश करना किया है। संलेषणा के आगे जोषणा और आराधना दो शब्द और हैं। जोषणा का अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन है। आराधना का अर्थ अनुसरण करना या जीवन में उतारना है अर्थात् संलेषणा-व्रत का प्रसन्नतापूर्वक अनुसरण करना। दो विशेषण साथ में और है--अपश्चिम और मरणान्तिक । अपश्चिम का अर्थ है अन्तिम या आखिरी, जिसके बाद इस जीवन में और कुछ करना बाकी न रह जाय। मरणान्तिक का अर्थ है, मरण पर्यन्त चलने वाली आराधना। इस व्रत में जीवन भर के लिए आहार-त्याग तो होता ही है, साधक लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को भी छोड़ देता है। उसमें इतनी आत्म-रति व्याप्त हो जाती है कि जीवन और मृत्यु की कामना से वह ऊंचा उठ जाता है। न उसे जीवन की चाह रहती है कि वह कुछ समय और जी ले और न मत्य से डरता है तथा न उसे जल्दी पा लेने के लिए आकल-आतर होता है कि देह का अन्त हो जाय, आफत मिटे। सहज भाव से जब भी मौत आती है, वह उसका शान्ति से वरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से कितनी पवित्र, उन्नत और प्रशस्त मनःस्थिति यह है। इस व्रत के जो अतिचार परिकल्पित किए गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि साधक की यह पुनीत वृत्ति कहीं व्याहत न हो जाय। ___ अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है--इहलोक-आशंसाप्रयोग-ऐहिक भोगों या सुखों की कामना, जैसे मैं मरकर राजा, समृद्धिशाली तथा सुखसंपन्न बनूं। परलोक-आशंसाप्रयोग-परलोक-स्वर्ग में प्राप्त होने वाले भोगों की कामना करना, जैसे मैं मर कर स्वर्ग प्राप्त करूं तथा वहां के अतुल सुख भोगूं। जीवित-आशंसाप्रयोग--प्रशस्ति, प्रशंसा, यश, कीर्ति आदि के लोभ से या मौत के डर से जीने की कामना करना। मरण-आशंसाप्रयोग--तपस्या के कारण होनेवाली भूख, प्यास तथा दूसरी शारीरिक प्रतिकूलताओं को कष्ट मान कर शीघ्र मरने की कामना करना, यह सोच कर कि जल्दी ही इन कष्टों से छुटकारा हो जाय। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [६१ कामभोग-आशंसाप्रयोग--ऐहिक तथा पारलौकिक शब्द, रूप, रस, गन्ध तथा स्पर्शमूलक इन्द्रियसुखों को भोगने की कामना करना-ऐसी भावना रखना कि अमुक भोग्य पदार्थ मुझे प्राप्त हों। इस अन्तिम साधना-काल में उपर्युक्त विचारों का मन में आना सर्वथा अनुचित है। इससे आन्तरिक पवित्रता बाधित होती है। जिस पुनीत और महान् लक्ष्य को लिए साधक साधना-पथ पर आरूढ होता है, इससे उस की पवित्रता घट जाती है। इसलिए साधक को इस स्थिति में बहुत ही जागरूक रहना अपेक्षित है। यों त्याग-तितिक्षा और अध्यात्म की उच्च भावना के साथ स्वयं मृत्यु को वरण करना जैन शास्त्रों में मृत्यु-महोत्सव कहा गया है। सचमुच यह बड़ी विचित्र और प्रशंसनीय स्थिति है। जहां एक और देखा जाता है, अनेक रोगों से जर्जर, आखिरी सांस लेता हुआ भी मनुष्य जीना चाहता है, जीने के लिए कराहता है, वहां एक यह साधक है, जो पूर्ण रूप से समभाव में लीन होकर जीवन-मरण की कामना से ऊपर उठ जाता है। . नहीं समझने वाले कभी-कभी इसे आत्महत्या की संज्ञा देने लगते हैं। वे क्यों भूल जाते है, आत्म-हत्या क्रोध, दुःख, शोक, मोह आदि उग्र मानसिक आवेगों से कोई करता है, जिसे जीवन में कोई सहारा नहीं दीखता, सब ओर अंधेरा ही अंधेरा नजर आता है। यह आत्मा की कमजोरी का घिनौना रूप है। संलेखनापूर्वक आमरण अनशन तो आत्मा का हनन नहीं, उसका विकास, उन्नयन और उत्थान है, जहां काम, क्रोध, राग, द्वेष, मोह आदि से साधक बहुत ऊँचा उठ जाता है। आनन्द द्वारा अभिग्रह ५८. तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं सावय-धम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जिता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-- ___ नो खलु मे भंते! कप्पइ अज्जप्पभिई अन्न-उत्थिए वा अन्न-उत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि चेइयाइं वा वंदित्तए वा नमंसित्तए वा, पुट्विं अणालत्तेण आलवित्तए वा संलवित्तए वा, तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा दाउं वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिओगेणं, गणाभिओगेणं, बलाभिओगेणं, देवयाभिओगेणं, गुरूनिग्गहेणं, वित्तिकंतारेणं। कप्पइ में समणे निग्गंथे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुञ्छणेणं, पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं, ओसह-भेसज्जेण य पडिलाभेमाणस्स विहरित्तए-- --त्ति कटु इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठाई आदियइ, आदित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ, वंदित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दुइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२] a [उपासकदशांगसूत्र जेणेव वाणियग्गामे नयरे, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिवनन्दं भारियं एवं वयासी-- एवं खलु देवाणुप्पिए! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते। से वि य धम्मे मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तं गच्छ णं तुमं देवाणुप्पिए! समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव (णमंसाहि, सकारेहि, सम्माणेहि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पजुवासाहि, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवजाहि। फिर आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रतरूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार किया। स्वीकार कर भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार कर वह भगवान् से यों बोला-- भगवन् ! आजसे अन्ययूथिक-निर्ग्रन्थ धर्म-संघ के अतिरिक्त अन्य संघों से सम्बद्ध पुरूष, उनके देव, उन द्वारा परिगृहीत-स्वीकृत चैत्य-उन्हें वन्दना करना, नमस्कार करना, उनके पहले बोले बिना उनसे आलाप-संलाप करना, उन्हें धार्मिक दृष्टि से अशन-रोटी, भात आदि अन्न-निर्मित खाने के पदार्थ, पान-पानी, दूध आदि पेय पदार्थ, खादिम-खाद्य-फल, मेवा आदि अन्न-रहित खाने की वस्तुएं तथा स्वादिम-स्वाद्य-पान, सुपारी आदि मुखवास व मुख-शुद्धिकरण चीजें प्रदान करना, अनुप्रदान करना मेरे लिए कल्पनीय-धार्मिक दृष्टि से करणीय नहीं है अर्थात् ये कार्य मैं नहीं करूंगा। राजा, गणजन-समुदाय अथवा विशिष्ट जनसत्तात्मक गणतंत्रीय शासन, बल-सेना या बली पुरुष, देव व मातोपिता आदि गुरूजन का आदेश या आग्रह तथा अपनी आजीविका के संकटग्रस्त होने की स्थिति-मेरे लिए इसमें अपवाद हैं अर्थात् इन स्थितियों में उक्त कार्य मेरे लिए करणीय हैं। श्रमणों, निर्गन्थों को प्रासुक-अचित, एषणीय-उन द्वारा स्वीकार करने योग्य-निर्दोष, अशन, पान, खाद्य तथा स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद-प्रोञ्छन-रजोहरण या पैर पोंछने का वस्त्र, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि, औषध-सूखी जड़ी-बूटी, भेषज-दवा देना मुझे कल्पता है-मेरे लिए करणीय है। आनन्द ने यों अभिग्रह-संकल्प स्वीकार किया। वैसा कर भगवान् से प्रश्न पूछे। प्रश्न पूछकर उनका अर्थ-समाधान प्राप्त किया। समाधान प्राप्त कर श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदना की। वंदना कर भगवान के पास से, दूतीपलाश नामक चैत्य से रवाना हुआ। रवाना होकर जहां वाणिज्यग्राम नगर था, जहां अपना घर था, वहां आया। आकर अपनी पत्नी शिवनन्दा को यों बोला-देवानुप्रिये! मैंने श्रमण भगवान् के पास से धर्म सुना है। वह धर्म मेरे लिए इष्ट, अत्यन्त इष्ट और रुचिकर है। देवानुप्रिये! तुम भगवान् महावीर के पास जाओ, उन्हें वंदना करो, (नमस्कार करो, उनका सत्कार करो, सम्मान करो, वे कल्याणमय हैं, मंगलमय हैं, देव है, ज्ञान-स्वरूप हैं,) पर्युपासना करो तथा पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत-रूप बारह प्रकार का गृहस्थ-धर्म स्वीकार करो। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [६३ विवेचन श्रावक के बारह व्रत, पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत के रूप में विभाजित हैं । अणुव्रत मूल व्रत है। शिक्षाव्रत उनके पोषण, संवर्धन एवं विकास के लिए है। शिक्षा का अर्थ अभ्यास है। ये व्रत अणुव्रतों के अभ्यास या साधना में स्थिरता लाने में विशेष उपयोगी हैं। शाब्दिक भेद से इन सात (शिक्षा) व्रतों का विभाजन दो प्रकार से किया जाता रहा है। इन सातों को शिक्षाव्रत तो कहा ही जाता है, जैसा पहले उल्लेख हुआ है, इनमें पहले तीन-अनर्थदण्डविरमण, दिग्व्रत, तथा उपभोग-परिभोगपरिमाण गुणव्रत और अन्तिम चार-सामायिक, देशावकाशिक, पोषधोपवास एवं अतिथिसंविभाग, शिक्षाव्रत कहे गये हैं। गुणव्रत कहे जाने के पीछे साधारणतया यही भाव है कि ये अणुव्रतों के गुणात्मक विकास में सहायक हैं अथवा साधक के चारित्रमूलक गुणों की वृद्धि करते हैं। अगले चार मुख्यतः अभ्यासपरक हैं, इसलिए उनके साथ “शिक्षा" शब्द विशेषणात्मक दृष्टि से सहजतया संगत है। वैसे सामान्य रूप में गुणव्रत तथा शिक्षाव्रत दोनों ही अणुव्रतों के अभ्यास में सहायक हैं, इसलिए स्थूल रूप में सातों को जो शिक्षाव्रत कहा जाता है, उपयुक्त ही है। . सात शिक्षाव्रतों का जो क्रम औपपातिक सूत्र आदि में है, उसका यहाँ उल्लेख किया गया है। आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में क्रम कुछ भिन्न है। तत्त्वार्थसूत्र में इन व्रतों का क्रम दिग्, देश, अनर्थ-दंड-विरति, सामायिक, पोषधोपवास, उपभोग-परिभोग-परिमाण तथा अतिथि-संविभाग के रूप में है वहाँ इन्हें शिक्षाव्रत न कह कर केवल यही कहा गया है कि श्रावक इन व्रतों से भी संपन्न होता है। किन्तु क्रम में किंचित् अन्तर होने पर भी तात्पर्य में कोई भेद नहीं है। आनन्द ने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण करने के पश्चात् जो विशेष संकल्प किया, उसके पीछे अपने द्वारा विवेक और समझपूर्वक स्वीकार किए गए धर्म-सिद्धान्तों में सुदृढ एवं सुस्थिर बने रहने की भावना है। अतएव वह धार्मिक दृष्टि से अन्य धर्म-संघों के व्यक्तियों से अपना सम्पर्क रखना नही चाहता ताकि जीवन में कोई ऐसा प्रसंग ही न आए, जिससे विचलन की आशंका हो। प्रश्न हो सकता है, जब आनन्द ने सोच-समझ कर धर्म के सिद्धान्त स्वीकार किये थे तो उसे यों शंकित होने की क्या आवश्यकता थी? साधारणतया बात ठीक लगती है, पर जरा गहराई में जाएं। मानव मन बड़ा भावुक है। भावुकता कभी कभी विवेक को आवृत कर देती है, फलतः व्यक्ति उसमें बह जाता है, जिससे उसकी सद् आस्था डगमगा सकती है इसी से बचाव के लिए आनन्द का यह अभिग्रह है। इस सन्दर्भ में प्रयुक्त चैत्य शब्द कुछ विवादास्पद है। चैत्य शब्द अनेकार्थवाची है। सुप्रसिद्ध १. दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकपोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणाऽतिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च। --तत्त्वार्थसूत्र ७. १६ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ] जैनाचार्य पूज्य श्री जयमलजी म. ने चैत्य शब्द के एक सौ बारह अर्थों की गवेषणा की। चैत्य शब्द के सन्दर्भ में भाषा-वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि किसी मृत व्यक्ति के जलाने के स्थान पर उसकी स्मृति में एक वृक्ष लगाने की प्राचीन काल में परम्परा रही है । भारतवर्ष से बाहर भी ऐसा होता रहा है । चिति या चिता के स्थान पर लगाए जाने के कारण वह वृक्ष चैत्य कहा जाने लगा हो। आगे चलकर यह परम्परा कुछ बदल गई । वृक्ष के स्थान पर स्मारक के रूप में मकान बनाया जाने लगा। उस मकान में किसी लौकिक देव या यक्ष आदि की प्रतिमा स्थापित की जाने लगी । यों उसने एक देवस्थान या मन्दिर का रूप ले लिया । वह चैत्य कहा जाने लगा। ऐसा होते-होते चैत्य शब्द सामान्य मन्दिरवाची भी हो गया। [ उपासक दशांगसूत्र चैत्य का एक अर्थ ज्ञान भी है। एक अर्थ यति या साधु भी है। आचार्य कुंदकुंद ने अष्ट-प्राभृत में चैत्य शब्द का इन अर्थों में प्रयोग किया है। अन्य-यूथिक-परिगृहीत चैत्यों को वंदन, नमस्कार न करने का, उनके साथ आलाप - साप न करने का जो अभिग्रह आनन्द ने स्वीकार किया, वहाँ चैत्य का अर्थ उन साधुओं से लिया जाना चाहिए, जिन्होंने जैनत्व की आस्था छोड़कर पर दर्शन की आस्था स्वीकार कर ली हो और पर - दर्शन के अनुयायियों ने उन्हें परिगृहीत या स्वीकार कर लिया हो । एक अर्थ यह भी हो सकता है, दूसरे दर्शन में आस्था रखने वाले वे साधु, जो जैनत्व की आस्था में आ गए हों, पर जिन्होंने अपना पूर्व वेश नहीं छोड़ा हो, अर्थात् वेश द्वारा अन्य यूथ या संघ से संबद्ध हों। ये दोनों ही श्रावक के लिए वंदनीय नहीं होते। पहले तो वस्तुतः साधुत्वशून्य हैं ही, दूसरे - गुणात्मक दृष्टि से ठीक हैं, पर व्यवहार की दृष्टि से उन्हें वंदन करना समुचित नहीं होता। इससे साधारण श्रावकों पर प्रतिकूल असर होता है, मिथ्यात्व बढ़ने की आशंका बनी रहती है । जैसा ऊपर संकेत किया गया है, अन्य मतावलम्बी साधुओं को वन्दन, नमन आदि न करने की बात मूलतः आध्यात्मिक या धार्मिक दृष्टि से है। शिष्टाचार, सद्व्यवहार आदि के रूप में वैसा करना निषिद्ध नहीं है। जीवन में व्यक्ति को सामाजिक दृष्टि से भी अनेक कार्य करने होते हैं, जिनका आधार सामाजिक मान्यता या परम्परा होता है । ५९. तए णं सा सिवनंदा भारिया आणंदेणं समणोवासएणं एवं वृत्ता समाणा तुट्ठा जाव चित्तमाणंदिया, पीइमणा, परम- सोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु 'एवं सामि' ! त्ति आणंदस्स समणोवासगस्स एयमट्ठं विणएण पडिसुणेइ । तसे आणंदे समणोवासए कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी- १. जयध्वज पृष्ठ ५७३-७६ २. बुद्धं जं बोहंतो अप्पाणं चेदयाई अण्णं च । पंचमहव्वयसुद्धं णाणमयं जाण चेदिहरं ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [६५ खिप्पामेव भो! देवाणुप्पिया! लहुकरणजुत्तजोइयं, समखुर-वालिहाण-समलिहियसिंगएहिं जंबूणयामयकलावजुत्त-पइविसिट्ठएहिं रययामयघंट-सुत्तरज्जुग-वरकंचणखचियनत्थपग्गहोग्गहियएहिं नीलुप्पलक यामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिकणगघंटियाजालपरिगयं, सुजायजुगजुत्त-उज्जुगपसत्थ-सुविर इयनिम्मियं, पवरलक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाणप्वरं उवट्ठवेह, उवट्ठवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। तए णं ते कोडुंबियपुरिसा आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्टतुट्ठा 'एवं सामि!' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। तएणं सा सिवणंदा भारिया ण्हाया, कयबलिकम्मा, कयकोउय-मंगल-पायच्छित्ता, सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाइं वत्थाई पवर परिहि या अप्पमह ग्घाभरणालंकि यसरीरा चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, दुरूहित्ता वाणियगामं नयरं मज्झमझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छिता जेणेव दूइपलासए चेइए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरूहइं, पच्चोरूहित्ता चेडियाचक्कवालपरिकिण्णा जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, णमंसइ; वंदित्ता, णमंसित्ता पच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणा णमंसमाणा अभिमुहे विणएणं पंजलियडा) पज्जुवासइ। श्रमणोपासक आनन्द ने जब अपनी पत्नी शिवनन्दा से ऐसा कहा तो उसने हृष्ट-तुष्ट-अत्यन्त प्रसन्न होते हुए (चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव करते हुए अतीव सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित-हृदय हो,) हाथ जोड़े, सिर के चारों ओर घुमाए तथा अंजलि बांधे, 'स्वामी ऐसा ही अर्थात् आपका कथन स्वीकार है,' यों आदरपूर्ण शब्दों से पति को सम्बोधित-प्रत्युत्तरित करते हुए अपने पति आनन्द का कथन स्वीकृतिपूर्ण भाव से विनयपूर्वक सुना। तब श्रमणोपासक आनन्द ने अपने सेवकों को बलाया और कहा-तेज चलने वाले, एक जैसे खर, पंछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींगवाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किये, गले से लटकती चांदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली-सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बनी कलंगी से युक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की बहुत सी घंटियों से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीधे, उत्तम और सुन्दर बने जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिक कार्यो में उपभोग में आने वाला यानप्रवर-श्रेष्ठ रथ शीघ्र ही उपस्थित करों, उपस्थित करके मेरी यह आज्ञा वापिस करो अर्थात् आज्ञानुसार कार्य हो जाने की सूचना दो। श्रमणोपासक आनन्द द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने अत्यन्त प्रसन्न होते हुए विनयपूर्वक Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [उपासकदशांगसूत्र अपने स्वामी की आज्ञा शिरोधार्य की और जैसे शीघ्रगामी बैलों से युक्त यावत् धार्मिक उत्तम रथ के लिए आदेश दिया गया था, उपस्थित किया। __ आनन्द की पत्नी शिवनन्दा ने स्नान किया, नित्य-नैमित्तिक कार्य किये, कौतुक--देहसज्जा की दृष्टि से आंखों में काजल आंजा, ललाट पर तिलक लगाया, प्रायश्चित्त-दुःस्वप्रादि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि से मंगल-विधान किया, शुद्ध, उत्तम, मांगलिक वस्त्र पहने, थोड़े से-संख्या में कम पर बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया। दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हई। सवार होकर वाणिज्यग्राम नगर के बीच से गजरी, जहाँ दूतीपलाश चैत्य था, वहाँ आई, आकर धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, नीचे उतर कर दासियों के समूह से घिरी वहाँ गई जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे। जाकर तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया, भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो, नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े, पर्युपासना करने लगी। ६०. तए णं समणे भगवं महावीरे सिवनंदाए तीसे य महइ जाव' धम्मं कहेइ। तब श्रमण भगवान महावीर ने शिवनन्दा को तथा उपस्थित परिषद् (जन-समूह) को धर्मदेशना दी। ६१. तए णं सा सिवनंदा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्ट जाव' गिहिधम्म पडिवज्जइ, पडिवज्जित्ता तमेव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ दुरूहित्ता जामेव दिसं पाउब्भूया तामेव दिसं पडिगया। तब शिवनन्दा श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर तथा उसे हृदय में धारण करके अत्यन्त प्रसन्न हुई। उसने गृहि-धर्म-- श्रावकधर्म स्वीकार किया, स्वीकार कर वह उसी धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर जिस दिशा से आई थी, उसी दिशा की ओर चली गई। आनन्द का भविष्य ६२. भंते! त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--पहू णं भंते! आणंदे समणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे जाव पव्वइत्तए? नो तिणढे समढे, गोयमा! आणंदे णं समणोवासए बहूई वासाइं समणोवासगपरियायं पाउणिहिइ, पाउणित्ता जाव ( एक्कारस य उवासगपडिमाओं सम्मं कारणं फासित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा) सोहम्मे कप्पे अरूणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिइ। तत्थ ण १. देखें सूत्र--संख्या ११ । २. देखें सूत्र--संख्या १२। ३. देखें सूत्र--संख्या १२ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [६७ अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, तत्थ णं आणंदस्स वि समणोवासगस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। गौतम ने भगवान् महावीर को वन्दन--नमस्कार किया और पूछा-भन्ते! क्या श्रमणोपासक आनन्द देवानुप्रिय के-आपके पास मुंडित एवं परिव्रजित होने में समर्थ है? __ भगवान् ने कहा-गौतम ! ऐसा संभव नहीं है। श्रमणोपासक आनन्द बहुत वर्षों तक श्रमणोपासकपर्याय-श्रावक-धर्म का पालन करेगा (उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का भली-भांति स्पर्श-अनुपालन करेगा, अन्ततः एक मास की संलेखना एवं साठ भोजन का-एक मास का अनशन आराधित कर आलोचना प्रतिक्रमण-ज्ञात-अज्ञात रूप में आचरित दोषों की आलोचना कर समाधिपूर्वक यथासमय देह-त्याग करेगा।) वह सौधर्म-कल्प में--सौधर्म नामक देवलोक में अरूणाभ नामक विमान में देव के रूप में उत्पन्न होगा। वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम (काल का परिमाण विशेष) की होती है। श्रमणोपासक आनन्द की भी आयु-स्थिति चार पल्योपम की होगी। विवेचन यहाँ प्रयुक्त 'पल्योपम' शब्द एक विशेष, अति दीर्घ काल का द्योतक है। जैन वाङमय में इसका बहुलता से प्रयोग हुआ है। प्रस्तुत आगम में प्रत्येक अध्ययन में श्रावकों की स्वर्गिक काल स्थिति का सूचन करने के लिए इसका प्रयोग हुआ है। पल्य या पल्ल का अर्थ कुआ या अनाज का बहुत बड़ा कोठा है। उसके आधार पर या उसकी उपमा से काल-गणना की जाने के कारण यह कालावधि 'पल्योपम' कही जाती है। पल्योपम के तीन भेद है--१. उद्धार-पल्योपम, २. अद्धा-पल्योपम, ३. क्षेत्र-पल्योपम । उद्धारपल्योपम--कल्पना करें, एक ऐसा अनाज का बड़ा कोठा या कुआँ हो, जो एक योजन (चार कोस) लम्बा, एक योजन चौड़ा और एक योजन गहरा हो। एक दिन से सात दिन की आयु वाले नवजात यौगलिक शिशु के बालों के अत्यन्त छोटे टुकड़े किए जाएं, उनसे ढूंस-टूंस कर उस कोठे या कुएं को अच्छी तरह दबा-दबा कर भरा जाय। भराव इतना सघन हो कि अग्नि उन्हें जला न सके, चक्रवर्ती की सेना उन पर से निकल जाय तो एक भी कण इधर से उधर न हो सके, गंगा का प्रवाह बह जाय तो उन पर कुछ असर न हो सके। यों भरे हुए कुएं में से एक-एक समय में एक-एक बाल-खंड निकाला जाय। यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआँ खाली हो, उस काल-परिमाण को उद्धारपल्योपम कहा जाता है। उद्धार का अर्थ निकालना है। बालों के उद्धार या निकाले जाने के आधार पर इसकी संज्ञा उद्धार पल्योपम है। यह संख्यात समय-प्रमाण माना जाता है। उद्धार पल्योपम के दो भेद है--सूक्ष्म एवं व्यावहारिक। उपर्युक्त वर्णन व्यावहारिक उद्धारपल्योपम का है । सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम इस प्रकार है-- व्यावहारिक उद्धार-पल्योपम में कुएं को भरने में यौगलिग शिशु के बालों की जो चर्चा आई है, उनमें से प्रत्येक टुकड़े के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाएँ। उन सूक्ष्म खंडों से पूर्व-वर्णित कुआँ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [उपासकदशांगसूत्र ढूंस-ठूस कर भरा जाय। वैसा कर लिये जाने पर प्रतिसमय एक-एक खंड कुएं में से निकाला जाय, यो करते-करते जितने काल में वह कुआँ, बिलकुल खाली हो जाय, उस काल-अवधि को सूक्ष्म उद्धारपल्योपम कहा जाता है। इसमें संख्यात-वर्ष-कोटि परिमाण-काल माना जाता है। अद्धा-पल्योपम--अद्धा देशी शब्द है, जिसका अर्थ काल या समय है। आगम के प्रस्तुत प्रसंग में जो पल्योपम का जिक्र आया है, उसका आशय इसी पल्योपम से है। इसकी गणना का क्रम इस प्रकार है--यौगलिक के बालों के टुकड़ों से भरे हुए कुएं में से सौ-सौ वर्ष में एक-एक टुकड़ा निकाला जाय। इस प्रकार निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, उस कालावधि को अद्धा-पल्योपम कहा जाता है। इसका परिमाण संख्यात वर्षकोटि है। _अद्धा-पल्योपम भी दो प्रकार का होता है-सूक्ष्म और व्यावहारिक। यहां जो वर्णन किया गया है, वह व्यावहारिक अद्धा-पल्योपम का है। जिस प्रकार सूक्ष्म उद्धार-पल्योपम में यौगलिक शिशु के बालों के टुकड़ों के असंख्यात अदृश्य खंड किए जाने की बात है, तत्सदृश यहां भी वैसे ही असंख्यात अदृश्य केश-खंड़ों से वह कुआँ भरा जाय। प्रति सौ वर्ष में एक खंड निकाला जाए। यों निकालते निकालते जब कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा होने में जितना काल लगे, वह सूक्ष्म अद्धापल्योपम कोटी में आता है। इसका काल-परिमाण असंख्यात वर्षकोटि माना गया है। क्षेत्र-पल्योपम--ऊपर जिस कुएं या धन के विशाल लोठे की चर्चा है, यौगलिक के बालखंडों से उपर्युक्त रूप में दबा-दबा कर भर दिये जाने पर भी उन खंडों के बीच में आकाश-प्रदेशरिक्त स्थान रह जाते हैं। वे खंड चाहे कितने ही छोटे हों, आखिर वे रूपी या मूर्त हैं, आकाश अरूपी या अमूर्त है। स्थूल रूप में उन खंडों के बीच रहे आकाश-प्रदेशों की कल्पना नहीं का जा सकती, पर सूक्ष्मता से सोचने पर वैसा नहीं है। इसे एक स्थूल उदाहरण से समझा जा सकता है--कल्पना करें, अनाज के एक बहुत बड़े कोठे को कूष्मांडों कुम्हड़ों से भर दिया गया। सामान्यतः देखने में लगता है, वह कोठा भरा हुआ है, उसमें कोई स्थान खाली नहीं है, पर यदि उसमें नींबू और भरे जाए तो वे अच्छी तरह समा सकते हैं। क्योंकि सटे हुए कुम्हडों के बीच में स्थान खाली जो है। यों नींबुओं से भरे जाने पर भी सूक्ष्म रूप में और खाली स्थान रह जाता है, बाहर से वैसा लगता नहीं। यदि उस कोठे में सरसों भरना चाहें तो वे भी समा जाएं । सरसों भरने पर भी सूक्ष्म रूप में और स्थान खाली रहता है। यदि नदी के रजःकण उसमें भरे जाएं, तो वे भी समा सकते हैं। दूसरा उदाहरण दीवाल का है। चुनी हुई दीवाल में हमें कोई खाली स्थान प्रतीत नहीं होता पर उसमें हम अनेक खूटियाँ, कीलें गाड़ सकते हैं। यदि वास्तव में दीवाल में स्थान खाली नही होता तो यह कभी संभव नहीं था। दीवाल में स्थान खाली है, मोटे रूप में हमें मालूम नहीं पड़ता। अस्तु। क्षेत्र-पल्योपम की चर्चा के अन्तर्गत यौगलिक के बालों के खंडों के बीच-बीच में जो आकाश-प्रदेश होने की बात है, उसे भी इसी दृष्टि से समझा जा सकता है। योगलिक के बालों के खंडों को संस्पृष्ट करने वाले आकाश-प्रदेशों में से प्रत्येक को प्रतिसमय निकालने की कल्पना की जाय। यों निकालते-निकालते जब सभी आकाश-प्रदेश निकाल लिये जाएं, कुआँ बिलकुल खाली हो जाय, वैसा Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [६९ होने में जितना काल लगे, उसे क्षेत्र-पल्योपम कहा जाता है । इसका काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी है। क्षेत्र-पल्योपम दो प्रकार का है--व्यावहारिक एवं सूक्ष्म । उपर्युक्त विवेचन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम का है। सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम इस प्रकार है :-कुएं में भरे यौगलिक के केश--खंडों से स्पृष्ट तथा अस्पृष्ट सभी आकाश-प्रदेशों में से एक-एक समय में एक-एक प्रदेश निकालने की यदि कल्पना की जाय तथा यों निकालते-निकालते जितने काल में वह कुआँ समग्र आकाश-प्रदेशों से रिक्त हो जाय, वह कालपरिमाण सूक्ष्म-क्षेत्र-पल्योपम है। इसका भी काल-परिमाण असंख्यात उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी है। व्यावहारिक क्षेत्र-पल्योपम से इसका काल असंख्यात गुना अधिक होता है। अनुयोगद्वार सूत्र १३८-१४० तथा प्रवचन-सारोद्धारद्वार १४८ में पल्योपम का विस्तार से विवेचन है। ६३. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जाव (वाणियगामाओ नयराओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं) विहरइ। तदन्तर श्रमण भगवान् महावीर वाणिज्यग्राम नगर के दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान कर एक दिन किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। ६४. तए णं से आणंदे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव (उवलद्धपुण्णपावे आसव-संवरनिजरकिरियाअहिगरणबंधमोक्खकु सले, असहे जे, देवासुरणागसुवण्णजक्खरक्खसकिण्णर किंपुरिसगरूलगंधव्वमहोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओ पावयणाओ अणइक्कमणिज्जे, निग्गंथे पावयणे णिस्संकिए, णिकंखिए, निव्वितिगिच्छे, लद्धढे, गहियटे, पुच्छियटे, अभिगयढे, विणिच्छियटे, अट्ठिमिंजपेमाणुरागरत्ते, अयमाउसो! निग्गंथे पावयणे अद्वे, अयं परमटे; सेसे अणद्वे, ऊसियफलिहे, अवंगुयदुवारे, चियत्तंतेउरपरघरदारप्पवेसे चाउद्दसट्ठमुद्दिपुण्णमासिणीसु पडिपुण्णं पोसहं सम्म अणुपालेत्ता समणे निग्गंथे फासु एसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वत्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं ओसहभेसज्जेणं पाडिहारिएण य पीढफलगसेज्जासंथारएणं) पडिलाभेमाणे विहरइ। तब आनन्द श्रमणोपासक हो गया। जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को अच्छी तरह समझ लिया था, [पुण्य और पाप का भेद जान लिया था, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण--जिसके आधार से क्रिया की जाए, बन्ध एवं मोक्ष को जो भली-भांति अवगत कर चुका था, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक--आत्मनिर्भर था, जो देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, गरूड़, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन अनतिक्रमणीय Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ] [ उपासकदशांगसूत्र न विचलित किये जाने योग्य था, निग्रन्थ प्रवचन में जो निःशंक - शंका रहित, निष्कांक्ष--आत्मोत्थान के सिवाय अन्य आकांक्षा-रहित, विचिकित्सा संशय रहित, लब्धार्थ धर्म के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किये हुए, गृहीतार्थ -- उसे ग्रहण किये हुए, पृष्टार्थ -- जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थिर किये हुए, अभिगतार्थस्वायत्त किये हुए, विनिश्चितार्थ निश्चित रूप से आत्मसात् किए हुए था एवं जो अस्थि और मज्जा पर्यन्त धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था, जिसका यह निश्चित विश्वास था कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही अर्थ- प्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है, इसके सिवाय अन्य अनर्थ - अप्रयोजनभूत हैं । 'ऊसिय-फलिहे ' उठी हुई अर्गला है जिसकी, ऐसे द्वार वाला अर्थात् सज्जनों के लिये उसके द्वार सदा खुले रहते थे । अवंगु दुवारे - खुले द्वार वाला अर्थात् दान के लिए उसके द्वार सदा खुले रहते थे । चियत्त का अर्थ है उन्होंने किसी के अन्तःपुर और पर-घर में प्रवेश को त्याग दिया था अथवा वह इतना प्रामाणिक था कि उसका अन्त: पुर में और परघर में प्रवेश भी प्रीति- जनक था, अविश्वास उत्पन्न करने वाला नहीं था । चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या तथा पूर्णिमा को जो [आनन्द ] परिपूर्ण पोषध का अच्छी तरह अनुपालन करता हुआ, श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक -- अचित्त या निर्जीव, एषणीय- उन द्वारा स्वीकार करने योग्य -- निर्दोष, अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद - प्रोञ्छन, औषध, भेषज, प्रातिहारिक-लेकर वापस लौटा देने योग्य वस्तु, पाट, बाजोट, ठहरने का स्थान, बिछाने के लिए घास आदि द्वारा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रतिलाभित करता हुआ ] धार्मिक जीवन जी रहा था । ६५. तए णं सा सिवनंदा भारिया समणोवासिया जाया जाव' पडिला भेमाणी विहरइ । आनन्द की पत्नी शिवनन्दा श्रमणोपासिका हो गई । यावत् [ जिसे तत्त्वज्ञान प्राप्त था, श्रमणनिर्ग्रन्थों को प्रासुक और एषणीय पदार्थों द्वारा प्रतिलाभित करती हुई ] धार्मिक जीवन जीने लगीं। ६६. तए णं आणंदस्य समणोवासगस्स उच्चावएहिं सीलव्वयगुणवेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताइं । पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झत्थिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था -- एवं खलु अहं वाणियगामे नयरे बहूणं राईसर जाव' संयस्स वि य णं कुडुंबस्स जाव (मेढी, पमाणं, ) आधारे, तं एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए । तं सेयं खलु ममं कल्लं जाव ( पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगास- किंसुय-सुयमुहगुंजद्धरागसरिसे, कमलागरसंडबोहए, उट्ठियम्मि सूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा ) जलते विउलं असणपाणखाइमसाइमं जहा पूरणो, जाव ( उवक्खडावेत्ता, मित्त-नाइ - नियगसण-संबंधि-परिजणं आमंतेत्ता, तं मित्त-नाइ - नियम- सयण-संबंधि-परिजणं विउलेणं १. देखें सूत्र - संख्या ६४ । २. देखें सूत्र-संख्या ५। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] असण-पाण-खाइम-साइमेणं वत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेत्ता, सम्माणेत्ता, तस्सेव मित्तनाइनियगसयणसंबंधि-परिजणस्स पुरओ) जेट्ट-पुत्तं कुडुंबे ठवेत्ता, तं मित्त जाव (नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणं )जेठ्ठपुत्तं च आपुच्छित्ता, कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं विउलं तहेव जिमिय-भुत्तुत्तरागए तं मित्त जाव' विउलेणं पुष्फवत्थगंधमल्लालंकारेण य सक्कारेइ, सम्माणेइ, सक्कारित्ता, सम्माणित्ता तस्सेव मित्त जाव (नाइनियगसयणसंबंधिपरिजणस्स) पुरओ जेठ्ठपुत्तं सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी--एवं खलु पुत्ता! अहं वाणियगामे बहूणं राईसर जहा चिंतियं जाव (एएणं वक्खेवेणं अहं नो संचाएमि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं) विहरित्तए। तं सेयं खलु मम इदाणिं तुमं सयस्स कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं ठवेत्ता जाव (तं मित्त-नाड-नियग-सयण-संबंधि-परिजणं तुमं च आपुच्छित्ता कोल्लाए सन्निवेसे नायकुलंसि पोसहसालं पडिलेहित्ता, समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं) विहरित्तए। . तदन्तर श्रमणोपासक आनन्द को अनेकविध शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण--विरति, प्रत्याख्यानत्याग, पोषधोपवास आदि द्वारा आत्म-भावित होते हुए--आत्मा का परिष्कार और परिमार्जन करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के बाद धर्म-जागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव--चिन्तन, आन्तरिक मांग, मनोभाव या संकल्प उत्पन्न हुआ-वाणिज्यग्राम नगर में बहुत से मांडलिक नरपति, ऐश्वर्यशाली एवं प्रभावशील पुरूष आदि के अनेक कार्यों में मैं पूछने योग्य एवं सलाह लेने योग्य हूं, अपने सारे कुटुम्ब का मैं [मेढि , प्रमाण तथा] आधार हूं। इस व्याक्षेप-कार्यबहुलता या रूकावट के कारण मैं श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप आचार का सम्यक् परिपालन नहीं कर पा रहा हूं। इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं कल [रात बीत जाने पर, प्रभात हो जाने पर, नीले तथा अन्य कमलों के सुहावने रूप में खिल जाने पर, उज्जवल प्रभा एवं लाल अशोक, किंशकु, तोते की चोंच, धुंघची के आधे भाग के रंग से सदृश लालिमा लिए हुए, कमल-वन को उद्बोधित--विकसित करने वाले, सहस्त्र-किरणयुक्त, दिन के प्रादुर्भावक सूर्य के उदित होने पर, अपने तेज से उद्दीप्त होने पर] मैं पूरण की तरह [बड़े परिमाण में अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य-आहार तैयार करवा कर मित्र-वृन्द, स्वजातीय लोग, अपने पारिवारिक जन, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धि-जन, दास-दासियों को आमन्त्रित कर उन्हें अच्छी तरह भोजन कराऊंगा, वस्त्र सुगन्धित पदार्थ-इत्र आदि, माला तथा आभूषणों से उनका सत्कार करूंगा, सम्मान करूंगा एवं उनके सामने] अपने ज्येष्ठ पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त करूंगा-कुटुम्ब का भार सौपूंगा, अपने मित्र-गण [जातीय जन, पारिवारिक सदस्य, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धी, १. देखें सूत्र-यही २. देखिसे - भगवती सूत्र Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] [उपासकदशांगसूत्र परिजन] तथा जेष्ठ पुत्र को पूछ कर-उनकी अनुमति लेकर कोल्लाक-सन्निवेश में स्थित ज्ञातकुल की पोषध-शाला का प्रतिलेखन कर भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप आचार का परिपालन करूंगा। यों आनन्द ने संप्रेक्षण-सम्यक् चिन्तन किया। वैसा कर, दूसरे दिन अपने मित्रों, जातीय जनों आदि को भोजन कराया। तत्पश्चात् उनका प्रचुर पुष्प, वस्त्र, सुगन्धित पदार्थ, माला एवं आभूषणों से सत्कार किया, सम्मान किया। यों सत्कार-सम्मान कर, उनके समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को बुलाया। बुलाकर, जैसा सोचा था, वह सब तथा अपनी सामाजिक स्थिति एवं प्रतिष्ठा आदि समझाते हुए उसे कहा--पुत्र! वाणिज्यग्राम नगर में मैं बहुत से मांडलिक राजा, ऐश्वर्यशाली पुरूषों आदि से सम्बद्ध हूं, [इस व्याक्षेप के कारण श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना कर नहीं पाता। अतः इस समय मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुमको अपने कुटुम्ब के मेढि, प्रमाण, आधार एवं आलम्बन के रूप में स्थापित कर मैं [मित्र-वृन्द, जातीय जन, परिवार के सदस्य, बन्धु-बान्धव, सम्बन्धी, परिजन--इन सबको तथा तुम को पूछकर कोल्लाक-सन्निवेश-स्थित ज्ञातकुल की पौषध-शाला का प्रतिलेखन कर, भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप] समुचित धर्मोपासना में लग जाऊं। ६७. तए णं जेट्टपुत्ते आणंदस्स समणोवासगस्स 'तह ति एयमढं विणएणं पडिसुणेइ।' ___ तब श्रमणोपासक आनन्द के ज्येष्ठ पुत्र ने 'जैसी आपकी आज्ञा' यों कहते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक अपने पिता का कथन स्वीकार किया। ६८. तए णं से आणंदे समणोवासए तस्सेव मित्त जाव' पुरओ जेट्टपुत्तं कुडुम्बे ठवेइ, ठवित्ता एवं वयासी--मा णं, देवाणुप्पिया! तुब्भे अज्जप्पभिई केइ ममं बहुसु कज्जेसु जाव (य कारणेसु य मंतेसु य कुटुंबेसु य गुज्झेसु य रहस्सेसु य निच्छएसु य ववहारेसु य) आपुच्छउ वा, पडिपुच्छउ वा, ममं अट्ठाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा उवक्खडेउ वा उवकरेउ वा। श्रमणोपासक आनन्द ने अपने मित्र-वर्ग, जातीय जन आदि के समक्ष अपने ज्येष्ठ पुत्र को कुटुम्ब में अपने स्थान पर स्थापित किया--उत्तर-दायित्व उसे सौंपा। वैसा कर उपस्थित जनों से उसने कहा--महानुभावों! [देवानुप्रियो] आज से आप में से कोई भी मुझे विविध कार्यों [कारणों, मंत्रणाओं, पारिवारिक समस्याओं, गोपनीय बातों, एकान्त में विचारणीय विषयों, किए गए निर्णयों तथा परस्पर के व्यवहारों] के सम्बन्ध में न कुछ पूछे और न परामर्श ही करें, मेरे हेतु अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य आदि आहार तैयार न करें और न मेरे पास लाएं। ६९. तए णं से आणंदे समणोवासए जेट्ठपुत्तं मित्तनाई आपुच्छइ, आपुच्छिता सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता वाणियगामं नयरं मज्झ-मझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता १. देखें सूत्र-संख्या ६६। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] ' [७३ जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे, जेणेव नायकुले, जेणेव पोसह-साला, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोसहसालं पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमिं पडिलेहेइ, पडिलेहिता दब्भसंथारयं संथरइ, संथरेत्ता दब्भसंथारयं दुरूहइ, दुरूहित्ता पोसहसालाए पोसहिए दब्भसंथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। फिर आनन्द ने अपने ज्येष्ठ पुत्र, मित्र-वृन्द, जातीय जन आदि की अनुमति ली। अनुमति लेकर अपने घर से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वाणिज्यग्राम नगर के बीच से गुजरा, जहां कोल्लाक सन्निवेश था, ज्ञातकुल एवं ज्ञातकुल की पोषधशाला थी, वहां पहुंचा। पहुचकर पोषध-शाला का प्रमार्जन किया--सफाई की, शौच एवं लघुशंका के स्थान की प्रतिलेखना की। वैसा कर दर्भ--कुश का संस्तारक--बिछौना लगाया, उस पर स्थित हुआ, स्थित होकर पोषधशाला में पोषध स्वीकार कर श्रमण भगवान् महावीर के पास स्वीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति--धार्मिक शिक्षा के अनुरूप साधना-निरत हो गया। ७०. तए णं से आणंदे समणोवासए उवासगपडिमाओ उवसंपजित्ताणं विहरइ। पढमं उवासगपडिमं अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं कारणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, कित्तेइ, आराहेइ। • तदन्तर श्रमणोपासक आन्नद के उपासक-प्रतिमाएं स्वीकार की। पहली उपासक-प्रतिमा उसने यथाश्रुत--शास्त्र के अनुसार, यथाकल्प--प्रतिमा के आचार या मर्यादा के अनुसार, यथामार्ग-- विधि या क्षायोपशमिक भाव के अनुसार, यथातत्त्व--सिद्धान्त या दर्शन-प्रतिमा के शब्द के तात्पर्य के अनुरूप भली-भांति सहज रूप में ग्रहण की, उसका पालन किया, अतिचार-रहित अनुसरण कर उसे शोधित किया अथवा गुरू-भक्तिपूर्वक अनुपालन द्वारा शोभित किया, तीर्ण किया--आदि से अन्त तक अच्छी तरह पूर्ण किया, कीर्तित किया--सम्यक् परिपालन द्वारा अभिनन्दित किया, आराधित किया। ७१. तए णं से आणंदे समणोवासए दोच्चं उवासगपडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचमं, छठें, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दसमं, एक्कारसमं जाव ( अहासुत्तं, अहाकप्पं, अहामग्गं, अहातच्चं सम्मं काएणं फासेइ, पालेइ, सोहेइ, तीरेइ, कित्तेइ,) आराहेइ। श्रमणोपासक आनन्द ने तत्पश्चात् दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, छठी, सातवी, आठवीं, नौवी, दसवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमा की आराधना की। [उनका यथाश्रुत, यथाकल्प, यथामार्ग एवं यथातत्व भली-भांति स्पर्श. पालन. शोधन तथा प्रशस्ततापूर्ण समापन किया। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में आनन्द द्वारा ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना का उल्लेख है। उपासकप्रतिमा गृहस्थ साधक के धर्माराधन का एक उत्तरोत्तर विकासोन्मुख विशेष क्रम है, जहां आराधक विशिष्ट धार्मिक क्रिया के उत्कृष्ट अनुष्ठान में संलीन हो जाता है। प्रतिमा शब्द जहां प्रतीक या प्रतिबिम्ब आदि का वाचक है, वहाँ इसका एक अर्थ प्रतिमान या मापदण्ड भी है। साधक जहाँ किसी एक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४] [उपासकदशांगसूत्र अनुष्ठान के उत्कृष्ट परिपालन में लग जाता है, वहाँ वह अनुष्ठान या आचार उसका मुख्य ध्येय हो जाता है। उसका परिपालन एक आदर्श उदाहरण या मापदण्ड का रूप ले लेता है। अर्थात् वह अपनी साधना द्वारा एक ऐसी स्थिति उपस्थित करता है, जिसे अन्य लोग उस आचार का प्रतिमान स्वीकार करते हैं। यह विशिष्ट प्रतिज्ञारूप है। साधक अपना आत्म-बल संजोये प्रतिमाओं की आराधना में पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी--यों क्रमशः उत्तरोत्तर आगे बढ़ता जाता है। एक प्रतिमा को पूर्ण कर जब वह आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है, तब स्वीकृत प्रतिमा के नियमों के साथ साथ पिछली प्रतिमाओं के नियम भी पालता रहता है। ऐसा नहीं होता, अगली प्रतिमा के नियम स्वीकार किये, पिछली के छोड़ दिये। यह क्रम अन्त तक चलता है। आचार्य अभयदेव सूरि ने अपनी वृति में संक्षेप में इन ग्यारह प्रतिमाओं पर प्रकाश डाला है। एतत्संबंधी गाथाएं भी उद्धृत की है। उपासक की प्रतिमाओं का संक्षिप्त विश्लेषण इस प्रकार है-- १. दर्शनप्रतिमा--दर्शन का अर्थ दृष्टि या श्रद्धा है। दृष्टि या श्रद्धा वह तत्त्व है, जो आत्मा के अभ्युदय और विकास के लिए सर्वाधिक आवश्यक है। दृष्टि शुद्ध होगी, सत्य में श्रद्धा होगी, तभी साधनोन्मुख व्यक्ति साधना-पथ पर सफलता से गतिशील हो सकेगा। यदि दृष्टि में विकृति, शंका, अस्थिरता आ जाय तो आत्म-विकास के हेतु किए जाने वाले प्रयत्न सार्थक नहीं होते। वैसे श्रावक साधारणतया सम्यक्दृष्टि होता ही है, पर इस प्रतिमा में वह दर्शन या दृष्टि की विशेष आराधना करता है। उसे अत्यन्त स्थिर तथा अविचल बनाए रखने हेतु वीतराग देव, पंचमहाव्रतधर गुरू तथा वीतराग द्वारा निरूपित मार्ग पर वह दृढ विश्वास लिए रहता है, एतन्मूलक चिन्तन, मनन एवं अनुशीलन में तत्पर रहता है। दर्शनप्रतिमा का आराधक श्रमणोपासक सम्यक्त्व का निरतिचार पालन करता है। उसके प्रतिपालन में शंका, कांक्षा आदि के लिए स्थान नहीं होता। वह अपनी आस्था में इतना दृढ होता है कि विभिन्न मत-मतान्तरों को जानता हुआ भी उधर आकृष्ट नहीं होता। वह अपनी आस्था, श्रद्धा या निष्ठा को अत्यन्त विशुद्ध बनाए रहता है। उसका चिन्तन एवं व्यवहार इसी आधार पर चलता है। दर्शनप्रतिमा की आराधना का समय एक मास का माना गया है। २. व्रतप्रतिमा--दर्शन प्रतिमा की आराधना के पश्चात् उपासक व्रत-प्रतिमा की आराधना करता है। व्रत-प्रतिमा में वह पांच अणवतों का निरतिचार पालन करता है और तीन गणव्रतों का भी। चार शिक्षाव्रतों को भी वह स्वीकार करता है, किन्तु उनमें सामायिक और देशावकाशिक व्रत का यथाविधि सम्यक पालन नहीं कर पाता। वह अनुकम्पा आदि गुणों से युक्त होता है। इस प्रतिमा की आराधना का काल-मान दो मास का है। ३. सामायिक प्रतिमा--सम्यक् दर्शन एवं व्रतों की आराधना करने वाला साधक सामायिक Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [७५ प्रतिमा स्वीकार कर प्रतिदिन नियमतः तीन बार सामायिक करता है। इस प्रतिमा में वह सामायिक एवं देशावकाशिक व्रत का सम्यक् रूप में पालन करता है, पर अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा आदि विशिष्ट दिनों में पोषधोपवास की भली-भांति आराधना नहीं कर पाता। तन्मयता एवं जागरुकता के साथ सामायिक व्रत की उपासना इस प्रतिमा का अभिप्रेत है। इसकी आराधना की अवधि तीन मास की है। ४. पोषधप्रतिमा--प्रथम, द्वितीय तथा तृतीय प्रतिमा से आगे बढ़ता हुआ आराधक पोषध - प्रतिमा स्वीकार कर अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व-तिथियों पर पोषध-व्रत का पूर्णरूपेण पालन करता है। इस प्रतिमा की आराधना का समय चार मास है। ५. कायोत्सर्गप्रतिमा--कायोत्सर्ग का अर्थ काय या शरीर का त्याग है। शरीर तो यावज्जीवन साथ रहता है, उसके त्याग का अभिप्राय उसके साथ रही आसक्ति या ममता को छोड़ना है। कायोत्सर्गप्रतिमा में उपासक शरीर, वस्त्र आदि का ध्यान छोड़कर अपने को आत्म-चिन्तन में लगाता है । अष्टमी एवं चतुर्दशी के दिन रात भर कायोत्सर्ग या ध्यान की आराधना करता है। इस प्रतिमा की अवधि एक दिन, दो दिन अथवा तीन दिन से लेकर अधिक से अधिक पांच मास की है। इसमें रात्रि-भोजन का त्याग रहता है। दिन में ब्रह्मचर्य व्रत रखा जाता है। रात्रि में अब्रह्मचर्य का परिमाण किया जाता है। ६. ब्रह्मचर्यप्रतिमा--इसमें पूर्णरूपेण ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। स्त्रियों से अनावश्यक मेलजोल, बातचीत, उनकी श्रृंगारित चेष्टाओं का अवलोकन आदि इसमें वर्जित है। उपासक स्वयं भी श्रृंगारिक वेशभूषा व उपक्रम से दूर रहता है। इस प्रतिमा में उपासक सचित्त आहार का त्याग नहीं करता। कारणवश वह सचित्त का सेवन करता है। इस प्रतिमा की आराधना का काल-मान न्यूनतम एक दिन, दो दिन या तीन दिन तथा उत्कृष्ट छह मास है। [इसमें जीवन-पर्यन्त ब्रह्मचर्य स्वीकार किये रहने का भी विधान है।] ७. सचिताहारवर्जनप्रतिमा--पूर्वोक्त नियमों का परिपालन करता हुआ, परिपूर्ण ब्रह्मचर्य का अनुसरण करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में सचित आहार का सर्वथा त्याग कर देता है, पर वह आरम्भ का त्याग नहीं कर पाता। इस प्रतिमा की आराधना का उत्कृष्ट काल सात मास का है। ८. स्वयं-आरम्भ-वर्जन-प्रतिमा--पूर्वोक्त सभी नियमों का पालन करते हुए इस प्रतिमा में उपासक स्वयं किसी प्रकार का आरम्भ या हिंसा नहीं करता। इतना विकल्प इसमें है--आजीविका या निर्वाह के लिए दूसरे से आरम्भ कराने का उसे त्याग नहीं होता। इस प्रतिमा की आराधना की अवधि न्यूनतम एक दिन, दो दिन या तीन दिन तथा उत्कृष्ट आठ मास है। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपासकदशांगसूत्र ९. भृतक-प्रेष्यारम्भ-वर्जन - प्रतिमा पूर्ववर्ती प्रतिमाओं के सभी नियमों का पालन करता हुआ उपासक हुआ इस प्रतिमा में आरम्भ का परित्याग कर देता है । अर्थात् वह स्वयं आरम्भ नहीं करता, औरों से नहीं कराता, किन्तु आरम्भ करने की अनुमति देने का उसे त्याग नहीं होता । अपने उद्देश्य से बनाए गए भोजन का वह परिवर्जन नहीं करता, उसे ले सकता है। इस प्रतिमा की आराधना की न्यूनतम अवधि एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट नौ मास है । ७६ ] १०. उद्दिष्ट-भक्त-वर्जन - प्रतिमा -- पूर्वोक्त नियमों का अनुपालन करता हुआ उपासक इस प्रतिमा में उद्दिष्ट-- अपने लिए तैयार किए गए भोजन आदि का भी परित्याग कर देता है । वह अपने आपको लौकिक कार्यों से प्रायः हटा लेता है । उस सन्दर्भ में वह कोई आदेश या परामर्श नहीं देता । अमुक विषय में वह जानता है अथवा नहीं जानता -- केवल इतना सा उत्तर दे सकता है। इस प्रतिमा का आराधक उस्तरे से सिर मुंडाता है, कोई शिखा भी रखता है। इसकी आराधना की समयावधि न्यूनतम एक, दो या तीन दिन तथा उत्कृष्ट दस मास I ११. श्रमणभूत- प्रतिमा -- पूर्वोक्त सभी नियमों का परिपालन करता हुआ साधक इस प्रतिमा में अपने को लगभग श्रमण या साधु जैसा बना लेता है। उसकी सभी क्रियाएं एक श्रमण की तरह यतना और जागरूकतापूर्वक होती हैं । वह साधु जैसा वेश धारण करता है, वैसे ही पात्र, उपकरण आदि रखता है । मस्तक के बालों को उस्तरे से मुंडवाता है, यदि सहिष्णुता या शक्ति हो तो लुंचन भी कर सकता है। साधु की तरह वह भिक्षा-चर्या से जीवन-निर्वाह करता है । इतना अन्तर है -- साधु हर किसी के यहाँ से भिक्षा हेतु जाता है, यह उपासक अपने सम्बन्धियों के घरों में ही जाता है, क्योंकि तब तक उनके साथ उसका रागात्मक सम्बन्ध पूरी तरह मिट नही पाता । इसकी आराधना का न्यूनतम काल-परिमाण एक दिन, दो दिन या तीन दिन है तथा उत्कृष्ट ग्यारह मास है । इसे श्रमणभूत इसीलिए कहा गया है -- यद्यपि वह उपासक श्रमण की भूमिका में तो नहीं होता, पर प्राय: श्रमण-सदृश होता है । ७२. तए णं से आणंदे समणोवासए इमेणं एयारूवेणं उरालेणं, विउलेणं पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के जाव (लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठिचम्मावणद्धे, किडिकिडियाभूए, किसे ) धमणिसंतए जाए । इस प्रकार श्रावक - प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से श्रमणोपासक आनन्द का शरीर सूख गया, [ रूक्ष हो गया, उस पर मांस नहीं रहा, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रही, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर आवाज करने लगीं,] शरीर में इतनी कृशता या क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [ ७७ ७३. तए णं तस्स आणंदस्स समणोवासगस्स अन्नया कयाई पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झत्थिए - एवं खलु अहं इमेणं जाव (एयारूवेणं, उरालेणं, विउलेणं, पयत्तेणं, पग्गहिएणं तवोकम्मेणं सुक्के, लुक्खे, निम्मंसे, अट्ठि - चम्पावण किडिकिडियाभूए, किसे, ) धमणिसंतए जाए । तं अत्थिता मे उट्ठाणे, कम्मे, बले, वीरिए, पुरिसक्कारपरक्कमे, सद्धा, धिई, संवेगे। तं जाव ता मे अत्थि उट्ठाणे सद्धा धिई संवेगे, जाव य मे धम्मायरिए, धम्मोवएसए, समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरड़, ताव ता मे सेयं कल्लं जाव' जलंते अपच्छिम - मारणंतियसंलेहणा - झूसणा-झूसियस्स, भत्त- पाण- पडियाइक्खियस्य कालं अणवकं खमाणस्स विहरित्तए । एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता कल्लं जाव' अपच्छिममारणंतिय जाव (संलेहणा-झूसणाझूसिए, भत्त - पाण- पडियाइक्खिए, ) कालं अणवकंखमाणे विहरइ । एक दिन आधी रात के बाद धर्मजागरण करते हुए आनन्द के मन में ऐसा अन्तर्भाव या संकल्प उत्पन्न हुआ-- [ इस प्रकार श्रावक - प्रतिमा आदि के रूप में स्वीकृत उत्कृष्ट, विपुल साधनोचित प्रयत्न तथा तपश्चरण से मेरा शरीर सूख गया है, रूक्ष हो गया है, उस पर मांस नही रहा है, हड्डियां और चमड़ी मात्र बची रही है, हड्डियां आपस में भिड़-भिड़ कर आवाज करने लगी हैं,] शरीर में इतनी कृशता आ गई है कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी हैं । मुझ में उत्थान-- - धर्मोन्मुख उत्साह, कर्म -- -- तदनुरूप प्रवृत्ति, बल-- शारीरिक शक्ति - दृढता, वीर्य-आन्तरिक ओज, पुरूषाकार पराक्रम -- पुरूषोचित पराक्रम या अन्तःशक्ति, श्रद्धा -- धर्म के प्रति आस्था, धृति--सहिष्णुता, संवेग--मुमुक्षुभाव है। जब तक मुझमें यह सब है तथा जब तक मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, जिन --राग-द्वेष - विजेता, सुहस्ती श्रमण भगवान् महावीर विचरण कर रहे हैं, तब तक मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं कल सूर्योदय होने पर अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार कर लूं, खान-पान का प्रत्याख्यान -- परित्याग कर दूं, मरण की कामना न करता हुआ, आराधनारत हो जाऊं -- शान्तिपूर्वक अपना अन्तिम काल व्यतीत करूं । आनन्द ने यों चिन्तन किया । चिन्तन कर दूसरे दिन सवेरे अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ वह आराधना में लीन हो गया। ७४. तए णं तस्स आणंदस समणोवासगस्स अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं, सुभेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं, तदावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ओहिनाणे समुप्पन्ने। पुरत्थिमे णं लवण-समुद्दे पंच-जोयणसयाइं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणे १. देखें सूत्र - संख्या ६६ । २. देखें सूत्र - संख्या ६६ । ३. भगवान महावीर का एक उत्कर्ष-सूचक विशेषण । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपासकदशांगसूत्र ७८] णं पच्चत्थिमे ण य, उत्तरे णं जाव चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं जाणइ, पासइ, उड्ढं जाव सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ, अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुयं नरयं चउरासीइवाससहस्सट्ठिइयं जाणइ पासइ । तत्पश्चात् श्रमणोपासक आनन्द को एक दिन शुभ अध्यवसाय -- मन:संकल्प, शुभ परिणाम-अन्तः परिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं -- पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्म-परिणामों या विचारों के कारण, अवधि - ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधि- ज्ञान उत्पन्न हो गया । फलत: वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच सौ, पांच सौ योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र, उर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प -- प्रथम देवलोक तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक - भूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति युक्त, लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानने लगा, देखने लगा । विवेचन लेश्याएं -- प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक आनन्द का अवधि- ज्ञान उत्पन्न होने के सन्दर्भ में शुभ अध्यवसाय तथा शुभ परिणाम के साथ-साथ विशुद्ध होती हुई लेश्याओं का उल्लेख है । लेश्या जैन दर्शन का एक विशिष्ट तत्त्व है, जिस पर बड़ा गहन विश्लेषण हुआ है। लेश्या का तात्पर्य पुद्गल द्रव्य के संसर्ग से होने वाले आत्मा के परिणाम या विचार हैं। प्रश्न हो सकता है, आत्मा चेतन है, पुद्गल जड़ है, फिर जड़ के संसर्ग से चेतन में परिणाम - विशेष का उद्भव कैसे संभव है ? यहाँ ज्ञातव्य है कि यद्यपि आत्मा जड़ से सर्वथा भिन्न है, पर संसारावस्था में उसका जड़ पुद्गल के साथ गहरा संसर्ग है। अतः पुद्गल-जनित परिणामों का जीव पर प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। जिन पुद्गलों से आत्मा के परिणाम प्रभावित होते हैं, उन पुद्गलों को द्रव्य - लेश्या कहा जाता है। आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, उन्हें भाव - लेश्या कहा जाता है। द्रव्य-लेश्या पुद्गलात्मक है, इसलिए उसमें वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श स्वीकार किया गया है । द्रव्य-लेश्याओं के जो वर्ण माने गए हैं, लेश्याओं का नामकरण उनके आधार पर हुआ है। लेश्याएं छह हैं : कृष्ण-लेश्या, नील- लेश्या, कापोत- लेश्या, तेजो- लेश्या, पद्म- लेश्या तथा शुक्ल- लेश्या । कृष्णलेश्या का वर्ण काजल के समान काला, रस नीम से अनन्त गुना कटु, गन्ध मरे हुए सांप की गन्ध से अनन्त गुनी अनिष्ट तथा स्पर्श गाय की जिह्वा से अनन्त गुना कर्कश है। नीलेश्या का वर्ण नीलम के समान नीला, रस सौंठ से अनन्त गुना तीक्ष्ण, गन्ध एवं स्पर्श कृष्णलेश्या जैसे होते हैं । कापोतलेश्या का वर्ण कपोत - कबूतर के गले के समान, रस कच्चे आम के रस से अनन्त गुना तिक्त तथा गन्ध व स्पर्श कृष्ण व नील लेश्या जैसे होते हैं । तेजोलेश्या का वर्ण हिंगुल या सिन्दूर के समान रक्त, रस पक्के आम के रस से अनन्त गुना Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [७९ मधुर तथा गन्ध सुरभि-कुसुम की गन्ध से अनन्त गुनी इष्ट एवं स्पर्श मक्खन से अनन्त गुना सुकुमार होता है। पद्मलेश्या का रंग हरिद्रा-हल्दी के समान पीला, रस मधु से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या जैसे होते हैं। शुक्ल लेश्या का वर्ण शंख के समान श्वेत, रस सिता--मिश्री से अनन्त गुना मिष्ट तथा गन्ध व स्पर्श तेजोलेश्या व पद्मलेश्या जैसे होते हैं। लेश्याओं का रंग भावों की प्रशस्तता तथा अप्रशस्तता पर आधृत है। कृष्णलेश्या अत्यन्त कलुषित भावों की परिचायक है। भावों का कालुष्य ज्यों ज्यों कम होता है, वर्गों में अन्तर होता जाता है। कृष्णलेश्या से जनित भावों की कलुषितता जब कुछ कम होती है तो नीललेश्या की स्थिति आ जाती है, और कम होती है तब कापोतलेश्या की स्थिति बनती है। कृष्ण, नील और कापोत ये तीनों वर्ण अप्रशस्त भाव के सूचक हैं । इनसे अगले तीन वर्ण प्रशस्त भाव के सूचक हैं। पहली तीन लेश्याओं को अशुभ तथा अगली तीन को शुभ माना गया है। जैसे बाह्य वातावरण, स्थान, भोजन, रहन-सहन आदि का हमारे मन पर भिन्न-भिन्न प्रकार का असर पड़ता है, उसी प्रकार भिन्न-भिन्न प्रकार के पुद्गलों का आत्मा पर भिन्न-भिन्न प्रकार का प्रभाव होना अस्वाभाविक नहीं है। प्राकृतिक चिकित्सा-क्षेत्र में भी यह तथ्य सुविदित है। अनेक मनोरोगों की चिकित्सा में विभिन्न रंगों की रश्मियों का अथवा विभिन्न रंगों की शीशियों के जलों का उपयोग किया जाता है । कई ऐसे विशाल चिकित्सालय भी बने हैं। गुजरात में जामनगर का 'सोलेरियम' एशिया का इस कोटि का सुप्रसिद्ध चिकित्सा-केन्द्र है। जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्यान्य भारतीय दर्शनों में भी अन्तर्भावों का आत्म-परिणामों के सन्दर्भ में अनेक रंगों की परिकल्पना है। उदाहरणार्थ, सांख्यदर्शन में सत्त्व, रजस् और तमस् ये तीन गुण माने गए हैं। तीनों के तीन रंगों की भी अनेक सांख्य-ग्रन्थों में चर्चा है । ईश्वरकृष्णरचित सांख्यकारिका की सुप्रसिद्ध टीका सांख्य-तत्त्व-कौमुदीके लेखक वाचस्पति मिश्र ने अपनी टीका के प्रारंभ में अजाअन्य से अनुत्पन्न-प्रकृति को अजा-बकरी से उपमित करते हुए उसे लोहित, शुक्ल तथा कृष्ण बतलाया है। लोहित--लाल, शुक्ल--सफेद और कृष्ण--काला, ये सांख्यदर्शन में स्वीकृत रजस्, सत्त्व, तमस्--तीनों गुणों के रंग हैं । रजोगुण मन को राग-रंजित या मोह-रंजित करता है, इसलिए वह लोहित है, सत्त्वगुण मन को निर्मल या मल रहित बनाता है, इसलिए वह शुक्ल है, तमोगुण अन्धकाररूप है, ज्ञान पर आवरण डालता है, इसलिए वह कृष्ण है। लेश्याओं से सांख्यदर्शन का यह प्रसंग तुलनीय है। १. अजामेकां लोहि तशुक्लकृष्णां वह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः। अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते , जहत्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान् ॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [उपासकदशांगसूत्र पतंजलि ने योगसूत्र में कर्मों की शुक्ल, कृष्ण तथा शुक्ल-कृष्ण (अशुक्लाकृष्ण)--तीन प्रकार का बतलाया है। कर्मों के ये वर्ण, उनकी प्रशस्तता तथा अप्रशस्तता के सूचक है।' ऊपर पुद्गलात्मक द्रव्य-लेश्या से आत्मा के प्रशस्त-अप्रशस्त परिणाम उत्पन्न होने की जो बात कही गई है, इसे कुछ और गहराई से समझना होगा। द्रव्य-लेश्या के साहाय्य से आत्मा में जो परिणाम उत्पन्न होते हैं, अर्थात् भाव-लेश्या निष्पन्न होती है, तात्विक दृष्टि से उनके दो कारण हैं-- मोह-कर्म का उदय अथवा उसका उपशम, क्षय या क्षयोपशम। मोह-कर्म के उदय से जो भव-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं, वे अशुभ या अप्रशस्त होती हैं तथा मोह-कर्म के उपशम, क्षय या क्षयोपशप से जो भाव-लेश्याएं होती है, वे शुभ या प्रशस्त होती हैं । कृष्णलेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्या ये मोह कर्म के उदय से होती है, इसलिए अप्रशस्त हैं। तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या ये उपशम, क्षय या क्षयोपशम से होती हैं, इसलिए शुभ या प्रशस्त हैं। आत्मा में एक और औदयिक, औपशमिक, क्षायिक या क्षायोपशमिक भाव उद्भूत होते हैं, दूसरी ओर वैसे पुद्गल या द्रव्य-लेश्याएं निष्पन्न होती हैं। इसलिए एकान्त रूप से न केवल द्रव्य-लेश्या भाव-लेश्या का कारण है और न केवल भाव-लेश्या द्रव्य-लेश्या का कारण है। ये अन्योन्याश्रित हैं। ___ ऊपर द्रव्य-लेश्या से भाव-लेश्या या आत्म-परिणाम उद्भूत होने की जो बात कही गई है, वह स्थूल दृष्टि से है। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या की अन्योन्याश्रितता को आयुर्वेद के एक उदाहरण से समझा जा सकता है। आयुर्वेद में पित्त, कफ तथा वात--ये तीन दोष माने गए हैं । जब पित्त प्रकुपित्त होता है या पित्त का देह पर विशेष प्रभाव होता है तो व्यक्ति क्रुद्ध होता है, उत्तेजित हो जाता है । क्रोध एवं उत्तेजना से फिर पित्त बढ़ता है। कफ जब प्रबल होता है तो शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य पैदा होता है। शिथिलता, तन्द्रा एवं आलस्य से पुनः कफ बढ़ता है। वात की प्रबलता चांचल्य--अस्थिरता व कम्पन पैदा करती है। चंचलता एवं अस्थिरता से फिर वात की वृद्धि होती है। यों पित्त आदि दोष तथा इनसे प्रकटित क्रोध आदि भाव अन्योन्याश्रित हैं। द्रव्य-लेश्या और भाव-लेश्या का कुछ इसी प्रकार का सम्बन्ध है। जैन वाङ्मय के अनेक ग्रन्थों में लेश्या का यथा-प्रसंग विश्लेषण हुआ है । प्रज्ञापनासूत्र के १७ वें पद में तथा उत्तराध्ययनसूत्र के ३४ वें अध्ययन में लेश्या का विस्तृत विवेचन है, जो पठनीय है। आधुनिक मनोविज्ञान के साथ जैनदर्शन का यह विषय समीक्षात्मक एवं तुलनात्मक दृष्टि से अनुशीलन करने योग्य है। अस्तु। __ प्रस्तुत सूत्र में आनन्द के उत्तरोत्तर प्रशस्त होते या विकास पाते अन्तर्भावों का जो संकेत है, उससे प्रकट होता है कि आनन्द अन्त:परिष्कार या अन्तर्मार्जन की भूमिका में अत्यधिक जागरूक था। फलतः उसकी लेश्याएं, आत्म-परिणाम प्रशस्त से प्रशस्ततर होते गए और उसको अवधि-ज्ञान उत्पन्न १. कर्माशुक्लाकृष्णं योगिनस्त्रिविधमितरेषाम् ---पातंजलयोगसूत्र ४.७ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [८१ हो गया। आनन्द : अवधि-ज्ञान अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य--शक्ति आत्मा का स्वभाव है। कर्म आवरण है, जैनदर्शन के अनुसार वे पुद्गलात्मक हैं, मूर्त हैं। आत्म-स्वभाव को वे आवृत करते हैं। आत्मस्वभाव उनसे जितना, जैसा आवृत होता है, उतना अप्रकाशित रहता है। कर्मों के आवरण आत्मा के स्वोन्मुख प्रशस्त अध्यवसाय, उत्तम परिणाम, पवित्र भाव एवं तपश्चरण से जैसे-जैसे हटते जाते हैं - -मिटते जाते हैं, वैसे-वैसे आत्मा का स्वभाव उद्भासित या प्रकट होता जाता है। ... ज्ञान को आवृत करने वाले कर्म ज्ञानावरण कहे जाते हैं। जैनदर्शन में ज्ञान के पांच भेद है-- मति-ज्ञान, श्रुत-ज्ञान, अवधि-ज्ञान, मन:-पर्याय-ज्ञान, तथा केवल-ज्ञान। इनका आवरण या आच्छादन करने वाले कर्म-पुद्गल क्रमशः मति-ज्ञानावरण, श्रुत-ज्ञानावरण, अवधि-ज्ञानावरण, मनःपर्याय-ज्ञानावरण तथा केवल-ज्ञानावरण कहे जाते है। इन आवरणों के हटने से ये पांचों ज्ञान प्रकट होते हैं । परोक्ष और प्रत्यक्ष के रूप में इनमें दो भेद हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान किसी दूसरे माध्यम के बिना आत्मा द्वारा ही ज्ञेय को सीधा ग्रहण करता है। परोक्षज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच नहीं होती। मति-ज्ञान और श्रुत-ज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि वहाँ मन और इन्द्रियों का सहयोग अपेक्षित है। वैसे स्थूल रूप में हम किसी वस्तु को आँखों से देखते हैं, जानते हैं, उसे प्रत्यक्ष देखना कहा जाता है। पर वह केवल व्यवहार-भाषा है, इसलिए दर्शन में उसकी संज्ञा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है । निश्चय-दृष्टि से वह प्रत्यक्ष में नहीं आता क्योंकि ज्ञाता आत्मा और ज्ञेय पदार्थ में आँखों के माध्यम से वहाँ सम्बन्ध है, सीधा नहीं है। अवधि-ज्ञान, मनःपर्याय-ज्ञान, और केवल-ज्ञान में इन्द्रिय और मन के साहाय्य की आवश्यकता नहीं होती। वहाँ ज्ञान की ज्ञेय तक सीधी पहुँच होती है। इसलिए ये प्रत्यक्ष-भेद में आते हैं। इनमें केवल-ज्ञान को सकल पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है और अवधि व मनः पर्याय को विकल या अपूर्ण पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है, इनसे ज्ञेय के सम्पूर्ण पर्याय नहीं जाने जा सकते। अवधि-ज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान है, जिसके द्वारा व्यक्ति, द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की एक मर्यादा या सीमा के साथ मूर्त या सरूप पदार्थों को जानता है । अवधि-ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम जैसा मन्द या तीव्र होता है, उसके अनुसार अवधि-ज्ञान की व्यापकता होती है। अवधि-ज्ञान के सम्बन्ध में एक विशेष बात और है--देव-योनी और नरक-योनी में वह जन्म-सिद्ध है। उसे भव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है। इन योनियों में जीवों को जन्म धारण करते ही सहज रूप में योग्य या उपयुक्त क्षयोपशम द्वारा अवधि ज्ञान उत्पन्न होता है । इसका आशय यह है कि अवधि ज्ञानावरण के क्षयोपशम हेतु उन्हें तपोमूलक प्रयत्न नहीं करना पड़ता। वैसा वहाँ शक्य भी नहीं है। तप, व्रत, प्रत्याख्यान आदि निर्जरामूलक अनुष्ठानों द्वारा अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [उपासकदशांगसूत्र क्षयोपशम से जो अवधि-ज्ञान प्राप्त होता है, उसे गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान कहा जाता है। वह मनुष्यों और तिर्यञ्चों में होता है। भव-प्रत्यय और गुण-प्रत्यय अवधि-ज्ञान में एक विशेष अन्तर यह है-- भव-प्रत्यय अवधि-ज्ञान देव-योनि और नरक-योनी के प्रत्येक जीव को होता है; गुण-प्रत्यय अवधिज्ञान प्रत्यय द्वारा भी मनुष्यों और तिर्यञ्चों में सबको नहीं होता, किन्हीं-किन्हीं को होता हैं, जिन्होने तदनुरूप योग्यता प्राप्त कर ली हो, जिनका अवधि-ज्ञानावरण का क्षयोपशम सधा हो। आनन्द अपने उत्कृष्ट आत्म-बल के सहारे, पवित्र भाव तथा प्रयत्नपूर्वक वैसी स्थिति अधिगत कर चुका था, उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों का क्षयोपशम हो गया था, जिसकी फलनिष्पति अवधि-ज्ञान में प्रस्फुटित हुई। प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोंपासक आनन्द द्वारा प्राप्त अवधि-ज्ञान के विस्तार की चर्चा करते हुए पूर्व, पश्चिम और दक्षिण में लवणसमुद्र तथा उत्तर में चुल्लहिमवंत वर्षधर का उल्लेख आया है : इनका मध्यलोक से सम्बन्ध है। जैन भूगोल के अनुसार मध्यलोक के मनुष्य क्षेत्र ढाई द्वीपों तक विस्तृत है। मध्य में जम्बूद्वीप है, जो वृत्ताकार--गोल है, जिसका विष्कम्भ--व्यास एक लाख योजन है--जो एक लाख योजन लम्बा तथा एक लाख योजन चौड़ा है। जम्बूद्वीप में भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिवर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हैरण्यवतवर्ष, तथा ऐरावत वर्ष-ये सात क्षेत्र हैं। इन सातों क्षेत्रों को अलग करने वाले पूर्वपश्चिम लम्बे--हिमवान् महाहिमवान्, निषध, नील, रूक्मी तथा शिखरी--ये छह वर्षधर पर्वत हैं। जम्बूद्वीप के चारों ओर लवणसमुद्र है। लवणसमुद्र का व्यास जम्बूद्वीप से दुगुना है। लवणसमुद्र के चारों ओर धातकीखण्ड नामक द्वीप है। उनका व्यास लवणसमुद्र से दुगुना है। धातकीखण्ड के चारों ओर कालोदधि नामक समुद्र है, जिसका विस्तार धातकीखण्ड से दुगुना है। कालोदधिसमुद्र के चारों तरफ पुष्करद्वीप है। इस द्वीप के बीच में मानुषोत्तर पर्वत है। मनुष्य का आवास वहीं तक है अर्थात् जम्बूद्वीप, धातकीखंड तथा आधा पुष्करद्वीप--इन ढाई द्वीपों में मनुष्य रहते हैं। श्रमणोपासक आनन्द को जो अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ था, उससे वह जम्बूद्वीप के चारों और फैले लवणसमुद्र में पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण--इन तीनों दिशाओं में पांच सौ योजन की दूरी तक देखने लग गया था। उत्तर में वह हिमवान् वर्षधर पर्वत तक देखने लग गया था। __जम्बूद्वीप में वर्षधर पर्वतों में पहले दो--हिमवान् तथा महाहिमवान् हैं। प्रस्तुत सूत्र में हिमवान् के लिए चुल्लहिमवंत पद का प्रयोग हुआ है। चुल्ल का अर्थ छोटा है। महाहिमवान की दृष्टि से हिमवान् के साथ यह विशेषण दिया गया है ऊर्ध्वलोक में आनन्द द्वारा सौधर्म-कल्प तक देखे जाने का संकेत है। ऊर्ध्व लोक में निम्नांकित देवलोक अवस्थित है-- सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत तथा नौ ग्रैवेयक एवं पांच अनुत्तर विमान-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । सौधर्म इन में प्रथम देवलोक है। अधोलोक में निम्नांकित सात नरक भूमियां है--रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [८३ धूमप्रभा, तमः प्रभा एवं महातमःप्रभा। ये क्रमशः एक दूसरे के नीचे अवस्थित हैं। रत्नप्रभा भूमि में लोलुपाच्युत प्रथम नरक का एक ऊपरी विभाग है, जहाँ चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले नारक रहते तत्त्वार्थसूत्र के तीसरे अध्याय में अधोलोक और मध्यलोक का तथा चौथे अध्याय में उर्ध्वलोक का वर्णन है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन है। श्रमणोपासक आनन्द के अवधिज्ञान का विस्तार उसके अवधि-ज्ञानावरण-कर्म-पुद्गलों के क्षयोपशम के कारण चारों दिशाओं में उपर्युक्त सीमा तक था। ७५. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए, परिसा निग्गया जाव पडिगया। उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय भगवान् महावीर समवसृत हुए--पधारे। परिषद् जुड़ी, धर्म सुनकर वापिस लौट गई। ७६. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेटठे अंतेवासी इंदभूई नामं अणगारे गोयम-गोत्तेणं, सत्तुस्से हे , समचउरं ससंठाणसंठिए, वजरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलगनिघसपम्हगोरे, उग्गतवे, दिततवे, तत्ततवे, घोरतवे, महातवे, उराले, घोरगुणे, घोरतवस्सी घोर-बंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे, संखित्त-विउलतेउ-लेस्से, छठें-छठेणं अणिक्खित्तेणं तवो-कम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति नामक अनगार, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्र-संस्थान-संस्थित थे--देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचनामय शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन-सुदृढ अस्थि-बन्धयुक्त विशिष्ट-देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर खचित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौर वर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों की भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्ततपस्वी--जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक व्याप्त थी, जो कठोर एवं विपुल तप करने वाले थे, जो उराल--प्रबल--साधना में सशक्त, घोरगुण--परम उत्तम--जिनको धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए--ऐसे गुणों के धारक, घोर तपस्वी-प्रबल तपस्वी, घोर ब्रह्मचर्यवासी-कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्तशरीर-दैहिक सारसंभाल या सजावट से रहित थे, जो विशाल तेजोलेश्या अपने शरीर के भीतर समेटे हुए थे बेले-बेले निरन्तर तप का अनुष्ठान करते हुए, संयमाराधना तथा तन्मूलक अन्यान्य तपश्चरणों द्वारा अपनी आत्मा को भावित--संस्कारित करते हुए विहार करते थे। १. देखें सूत्र-संख्या ११। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपासकदशांगसूत्र ७७. तणं से भगवं गोयमे छट्ठक्खण-पारणगंसि पढमाए पोरिसीए सज्झायं करेइ, बिइयाए पोरिसीए झाणं झियाइ, तइयाए पोरिसीए अतुरियं अचवलं असंभंते मुहपत्तिं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायण - वत्थाइं पडिलेहेइ, पडिलेहित्ता भायणवत्थाई पमज्जइ, पमज्जित्ता भायणाई उग्गाहेइ, उग्गाहित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदड़, नमंसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी - - इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए छट्ठक्खमणपारणगंसि वाणियगामे नयरे उच्च-नीयमज्झिमाइं कुलाई घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए । अहासु देवाणुप्पिया ! ( मा पडिबंधं करेह । ) बेले के पारणे का दिन था, भगवान् गौतम ने पहले पहर में स्वाध्याय किया, दूसरे पहर में ध्यान किया, तीसरे पहर में अत्वरित -- जल्दबाजी न करते हुए, अचपल -- स्थिरतापूर्वक, असंभ्रान्तअनाकुल भाव से जागरूकतापूर्वक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया, पात्रों और वस्त्रों का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन किया । पात्र उठाये, वैसा कर, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। उन्हें वंदन, नमस्कार किया। वंदन, नमस्कार कर यों बोले-- भगवन् ! आपसे अनुज्ञा प्राप्त कर मैं आज बेले के पारणे के दिन वाणिज्यग्राम नगर में उच्च ( सधन ), निम्न (निर्धन), मध्यम -- सभी कुलों में गृहसमुदानी -- क्रमागत किसी भी घर को बिना छोड़े की जाने वाली भिक्षा-चर्या के लिए जाना चाहता हूं । भगवान् बोले-देवानुप्रिय ! जैसे तुम्हें सुख हो, (बिना प्रतिबन्ध - - विलम्ब किए ) करो । ८४ ] ७८. तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं अब्भणुण्णाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ दूइपलासाओ चेइयाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता अतुरियमचवलमसंभंते जुगंतर- परिलोयणाए दिट्ठीए पुरओ ईरियं सोहेमाणे जेणेव वाणियगामे नयरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वाणियगामे नयरे उच्च-नीयमज्झिमाइं कुलाई घर-समुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ । श्रमण भगवान् महावीर से अभ्यनुज्ञात होकर उनकी आज्ञा प्राप्त कर भगवान् गौतम ने दूतीपलाश चैत्य से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर, बिना शीघ्रता किए, स्थिरतापूर्वक अनाकुल भाव से युग-परिणाम-साढ़े तीन हाथ तक मार्ग का परिलोकन करते हुए, ईर्यासमितिपूर्वक - - भूमि को भली भांति देखकर चलते हुए, जहां वाणिज्यग्राम नगर था, वहां आए। आकर वहां उच्च, निम्न एवं मध्य कुलों में समुदानीभिक्षा हेतु घूमने लगे । ७९. तसे भगवं गोयमे वाणियगामे नयरे, जहा पण्णत्तीए तहा, जाव (उच्चनीय-मज्झिमाइं कुलाई घरसमुदाणस्स ) भिक्खायरियाए अडमाणे अहा- पज्जत्तं भत्त-पाणं सम्मं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेत्ता वाणियगामाओ पडिणिग्गच्छइ, पडिणिग्गच्छिता कोल्लायस्स सन्निवेसस्स अदूरसामंतेणं वीईवयमाणे, बहुजणसद्दं निसामेइ, बहुजणो Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] [८५ अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ--एवं खलु देवाणुप्पिया! समणस्य भगवओ महावीरस्स अंतेवासी • आणंदे नामं समणोवासए पोसहसालाए अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाझूसिए, भत्तपाणपडियाइक्खिए कालं) अणवकंखमाणे विरहइ। भगवान गौतम ने व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में वर्णित भिक्षाचर्या के विधान के अनुरूप (उच्च, निम्न एवं मध्य कुलों में समुदानी भिक्षा हेतु) घुमते हुए यथापर्याप्त-जितना जैसा अपेक्षित था, उतना आहारपानी भली-भांति ग्रहण किया। ग्रहण कर वाणिज्यग्राम नगर से चले। चलकर जब कोल्लाक सन्निवेश के न अधिक दुर, न अधिक निकट से निकल रहे थे, तो बहुत से लोगों को बात करते सुना। वे आपस में यों कह रहे थे--देवानुप्रियो! श्रमण भगवान् महावीर के अन्तेवासी-शिष्य श्रमणोपासक आनन्द पोषधशाला में मृत्यु की आकांक्षा न करते हुए अन्तिम संलेखना, (खान-पान का परित्याग--आमरण-अनशन) स्वीकार किए आराधना-रत हैं। ८०. तए णं तस्स गोयमस्स बहुजणस्स अंतिए एयमढं सोच्चा, निसम्म अयमेयारूवे अज्झत्थिए, चिंतिए, पत्थिए, मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था--तं गच्छामि णं आणंदं समणोवासयं पासामि। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता जेणेव कोल्लाए सन्निवेसे जेणेव पोसह-साला, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ। अनेक लोगों से यह बात सुनकर, गौतम के मन में ऐसा भाव, चिन्तन, विचार या संकल्प उठा--मैं श्रमणोपासक आनन्द के पास जाऊं और उसे देखू । ऐसा सोचकर वे जहां कोल्लाक सन्निवेश था, पोषध-शाला थी, श्रमणोपासक आनन्द था, वहां गए। ८१. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ठ जाव' हियए भगवं गोयमं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी--एवं खलु भंते! अहं इमेणं उरालेणं जाव' धमणि-संतए जाए, नो संचाएमि देवाणुप्पियस्स अंतियं पाउब्भवित्ता णं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाए अभिवंदित्तए, तुब्भे! इच्छाकारेणं अणभिओएणं इओ चेव एह, जा णं देवाणुप्पियाणं तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएसु वंदामि नमसामि। श्रमणोपासक आनन्द ने भगवान् गौतम को आते हुए देखा। देखकर वह (यावत्) अत्यन्त त्र हुआ, भगवान् गौतम को वन्दन-नमस्कार कर बोला--भगवन्! मैं घोर तपश्चर्या से इतना क्षीण हो गया हूं कि मेरे शरीर पर उभरी हुई नाड़ियाँ दिखने लगी है। इसलिए देवानुप्रिय के--आपके पास आने तथा तीन बार मस्तक झुका कर चरणों मे वन्दना करने में असमर्थ हूं। अत एव प्रभो! आप ही स्वेच्छापूर्वक, अनभियोग से--किसी दबाव के बिना यहां पधारें, जिससे मैं तीन बार मस्तक झुकाकर देवानुप्रिय के--आपके चरणों में वन्दन, नमस्कार कर सकू। ८२. तए णं से भगवं गोयमे, जेणेव आणंदे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ। १. देखें सूत्र-संख्या १२ २. देखें सूत्र-संख्या ७३ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] [ उपासकदशांगसूत्र तब भगवान् गौतम, जहां आनन्द श्रमणोपासक था, वहां गये । ८३. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवओ गोयमस्स्र तिक्खुत्तो मुद्धाणेणं पाएस वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी - अत्थि णं भंते! गिहिणो गिहमज्झावसंतस्य ओहिनाणं समुप्पज्जइ ? - हंता अस्थि । जइ णं भंते! गिहिणो जाव (गिहमज्झावसंतस्स ओहि - नाणं ) समुप्पज्जइ, एवं खलु भंते! ममवि गिहिणो गिहमज्झावसंतस्स ओहि नाणे समुप्पण्णे--पुरत्थिमे णं लवणसमुद्दे पंच जोयणसयाई जाव (खेत्तं जाणामि पासामि एवं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं य, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासधरपव्वयं जाणामि पासामि, उड्डुं जाव सोहम्मं कप्पं जाणामि पासामि, अहे जाव इमीसें रयणप्पभाए पुढवीए) लोलुयच्चुयं नरयं जाणामि पासामि । श्रमणोपासक आनन्द ने तीन बार मस्तक झुकाकर भगवान् गौतम के चरणों में वन्दन, नमस्कार किया । वन्दन, नमस्कार कर वह यों बोला -- भगवन् ! एक गृहस्थ की भूमिका में विद्यमान मुझे भी अवधिज्ञान हुआ है, जिससे मैं पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में पांच- सौ, पांच सौ योजन तक का लवणसमुद्र का क्षेत्र, उत्तर दिशा में चुल्ल हिमवान् -- वर्षधर पर्वत तक का क्षेत्र ऊर्ध्व दिशा में सौधर्म कल्प तक तथा अधोदिशा में प्रथम नारक- 9 -भूमि रत्त्र-प्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक तक जानता हूं, देखता हूं । ८४. तणं से भगवं गोयमे आणंदं समणोवासयं एवं वयासी -- अत्थि णं, आणंदा ! गिहिणो जाव' समुपज्जइ । नो चेव णं एमहालए। तं णं तुमं, आणंदा! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निंदाहि गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणताए अभुट्ठाहि अहारिहं पायच्छितं ) तवो-कम्मं पडिवज्जाहि । " तब भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा--गृहस्थ को अवधि - ज्ञान उत्पन्न हो सकता है, पर इतना विशाल नहीं। इसलिए आनन्द ! तुम इस स्थान की इस मृषावाद रूप स्थिति या प्रवृत्ति की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो- पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्हा करो -- आन्तरिक खेद अनुभव करो, इसे वित्रोटित करो - विच्छिन्न करो या मिटाओ, इस अकरणता या अकार्य का विशोधन करो इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित - - उद्यत हो जाओ) तदर्थ तप:कर्म स्वीकार करो । ८५. तए णं से आणंदे समणोवासए भगवं गोयमं एवं वयासी-अत्थि णं, भंते! जिण-वयणे सताणं, तच्चाणं तहियाणं, सब्भूयाणं भावाणं आलोइज्जइ जाव पडिक्कमिज्ज, निंदिज्जइ, गरिहिज्जइ, विउट्टिज्जइ, विसोहिज्जइ अकरणयाए, अब्भुट्ठिज्जइ अहारिहं पारच्छित्तं देखें सूत्र संख्या ८३ । १. Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८७ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] तवोकम्म) पडिवजिजइ ? नो इणढे समढे। जड़ णं भंते! जिण वयणे संताणं जाव (तच्चाणं, तहियाणं, सब्भूयाण) भावाणं नोआलोइज्जइ जाव (नो पडिक्कमिजइ, नो निंदिज्जइ, नो गरिहिज्जइ, नो विउट्टिज्जइ, नो विसोहिजइ अकरणयाए, नो अब्भुट्ठिजइ अहारिहं पायच्छितं) तवो-कम्मं नो पडिवजिजइ, तं णं भंते! तुब्भे चेव एयस्स ठाणस्स आलोएह जाव (पडिक्कमेह, निंदेह, गरिहेह, विउद्देह, विसोहेह अकरणयाए, अब्भुढेह अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म) पडिवजह। श्रमणोपासक आनन्द भगवान् गौतम से बोला--भगवन् ! क्या जिन-शासन में सत्य, तत्त्वपूर्ण, तथ्य-यथार्थ, सद्भूत भावों के लिए भी आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृत्ति, अकरणताविशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त, तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी होती है? गौतम ने कहा--ऐसा नहीं होता। आनन्द बोला--भगवन् ! जिन-शासन में सत्य भावों के लिए आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार नहीं करनी होती तो भन्ते! इस स्थान-आचरण के लिए आप ही आलोचना (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा, निवृत्ति, अकरणता-विशुद्धि यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करें। ८६. तए णं से भगवं गोयमे आणंदेणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे, संकिए, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने, आणंदस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता जेणेव दुइपल्लासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामन्ते गमणागमणाए पडिक्कमइ पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएइ, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसइ, पडिदंसित्ता समणं भगवं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! अहं तुब्भेहिं अब्भणुण्णाए तं चेव सव्वं कहेइ, जाव तए णं अहं संकिएं, कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने आणंदस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पडिणिक्खमामि, पडिणिक्खमित्ता जेणेव इहं तेणेव हव्वमागए, तं णं भंते! किं आणंदेणं समणोवासएणं तस्स ठाणस्स आलोएयव्वं जाव (पडिक्कम्मेयव्वं, निंदेयव्वं, गरिहेयव्वं, विउट्टेयव्वं विसोहेयव्वं अकरणयाए, अब्भुट्टेयव्वं अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्म) पडिवज्जेयव्वं उदाहु मए? गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी--गोयमा! तुमं चेव णं तस्स ठाणस्स आलोएहि जाव पडिवजाहि, आणंदं च समणोवासयं एयमढें खामेहि। श्रमणोपासक आनन्द के यों कहने पर भगवान् गौतम के मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा१. देखें सूत्र-संख्या ८४ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [उपासकदशांगसूत्र संशय उत्पन्न हुआ। वे आनन्द के पास से रवाना हुए। रवाना होकर जहां दूतीपलाश चैत्य था, भगवान् महावीर थे, वहां आए। आकर श्रमण भगवान् महावीर के न अधिक दूर, न अधिक नजदीक गमनआगमन का प्रतिक्रमण किया, एषणीय-अनेषणीय की आलोचना की। आलोचना कर आहार-पानी भगवान् को दिखलाया। दिखलाकर वन्दन-नमस्कार कर वह सब कहा जो भगवान् से आज्ञा लेकर भिक्षा के लिए जाने के पश्चात् घटित हुआ था! वैसा कर वे बोले--मैं इस घटना के बाद शंका, कांक्षा और संशययुक्त होकर श्रमणोपासक आनन्द के यहां से चलकर आपके पास तुरन्त आया हूँ। भगवन् ! उक्त स्थान--आचारण के लिए क्या श्रमणोपासक आनन्द को आलोचना (प्रतिक्रमण निन्दा, गर्दा, निवृत्ति अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार करनी चाहिए या मुझे? श्रमण भगवान् महावीर बोले--गौतम! इस स्थान-आचरण के लिए तुम ही आलोचना करो तथा इसके लिए श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा याचना भी। ८७. तए णं से भगवं गोयमे, समणस्स भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव (पडिक्कमइ, निंदइ, गरिहइ विउट्टइ, विसोहइ, अकरणयाए, अब्भुढेइ अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्मं ) पडिवजइ, आणंदं च समणोवासयं एयमढें खामेइ। । भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का कथन, 'आप ठीक फरमाते हैं', यों कहकर विनयपूर्वक सुना। सुनकर उस स्थान-आचरण के लिए आलोचना, (प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्हा, निवृति, अकरणता-विशुद्धि, यथोचित प्रायश्चित्त तथा तदनुरूप तपःक्रिया) स्वीकार की एवं श्रमणोपासक आनन्द से क्षमा-याचना की। ८८. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ बहिया जणवय-विहारं विहरइ। तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर किसी समय अन्य जनपदों में विहार कर गए। ८९. तए णं से आणंदे समणोवासए बहूहिं सील-व्वएहिं जाव (गुण--वेरमण-- पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं) अप्पाणं भावेता, वीसं वासाई समणोवासग-परियागं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्मं काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कंते, समाहिपते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरथिमेणं अरूणे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थे-गइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। तत्थ णं आणंदस्य वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। यों श्रमणोपासक आनन्द ने अनेकबिध शीलव्रत [गुणव्रत, विरमण--विरति, प्रत्याख्यान-- त्याग एवं पोषधोपवास द्वारा आत्मा को भावित किया-आत्मा का परिष्कार और परिमार्जन किया। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का भली-भांति Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ] [८९ अनुसरण किया, एक मास की संलेखना और साठ भोजन--एक मास का अनशन संपन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। देह त्याग कर वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरूण-विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां अनेक देवों की आयु-स्थिति चार पल्योपम की होती है। श्रमणो-पासक आनन्द की आयु-स्थिति भी चार पल्योपम की बतलाई गई है। ९०.आणंदे णं भंते! देवे ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गच्छिहिइ? कहिं उववजिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झहिइ। निक्खेवो' ॥सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमं अज्झयणं समत्तं ॥ गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा--भन्ते! आनन्द उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा? कहां उत्पन्न होगा? भगवान् ने कहा--गौतम! आनन्द महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध-गति या मुक्ति प्राप्त करेगा। ॥निक्षेप ॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का प्रथम अध्ययन समाप्त ।। १. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति--बेमि। २. निगमन--आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यहीं अर्थ-- भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन सार-संक्षेप श्रमण भगवान् महावीर के समय की बात है, पूर्व बिहार में चम्पा नामक नगरी थी। वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। सम्भवतः चम्पा नगरी की अवस्थिति, आज जहां भागलपुर है, उसके आसपास थी। कुछ अवशेष, चिह्न आदि आज भी वहां विद्यमान हैं। चम्पा अपने युग की एक अत्यन्त समृद्ध नगरी थी। वहां कामदेव नामक एक गाथापति रहता था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था, जो सुयोग्य तथा पतिपरायण थी। कामदेव एक बहुत समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था। उसकी सम्पत्ति गाथापति आनन्द से भी बड़ी-चढी थी। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूंजी के रूप में उसके खजाने में थी, छह कराड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव--उपकरण, साज-सामान आदि के उपभोग में आ रही थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके वहां थे। इतने बड़े वैभवशाली पुरूष के दास-दासियों, कर्मचारियों आदि की संख्या भी बहुत बड़ी रही होगी। लौकिक भाषा में जिसे सुख, समृद्धि तथा सम्पन्नता कहा जाता है, वह सब कामदेव को प्राप्त था। कामदेव का पारिवारिक जीवन सुखी था। वह एक सौजन्यशील तथा मिलनसार व्यक्ति था। वह समाज में अग्रगण्य था। राजकीय क्षेत्र में उसका भारी सम्मान था। नगर के सम्भ्रान्त और प्रतिष्ठित जन महत्त्वपूर्ण कार्यों में उसका परामर्श लेते थे, उसकी बात को आदर देते थे, वह सब इसलिए था कि कामदेव विवेकी था। आनन्द की तरह कामदेव के जीवन में भी एक नया मोड़ आया। उसके विवेक के जागृत होने का एक विशेष अवसर प्राप्त हुआ। जन-जन को अहिंसा, समता और सदाचार का संदेश देते हुए श्रमण भगवान् महावीर अपने पाद-बिहार के बीच चम्पा पधारे । पूर्णभद्र नामक चैत्य में रूके। भगवान् का पदार्पण हुआ, जानकर दर्शनार्थियों का तांता बंध गया। राजा जितशत्रु भी अपने राजकीय ठाठ-बाट के साथ भगवान् के दर्शन करने गया। अन्यान्य धर्मानुरागी नागरिक-जन भी वहाँ पहुंचे। ज्यों ही कामदेव को यह ज्ञात हुआ, वह धर्म सुनने की उत्कंठा लिए भगवान् की सेवा में पहुंचा। धर्म-देशना श्रवण की। उसका विवेक उद्बुद्ध हुआ। उस परम वैभवशाली गाथापति के मन को भगवान् के उपदेश ने एकाएक झकझोर दिया। आनन्द की तरह उसने भगवान् से गृहि-धर्म स्वीकार किया। गृहस्थ में रहते हुए भी भोग, वासना, लालसा और कामना की दृष्टि से जितना हो सके बचा जाय, जीवन को संयमित और नियंत्रित रखा जाय, इस भावना को लिए हुए कामदेव अपने सभी काम करता था। आसक्ति का भाव उसके जीवन में कम होता जा रहा था। आनन्द की ही तरह फिर जीवन में दूसरा मोड़ आया। उसने पारिवारिक तथा लौकिक Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [९१ दायित्व अपने ज्येष्ठ पुत्र को सौपे और स्वयं अपने आपको अधिकाधिक साधना में लगा दिया। शील, व्रत, त्याग-प्रत्याख्यान आदि की आराधना में उसने तन्मय भाव से अपने को रमा दिया। ऐसा करते हुए उसके जीवन में एक परीक्षा की घड़ी आई। वह पोषधशाला में पोषध लिए बैठा था। उसकी साधना में विघ्न करने के लिए एक मिथ्यात्वी देव आया। उसने कामदेव को भयभीत और संत्रस्त करने हेतु एक अत्यन्त भीषण, विकराल, भयावह पिशाच का रूप धारण किया, जिसे देखते ही मन थर्रा उठे। पिशाच ने तीक्ष्ण खड्ग हाथ में लिए हुए कामदेव को डराया-धमकाया और कहा कि तुम अपनी उपासना छोड़ दो, नहीं तो अभी इस तलवार से काट कर टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा। कामदेव विवेकी और साहसी पुरूष था, दृढ़निष्ठ था। परीक्षा की घड़ी ही तो वह कसौटी है, जब व्यक्ति खरा या खोटा सिद्ध होता है। कामदेव की परीक्षा थी। जब कामदेव अविचल रहा तो पिशाच और अधिक क्रुद्ध हो गया। उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसे ही कहा। पर, कामदेव पूर्ववत् दृढ एवं सुस्थिर बना रहा। तब पिशाच ने जैसा कहा था, कामदेव की देह के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। कामदेव आत्म-दृढता और धैर्य के साथ इस घोर वेदना को सह गया, चूं तक नहीं किया। यह देवमायाजन्य था, इतनी त्वरा से हुआ कि तत्काल कामदेव दैहिक दृष्टि से यथावत् हो गया। उस देव ने कामदेव को साधना से विचलित करने के लिए और अधिक कष्ट देने का सोचा। एक उन्मत्त, दुर्दान्त हाथी का रूप बनाया। कामदेव को आकाश में उछाल देने, दांतों से बींध देने और पैरों से रौंद देने की धमकी दी। एक बार, दो बार, तीन बार यह किया। कामदेव स्थिर और दृढ रहा। तब हाथी-रूपधारी देव ने कामदेव को जैसा उसने कहा था, घोर कष्ट दिया। पर, कामदेव की दृढता अविचल रही। देव ने एक बार फिर प्रयत्न किया। वह उग्र विषधर सर्प बन गया। सर्प के रूप में उसने कामदेव को क्रूरता से उत्पीडित किया, उसकी गर्दन में तीन लपेट लगा कर छाती पर डंक मारा। पर, उसका यह प्रयत्न भी निष्फल गया। कामदेव जरा भी नहीं डिगा। परीक्षा की कसौटी पर वह खरा उतरा। विकार-हेतुओं के विद्यमान रहते हुए भी जो चलित नहीं होता, वास्तव में वही धीर है। अहिंसा हिंसा पर विजयिनी हुई। अहिंसक कामदेव से हिंसक देव ने हार मान ली। देव के मुंह से निकल पड़ा--'कामदेव'! निश्चय ही तुम धन्य हो। वह देव कामदेव के चरणों में गिर पड़ा, क्षमा मांगने लगा। उसने वह सब बताया कि सौधर्म देवलोक में उसने इन्द्र के मुँह से कामदेव की धार्मिक दृढता की प्रशंसा सुनी थी, जिसे वह सह नहीं सका। इसीलिए वह यों उपसर्ग करने आया। उपासक कामदेव का मन उपासना में रमा था। जब उसने उपसर्ग को समाप्त हुआ जाना, तो स्वीकृत प्रतिमा का पारण--समापन किया। शुभ संयोग ऐसा बना, भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच चम्पा नगरी में पधारें । कामदेव ने यह सुना तो सोचा, कितना अच्छा हो, मैं भगवान् को वन्दन-नमस्कार कर, पोषध का समापन करूं । तदनुसार वह पूर्णभद्र चैत्य, जहाँ भगवान् विराजित थे, पहुँचा। भगवान् के दर्शन किए, अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भगवान् तो सर्वज्ञ थे। जो कुछ घटित हुआ, जानते ही थे। उन्होंने कामदेव को Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] [उपासकदशांगसूत्र सम्बोधित कर उन तीनों उपसर्गों का जिक्र किया, जिन्हें कामदेव निर्भय भाव से झेल चुका था। भगवान् ने कामदेव को सम्बोधित कर कहा--कामदेव! क्या यह सब घटित हुआ? कामदेव ने विनित भाव से उत्तर दिया-भन्ते! ऐसा ही हुआ। भगवान् महावीर ने कामदेव के साथ हुई इस घटना को दृष्टि में रखते हुए उपस्थित साधुसाध्वियों को सम्बोधित करते हुए कहा-एक श्रमणोपासक गृहस्थी में रहते हुए भी जब धर्माराधना में इतनी दृढता बनाए रख सकता है तो आप सबका तो ऐसा करना कर्त्तव्य है ही। साधक को कभी भी कष्टों से घबराना नहीं चाहिए, उनको दृढता से झेलते रहना चाहिए। इससे साधना निर्मल और उज्जवल बनती है। भगवान् की दृष्टि में कामदेव का आचरण धार्मिक दृढता के सन्दर्भ में एक प्रेरक उदाहरण था, इसलिए उन्होंने सार्वजनिक रूप में उसकी चर्चा करना उपयोगी समझा। कामदेव ने जिज्ञासा से भगवान् से अनेक प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया, वन्दन-नमस्कार कर वापस लौट आया। पोषध का समापन किया। कामदेव अपने को उत्तरोत्तर, अधिकाधिक साधना में जोड़ता गया। उसके परिणाम उज्जवल से उज्ज्वलत्तर होते गए, भावना अध्यात्म में रमती गई। उसके उपासनामय जीवन का संक्षिप्त विवरण यों कामदेव ने बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-धर्म का सम्यक् परिपालन किया, ग्यारह प्रतिमाओं की आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना तथा अनशन द्वारा समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म कल्प के सोधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरूणाभ नामक विमान में चार पल्योपम आयुस्थितिक देव हुआ। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन कामदेव ९१. जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते? आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा--यावत् सिद्धि-प्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के प्रथम अध्ययन का यदि यह अर्थ--आशय प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने दूसरे अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया है? श्रमणोपासक कामदेव . ९२. एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नामं नयरी होत्था। पुण्णभद्दे चेइए। जियसत्तु राया। कामदेवे गाहावई। भद्दा भारिया। छ हिरण्ण-कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं। समोसरणं । जहा आणंदो तहा निग्गओ, तहेव सावय-धम्म पडिवजइ। __ सा चेव वत्तव्वया जाव' जेट्ठ-पुत्तं, मित्त-नाइं आपुच्छित्ता, जेणेव पोसह-साला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता जहा आणंदो जाव (पोसह-सालं पमजइ, पमजित्ता उच्चारपासवण-भूमि पडिलेहेइ, पडिलेहिता दब्भ-संथारयं संथरइ, संथरेत्ता दब्भ-संथारयं दुरूहइ, दुरूहित्ता-पोसह-सालाए पोसहिए दंब्भ-संथारोवगए) समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उपसंपज्जित्ताणं विहरइ। __ आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उससमय जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, चम्पा नामक नगरी थी। पूर्णभद्र नामक चैत्य था। वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। वहां कामदेव नामक गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। गाथापति कामदेव की छ: करोड़ स्वर्ण मुद्राएं खजाने में रखी थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं। १. देखें सूत्र-संख्या २। २. देखें सूत्र-संख्या ६६। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] [उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर पधारें। समवसरण हुआ। गाथापति आनन्द की तरह गाथापति कामदेव भी अपने घर से चला--भगवान् के पास पहुंचा, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। ___ आगे की घटना भी वैसी ही है, जैसी आनन्द की। अपने बड़े पुत्र, मित्रों तथा जातीय जनों की अनुमति लेकर कामदेव जहां पोषध-शाला थी, वहां आया, (आकर आनन्द की तरह पोषध-शाला का प्रमार्जन किया--सफाई की, शौच एवं लघुशंका के स्थान का प्रतिलेखन किया, प्रतिलेखन कर कुश का बिछौना लगाया, उस पर स्थित हुआ। वैसा कर पोषध-शाला में पोषध स्वीकार किया,) श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति--धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हो गया। देव द्वारा पिशाच के रूप में उपसर्ग ९३. तए णं तस्स कामदेवस्स समणोवासगस्स पुव्वरत्तावरत्त-काल-समयंसि एगे देवे मायीभिच्छदिट्ठी अंतियं पाउब्भूए। ___ (तत्पश्चात् किसी समय) आधी रात के समय श्रमणोपासक कामदेव के समक्ष एक मिथ्यादृष्टि, मायावी देव प्रकट हुआ। विवेचन उत्कृष्ट तपश्चरण, साधना एवं धर्मानुष्ठान के सन्दर्भ में भयोत्पादक तथा मोहोत्पादक-दोनों प्रकार के विध्न उपस्थित होते रहने का वर्णन भारतीय वाङ्मय में बहुलता से प्राप्त होता है। साधक के मन में भय उत्पन्न करने के लिए जहां राक्षसों तथा पिशाचों के क्रूर एवं नृशंस कर्मों का उल्लेख है, वहां काम व भोग की ओर आकृष्ट करने के लिए, मोहित करने के लिए वासना-प्रधान पात्र भी प्रयत्न करते देखे जाते हैं। वैदिक वाङ् मय में ऋषियों के तप एवं यज्ञानुष्ठान में विघ्न डालने, उन्हें दूषित करने हेतु राक्षसों द्वारा उपद्रव किये जाने के वर्णन अनेक पुराण-ग्रन्थों तथा दूसरे साहित्य में प्राप्त होते हैं। दूसरी ओर सुन्दर देवांगनाओं द्वारा उन्हें मोहित कर धर्मानुष्ठान से विचलित करने के उपक्रम भी मिलते हैं। बौद्ध वाङ् मय में भी भगवान् बुद्ध के 'मार-विजय' प्रभृति अनेक प्रसंगों में इस कोटि के वर्णन उपलब्ध हैं। जैन साहित्य में भी ऐसे वर्णन-क्रम की अपनी परम्परा है। उत्तम, प्रशस्त धर्मोपासना को खण्डित एवं भग्न करने के लिए देव, पिशाच आदि द्वारा किये गये उपसर्गों--उपद्रवों का बड़ा सजीव एवं रोमांचक वर्णन अनेक आगम-ग्रन्थों तथा इतर साहित्य में प्राप्त होता है, जहां रौद्र, भयानक एवं वीभत्स--तीनों रस मूर्तिमान, प्रतीत होते हैं। प्रस्तुत वर्णन इसका ज्वलन्त उदाहरण है। ९४. तए णं से देवे एगं महं पिसाय-रूवं विउव्वइ। तस्स णं देवस्स पिसाय-रूवस्स इमे एयारूवे वण्णा-वासे पण्णत्ते--सीसं से गो-किलिंज-संठाण-संठियं सालिभसेल्ल Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव ] [ ९५ सरिसा से केसा कविल-तेएणं दिप्पमाणा, महल्ल- उट्टिया - कभल्ल - संठाण-संठियं निडालं, मुगुंस- पुच्छं व तस्स भुमगाओ फुग्ग-फुग्गाओ विगय-वीभच्छ - दंसणाओं, सीस-घड़िविणिग्गयाइं अच्छीणि विगय-बीभच्छ- दंसणाई, कण्णा जह सुप्प - कत्तरं चेव विगयबीभच्छ - दंसणिज्जा, उरब्भ-पुड- संन्निभा से नासा, झुसिरा - जमल- चुल्ली - संठाण - संठिया दो वि तस्स नासा - पुडया, घोडय-पुच्छंव तस्स मंसूई कविल - कविलाई विगय-बीभच्छदंसणाई, उट्ठा उट्टस्स चेव लंबा, फाल- सरिसा से दंता, जिब्भा जह सुप्प - कत्तरं चेव विगय- बीभच्छ - दंसणिज्जा, हल- कुद्दाल-संठिया से हणुया, गल्ल-कडिल्लं व तस्स खड्डुं फुट्टं कविलं फरूसं महल्लं, मुइंगाकारोवमे से खंधे, पुरवरकवाड़ोवमे से वच्छे, कोट्ठिया-संठाणसंठिया दो वि तस्स बाहा, निसापाहाण-संठाण-संठिया दो वि तस्स अग्गहत्था, ,निसालोढसंठाणसंठियाओ हत्थेसु अंगुलीओ, सिप्पि - पुडगसंठिया से नक्खा, ण्हाविय - पसेवओ व्व उरंसि लंबंति दो वि तस्स थणया, पोट्टं अयकोट्ठओ व्व वट्टं, पाणकलंदसरिसा से नाही, सिक्कगसंठाणसंठिए से नेत्ते, किण्णपुड-संठाण - संठिया दो वि तस्स वसणा, जमल - कोट्ठियासंठाण - संठिया दो वि तस्स ऊरू, अज्जुणगुट्ठं व तस्स जाणूइं कुडिलकुडिलाई विगयबीभच्छ-दंसणाई, जंघाओ कक्खडीओ लोमेहिं उवचियाओ, अहरीसंठाण - संठिया दो वि तस्स पाया, अहरीलोढसंठाणसंठियाओ पाएसु अंगुलीओ, सिप्पिपुडसंठिया से नखा । उस देव ने एक विशालकाय पिशाच का रूप धारण किया। उसका विस्तृत वर्णन इस प्रकार है- उस पिशाच का सिर गाय को चारा देने की (औंधी की हुई) बांस की टोकरी जैसा था। बाल धान--चावल की मंजरी के तन्तुओं के समान रूखे और मोटे थे, भूरे रंग के थे, चमकीले थे । ललाट बड़े मटके के खप्पर या ठीकरे जैसा बड़ा और उभरा हुआ था । भौहें गिलहरी की पूंछ की तरह बिखरी हुई थीं, देखने में बड़ी विकृत - भद्दी और बीभत्स - घृणोत्पादक थीं 'मटकी" जैसी आँखें, सिर से बाहर निकली थीं, देखने में विकृत और बीभत्स थीं । कान टूटे हुए सूप -- छाजले के समान बड़े भद्दे और खराब दिखाई देते थे । नाक मेंढें की नाक की तरह थी - चपटी थी। गड्ढों जैसे दोनों नथुने ऐसे थे, मानों जुड़े हुए दो चूल्हे हों । घोड़े की पूछ जैसी उसकी मूंछें भूरी थीं, विकृत और बीभत्स लगती थीं 1 उसके होठ ऊंट के होठों की तरह लम्बे थे। दांत हल के लोहें की कुश जैसे थे। जीभ सूप के टुकड़े जैसी थी, देखने में विकृत तथा बीभत्स थी । ठुड्डी हल की नोक की तरह आगे निकली थी । कढ़ाही की ज्यों भीतर धंसे उसके गाल खड्डों जैसे लगते थे, फटे हुए, भूरे रंग के, कठोर तथा विकराल थे। उसके कन्धे मृदंग जैसे थे । वक्षस्थल -- छाती नगर के फाटक के समान चौड़ी थी। दोनों भुजाएं कोष्ठिका - लोहा आदि धातु गलाने में काम आने वाली मिट्टी की कोठी के समान थीं। उसकी दोनों हथेलियां मूंग आदि दलने की चक्की के पाट जैसी थीं। हाथों की अंगुलियां लोढी के समान थीं। उसके नाखून सीपियों जैसे थे-- तीखे और मोटे थे। दोनों स्तन नाई की उस्तरा आदि राछ डालने की चमड़े की थैली -- रछानी की तरह छाती पर लटक रहे थे । पेट लोहे के कोष्ठक कोठे के समान गोलाकार था । नाभि कपड़ों में I Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६] [उपासकदशांगसूत्र पॉलिश देने हेतु जुलाहों द्वारा प्रयोग में लिये जाने वाले मांड के बर्तन के समान गहरी थी। उसका नेत्रलिंग छींके की तरह लटक-रहा था। दोनों अण्डकोष फैले हुए दो थैलों या बोरियों जैसे थे। उसकी दोनों जंघाएं एक जैसी दो कोठियों के समान थीं। उसके घुटने अर्जुन-तृण-विशेष या वृक्ष-विशेष के गुढे-स्तम्ब-गुल्म या गांठ जैसे, टेढे, देखने में विकृत व बीभत्स थे। पिंडलियां कठोर थीं, बालों से भरी थीं। उसके दोनों पैर दाल आदि पीसने की शिला के समान थे। पैर की अंगुलियां लोढ़ी जैसी थीं। अंगुलियों के नाखून सीपियों के सदृश थे। ९५. लडहमडहजाणए, विगय-भग्ग-भुग्ग-भुमए, अवदालिय-वयणविवरनिल्लालियग्ग-जीहे, सरडकयमालियाए, उंदुरमाला-परिणद्धसुकय-चिंधे, नउलकयकण्णपूरे, सप्पकयवेगच्छे, अप्फोडते, अभिगजंते, भीममुक्कट्टहासे, नाणाविहपंचवण्णेहिं लोमेहिं उवचिए एगं महं नीलुप्पल-गवल-गुलिय-अयसिकुसुमप्पगासं असिं खुर-धारं गहाय, जेणेव पोसहसाला, जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आसु-रत्ते, रूठे, कुविए, चंडिक्किए, मिसिमिसियमाणे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी--हंभो कामदेवा! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! दुरंतपंत लक्खणा! हीण-पुण्ण-चाउद्दसिया! हिरि-सिरि-धिइ-कित्ति-परिवज्जिया! धम्म-कामया! पुण्ण-कामया! सग्गकामया! मोक्खकामया! धम्मकं खिया! पुण्णकं खिया! सग्ग-कं खिया! मोक्खकं खिया! धम्मपिवासिया! पुण्णपिवासिया! सग्गपिवासिया! मोक्खपिवासिया! नो खलु कप्पइ तव देवाणुप्पिया! जं सीलाइं, वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाइं चालित्तए वा खोभित्तए वा, खंडित्तए वा, भंजित्तए वा, उज्झित्तए वा, परिच्चइत्तए वा। तं जइ णं तुमं अज सीलाइं, जाव (वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाइं) पोसहोववसाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो तं अहं अज इमेणं नीलुप्पल-जाव (गवल-गुलिय-अयसि-कुसुमप्पगासेण, खुरधारेण) असिणा खंडाखंडिं करेमि, जहा णं तुमं देवाणुप्पिया! अट्टदुहट्टवसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। उस पिशाच के घुटने मोटे एवं ओछे थे, गाड़ी के पीछे ढीले बंधे काठ की तरह लड़खड़ा रहे थे। उसकी भोहें विकृत--बेडौल, भग्न-खण्डित, भुग्न--कुटिल या टेड़ी थीं। उसने अपना दरार जैसा मुंह फाड़ रखा था, जीभ बाहर निकाल रखी थी। वह गिरगिटों की माला पहने था। चूहों की माला भी उसने धारण कर रखी थी जो उसकी पहचान थी। उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे। उसने अपनी देह पर सांपों को दुपट्टे की तरह लपेट रखा था। वह भुजाओं पर अपने हाथ ठोक रहा था, गरज रहा था, भयंकर अट्टहास कर रहा था। उसका शरीर पांचों रंगों के बहुविध केशों से व्याप्त था। वह पिशाच नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूलों जैसी गहरी नीली, तेज धार वाली तलवार लिये, जहाँ पोषधशाला थी, श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया। आकर अत्यन्त क्रुद्ध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव ] [ ९७ रुष्ट, कुपित तथा विकराल होता हुआ, मिसमिसाहट करता हुआ -- तेज सांस छोड़ता हुआ, श्रमणोपासक कामदेव से बोला -- अप्रार्थित -- जिसे कोई नहीं चाहता, उस मृत्यु को चाहने वाले ! दुःखद अन्त तथा अशुभ लक्षणवाले, पुण्यचतुर्दशी जिस दिन हीन - असम्पूर्ण थी -- घटिकाओं में अमावस्या आ गई थी, उस अशुभ दिन में जन्मे हुए अभागे ! लज्जा, शोभा, धृति तथा कीर्ति से परिवर्जित ! धर्म, पुण्य, स्वर्ग और मोक्ष की कामना, इच्छा एवं पिपासा -- उत्कण्ठा रखने वाले ! देवानुप्रिय ! शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास से विचलित होना, विक्षुभित होना, उन्हें खण्डित करना, भग्न करना, 'उज्झित करना--उनका त्याग करना, परित्याग करना तुम्हें नहीं कल्पता है -- इनका पालन करने में तुम कृतप्रतिज्ञ हो । पर, यदि तुम आज शील, ( व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान ) एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करोगे, उन्हें नहीं तोड़ोगे तो मैं (नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल के समान गहरी नीली, तेज धारवाली) इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीडित होकर असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे -- प्राणों से हाथ बैठोंगे। ९६. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं पिसाय-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभीए, अंतत्थे, अणुव्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्म - ज्झाणोवगए विहरइ । उस पिशाच द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव भीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित एवं विचलित नहीं हुआ; घबराया नहीं। वह चुपचाप -- शान्त भाव से धर्म - ध्यान में स्थित रहा । ९७. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं, जाव (अतत्थं, अणुव्विगं, अखुभियं, अचलियं, असंभंतं, तुसिणीयं ), धम्म- ज्झाणोवगयं विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चंपि तच्छं पि कामदेवं एवं वयासी --हं भो ! कामदेवा! समणोवासया ! अपत्थियपत्थिया ! जइ णं तुमं अज्ज जाव (सीलाई, वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहवासाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो ते अहं अज्ज इमेणं नीलुप्पल - गवल - गुलियअयसि - कुसुम-प्पगासेण खुरधारेण असिणा खंडाखंडिं करेमि जहा णं तुमं देवाणुप्पिया ! अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ) ववरोविज्जसि । बार, पिशाच का रूप धारण किये हुए देव ने श्रमणोपासक कामदेव को यों निर्भय (त्रास, उद्वेग तथा क्षोभ रहित, अविचल, अनाकुल एवं शान्त) भाव से धर्म - ध्यान में निरत देखा । तब उसने दूसरी , तीसरी बार फिर कहा--मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक कामदेव ! आज (यदि तुम शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास को नहीं छोड़ोगे, नहीं तोड़ोगे तो नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल के समान गहरी नीली तेज धार वाली इस तलवार से तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा, जिससे हे देवानुप्रिय ! तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही ) प्राणों से हाथ धो बैठोगे । ९८. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं दोच्चंपि त्तच्वंपिं एवं वुत्ते समाणे, अभीए जाव ( अतत्थे, अणुव्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते तुसिणीए) Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८] [उपासकदशांगसूत्र धम्म-ज्झाणोवगए विहरइ। श्रमणोपासक कामदेव उस देव द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर भी अभीत (अत्रस्त, अनुद्विग्न, अक्षुभित, अविचलित, अनाकुल एवं शान्त) रहा, अपने धर्मध्यान में उपगत-- संलग्न रहा। ९९. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवास अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरत्ते ४(रूठे कुविए चंडिक्किए) ति-वलि भिउडिं निडाले साहटु, कामदेवं समणोवासयं नीलुप्पल जाव' असिणा खंडाखंडिं करे।। ___जब पिशाच रूप धारी उस देव ने श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय भाव से उपासना-रत देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, उसके ललाट में त्रिबलिक--तीन बल चढ़ी भृकुटि तन गई उसने तलवार से कामदेव पर वार किया और उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले। १००. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं, जाव(विउलं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं) दुरहियासं वेयणं सम्मं सहइ, जाव (खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र (विपुल--अत्यधिक, कर्कश-कठोर, प्रगाढ, रौद्र, कष्टप्रद) तथा दुःसह वेदना को सहनशीलता (क्षमा और तितिक्षा) पूर्वक झेला। हाथी के रूप में उपसर्ग १०१. तए णं से देवे पिसाय-रूवे कामदेवं समणोवास अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंधाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितो सणियं सणियं पच्चोसक्का, पच्चोसक्कित्ता, पोसहसालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं पिसाय-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं हत्थि-रूबे विउव्वइ,सत्तंग-पइट्ठियं, सम्म संठियं, सुजायं, पुरओ उदग्गं, पिट्ठओ वराहं, अयाकुच्छिं, अलंब-कुच्छिं, पलंब-लंबोदराधरकरं, अब्भुग्गय-मउल-मल्लिया-विमल-धवल-दंतं, कंचणकोसी-पविट्ठ-दंतं, आणामियचाव-ललिय-संवल्लियग्ग-सोण्डं, कुम्म-पडिपुण्ण-चलगं, वीसइ-नक्खं अल्लीणपमाण-जुत्तपुच्छं, मत्तं मेहमिव गुलगुलेन्तं मण-पवण-जइणवेगं दिव्वं हत्थिरूवं विउव्वइ। जब पिशाच रूप धारी देव ने देखा, श्रमणोपासक कामदेव निर्भीक भाव से उपासना में रत है, वह श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन-जिन-धर्म से विचलित, क्षुभित, विपरिणामितविपरीत परिणाम युक्त नही कर सका है, उसके मनोभावों को नहीं बदल सका है, तो वह श्रान्त, १. देखें सूत्र-संख्या ९७। २. देखें सूत्र-संख्या ९५ । ३. देखें सूत्र-संख्या ९५। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव ] [ ९९ क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा। पीछे हटकर पोषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर देवमायाजन्य (विक्रिया - विनिर्मित) पिशाच रूप का त्याग किया। वैसा कर एक विशालकाय, देवमायाप्रसूत हाथी का रूप धारण किया। वह हाथी सुपुष्ट सात अंगों (चार पैर, सूंड जननेन्द्रिय और पूंछ) से युक्त था। उसकी देह रचना सुन्दर और सुगठित थी । वह आगे से उदग्र- ऊंचा या उभरा हुआ था, पीछे से सूअर के समान झुका हुआ था। उसकी कुक्षि-- जठर बकरी की कुक्षि की तरह सटी हुई थी। उसका नीचे का होठ और सूंड लम्बे थे। मुंह से बाहर निकले हुए दांत बेले की अधखिली कली के सदृश उजले और सफेद थे । वे सोने की म्यान में प्रविष्ट थे अर्थात् उन • पर सोने की खोल चढ़ी थी। उसकी सूंड का अगला भाग कुछ खींचे हुए धनुष की तरह सुन्दर रूप मुड़ा हुआ था। उसके पैर कछुए के समान प्रतिपूर्ण - परिपुष्ट और चपटे । उसके बीस नाखुन थे। उसकी पूंछ देह से सटी हुई--सुन्दर तथा प्रमाणोपेत--समुचित लम्बाई आदि आकार लिए हुए थी। वह हाथी मद से उन्मत्त था । बादल की तरह गरज रहा था। उसका वेग मन और पवन के वेग को जीतने वाला था । में १०२. विउव्वित्ता जेणेव पोसह -साला, जेणेव कामदेवे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो ! कामदेवा ! समणोवासया ! तव भइ जाव (जइ णं तुझं अज्ज सीलाइं, वयाइं वेरमणाई, पच्चक्खाणाई पोसहोववासाई न छड्डेसि, ) न भंजेसि, तो ते अज्ज अहं सोंडाए गिण्हामि, गिण्हित्ता पोसह - सालाओ नीम, नीणित्ता उड्ढं वेहासं उव्विहामि, उव्विहित्ता, तिक्खेहिं दंत-मुसलेहिं पडिच्छामि, पडिच्छित्ता, अहे धरणि-बसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेमि, जहा णं तुमं अट्ट दुहट्ट - वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ क्रोविज्जसि । ऐसे हाथी के रूप की विक्रिया करके पूर्वोक्त देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया । आकर श्रमणोपासक कामदेव से पूर्ववर्णित पिशाच की तरह बोला-- यदि तुम अपने व्रतों को (शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान एवं पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो, ) भंग नहीं करते हो तो मैं तुमको अपनी सूंड से पकड़ लूंगा। पकड़ कर पोषधशाला से बाहर ले जाऊंगा । बाहर ले जा कर ऊपर आकाश में उछालूंगा। उछाल कर अपने तीखें और मूसल जैसे दांतों से झेलूंगा । झेल कर नीचे पृथ्वी पर तीन बार पैरों से रौदूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक हो जाओगे -- मर जाओगे । १०३. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं हत्थि-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे, अभी जाव' बिहरइ । हाथी का रूप धारण किए हुए देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक कामदेव निर्भय भाव से उपासना-रत रहा। १. देखें सूत्र - संख्या ९८ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [उपासकदशांगसूत्र १०४. तए णं से देवे हत्थि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता दोच्चपि तच्चपि कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी--हं भो! कामदेवा! तहेव जाव' सो वि विहरइ। हस्तीरूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत देखा तो, उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर श्रमणोपासक कामदेव को वैसा ही कहा, जैसा पहले कहा था। पर श्रमणोपासक कामदेव पूर्ववत् निर्भीकता से अपनी उपासना में निरत रहा। १०५. तए णं से देवे हत्थि-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता आसुरते ४ कामदेवं समणोवासयं सोंडाए गिण्हेइ, गेण्हेत्ता उड्ढं वेहासं उव्विहइ, उव्विहित्ता तिक्खेहिं दंत-मुसलेहिं पडिच्छइ, पडिच्छेत्ता अहे धरणि-तलंसि तिक्खुत्तो पाएसु लोलेइ। हस्तीरूपधारी उस देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भीकता से उपासना में लीन देखा तो अत्यन्त क्रुद्ध होकर अपनी सूंड से उसको पकड़ा। पकड़कर आकाश में ऊंचा उछाला। उछालकर फिर नीचे गिरते हुए को तीखे और मूसल जैसे दांतों से झेला और झेल कर नीचे जमीन पर तीन बार पैरों से रौंदा। . १०६. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव (विउयं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं, दुरहियासं वेयणं सम्मं, सहइ, खमइ, तितिक्खइ,) अहियासेइ। । श्रमणोपासक कामदेव ने (सहनशीलता, क्षमा एवं तितिक्षापूर्वक तीव्र, विपुल, कठोर, प्रगाढ, रोद्र तथा कष्टप्रद) वेदना झेली। सर्प के रूप में उपसर्ग १०७. तए णं से देवे हत्थि-रूवे कामदेवं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ जाव (निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा, खोभित्तए वा, विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते) सणियंसणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसह-सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता दिव्वं हत्थिरूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं सप्प-रूवं विउव्वइ, उग्ग-विसं, चंड-विसं, घोर-विसं महाकायं, मसी-मूसा-कालगं, नयण-विस-रोस-पुण्णं, अंजण-पुंज-निगरप्पगासं, रत्तच्छं लोहिय-लोयणं, जमल-जुयल-चंचल-जीहं,धरणीयलवेणीभूयं, उक्कड-फुड-कुडिल-जडिल-कक्कस-वियड-फुडाडोव-करण-दच्छं, लोहागरधम्ममाण-धमधमेंतघोसं, अणागलिय-तिव्व-चंड-रोसं सप्प रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता १. देखें सूत्र-संख्या ९७। २. देखें सूत्र-संख्या ९८। ३. देखें सूत्र-संख्या ९७। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] - [१०१ जेणेव पोसह-साला जेणेव कामदेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता कामदेवे समणोवासयं एवं वयासी--हं भो! कामदेवा! समणोवासया! जाव (सीलाई वयाइं, वेरमणाइं, पच्चक्खाणाइं, पोसहोववासाइं न छड्डेसि,) न भंजेसि, तो ते अज्जेव अहं सरसरस्स कायं दुरुहामि दुरुहित्ता पच्छिमेणं भाएणं तिक्खुत्तो गीवं, वेढेमि, वेढिता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्टेमि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसटे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। जब हस्तीरूपधारी देव श्रमणोपासक कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नहीं कर सका, तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर धीरे-धीरे पीछे हटा। पीछे हट कर पोषधशाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर विक्रियाजन्य हस्ति-रूप का त्याग किया। वैसा कर दिव्य, विकराल सर्प का रूप धारण किया। वह सर्प उग्रविष, प्रचण्डविष, घोरविष और विशालकाय था। वह स्याही और मूस-धातु गलाने के पात्र जैसा काला था। उसके नेत्रों में विष और क्रोध भरा था। वह काजल के ढेर जैसा लगता था। उसकी आंखें लाल-लाल थी। उसकी दुहरी जीभ चंचल थी-बाहर लपलपा रही थी। कालेपन के कारण वह पृथ्वी (पृथ्वी रूपी नारी) की वेणी--चोटी-जैसी लगता था। वह अपना उत्कट-उग्र, स्फुट-देदीप्यमान, कुटिल--टेढ़ा, जटिल--मोटा, कर्कश--कठोर, विकट--भयंकर फन फैलाए हुए था। लुहार की धौंकनी की तरह वह फुकार कर रहा था। उसका प्रचण्ड क्रोध रोके नहीं रूकता था। वह सर्परूपधारी देव जहां पोषधशाला थी, जहां श्रमणोपासक कामदेव था, वहां आया। आकर श्रमणोपासक कामदेव से बोला--अरे--कामदेव! यदि तुम शील, व्रत (विरमण, प्रत्याख्यान, पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हों,) भंग नहीं करते हो, तो मैं अभी सर्राट करता हुआ तुम्हारे शरीर पर चढूंगा। चढ़ कर पिछले भाग से--पूंछ की ओर से तुम्हारे गले में तीन लपेट लगाऊंगा। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीलें दातों से तुम्हारी छाती पर डंक मारूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीडित होते हुए असमय में ही जीवन से पृथक् हो जाओगे--मर जाओगे। १०८. तए णं से कामदेवे समणोवासए तेणं देवेणं सप्प-रूवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। सो वि दोच्चंपि तच्चपि भणइ। कामदेवो वि जाव विहरइ। सर्परूपधारी उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी कामदेव निर्भीकता से उपासनारत रहा। देव ने दूसरी बार फिर तीसरी बार वैसा ही कहा, पर कामदेव पूर्ववत् उपासना में लगा रहा। १०९. तए णं से देवे सप्परूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता आसुरत्ते ४ कामदेवस्स सरसरस्स कायं दुरूहइ, दुरूहित्ता पच्छिम-भाएणं तिक्खुत्तो गीवं १. देखें सूत्र-संख्या ९८। २. देखें सूत्र-संख्या ९८॥ ३. देखें सूत्र-संख्या ९७। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [उपासकदशांगसूत्र वेढेइ, वेढित्ता तिक्खाहिं विसपरिगयाहिं दाढाहिं उरंसि चेव निकुट्टेइ। सर्परूपधारी देव ने जब श्रमणोपासक कामदेव को निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुध होकर सर्राटे के साथ उसके शरीर पर चढ़ गया। चढ़ कर पिछले भाग से उसके गले में तीन लपेट लगा दिए। लपेट लगाकर अपने तीखे, जहरीले दातों से उसकी छाती पर डंक मारा। ११०. तए णं से कामदेवे समणोवासए तं उज्जलं जाव' अहियासेइ। श्रमणोपासक कामदेव ने उस तीव्र वेदना को सहनशीलता के साथ झेला। देव का पराभव : हिंसा पर अहिंसा की विजय १११. तए णं से देवे सप्प-रूवे कामदेवं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता जाहे नो संचाएइ कामदेवं समणोवासयं निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा ताहे संते सणियं-सणियं पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता पोसह-सालाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, दिव्वं सप्प-रूवं विप्पजहइ, विप्पजहित्ता एगं महं दिव्वं देव-रूवं विउव्वइ। हार-विराइय-वच्छं जाव (कडग-तुडिय-थंभिय-भुयं, अंगय-कुंडल-मट्ठगंडकण्णपीढ-धारिं, विचित्तहत्थाभरणं, विचित्तमाला-मउलि-मउडं, कल्याणग-पवरवत्थपरिहिवं, कल्लाणग-पवर-मल्लाणुलेवणं, भासुर-बोंदि, पलंबं-वणमालधरं, दिव्वेणं वण्णेणं, दिव्वेणं गन्धेणं, दिव्वेणं रूवेणं, दिव्वेणं फासेणं, दिव्वेणं संघाएणं, दिव्वेणं संठाणेणं, दिव्वाए इड्डीए, दिव्वाए जुईए, दिव्वाए पभाए, दिव्वाए छायाएं, दिव्वाए अच्चीए, दिव्वेणं तेएणं, दिव्वाए लेसाए) दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं, पासाईयं दरिसणिज्जं अभिरूवं पडिरूवं दिव्व देवरूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता कामदेवस्स समणोवासयस्स पोसहसालं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता अंतलिक्ख-पडिवन्ने सखिंखिणियाइं पंचवण्णाई वत्थाई पवर-परिहिए कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी--हं भो! कामदेवा समणोवासया! धन्नेसि णं तुमं, देवाणुप्पिया! संपुण्णे, कयत्थे, कयलक्खणे, सुलद्धे णं तव देवाणुप्पिया! माणुस्सए जम्मजीवियफले, जस्स णं तव निग्गंथे पावयणे इमेयारूवा पडिवत्ती लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया। एवं खलु देवाणुप्पिया! सक्के, देविंदे, देव-राया जाव (वजपाणी, पुरंदरे, सयक्कऊ, सुहस्सक्खे, मघवं, पागसासणे, दाहिणड्डलोगाहिवई, बत्तीस-विमान-सय-सहस्साहिवई, ऐरावणवाहणे, सुरिंदे, अरयंबर-वत्थधरे, आलइय-मालमउडे, नव-हेम-चारू-चित्त-चंचलकुंडल-विलिहिजमाणगंडे, भासुरबोंदी, पलंब-वणमाले, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसए १. देखें सूत्र-संख्या १०६ । २. देखें सूत्र-संख्या ९७। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [१०३ विमाणे सभाए सुहम्माए) सक्कंसि सीहासणंसि चउरासीईए सामाणिय-साहस्सीणं जाव (तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं, चउण्हं लोगपालाणं, अट्ठण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं अणियाणं, सत्तण्ह अणियाहिवईण, चउण्हं चउरासीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं) अन्नेसिं च बहूणं देवाण य देवीण य मज्झगए एवमाइक्खइ, एवं भासइ, एवं पण्णवेइ, एवं परूवेइ--एवं खलु देवा! जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे चम्पाए नयरीए कामदेवे समणोवासए पोसह-सालाए पोसहिए बंभयारी जाव ( उम्मुक्क -मणि-सुवण्णे, ववगयमाला-वण्णग-विलेवणे, निक्खित्त-सत्थ-मुसले, एगे, अबीए) दव्भ-संथारोवगए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसंपजिताणं विहरड़। नो खलु से सक्का केणइ देवेण वा दाणवेण वा जाव (जक्खेण वा, रक्खसेण वा, किन्नरेण वा, किंपुरिसेण वा, महोरगेण वा) गंधव्वेण वा निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खेभित्तए वा विपरिणामित्तए वा। तए णं अहं सक्कस्स देविंदस्स देव-रण्णो एयमढं असद्दहमाणे, अपत्तियमाणे, अरोएमाणे इहं हव्वमागए। तं अहो णं, देवाणुप्पिया! इड्डी, जुई, जसो, बलं, वीरियं, पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते, अभिसमण्णागए। तं दिट्ठा णं देवाणुप्पिया! इड्डी जाव (जुई, जसो, बलं, वीरियं पुरिसक्कार-परक्कमे लद्धे, पत्ते) अभिसमण्णागए। तं खामेमि णं, देवाणुप्पिया! खमंतु मज्झ देवाणुप्पिया! खंतुमरहंति णं देवाणुप्पिया! नाइं भुजो करणयाए त्ति कटु पाय-वडिए, पंजलि-उडे एयमनॊ भुजो भुजो खामेइ, खामित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए। सर्परूपधारी देव ने जब देखा-श्रमणोपासक कामदेव निर्भय है, वह उसे निर्ग्रन्थ--प्रवचन से विचलित क्षुभित एवं विपरिणामित नहीं कर सका है तो श्रान्त, क्लान्त खिन्न होकर वह धीरे-धीरे पीछे हटा। पीछे हटकर पोषध-शाला से बाहर निकला। बाहर निकल कर देव-माया-जनित सर्प-रूप का त्याग किया। वैसा कर उसने उत्तम, दिव्य देव-रूप धारण किया। उस देव के वक्षस्थल पर हार सुशोभित हो रहा था। (वह अपनी भुजाओं पर कंकण तथा बाहुरक्षिका--भुजाओं को सुस्थिर बनाए रखने वाली आभरणात्मक पट्टी, अंगद--भुजबन्ध धारण किए था। उसके मृष्ट--केसर, कस्तूरी आदि से मंडित--चित्रित कपोलों पर कर्ण-भूषण, कुण्डल शोभित थे। वह विचित्र--विशिष्ट या अनेकविध हस्ताभरण-हाथों के आभूषण धारण किए था। उसके मस्तक पर तरह-तरह की मालाओं से युक्त मुकुट था। वह कल्याणकृत्--मांगलिक, अनुपहत या अखडित प्रवर-उत्तम पोशाक पहने था। वह मांगलिक तथा उत्तम मालाओं एवं अनुलेपन-चन्दन, केसर आदि के विलेपन से युक्त था। उसका शरीर देदीप्यमान था। सभी ऋतुओं के फूलों से बनी माला उसके गले से घटनों तक लटकती थी। उसने दिव्य-देवोचित वर्ण,गन्ध, रूप, स्पर्श, संघात--दैहिक गठन, संस्थानदैहिक अवस्थिति, ऋद्धि-विमान, वस्त्र, आभूषण आदि दैविक समृद्धि, द्युति-आभा अथवा युक्ति-इष्ट Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] [उपासकदशांगसूत्र परिवारादि योग, प्रभा, कान्ति, अर्चि--दीप्ति, तेज, लेश्या--आत्म-परिणति-तदनुरूप भामंडल से दसों दिशाओं को उद्योतित-प्रकाशयुक्त, प्रभासित--प्रभा या शोभा युक्त करते हुए, प्रसादित--प्रसाद या आह्लाद युक्त, दर्शनीय, अभिरूपमनोज्ञ-मन को अपने में रमा लेने वाला, प्रतिरूप--मन में बस जाने वाला दिव्य देवरूप धारण किया। वैसा कर,) श्रमणोपासक कामदेव की पोषधशाला में प्रविष्ट हुआ। प्रविष्ट होकर आकाश में अवस्थित हो छोटी-छोटी घण्टिकाओं से युक्त पांच' वर्गों के उत्तम वस्त्र धारण किए हुए वह श्रमणोपासक कामदेव से यों बोला--श्रमणोपासक कामदेव! देवानुप्रिय। तुम धन्य हो, पुण्यशाली हो, कृत-कृत्य हो, कृतलक्षण-शुभलक्षण वाले हो। देवानुप्रिय! तुम्हें निर्गन्थ-प्रवचन में ऐसी प्रतिपत्ति-विश्वास-आस्था सुलभ है, सुप्राप्त है, स्वायत्त है, निश्चय ही तुमने मनुष्य-जनम और जीवन का सुफल प्राप्त कर लिया। देवानुप्रिय! बात यों हुई-शक्र-शक्तिशाली, देवेन्द्र--देवों के परम ईश्वर-स्वामी, देवराजदेवों में सुशोभित, (वज्रपाणि-हाथ में वज्र धारण किए, पुरन्दर-पुर-असुरों के नगरविशेष के दारकविध्वंसक, शतक्रतु-पूर्वजन्म में कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार विशिष्ट अभिग्रहों के परिपालक, सहस्त्राक्ष-हजार आंखों वाले--अपने पांच सौ मन्त्रियों की अपेक्षा हजार आंखों वाले मघवा-मेघोंबादलों के नियन्ता, पाकशासन-पाक नामक शत्रु के नाशक, दक्षिणार्द्ध-लोकाधिपति-लोक के दक्षिण भाग के स्वामी, बत्तीस लाख विमानों के अधिपति, ऐरावत नामक हाथी पर सवारी करने वाले, सुरेन्द्र-देवताओं के प्रभु, आकाश की तरह निर्मल वस्त्रधारी, मालाओं से युक्त मुकुट धारण किए हुए, उज्जवल स्वर्ण के सुन्दर, चित्रित, चंचल-हिलते हुए कुंडलों से जिनके कपोल सुशोभित थे, देदीप्यमान शरीरधारी, लम्बी पुष्पमाला पहने हुए इन्द्र ने सौधर्म कल्प के अन्तर्गत सौधर्मावतंसक विमान में, सुधर्मा सभा में) इन्द्रासन पर स्थित होते हुए चौरासी हजार सामानिक देवों (तेतीस गुरूस्थानीय त्रायस्त्रिंश देवों, चार लोकपाल, परिवार सहित आठ अग्रमहिषियो-प्रमुख इद्राणियों, तीन परिषदों, सात अनीकों-सेनाओं, सात अनीकाधिपतियों--सेनापतियों, तीन लाख छत्तीस हजार अंगरक्षक देवों) तथा बहुत से अन्य देवों और देवियों के बीच यो आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त या प्ररूपित किया--कहा-- देवों! जम्बूद्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में, चंपा नगरी में श्रमणोपासक कामदेव पोषधशाला में पोषध स्वीकार किए, ब्रह्मचर्य का पालन करता हुआ (मणि-रत्न, सुवर्णमाला, वर्णक--सज्जा-हेतु मंडन-आलेखन एवं चन्दन केसर आदि के विलेपन का त्याग किए हुए, शस्त्र, दण्ड आदि से रहित, एकाकी, अद्वितीय-बिना किसी दूसरे को साथ लिए) कुश के बिछौने पर अवस्थित हुआ श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप उपासनारत है। कोई देव, दानव (यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, महोरग), गन्धर्व द्वारा निर्ग्रन्थ-प्रवचन से वह विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित नही किया जा सकता। शक्र, देवेन्द्र, देवराज के इस कथन में मुझे श्रद्धा, प्रतीति-विश्वास नहीं हुआ। वह मुझे अरूचिकर लगा। मैं शीघ्र यहां आया। देवानुप्रिय! जो ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरूषोचित पराक्रम १. श्वेत. पीत. रक्त. नील. कृष्ण। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव ] [ १०५ तुम्हें उपलब्ध- प्राप्त तथा अभिसमन्वागत-अधिगत है, वह सब मैंने देखा । देवानुप्रिय ! मैं तुमसे क्षमायाचना करता हूं । देवानुप्रिय ! मुझे क्षमा करो। देवानुप्रिय ! आप क्षमा करने में समर्थ हैं। मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूंगा यो कहकर पैरों में पड़कर, उसने हाथ जोड़कर बार-बार क्षमा-याचना की । क्षमायाचना कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर चला गया। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा पिशाच, हाथी तथा सर्प का रूप धारण करने के प्रसंग में 'विकुव्वइ'विक्रिया या विकुर्वणा करना - क्रिया का प्रयोग है जो उसकी देव - जन्मलभ्य वैक्रिय देह का सूचक है। इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है -- जैन-दर्शन में औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच प्रकार के शरीर माने गए हैं। वैक्रिय शरीर दो प्रकार का होता है-ओपपातिक और लब्धिप्रत्यय । औपपातिक वैक्रिय शरीर देव-योनी और नरक-योनि में जन्म से ही प्राप्त होता है । पूर्वसंचित कर्मों का ऐसा योग वहां होता है, जिसकी फल- निष्पत्ति इस रूप में जन्म-जात होती है । लब्धि - प्रत्यय वैक्रिय शरीर तपश्चरण आदि द्वारा प्राप्त लब्धि-विशेष से मिलता है । यह मनुष्य योनि एवं तिर्यञ्च योनि में होता 1 वैक्रिय शरीर में अस्थि, मज्जा, मांस, रक्त आदि अशुचि पदार्थ नहीं होते । एतद्वर्जित इष्ट, कान्त, मनोज, प्रिय एवं श्रेष्ठ पुद्गल देह के रूप में परिणत होते है, मृत्यु के बाद वैक्रिय- देह का शव नहीं बचता। उसके पुद्गल कपूर की तरह उड़ जाते हैं। जैसा कि वैक्रिय शब्द से प्रकट है - इस शरीर द्वारा विविध प्रकार की विक्रियाएं विशिष्ट क्रियाएं की जा सकती है, जैसे-एक रूप होकर अनेक रूप धारण करना, अनेक रूप होकर एक रूप धारण करना, छोटी देह को बड़ी बनाना, बड़ी को छोटी बनाना, पृथ्वी एवं आकाश में चलने योग्य विविध प्रकार के शरीर धारण करना, अदृश्य रूप बनाना इत्यादि । सौधर्म आदि देवलोकों के देव एक, अनेक, संख्यात, असंख्यात, स्व-सदृश, विसदृश सब प्रकार की विक्रियाएं या विकुर्वणाएं करने में सक्षम होते हैं। वे इन विकुर्वणाओं के अन्तर्गत एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक सब प्रकार के रूप धारण कर सकते हैं । प्रस्तुत प्रकरण में श्रमणोपासक कामदेव को कष्ट देने के लिये देव ने विभिन्न रूप धारण किए। यह उसके उत्तरवैक्रिय रूप थे, अर्थात् मूल वैक्रिय शरीर के आधार पर बनाए गए वैक्रिय शरीर थे। श्रमणोपासक कामदेव को पीड़ित करने के लिए देव ने क्यों इतने उपद्रव किए, इसका समाधान इसी सूत्र में है । वह देव मिथ्यादृष्टि था । मिथ्यात्वी होते हुए भी पूर्व जन्म में अपने द्वारा किए गए तपश्चरण से देव - योनि तो उसे प्राप्त हो सकी, पर मिथ्यात्व के कारण निर्ग्रन्थ-प्रवचन या जिनधर्म के प्रति उसमें जो अश्रद्धा थी, वह देव होने पर भी विद्यमान रही । इन्द्र के मुख कामदेव की प्रशंसा सुन कर तथा, उत्कट धर्मोपासना में कामदेव को तन्मय देख उसका विद्वेष भभक उठा, जिसका परिणाम कामदेव को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित करने के लिए क्रूर तथा उग्र कष्ट देने के रूप में Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [उपासकदशांगसूत्र प्रस्फुटित हुआ। पिशाचरूपधर देव द्वारा तेज तलवार से शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए, कामदेव अपनी उपासना से नहीं हटा। देव ने दुर्दान्त, विकराल हाथी का रूप धारण कर उसे आकाश में उछाला, दातों से झेला, पैरों से रौंदा। उसके बाद भयावह सर्प के रूप में उसे उत्पीडित किया। यह सब कैसे संभव हो सका? देह के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाने पर कामदेव इस योग्य कैसे रहा कि उसे आकाश में फेका जा सके, रौंदा जा सके, कुचला जा सके। यहां ऐसी बात है-वह मिथ्यात्वी देव कामदेव को घोर कष्ट देना चाहता था ताकि कामदेव अपना धर्म छोड़ दे। अथवा उसकी धार्मिक दृढता की परीक्षा करना चाहता था। उसे मारना नहीं चाहता था। वैक्रिय-लब्धिधारी देवों की यह विशेषता होती है, वे देह के पुद्गलों को जिस त्वरा से विच्छिन्न करते हैं --काट डालते हैं , तोड़-फोड़ कर देते हैं, उसी त्वरा से तत्काल उन्हें यथावत् संयोजित कर सकते हैं। यह सब इतनी शीघ्रता से होता है कि आक्रान्त व्यक्ति को घोर पीडा का तो अनुभव होता है, यह भी अनुभव होता है कि वह काट डाला गया है, पर देह के पुद्गलों की विच्छिन्न्ता या पृथक्ता की दशा अत्यन्त अल्पकालिक होती है। इसलिए स्थूल रूप में शरीर वैसा का वैसा प्रतीत होता है। कामदेव के साथ ऐसा ही घटित हुआ। कामदेव ने घोर कष्ट सहे, पर वह धर्म से विचलित नहीं हुआ। तब देव अपने मूल रूप में उपस्थित हुआ और उसने वह सब कहा, जिससे विद्वेषवश कामदेव को कष्ट देने हेतु वह दुष्प्रेरित हुआ था। वहां इन्द्र तथा उसके देव-परिवार के वर्णन में तीन परिषदें, आठ पटरानियों के परिवार सात सेनाएं आदि का उल्लेख है, जिनका विस्तार इस प्रकार है-- सौधर्म देवलोक के अधिपति शक्रेन्द्र की तीन परिषदें होती है--शमिता--आभ्यन्तर, चण्डामध्यम तथा जाता--बाह्य । आभ्यन्तर परिषद् में बारह हजार देव और सात सौ देवियां, मध्यम परिषद् में चौदह हजार देव और छह सौ देवियां तथा बाह्य परिषद् में सोलह हजार देव और पांच सौ देवियां होती हैं। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की स्थिति पांच पल्योपम, देवियों की स्थिति तीन पल्योपम, मध्यम परिषद् में देवों की स्थिति चार पल्योपम, देवियों की स्थिति दो पल्योपम तथा बाह्य परिषद् में देवों की स्थिति तीन पल्योपम, देवियों की स्थिति एक पल्योपम होती है। अग्रमहिषी-परिवार-प्रत्येक अग्रमहिषी-पटरानी के परिवार में पांच हजार देवियां होती है। यों इन्द्र केअन्तःपर में चालीस हजार देवियों का परिवार माना जाता है। सेनाएँ-हाथी, घोड़े, बैल, रथ तथा पैदल-यें पाँच सेनाएँ लड़ने हेतु होती हैं तथा दो सेनाएं-- गन्धर्वानीक-गाने-बजाने वालों का दल और नाट्यानीक-नाटक करने वालों का दल-आमोद-प्रमोदपूर्वक तदर्थ उत्साह बढ़ाने हेतु होती हैं। इस सूत्र में शतक्रतु तथा सहस्त्राक्ष आदि इन्द्र के कुछ ऐसे नाम आए हैं, जो वैदिक परम्परा में भी विशेष प्रसिद्ध हैं । जैनपरम्परा के अनुसार इन नामों का कारण एवं इनकी सार्थकता पहले अर्थ में बतलायी जा चुकी हैं । वैदिक परम्परा के अनुसार इन नामों का कारण दूसरा है । वह इस प्रकार है: Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] - [१०७ शतक्रतु-ऋतु का अर्थ यज्ञ है। सौ यज्ञ सम्पूर्ण रूप में सम्पन्न कर लेने पर इन्द्र-पद प्राप्त होता है, वैदिक परम्परा में ऐसी मान्यता है। अतः शतक्रतु सौ यज्ञ पूरे कर इन्द्र पद पाने के अर्थ में प्रचलित सहस्त्रांक्ष--इसका शाब्दिक अर्थ हजार नेत्रवाला है। इन्द्र का यह नाम पड़ने के पीछे एक पौराणिक कथा बहुत प्रसिद्ध है। ब्रह्मवैवर्त पुराण में उल्लेख है-इन्द्र एक बार मन्दाकिनी के तट पर स्नान करने गया। वहाँ उसने गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या को नहाते देखा। इन्द्र की बुद्धि कामावेश से भ्रष्ट हो गई। उसने देव-माया से गौतम ऋषि का रूप बना लिया और अहल्या का शील-भंग किया। इसी बीच गौतम वहाँ पहुंच गए। वे इन्द्र पर अत्यन्त क्रुद्ध हुए, उसे फटकारते हुए कहने लगे-तुम तो देवताओं में श्रेष्ठ समझे जाते हो, ज्ञानी कहे जाते हो। पर, वास्तव में तुम नीच, अधम, पतित और पापी हो, योनिलम्पट हो। इन्द्र की निन्दनीय योनि-लम्पटता जगत् के समक्ष प्रकट रहे, इसलिए गौतम ने उसकी देह पर सहस्त्र योनियां बन जाने का शाप दे डाला। तत्काल इन्द्र की देह पर हजार योनियां उद्भूत हो गई। इन्द्र घबरा गया, ऋषि के चरणों में गिर पड़ा। बहुत अनुनय-विनय करने पर ऋषि ने इन्द्र से कहा-पूरे एक वर्ष तक तुम्हें इस घृणित रूप का कष्ट झेलना ही होगा। तुम प्रतिक्षण योनि की दुर्गन्ध में रहोगे। तदनन्तर सूर्य की आराधना से ये सहस्त्र योनियां नेत्र रूप में परिणत हो जायेंगी-तुम सहस्त्राक्ष-हजार नेत्रों वाले बन जाओगे। आगे चल कर वैसा ही हुआ, एक वर्ष तक वैसा जघन्य जीवन बिताने के बाद इन्द्र सूर्य की आराधना से सहस्त्राक्ष बन गया। ११२. तए णं से कामदेवे समणोवासए निरूवसग्गं इइ कट्टु पडिमं पारेइ। तब श्रमणोपासक कामदेव ने यह जानकर कि अब उपसर्ग-विघ्न नहीं रहा है, अपनी प्रतिमा का पारण--समापन किया। भगवान् महावीर का पदार्पण : कामदेव द्वारा वन्दन-नमन ११३. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव (जेणेव चंपा नयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे) विहरइ। ___ उस काल, उस समय श्रमण भगवान् महावीर (जहां चंपा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे, यथोचित स्थान ग्रहण किया, संयम एवं तप से) आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। ११४. तए णं से कामदेवे समणोवासए इमीसे कहाए लढे समाणे एवं खलु समणे भगवं महावीरे जाव' विहरइ। सेयं खलु मम समणं भगवं महावीरं वंदित्ता, नमंसित्ता तओ पडिणियत्तस्स पोसहं पारित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता सुद्धप्पावेसाइं वत्थाई जाव(पवर-परिहिए) अप्पमहग्धा-जाव(भरणालंकिय-सरीरे सकोरेण्ट-मल-दामेणं छत्तेणं १. ब्रह्मवैवर्त पुराण ४.४.७. १९-३२ २. देखें सूत्र-संख्या ११३ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [उपासकदशांगसूत्र धरिजमाणेणं) मणुस्स-वग्गुरा-परिक्खित्ते सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता चम्पं नयरिं मझं-मज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव पुण्णभद्दे चेइए जहा संखो जाव (जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता तिविहाए पन्जुवासणाए) पज्जुवासइ। श्रमणोपासक कामदेव ने जब यह सुना कि भगवान् महावीर पधारे हैं, तो सोचा, मेरे लिए यह श्रेयस्कर है, मैं श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार कर, वापस लौट कर पोषध का पारण-- समापन करूं। यों सोच कर उसने शुद्ध तथा सभा योग्य मांगलिक वस्त्र भली-भाँति पहने, (थोड़े से बहुमूल्य आभरणों से शरीर को अलंकृत किया, कुरंट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किए हुए पुरूषसमूह से घिरा हुआ) अपने घर से निकला। निकल कर चंपा नगरी के बीचे से गुजरा, जहाँ पूर्णभद्र चैत्य था, (जहां श्रमण भगवान् महावीर थे,) शंख श्रावक की तरह आया। आकर (तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर त्रिविध-कायिक, वाचिक एवं मानसिक) पर्युपासना की। ११५. तए णं समणे भगवं महावीरे कामदेवस्स समणोवासयस्स तीसे य जाव' धम्मकहा समत्ता। श्रमण भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कामदेव तथा परिषद् को धर्म-देशना दी। भगवान द्वारा कामदेव की वर्धापना ११६. कामदेवा! इ समणे भगवं महावीरे कामदेवं समणोवासयं एवं वयासी-से नूणं कामदेवा! तुब्भं पुव्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतिए पाउब्भूए। तए णं से देवे एगं महं दिव्वं पिसाय-रूवं विउव्वइ, विउव्वित्ता आसुरत्ते एगं महं नीलुप्पल जाव (गवल-गुलिय-अयसि-कुसुम-प्पगासं, खुरधारं ) असिं गहाय तुमं एवं वयासी-हं भो कामदेवा! जाव जीवियाओ ववरो-विजसि। तं तुमं तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरसि। एवं वण्णगरहिया तिण्णि वि उवसग्गा तहेव पडिउच्चारेयव्वा जाव देवो पडिगओ। से नूणं कामदेवा! अढे समढे? हंता, अत्थि। श्रमण भगवान् महावीर ने कामदेव से कहा--कामदेव! आधी रात के समय एक देव १. देखें सूत्र-संख्या ११ २. देखें सूत्र-संख्या १०७ ३. देखें सूत्र-संख्या ९८। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] [१०९ तुम्हारे सामने प्रकट हुआ था। उस देव ने एक विकराल पिशाच का रूप धारण किया। वैसा कर, अत्यन्त क्रुद्ध हो, उसने (नीले कमल, भैंसे के सींग तथा अलसी के फूल जैसी गहरी नीली तेज धार वाली) तलवार निकाल कर तुम से कहा-कामदेव! यदि तम अपने शील आदि' व्रत भग्न नहीं करोगे तो जीवन से पृथक् कर दिए जाओगे। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी तुम निर्भय भाव से उपासनारत रहे। तीनों उपसर्ग विस्तृत वर्णन सहित, देव के वापस लौट जाने तक पूर्वोक्त रूप में यहाँ कह लेने चाहिए। भगवान् महावीर ने कहा-कामदेव क्या यह ठीक है? कामदेव बोला-भगवन् ! ऐसा ही हुआ। ११७. अज्जो इ समणे भगवं महावीरे बहवे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतेत्ता एवं वयासी-जइ ताव, अजो! समणोवासगा, गिहिणोगिहमज्झावसंता दिव्यमाणुस-तिरिक्ख-जोणिए उवसग्गे सम्मं सहति जाव (खमंति, तितिक्खंति) अहियासेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसंग-गणि-पिङग अहिज्जमाणेहिं दिव्वमाणुस-तिरिक्ख-जोणिए (उक्सग्गे) सम्मं सहित्तए जाब (खमित्तए, तितिक्खितए) अहियासित्तए। __ भगवान् महावीर ने बहुत से श्रमणो और श्रमणियों को संबोधित कर कहा--आर्यो! यदि श्रमणोपासक 'गृही घर में रहते हुए भी देवकृत, मनुष्यकृत, तिर्यञ्चकृत-पशु पक्षीकृत उपसर्गों को भली भाँति सहन करते है (क्षमा एवं तितिक्षा भाव से झेलते हैं) तो आर्यों! द्वादशांग-रूप गणिपिटक काआचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थों द्वारा देवकृत, मनुष्यकृत तथा तिर्यञ्चकृत उपसर्गों को सहन करना (क्षमा एवं तितिक्षा-भाव से झेलना) शक्य है ही। ११८. तओ ते बहवे समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्य भगवओ महावीरस्स तह त्ति एयमट्ठ विणएणं पडिसुणेति। श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन उन बहु-संख्यक साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है' भगवन् ! यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया। ११९. तए णं कामदेवे समणोवासए हट्ठ जाव' समणं भगवं महावीरं पसिणाई पुच्छइ, अट्ठमादियइ। समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव दिसं पडिगए। श्रमणोपासक कामदेव अत्यन्त प्रसन्न हुआ, उसने श्रमण भगवान् महावीर से प्रश्न पूछे अर्थ-- समाधान प्राप्त किया। श्रमण भगवान् महावीर को तीन बार वंदन-नमस्कार कर, जिस दिशा से वह १. देखें सूत्र-संख्या १२। . Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ ११०] [उपासकदशांगसूत्र आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। १२०. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ चम्पाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। श्रमण भगवान् महावीर ने एक दिन चम्पा से प्रस्थान किया। प्रस्थान कर वे अन्य जनपदों में विहार कर गए। कामदेव : स्वर्गारोहण १२१. तए णं कामदेवे समणोवासए पढम उवासग-पडिमं उवसंपजित्ताणं विहरइ। तत्पश्चात् श्रमणोपासक कामदेव ने पहली उपासकप्रतिमा की आराधना स्वीकार की। १२२. तए णं से कामदेवे समणोवासए बहूहिं जाव (सील-व्वय-गुण-वेरमणपच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं) भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासगपरियागं पाउणित्ता, एक्कारस उवासग-पडिमाओ सम्म कारणं फासेत्ता, मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सर्द्धि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइयपडिक्कंते, समाहिपत्ते, कालमासे कालं किच्चा, सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरस्थिमेणं अरूणाभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने। तत्थ णं अत्थेगइयाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। कामदेवस्स वि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता। __ श्रमणोपासक कामदेव ने अणुव्रत (गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास) द्वारा आत्मा को भावित किया-आत्मा का परिष्कार और परिमार्जन किया। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक पर्याय-श्रावकधर्म का पालन किया। ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं का भली-भाँति अनुसरण किया। एक मास की संलेखना और साठ भोजन-एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना, प्रतिक्रमण कर मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। देह-त्याग कर वह सौधर्म देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान-कोण में स्थित अरूणाभ विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ वहां अनेक देवों की आयु चार पल्योपम की होती है। कामदेव की आयु भी देवरूप में चार पल्योपम की बतलाई गई है। १२३. से णं भंते! कामदेवे ताओ देव-लोगाओ आउ-क्खएणं भव-क्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता, कहिं गमिहिइ, कहिं उववजिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो ॥सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं बीयं अज्झयणं समत्तं ॥ १. एवं खलु जम्बू! समणेण जाव सम्पत्तेणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्तेत्ति बेमि। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्ययन : गाथापति कामदेव] . [१११ गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भन्ते! कामदेव उस देव-लोक से आयु, भव एवं स्थिति के क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहां जायगा? कहां उत्पन्न होगा? भगवान ने कहा--गौतम! कामदेव महाविदेह-क्षेत्र में सिद्ध होगा--मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥ निक्षेप॥ ॥ सातवें अंग उपासक दशा का द्वितीय अध्ययन समाप्त ॥ निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू! श्रमण भगवान महावीर ने उपासकदशा के द्वितीय अध्ययन का यही अर्थभाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा अध्ययन सार-संक्षेप सहस्त्राब्दियों से वाराणसी भारत की एक समृद्ध और सुप्रसिद्ध नगरी रही है। आज भी शिक्षा की दृष्टि से यह अन्तर्राष्ट्रीय महत्त्व का स्थान है। भगवान् महावीर के समय की बात है, वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। जितशत्रु का राज्य काफी विस्तृत था। सम्बद्ध वर्णनों से ऐसा प्रतीत होता है, चम्पा आदि उस समय के बड़े-बड़े नगर उसके राज्य में थे। उन दिनों नगरों के उपकण्ठ में चैत्य हुआ करते थे, जहां नगर में आने वाले आचार्य, साधु-सन्यासी आदि रूकते थे। वाराणसी में कोष्ठक नामक चैत्य था। आज भी नगरों के बाहर ऐसे बगीचे बगीचियां, देवस्थान, विश्रामस्थान आदि होते ही हैं। वाराणसी में चुलनीपिता नामक एक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम श्यामा था। चुलनीपिता अत्यन्त समृद्ध, धन्य-धान्य-सम्पन्न गृहस्थ था, उसकी सम्पत्ति आनन्द तथा कामदेव से भी कहीं अधिक थी। आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं उसके निधान में थी। ऐसा प्रतीत होता है, उन दिनों बड़े समृद्ध जन कुछ ऐसी स्थायी पूंजी रखते थे, जिसका वे किसी कार्य में उपयोग नहीं करते थे। प्रतिकूल समय में काम लेने के लिए वह एक सुरक्षित निधि के रूप में होती थी। व्यापार-व्यवसाय में सम्पत्ति जहां खूब बढ़ सकती है, वहां कम भी हो सकती है, सारी की सारी समाप्त भी हो सकती है। इसलिए उनकी दृष्टि में यह आवश्यक था कि कुछ ऐसी पूंजी होनी ही चाहिए, जो अलग रखीं रहे, समय पर काम आए। यह अच्छा विभाजन उन दिनों अपने पूंजी के उपयोग और विनियोग में था। चुलनीपिता ने आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगा रखी थीं। उसकी आठ करोड़ स्वर्ण-मुदाएं घर के उपकरण, साज-सामान तथा वैभव में प्रयुक्त थीं। एक ऐसा सन्तुलित जीवन उस समय के समृद्ध जनों का था, वे जिस अनुपात में अपनी सम्पत्ति व्यापार में लगाते, सुरक्षित रखते, उसी अनुपात में घर की शान, गरिमा, प्रभाव तथा सुविधा हेतु भी लगाते थे। उन दिनों देश की आबादी कम थी, भूमि बहुत थी, इसलिए भारत में गो-पालन का कार्य बड़े व्यापक रूप में प्रचलित था। आनन्द और कामदेव के चार और छह गोकुल होने का वर्णन आया है। वहां चुलनीपिता के दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे। इस साम्पत्तिक विस्तार और चल-अचल धन से यह स्पष्ट है कि चुलनीपिता उस समय का एक अत्यन्त वैभवशाली पुरूष था। पुराने साहित्य को जब पढ़ते हैं तो एक बात सामने आती है। अनेक पुरूष बहुत वैभव और सम्पदा के स्वामी होते थे, सब तरह का भौतिक या लौकिक सुख उन्हें प्राप्त था, पर वे सुखों के उन्माद में बह नहीं जाते थे। वे समय पर उस जीवन के सम्बन्ध में भी सोचते थे; जो धन, सम्पत्ति, वैभव, भोग तथा विलास से पृथक् है। पर, है वास्तविक और उपादेय। भगवान् महावीर के आगमन पर जैसा आनन्द और कामदेव को अपने जीवन को नई दिशा Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [११३ देने का प्रतिबोध मिला, चुलनीपिता के साथ भी ऐसा ही घटित हुआ। भगवान् महावीर जब अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी पधारे तो चुलनीपिता ने भी भगवान् की धर्मदेशना सुनी, वह अन्तःप्रेरित जीवन को व्रतों के सांचे में ढाला-श्रावक-धर्म स्वीकार किया। वह अपने जीवन को उत्तरोत्तर उपासना में लगाए रखने में प्रयत्नशील रहने लगा। एक दिन की बात है, वह ब्रह्मचर्य एवं पोषध-व्रत स्वीकार किए, पोषधशाला में उपासनारत था, आधी रात का समय था। उपसर्ग करने के लिए एक देव प्रकट हुआ। हाथ में तेज तलवार लिए उसने चुलनीपिता को कहा-तुम व्रतों को छोड़ दो, नहीं तो मैं तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से उठा लाऊंगा। तुम्हारे ही सामने उसको काटकर तीन टुकड़े कर डालूंगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में उन्हें खौलाऊंगा और तुम्हारे बेटे का उबलता हुआ मांस और रक्त तुम्हारे शरीर पर छिड़कूगा। चुलनीपिता के समक्ष एक भीषण दृश्य था। पुत्र की हत्या की विभीषिका थी। सांसारिक प्रियजनों में पुत्र का अपना असाधारण स्थान है। पुत्र के प्रति पिता के मन में कितनी ममता होती है, यह किसी से छिपा नहीं है। भारतीय साहित्य में तो यहाँ तक उल्लेख है-'सर्वेभ्यो जयमन्विच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराजयम्' अर्थात् पिता यह कामना करता है, मेरा पुत्र इतनी उन्नति करे, इतना आगे बढ़ जाय कि मुझे वह पराजय दे सकें। उसी प्रकार गुरू भी यह कामना करता है कि मेरा शिष्य इतना योग्य हो जाय कि मुझे वह पराभूत कर सके। इस परिपार्श्व में जब हम सोचते हैं तो चुलनीपिता के सामने एक हृदय-द्रावक विभीषिका थी, पर उसने हृदय या भावुकता को विवेक पर हावी नहीं होने दिया, अपनी उपासना में अविचल भाव से लगा रहा। देव का क्रोध उबल पड़ा। उसने जैसा कहा था, देवमाया से क्षण भर में वैसा ही दृश्य उपस्थित कर दिया। उसी के बेटे का उबलता मांस और रक्त उसकी देह पर छिड़का। बहुत भयानक और साथ ही साथ बीभत्स कर्म यह था। पत्थर का हृदय भी फट जाय, पर चुलनीपिता अडिग रहा। देव और विकराल हो गया। उसने फिर धमकी दी-मैंने जैसा तुम्हारे बड़े बेटे के साथ किया है, वैसा तुम्हारे मंझेले बेटे के साथ भी करता हूं, मान जाओं, आराधना से हट जाओ! पर, चुलनीपिता फिर भी घबराया नहीं। तब देव ने बड़े बेटे की तरह मंझले बेटे के साथ भी वैसा ही किया। देव ने तीसरी बार फिर चुलनीपिता को धमकी दी--तुम्हारे दो बेटे समाप्त किए जा चुके हैं, अब छोटे की बारी है। उसकी भी यही हालत होने वाली है। अब भी मान जाओ। पर, चुलनी-पिता अविचल रहा। देव ने छोटे बेटे का भी काम तमाम कर दिया और वैसा ही क्रूर और नृशंस व्यवहार किया। चुलनीपिता उपासना में इतना रम गया था कि हृदय की दुर्बलताएं वह काफी हद तक जीत चुका था। इसलिए, देव का यह नृशंस कर्म उसे अपने पथ से डिगा नहीं सका। जब देव ने देखा कि तीनों पुत्रों की नृशंस हत्या के बावजूद श्रमणोपासक चुलनीपिता निश्चल भाव से धर्मोपासना में लगा है तो उसने एक और अत्यन्त भीषण उपाय सोचा। उसने धमकी भरे शब्दों में उससे कहा--तुम यों नहीं मानोगे, अब तुम्हारी माता भद्रा सार्थवाही को यहाँ लाता हूँ, जो तुम्हारे लिए देव और गुरू की तरह पूजनीय है, जिसने तुम्हारे लालन-पालन में अनेक कष्ट झेले हैं, जो परम Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४] [उपासकदशांगसूत्र धार्मिक है । मैं तुम्हारे सामने इस तेज तलवार से काटकर उसके तीन टुकड़े कर डालूंगा। जैसे तुम्हारे पुत्रों को उबलते पानी की कढ़ाही में खौलाया, उसे भी खौलाऊंगा तथा उसी तरह उसके उबलते हुए मांस और रक्त से तुम्हारा शरीर छीटूंगा। अपने तीनों बेटों की नृशंस हत्या के समय जिसका हृदय जरा भी विचलित नहीं हुआ, अत्यन्त दृढता और तन्मयता के साथ धर्म-ध्यान में लगा रहा, जब उसके समक्ष उसकी श्रद्धेया और ममतामयी माता की हत्या का प्रश्न आया, उसके धीरज का बांध टूट गया। उसे मन ही मन लगा, यह दुष्ट मेरी आंखों के देखते ऐसा नीच कार्य करेगा। ऐसा कभी नहीं हो सकता। मैं अभी इस दुष्ट को पकड़ता हूं। यों क्रुद्ध होकर चुलनीपिता उसे पकड़ने को उठा, हाथ फैलाए। वह तो देव का षड्यंत्र था। वह देव आकाश में अन्तर्धान हो गया और चुलनीपिता के हाथों में पोषधशाला का खंभा आ गया, जो उसके सामने था। चुलनीपिता हक्का-बक्का रह गया। वह जोर जोर से चिल्लाने लगा। भद्रा सार्थवाही ने जब यह शोर सुना तो वह झट वहाँ आई और अपने पुत्र से बोली--क्या हुआ, ऐसा क्यों करते हो? चुलनीपिता ने वह सारी घटना बतलाई, जो घटित हुई थी। उसकी माता ने कहा--बेटा! यह देव द्वारा किया गया उपसर्ग था, यह सारी देवमाया थी। सब सुरक्षित हैं, किसी की हत्या नहीं हुई। क्रोध करके तुमने अपना व्रत तोड़ दिया। तुमसे यह भूल हो गई, तुम्हें इसके लिए प्रायश्चित करना होगा, जिससे तुम शुद्ध हो सको। चुलनीपिता ने मां का कथन शिरोधार्य किया। प्रायश्चित स्वीकार किया। मानव-मन बड़ा दुर्बल है। उपासक को क्षण-क्षण सावधान रहना अपेक्षित है। थोड़ी सी सावधानी टूटते ही हृदय में दुर्बलता उभर आती है। उपासक अपने मार्ग से चलित हो जाता है। किसी से भूल होना असंभव नही है, पर जब भूल मालूम हो जाय तो व्यक्ति को तत्क्षण जागरूक हो जाना चाहिए, उस भूल के लिए आन्तरिक खेद अनुभव करना चाहिए। पुनः वैसा न हो, इसके लिए संकल्पबद्ध होना चाहिए। उक्त घटना इन्हीं सब बातों पर प्रकाश डालती है। अस्तु। चुलनीपिता धर्म की उपासना में उत्तरोत्तर अग्रसर होता गया। उसने व्रताराधना से आत्मा को भावित करते हुए बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक प्रतिमाओं की सम्यक् आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर, समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरूणप्रभा विमान में वह देव रूप में उत्पन्न हुआ। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन चुलनीपिता १२४. उक्खेवो तइयस्स अज्झयणस्स एवं खलु, जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी। कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया। उपक्षेप-उपोद्घातपूर्वक तृतीय अध्ययन का प्रारम्भ यों है : आर्य-सुधर्मा ने कहा-जम्बू! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, वाराणसी नामक नगरी थी। कोष्ठक नामक चैत्य था, वहां के राजा का नाम जितशत्र था। श्रमणोपासक चुलनीपिता १२५. तथ्य णं वाणारसीए नयरीए चुलणीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्ढे, जाव अपरिभूए। सामा भारिया। अट्ठ हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, अट्ठ वुढिपउत्ताओ, अट्ठ पवित्थर-पउत्ताओ, अट्ठ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं। जहा आणंदो राईसर जाव सव्व-कज-वड्ढावए यावि होत्था। सामी समोसढे। परिसा निग्गया। चुलणीपिया वि, जहा आणंदो तहा निग्गओ। तहेव गिहि-धम्म पडिवज्जइ। गोयम-पुच्छा। तहेव सेसं जहा कामदेवस्स-जाव' पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णतिं उवसंपजित्ताणं विहरइ। __वाराणसी नगरी में चुलनीपिता नामक गाथापति निवास करता था। वह अत्यन्त समृद्ध एवं प्रभावशाली था। उसकी पत्नी का नाम श्यामा था। आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूंजी के रूप में उसके खजाने में थी, आठ करोड स्वर्ण मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं तथा आठ करोड़ स्वर्णमुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके आठ १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं दोच्चस्स अज्झयणस्स अयमद्धे पण्णत्ते तच्चस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अटे पण्णते? , २. आर्य सधर्मा से जम्ब ने पछा-सिद्धिप्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के द्वितीय अध्ययन का यदि यह अर्थ आशय प्रतिपादित किया, तो भगवन्! उन्होने तृतीय अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया? (कृपया कहें) ३. देखें सूत्र-संख्या ३ ४. देखें सूत्र-संख्या ५ ५. देखें सूत्र-संख्या ९२ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [उपासकदशांगसूत्र गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गाएं थीं। गाथापति आनन्द की तरह वह राजा, एश्वर्यशाली पुरूष आदि विशिष्ट जनों के सभी प्रकार के कार्यों का सत्परामर्श आदि द्वारा वर्धापक-आगे बढ़ाने वाला था। भगवान महावीर पधारे - समवसरण हुआ। भगवान् की धर्म-देशना सुनने परिषद् जुड़ी। आनन्द की तरह चुलनीपिता भी घर से निकला - भगवान की सेवा में आया। आनन्द की तरह उसने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया। गौतम ने जैसे आनन्द के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न किए थे, उसी प्रकार चुलनीपिता के भावी जीवन के सम्बन्ध में भी किए। भगवान् ने समाधान दिया। आगे की घटना गाथापति कामदेव की तरह है। चुलनीपिता पोषधशाला के ब्रह्मचर्य एवं पोषध स्वीकार कर, श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। उपसर्गकारी देव : प्रादुर्भाव १२६. तए णं तस्स चुलनीपियस्स समणोवासयस्स पुव्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भूए। __ आधी रात के समय श्रमणोपासक चुलनीपिता के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। पुत्र-वध की धमकी - १२७. तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो चुलणीपिया! समणोवासया! जहा कामदेवो जावन भंजेसि, तो ते अहं अज जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि घाएत्ता तओ मंससोल्ले करेमि, करेत्ता आदाण-भरियसि कडाहयंसि अद्दहेमि अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। उस देव ने एक बड़ी नीली तेज धार वाली तलवार निकाल कर जैसे पिशाच रूप धारी देव ने कामदेव से कहा था, वैसे ही श्रमणोपासक चुलनीपिता को कहा--श्रमणोपासक चुलनीपिता! व्रतों से हट जाओ। यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं आज तुम्हारे बड़े पुत्र को घर से निकाल लाऊंगा। निकाल कर तुम्हारे आगे उसे मार डालूंगा। मारकर उसके तीन मांस-खंड करूंगा, उबलते आद्रहणपानी या तैल से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा। उसके मांस और रक्त में तुम्हारे शरीर को सींचूगा-- छीटूंगा। जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो १. देखें सूत्र-संख्या ११६। २. देखें सूत्र-संख्या १०७। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [११७ बैठोगे। चुलनीपिता की निर्भीकता १२८. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ। . उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भय भाव से धर्म-ध्यान में स्थित रहा। १२९. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जावपासइ पासित्ता दोच्चंपि तच्चपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! तं चेव भणइ, सो जाव' विहरइ। जब उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा, तो उसने उससे दूसरी बार और फिर तीसरी बार वैसा ही कहा। पर, चुलनीपिता पूर्ववत् निर्भीकता के साथ धर्म-ध्यान में स्थित रहा। बड़े पुत्र की हत्या . १३०. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता आसुरत्ते ४ चुलणीपियस्स समणोवासयस्स जेटुं पुत्तं गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता अग्गओ घाएइ, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेता चुलणीपियस्स समणोवासयस्स गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ। देव ने चुलनीपिता को इस प्रकार निर्भय देखा तो वह अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। वह चुलनीपिता के बड़े पुत्र को उसके घर से उठा लाया और उसके सामने उसे मार डाला। मारकर उसके तीन मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया। उसके मांस और रक्त से चुलनीपिता के शरीर को सींचा-छींटा। १३१. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तं उज्जलं जाव' अहियासेह चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। . मंझले व छोटे पुत्र की हत्या १३२. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव पासइ, पासित्ता १. देखें सूत्र-संख्या ९८। २. देखें सूत्र-संख्या ९७। ३. देखें सूत्र-संख्या ९७। ४. देखें सूत्र-संख्या ९७। ५. देखें सूत्र-संख्या १०६ । ६. देखें सूत्र-संख्या ९७। Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८] [उपासकदशांगसूत्र दोच्चंपि तच्चपि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी - हं भो चुलणीपिया समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया! जाव' न भंजेसी, तो ते अहं अज मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि जहा जेटुं पुत्तं तहेव भणइ, तहेव करेइ। एवं तच्चपि कणीयसं जाव अहियासेइ। देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को जब यों निर्भीक देखा तो उसने दूसरी-तीसरी बार कहामौत को चाहनेवाले चुलनीपिता! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगे, तो मैं तुम्हारे मंझले पुत्र को घर से उठा लाऊंगा और तुम्हारे सामने तुम्हारे बड़े बेटे की तरह उसकी भी हत्या कर डालूंगा। इस पर भी चुलनीपिता जब अविचल रहा तो देव ने वैसा ही किया। उसने तीसरी बार फिर छोटे लड़के के सम्बन्ध में वैसा ही करने को कहा। चुलनीपिता नहीं घबराया। देव ने छोटे लड़के के साथ भी वैसा ही किया। चुलनीपिता ने वह तीव्र वेदना तितिक्षापूर्वक सहन की। मातृ वध की धमकी १३३. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जावपासइ, पासित्ता चउत्थं पि चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! जइ णं तुमं जावन भंजेसि, तओ अहं अज्ज जा इमा तव माया भद्दा सत्थवाही देवयगुरूजणणी, दुक्करदुक्करकारिया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तब अग्गओ घाएमि, घाएत्ता तओ मंससोल्लए करेमि, करेत्ता आदाणभरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। देव ने जब श्रमणोपासक चुलनीपिता का इस प्रकार निर्भय देखा तो उसने चौथी बार उससे कहा-मौत को चाहने वाले चुलनीपिता! यदि तुम अपने व्रत नहीं तोड़ोगें तो मैं तुम्हारे लिए देव और गुरू सदृश पूजनीय, तुम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली अथवा अति कठिन धर्म-क्रियाएं करने वाली तुम्हारी माता भद्रा सार्थवाही को घर से यहाँ ले आऊंगा। लाकर तुम्हारे सामने उसकी हत्या करूंगा, उसके तीन मांस-खंड करूंगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा। उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूंगा-छींटूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में श्रमणोपासक चुलनीपिता की माता भद्रा सार्थवाही का एक विशेषण देव-गुरू१. देखें सूत्र-संख्या १०७। २. देखें सूत्र-संख्या ९७। ३. देखें सूत्र-संख्या १०७। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] [११९ जननी आया है, जो भारतीय आचार-परम्परा में माता के प्रति रहे सम्मान, आदर और श्रद्धा का द्योतक है। माता का सन्तति पर निश्चय ही अपनी सेवाओं का एक ऐसा ऋण होता हैं, जिसे किसी भी तरह उतारा जाना सम्भव नहीं है। इसलिए यहां माता की देवतुल्य पुजनीयता एवं सम्माननीयता की ओर संकेत है। डॉ. रूडोल्फ हॉर्नले ने एक पुरानी व्याख्या के आधार पर देव-गुरू का अर्थ देवताओं के गुरू-बृहस्पति किया है। यों उनके अनुसार माता बृहस्पति के समान पूजनीय है। ___ भारत की सभी परम्पराओं के साहित्य में माता का असाधारण महत्त्व स्वीकार किया गया हैं। 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' के अनुसार माता और मातृभूमि को स्वर्ग से भी बढ़कर माना है। मनु ने तो माता का बहुत अधिक गौरव स्वीकार किया है। उन्होंने माता को पिता से हजार गुना अधिक महत्त्व दिया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लेख हैं, अध्ययन सम्पन्न कराने के पश्चात् आचार्य जब शिष्य को भावी जीवन के लिए उपदेश करता है, तो वहाँ वह उसे विशेष रूप से कहता है, तुम अपनी माता को देवता के तुल्य समझना, पिता को देवता के तुल्य समझना, आचार्य को देवता के तुल्य समझना, अतिथि को देवता के तुल्य समझना, अनवद्य-अनिंद्य या निर्दोष कर्म करना, इतर-निंद्य या सदोष कर्म मत करना, गुरूजनों द्वारा सेवित शुभ आचरण या उत्तम चरित्र का पालन करना। जैन-साहित्य और बौद्ध-साहित्य में भी माता का बहुत उच्च स्थान माना गया है। यहाँ प्रयुक्त इस विशेषण में भारतीय चिन्तनधारा के इस पक्ष की स्पष्ट झलक है। १३४. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुलनीपिता निर्भयता से धर्मध्यान में स्थित रहा। १३५. तए णं से देवे चुलणीपियं समणोवासयं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता चुलणीपियं समणोवासयं दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! तहेव जाव (अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविजसि। १. The Uvasagadasao Lecture III Page 94 उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता। सहस्त्रं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते॥ ___ -मनुस्मृति २. १४५ ३. मातृदेवो भव। पितृदेवो भव । आयार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि, तानि सेवितव्यानि, नो इतराणि । यान्यस्माकं सुचरितानि, तानि त्वयोपास्यानि। __-तैत्तिरीयोपनिषद् वल्ली १. अनुवाक् ११.२ ४. देखें सूत्र-संख्या ९८। ५. देखें सूत्र-संख्या ९७। २. Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२०] [उपासकदशांगसूत्र उस देव ने श्रमणोपासक चुलनीपिता को निर्भय देखा तो दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा-श्रमणोपासक चुलनीपिता! तुम (आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे। चुलनीपिता का क्षोभः कोलाहल १३६. तए णं तस्स चुलणीपियस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे उज्झथिए ५, अहो णं इमे पुरिसे अणारिए, अणारियबुद्धी, अणारियाई, पावाइं कम्माइं समायरइ, जेणं ममं जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएइ, घाएत्ता जहा कयं तहा चिंतेइ जाव (तओ मंससोल्लए करेइ, करेत्ता आदाणभरियसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्देहत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ जेणं ममं मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ जाव (नीणेइ, नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएइ, घाएत्ता तओ मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अहहेत्ता) ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव' आयंचइ, जा वि य णं इमा ममं माया भद्दा सत्थवाही देवय-गुरू-जणणी, दुक्करदुक्कर-कारिया तं पि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता मम अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए, से वि य आगासे उप्पइए, तेणं च खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार ऐसा कहा, तब श्रमणोपासक चुलनीपिता के मन में विचार आया--यह पुरूष बड़ा अधम है, नीच-बुद्धि है, नीचतापूर्ण पाप-कार्य करने वाला है, जिसने मेरे बड़े पुत्र को घर से लाकर मेरे आगे मार डाला (उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया) उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा--छींटा, जो मेरे मंझले पुत्र को घर से ले आया, (लाकर मेरे सामने उसकी हत्या की, उसके तीन मांस-खण्ड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा छींटा,) जो मेरे छोटे पुत्र को घर से ले आया, उसी तरह उसके मांस और रक्त से मेरा शरीर सींचा, जो देव और गुरू सदृश पूजनीय, मेरे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली, अति कठिन क्रियाएं करने वाली मेरी माता भद्रा सार्थवाही को भी घर से लाकर मेरे सामने मारना चाहता है। इसलिए, अच्छा यही है, मैं इस पुरूष को पकड़ लूं। यों विचार कर वह पकड़ने के लिए दौड़ा। इतने में देव आकाश में उड़ गया। चुलनीपिता के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया। वह जोर-जोर से शोर करने लगा। माता का आगमन : जिज्ञासा १३७ तएं णंसा भद्दा सत्थवाही तं कोलाहल-सदं सोच्चा, निसम्म जेणेवचुलणीपिया १. देखें सूत्र-संख्या १३६ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता ] [ १२१ समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता चुलणीपियं समणोवासयं एवं वयासी-किणं पुत्ता! तुमं महया महया सद्देणं कोलाहले कए? भद्रा सार्थवाही ने जब वह कोलाहल सुना, तो जहाँ श्रमणोपासक चुलनीपिता था, वहाँ वह आई, उससे बोली पुत्र ! तुम जोर-जोर से यों क्यों चिल्लाए ? चुलनीपिता का उत्तर - १३८. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयं भद्दं सत्थवाहिं एवं वयासी एवं खलु अम्मो ! न जाणामि के वि पुरिसे आसुरत्ते४, एगं महं नीलुप्पल जाव' असिं गहाय ममं एवं वयासी - हं भो ! चुलणीपिया! समणोवासया ! अपत्थिय पत्थिया! ४. जइ णं तुमं जाव (अज्ज सीलाइ, वयाइं, वेरमणाई, पच्चक्खाणाई, पोसहोववासाइं नस छड़डेसि, न भंजेसि, तो जाव तुमं अट्ट-दुहट्ट - वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ) ववरोविजसि । अपनी माता भद्रा सार्थवाही से श्रमणोपासक चुलनीपिता ने कहा-मां ! न जाने कौन पुरूष था, जिसने अत्यन्त क्रुद्ध होकर एक बड़ी नीली तलवार निकाल कर मुझे कहा-मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता! यदि तुम आज शील, (व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास) का त्याग नहीं करोगे, भंग नहीं करोगे तो तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठोगे । १३९. तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरामि । उस पुरुष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकता के साथ अपनी उपासना में निरत रहा । १४०. तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव' विहरमाणं पासइ, पासित्ता ममं दोच्वंपि तच्चपि एवं वयासी - हं भो ! चुलणीपिया ! समणोवासया ! तहेव जाव' गायं अयंचइ | जब उस उस पुरूष ने मुझे निर्भयतापूर्वक उपासनारत देखा तो उसने मुझे दूसरी बार, तीसरी बार फिर कहा - श्रमणोपासक चुलनीपिता! जैसा मैंने तुम्हें कहा है, मैं तुम्हारे शरीर को मांस और रक्त से सींचता हूँ और उसने वैसा ही किया । १४१. तए णं अहं उज्जलं, जाव (विउलं, कक्कसं, पगाढं, चंडं, दुक्खं, दुरहियासं वेयणं सम्मं सहामि, खमामि, तितिक्खामि, अहियासेमि । एवं तहेव उच्चारेयव्वं सव्वं जाव कणीयसं जाव' आयंचइ | अहं तं उज्जलं जाव' अहियासेमि । १. देखें सूत्र - संख्या ११६ । २. देखें सूत्र - संख्या ९८ । देखें सूत्र - संख्या ९७ । ३. ४. देखें सूत्र - संख्या १३६ । ५. सूत्र - संख्या १३६ । देखें ६. देखें सूत्र यही । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [उपासकदशांगसूत्र मैने (सहनशीलता, क्षमा और तितिक्षापूर्वक वह तीव्र, विपुल-अत्यधिक, कर्कश--कठोर, प्रगाढ, रोद्र, कष्टप्रद तथा दुःसह) वेदना झेली। छोटे पुत्र के मांस और रक्त से शरीर सींचने तक सारी घटना उसी रूप में घटित हुई। मैं वह तीव्र वेदना सहता गया। १४२. तए णं से पुरिसे ममं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता ममं चउत्थं पि एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया! जाव' न भंजेसि, तो ते अज्ज जा इमा माया गरू जाव (जणणी दुक्कर-दुक्करकारिया, तं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएमि, घाएता तओ मंससोल्लए करेमि करेत्ता आदाण भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेमि-अहहेता, तब गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि जहा णं तुम अट्ट-दुहट्ट वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविजसि। उस पुरूष ने जब मुझे निडर देखा तो चौथी बार उसने कहा-मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक चुलनीपिता! तुम यदि अपने व्रत भंग नहीं करते हो तो आज (तुम्हारे लिए देव और गुरू सदृश पूजनीय, तुम्हारे हितार्थ अत्यन्त दुष्कर कार्य करने वाली--अति कठिन धर्म-क्रियाएं करने वाली तुम्हारी माता को घर से ले आऊंगा । लाकर तुम्हारे सामने उसका वध करूंगा, उसके तीन मांस-खण्ड करूंगा, उबलते पानी से भरी कढाही में खौलाऊंगा. उसके मांस और रक्त से तम्हारे शरीर को सीचंगा. जिससे तुम आर्तध्यान एवं विकट दुःखों से पीड़ित होकर असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगे। १४३. तए णं अहं तेणं पुरिसेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरामि। . उस पुरूष द्वारा यों कहे जाने पर भी मैं निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में स्थित रहा। १४४. तए णं से पुरिसे दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वयासी-हं भो! चुलणीपिया! समणोवासया! अज जाव' ववरोविज्जसि। ___ उस पुरूष ने दूसरी बार, तीसरी बार मुझे फिर कहा-- श्रमणोपासक चुलनीपिता! आज तुम प्राणों से हाथ धो बैठोगे। १४५. तए णं तेणं पुरिसेणं दोच्चंपि तच्चपि ममं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ५, अहो णं! इमे पुरिसे अणारिए जाव (अणारिय-बुद्धी, अणारियाई, पावाई कम्माइं समायरइ), जेणं ममं जेटुं पुत्तं साओ गिहाओ तहेव जाव कणीयसं जाव' आयंचइ, १. देखें सूत्र-संख्या ९७। २. देखें सूत्र-संख्या १०७। ३. देखें सूत्र-संख्या ९८। ४. देखें सूत्र-संख्या १३५ । ५. देखें सूत्र-संख्या १३६ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता ] [ १२३ तुब्भे वि य णं इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए, तं सेयं खलु ममं एवं पुरिसं गिहित्तए त्ति कट्टु उद्घाइए । से वि य आगासे उप्पइए, मए वि य खंभे आसाइए, महा महया सद्देणं कोलाहले कए । उस पुरुष द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर मेरे मन में ऐसा विचार आया, अरे ! इस अधम, नीचबुद्धि पुरूष ने ऐसे नीचतापूर्ण पापकर्म किए, मेरे ज्येष्ठ पुत्र को, मंझले पुत्र को और छोटे पुत्र को घर से ले आया, उनकी हत्या को, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा। अब तुमको भी ( माता को भी) घर से लाकर मेरे सामने मार डालना चाहता है । इसलिए अच्छा यही है, मैं इस पुरूष को पकड़ लूं । यों विचार कर मैं उसे पकड़ने के लिए उठा, इतने में वह आकाश में उड़ गया । उसे पकड़ने को फैलाये हुए मेरे हाथों में खम्भा आ गया। मैंने जोर-जोर से शोर किया। चुलनीपिता द्वारा प्रायश्चित्त १४६. तए णं सा भद्दा सत्थवाही चुलणीपियं समणोवासयं एवं बयासी - नो खलु केइ पुरिसे तव जाव (जेट्ठपुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता तब अग्गओ घाएइ, नो खलु hs पुरिसे तव मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, तो खलु केइ पुरिसे तव ) कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता तव अग्गओ घाएइ, एस णं केइ पुरिसे तव उवसग्गं करेइ, एस णं तुमे विदरिसणे दिट्ठे । तं गं तुमं इयाणिं भग्ग-व्वए भग्ग - नियमे भग्ग-पोसहे विहरसि । तं णं तुमं पुत्ता ! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव (पडिक्कमाहि, निंदाहि गरिहाहि, विउट्टाहि, विसोहेहि अकरणयाए, अब्भुट्ठाहि अहारिहं पायच्छित्तं तवो-कम्मं ) पडिवज्जाहि । तब भद्रा सार्थवाही श्रमणोपासक चुलनीपिता से बोली- पुत्र ! ऐसा कोई पुरूष नहीं था, जो तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसे मारा हो, तुम्हारे छोटे पुत्र को घर से लाया हो, तुम्हारे आगे उसकी हत्या की हो। यह तो तुम्हारे लिए कोई देव - उपसर्ग था । इसलिए, तुमने यह भयंकर दृश्य देखा। अब तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है-- खण्डित हो गया है। इसलिए पुत्र ! तुम इस स्थान- व्रत भंग रूप आचरण की आलोचना करो, (प्रतिक्रमण करो- पुनः शुद्ध अन्तःस्थिति में लौटो, इस प्रवृत्ति की निन्दा करो, गर्हा करो - आन्तरिक खेद अनुभव करो इससे जनित दोष का परिमार्जन करो, यथोचित प्रायश्चित्त के लिए अभ्युत्थित-: - उद्यत हो जाओ) तदर्थ तपःकर्म स्वीकार करो । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में देव द्वारा श्रमणोपासक चुलनीपिता के तीनों पुत्रों को उसकी आंखों के सामने तलवार से काट डाले जाने तथा उबलते पानी की कढ़ाही से खौलाए जाने के सम्बन्ध में जो उल्लेख है वह कोई वास्तविक घटना नहीं थी, देव-उपसर्ग था । इसका स्पष्टीकरण कामदेव के प्रकरण में किया Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [उपासकदशांगसूत्र जा चुका है। विशेषता यह है कि अन्ततः चुलनीपिता अपने व्रतों से विचलित हो गया। व्रती या उपासक के लिए यह आवश्यक है कि वह प्रतिक्षण सावधान रहे, अपने नियमों के यथावत् पालन में जागरूक रहे । ऐसा होते हुए भी कुछ ऐसी मानवीय दुर्बलताएं है, उपासक की दृढ़ता कभी-कभी टूट जाती है। गुरू, पूज्य जन आदि से उद्बोधित होकर अथवा आत्म-प्रेरित होकर उपासक सहसा सावधान होता है, जीवन में वैसा अवांछनीय प्रसंग फिर न आए। वह अपने संकल्प को स्मरण करता है। पर्ववत दढता आ जाए. वह (संकल्प-व्रत) आगे फिर न टूटे, इसके लिए शास्त्रों में प्रायश्चित का विधान है। उपासक वहां अपने भीतर पैठ कर अपने स्वरूप, आचार, व्रत, स्थिति का ध्यान करता है। इस सन्दर्भ में आलोचना, प्रतिक्रमण, निन्दा, गर्दा आदि शब्दों का विशेष रूप से प्रयोग है जो यहां भी हुआ है। वैसे साधारणतया ये शब्द समानार्थक जैसे हैं, परन्तु सूक्ष्मता में जाएं तो प्रत्येक शब्द की अपनी विशेषता है। जैन परम्परा में आत्म-शोधनमूलक इस उपक्रम का अपना विशेष प्रकार है, जिसके पीछे बड़ा मनोवैज्ञानिक चिन्तन है। आलोचना करने का आशय गुरू के सम्मुख अपनी भूल निवेदित करना है। यह बहुत लाभप्रद है। इससे भीतर का मैल धुल जाता है। प्रतिक्रमण शब्द का भी अपना महत्त्व है। उपासक अपने आप को सम्बोधित कर कहता है-आत्मन् ! वापस अपने आप में लौटो, बहिर्मुख हो तुम कहां चले गये थे? फिर निन्दा की बात आती है, उपासक आत्मा की साक्षी से भीतर ही भीतर अपनी भूल की निन्दा करता है। विचार करता है कि कैसा बुरा कार्य उससे बन पड़ा को प्रत्यक्ष रूप में या भाव रूप में साक्ष्य बनाकर वह अपनी भल की प्रकट रूप में निन्दा करता है, जिसे गर्दा कहा जाता है, जो आन्तरिक खेद अनुभव करने का बहुत ही प्रेरणाप्रद रूप है। जिस विचारधारा के कारण भूल बनी, उस विचारधारा को सर्वथा उच्छिन्न कर देने हेतु उपासक संकल्पबद्ध होता है। अन्ततः वह प्रायश्चित्त के रूप में कुछ तपश्चरण स्वीकार करता है। . मनौवैज्ञानिक दृष्टि से यह एक ऐसा सुन्दर क्रम है, जिससे पुनः वैसी भूल यथासम्भव नहीं होती। जिन दुर्बलताओं के कारण वैसी भूल बनती है, वे दुर्बलताएं किसी न किसी रूप में दूर हो जाती हैं। प्रस्तुत में चुलनीपिता की माता ने उसे कहा है--'तुम्हारा व्रत, नियम और पोषध भग्न हो गया है।' टीकाकार ने व्रतादि के भंग होने का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है--साधारणतया श्रावक अहिंसाणुव्रत में निरपराध जीव की हिंसा का त्याग करता है किन्त पोषध में निरपराध के साथ सापराध की हिंसा का भी त्याग होता है। चुलनीपिता ने क्रोधपूर्वक उपसर्गकारी के विनाश के लिए दौड़कर भावतः स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का उल्लंघन किया। यह उसके व्रतभंग का कारण हुआ। पोषध में क्रोध करने का भी परित्याग किया जाता है, किन्तु क्रोध-करने के कारण उत्तरगुणरूप नियम का भंग हुआ। अव्यापार के त्याग का उल्लंघन करने के कारण पोषध-भंग हुआ। इस प्रकार व्रत, नियम और पोषध भंग होने के कारण, पुनः विशुद्धि के लिए आलोचना आदि करना अनिवार्य था। १४७. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए अम्मयाए भद्दाए सत्थवाहीए 'तह' त्ति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय अध्ययन : चुलनीपिता] . [१२५ एयमट्ठ विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलोएइ जाव पडिवज्जइ। श्रमणोपासक चुलनीपिता ने अपनी माता भद्रा सार्थवाही का कथन 'आप ठीक कहती हैं ' यों कहकर विनयपूर्वक सुना। सुनकर उस स्थान व्रत-भंग, नियमभंग और पोषधभंग रूप आचरण की आलोचना की, (यावत्) प्रायश्चित्त के रूप में तदनुरूप तपःक्रिया स्वीकार की। जीवन का उपासनामय अन्त १४८. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए पढमं उवासगपडिमं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ, पढमं उपासग-पडिमं अहासुत्तं जहा आणंदो जाव (दोच्चं उवासग-पडिमं, एवं तच्चं, चउत्थं, पंचम, छटुं, सत्तमं, अट्ठमं, नवमं, दशमं,) एक्कारसमं वि। तत्पश्चात् श्रमणोपासक चुलनीपिता ने आनन्द की तरह क्रमशः पहली, (दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवीं, छठी, सातवीं, आठवीं, नौवी, दसवी तथा) ग्यारहवीं उपासक-प्रतिमा की यथाविधि आराधना की। १४९. तए णं से चुलणीपिया समणोवासए तेणं उरालेणं जहा कामदेवो जाव (बहूहिं सीलव्वय-गुण-वेरमण-पच्चक्खाण-पोसहोववासेहिं अप्पाणं भावेत्ता, बीसं वासाई समणोवासग-परियायं पाउणित्ता, एक्कारस य उवासग-पडिमाओ सम्मं काएणं फासित्ता, मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता, सर्व्हि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कंते, समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा)सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडिंसगस्स महाविमाणस्स उत्तरपुरथिमेणं अरूणप्पभे विमाणे देवत्ताए उववन्ने चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता।महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो ॥सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं तइयं अज्झयणं समत्तं॥ श्रमणोपासक चुलनीपिता (अणुव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास द्वारा अनेक प्रकार से आत्मा को भावित कर, बीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन कर, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की भली-भांति आराधना कर एक मास की संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर, आलोचना, प्रतिक्रमण कर, मरण-काल आने पर समाधिपूर्वक देहत्याग कर--यों उग्र तपश्चरण के फल स्वरूप) सौधर्म, देवलोक में सौधर्मावतंसक महाविमान के ईशान कोण में स्थित अरूणप्रभ विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बताई गई है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध होगा-मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥निक्षेप॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का तृतीय अध्ययन समाप्त । १. देखें सूत्र-संख्या ८७। २. एवं खलु जम्बू ! समणेण जाव संपतेणं तच्चस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति बेमि। ३. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यही अर्थ भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चौथा अध्ययन सार-संक्षेप वाराणसी नगरी में सुरादेव नामक गाथापति था । वह बहुत समृद्धिशाली था। छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं उसके निधान में थीं, छह करोड़ व्यापार में तथा छ: करोड़ घर के वैभव में । उसकी पत्नी का नाम धन्या था । शुभ संयोगवश एक बार भगवान् महावीर वाराणसी में पधारे -- समवसरण हुआ । आनन्द की तरह सुरादेव ने भी श्रावक - धर्म स्वीकार किया । वह धर्माराधना में उत्तरोत्तर बढ़ता गया । एक दिन की घटना है, सुरादेव पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध स्वीकार किए उपासनारत था। आधी रात का समय हुआ था, एक देव उसके सामने प्रकट हुआ । उसके हाथ में तेज तलवार थी । उसने सुरादेव को उपासना से हट जाने के लिए बहुत डराया धमकाया। न मानने पर उसने तीनों पुत्रों की क्रमशः उसी प्रकार हत्या कर दी, जिस प्रकार चुलनीपिता के कथानक में देव ने उसके पुत्रों को मारा था। हर बार हर पुत्र के शरीर को पांच-पांच मांस खंडों में काटा, उबलते पानी की कढ़ाही में खौलाया और वह उबलता मांस व रक्त सुरादेव पर छिड़का। पर, सुरादेव की दृढ़ता नहीं टूटी। यह निर्भीकता के साथ अपनी उपासना में लगा रहा। देव ने सोचा, पुत्रों के प्रति रही ममता पर चोट करने से यह विचलित नहीं हो रहा है, इसलिए. मुझे अब इसके शरीर की ही दुर्दशा करनी होगी। मनुष्य को शरीर से अधिक प्रिय कुछ भी नहीं होता, यह सोचकर देव ने सुरादेव को अत्यन्त कठोर शब्दों में कहा कि तुम्हारे सामने मैंने तुम्हारे पुत्रों को मार डाला, तुमने परवाह नहीं की। अब देखें, मैं तुम्हारी खुद की कैसी बुरी हालत करता हूं। फिर कहता हूं, तुम व्रतों का त्याग कर दो, नहीं तो मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ दमा, खांसी, बुखार, जलन, कुक्षि- शूल, भगंदर, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टि-रोग शिर:- शूल, अरुचि, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, उदर रोग और कुष्ठ -- ये सोलह भयानक बीमारियाँ पैदा किए देता हूं। इन बीमारियों से तुम्हारा शरीर सड़ जायगा, इनकी बेहद पीड़ा से तुम जीर्ण हो जाओगे । अपनी आंखों के सामने बेटों की हत्या देख, जो सुरादेव विचलित नहीं हुआ था, अपने स्वयं पर आने वाले रोगों का नाम सुनते ही उसका मन कांप गया । यह सोचते ही कि मेरा शरीर इन भीषण रोगों से असीम वेदना-पीड़ित होकर जीवित ही मृत जैसा हो जायगा, सहसा उसका धैर्य टूट गया। वैसे रोगाक्रान्त जीवन की विभीषिका ने उसे दहला दिया। उसने सोचा, जो दुष्ट मुझे ऐसा बना देना चाहता है, उसे पकड़ लेना चाहिए। पकड़ने के लिए उसने हाथ फैलाए । वह तो देवमाया का षड्यन्त्र था, कैसे पकड़ पाता? देव आकाश में लुप्त हो गया। पोषधशाला का जो खंभा सुरादेव के सामने था, उसके हाथों में आ गया। सुरादेव हक्का-बक्का रह गया । वह समझ नहीं सका, यह क्या हुआ ? वह जोर-जोर से Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव] [१२७ चिल्लाने लगा। सुरादेव की पत्नी धन्या ने जब यह चिल्लाहट सुनी तो वह तुरन्त पोषधशाला में आई और अपने पति से पूछने लगी--क्या बात है? आप ऐसा क्यों कर रहे है? इस पर सुरादेव ने वह सारी घटना धन्या को बतलाई। धन्या बड़ी बुद्धिमती थी। उसने अपने पति से कहा--आपको धर्म से डिगाने के लिए यह देव-उपसर्ग था। आपके पुत्र सकुशल हैं। आपकी देह में रोग पैदा करने की बात धमकी के सिवाय कुछ नहीं थी। भयभीत होकर आपने अपना व्रत खण्डित कर दिया, यह दोष हुआ, प्रायश्चित लेकर आपको शुद्ध होना चाहिए। सुरादेव ने अपनी पत्नी की बात सहर्ष स्वीकार की। अपनी भूल के लिए आलोचना की, प्रायश्चित्त ग्रहण किया। सुरादेव का उत्तरवर्ती जीवन चुलनीपिता की तरह धर्मोपासना में अधिकाधिक गतिशील रहा। उसने व्रतों का भली-भाँति अनुसरण करते हुए बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की सम्यक् आराधना की, एक मास की अन्तिम संलेखना और एक मास का अनशन सम्पन्न कर समाधि-पूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरुणकान्त विमान में वह देव-रूप में उत्पन्न हुआ। ★★ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन सुरादेव १५०. उक्खेवओ' चउत्थस्स अज्झयणस्स । एवं खलु जम्बु ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणारसी नामं नयरी । कोट्ठए चेइए । जियसत्तू राया। सुरादेवे गाहावई अड्डे । छ हिरण्ण-कोडीओ जाव ( निहाण - पउत्ताओ, छ वड्ढि - पउत्ताओ, छ पवित्थर - पउत्ताओ । ) छवया, दस - गो- साहस्सिएणं वएणं । धन्ना भारिया । सामी समोसढे । जहा आणंदो तहेव पडिवज्जए गिहि-धम्मं । जहा कामदेवो जाव समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म- पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । उपक्षेप'- उपोद्घातपूर्वक चतर्थ अध्ययन का प्रारम्भ यों है- आर्य सुधर्मा ने कहा--जम्बू ! उस काल - वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, वाराणसी नामक नगरी थी । कोष्ठक नामक चैत्य था। वहां के राजा का नाम जितशत्रु था। वहां सुरादेव नामक गाथापति था । वह अत्यन्त समृद्ध था। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं स्थायी पूंजी के रूप में उसके खजाने में थीं, (छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएं व्यापारव्यवसाय में लगी थीं, छ: करोड़ स्वर्ण मुद्राएं घर के वैभव - धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधनसामग्री में लगी थी । उसके छह गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं । उसकी पत्नी का नाम धन्या था । भगवान् महावीर पधारे समवसरण हुआ । आनन्द की तरह सुरादेव भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया । कामदेव की तरह वह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। देव द्वारा पुत्रों की हत्या १५१. तए णं तस्स सुरादेवस्स समणोवासयस्स पुव्व-रत्तावरत्तकाल - समयंसि एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था। से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव' असिं गहाय सुरादेवं समणोवासयं १. जइ णं भंते ! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं तच्चस्म अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते चउत्थस्स भत्ते ! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. देखें सूत्र - संख्या ९२ ३. सुधर्मा से जम्बू ने पूछा- सिद्धि प्राप्त भगवान महावीर ने उपासकदशा के तृतीय अध्ययन का यदि यह अर्थ - आशय प्रतिपादित किया, तो भगवन् ! उन्होंने चतुर्थ अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें।) · ४. देखे सूत्र - संख्या ११६ । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव] [१२९ एवं वयासी--हं भों! सुरादेवा समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया ४। जइ णं तुमं सीलाई जाव' न भंजेसि, तो ते जेटुं पुतं साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेता तब अग्गओ घाएमि, घाएत्ता पंच सोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अहहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य साणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि। एवं मज्झिमयं, कणीयसं; एक्केक्के पंच सोल्लया। तहेव करेइ जहा चुलणीपियस्स, नवरं एक्कक्के पंच सोल्लया। एक दिन की बात है, आधी रात के समय श्रमणोपासक सुरादेव के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। उसने नीली, तेज धार वाली तलवार निकालकर श्रमणोपासक सुरादेव से कहा--मृत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव! यदि तुम आज शील, व्रत आदि को भंग नहीं करते हो तो मैं तुम्हारे बड़े बेटे को घर से उठा लाऊंगा। लाकर तुम्हारे सामने उसे मार डालूंगा। मारकर उसके पांच मांस-खण्ड करूंगा, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाऊंगा, उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सीचूंगा, जिससे तुम असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। इसी प्रकार उसने मंझले और छोटे लड़के को भी मार डालने, उनको पांच-पांच मांस-खंडों में काट डालने की धमकी दी। सुरादेव के अविचल रहने पर जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था, वैसा ही उसने किया, उसके पुत्रों को मार डाला। इतना भेद रहा, वहाँ देव ने तीन-तीन मांस खंड किये थे, यहाँ देव ने पांच-पांच मांस खंड किए। भीषण व्याधियों की धमकी १५२. तए णं देवे सुरादेवं समणोवासयं तउत्थं पि एवं वयासी-हं भो! सुरादेवा समणोवासया! अपत्थिय-पत्थिया ४ ! जाव' न परिच्चयसि, तो ते अज सरीरंसि जमगसमगमेव सोलस-रोगायं के पक्खिवामि, तं जहा-सासे, कासे जाव (जरे, दाहे, कुच्छिसूले, भगंदरे , अरिसए, अजीरए, दिट्ठिसूरे, मुद्धसूले, अकारिए, अच्छिवेयणा, कण्णवेयणा कंडुए, उदरे ) कोढे, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव (वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। तब उस देव ने श्रमणोपासक सुरादेव को चौथी बार भी ऐसा कहा-मुत्यु को चाहने वाले श्रमणोपासक सुरादेव! यदि अपने व्रतों का त्याग नही करोगे तो आज मैं तुम्हारे शरीर में एक ही साथ श्वास-दमा, कास-खांसी, (ज्वर-बुखार, दाह-देह में जलन, कुक्षि-शूल-पेट में तीव्र पीड़ा, भगंदरगुदा पर फोड़ा, अर्श-बवासीर, अजीर्ण-बदहजमी, दृष्टिशूल-नेत्र में शूल चुभने जैसी तेज पीड़ा, मूर्द्धशूल--मस्तक-पीड़ा, अकारक-भोजन में अरूचि या भूख न लगना, अक्षि-वेदना-आंख दुखना, कर्ण १. देखें सूत्र-संख्या १०७। २. देखें सूत्र-संख्या १०७।। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [ उपासकदशांगसूत्र वेदना-कान दुखना, कण्डू-खुजली, उदर-रोग- जलोदर आदि पेट की बीमारी तथा) कुष्ठ-कोढ़, ये सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर दूगां, जिससे तुम आर्तध्यान तथा विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। १५३. तए णं से सुरादेवे समणोवासए जाव (तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए, अतत्थे, अणुव्विग्गे, अक्खुभिए, अचलिए, असंभंते, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए) विहरइ, एवं देवो दोच्चंपि तच्चं पि भणइ जाव (जइ णं तुमं अज सीलाइं, वयाई, वेरमणाई, पच्च्क्खाणाइ, पोसहोववासाइं न छड्डेसि, न भंजेसि, तो ते अहं अज सरीरंसि जमगसमगमेव सोलह रोगायंके पक्खिवामि जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। ___ श्रमणोपासक सुरादेव (उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी जब भयभीत, त्रस्त, उद्विग्न, क्षुभित, चलित तथा आकुल नहीं हुआ, चुपचाप--शान्त-भाव से) धर्म-ध्यान में लगा रहा तो उस देव ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा--(यदि तुम आज शील, व्रत, विरमण, प्रत्याख्यान तथा पोषधोपवास का त्याग नहीं करते हो-भंग नही करते हो तो मैं तुम्हारे शरीर में एक साथ सोलह भयानक रोग पैदा कर दूंगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दु:ख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे) सुरादेव का क्षोभ १५४. तए णं तस्स सुरादेवस्य समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चं पि तच्चं पि एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जाव' समायरइ, जेणं ममं जेठं पुत्तं जाव (साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता मम अग्गओ घाएइ, घाएत्ता पंच मंस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता ममं गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचइ, जे णं ममं मज्झिमं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेइ, नीणेत्ता मम अग्गओ घाएइ घाएत्ता पंच-मस-सोल्लए करेइ, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अद्दहेइ, अद्दहेत्ता मम गायं मंसेण य सोणिएण य) आयंचइ, जे वि य इमे सोलस रोगायंका, ते वि य इच्छइ मम सरीरगंसि पक्खिवित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए। से वि य आगासे उप्पइए। तेण य खंभे आसाइए, महया महया सद्देणं कोलाहले कए। उस देव द्वारा दूसरी, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक सुरादेव के मन में ऐसा विचार आया, यह अधम पुरूष (जो मेरे बड़े लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसकी हत्या की, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को १. देखें सूत्र-संख्या १४५। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्ययन : सुरादेव] [१३१ सींचा-छींटा, मेरे मंझले लड़के को घर से उठा लाया, मेरे आगे उसको मारा, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा, जो मेरे छोटे लड़के को घर से उठा लाया, मेरे सामने उसका वध किया, उसके पांच मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया, उसके मांस और रक्त से मेरे शरीर को सींचा-छींटा,) मेरे शरीर में सोलह भयानक रोग उत्पन्न कर देना चाहता है। अत: मेरे लिए यही श्रेयस्कर है, मैं इस पुरूष को पकड़ लूं। यों सोचकर वह पकड़ने के लिए उठा। इतने में वह देव आकाश में उड़ गया। सुरादेव के पकड़ने को फैलाए हाथों में खम्भा आ गया। वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। १५५. तए णं धन्ना भारिया कोलाहलं सोच्चा, निसम्म, जेणेव सुरादेवे समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता एवं वयासी-किण्णं देवाणुप्पिया! तुब्भेहिं महया महया सद्देणं कोलाहले कए? सुरादेव की पत्नी धन्या ने जब यह कोलाहल सुना तो जहाँ सुरादेव था, वह वहाँ आई। आकर पति से बोली-देवानुप्रिय! आप जोर-जोर से क्यों चिल्लाए? जीवन का उपसंहार १५६. तए णं से सुरादेवे समणोवासए धन्नं भारियं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! के वि पुरिसे, तहेव कहेइ जहा चुलणीपिया। धन्ना वि पडिभणइ, जाव कणीयसं। नो खलु देवाणुप्पिया! तुब्भं के वि पुरिसे सरीरंसि जमग-समगं सोलस रोगायंके पक्खिवइ, एस णं के वि पुरिसे तुब्भं उवसग्गं करेइ। सेसं जहा चुलणीपियस्स तहा भणइ। ___ एवं सेसं जहा चुलणीपियस्स निरवसेसं जाव' सोहम्मे कप्पे अरूणकंते विमाणे उववन्ने। चत्तारि पलिओवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणां चउत्थं अज्झयणं समत्तं ॥ श्रमणोपासक सुरादेव ने अपने पत्नी धन्या से सारी घटना उसी प्रकार कही, जैसे चुलनीपिता ने कही थी। धन्या बोली--देवानुप्रिय! किसी ने तुम्हारे बड़े, मंझले और छोटे लड़के को नहीं मारा। न कोई पुरूष तुम्हारे शरीर में एक ही साथ सोलह भयानक रोग ही उत्पन्न कर रहा है । यह तो तुम्हारे लिए किसी ने उपसर्ग किया है। उसने और सब वैसा ही कहा, जैसा चुलनीपिता को कहा गया था। आगे की सारी घटना चुलनीपिता की ही तरह है। अन्त में सुरादेव देह-त्याग कर सोधर्म १. देखें सूत्र-संख्या १५४ । २. देखें सूत्र-संख्या १४९ । ३. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेत्ति वेमि। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२] [उपासकदशांगसूत्र कल्प में अरूणकान्त विमान में उत्पन्न हुआ। उसकी आयु-स्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई है। महाविदेह-क्षेत्र में वह सिद्ध होगा-मोक्ष प्राप्त करेगा। ॥ निक्षेप॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का चतुर्थ अध्ययन समाप्त ॥ १. निगमन--आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! श्रमण भगवान् महावीर ने उपासकदशा के चौथे अध्ययन का यही अर्थ-- भाव कहा था, जो मैने तुम्हें बतलाया है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा अध्ययन सार-संक्षेप उत्तर भारत में आलभिका नामक नगरी थी। शंखवन नामक वहाँ उद्यान था। जितशत्रु वहाँ का राजा था। उस नगरी में चुल्लशतक नामक एक समृद्धिशाली गाथापति निवास करता था। उसकी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं खजाने में सुरक्षित थीं, उतनी ही व्यापार में लगी थीं और उतनी ही घर के वैभव तथा उपकरणों में उपयोग में आ रही थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके यहां थे। श्रमण भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच एक बार आलभिका पधारे। अन्य लोगों की तरह चुल्लशतक भी उनके दर्शन हेतु पहुंचा। उनकी धर्म-देशना से प्रभावित हुआ और उसने गृहस्थ-धर्म या श्रावक-व्रत स्वीकार किए। गृहस्थ में रहते हुए भी चुल्लशतक व्रतों की आराधना, धर्म की उपासना में पूरी रूचि लेता था। लोक और अध्यात्म का सन्दर समन्वय उसके जीवन में था। व्रत.साधना. अभ्यास आदि मय करता रहता था। एक दिन वह पोषधशाला में ब्रह्मचर्य एवं पोषध-व्रत स्वीकार किए धर्मोपासना में तन्मय था। आधी रात का समय था, अचानक एक देव उसके सामने प्रकट हुआ। वह चुल्लशतक को साधना से विचलित करना चाहता था। चुलनीपिता के साथ जैसा घटित हुआ था, यहाँ भी इस देव के हाथों चुल्लशतक के साथ घटित हुआ। देव ने उसके तीनों पुत्रों को उसके देखते-देखते मार डाला, उनके सात-सात टुकड़े कर डाले। उसका रक्त और मांस उस पर छिड़का। पर, ममता और क्रोध दोनों से ही चुल्लशतक काफी ऊंचा उठा हुआ था। इसलिए वह अपने व्रत से नही डिगा। धर्मध्यान में तन्मय रहा। देव ने तब यह सोचकर कि संसार में हर किसी की धन के प्रति अत्यन्त आसक्ति और ममता होती है। मनुष्य और सब सह जाता है, पर धन की चोट उसके लिए भारी पड़ती है इसलिए मुझे अब इसके साथ ऐसा ही करना चाहिए। देव क्रुध और कर्कश स्वर में चुल्लशतक से बोला-मान जाओ, अपने व्रतों को तोड़ दो, देख लो-यदि नहीं तोड़ोगे तो मैं खजाने में रखी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को घर से निकाल लाऊंगा और उन्हें आलभिका नगरी की सड़कों और चौराहों पर चारों तरफ बिखेर दूंगा। तुम अंकिचन और दरिद्र बन जाओगे। इतने व्याकुल और दुःखी हो जाओगे कि जीवित नहीं रह सकोगे! चुल्लशतक ऐसा कहने पर भी धर्म साधना में स्थिर रहा। देव ने कड़कती आवाज में दूसरी बार ऐसा कहा, तीसरी बार ऐसा कहा। चुल्लशतक, जो अब तक उपासना में स्थिर था, सहसा चौंक पड़ा। उसके सारी शरीर में बिजली-सी कौंध गई और आशंकित दरिद्रता का भयानक दृश्य उसकी आंखों के सामने नाचने लगा। वह घबरा गया। उसके मन में बार-बार आने लगा--इस जगत् में ऐसा कुछ नहीं है, जो धन से न सध सके। जिसके पास धन होता Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४] [उपासकदशांगसूत्र है, उसी के मित्र होते हैं, उसी के बन्धु-बान्धव होते हैं, वही मनुष्य माना जाता है, उसी को सब बुद्धिमान् कहते है। धन की गर्मी एक विचित्र गर्मी हैं, जो मानव को ओजस्वी; तेजस्वी, साहसी-सब कुछ बनाए रखती है, उसके निकल जाते ही; वही इन्द्रियां, वही नाम, वही बुद्धि, वही वाणी--इन सबके रहते मनुष्य और ही कुछ हो जाता है। घबराहट में चुल्लशतक को यह भान नहीं रहा कि वह व्रत में है। इसलिए अपना धन नष्ट कर देने पर उतारू उस पुरूष पर इसको बड़ा क्रोध आया और वह हाथ फैलाकर उसे पकड़ने के लिए झपटा। पोषधशाला में खड़े खंभे के सिवाय उसके हाथ कुछ नहीं आया। देव अन्तर्धान हो गया। चुल्लशतक किंकर्तव्यविमूढ-सा बन गया। वह समझ नहीं सका, यह क्या घटित हुआ। व्याकुलता के कारण वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा। चिल्लाहट सुनकर उसकी पत्नी बहुला वहाँ आई और जब उसने अपने पति से सारी बात सुनी तो बोली-यह आपकी परीक्षा थी । देवकृत उपसर्ग था। आप खूब दृढ रहे। पर, अन्त में फिसल गए। आपका व्रत भग्न हो गया। आलोचना, प्रतिक्रमण कर, प्रायश्चित्त स्वीकार कर आत्मशोधन करें । चुल्लशतक ने वैसा ही किया और भविष्य में धर्मों-पासना में सदा सुदृढ़ बने रहने की प्रेरणा प्राप्त की। चुल्लशतक का उत्तरवर्ती जीवन चुलनीपिता की तरह व्रताराधना में उत्तरोत्तर उन्नतिशील रहा। उसने अणुव्रत, गुणव्रत, शिक्षाव्रत आदि की सम्यक् उपासना करते हुए बीस वर्ष तक श्रावकधर्म का पालन किया। ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं की भली-भांति आराधना की। एक मास की अन्तिम संलेखना अनशन और समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। सौधर्म देवलोक में अरूणसिद्ध विमान में वह देव-रूप में उत्पन्न हुआ। १. न हि तद्विद्यते किञ्चिद्यदर्थेन न सिद्ध्यति। यत्नेन मतिमांस्तस्मादर्थमेकं प्रसाधयेत् ॥ यल्याऽर्थास्तस्य मित्राणि, यस्याऽर्थास्तस्य बान्धवाः। यस्याऽर्थाः स पुमाल्लोके, यस्याऽर्थाः स च पण्डितः ॥ पंचतन्त्र १.२, ३ २. तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम, सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव। अर्थोष्मणा विरहितः पुरूषः स एव, अन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥ हितोपदेश १.१२७ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांचवा अध्ययन चुल्लरातक श्रमणोपासक चुल्लशतक १५७. उक्खेवो पंचमस्त अज्झयणस्स। एवं खलु, जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नामं नयरी। संखवणे उजाणे। जियसत्तू राया। चुल्लसए, गाहावई अड्ढे जाव', छ हिरण्ण-कोडीओ जाव (निहाल-पउत्ताओ, छ वड्ढि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ) छ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं। बहुला भारिया। सामी समोसढे। जहा आणंदो तहा गिहि-धम्म पडिवजइ। सेसं जहा कामदेवो जाव' धम्मपण्णतिं उवसंपज्जिताणं विहरइ। . उत्क्षेप-उपोद्घातपूर्वक पांचवें अध्ययन का आरम्भ यों है-- आर्य सुधर्मा ने कहा--जम्बू! उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, आलमिका नामक नगरी थी। वहाँ शंखवम उद्यान था। वहाँ के राजा का नाम जितशत्रु था। उस नगरी में चुल्लशतक नामक गाथापति निवास करता था। वह बड़ा समृद्ध एवं प्रभावशाली था। (छह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ उसके खजाने में रखी थीं, छह करोड़ स्वर्णमुद्राएँ व्यापार में लगी थीं तथा छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव एवं साज-सामान में लगी थीं।) उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थी। उसकी पत्नी का नाम बहुला था। भगवान् महावीर पधारे - समवसरण हुआ। आनन्द की तरह चुल्लशतक ने भी श्रावक-धर्म स्वीकार किया। आगे का घटना-क्रम कामदेव की तरह है। वह उसी की तरह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति--धर्म-शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ। देव द्वारा विघ्न १५८. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स श्रमणोवासयस्स पुव्व-रत्तावरत्तकाल-समयंसि १. जइणं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं चउत्थस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते, पंचमस्सणं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते? २. देखें सूत्र-संख्या ३ ३. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के चतुर्थ अध्ययन का यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया तो भगवन्! उन्होंने पंचम अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया? (कृपया कहें।) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [ उपासकदशांगसूत्र एगे देवे अंतियं जाव' असिं गहाय एवं वयासी-हं भो ! चुल्लसयगा समणोवासया । जाव' न भंजेस तोते अज्ज जेट्टं पुत्तं साओ गिहाओ नीणेमि । एवं जहा चुलणीपियं, नवरं एक्वेक्वे सत्त मंससोल्लया जावरे कणीयसं जाव' आयंचामि । एक दिन की बात है, आधी रात के समय चुल्लशतक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । उसने तलवार निकाल कर कहा- अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! यदि तुम अपने व्रतों का त्याग नहीं करोगे तो मैं आज तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र को घर से उठा लाऊंगा । चुलनीपिता के साथ जैसा हुआ था, वैसा ही घटित हुआ। देव ने बड़े, मंझले तथा छोटे तीनों पुत्रों को क्रमशः मारा, मांस खंड किए। मांस और रक्त से चुल्लशतक की देह को छींटा । इतना ही भेद रहा, वहाँ देव ने पांच-पांच मास खंड किए थे, यहाँ देव ने सात-सात मांसखंड किए । १५९. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए जाव' विहरइ । श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भय भाव से उपासनारत रहा। सम्पत्ति विनाश की धमकी १६०. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं चउत्थं पि एवं वयासी - हं भो ! चुल्लसयगा! समणोवासया ! जाव न भंजेसि तो ते अज्ज जाओ इमाओ छ हिरण्ण- कोडीओ निहाणपउत्ताओ, छ वुड्ढि - पउत्ताओ, छ पवित्थर पउत्ताओ, ताओ साओ गिहाओ नीणेमि, नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडय जाव ( तिय- चउक्क - चच्चर - चउम्मुह - महापह - ) पहेसु सव्वओ समंता विप्पइरामि, जहा णं तुमं अट्ट दुहट्ट-वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ ववरोविज्जसि । - देव ने श्रमणोपासक चुल्लशतक को चौथी बार कहा - अरे श्रमणोपासक चुल्लशतक ! तुम अब भी अपने व्रतों को भंग नहीं करोगे तो मैं खजाने में रखी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं, व्यापार में लगी तुम्हारी छह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं तथा घर के वैभव और साज-समान में लगी छह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं को ले आऊंगा । लाकर आलभिका नगरी के श्रृंगाटक- तिकोने स्थानों, त्रिक-तिराहों, चतुष्क-चौराहों, चत्वर - जहाँ चार से अधिक रास्ते मिलते हों ऐसे स्थानों, चतुर्भुज - जहाँ से चार रास्ते निकलते हों, ऐसे स्थानों तथा महापथ-बड़े रास्तों या राज मार्गों में सब तरफ - चारों ओर बिखेर दूंगा। जिससे तुम आर्तध्यान १. देखें सूत्र - संख्या ११६ २. देखें सूत्र - संख्या १०७ ३. देखें सूत्र - संख्या १५४ । ४. देखें सूत्र - संख्या १५४। ५. देखें सूत्र - संख्या ९८ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३७ पांचवां अध्ययन : चुल्लशतक] एवं विकट दुःख से पीड़ित होकर असमय में ही जीवन से हाथ धो बैठोगे। १६१. तए णं से चुल्लसयए समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। ___ उस देव द्वारा यों कहे जाने पर भी श्रमणोपासक चुल्लशतक निर्भीकतापूर्वक अपनी उपासना में लगा रहा। १६२. तए णं से देवे चुल्लसयगं समणोवासयं अभीयं जाव' पासइ, पासित्ता दोच्चं पि तच्चं पि तहेव भणइ, जाव ववरोविज्जसि। जब उस देव ने श्रमणोपासक चुल्लशतक को यों निर्भीक देखा तो उससे दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा और धमकाया-अरे ! प्राण खो बैठोगे! विचलनः प्रायश्चित्त १६३. तए णं तस्स चुल्लसयगस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयमेयारूबे अज्झथिए ४ अहो णं इमे पुरिसे अणारिए जहा चुलणीपिया तहा. चिंतेइ जाव कणीयसं जाव आयंचइ, जाओ वि य णं इमाओ ममं छ हिरण्णकोडीओ निहाण-पउत्ताओ, छ वड्ढ-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, ताओ वि य णं इच्छइ ममं साओ गिहाओ नीणेत्ता आलभियाए नयरीए सिंघाडग जाव विप्पइरित्तए, तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्धाइए, जहा सुरादेवो।तहेव भारिया पुच्छइ, तहेव कहेइ। उस देव ने जब दूसरी बार, तीसरी बार श्रमणोपासक चुल्लशतक को ऐसा कहा, तो उसके मन में चुलनीपिता की तरह विचार आया, इस अधम पुरूष ने मेरे बड़े , मंझले और छोटे--तीनों पुत्रों को बारी-बारी से मार कर, उनके मांस और रक्त से सींचा। अब यह मेरी खजाने में रखी छह करोड़ स्वर्णमुद्राओं, व्यापार में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं तथा घर का वैभव एवं साज-सामान में लगी छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं को निकाल लाना चाहता है और उन्हें आलभिका नगरी के तिकोने आदि स्थानों में बिखेर देना चाहता है। इसलिए, मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरूष को पकड़ लूं। यों सोचकर वह उसे पकड़ने के लिए सुरादेव की तरह दौड़ा। आगे वैसा ही घटित हुआ, जैसा सुरादेव के साथ घटित हुआ था। सुरादेव की पत्नी की तरह १. देखें सूत्र-संख्या १५३ । २. देखें सूत्र-संख्या ९७। ३. देखें सूत्र-संख्या १५४। ४. देखें सूत्र-संख्या १५४। ५. देखें सूत्र-संख्या १६० । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ ] उसकी पत्नी ने भी उससे सब पूछा । उसने सारी बात बतलाई । दिव्य - गति [ उपासकदशांगसूत्र १६४. सेसं जहा चुलणीपियस्स जाव' सोहम्मे कप्पे अरूणसिद्धे विमाणे उववन्ने । चत्तारि पलिओ माई ठिई । सेसं तहेव जाव ( से णं भंते! चुल्लसयए ताओ देवलोगाओ आउक्खणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अनंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ ? कहिं उववज्जिहि ? गोयमा ! ) महाविदेहे वासे सिज्झिहि । निक्खेवो ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं पंचमं अज्झयणं समत्तं ॥ आगे की घटना चुलनीपिता की तरह है । देह त्याग कर चुल्लशतक सौधर्म देवलोक में अरूण-सिद्ध विमान में देव के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां उसकी आयुस्थिति चार पल्योपम की बतलाई गई । आगे की घटना भी वैसी ही है। (भगवन्! चुल्लशतक उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव - शरीर का त्याग कर कहां जायगा ? कहां उत्पन्न होगा? गौतम !) वह महाविदेहक्षेत्र में सिद्ध होगा - मोक्ष प्राप्त करेगा । ॥ निक्षेप ॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का पांचवां अध्ययन समाप्त ॥ १. देखें सूत्र - संख्या १४९ । २. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्तेत्ति बेमि । ३. निगमन - - आर्य सुधर्मा बोले -- जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने उपासकदशा के पांचवें अध्ययन का यही अर्थभाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन सार-संक्षेप __काम्पिल्यपुर में कुंडकौलिक नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था। काम्पिल्यपुर भारत का एक प्राचीन नगर था। भगवान् महावीर के समय में वह बहुत समृद्ध एवं प्रसिद्ध था। उत्तरप्रदेश में बूढ़ी गंगा के किनारे बदायूं और फर्रूखाबाद के बीच कम्पिल नामक आज भी एक गांव है, जो इतिहासकारों के अनुसार काम्पिल्यपुर का वर्तमान रूप है। काम्पिल्यपुर आगम-वाङ्मय में अनेक स्थानों पर संकेतित, भगवान् महावीर के समसामयिक राजा जितशत्रु के राज्य में था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। संभवत: आम के हजार पेड़ होने के कारण उद्यानों के ऐसे नाम रखे जाते रहे हों। गाथापति कुंडकौलिक एक समृद्ध एवं सुखी गृहस्थ था। उसकी अठारह करोड़ स्वर्णमुद्राओं में छह करोड़ मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, छह करोड़ व्यापार में एवं छह करोड़ घर के वैभव तथा साज-सामान में लगी थीं। दस-दस हजार गायों के छह गोकुल उसके पास थे। ऐसा प्रसंग बना, एक समय भगवान् महावीर काम्पिल्यपुर पधारे । अन्यान्य लोगों की तरह गाथापति कुंडकौलिक भी भगवान् के सान्निध्य में पहुंचा, धर्मदेशना सुनी, प्रभावित हुआ, श्रावक-धर्म स्वीकार किया। जहां जीवन में, अब से पूर्व लौकिक भाव था, उसमें अध्यात्म का समावेश हुआ। कुंडकौलिक स्वीकृत व्रतों का भली-भांति पालन करता हुआ एक उत्तम धार्मिक गृहस्थ का जीवन जीने लगा। एक दिन की बात है, वह दोपहर के समय धर्मोपासना की भावना से अशोकवाटिका में गया। वहां अपनी अंगूठी और उत्तरीय उतार कर पृथ्वीशिलापट्टक पर रखे, स्वयं धर्म-ध्यान में संलग्न हो गया। उसकी श्रद्धा को विचलित करने के लिए एक देव वहां प्रकट हुआ। उसका ध्यान बंटाने के लिए देव ने वह अंगूठी और दुपट्टा उठा लिया और आकाश में स्थित हो गया। देव ने कुंडकौलिक से कहादेखो, मंखलिपुत्र गोशालक के धर्म-सिद्धान्त बहुत सुन्दर हैं। वहां प्रयत्न, पुरूषार्थ, कर्म-इनका कोई महत्त्व नहीं है । जो कुछ होने वाला है, सब निश्चित है । भगवान् महावीर के धार्मिक सिद्धान्त उत्तम नहीं हैं । वहां तो उद्यम, प्रयत्न, पुरूषार्थ-सबका स्वीकार है, और जो कुछ होता है, वह सब उनके अनुसार नियत नहीं है। अब दोनों का अन्तर तुम स्वयं देख लो। गौशालक के सिद्धान्त के अनुसार पुरूषार्थ, प्रयत्न आदि जो कुछ किया जाता है, सब निरर्थक है, करने की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि अन्त में होगा वही, जो होने वाला है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] [उपासकदशांगसूत्र यह सुनकर कुंडकौलिक बोला-देव! जरा एक बात बतलाओ। तुमने यह जो दिव्य ऋद्धि, द्युति, कान्ति, वैभव प्राप्त किया है, वह सब क्या पुरूषार्थ एवं प्रयत्न से प्राप्त किया अथवा अपुरूषार्थ व अप्रयत्न से? क्या प्रयत्न एवं पुरूषार्थ किए बिना ही यह सब पाया है? देव बोला-कुंडकौलिक ! यह मैंने बिना पुरूषार्थ और बिना प्रयत्न ही पाया है। इस पर कुंडकौलिक ने कहा-देव! यदि ऐसा हुआ है तो बतलाओ, जो अन्य प्राणी पुरूषार्थ एवं प्रयत्न नहीं करते रहे हैं, वे तुम्हारी तरह देव क्यों नहीं हुए? यदि तुम कहो कि यह दिव्य ऋद्धि एवं वैभव तुम्हें पुरूषार्थ एवं प्रयत्न से मिला है, तो फिर तुम गोशालक के सिद्धान्त को, जिसमें पुरूषार्थ व प्रयत्न स्वीकार नहीं है, सुन्दर कैसे कह सकते हो? और भगवान् महावीर के सिद्धान्त को, जिसमें पुरूषार्थ व प्रयत्न को स्वीकार है, असुन्दर कैसे बतला सकते हो? तुम्हारा कथन मिथ्या है। कुंडकौलिक का युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण कथन सुनकर देव से कुछ उत्तर देते नहीं बना। वह सहम गया। उसने वह अंगूठी एवं दुपट्टा चुपचाप पृथ्वीशिलापट्टक पर रख कर और अपना-सा मुँह लिए वापस लौट गया। शुभ संयोगवश भगवान् महावीर अपने जनपद-विहार के बीच पुनः काम्पिल्यपुर पधारे। ज्योंही कुंडकौलिक को ज्ञात हुआ, वह भगवान् को वंदन करने गया। उनका सान्निध्य प्राप्त किया, धर्मदेशना सुनी। __ भगवान् महावीर तो सर्वज्ञ एवं सर्वदर्शी थे। जो कुछ घटित हुआ था, उन्हें सब ज्ञात था। उन्होंने कुंडकौलिक को सम्बोधित कर अशोकवाटिका में घटित सारी घटना बतलाई और उससे पूछा-क्यों? क्या यह सब घटित हुआ? कुंडकौलिक ने अत्यन्त विनय और आदरपूर्वक कहा--प्रभो! आप सब कुछ जानते हैं । जैसा आपने कहा-अक्षरशः वैसा ही हुआ। __कुंडकौलिक की धार्मिक आस्था और तत्त्वज्ञता पर भगवान् प्रसन्न थे। उन्होंने उसे वर्धापित करते हुए कहा-कुंडकौलिक! तुम धन्य हो, तुमने बहुत अच्छा किया। वहाँ उपस्थित साधु-साध्वियों को प्रेरणा देने हेतु भगवान् ने उनसे कहा-गृहस्थ में रहते हुए भी कुंडकौलिक कितना सुयोग्य तत्ववेत्ता है ! इसने अन्य मतानुयायी को युक्ति और न्याय से निरूत्तर किया। भगवान् ने यह आशा व्यक्त की कि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले साधु-साध्वी तो ऐसा करने में सक्षम हैं ही। उनमें तो ऐसी योग्यता होनी ही चाहिए। कुंडकौलिक की घटना को इतना महत्त्व देने का भगवान् का यह अभिप्राय था, प्रत्येक धर्मोपासक अपने धर्म-सिद्धान्तों पर दृढ़ तो रहे ही, साथ ही साथ उसे अपने सिद्धान्तों का ज्ञान भी हो तथा उन्हें औरों के समक्ष उपस्थित करने की योग्यता भी, ताकि उनके साथ धार्मिक चर्चा करने वाले अन्य मतानुयायी व्यक्ति उन्हें प्रभावित न कर सकें । प्रत्युत उनके युक्तियुक्त एवं तर्कपूर्ण विश्लेषण पर वे निरूत्तर हो जाएं । वास्तव में भगवान् महावीर द्वारा सभी धर्मोपासकों को तत्त्वज्ञान में गतिमान रहने Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक] [१४१ की यह प्रेरणा थी। कुंडकौलिक भगवान् को वंदन, नमन कर वापस अपने स्थान पर लौट आया। भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। कुंडकौलिक उत्तरोत्तर साधना-पथ पर अग्रसर होता रहा। यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। पन्द्रह वें वर्ष उसने अपने बड़े पुत्र को गृहस्थ एवं परिवार का उत्तरदायित्व सौंप कर अपने आपको सर्वथा साधना में लगा दिया। उसके परिणाम उत्तरोत्तर पवित्र होते गए। उसने श्रावक की ग्यारह प्रतिमाओं की उपासना की। अन्ततः एक मास की संलेखना और एक मास के अनशन द्वारा समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह अरूणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है। ★★ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन कुंडकौलिक श्रमणोपासक कुंडकौलिक १६५. छट्ठस्स उक्खेवओ। एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं कम्पिल्लपुरे नयरे सहस्संबवणे उजाणे। जियसत्तू राया। कुंडकोलिए गाहावई। पूसा भारिया।छ हिरण्णकोडीओ निहाण-पउत्ताओ, छ वुड्डि-पउत्ताओ, छ पवित्थर-पउत्ताओ, छ वया, दस-गोसाहस्सिएणं वएणं। सामी समोसढे। जहा कामदेवो तहा सावयधम्म पडिवज्जइ। सा चेव वत्तव्वया जाव पडिलाभेमाणे विहरइ। ___ उपक्षेप'-उपोद्घातपूर्वक छठे अध्ययन का प्रारम्भ यों है-- आर्य सुधर्मा ने कहा--जम्बू! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विघमान थे, काम्पिल्यपुर नामक नगर था। वहाँ सहस्राम्रवन नामक उद्यान था। जितशत्रु वहां का राजा था। उस नगर में कुंडकौलिक नामक गाथापति निवास करता था। उसकी पत्नी का नाम पूषा था। छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएँ सुरक्षित धन के रूप में उसके खजाने में थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार-व्यवसाय में लगी थीं, छह करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके छह गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दसदस हजार गायें थीं। भगवान् महावीर पधारे-समवसरण हुआ। कामदेव की तरह कुंडकौलिक ने भी श्रावक धर्म स्वीकार किया। श्रमण निर्ग्रन्थों को शुद्ध आहार-पानी आदि देते हुए धर्माराधना में निरत रहने तक का घटनाक्रम पूर्ववर्ती वर्णन जैसा ही है। यों कुण्डकौलिक धर्म की उपासना में निरत था। १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं पंचमस्स अज्झयणस्स अयमट्टे पण्णत्ते, छट्ठस्स णं भत्ते! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? २. देखें सूत्र-संख्या ६४ आर्य सुधर्मा ने जम्बू से पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के पांचवें अध्ययन का यदि यह अर्थभाव प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने छठे अध्ययन का क्या अर्थ-भाव बतलाया? (कृपया कहें।) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक ] विवेचन [ १४३ काम्पिल्यपुर भारतवर्ष का एक प्राचीन नगर था । महाभारत आदिपर्व (१३७.७३), उद्योग - पर्व (१८९.१३, १९२.१४), शान्तिपर्व ( १३९.५) में काम्पिल्य का उल्लेख आया है। आदिपर्व और उद्योगपर्व अनुसार यह उस समय के दक्षिण पांचाल प्रदेश का एक नगर था । यह राजा द्रुपद की राजधानी था। द्रौपदी का स्वयंवर यहीं हुआ था । नायाधम्मकहाओ (१६ वें अध्ययन) में भी पांचाल देश के राजा द्रुपद के यहां काम्पिल्यपुर में द्रौपदी के जन्म आदि का वर्णन है । इस समय यह बदायूं और फर्रुखाबाद के बीच बूढ़ी गंगा के किनारे कम्पिल नामक ग्राम के रूप में अवस्थित है । कभी यह जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा था । आगमों में प्राप्त संकेतों से प्रकट होता है, भगवान् महावीर के समय में यह बहुत ही समृद्ध नगर था । अशोकवाटिका में ध्यान - निरत १६६. तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्ह - कालसमयंसि जेणेव असोगवणिया, जेणेव पुढवि-सिला-पट्टए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता नाममुद्दगं च उत्तरिज्जगं च पुढवि-सिला - पट्टए ठवेइ, ठवेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मपणत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ । एक दिन श्रमणोपासक कुंडकौलिक दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया । उसमें जहाँ पृथ्वी - शिलापट्टक था, वहां पहुंचा। अपने नाम से अंकित अंगूठी और दुपट्टा उतारा। उन्हें पृथ्वीशिलापट्टक पर रखा । रखकर, श्रमण भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म - प्रज्ञप्ति - धर्म - शिक्षा के अनुरूप उपासना-रत हुआ । देव द्वारा नियतिवाद का प्रतिपादन १६७. तए णं तस्स कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था । श्रमणोपासक कुंडकौलिक के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। १६८. तए णं से देवे नाम मुद्दं च उत्तरिज्जं च पुढवि - सिला - पट्टयाओ गेves, गेण्हित्ता सखिंखिणिं अंतलिक्ख पडिवन्ने कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी - हं भो ! कुंडकोलिया ! समणोवासया ! सुन्दरी णं देवाणुप्पिया ! गोसालस्स मंखली - पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती - नत्थि उट्ठाणे इ वा, कम्मे इ वा, बले इ वा, वीरिए इ वा, पुरिसक्कार- परक्कमे इवा, नियया सव्व-भावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म- पण्णत्ती - अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव (कम्मे इ वा, बले इ वा, पुरिसक्कार - ) परक्कमे इ वा, अणियया सव्व-भावा । उस देव ने कुंडकौलिक की नामांकित मुद्रिका और दुपट्टा पृथ्वीशिलापट्टक से उठा लिया। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४] [ उपासकदशांगसूत्र वस्त्रों में लगी छोटी-छोटी घंटियों की झनझनाहट के साथ वह आकाश में अवस्थित हुआ, श्रमणोपासक कुंडकौलिक से बोला- कुंडकौलिक ! देवानुप्रिय ! मंखलिपुत्र गोशालक की धर्म - प्रज्ञप्ति-धर्म-शिक्षा सुन्दर है। उसके अनुसार उत्थान-साध्य के अनुरूप ऊर्ध्वगामी प्रयत्न, कर्म, बल - दैहिक शक्ति, वीर्य - आन्तरिक शक्ति, पुरुषकार -- पौरुष का अभिमान, पराक्रम - पौरुष के अभिमान के अनुरूप उत्साह एवं ओजपूर्ण उपक्रम - इनका कोई स्थान नहीं हैं। सभी भाव होनेवाले कार्य नियत निश्चित हैं। उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरूष) पराक्रम इन सबका अपना अस्तित्व है, सभी भाव नियत नहीं हैं - भगवान् महावीर की यह धर्म-प्रज्ञप्ति - धर्म - प्ररूपणा असुन्दर या अशोभन है । विवेचन मंखलिपुत्र गोशालक का भगवतीसूत्र के १५ वें शतक में विस्तार से वर्णन है । आगमोत्तर साहित्य में भी आवश्यक निर्युक्ति आदि में उससे सम्बद्ध घटनाओं का उल्लेख है। बौद्ध साहित्य में मज्झिमनिकाय, अंगुत्तरनिकाय, सयुत्तनिकाय आदि ग्रन्थों में उसका वर्णन है। दीघनिकाय पर बुद्धघोष द्वारा रचित सुमंगलविलासिनी टीका के 'सामञ्त्रफलसुत्तवण्णन' में गोशालक के सिद्धान्तों की विशद चर्चा है। गोशालक भगवान् महावीर के समसामयिक अवैदिक परम्परा के छह प्रमुख आचार्यों में था । भगवतीसूत्र में उल्लेख है, मंख (डाकोत) जातीय मंखलि नामक एक व्यक्ति था । उसकी पत्नी का नाम भद्रा था। मंखलि भिक्षोपजीवी था। वह इस निमित्त एक चित्रपट हाथ में लिए रहता था। अपनी गर्भवती पत्नी भद्रा के साथ भिक्षार्थ घूमता हुआ वह एक बार सरवण नामक गांव में पहुँचा। वहाँ और स्थान न मिलने से वह चातुर्मास व्यतीत करने के लिए गोबहुलनामक ब्राह्मण की गोशाला में टिका । गर्भकाल पूरा होने पर भद्रा ने एक सुन्दर एवं सुकुमार शिशु को जन्म दिया। गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशाल या गोशालक रखा गया । गोशालक क्रमश: बड़ा हुआ, पढ़-लिखकर योग्य हुआ । वह भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ लिए भिक्षा द्वारा अपनी आजीविका चलाने लगा । एक बार भगवान् महावीर राजगृह के बाहर नालन्दा के बुनकरों की तन्तुवायशाला के एक भाग में अपना चातुर्मासिक प्रवास कर रहे थे। संयोगवश गौशालक भी वहाँ पहुँचा । अन्य स्थान न मिलने पर उसने उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास किया। वहाँ रहते वह भगवान् के अनुपम अतिशयशाली व्यक्त्वि तथा समय-समय पर घटित दिव्य घटनाओं से विशेष प्रभावित हुआ। उसने भगवान् के पास दीक्षित होना चाहा। भगवान् ने उसे दीक्षा देना स्वीकार नहीं किया। जब उसने आगे भी निरन्तर अपना प्रयास चालू रखा और पीछे ही पड़ गया, तब भगवान ने उसे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया। वह छह वर्ष तक भगवान् के साथ रहा। उनसे विपुल तेजोलेश्या प्राप्त की, फिर वह भगवान् से पृथक् हो गया। स्वयं अपने को अर्हत, तीर्थंकर, जिन और केवली कहने लगा । आगे चलकर एक ऐसा प्रसंग बना, द्वेष एवं जलनवश उसने भगवान् पर तेजालेश्या का प्रक्षेप किया। सर्वथा सम्पूर्ण रूप में अहिंसक होने के कारण भगवान् समभाव से उसे सह गए। तेजोलेश्या Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक] [१४५ भगवान् महावीर को पराभूत नहीं कर सकी। वापस लौटी, गोशालक की देह में प्रविष्ट हो गई। गोशालक पित्तज्वर और घोर दाह से युक्त हो सात दिन बाद मर गया। भगवती में आए वर्णन का यह अतिसंक्षिप्त सारांश है। प्रस्तुत प्रसंग में आई कुंडकौलिक की घटना तब की है, जब गोशालक भगवान् महावीर से पृथक् था तथा अपने को अर्हत्, जिन, केवली कहता हुआ जनपद विहार करता था। कुंडकौलिक का प्रश्न १६९. तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा! सुन्दरी गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्म-पण्णत्ती--नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव (कम्मे इ वा, बले इ वा, वीरिए इ वा, पुरिसक्कार-परक्कमे इ वा), नियया सव्व-भावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती-अस्थि उट्ठाणे इ वा जाव' अणियया सव्व-भावा। तुमे णं देवा! इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी, दिव्वा देव-ज्जुई, दिव्वे देवाणुभावे किणा लद्धे, किणा पत्ते, किणा अभिसमण्णागए? कि उट्ठाणेणं जाव (कम्मेणं, बलेणं, वीरिएणं) पुरिसक्कारपरक्कमेणं? उदाहु अणुट्ठाणेण जाव (अकम्मेण, अबलेणं, अवीरिएणं) अपुरिसक्कारपरक्कमेणं? तब श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने देव से कहा--उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य, पौरूष एवं पराक्रम) का कोई अस्तित्व नहीं है, सभी भाव नियत है -गोशालक की यह धर्म-शिक्षा यदि उत्तम है और उत्थान आदि का अपना महत्त्व है, सभी भाव नियत नहीं है--भगवान् महावीर की यह धर्मप्ररूपणा अनुत्तम है--अच्छी नहीं है, तो देव! तुम्हें जो ऐसी दिव्य ऋद्धि, द्युति तथा प्रभाव उपलब्ध, संप्राप्त और स्वायत्त है, वह सब क्या उत्थान, (कर्म, बल, वीर्य), पौरूष और पराक्रम से प्राप्त हुआ है अथवा अनुत्थान, अकर्म, अबल, अवीर्य, अपौरूष या अपराक्रम से? अर्थात् कर्म बल आदि का उपयोग न करने से ये मिले है? देव का उत्तर १७०. तए णं से देवे कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! मए इमेयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कारपरक्कमेण लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया। __ वह देव श्रमणोपासक कुंडकौलिक से बोला-देवानुप्रिय! मुझे यह दिव्य ऋद्धि, द्युति एवं प्रभाव-यह सब बिना उत्थान, पौरूष एवं पराक्रम से ही उपलब्ध हुआ है। कुंडकौलिक द्वारा प्रत्युत्तर १. देखें सूत्र-संख्या १६८। २. देखें सूत्र-संख्या १६९ । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६] [उपासकदशांगसूत्र १७१. तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कार-परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, जेसिं णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा, परक्कमे इ वा, ते किं न देवा? अह णं देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, तो जं वदसि-सुन्दरी णं गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती-अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव अणियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा।। ___तब श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने उस देव से कहा-देव! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरूषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि नहीं है, वे देव क्यों नहीं हुए? देव! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि, उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त की है तो "उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं है, भगवान् महावीर की यह शिक्षा असुन्दर है" तुम्हारा यह कथन असत्य है। देव की पराजय १७२. तए णं से देवे कुंडकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए, जाव (कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने,) कलुस-समावन्ने नो संचाएइ कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्खमाइक्खित्तए; नाम-मुद्दयं च उत्तरिजयं च पुढवि-सिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए। श्रमणोपासक कुंडकौलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंका, (कांक्षा व संशय) युक्त तथा कालुष्ययुक्त-ग्लानियुक्त या हतप्रभ हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका। उसने कुंडकौलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्टक पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, वह उसी दिशा की ओर लौट गया। भगवान् द्वारा कुंडकौलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा १७३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। उस काल और उस समय भगवान् महावीर का काम्पिल्यपुर में पदार्पण हुआ। १७४. तए णं कुडकोलिए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धढे हट्ठ जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव' पज्जुवासइ। धम्मकहा। १. देखें सूत्र-संख्या १६९ । २. देखें सूत्र-संख्या १६९ । ३. देखें सूत्र-संख्या १६९ । ४. देखें सूत्र-संख्या १६८। ५. देखें सूत्र-संख्या ११४ । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठा अध्ययन : कुंडकौलिक] [१४७ श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने जब यह सब सुना तो वह अत्यन्त प्रसन्न हुआ और भगवान् के दर्शन के लिए कामदेव की तरह गया, भगवान् की पर्युपासना की, धर्म-देशना सुनी। १७५. 'कुंडकोलिया!' इ समणे भगवं महावीरे कुंडकोलियं समणोवासयं एवं वयासी से नूणं कुंडकोलिया! कल्लं तुब्भं पुव्वावरण्ह-काल-समयंसि असोग-वणियाए एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था। तए णं से देवे नाम-मुदं च तहेव जाव (नो संचाएइ तुब्भे किंचि पामोक्खमाइक्खित्तए, नाममुद्दगं च उत्तरिजगं च पुढविसिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए, तामेव( दिसं) पडिगए। से नूणं कुंडकोलिया! अढे समठे? हन्ता अत्थि। तं धन्नेसि णं तुम कुंडकोलिया! जहा कामदेवो। अजो! इ समणे भगवं महावीरे समणे निग्गंथे य निग्गंथीओ य आमंतित्ता एवं वयासी-जइ ताव, अजो! गिहिणो गिहिमज्झावसंता णं अन्न-उत्थिए अद्वेहि य हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य निप्पट्ठ -पसिणवागरणे करेंति, सक्का पुणाई, अज्जो! समणेहिं निग्गंथेहिं दुवालसंगं गणि-पिडगं अहिजमाणेहिं अन्न-उत्थिया अद्वेहि य जाव (हेऊहि य पसिणेहि य कारणेहि य वागरणेहि य) निप्पट्ठ-पसिणवारणा करित्तए। - भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक कुंडकौलिक से कहा-कुंडकौलिक ! कल दोपहर के समय अशोकवाटिका में एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ। वह तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा लेकरआकाश में चला गया। आगे जैसा घटित हुआ था, भगवान् ने बतलाया। (जब वह देव तुमको कुछ उत्तर नहीं दे सका तो तुम्हारी नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस रख कर जिस दिशा से आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया।) कुंडकौलिक! क्या यह ठीक है? कुंडकौलिक ने कहा-भगवन् ! ऐसा ही हुआ। तब भगवन् ने जैसा कामदेव से कहा था, उसी प्रकार उससे कहा-कुंडकौलिक ! तुम धन्य हो। श्रमण भगवान् महावीर ने उपस्थित श्रमणों और श्रमणियों को सम्बोधित कर कहा-आर्यों ! यदि घर में रहने वाले गृहस्थ भी अन्य मतानुयायियों को अर्थ, हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा उत्तर द्वारा निरूत्तर कर देते हैं तो आर्यो! द्वादशांगरूप गणिपिटक का-आचार आदि बारह अंगों का अध्ययन करने वाले श्रमण निर्ग्रन्थ तो अन्य मतानुयायियों को अर्थ, (हेतु, प्रश्न, युक्ति तथा विश्लेषण) द्वारा निरूत्तर करने में समर्थ हैं ही। १७६. तए णं समणा निग्गंथा य निग्गंथीओ य समणस्स भगवओ महावीरस्स 'तह' त्ति एयमढं विणएणं पडिसुणेति। श्रमण भगवान महावीर का यह कथन उन साधु-साध्वियों ने 'ऐसा ही है भगवान !'-यों कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया। १७७. तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता पसिणाई पुच्छइ, पुच्छित्ता अट्ठमादियइ, अट्ठमादित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [उपासकदशांगसूत्र तामेव दिसिं पडिगए। श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने श्रमण भगवान् को वंदन-नमस्कार किया, प्रश्न पूछे, समाधान प्राप्त किया तथा जिस दिशा से वह आया था, उसी दिशा की ओर लौट गया। १७८. सामी बहिया जणवय-विहारं विहरइ। भगवान् महावीर अन्य जनपदों में विहार कर गए। शान्तिमय देहावसान १७९. तए णं तस्स कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छराइं वइक्कंताई। पण्णरसमस्य संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स अनया कयाइ जहा कामदेवो तहा जेट्ठपुत्तं ठवेत्ता तहा पोसहसालाए जाव' धम्मपण्णतिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। एवं एक्कारस उवासग-पडिमाओ तहेव जाव' सोहम्मे कप्पे अरूणज्झए विमाणे जाव (से णं भंते! कुंडकोलिए ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गमिहिइ? कहिं उववजिहिइ? गोयमा! महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ, (मुच्चिहिइ, सव्वदुक्खाण) अंतं काहिइ। निक्खेवो ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं छठें अज्झयणं समत्तं ॥ तदन्तर श्रमणोपासक कुंडकौलिक को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष आधा व्यतीत हो चुका था, एक दिन आधी रात के समय उसके मन में विचार आया, जैसा कामदेव के मन में आया था। उसी की तरह बड़े पुत्र को अपने स्थान पर नियुक्त कर वह भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधशाला में उपासनारत रहने लगा। उसने ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की आराधना की। आगे का वत्तान्त भी कामदेव जैसा ही है। अन्त में देह-त्याग कर वह अरूणध्वज विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ (भगवन् ! कुंडकौलिक उस देवलोक से आयु, भव एवं स्थिति का क्षय होने पर देव-शरीर का त्याग कर कहाँ जायगा? कहाँ उत्पन्न होगा? गौतम! वह महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होगा, वह दुःखों का) अन्त करेगा। ॥निक्षेप ॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का छठा अध्याय समाप्त ॥ १. देखें सूत्र-संख्या १२२ । २. देखें सूत्र-संख्या १४९ । ३. देखें सूत्र-संख्या ९२। ४. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते त्ति बेमि। निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के छठे अध्ययन का यही अर्थ-- भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन सार-संक्षेप भगवान् महावीर का समय विभिन्न धार्मिक मतवादों विविध सम्प्रदायों तथा बहुविध कर्मकांडों से संकुल था। उत्तर भारत में उस समय अवैदिक विचारधारा के अनेक आचार्य थे, जो अपने सिद्धान्तों का प्रचार करते हुए घूमते थे। उनमें से अनेक अपने आपको अर्हत्, जिन, केवली या सर्वज्ञ कहते थे। सुत्तनिपात सभियसुत्त में वैसे ६३ सम्प्रदाय होने का उल्लेख है । जैनों के दूसरे अंग सूत्रकृतांग आगम में भगवान् महावीर के समसामयिक सैद्धान्तिकों के चार वर्ग बतलाए हैं --कियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी तथा अज्ञानवादी। कहा गया है कि वे अपने समवसरण-सिद्धान्त या वाद का भिन्न-भिन्न प्रकार से विवेचन करते थे। सुत्रकृतांगवृत्ति में ३६३ धार्मिक मतवादों के होने का उल्लेख है । अर्थात् ये विभिन्न मतवादी प्रायः इन चार वादों में बंटे हुए थे। बौद्ध वाङ्मय में मुख्य रूप से छह श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख है, जिनके निम्नांकित आचार्य या संचालक बताए गए हैं -- ___इनके सैद्धान्तिक वाद क्रमशः अक्रियावाद, नियतिवाद, उच्छेदवाद, अन्योन्यवाद, चातुर्यामसंवरवाद तथा विक्षेपवाद बतलाए गए हैं । बौद्ध साहित्य में भगवान् महावीर के लिए 'निगंठनातपुत्त' का प्रयोग हुआ है। मंखलिपुत्र गोशालक का जैन और बौद्ध दोनों साहित्यों में नियतिवादी के रूप में विस्तार से वर्णन हुआ है। पांचवें अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र में १५वे शतक में गोशालक का विस्तार से वर्णन है । गोशालक को अष्टांग निमित्त का कुछ ज्ञान था। उसके द्वारा वह लोगों को लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन एवं मरण के विषय में सही उत्तर दे सकता था। अत: जो भी उसके पास आते, वह उन्हें उस प्रकार की बातें बताता। लोगों को तो चमत्कार चाहिए। यों प्रभावित हो उसके सहस्त्रों अनुयायी हो गए थे। पोलासपुर से सकडालपुत्र नामक एक कुंभकार गोशालक के प्रमुख अनुयायियों में था। सकडालपुत्र एक समृद्ध एवं सम्पन्न गृहस्थ था। उसकी एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव एवं उपकरणों में लगी थीं। उसके दस हजार गायों का एक गोकुल था। १. चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति। किरियं अकिरियं विणियं ति तइयं अन्नाणमाहंसु चउत्थमेव॥ __ --सूत्रकृतांग १.१२.१ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उपासकदशांगसूत्र सकडालपुत्र का प्रमुख व्यवसाय मिट्टी के बर्तन तैयार कराना और बेचना था । पोलासपुर नगर के बाहर उसकी पांच सौ कर्मशालाएं थीं, जहां अनेक वैतनिक कर्मचारी काम करते थे । प्रातः काल होते ही वे वहां आ जाते और अनेक प्रकार के छोटे-बड़े बर्तन बनाने में लग जाते। बर्तनों की बिक्री की दूसरी व्यवस्था थी। सकडालपुत्र ने अनेक ऐसे व्यक्ति वेतन पर नियुक्त कर रखे थे, जो नगर के राजमार्गों, चौराहों, मैदानों तथा सार्वजनिक स्थानों में बर्तनों की बिक्री करते थे । १५० ] सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था । वह गृहकार्य में सुयोग्य तथा अपने पति के सुखदुःख में सहभागिन थी । सकडालपुत्र अपने धार्मिक सिद्धान्तों के प्रति अत्यन्त निष्ठावान् था, तदनुसार धर्मोपासना में भी अपना समय लगाता था । [ वह युग ही कुछ ऐसा था, जो व्यक्ति जिन विचारों में आस्था रखता, तदनुसार जीवन में साधना भी करता । आस्था केवल कहने की नहीं होती ।] एक दिन की घटना है, सकडालपुत्र दोपहर के समय अपनी अशोकवाटिका में गया और वहां अपनी मान्यता के अनुसार धर्माराधना में निरत हो गया। थोड़ी ही देर बाद एक देव वहां प्रकट हुआ। सकडालपुत्र के सामने अन्तरिक्ष- स्थित देव ने उसे सम्बोधित कर कहा- कल प्रातः यहां महामाहन, अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक, त्रैलोक्यपूजित, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी आएंगे। तुम उनकी वंदना-पर्युपासना करना और उन्हें स्थान, पाट, बाजोट आदि हेतु आमन्त्रित करना । देव यों कहकर चला गया। सकडालपुत्र ने सोचा- देव ने बड़ी अच्छी सूचना की । मेरे धर्माचार्य मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां आएंगे। वे ही तो जिन, अर्हत् और केवली हैं, इसलिए मैं अवश्य ही उनकी वन्दना एवं पर्युपासना करूंगा । उनके उपयोग की वस्तुओं हेतु उन्हें आमन्त्रित करूंगा । दूसरे दिन प्रात:काल भगवान् महावीर वहां पधारे। सहस्त्राम्रवन उद्यान में टिके । अनेक श्रद्धालु जन उनके दर्शन हेतु गए। सकडालपुत्र भी यह सोच कर कि उसके आचार्य गोशालक पधारे हैं, दर्शन हेतु गया। भगवान् महावीर का धर्मोपदेश हुआ । अन्य लोगों के साथ सकडालपुत्र ने भी सुना । भगवान् जानते थे कि सकडालपुत्र सुलभवोधि है । उसे सद्धर्म की प्रेरणा देनी चाहिए । अतः उन्होंने उसे सम्बोधित कर कहा -- कल दोपहर में अशोकवाटिका में देव ने तुम्हें जिसके आगमन की सूचना की थी, वहां देव का अभिप्राय गोशालक से नहीं था । सकडालपुत्र भगवान् के अपरोक्ष ज्ञान से प्रभावित हुआ और मन प्रसन्न हुआ। वह उठा, भगवान् को विधिवत् वन्दन किया और अपनी कर्मशालाओं में पधारने तथा अपेक्षित सामग्री ग्रहण की प्रार्थना की। भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और वहां पधारे । सकडालपुत्र भगवान् महावीर के व्यक्तित्व और उनके अतीन्द्रिय ज्ञान प्रभावित तो था, पर उसकी सैद्धान्तिक आस्था मंखलिपुत्र गोशालाक में थी, यह भगवान् जानते थे । भगवान् अनुकूल अवसर देख उसे सद्द्बोध देना चाहते थे । एक दिन की बात है, सकडालपुत्र अपनी कर्मशाला के भीतर हवा लगने हेतु रखे हुए बर्तनों को धूप में देने के लिए बाहर रखवा रहा था । भगवान् को यह अवसर Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सार : संक्षेप ] [१५१ अनुकूल प्रतीत हुआ। उन्होंने उससे पूछा-ये बर्तन कैसे बने? सकडालपुत्र बोला--भगवन् ! पहले मिट्टी एकत्र की, उसे भिगोया, उसमें राख तथा गोबर मिलाया, गूंधा, सबको एक किया, फिर उसे चाक पर चढ़ाया और भिन्न-भिन्न प्रकार के बर्तन बनाए। भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! एक बात बताओ। तुम्हारे ये बर्तन प्रयत्न, पुरूषार्थ तथा उद्यम से बने है या अप्रयत्न, अपूरूषार्थ और अनुद्यम से? सकडालपुत्र-भगवन् ! अप्रयत्न, अपुरूषार्थ और अनुद्यम से। क्योंकि प्रयत्न, पुरूषार्थ और उद्यम का कोई महत्त्व नहीं है । जो कुछ होता है, सब निश्चित है। भगवान् महावीर--सकडालपुत्र! जरा कल्पना करों कोई पुरूष तुम्हारे हवा लगे, सूखे बर्तनों को चुरा ले, उन्हें बिखेर दें, तोड़ दे या तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ बलात्कार करे, तो तुम उसे क्या दण्ड दोगे! सकडालपुत्र-भगवन् ! मैं उसको फटकारूंगा, बुरी तरह पीटूंगा, अधिक क्या, जान से मार डालूंगा। ___ भगवान् महावीर-सकडालपुत्र ! ऐसा क्यों? तुम तो प्रयत्न और पुरूषार्थ को नहीं मानते। सब भावों को नियत मानते हो। तब फिर जो पुरूष वैसा करता है, उसमें उसका क्या कर्तृत्व है? वैसा तो पहले से ही नियत है । उसे दोषी भी कैसे मानोगे? यदि तुम कहो कि वह तो प्रयत्नपूर्वक वैसा करता है, तो प्रयत्न और पुरूषार्थ को न मानने का, सब कुछ नियत मानने का तुम्हारा सिद्धान्त गलत है , असत्य है। सकडालपुत्र एक मेधावी और समझदार पुरूष था। इस थोड़ी सी बातचीत से यथार्थ तत्त्व उसकी समझ में आ गया। उसने संबोधि प्राप्त कर ली। उसका मस्तक श्रद्धा से भगवान् महावीर के चरणों में झुक गया। जैसा उस समय के विवेकी पुरूष करते थे, उसने भगवान् महावीर से बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया। उसकी प्रेरणा से उसकी पत्नी अग्निमित्रा ने भी वैसा ही किया। यों पतिपनि सद्धर्भ को प्राप्त हुए तथा अपने गृहस्थ जीवन के साथ-साथ धार्मिक आराधना में भी अपने समय का सदुपयोग करने लगे। सकडालपुत्र मंखलिपुत्र गोशालक का प्रमुख श्रावक था। जब गोशालक ने यह सुना तो साम्प्रदायिक मोहवश उसे यह अच्छा नहीं लगा। उसने मन ही मन सोचा, मुझे सकडालपुत्र को पुनः समझाना चाहिए और अपने मत में वापस लाना चाहिए। इस हेतु वह पोलासपुर में आया। आजीविकों के उपाश्रय में रुका। अपने पात्र, उपकरण आदि वहां रखे तथा अपने कुछ शिष्यों के साथ सकडालपुत्र के यहां पहुंचा। सकडालपुत्र तो सत् तत्त्व और सद्गुरू प्राप्त कर चुका था, इसलिए गोशालक के आने पर पहले वह जो श्रद्धा, आदर एवं सम्मान दिखाता था, उसने वैसा नहीं किया, चुपचाप बैठा रहा। गोशालक खूब चालाक था, झट समझ गया। उसने युक्ति निकाली। सकडालपुत्र को प्रसन्न करने के लिए उसने भगवान् महावीर की खूब गुण-स्तवना की। गोशालक के इस कटनीतिक व्यवहार को वह समझ नहीं सका। गोशालक की मंशा यह थी कि किसी प्रकार पुनः मुझे सकडालपुत्र के साथ धार्मिक बातचीत का अवसर मिल जाय तो मैं इसकी मति बदलूं। सकडालपुत्र ने भगवान् महावीर के प्रति Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [उपासकदशांगसूत्र गोशालक द्वारा दिखाए गए आदर-भाव के कारण शिष्टतावश अनुरोध किया-आप मेरी कर्मशाला में रूकें, आवश्यक वस्तुएं लें। गोशालक तो बस यही चाहता था। उसने झट स्वीकार कर लिया और वहां गया। वहां के प्रवास के बीच उसको सकडालपुत्र के साथ तात्त्विक वार्तालाप करने का अनेक बार अवसर मिला। वहां के प्रवास के बीच उसको सकडालपुत्र के साथ तात्त्विक वार्तालाप करने का अनेक बार अवसर मिला। उसने सकडालपुत्र को बदलने का बहुत प्रयास किया, पर वह सर्वथा विफल रहा। सकडालपुत्र तो खूब विवेक और समझदारी के साथ यथार्थ तत्त्व प्राप्त कर चुका था, वह विचलित कैसे होता? निराश होकर गोशालक वहां से विहार कर गया। सकडालपुत्र पूर्ववत् अपने सांसारिक उत्तरदायित्व के निर्वाह के साथ-साथ धर्मोपासना में लगा रहा। यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। पन्द्रहवां वर्ष आधा बीत चुका था। एक बार आधी रात के समय सकडालपत्र अपनी धर्माराधना में निरत था. एक मिथ्यात्वी देव उसे व्रत-च्यत करने के लिए आया, व्रत छोड़ देने के लिए उसके पुत्रों को मार डालने की धमकी दी। सकडालपुत्र अविचल रहा तब उसने उसीके सामने क्रमश: उसके तीनों बेटों को मार-मार कर प्रत्येक के नौ-नौ मांस-खंड किए, उबलते पानी से भरी कढ़ाही में खौलाया और उनका मांस व रक्त उसके शरीर पर छींटा। पर, सकडालपुत्र आत्म-बल और धैर्य के साथ वह सब सह गया, उसकी आस्था नहीं डगमगाई। फिर भी देव निराश नहीं हुआ। उसने सोचा कि सकडालपुत्र के जीवन में अग्निमित्रा का बहुत बड़ा महत्त्व है, वह केवल पतिपरायणा पत्नी ही नहीं है, सुख दुःख में सहयोगिनी है और सबसे बड़ी बात यह है कि वह उसके धार्मिक जीवन की अनन्य सहायिका है । यह सोचकर उसने सकडालपुत्र के समक्ष उसकी पत्नी अग्निमित्रा को मार डालने और वैसी दुर्दशा करने की धमकी दी। जो सकडोलपुत्र तीनों बेटों की हत्या अपनी आंखों के आगे देख अविचलित रहा, वह इस धमकी से क्षुभित हो गया। उसमें क्रोध जागा और उसने सोचा, इस दष्ट को मुझे पकड़ लेना चाहिए। वह झट पकड़ने के लिए उठा, पर देव-षड्यन्त्र में कौन किसे पकड़ता? देव लुप्त हो गया। सकडालपुत्र के हाथों के सामने का खम्भा आया। यह सब अनहोनी घटनाएं देख सकडालपुत्र घबरा गया और उसने जोर से कोलाहल किया। अग्निमित्रा ने जब यह सुना तो तत्क्षण वहां आई, पति की सारी बात सुनी और बोली-परीक्षा की अन्तिम चोट में आप हार गए। वह मिथ्यादृष्टि देव आखिर आपका व्रत भंग करने में सफल हो गया। इस भूल के लिए आप प्रायश्चित्त कीजिए। सकडालपुत्र ने वैसा ही किया। सकडालपुत्र का अन्तिम जीवन भी बहुत ही प्रशस्त रहा। उसने एक मास की अन्तिम संलेखना और अनशन के साथ समाधि-मरण प्राप्त किया। देहत्याग कर वह अरूणभूत विमान में चार पल्योपमस्थितिक देव हुआ। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन सकडालपुत्र आजीविकोपासक सकडालपुत्र १८०. सत्तमस्स उक्खेवो । पोलासपुरे नामं नयरे । सहस्संबवणे उजाणे। जियसत्तू राया। उत्क्षेप'-उपोद्घातपूर्वक सातवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है आर्य सुधर्मा ने कहा-पोलासपुर नामक नगर था। वहां सहस्त्राम्रवन नामक उद्यान था। जितशत्रु वहां का राजा था। १८१. तत्थ णं पोलासपुरे नयरे सद्दालपुत्ते नामं कुंभकारे आजीविओवासए परिवसइ। आजीविय-समयंसि लद्धढे, गहियठे, पुच्छियढे, विणिच्छियठे, अभिगयढे अद्विमिंजपेमाणुरागरत्ते य अयमाउसो! आजीविय-समए अढे, अयं परमट्ठे सेसे अणढे त्ति आजीविय-समएणं अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। ___ पोलासपुर में सकडालपुत्र नामक कुम्हार रहता था, जो आजीविका-सिद्धान्त या गोशालकमत का अनुयायी था। वह लब्धार्थ-श्रवण आदि द्वारा आजीविकमत के यथार्थ तत्त्व को प्राप्त किए हुए, गृहीतार्थ-उसे गहण किए हुए, पृष्टार्थ-जिज्ञासा या प्रश्न द्वारा उसे स्थित किए हुए, विनिश्चितार्थ-निश्चित रूप में आत्मसात् किए हुए, अभिगतार्थ-स्वायत्त किए हुए था। वह अस्थि और मज्जा पर्यन्त अपने धर्म के प्रति प्रेम व अनुराग से भरा था। उसका यह निश्चित विश्वास था कि आजीविक मत ही अर्थप्रयोजनभूत है, यही परमार्थ है। इसके सिवाय अन्य अनर्थ-अप्रयोजनभूत हैं। यों आजीविक मत के अनुसार वह आत्मा को भावित करता हुआ धर्मानुरत था। विवेचन इस सुत्र में सकडालपुत्र के लब्धार्थ, गृहीतार्थ, पृष्टार्थ, विनिश्चितार्थ तथा अभिगतार्थ विशेषण जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं छट्ठस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्ते सत्तमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अठे पण्णत्ते? २. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के छठे अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया, तो भगवन्! उन्होंने सातवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया (कृपया कहें।) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४] [उपासकदशांगसूत्र आए हैं, जिनसे प्रकट होता है कि वह जिस मत में विश्वास करता था, उसने उसके सिद्धान्तों का सूक्ष्मता से अध्ययन किया था। जिज्ञासाओं और प्रश्नों द्वारा उसने तत्त्व की गहराई तक पहुंचने का प्रयास किया था। उनके अपने विचारों के अनुसार आजीविकमत सत्य और यथार्थ था। इसीलिए वह उसके प्रति अत्यन्त आस्थावान् था, जो अस्थि-मज्जा-प्रेमानुरागरक्त विशेषण से प्रकट है। इससे यह भी अनुमित होता है कि उस समय के नागरिक अपने व्यावसायिक, लौकिक जीवन के संचालन के साथ-साथ तात्त्विक एवं धार्मिक दृष्टि से भी गहराई में जाते थे। सम्पत्ति : व्यवसाय १८२. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एक्का हिरण्ण-कोडी निहाणपउत्ता, एक्का वुड्ढि-पउत्ता, एक्का पवित्थर-पउत्ता, एक्के वए, दस-गोसाहस्सिएणं वएणं। ___ आजीविक मतानुयायी सकडालपुत्र की एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं। एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर के वैभव-साधन सामग्री में लगी थीं उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थी। १८३. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स अग्गिमित्ता नामं भारिया होत्था। आजीविकोपासक सकडालपुत्र की पत्नी का नाम अग्निमित्रा था। १८४. तस्स णं सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पोलासपुरस्स नगरस्स बहिया पंच कुंभकारावण-सया होत्था। तत्थ णं बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाकल्लि बहवे करए य वारए य पिहडए य घडए य अद्ध-घडए य कलसए य अलिंजरए य जंबूलए य उट्टियाओ य करेंति। अन्ने य से बहवे पुरिसा दिण्ण-भइ-भत्त-वेयणा कल्लाकल्लि तेहिं बहूहिं करएहि य जाव (वारएहि य पिहडएहि य घडएहि य अद्ध-घडएहि य कलसहि य अलिंजरएहि य जंबूलएहि य) उट्टियाहि य राय-मग्गंसि वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति। पोलासपुर नगर के बाहर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के कुम्हारगिरी के पांच सौ आपणव्यवसाय-स्थान-बर्तन बनाने की कर्मशालाएँ थीं। वहाँ भोजन तथा मजदूरी रूप वेतन पर काम करने वाले बहुत से पुरूष प्रतिदिन प्रभात होते ही, करक-करेवे, वारक-गडुए, पिठर-आटा गूंधने या दही जमाने के काम में आने वाली परातें या कुंडे, घटक-तालाब आदि से पानी लाने के काम में आने वाले घड़े अर्द्धघटकअधघड़े-छोटे घड़े, कलशक-कलसे, बड़े घड़े, अलिंजर-पानी रखने के बड़े मटके, जंबूलक-सुराहियाँ, उष्ट्रिका-तैल, घी आदि रखने में प्रयुक्त लम्बी गर्दन और बड़े पेट वाले बर्तन--कूपे बनाने के लग जाते थे। भोजन व मजदूरी पर काम करने वाले दूसरे बहुत से पुरूष सुबह होते ही बहुत से करवे (गडुए, परातें या कुंडे, घड़े, अधघड़े मटके, सुराहियाँ ) तथा कुपों के साथ सड़क पर अवस्थित हो, उनकी बिक्री में लग जाते थे। विवेचन प्रस्तुत सूत्र के सकडालपुत्र की कर्मशालाएँ नगर से बाहर होने का जो उल्लेख है, उससे यह Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५५ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र ] प्रकट होता है कि कुम्हारों की कर्मशालाएँ व अलाव नगरों से बाहर होते थे, जिससे अलावों से उठने वाले धुंए के कारण वायु-दूषण न हो, नगरवासियों को असुविधा न हो। फिर सकडालपुत्र के तो पांच सौ कर्मशालाएँ थीं, बर्तन पकाने में बहुत धुंआ उठता था, इसलिए निर्माण का सारा कार्य नगर के बाहर होता था । बिक्री का कार्य सड़कों व चौराहों पर किया जाता था। आज भी प्रायः ऐसा ही है । कुम्हारों के घर शहरों तथा गाँवों के एक किनारे होते हैं, जहाँ वे अपने बर्तन बनाते हैं, पकाते हैं। बर्तन बेचने का काम आज भी सड़कों और चौराहों पर देखा जाता है । देव द्वारा सूचना १८५. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ पुव्वावरण्ह-कालसमयंसि जेणेव असोग- वणिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स अंतियं धम्मपण्णत्तिं उवसपज्जित्ताणं विहरइ । एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र दोपहर के समय अशोकवाटिका में गया, मंखलिपुत्र गोशाला के पास अंगीकृत धर्म-प्रज्ञप्ति - धर्म - शिक्षा के अनुरूप वहां उपासनारत हुआ । १८६. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था । आजीविकोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ । १८७. तणं से देवे अंतलिक्ख पडिवन्ने सखिखिणियाइं जाव (पंचवण्णाई वत्थाइं पवर) परिहिए सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी- एहिइ णं देवाणुप्पिया ! कल्लं इहं महामाहणे, उप्पन्नणाण- दंसणधरे, तीय- पडुप्पन्न - मणागय- जाणए, अरहा, जिणे, केवली, सव्वणू, सव्वदरिसी तेलोक्क- वहिय- महिय - पूइए, सदेवमणुयासुरस्स लोगस्स अच्चणिजे, वंदणिज्जे नम॑सणिज्जे जाव (सक्कारणिज्जे, सम्माणणिज्जे कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं ) पज्जुवासणिज्जे, तच्च-कम्म- संपया - संपउत्ते । तं णं तुमं वंदेज्जाहि, जाव ( णमंसेज्जाहि, सक्कारज्जाहि, सम्माणेज्जाहि, कल्लाणं, मंगलं, देवयं, चेइयं ) पज्जुवासेज्जाहि, पाडिहारिएणं पीढ-फलग-सिज्जा-संथारएणं उवनिमंतेज्जाहि । दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव दिसं पडिगए । छोटी-छोटी घंटियों से युक्त पांच वर्ण के उत्तम वस्त्र पहने हुए आकाश में अवस्थित उस देव आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा--देवानुप्रिय ! कल प्रात:काल यहां महामाहन-महान् अहिंसक, अप्रतिहत ज्ञान, दर्शन के धारक, अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-- तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्-परम पूज्य, परम समर्थ, जिन-राग-द्वेष-विजेता, केवली - परिपूर्ण, शुद्ध एवं अनन्त ज्ञान आदि से युक्त, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं, देव, मनुष्य तथा असुर सभी द्वारा अर्चनीय-अर्चायोग्ग्र-पूजायोग्य, वन्दनीय-स्तवनयोग्य, नमस्करणीय, ( सत्करणीय - सत्कार या आदर करने योग्य, सम्माननीय - सम्मान Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६] [उपासकदशांगसूत्र करने योग्य, कल्याणमय, मंगलमय, इष्ट देव स्वरूप अथवा दिव्य तेज तथा शक्तियुक्त, ज्ञानस्वरूप) पर्युपासनीय-उपासना करने योग्य, तथ्य कर्म-सम्पदा-संप्रयुक्त-सत्कर्म रूप-सम्पत्ति से युक्त भगवान् पधारेंगे। इसलिए तुम उन्हें वन्दन करना (नमस्कार, सत्कार तथा सम्मान करना। वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं। उनकी पर्युपासना करना), प्रातिहारिक-ऐसी वस्तुएं जिन्हें श्रमण उपयोग में लेकर वापस कर देते हैं, पीठ--पाट, फलक-बाजोट, शय्या-ठहरने का स्थान, संस्तारक-बिछाने के लिए घास आदि हेतु उन्हें आमंत्रित करना । यों दूसरी बार व तीसरी बार कह कर जिस दिशा से प्रकट हुआ था, वह देव उसी दिशा की ओर लौट गया। विवेचना प्रस्तुत सूत्र में आए 'महामाहण' शब्द व्याख्या करते हुए आचार्य अभयदेव सूरि ने वृत्ति में लिखा है-जो व्यक्ति यों निश्चय करता है, मैं किसी को नहीं मारूं, अर्थात जो मन, वचन एवं काय द्वारा सूक्ष्म तथा स्थूल समस्त जीवों की हिंसा से निवृत्त हो जाता है तथा किसी की हिंसा मत करों यों दूसरों को उपदेश करता है, वह माहन कहा जाता है। ऐसा पुरूष महान् होता है, इसलिए वह महामाहन है, अर्थात् महान् अहिंसक है। अन्य आगमों में भी जहां महामाण शब्द आया है, इसी रूप में व्याख्या की गई है। इसकी व्याख्या का एक रूप और भी है । प्राकृत में 'ब्राह्मण' के लिए बम्हण तथा बम्भण के साथ-साथ माहण शब्द भी है । इसके अनुसार महामाण का अर्थ महान् ब्राह्मण होता है। ब्राह्मण शब्द भारतीय साहित्य में गुण-निष्पन्नता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व लिए हुए है। ब्राह्मण में एक ऐसे व्यक्तित्व की कल्पना है, जो पवित्रता, सात्त्विकता, सदाचार, तितिक्षा, तप आदि सद्गुणों के समवाय का प्रतीक हो। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ ज्ञानी है । व्याकरण में कृदन्त के प्रकरण में अण् प्रत्यय के योग से इसकी सिद्धि होती है । उसके अनुसार इसकी व्युत्पत्ति-जो ब्रह्म-वेद या शुद्ध चैतन्य को जानता है अथवा उसका अध्ययन करता है, वह ब्राह्मण है। गुणात्मक दृष्टि से वेद, जो विद धात से बना है. उत्कष्ट ज्ञान का प्रतीक है। यों ब्राह्मण एक उच्च ज्ञानी और चरित्रनिष्ठ व्यक्तित्व के रूप में प्रस्तुत हुआ है। ___ जन्मगत जातीय व्यवस्था को एक बार हम छोड़ देते हैं, वह तो एक सामाजिक क्रम था। वस्तुतः इस उच्च और प्रशस्त अर्थ में 'ब्राह्मण' शब्द को केवल वैदिक वाङ्मय में ही नहीं, जैन और वाङ्मय में भी स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है ब्राह्मण वंश में उत्पन्न जयघोष मुनि एक बार अपने जनपद-विहार के बीच वाराणसी आए। नगर के बाहर मनोरम नामक उद्यान में रूके। उस समय विजयघोष नामक एक वेदवेत्ता ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था। जयघोष मुनि एक मास की तपस्या के पारणे हेतु भिक्षा के लिए विजयघोष के यहां पहुंचे। विजयघोष ने कहा-यहाँ बना भोजन तो ब्राह्मण को देने के लिए है। इस पर जयघोष मुनि ने उससे कहाविजयघोष! तुम ब्राह्मणत्व का शुद्ध स्वरूप नहीं जानते । जरा सुनो, मैं बतलाता हूं, ब्राह्मण कौन होता है१. कर्मण्यण् । पाणिनीय अष्टाध्यायी । ३ । २ । १ । २. ब्रह्म-वेदं, शुद्धं चैतन्यं वा वेत्ति अधीते वा इति ब्राह्मणः। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १५७ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र ] जो अपने स्वजन, कुटुम्बी जन आदि में आसक्त नहीं होता, प्रव्रजित होने में अधिक सोचविचार नहीं करता तथा जो आर्य उत्तम धर्ममय वचनों में रमण करता है, हम उसी को ब्राह्मण कहते हैं । जिस प्रकार अग्नि में तपाया हुआ सोना शुद्ध एवं निर्मल होता हे, उसी प्रकार जो राग, द्वेष तथा भय आदि से रहित है, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है । जो इन्द्रिय - विजेता है, तपश्चरण में संलग्न है, फलतः कृश हो गया है, उग्र साधना के के कारण जिसके शरीर में रक्त और मांस थोड़ा रह गया हैं, जो उत्तम व्रतों द्वारा निर्वाण प्राप्त करने पर आरूढ है, वास्तव में वही ब्राह्मण है । जो त्रस - चलने फिरने वाले, स्थावर - एक जगह स्थिर रहने वाले प्राणियों को सूक्ष्मता से जानकर तीन योग - मन, वचन एवं काया द्वारा उनकी हिंसा नहीं करता, वही ब्राह्मण है । जो क्रोध, हास्य, लोभ तथा भय से असत्य भाषण नहीं करता, हम उसी को ब्राह्मण कहते है । सचित या अचित्त, थोड़ी या बहुत कोई भी वस्तु बिना दी हुई नहीं लेता, ब्राह्मण वही है । जो मन, वचन एवं शरीर द्वारा देव, मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी मैथुन का सेवन नहीं करता, वास्तव में वही ब्राह्मण है 1 कमल यद्यपि जल में उत्पन्न होता है, पर उसमें लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो काम - भोगों से अलिप्त रहता है, वही ब्राह्मण है । जो अलोलुप, भिक्षा पर निर्वाह करने वाला, गृह - त्यागी तथा परिग्रह - त्यागी होता है, गृहस्थों के साथ आसक्ति नहीं रखता, वही ब्राह्मण है । जो जातीय जनों और बन्धुजनों का पूर्व संयोग छोड़कर त्यागमय जीवन अपना लेता है, लौटकर फिर भोगों में आसक्त नहीं होता, हमारी दृष्टि में वही ब्राह्मण है ।" यहां ब्राह्मण के व्यक्तित्व का जो शब्द - चित्र उपस्थित किया गया है, उससे स्पष्ट है, जयघोष मुनि के शब्दों में महान् त्यागी, आध्यात्मिक साधना के पथ पर सतत गतिशील, निरपवाद रूप में व्रतों का परिपालक साधक ही वस्तुतः ब्राह्मण होता है । बौद्धों के धम्मपद का अन्तिम वर्ग या अध्याय ब्राह्मणवग्ग है, जिसमें ब्राह्मण के स्वरूप, गुण, चरित्र आदि का वर्णन है। वहां कहा गया है " 'जिसके पार - नेत्र, कान, नासिका, जिह्वा, काया तथा मन, अपार-रूप शब्द, गन्ध, रस स्पर्श तथा पारापार - मैं और मेरा ये सब नहीं है, अर्थात् जो एषणाओं और भोगों से ऊंचा उठा हुआ है, निर्भय है, अनासक्त है, वह ब्राह्मण है । ब्राह्मण के लिए यह बात कम श्रेयस्कर नहीं है कि वह अपना मन प्रिय भोगों से हटा लेता है । जहां मन हिंसा से निवृत्त हो जाता है, वहां दुःख स्वयं ही शान्त हो जाता है । १. उत्तराध्ययन सूत्र २५ । २०- २९ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] [उपासकदशांगसूत्र जिसके मन, वचन तथा शरीर से दुष्कृत कर्म या पाप नहीं होते, जो इन तीनों ही स्थानों से संवृत-संयम युक्त है, उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं। जो फटे-पुराने चिथड़ों को धारण किए रहता है, कृश है, उग्र तपश्चरण द्वारा जिसकी देह पर नाड़ियां उभर आई है , एकाकी वन में ध्यान-निरत रहता है, मेरी दृष्टि में वही ब्राह्मण है। जो सभी संयोजनों-बन्धनों को छिन्न कर डालता है, जो कहीं भी परित्रास-भय नहीं पाता, जो आसक्ति और ममता से अतीत है , मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ। जो आक्रोश-क्रोध या गाली-गलौच, वध एवं बन्धन को, मन को जरा भी विकृत किए बिना सह जाता है, क्षमा-बल ही जिसकी बलवान् सेना है, वास्तव में वही ब्राह्मण है। जो क्रोध-रहित, व्रतयुक्त, शीलवान् बहु श्रुत, संयमानुरत तथा अन्तिम शरीरवान् है-शरीर त्याग कर निवाणगामी है, वही वास्तव में ब्राह्मण है। जो कमल के पत्ते पर पड़े जल और आरे की नोक पर पड़ी सरसों की तरह भोगों में लिप्त नहीं होता, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूं। जो गम्भीर-प्रज्ञाशील, मेधावी एवं मार्ग-अमार्ग का ज्ञाता है, जिसने उत्तम अर्थ-सत्य को प्राप्त कर लिया है, वही वास्तव में ब्राह्मण है। जो त्रस और स्थावर-चर-अचर सभी प्राणियों की हिंसा से विरत है, न स्वयं उन्हें मारता है, न मारने की प्रेरणा करता है, मैं उसी को ब्राह्मण कहता हूँ।'' उत्तराध्ययन तथा धम्मपद के प्रस्तुत विवेचन की तुलना करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों ही स्थानों पर ब्राह्मण के तपोमय, ज्ञानमय तथा शीलमय व्यक्तित्व के विश्लेषण में दृष्टिकोण की समानता रही हैं। गुण-निप्पन्न ब्राह्मणत्व के विवेचन में वैदिक वाङ्मय में भी हमें अनेक स्थानों पर उल्लेख प्राप्त होते हैं । महाभारत के शान्तिपर्व में इस सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न प्रसंगों में विवेचन हुआ है। ब्राह्मणवेत्ता ब्राह्मण का लक्षण बताते हुए एक स्थान पर कहा गया है-- ब्राह्मण गन्ध, रस विषय-सुख एवं आभूषणों की कामना न करे। वह सम्मान, कीर्ति तथा यश की चाह न रखे। द्रष्टा ब्राह्मण का यही आचार है। ____ जो समस्त प्राणियों को अपने कुटुम्ब की भांति समझता है, जानने योग्य तत्त्व का ज्ञाता होता है, कामनाओं से वर्जित होता है, वह ब्राह्मण कभी मरता नहीं अर्थात् जन्म-मरण के बन्धन से छूट जाता है। जब मन, वाणी और कर्म द्वारा किसी भी प्राणी के प्रति विकारयुक्त भाव नहीं करता, तभी व्यक्ति ब्रह्मभाव या ब्राह्मणत्व प्राप्त करता है। कामना ही इस संसार में एकमात्र बन्धन है, अन्य कोई बन्धन नहीं है । जो कामना के बन्धन १. धम्मपद ब्राह्मणवग्गो ३, ८, ९, १३, १५, १७, १८,१९, २१, २३ । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१५९ से मुक्त हो जाता है, वह ब्रह्मभाव--ब्राह्मणत्व प्राप्त करने में समर्थ होता है। जिससे बिना भोजन के ही मनुष्य परितृप्त हो जाता है, जिसके होने पर धनहीन पुरूष भी पूर्ण सन्तोष का अनुभव करता है, धृत आदि स्निग्ध पौष्टिक पदार्थ सेवन किए बिना जहाँ मनुष्य अपने में अपरिमित शक्ति का अनुभव करता है, वैसे ब्रह्मभाव को जो अधिगत कर लेता है, वही वेदवेत्ता ब्राह्मण कर्मों का अतिक्रम कर जाने वाले-कर्मों से मुक्त, विषय-वासनाओं से रहित, आत्मगुण को प्राप्त किए हुए ब्राह्मण को जरा और मुत्यु नहीं सताते ।'५ इसी प्रकार इसी पर्व के ६२वें अध्याय में, ७३ वें अध्याय में तथा और भी बहुत से स्थानों पर ब्राह्मणत्व का विवेचन हुआ है । प्रस्तुत विवेचन की गहराई में यदि हम जाएं तो स्पष्ट रूप में यह प्रतीत होगा कि महाभारतकार व्यासदेव की ध्वनि भी उत्तराध्ययन एवं धम्मपद से कोई भिन्न नहीं है। ____ भारतीय समाज-व्यवस्था के नियामक मनु के ब्राह्मण का अत्यन्त उत्तम चरित्रशील पुरूष के रूप में उल्लेख किया तथा उसके चरित्र में शिक्षा लेने की प्रेरणा दी है। इन विवेचनों को देखकर समझा जा सकता है कि पुरातन भारतीय वर्णव्यवस्था का आधार गुण, कर्म था, आज की भांति वंशपरम्परा नहीं। सकडालपुत्र की कल्पना १८८. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तेणं देवेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४-चिंतिए, पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पन्ने-एवं खलु ममं धम्मायरिए धम्मोवएसए गोसाले मंखलिपुत्ते, से णं महामाहणे उप्पन्न-णाण-दसणधरे जाव तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते, से णं कल्लं इहं हव्वमागच्छिस्सइ। तए णं तं अहं वंदिस्सामि जाव (सक्कारे स्सामि, सम्माणेस्सामि, कल्याणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पज्जुवासिस्सामि पाडिहारिएणं जाव (पीढ-फलग-सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतिस्सामि। उस देव द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया, मनोरथ, चिन्तन और संकल्प उठा-मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक, महामाहन, अप्रतिम ज्ञान-दर्शन के धारक, (अतीत, वर्तमान एवं भविष्य-तीनों काल के ज्ञाता, अर्हत्, जिन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, तीनों लोक अत्यन्त हर्षपूर्वक जिनके दर्शन की उत्सुकता लिए रहते हैं, जिनकी सेवा एवं उपासना की वांछा लिए रहते हैं , देव, मनुष्य तथा असुर-सभी द्वारा अर्चनीय, वन्दनीय, सत्करणीय, सम्माननीय, कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप, ज्ञानस्वरूप, पर्युपासनीय,) सत्कर्म-सम्पत्तियुक्त मंखलिपुत्र गोशालक कल यहां पधारेंगे। तब मैं उनकी वंदना, (सत्कार एवं सम्मान करूंगा। वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा १. महाभारत शान्तिपर्व २५१. १, ३, ६, ७, १८, २२ । २. मनुस्मृति २, २० ३. देखें सूत्र-संख्या १८७ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] . [उपासकदशांगसूत्र ज्ञानस्वरूप हैं) पर्युपासना करूंगा तथा प्रातिहारिक (पीठ, फलक, संस्तारक) हेतु आमंत्रित करूंगा। भगवान् महावीर का सान्निध्य १८९. तए णं कल्लं जाव' जलंते समणे भगवं महावीरे जाव' समोसरिए। परिसा निग्गया जाव पज्जुवासइ। तत्पश्चात् अगले दिन प्रात:काल भगवान् महावीर पधारे। परिषद् जुड़ी, भगवान् की पर्यु पासना की। १९०. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-एवं खलु समंणे भगवं महावीरे जाव (जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव सहस्संबवणे उजाणे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता अहापडिरूवं ओग्गहं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे ) विहरइ, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि जाव (नमंसामि, सक्कारेमि, सम्माणेमि कल्याणं, मंगलं, देवयं, चेइयं) पन्जुवासामि एवं संपेहेइ, संपेहित्ता ण्हाए जाव (कयवलिकम्मे , कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ते सुद्ध-प्पावेसाइं जाव (मंगल्लाइं वत्थाई पवरपरिहिए) अप्पमहग्धाभरणालंकिय-सरीरे, मणुस्सवग्गुरा-परिगए साओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता, पोलासपुरं नयरं मझंमणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उजाणे, जेणेव समणे भगवं महावीरे , तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव (णच्चासण्णे णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाण अभिमुहे विणएणं पंजलिउडे ) पज्जुवासइ। आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने यह सुना कि भगवान् महावीर पोलासपुर नगर में पधारे हैं। (सहस्त्राम्रवन उद्यान में यथोचित स्थान ग्रहण कर संयम एवं तप में आत्मा को भावित करते हुएअवस्थित हैं)। उसने सोचा-मैं जाकर भगवान् की वन्दना, (नमस्कार, सत्कार एवं सम्मान करूं । वे कल्याणमय, मंगलमय, देवस्वरूप तथा ज्ञानस्वरूप हैं।) पर्युपासना करूं। यों सोच कर उसने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा तथा दु:स्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु चन्दन, कुंकुम, दधि, अक्षत आदि द्वारा मंगल-विधान किया,) शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक एवं उत्तम) वस्त्र पहने । थोड़े से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया, अनेक लोगों को साथ लिए वह अपने घर से आया। आकर तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा की, वन्दन-नमस्कार किया, (वन्दन-नमस्कार कर भगवान् के न अधिक निकट, न अधिक दूर, सम्मुख अवस्थित हो, नमन करते हुए, सुनने की उत्कठां लिए विनयपूर्वक हाथ जोड़,) पर्युपासना की। १९१. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य १. देखें सूत्र-संख्या ६६ २. देखें सूत्र-संख्या ९ ३. देखें सूत्र-संख्या ११ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१६१ महइ जाव' धम्मकहा समत्ता। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा विशाल परिषद् को धर्म-देशना दी। १९२. सद्दालपुत्ता! इ समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासी-से नूणं, सद्दालपुत्ता! कल्लं तुमं पुव्वावरण्ह-काल-समयंसि जेणेव असोग-वणिया जाव विहरसि। तए णं तुभं एगे देवे अंतियं पाउन्भवित्था। तए णं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! तं चेव सव्वं जाव पजूवासिस्सामि, से नूणं, सद्दालपुत्ता! अढे समठे? हंता! अत्थि। नो खलु, सद्दालपुत्ता! तेणं देवेणं गोसालं मंखलिपुत्तं पणिहाय एवं वुत्ते। श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र! कल दोपहर के समय तुम जब अशोकवाटिका में थे जब एक देव तुम्हारे समक्ष प्रकट हुआ, आकाशस्थित देव ने तुम्हें यों कहा- कल प्रात: अर्हत्, केवली आएंगे। भगवान् ने सकडालपुत्र को उसके द्वारा वंदन नमन,, पर्युपासना करने के निश्चय तक का सारा वृत्तान्त कहा। फिर उससे पूछा-सकडालपुत्र! क्या ऐसा हुआ? सकडालपुत्र बोला-ऐसा ही हुआ। तब भगवान् ने कहा-सकडालपुत्र! उस देव ने मंखलिपुत्र गोशालक को लक्षित कर वैसा नहीं कहा था। सकडाल पर प्रभाव ___ १९३. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्स समाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए ४ (चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे)-एस णं समणे भगवं महावीरे महामाहणे, उत्पन्न-णाणदंसणधरे, जाव तच्च-कम्म-संपया-संपउत्ते। तं सेयं खलु ममं समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता पाडिहारिएणं पीढ-फलग जाव (सेज्जा-संथारएणं) उवनिमंतित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहित्ता उट्ठाए, उढेइ, उठेत्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु भंते! ममं पोलासपुरस्स नयरस्स बहिया पंच कुंभकारावणसया। तत्थ णं तुब्भे पाडिहारियं पीढ जाव (फलगसज्जा) संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरह। श्रमण भगवान् महावीर द्वारा यों कहे जाने पर आजीविकोपासक सकडालपुत्र के मन में ऐसा विचार आया-श्रमण भगवान् महावीर ही महामाहन, उत्पन्न ज्ञान, दर्शन के धारक तथा सत्कर्म १. देखें सूत्र-संख्या ११ २. देखें सूत्र-संख्या १८५ ३. देखें सूत्र-संख्या १८८ ४. देखें सूत्र-संख्या १८८ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [उपासकदशांगसूत्र सम्पत्ति-युक्त हैं । अतः मेरे लिए यह श्रेयस्कर है कि मैं श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार कर प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या तथा संस्तारक) हेतु आमंत्रित करूं । यों विचार कर वह उठा, श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और बोला-भगवन् ! पोलासपुर नगर के बाहर मेरी पांच-सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाएं हैं। आप वहां प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या) संस्तारक ग्रहण कर विराजें। भगवान् का कुंभकारापण में पदार्पण १९४. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स पंचकुंभकारावणसएस फासुएसणिजं पाडिहारियं पीढफलग जाव (सेज्जा) संथारयं ओगिण्हित्ता णं विहरइ। भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र का यह निवेदन स्वीकार किया तथा उसकी पांच सौ कुम्हारगीरी की कर्मशालाओं में प्रासुक, शुद्ध प्रातिहारिक पीठ, फलक (शय्या), संस्तारक ग्रहण कर भगवान् अवस्थित हुए। १९५. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए अन्नया कयाइ वायाहययं कोलालभंडं अंतो सालाहिंतो बहिया नीणेइ, नीणेत्ता, आयवंसि दलयइ। एक दिन आजीविकोपासक सकडालपुत्र हवा लगे हुए मिट्टी के बर्तन कर्मशाला के भीतर से बाहर लाया और उसने उन्हें धूप में रखा। १९६. तए णं से समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं ववासीसद्दालपुत्ता! एस णं कोलालभंडे कओ? भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र से कहा-सकडालपुत्र! ये मिट्टी के बर्तन कैसे बने? १९७. तए णं से सद्दालुपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासीएस णं भंते! पुव्वि मट्टिया आसी, तओ पच्छा उदएणं निमिजइ, निमिजिता छारेण य करिसेण य एगयाओ मीसिजइ, मीसिजित्ता चक्के आरोहिज्जइ, तओ बहवे करगा य जाव' उट्टियाओ य कजति। आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर से बोला-भगवन् ! पहले मिट्टी को पानी के साथ गूंधा जाता है, फिर राख और गोबर के साथ उसे मिलाया जाता है , यों मिला कर उसे चाक पर रखा जाता है, तब बहुत से करवे, (गडुए, परातें या कुंडे, अधघड़े, कलसे, बड़े मटके, सुराहियां) तथा कूपे बनाए जाते हैं। १. 'कहंकतो? --अंगसुत्ताणि पृ. ४०५ २. देखें सूत्र १८४ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१६३ १९८. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता! एस णं कोलाल-भंडे किं उठाणेणं जाव' पुरिसक्कार-परक्कमेणं कज्जति उदाहु अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कार-परक्कमेणं कज्जति? तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक संकडालपुत्र से पूछा-सकडालपुत्र ! ये मिट्टी के बर्तन क्या प्रयत्न, पुरूषार्थ एवं उद्यम द्वारा बनते हैं, अथवा प्रयत्न, पुरूषार्थ एवं उद्यम के बिना बनते हैं? १९९. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं एवं वयासीभंते! अणुट्ठाणेणं जाव अपुरिसक्कार-परक्कमेणं। नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा। आजीविकोपासक सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर से कहा-भगवन् ! प्रयत्न, पुरूषार्थ तथा उद्यम के बिना बनते है। प्रयत्न, पुरूषार्थ एवं उद्यम का कोई अस्तित्व या स्थान नही हैं, सभी भाव-होने वाले कार्य नियत-निश्चित हैं। २००. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं एवं वयासीसद्दालपुत्ता! जइ णं तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरेज्जा वा विक्खरेज्जा वा भिंदेज्जा वा अच्छिंदेजा वा परिट्ठवेज्जा वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाइं भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरेज्जा, तस्स णं तुमं पुरिसस्स किं दंडं वत्तेज्जासि? भंते! अहं णं तं पुरिसं निब्भच्छेजा वा हणेजा वा बंधेजा वा महेजा वा तजेजा वा तालेजा वा निच्छोडेज्जा वा निब्भच्छेजा वा अकाले जेव जीवियाओ ववरोवेजा। सद्दालपुत्ता! नो खलु तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं वा पक्केल्लयं वा कोलालभंडं अवहरइ वा जाव (विक्खरइ वा भिंदइ वा अच्छिदइ वा) परिट्ठवइ वा, अग्गिमित्ताए वा भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ, नो वा तुमं तं पुरिसं आआसेजसि वा हणेजसि वा जाव (बंधेज्जसि वा महेज्जसि वा तज्जेजस्सि वा तालेज्जसि वा निच्छोडेज्जसि वा निब्भच्छेज्जसि वा) अकाले चेव जीवियाओ ववरोवेज्जसि; जइ नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' परक्कमे इ वा, नियया सव्वभावा। अह णं तुब्भं केइ पुरिसे वायाहयं जाव (वा पक्केल्लयं-वा कोलालभंडं अवहरइ १. देखें सूत्र-संख्या १६९ २. देखें सूत्र-संख्या १६९ ३. देखें सूत्र-संख्या १६९ ४. देखें सूत्र-संख्या १६९ ५. देखें सूत्र-संख्या १६९ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [उपासकदशांगसूत्र वा विक्खरइ वा भिंदइ वा अच्छिदह वा) परिढुवेइ वा, अग्निमित्ताए वा जाव (भारियाए सद्धिं विउलाई भोगभोगाइं भुंजमाणे) विहरइ, तुमं वा तं पुरिस आओसेसि वा जाव (हणेसि वा बंधेसि वा महेसि वा तज्जेसि वा तालेसि वा निच्छोडेसि वा निब्भच्छेसि वा अकाले चेव जीवियाओ ) ववरोवेसि। तो जं वदसि--नत्थि उट्ठाणे इ वा जाव' नियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपत्र से कहा-सकडालपत्र! यदि कोई पुरूष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को चुरा ले या विखेर दे या उनमें छेद कर दे या उन्हें फोड़ दे या उठाकर बाहर डाल दे अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगे, तो उस पुरूष को तुम क्या दंड दोगे? सकडालपुत्र बोला-भगवन् मैं उसे फटकारूंगा या पीलूंगा या बांध दूंगा या रौंद डालूंगा या तर्जित करूंगा-धमकाऊंगा या असमय में ही उसके प्राण ले लूंगा। भगवान् महावीर बोले-सकडालपुत्र! यदि प्रयत्न, पुरूषार्थ एवं उद्यम नहीं है, सभी होने वाले कार्य निश्चित हैं तो कोई पुरूष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सूखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को नहीं चुराता है, (नहीं बिखेरता है, न उनमें छेद करता है, न उन्हें फोड़ता है), न उन्हें उठाकर बाहर डालता है और न तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग ही भोगता है, न तुम उस पुरूष को फटकारते हो, न पीटते हो, (न बांधते हो, न रौंदते हो, न तर्जित करते हो, न थप्पड़ मारते हो, न उसका धन छीनते हो, न कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करते हो), न असमय में ही उसके प्राण लेते हो (क्योंकि यह सब जो हुआ, नियत था)। ___ यदि तुम मानते हो कि वास्तव में कोई पुरूष तुम्हारे हवा लगे हुए या धूप में सुखाए हुए मिट्टी के बर्तनों को (चुराता है या बिखेरता है या उनमें छेद करता है या उन्हें फोड़ता है या) उठाकर बाहर डाल देता है अथवा तुम्हारी पत्नी अग्निमित्रा के साथ विपुल भोग भोगता है, तुम उस पुरूष को फटकारते हो (या पीटते हो या बांधते हो या रौंदते हो या तर्जित करते हो या थप्पड़-घुसे मारते हो या उसका धन छीन लेते हो या कठोर वचनों से उसकी भर्त्सना करते हो) या असमय में ही उसके प्राण ले लेते हो, तब तुम प्रयत्न, पुरूषार्थ आदि के न होने की तथा होने वाले सब कार्यों के नियत होने की जो बात कहते हो, वह असत्य है। बोधिलाभ २०१. एत्थ णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए संबुद्धे। इससे आजीविकोपासक सकडालपुत्र को संबोध प्राप्त हुआ। २०२. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, १. देखें सूत्र-संख्या १६९ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१६५ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि णं भंते! तुब्भं अतिए धम्मं निसामेत्तए। सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर को वन्दन-नमस्कार किया और उनसे कहा-भगवन् ! मैं आपसे धर्म सुनना चाहता हूं। २०३. तए णं समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तस्स आजीविओवासगस्स तीसे य जाव' धम्म परिकहेइ। तब श्रमण भगवान् महावीर ने आजीविकोपासक सकडालपुत्र को तथा उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश दिया। सकडालपुत्र एवं अग्निमित्रा द्वारा व्रत-ग्रहण २०४. तए णं से सद्दालपुत्ते आजीविओवासए समणस्स भगवओ महावीरसस अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठ जाव' हियए जहा आणंदो तहा गिहि-धम्म पडिवज्जइ। नवरं एगा हिरण्ण-कोडी निहाण-पउत्ता, एगा हिरण्णकोडी वुड्वि-पउत्ता, एगा हिरण्ण-कोडी पवित्थर-पउत्ता, एगे वए, दस गो-साहस्सिएणं वएणं जाव समणं भगवं महावीरं वंदइ नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जेणेव पोलासपुरे नयरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पोलासपुरं नयरं मझमज्झेणं जेणेव सए गिहे, जेणेव अग्गिमित्ता भारिया, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता, अग्गिमित्तं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे जाव' समोसढे, तं गच्छाहि णं तुमं, समणं भगवं महावीरं वंदाहि जाव पज्जुवासाहि , समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवजाहि। आजीविकोपासक सकडालपुत्र श्रमण भगवान् महावीर से धर्म सुनकर अत्यन्त प्रसन्न एवं संतुष्ट हुआ और उसने आनन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया। आनन्द से केवल इतना अन्तर था, सकडालपुत्र के परिग्रह के रूप में एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थी, एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थी तथा एक करोड़-मुद्राएं घर के वैभव-साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके एक गोकुल था, जिसमें दस हजार गायें थीं। सकडालपुत्र ने श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर वह वहां से चला, पोलासपुर नगर के बीच से गुजरता हुआ, अपने घर अपनी पत्नी अग्निमित्रा के पास आया और उससे बोला-देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं , तुम जाओ उनकी वंदना, पर्युपासना १. देखें सूत्र-संख्या ११ २. देखें सूत्र-संख्या १२ ३. देखें सूत्र-संख्या ९ ४. देखें सूत्र-संख्या ५८ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६] [उपासकदशांगसूत्र करो, उनसे पांच अणुव्रत तथा सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म स्वीकार करो। __ २०५. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया सद्दालपुत्तस्स समणोवासगस्स 'तह' त्ति एयमढं विणएण पडिसुणेइ। श्रमणोपासक सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने 'आप ठीक कहते है ' यों कहकर विनयपूर्वकअपने पति का कथन स्वीकार किया। २०६. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए कोडुम्बियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव, भो देवाणुप्पिया! लहु करण-जुत्त-जोइयं, समखुर-बालिहाणसमलिहिय-सिंगएहिं , जंबूणया-मय-कलाव-जोत्त-पइविसिट्ठएहिं, रययामय-घंटसुत्तरज्जुग-वरकंचण-खइय-नत्था-पग्गहोग्गहियएहिं, नीलुप्पल-कयामेलएहिं, पवर-गोणजुवाणएहिं , नाणा-मणि-कणग-घंटिया-जालपरिगयं, सुजाय-जुग-जुत्त, उज्जुगपसत्थसुविरइय-निम्मियं, पवर-लक्खणोववेयं जुत्तामेव धम्मियं जाण-प्पवरं उवट्ठवेह, उवढेवेत्ता मम एयमाणत्तियं पच्चप्पिणह। ____ तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने अपने सेवकों को बुलाया और कहा-देवानुप्रियों! तेज चलने वाले, एक जैसे खूर, पूंछ तथा अनेक रंगों से चित्रित सींग वाले, गले में सोने के गहने और जोत धारण किए, गले से लटकती चाँदी की घंटियों सहित नाक में उत्तम सोने के तारों से मिश्रित पतली सी सूत की नाथ से जुड़ी रास के सहारे वाहकों द्वारा सम्हाले हुए, नीले कमलों से बने आभरणयुक्त मस्तक वाले, दो युवा बैलों द्वारा खींचे जाते, अनेक प्रकार की मणियों और सोने की बहुत-सी घंटियों से युक्त, बढ़िया लकड़ी के एकदम सीधे, उत्तम और सुन्दर बने हुए जुए सहित, श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त धार्मिकधार्मिक कार्यों में उपयोग में आने वाला यानप्रवर-श्रेष्ठ रथ तैयार करों, तैयार कर शीघ्र मुझे सूचना दो। २०७. तए णं ते कोडुंबिय-पुरिसा जाव (सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठतुट्ठचित्तमाणंदिया, पीइमणा, परमसोमणस्सिया, हरिसवसविसप्पमाणहियया, करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु ‘एवं सामि!' त्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुत्तजोइयं जाव धम्मियं जाणप्पवरं उवट्ठवेत्ता तमाणत्तियं) पच्चप्पिणंति। __ श्रमणोपासक सकडालपुत्र द्वारा यों कहे जाने पर सेवकों ने (अत्यन्त प्रसन्न होते हुए, चित्त में आनन्द एवं प्रीति का अनुभव करते हुए, अतीव सौम्य मानसिक भावों से युक्त तथा हर्षातिरेक से विकसित हृदय हो, हाथ जोड़े , सिर के चारों ओर घुमाए तथा अंजलि बांधे 'स्वामी' यों आदरपूर्ण शब्द से सकडालपुत्र को सम्बोधित-प्रत्युत्तरित करते हुए उनका कथन स्वीकृतिपूर्ण भाव से विनय-पूर्वक सुना । सुनकर तेज चलने वाले बैलों द्वारा खींचे जाते उत्तम यान को शीघ्र ही उपस्थित किया। २०८. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया ण्हाया जाव (कयबलिकम्मा, कयकोउय Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] - [१६७ मंगल-) पायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाइं जाव (मंगल्लाइं वत्थाइ पवर परिहिया) अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरा, चेडिया-चक्कवाल-परिकिण्णा धम्मियं जाणप्पवरं दुरूहइ, दुरूहित्ता पोलापुर नगरं मझंमज्झेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव सहस्संबवणे उज्जाणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता धम्मियाओ जाणाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरूहित्ता चेडियाचक्कवाल-परिवुडा जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो जाव (आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता) वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता नच्चासन्ने नाइदूरे जाव (सुस्सूसमाणा, नमसमाणा अभिमुहे विणएणं) पंजलिउडा ठिइया चेव पज्जुवासइ। ___तब सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने स्नान किया, (नित्य-नैमित्तिक कार्य किए, देह-सज्जा की, दुःस्वप्न आदि दोष-निवारण हेतु मंगल-विधान किया), शुद्ध, सभायोग्य (मांगलिक, उत्तम) वस्त्र पहने, थोड़े-से बहुमूल्य आभूषणों से देह को अलंकृत किया। दासियों के समूह से घिरी वह धार्मिक उत्तम रथ पर सवार हुई, सवार होकर पोलासपुर नगर के बीच से गुजरती सहस्त्राम्रवन उद्यान में आई, धार्मिक उत्तम रथ से नीचे उतरी, दासियों के समूह से घिरी जहाँ भगवान् महावीर विराजित थे, वहाँ गई, जाकर (तीन बार आदक्षिण-प्रदक्षिणा की), वंदन-नमस्कार किया, भगवान् महावीर के न अधिक निकट न अधिक दूर सम्मुख अवस्थित हो नमन करती हुई, सुनने की उत्कंठा लिए, विनयपूर्वक हाथ जोड़े पर्युपासना करने लगी। २०९. तए णं समणे भगवं महावीरे अग्गिमित्ताए तीसे य जाव' धम्मं कहेइ। श्रमण भगवान् महावीर ने अग्निमित्रा को तथा उपस्थित परिषद् को धर्मोपदेश दिया। २१०. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा, निसम्म हट्ठ-तुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंसित्ता एवं वयासीसदहामि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं जाव (पत्तियामि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं, रोएमि णं भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते!) से जहेयं तुब्भे वयह। जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे उग्गा, भोगा जाव (राइण्णा, खत्तिया, माहणा, भडा, जोहा, पसत्थारो, मल्लई, लेच्छई, अण्णे य बहवे राईसर-तलवर-माडंविय-कोडं बिय-इब्भ-सेट्ठि-सेणावइसत्थवाहप्पभिइया मुंडा भवित्ता अगाराओ अणगारियं) पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडा भवित्ता जाव ( अगाराओ अणगारियं पव्वइत्तए।) अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त-सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहि-धम्म पडिवजिस्सामि। अहासुहं , देवाणुप्पिया! मा पडिवधं करेह। सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रवण कर हर्षित एवं १. देखें सूत्र-संख्या ११ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८] [उपासकदशांगसूत्र परितुष्ट हुई। उसने भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदन-नमस्कार कर वह बोली-भगवन् ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में श्रद्धा है, (विश्वास है, निर्ग्रन्थ-प्रवचन मुझे रूचिकर है, भगवन् ! यह ऐसा ही है, यह तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है , इच्छित-प्रतीच्छित है,) जैसा आपने प्रतिपादित किया, वैसा ही है। देवानुप्रिय! जिस प्रकार आपके पास बहुत से उग्र-आरक्षक-अधिकारी, भोग-राजा के मन्त्रीमण्डल के सदस्य (राजन्य-राजा के परामर्शक मण्डल के सदस्य, क्षत्रिय-क्षत्रिय वंश के राजकर्मचारी, ब्राह्मण, सुभट, योद्धा-युद्धोपजीवी-सैनिक, प्रशास्ता-प्रशासन-अधिकारी, मल्लकि-मल्ल-गणराज्य के सदस्य, लिच्छिवि-लिच्छिवि गणराज्य के सदस्य तथा अन्य अनेक राजा, ऐश्वर्यशाली, तलवर, माडंबिक, कौटुम्बिक, धनी, श्रेष्ठी सेनापति एवं सार्थवाह) आदि मुडित होकर, गृहवास का परित्याग कर अनगार या श्रमण के रूप में प्रव्रजित हुए, मैं उस प्रकार मुंडित होकर (गृहवास का परित्याग कर अनगार-धर्म में) प्रव्रजित होने में असमर्थ हूं। इसलिए आपके पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावक-धर्म ग्रहण करना चाहती हूं। अग्निमित्रा के यों कहने पर भगवान् ने कहा-देवानुप्रिये ! जिससे तुमको सुख हो, वैसा करों, विलम्ब मत करो। विवेचन इस सूत्र में आए मल्लकि और लिच्छिवि नाम भारतीय इतिहास के एक बड़े महत्त्वपूर्ण समय की ओर संकेत करते हैं। वैसे आज बोलचाल में यूरोप को, विशेषत: इंग्लैण्ड को प्रजातन्त्र का जन्मस्थान (mother of democracy) कह दिया जाता है, पर भारतवर्ष में प्रजातन्त्रात्मक शासनप्रणाली का सफल प्रयोग सहस्त्राब्दियों पूर्व हो चुका था। भगवन् महावीर एवं बुद्ध के समय आज के पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा तथा बिहार में अनेक ऐसे राज्य थे, जहाँ उस समय की अपनी एक विशेष गणतन्त्रात्मक प्रणाली से जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि शासन करते थे। शब्द उनके लिए भी राजा था, पर वह वंश-क्रमागत राज्य के स्वामी का द्योतक नहीं था। भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ तथा बुद्ध के पिता शुद्धोधन दोनों के लिए राजा शब्द आया है, पर वे संघ-राज्यों के निर्वाचित राजा या शासनपरिषद् के सदस्य थे, जिन पर एक क्षेत्र-विशेष के शासन का उत्तरदायित्व था। प्राचीन पाली तथा प्राकृत ग्रन्थों में इन संघ-राज्यों का अनेक स्थानों पर वर्णन आया है। कुछ संघ मिल कर अपना एक वृहत् संघ भी बना लेते थे। ऐसे संघों में वज्जिसंघ प्रसिद्ध था, जिसमें मुख्यतः लिच्छिवि, नाय (ज्ञातृक) तथा वजि आदि सम्मिलित थे। उस समय के संघ-राज्यों में कपिलवस्तु के शाक्य, पावा तथा कुशीनारा के मल्ल, पिप्पलिवन के मौर्य, मिथिला के विदेह, वैशाली के लिच्छिवि तथा नाय बहुत प्रसिद्ध थे। यहां प्रयुक्त मल्लकि शब्द मल्ल संघ-राज्य से सम्बद्ध जनों के लिए तथा लिच्छिवि शब्द लिच्छिवि संघ-राज्य से सम्बद्ध जनों के लिए है। भगवान् महावीर के पिता सिद्धार्थ लिच्छिवि और नाय संघ से सम्बद्ध थे। लिच्छिवि संघ-राज्य के प्रधान चेटक थे, जिनकी बहिन त्रिशला का विवाह सिद्धार्थ से हुआ था। अर्थात् चेटक भगवान् महावीर के मामा थे। कल्पसूत्र में एक ऐसे संघीय-समुदाय का उल्लेख है, जिसमें नौ मल्लकि, नौ लिच्छिवि तथा काशी, कोसल के १८ गणराज्य Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१६९ सम्मिलित थे। यह संगठन चेटक के नेतृत्व में हुआ था। इसका मुख्य उद्देश्य कुणिक अजातशत्रु के आक्रमण का सामना करना था। ___ इन संघराज्यों की संसदों, व्यवस्था, प्रशासन इत्यादि का जो वर्णन हम पाली, प्राकृत ग्रन्थों में पढ़ते हैं, उससे प्रकट होता है कि हमारे देश में जनतन्त्रात्मक प्रणाली के सन्दर्भ में सहस्त्रों वर्ष पूर्व बड़ी गहराई से चिन्तन हुआ था। संघ की एक सभा होती थी, वह शासन और न्याय दोनों का काम करती थी। संघका प्रधान, जो अध्यक्षता करता था, मुख्य राजा कहलाता था। संघ की एक राजधानी होती थी. जहां सभाओं का आयोजन होता था। लिच्छिवियों की राजधानी वैशाली थी। उस समय हमारा देश धन, धान्य और समृद्धि में चरम उत्कर्ष पर था। भगवान् महावीर और बुद्ध के समय वैशाली बड़ी समृद्ध और उन्नत नगरी थी। एक तिब्बती उल्लेख के अनुसार वैशाली तीन भागों में विभक्त थी, जिनमें क्रमशः सात हजार चौदह हजार तथा इक्कीस हजार घर थे। वैशाली उस समय की महानगरी थी, इसलिए ये तीन विभाग संभवतः वैशाली, कुंडपुर और वाणिज्यग्राम हों। भगवान् महावीर का एक विशेष नाम वेसालिय (वैशाली से सम्बद्ध) भी है । भगवान् महावीर लिच्छिवि संघ के अन्तर्गत नाय (ज्ञात) संघ से सम्बद्ध थे। २११. तए णं सा अग्गिमित्ता भारिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए पंचाणुवइयं सत्तसिक्खावइयं दुवालस-विहं सावग-धम्म पडिवज्जइ, पडिवजित्ता संमणं भगवं महावीरं वंदड नमंसड.वंदित्ता नमंसित्ता तमेव धम्मियं जाण-प्पवरं दरूहड़. दरू जामेव दिसिं पाउब्भूया, तामेव दिसिं पडिगया। __ तब अग्निमित्रा ने श्रमण भगवान् महावीर के पास पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत रूप बारह प्रकार का श्रावकधर्म स्वीकार किया, श्रमण भगवान् महावीर को वंदन-नमस्कार किया। वंदननमस्कार कर उसी उत्तम धार्मिक रथ पर सवार हुई तथा जिस दिशा से आई थी उसी की ओर लौट गई। भगवान् का प्रस्थान २१२. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ पोलासपुराओ नयराओ सहस्संबवणाओ उज्जाणाओ पडिनिग्गच्छइ, पडिनिग्गच्छित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर पोलासपुर नगर से, सहस्त्राम्रवन उद्यान से प्रस्थान कर एक दिन अन्य जनपदों में विहार कर गए। २१३. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' विहरइ। तत्पश्चात् सकडालपुत्र जीव-अजीव आदि तत्वों का ज्ञाता श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। गोशालक का आगमन २१४. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते इमीसे कहाए लद्धढे समाणे-एवं खलु सद्दालपुत्ते १. देखें सूत्र-संख्या ६४। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७०] [उपासकदशांगसूत्र आजीविय-समयं वमित्ता समणाणं निग्गंथाणं दिद्धिं पडिवने। तं गच्छामि णं सद्दालपुत्तं आजीविओवासयं समणाणं निग्गंथाणं दिद्धिं वामेत्ता पुणरवि आजीविय-दिढेि गेण्हावित्तए त्ति कटु एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता आजीविय-संघसंपरिवुडे जेणेव पोलासपुरे नयरे, जेणेव आजीवियसभा, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आजीवियसभाए भंडग-निक्खेबं करेइ, करेत्ता कइवएहिं आजीविएहिं सद्धिं जेणेव सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छइ। कुछ समय बाद मंखलिपुत्र गोशालक ने यह सुना कि सकडालपुत्र आजीविक-सिद्धान्त को छोड़ कर श्रमण-निग्रन्थों की दृष्टि-दर्शन या मान्यता स्वीकार कर चुका है, तब उसने विचार किया कि मैं आजीविकोपासक सकडालपुत्र के पास जाऊँ और श्रमण निर्ग्रन्थों की मान्यता छुड़ाकर उसे फिर आजीविक-सिद्धान्त ग्रहण करवाऊं। यों विचार कर वह आजीविक संघ के साथ पोलासपुर नगर में आया, आजीविक-सभा में पहुंचा, वहां अपने पात्र, उपकरण रखे कतिपय आजीविकों के साथ जहां सकडालपुत्र था, वहां गया। सकडालपुत्र द्वारा उपेक्षा २१५. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एजमाणं पासइ, पासित्ता नो आढाइ, नो परिजाणाइ, अणाढायमाणे अपरिजाणमाणे तुसिणीए संचिट्ठइ। श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक को आते हुए देखा। देखकर न उसे आदर दिया और न परिचित जैसा व्यवहार ही किया। आदर न करता हुआ, परिचित का सा व्यवहार न करता हुआ, अर्थात् उपेक्षाभावपूर्वक वह चुपचाप बैठा रहा। गोशालक द्वारा भगवान् का गुण-कीर्तन २१६. तए णं से गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तेणं समणोवासएणं अणाढाइजमाणे अपरिजाणिज्जमाणे पीढ-फलग-सिज्जा-संथारट्ठयाए समणस्स भगवओ महावीरस्स गुणकित्तणं करेमाणे सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-आगए णं, देवाणुप्पिया! इहं महामाहणे? श्रमणोपासक सकडालपुत्र से आदर न प्राप्त कर, उसका उपेक्षा भाव देख मंखलिपुत्र गोशालक पीठ, फलक, शय्या तथा संस्तारक आदि प्राप्त करने हेतु श्रमण भगवान् महावीर का गुण-कीर्तन करता हुआ श्रमणोपासक सकडालपुत्र से बोला--देवानुप्रिय! क्या यहां महामाहन आए थे? २१७. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-के णं, देवाणुप्पिया! महामाहणे? श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-देवानुप्रिय! कौन महामाहन? (आपका किससे अभिप्राय है?) २१८. तए णं गोसाले मंखलिपुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-समणे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र ] भगवं महावीरे महामाहणे । सेकेणट्ठेणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे ? एवं खलु, सद्दालपुत्ता ! समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्न - णाण- दंसणधरे जाव' महिय-पूइए जाव' तच्च - कम्म- संपया - संपउत्ते । से तेणट्ठेणं देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महामाहणे । आगए णं देवाणुप्पिया ! इहं महागोवे ? के णं, देवाणुप्पिया ! महागोवे ? समणे भगवं महावीरेमहागोवे । सेकेणट्ठेणं, देवाणुप्पिया ! जाव ( एवं वुच्चइ - समणे भगवं महावीरे ) महागोवे । एवं खलु, देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, खज्जमाणे, छिज्जमाणे, भिज्जमाणे, लुप्पमाणे, विलुप्पमाणे, धम्ममएणं दंडेणं सारक्खमाणे, संगोवेमाणे, निव्वाण - महावाडं साहत्थिं संपावेइ। से तेणट्ठेणं, सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महागोवे । आगए णं, देवाणुप्पिया ! इहं महासत्थवाहे? के णं, देवाणुप्पिया! महासत्थवाहे ? सद्दालपुत्ता! समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे । सेकेणट्ठेणं? [ १७१ एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे संसाराडवीए बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, जाव (खज्जमाणे, छिज्जमाणे, भिज्जमाणे, लुप्पमाणे ) विलुप्पमाणे धम्ममएणं पंथेणं सारक्खमाणे निव्वाण - महापट्टणाभिमुहे साहत्थिं संपावेइ । से तेणट्ठेणं, सद्दालपुत्ता ! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महासत्थवाहे । आगए णं, देवाणुप्पिया! इहं महाधम्मकही! के णं, देवाणुप्पिया!. महाधम्मकही ? समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही । सेकेणट्ठेणं समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही ? १. देखें सूत्र - संख्या १८८ । २. देखें सूत्र - संख्या १८८ । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२] [उपासकदशांगसूत्र एवं खलु, देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे महइ-महालयंसि संसारंसि बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे, खजमाणे, छिजमाणे, भिजमाणे, लुप्पमाणे, विलुप्पमाणे, उम्मग्गपडिवन्ने, सप्पह-विप्पणठे मिच्छत्त-बलाभिभूए, अट्ठविह-कम्म-तम-पडलपडोच्छन्ने, बहूहिं अट्ठेहि य जाव' वागरणेहि य चाउरंताओ संसारकंताराओ साहत्थिं नित्थारेइ। से तेणट्ठणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महाधम्मकही। आगए णं, देवाणुप्पिया! इहं महानिजामए? के णं, देवाणुप्पिया! महानिजामए? समणे भगवं महावीरे महानिजामए। से केणढेणं? एवं खलु, देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे संसार-महा-समुद्दे बहवे जीवे नस्समाणे, विणस्समाणे जाव' विलुप्पमाणे बुड्डमाणे, निबुड्डमाणे, उप्पियमाणे धम्ममईए नावाए निव्वाण-तीराभिमुहे साहत्थि संपावेइ। तेणढेणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ समणे भगवं महावीरे महानिजामए। मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र से कहा-श्रमण भगवान् महावीर महामाहन हैं सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर को महामाहन किस अभिप्राय से कहते हो? गोशालक-सकडालपत्र! श्रमण भगवान् महावीर अप्रतिहत ज्ञान-दर्शन के धारक हैं , तीनों लोकों द्वारा सेवित एवं पूजित हैं , सत्कर्मसम्पत्ति से युक्त हैं, इसलिए मैं उन्हें महामाहन कहता हूं। गोशालक ने फिर कहा-क्या यहां महागोप आए थे? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! कौन महागोप? (महागोप से आपका क्या अभिप्राय?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महागोप हैं। सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! उन्हें आप किस अर्थ में महागोप कह रहे हैं? गोशालक-देवानुप्रिय! इस संसार रूपी भयानक वन में अनेक जीव नश्यमान हैं -सन्मार्ग से च्युत हो रहे हैं , विनश्यमान हैं -प्रतिक्षण मरण प्राप्त कर रहे हैं, खाद्यमान हैं -मृग आदि की योनि में शेरबाघ आदि द्वारा खाए जा रहे हैं, छिद्यमान हैं -मनुष्य यदि योनि में तलवार आदि से काटे जा रहे हैं, भिद्यमान हैं -भाले आदि द्वारा बींधे जा रहे हैं, लुप्यमान हैं -जिनके कान, नासिका आदि का छेदन किया जा रहा हैं , विलुप्यमान हैं -जो विकलांग किए जा रहे हैं, उनका धर्म रूपी दंड से रक्षण करते १. देखें सूत्र-संख्या १७५ २. देखें सूत्र यही Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] . [१७३ हुए, संगोपन करते हुए-बचाते हुए, उन्हें मोक्ष रूपी विशाल बाड़े में सहारा देकर पहुंचाते हैं । सकडालपुत्र! इसलिए श्रमण भगवान् महावीर को मैं महागोप कहता हूं। गोशालक ने फिर से कहा--देवानुप्रिय! क्या यहाँ महासार्थवाह आए थे? सकडालपुत्र-महासार्थवाह आप किसे कहते हैं ? गोशालक-सकडालपुत्र! श्रमण भगवान् महावीर महासार्थवाह हैं। सकडालपुत्र-किस प्रकार? गोशालक-देवानुप्रिय! इस संसार रूपी भयानक वन में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान, (खाद्यमान, छिद्यमान, भिद्यमान, लुप्यमान) एवं विलुप्यमान हैं, धर्ममय मार्ग द्वारा उनकी सुरक्षा करते हुए-धर्ममार्ग पर उन्हें आगे बढ़ाते हुए, सहारा देकर मोक्ष रूपी महानगर में पहुंचाते हैं । सकडालपुत्र! इस अभिप्राय से मैं उन्हें महासार्थवाह कहता हूं। गोशालक-देवानुप्रिय! क्या महाधर्मकथी यहां आए थे? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! कौन महाधर्मकथी? (आपका किनसे अभिप्राय है?) गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी हैं। सकडालपुत्र-श्रमण भगवान् महावीर महाधर्मकथी किस अर्थ में हैं? गोशालक-देवानुप्रिय! इस अत्यन्त विशाल संसार में बहुत से प्राणी नश्यमान, विनश्यमान है, खाद्यमान, छिद्यमान, लुप्यमान हैं , विलुप्यमान हैं, उन्मार्गगामी हैं , सत्पथ से भ्रष्ट हैं , मिथ्यात्व से ग्रस्त हैं , आठ प्रकार के कर्म रूपी अन्धकार-पटल के पर्दे से ढके हुए हैं , उनको अनेक प्रकार से सत् तत्त्व समझाकर, विश्लेषण कर, चार-देव, मनुष्य, तिर्यञ्च, नरक गतिमय संसार रूपी भयावह वन से सहारा देकर निकालते हैं, इसलिए देवानुप्रिय! मैं उन्हें महाधर्मकथी कहता हूं। गोशालक ने पुनः पूछा-देवानुप्रिय! क्या यहां महानिर्यामक आए थे? सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! कौन महानिर्यामक? गोशालक-श्रमण भगवान् महावीर महानिर्यामक है। सकडालपुत्र-किस प्रकार? गोशालक-देवानुप्रिय! संसार रूपी महासमुद्र में बहुत से जीव नश्यमान, विनश्यमान एवं विलुप्यमान हैं डूब रहे हैं, गोते खा रहे हैं, बहते जा रहे हैं उनको सहारा देकर धर्ममयी नौका द्वारा मोक्ष रूपी किनारे पर ले जाते हैं । इसलिए मैं उनको महानिर्यामक-कर्णधार या महान् खेवैया कहता हूं। विवेचन इस सूत्र में भगवान् महावीर की अनेक विशेषताओं को सूचित करने वाले कई विशेषण प्रयुक्त हुए हैं, उनमें 'महागोप' तथा 'महासार्थवाह ' भी हैं । ये दोनों बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४] [ उपासकदशांगसूत्र भगवान् महावीर का समय एक ऐसा युग था, जिसमें गोपालन का देश में बहुत प्रचार था । उस समय के बड़े गृहस्थ हजारों की संख्या में गायें रखते थे । जैसा पहले वर्णित हुआ है, गोधन जहां समृद्धि का द्योतक था, उपयोगिता और अधिक से अधिक लोगों को काम देने की दृष्टि से भी उसका महत्त्व था। ऐसे गो-प्रधान युग में गायों की देखभाल करने वाले का - गोप का भी कम महत्त्व नहीं था । भगवान् ‘महागोप' के रूपक द्वारा यहां जो वर्णित हुए है, उसके पीछे समाज की गोपालनप्रधान वृत्ति का संकेत हैं । गायों को नियंत्रित करने वाला गोप उन्हें उत्तम घास आदि चरने के लोभ में भटकने नहीं देता, खोने नहीं देता, चरा कर उन्हें सायंकाल उनके बाड़े में पहुंचा देता है, उसी प्रकार भगवान् के भी ऐसे लोक-संरक्षक एवं कल्याणकारी रूप की परिकल्पना इसमें है, जो प्राणियों को संसार में भटकने से बचाकर मोक्ष रूप बाड़े में निविघ्न पहुंचा देते हैं । 'महासार्थवाह' शब्द भी अपने आप में बड़ा महत्त्वपूर्ण हैं । सार्थवाह उन दिनों उन व्यापारियों को कहा जाता था जो दूर-दूर भू-मार्ग से या जल-मार्ग से लम्बी यात्राएं करते हुए व्यापार करते थे । वे यदि भूमार्ग से वैसी यात्राओं पर जाते तो अनेक गाड़े गाडियां माल से भर कर ले जाते, जहां लाभ मिलता बेच देते, वहां दूसरा सस्ता माल भर लेते। यदि ये यात्राएं समुद्री मार्ग से होती तो जहाज ले जाते । यात्राएं काफी लम्बे समय की होती थीं, जहाज में बेचने के माल के साथ-साथ उपयोग की सारी चीजें भी रखी जातीं, जैसे पीने का पानी, खाने की चीजें, औषधियां आदि । इन यात्राओं का संचालक सार्थवाह कहा जाता था । ऐसे सार्थवाह की खास विशेषता यह होती, जब वह ऐसी व्यापारिक यात्रा करना चाहता, , सारे नगर में खुले रूप में घोषित करवाता, जो भी व्यापार हेतु इस यात्रा मे चलना चाहे, अपने सामान के साथ गाड़े- गाड़ियों या जहाज में आ जाय, उसकी सब व्यवस्थाएं सार्थवाह की ओर से होंगी। आगे पैसे की कमी पड़ जाय तो सार्थवाह उसे पूरी करेगा। इससे थोड़े माल वाले छोटे व्यापारियों को बड़ी सुविधा होती, क्योंकि अकेले यात्रा करने के साधन उनके पास होते नही थे। लम्बी यात्राओं में लूट-खसोट का भी भय था, ,जो सार्थ में नही होता, क्योंकि सार्थवाह आरक्षकों का एक शस्त्र-सज्जित दल भी अपने साथ लिए रहता था । यों छोटे व्यापारी अपने अल्पमत साधनों से भी दूर-दूर व्यापार कर पाने में सहारा पा लेते। सामाजिकता की दृष्टि से वास्तव में यह परम्परा बड़ी उपयोगी और महत्त्वपूर्ण थी। इसलिए उन दिनों सार्थवाह की बड़ी सामाजिक प्रतिष्ठा और सम्मान था । 1 जैन आगमों में ऐसे अनेक सार्थवाहों का वर्णन है । उदाहरणार्थ, नायाधम्मकहाओ के १५वें अध्ययन में धन्य सार्थवाहक का वर्णन है। जब वह चंपा से अहिच्छात्रा की व्यापारिक यात्रा करना चाहता है तो वह नगर में सार्वजनिक रूप में इसी प्रकार की घोषणा कराता है कि उसके सार्थ में जो भी चलना चाहे, सहर्ष चले आचार्य हरिभद्र ने समरादित्यकथा के चौथे भव में धन नामक सार्थवाहपुत्र की ऐसी ही यात्रा की चर्चा की है, जब वह अपने निवास स्थान सुशर्मनगर से ताम्रलिप्ति जा रहा था । उसने भी इसी प्रकार Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१७५ से अपनी यात्रा की घोषणा करवाई। ___ भगवान् महावीर को 'महासार्थवाह' के रूपक से वर्णित करने के पीछे महासार्थवाह शब्द के साथ रहे सामाजिक सम्मान का सूचन है । जैसे महासार्थवाह सामान्य जनों को अपने साथ लिए चलता है, बहुत बडी व्यापारिक मंडी पर पहुंचा देता है, वैसे ही भगवान् महावीर संसार में भटकते प्राणियों को मोक्ष-जो जीवन-व्यापार का अन्तिम लक्ष्य है, तक पहुंचने में सहारा देते हैं। २१९. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! इयच्छे या जाव (इयदच्छा, इयपट्ठा,) इयनिउणा, इय-नयवादी, इयउवएसलद्धा, इय-विण्णाण-पत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए? नो तिणठे समठे! से केणढेणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ नो खलु पभू तुब्भे ममं धम्मायरिएणं जाव (धम्मोवएसएणं, समणेणं भगवया) महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए? सद्दालपुत्ता! से जहानामए केइ पुरिसे तरूणे जुगवं जाव (बलवं अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, पडिपुण्णपाणिपाए, पिठंतरोरूसंघायपरिणए, घणनिचियवट्टपालिखंधे, लंघण-पवन-जइण-वायाम-समत्थे, चम्मेठ-दुघण-मुट्ठिय-समाहय-निचिय-गत्ते, उरस्सबलसमन्नागए, तालजमलजुयलबाहू, छेए, दक्खे, पत्तठे) निउण-सिप्पोवगए एगं महं अयं वा, एलयं वा, सूयरं वा, कुक्कुडं वा, तित्तिरं वा, वट्टयं वा, लावयं वा, कवोयं वा, कविंजलं वा, वायसं वा, सेणयं वा हत्थंसि वा, पायंसि वा, खुरंसि वा, पुच्छंसि वा, पिच्छंसि वा, सिगंसि वा, विसाणंसि वा, रोमंसि वा जहिं जहिं गिण्हइ, तहिं तहिं निच्चलं निप्पंदं धरेइ। एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहिं अद्वेहि य हेऊहि य जाव(पसिणेहि य कारणेहि य) वागरणेहि य जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निप्पट्ठ-पसिण-वागरणं करेइ। से तेणढेणं, सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं, जाव' महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए। तत्पश्चात् श्रमणोपासक सकडालुपत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-देवानुप्रिय! आप इतने छेक, विचक्षण (दक्ष-चतुर-प्रष्ठ-वाग्मी-वाणी के धनी), निपुण-सूक्ष्मदर्शी, नयवादी-नीति-वक्ता, उपदेशलब्ध-आप्तजनों का उपदेश प्राप्त किए हुए--बहु श्रुत, विज्ञान-प्राप्त-विशेष बोधयुक्त हैं, क्या आप मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ हैं ? गोशालक-नहीं, ऐसा संभव नहीं है। सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! कैसे कह रहे हैं कि आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) १. देखें सूत्र यही। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६] [उपासकदशांगसूत्र महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं है? गोशालक-सकडालपुत्र ! जैसे कोई बलवान्, नीरोग, उत्तम लेखक की तरह अंगुलियों की स्थिर पकड़वाला, प्रतिपूर्ण-परिपूर्ण, परिपुष्ट हाथ-पैरवाला, पीठ, पार्श्व, जंघा आदि सुगठित अंगयुक्तउत्तम संहननवाला, अत्यन्त सघन, गोलाकार तथा तालाब की पाल जैसे कन्धोंवाला, लंघन-अतिक्रमणकूद कर लम्बी दूरी पार करना, प्लवन-ऊँचाई में कूदना आदि वेगपूर्वक या शीघ्रता से किए जाने वाले व्यायामों में सक्षम, ईटों के टुकड़ों से भरे हुए चमड़े के कूपे, मुग्दर आदि द्वारा व्यायाम का अभ्यासी, मौष्टिक-चमड़े की रस्सी में पिरोए हुए मुट्ठी के परिमाण वाले गोलाकार पत्थर के टुकड़े-व्यायाम करते समय इनसे ताडित होने से जिनके अङ्ग चिह्नित हैं-यों व्यायाम द्वारा जिसकी देह सुदृढ तथा सामर्थ्यशाली है, आन्तरिक उत्साह व शक्तियुक्त, ताड़ के दो वृक्षों की तरह सुदृढ़ एवं दीर्घ भुजाओं वाला, सुयोग्य, दक्ष-शीघ्रकारी, प्राप्तार्थ-कर्म-निष्णात, निपुणशिल्पोपगत-शिल्प या कला की सूक्ष्मता तक पहुँचा हुआ कोई युवा पुरूष एक बड़े बकरे, मेंढे, सुअर,मुर्गे, तीतर, बटेर, लवा, कबूतर, पपीहे, कौए या बाज के पंजे, पैर खुर, पूंछ, पंख सींग, रोम जहाँ से भी पकड़ लेता है, उसे वहीं निश्चलगतिशून्य तथा निष्पन्द-हलन-चलन रहित कर देता है, इसी प्रकार श्रमण भगवान् महावीर मुझे अनेक प्रकार के तात्त्विक अर्थों, हे तुओं (प्रश्नों, कारणों) तथा विश्लेषणों द्वारा जहाँ-जहाँ पकड़ लेंगे, वहींवहीं मुझे निरूत्तर कर देंगे। सकडालपुत्र ! इसीलिए कहता हूँ कि तुम्हारे धर्माचार्य भगवान् महावीर के साथ मैं तत्त्वचर्चा करने में समर्थ नहीं हूँ। गोशालक का कुंभकारापण में आगमन __२२०. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलि-पुत्तं एवं वयासीजम्हा णं देवाणुप्पिया! तुब्भे मम धम्मायरियस्स जाव (धम्मोवएसगस्स, समणस्स भगवओ) महावीरस्स संतेहिं, तच्चेहिं, सब्भूएहिं भावेहिं गुणकित्तणं करेह, तम्हा णं अहं तुब्भे पाडिहारिएणं पीढ जाव (फलग-सेजा) संथारएणं उवनिमंतेमि, नो चेव णं धम्मोत्ति वा, तवोत्ति वा। तं गच्छह णं तुब्भे मम कुंभारावणेसु पाडिहारियं पीढ-फलग जाव (सेजासंथारयं) ओगिण्हित्ताणं विहरह। तब श्रमणोपासक सकडालपुत्र ने गोशालक मंखलिपुत्र से कहा-देवानुप्रिय! आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) महावीर का सत्य, यथार्थ, तथ्य तथा सद्भूत भावों से गुणकीर्तन कर रहे हैं, इसलिए मैं आपको प्रातिहारिक पीठ, (फलक-शय्या) तथा संस्तारक हेतु आमंत्रित करता हूं, धर्म या तप मानकर नहीं। आप मेरे कुंभकारापण-बर्तनों की कर्मशाला में प्रातिहारिक पीठ, फलक, (शय्या तथा संस्तारक) ग्रहण कर निवास करें। २२१. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स एयमलैं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता कुंभारावणेसु पाडिहारियं पीढ जाव (फलग-सेज्जा-संथारयं) ओगिण्हित्ताणं विहरइ। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] . [१७७ मंखलिपुत्र गोशालक ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र का यह कथन स्वीकार किया और वह उसकी कर्म-शालाओं में प्रातिहारिक पीठ, (फलक, शय्या, संस्तारक) ग्रहण कर रह गया। निराशापूर्ण गमन २२२. तए णं से गोसाले मंखलि-पुत्ते सद्दालपुत्तं समणोवासयं जाहे नो संचाएइ बहू हिं आघवणाहि य पण्णवणाहि य सण्णवणाहि य विण्णवणाहि य निग्गंथाओ पावयणाओ चालित्तए वा खोभित्तए वा विपरिणामित्तए वा, ताहे संते, तंते, परितंते पोलासपुराओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। मंखलिपुत्र गोशालक आख्यापना-अनेक प्रकार से कहकर, प्रज्ञापना-भेदपूर्वक तत्त्व निरूपण कर, संज्ञापना-भली भांति समझा कर तथा विज्ञापना-उसके मन के अनुकूल भाषण करके भी वह श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्ग्रन्थ-प्रवचन से विचलित, क्षुभित तथा विपरिणामित-विपरीत परिणाम युक्त नहीं कर सका-उसके मनोभावों को बदल नहीं सका तो वह श्रान्त, क्लान्त और खिन्न होकर पोलासपुर नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गया। देवकृत उपसर्ग - २२३. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील-जाव' भावेमाणस्स चोइस संवच्छराइं वइक्ताई। पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स पुव्व-रत्तावरत्त-काले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवसो महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ। तदन्तर श्रमणोपासक सकडालपुत्र को व्रतों की उपासना द्वारा आत्म-भावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। जब पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था, तब एक बार आधी रात के समय वह श्रमण भगवान् के पास अंगीकृत धर्मप्रज्ञप्ति के अनुरूप पोषधषाला में उपासनारत था। २२४. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्य पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था। अर्द्ध-रात्रि में श्रमणोपासक सकडालपुत्र के समक्ष एक देव प्रकट हुआ। २२५. तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ। नवरं एक्केक्के पुत्ते नव मंससोल्लए करेइ जाव कनीयसं घाएइ, घाएत्ता जाव' आयंचइ। १. देखें सूत्र-संख्या १२२ २. देखें सूत्र-संख्या ९२ ३. देखें सूत्र-संख्या ११६ ४. देखें सूत्र-संख्या १३६ ५. देखें सूत्र-संख्या १३६ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [उपासकदशांगसूत्र । उस देव ने एक बड़ी, नीली तलवार निकाल कर श्रमणोपासक सकडालपुत्र से उसी प्रकार कहा, वैसा ही उपसर्ग किया, जैसा चुलनीपिता के साथ देव ने किया था। सकडालपुत्र के बड़े, मंझले व छोटे बेटे की हत्या की, उनका मांस व रक्त उस पर छिड़का। केवल यही अन्तर था कि यहां देव ने एक-एक पुत्र के नौ-नौ मांस खंड किए। २२६. तए ण से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव' विहरइ। ऐसा होने पर भी श्रमणोपासक सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा। २२७. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता चउत्थं पि सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! समणोवासया! अपत्थियपत्थिया! जाव न भंजेसि तओ जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्म-सहाइया, धम्म-विइजिया, धम्माणुरागरत्ता, सम-सुह-दुक्ख-सहाइया, तं ते साओ गिहाओ नीणेमि नीणेत्ता तब अग्गओ घाएमि, घाएत्ता नव मंस-सोल्लए करेमि, करेत्ता आदाण-भरियंसि कडाहयंसि अहहेमि, अहहेत्ता तव गायं मंसेण य सोणिएण य आयंचामि, जहा णं तुमं अट्ट-दुहट्ट जाव (वसट्टे अकाले चेव जीवियाओ) ववरोविज्जसि। उस देव ने जब श्रमणोपासक सकडालपुत्र को निर्भीक देखा, तो चौथी बार उसको कहा-मौत को चाहने वाले श्रमणोपासक सकडालपुत्र! यदि तम अपना व्रत नहीं तोड़ते हो तो तुम्हारी धर्मसहायिका-धार्मिक कार्यों में सहयोग करने वाली, धर्मवैद्या जीवन में शिथिलता या दोष आने पर प्रेरणा द्वारा धार्मिक स्वास्थ्य प्रदान करने वाली, अथवा धर्मद्वितीया-धर्म की संगिनी-साथिन, धर्मानुरागरक्ताधर्म के अनुराग में रंगी हुई, समसुखदुःख-सहायिका-तुम्हारे सुख और दुःख में समान रूप से हाथ बंटाने वाली पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आऊंगा, लाकर तुम्हारे आगे उसकी हत्या करूंगा, नौ मांसखंड करूंगा, उबलते पानी से भरी कढाही में खौलाऊंगा, खौलाकर उसके मांस और रक्त से तुम्हारे शरीर को सींचूगा, जिससे तुम आर्तध्यान और विकट दुःख से पीड़ित होकर (असमय में ही) प्राणों से हाथ धो बैठोगें। विवेचन इस सूत्र में अग्निमित्रा का एक विशेषण 'धम्मविइज्जिया' है, जिसका संस्कृतरूप 'धर्मवैद्या' भी है। भारतीय साहित्य का अपनी कोटि का यह अनुपम विशेषण है, सम्भवतः किन्हीं अन्यों द्वारा अप्रयुक्त भी। दैहिक जीवन में जैसे आधि, व्याधि, वेदना, पीड़ा, रोग आदि उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार धार्मिक जीवन में भी अस्वस्थता, रूग्णता, पीड़ा आ सकती है। धर्म के प्रति उत्साह में शिथिलता आना रूग्णता है, कुंठा आना अस्वस्थता है, धर्म की बात अप्रिय लगना पीडा है। शरीर के रोगों को मिटाने के १. देखें सूत्र-संख्या ८९ २. देखें सूत्र-संख्या ९७ ३. देखें सूत्र-संख्या १०७ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र] [१७९ लिए सुयोग्य चिकित्सक चाहिए, उसी प्रकार धार्मिक आरोग्य देने के लिए भी वैसे ही कुशल व्यक्ति की आवश्यकता होती हैं । अग्निमित्रा वैसी ही कौशल-सम्पन्न 'धर्मवैद्या' थी। पत्नी से पति को सेवा, प्यार, ममता-ये सब तो प्राप्य हैं, पर आवश्यकता होने पर धार्मिक प्रेरणा, आध्यात्मिक उत्साह, साधना का सम्बल प्राप्त हो सके, यह एक अनूठी बात होती है । बहुत कम पत्नियां ऐसी होंगी, जो अपने पति के जीवन में सूखते धार्मिक स्त्रोत को पुनः सजल बना सकें। अग्निमित्रा की यह अद्भुत विशेषता थी। अतएव उसके लिए प्रयुक्त 'धर्म-वैद्या' विशेषण अत्यन्त सार्थक है। यही कारण है, जो सकडालपुत्र तीनों बेटों की निर्मम, नृशंस हत्या के समय अविचल, अडोल रहता है, वह अग्निमित्रा की हत्या की बात सुनते ही कांप जाता है, धीरज छोड़ देता है, क्षुब्ध हो जाता है। शायद सकडालपुत्र के मन में आया हो-अग्निमित्रा का, जो मेरे धार्मिक जीवन की अनन्य सहयोगिनी ही नहीं, मुझ में आने वाली धार्मिक दुर्बलताओं को मिटाकर मुझे धर्मिष्ठ बनाए रखने में अनुपम प्रेरणादायिनी है, यों दुःखद अन्त कर दिया जाएगा? मेरे भावी जीवन में यो घोर अन्धकार छा जाएगा। २२८. तए णं से सद्दालुपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव' विहरइ। देव द्वारा यों कहे जाने पर भी सकडालपुत्र निर्भीकतापूर्वक धर्म-ध्यान में लगा रहा। २२९. तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो! सद्दालपुत्ता! समणोवासया! तं चेव भणइ। ___तब उस देव ने श्रमणोपासक सकडालपुत्र को पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा ही कहा। अन्तःशुद्धि आराधना : अन्त २३०. तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चपि एवं वुत्स्स समाणस्स अयं अज्झत्थिए समुप्पन्ने ४ एवं जहा चुलणीपिया तहेव चिंतेइ। जेणं ममं जेठं पुत्तं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव' आयंचइ, जा वि य णं ममं इमा अग्गिमित्ता भारिया सम-सुह-दुक्खसहाइया, तं पि य इच्छइ साओ गिहाओ नीणेत्ता ममं अग्गओ घाएत्तए। तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति कटु उद्घाइए। जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियव्वं । नवरं अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ। सेसं जहा चुलणीपिया वत्तव्वया, नवरं अरूणभूए विमाणे उववन्ने जाव (चत्तारि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता) महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। १. देखें सूत्र-संख्या ९८ । २. देखें सूत्र-संख्या १३६ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] [उपासकदशांगसूत्र निक्खेवो' ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं सत्तमं अज्झयणं समत्तं ॥ उस देव द्वारा पुनः दूसरी बार, तीसरी बार वैसा कहे जाने पर श्रमणोपासक सकडालपुत्र के मन में चुलनीपिता की तरह विचार उत्पन्न हुआ। वह सोचने लगा-जिसने मेरे बड़े पुत्र को, मंझले पुत्र को तथा छोटे पुत्र को मारा, उनका मांस और रक्त मेरे शरीर पर छिड़का, अब मेरी सुख-दु:ख में सहयोगिनी पत्नी अग्निमित्रा को घर से ले आकर मेरे आगे मार देना चाहता हैं , मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं इस पुरूष को पकड़ लूं। यों विचार कर वह दौड़ा। आगेकी घटना चुलनीपिता की तरह की समझनी चाहिए। सकडालपुत्र की पत्नी अग्निमित्रा ने कोलाहल सुना। शेष घटना चुलनीपिता की तरह ही कथनीय है। केवल इतना भेद है, सकडालपुत्र अरूणभूत विमान में उत्पन्न हुआ। (वहां उसकी आयु चार पल्योपम की बतलाई गई।) महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। __ "निक्षेप"२ सातवें अंग उपासकदशा का अध्ययन समाप्त ॥ १. एवं खलु जम्बू! समणेणं जाव संपत्तेणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमठे पण्णत्तेति बेमि। २. निगमन--आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू! सिद्धि प्राप्त भगवान् ने उपासकदशा के सातवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन सार : संक्षेप ___ भगवान् महावीर के समय में राजगृह उत्तर भारत का सुप्रसिद्ध नगर था। जैन वाङ्मय में बहुचर्चित राजा श्रेणिक, जो बौद्ध-साहित्य में बिम्बिसार नाम से प्रसिद्ध है, वहां का शासक था। राजगृह में महाशतक नाम गाथापति निवास करता था। धन, सम्पत्ति, वैभव, प्रभाव, मान-सम्मान आदि में नगर में उसका बहुत ऊंचा स्थान था। आठ करोड़ कांस्य-पात्र परिमित स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में उसके निधान में थी, उतनी ही स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं और उतनी ही घर के वैभव-साजसामान और उपकरणों में लगी थीं। पिछले सात अध्ययनों में श्रमणोपासको का साम्पत्तिक विस्तार मुद्राओं की संख्या के रूप में आया है, महाशतक का साम्पत्तिक विस्तार स्वर्ण-मुद्राओं से भरे हुए कांस्य-पात्रों की गणना के रूप में वर्णित हुआ है। कांस्य एक मापने का पात्र था। जिनके पास विपुल सम्पत्ति होती-इतनी होती कि मुद्राएं गिनने में भी श्रम माना जाता, वहां मुद्राओं की गिनती न कर मुद्राओं से भरे पात्रों की गिनती की जाती। महाशतक ऐसी ही विपुल, विशाल सम्पत्ति का स्वामी था। उसके यहाँ दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल थे। देश में बहु-विवाह की प्रथा भी बड़े और सम्पन्न लोगों में प्रचलित थी। सांसारिक विषयसुख के साथ-साथ संभवतः उसमें बड़प्पन के प्रदर्शन का भी भाव रहा हो । महाशतक के तेरह पत्नियां थीं, जिनमें रेवती प्रमुख थी। महाशतक की पत्नियां भी बड़े घरों की थीं। रेवती को उसके पीहर से आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं और दस-दस हजार गायों के आठ गोकुल-व्यक्तिगत सम्पत्ति-प्रीतिदान के रूप में प्राप्त थी। शेष बारह पत्नियों को अपने-अपने पीहर से एक-एक करोड़ स्वर्णमुद्राएं और दसदस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में प्राप्त था। ऐसा प्रतीत होता है कि उन दिनों बड़े लोग अपनी पुत्रियों को विशेष रूप में ऐसी संपत्ति देते थे, जो तब की सामाजिक परम्परा के अनुसार उनकी पुत्रियों के अपने अधिकार में रहती। संभव है, वह सम्पत्ति तथा गोकुल आदि उन पुत्रियों के पीहर में ही रखे रहते, जहां उनकी और वृद्धि होती रहती। इससे उन बड़े घर की पुत्रियों का अपने ससुराल में प्रभाव और रौब भी रहता। आर्थिक दृष्टि से वे स्वावलम्बी भी होतीं। ___ संयोगवश, श्रमण भगवान् महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ, उनके दर्शन एवं उपदेशश्रवण के लिए परिषद् जुड़ी। महाशतक इतना वैभवशाली और सांसारिक दृष्टि से अत्यन्त सुखी था, पर वह वैभव एवं सुख-विलास में खोया नहीं था। अन्य लोगों की तरह वह भी भगवान् महावीर के सान्निध्य में पहुंचा। उपदेश सुना। आत्म-प्रेरणा जागी। आनन्द की तरह उसने भी श्रावक-व्रत स्वीकार किये। परिग्रह के रूप में आठ-आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की निधान आदि में रखने की मर्यादा की। गोधन को आठ गोकुलों तक सीमित रखने को संकल्प-बद्ध हुआ। अब्रह्मचर्य-सेवन की Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [ उपासकदशांगसूत्र सीमा तेरह पत्नियों तक रखी। लेन-देन के सन्दर्भ में भी उसने प्रतिदिन दो द्रोण-प्रमाण कांस्य - परिमित स्वर्ण मुद्राओं तक अपने को मर्यादित किया । महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में भी बहुत धनाढ्य थी, पर उसके मन में अर्थ और भोग की अदम्य लालसा थी। एक बार आधी रात के समय उसके मन में विचार आया कि यदि मैं अपनी बारह सौतों की हत्या कर दूं तो सहज ही उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति पर मेरा अधिकार हो जाय और महाशतक के समय मैं एकाकिनी मनुष्य जीवन का विपुल विषय-सुख भोगती रहूं। बड़े घर की बेटी थी, बड़े परिवार में थी, बहुत साधन थे । उसने किसी तरह अपनी इस दुर्लालसा को पूरा कर लिया । अपनी सौतों को मरवा डाला। उसका मन चाहा हो गया। वह भौतिक सुखों में लिप्त रहने लगी। जिसमें अर्थ और भोग की इतनी घृणित लिप्सा होती है, वैसे व्यक्ति में और भी दुर्व्यसन होते हैं। रेवती मांस और मदिरा में लोलुप और आसक्त रहती थी । रेवती मांस में इतनी आसक्त थी कि उसके बिना वह रह नहीं पाती थी। एक बार ऐसा संयोग हुआ, राजगृह में राजा की ओर से अमारिघोषणा करा दी गई। प्राणि-वध निषिद्ध हो गया। रेवती के लिए बड़ी कठिनाई हुई । पर उसने एक मार्ग खोज निकाला। अपने पीहर से प्राप्त नौकरों के मार्फत उसने अपने पीहर के गोकुलों से प्रतिदिन दोदो बछड़े मार कर अपने पास पहुंचा देने की व्यवस्था की। गुप्त रूप से ऐसा चलने लगा । रेवती की विलासी वृत्ति आगे उत्तरोत्तर बढ़ती गई । श्रमणोपासक महाशतक का जीवन एक दूसरा मोड़ लेता जा रहा था । वह व्रतों की उपासना, आराधना में आगे से आगे बढ़ रहा था । ऐसा करते चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसकी धार्मिक भावना ने और वेग पकड़ा। उसने अपना कौटुम्बिक और सामाजिक उत्तरदायित्व अपने बड़े पुत्र को सौंप दिया। स्वयं धर्म की आराधना में अधिकाधिक निरत रहने लगा। रेवती को यह अच्छा नहीं लगा । एक दिन की बात है, महाशतक पोषधशाला में धर्मोपासना में लगा था। शराब के नशे में उन्मत्त बनी रेवती लड़खड़ाती हुई, अपने बाल बिखेरे पोषधशाला में आई। उसने श्रमणोपासक महाशतक को धर्मोपासना से डिगाने की चेष्टा की। बार-बार कामोद्दीपक हावभाव दिखाए और उससे कहा- तुम्हें इस धर्माराधना से स्वर्ग ही तो मिलेगा ! स्वर्ग में इस विषय सुख से बढ़ कर कुछ है ? धर्म की आराधना छोड़ दो, मेरे साथ मनुष्यजीवन के दुर्लभ भोग भोगो। एक विचित्र घटना त्याग और भोग, विराग और राग का एक द्वन्द्व था । बड़ी विकट स्थिति यह होती है । भर्तृहरि ने कहा है 1 -- "संसार में ऐसे बहुत से शुरवीर हैं, जो मद से उन्मत्त हाथियों के मस्तक को चूर-चूर कर सकते हैं, ऐसे भी योद्धा हैं, जो सिंहों को पछाड़ डालने में समर्थ हैं, किन्तु काम के दर्प का दलन करने में विरले ही पुरूष सक्षम होते हैं । तभी तक मनुष्य सन्मार्ग पर टिका रहता हैं, तभी तक इन्द्रियों की लज्जा को बचाए रख पाता है, तभी तक वह विनय और आचार बनाए रख सकता है, जब तक कामिनियों के भौहों रूपी धनुष से कानों तक खींच कर छोड़े हुए पलक रूपी नीले पंख वाले, धैर्य को विचलित कर देने वाले नयन-बाण Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : सार : संक्षेप] [१८३ आकर छाती पर नहीं लगते।''१ महाशतक सचमुच एक योद्धा था-आत्म-बल का अप्रतिम धनी। वह कामुक स्थिति, कामोद्दीपक चेष्टाएं वे भी अपनी पत्नी की, उस स्थिरचेता साधक को जरा भी विचलित नहीं कर पाई। वह अपनी उपासना में हिमालय की तरह अचल और अडोल रहा। रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर उसे लुभाने का प्रयत्न किया, किन्तु महाशतक पर उसका तिलमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा। वह धर्मध्यान में तन्मय रहा। भोग पर यह त्याग की विजय थी। रेवती अपना-सा मुंह लेकर वापिस लौट गई। महाशतक का साधना-क्रम उत्तरोत्तर उन्नत एवं विकसित होता गया। उसने क्रमशः ग्यारह प्रतिमाओं की सम्यक् रूप में आराधना की। उग्र तपश्चरण एवं धर्मानुष्ठान के कारण उसका शरीर बहुत कृश हो गया। उसने सोचा, अब इस अवशेष जीवन का उपयोग सर्वथा साधना में हो जाय तो बहुत उत्तम हो। तदनुसार उसने मारणान्तिक संलेखना, आमरण अनशन स्वीकार किया, उसने अपने आपको अध्यात्म में रमा दिया। उसे अवधि-ज्ञान उत्पन्न हुआ। इधर तो यह पवित्र स्थिति थी और उधर पापिनी रेवती वासना की भीषण ज्वाला में जल रही थी। उससे रहा नहीं गया। वह फिर श्रमणोपासक महाशतक को व्रत से च्युत करने हेतु चल पड़ी, पोषधशाला में आई। बड़ा आश्चर्य है, उसके मन में इतना भी नहीं आया, वह तो पतिता है सो है, उसका पति जो इस जीवन की अन्तिम, उत्कृष्ट साधना में लगा है, उसको च्युत करने का प्रयास कर क्या वह ऐसा अत्यन्त निन्द्य एवं जघन्य कार्य नहीं कर रही है, जिसका पाप उसे कभी शान्ति नहीं लेने देगा। असल में बात यह है, मांस और मदिरा में लोलुप व्यसनी, पापी मनुष्यों का विवेक नष्ट हो जाता है । वे नीचे गिरते जाते हैं , घोर से घोर पाप-कार्यों में फंसते जाते हैं। __ यही कारण है , जैन धर्म में मांस और मद्य के त्याग पर बड़ा जोर दिया जाता है। इन्हें सात कुव्यसनों में लिखा गया है, जो मानव के लिए सर्वथा त्याज्य हैं। १. मत्ते भकुम्भदलने भूवि सन्ति शूराः, केचित्प्रचण्डमृगराजवधेऽपि दक्षाः। किन्तु ब्रवीमि बलिनां पुरतः प्रसह्य , कन्दर्पदर्पदलने विरला मनुष्याः ॥ सन्मार्गे तावदास्ते प्रभवति च नरस्तावदेवेन्द्रियाणा लज्जां तावद्विधत्ते विनयमपि समालम्बते तावदेव। भ्रू चापाकृष्ट मुक्ताः श्रवणपथगता नीलपक्ष्माण एते, यावल्लीलावतीनां हृदि न धृतिमुषो दृष्टि बाणा: पतन्ति ॥ __ --श्रृङ्गारशतक ७५-७६॥ द्यतमांससुरावेश्याऽऽखेटचौर्यपराङ्गनाः। महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेद् बुधः॥ --पद्मनन्दिपंचविंशतिका १, १६ । जुआ, मांस-भक्षण, मद्य-पान, वेश्या-गमन, शिकार, चोरी तथा परस्त्री-गमन--ये महापाप रूप सात कुव्यसन हैं । बुद्धिमान पुरूष को इनका त्याग करना चाहिए। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [उपासकदशांगसूत्र रेवती एक कुलांगना थी, राजगृह के एक सम्भ्रान्त और सम्माननीय गाथापति की पत्नी थी। पर, दुर्व्यसनों में फंसकर वह धर्म, प्रतिष्ठा, कुलीनता सब भूल जाती है और निर्लज्ज भाव से अपने साधक पति को गिराना चाहती है। महाकवि कालिदास ने कहा है, वास्तव में धीर वही हैं, जिनके चित्त में विकारक स्थितियों की विद्यमानता के बावजूद विकार नहीं आता।' महाशतक वास्तव में धीर था । यही कारण है, वैसी विकारोत्पादक स्थिति भी उसके मन को विकृत नहीं कर सकी। वह उपासना में सुस्थिर रहा। रेवती ने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वही कुचेष्टा की। श्रमणोपासक महाशतक, जो अब तक आत्मस्थ था, कुछ क्षुब्ध हुआ। उसने अवधिज्ञान द्वारा रेवती का भविष्य देखा और बोला-तुम सात रात के अन्दर भयानक अलसक रोग से पीड़ित होकर अत्यन्त दुःख, व्यथा, वेदना और क्लेश पूर्वक मर जाओगी। मर कर प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नकर में चौरासी हजार वर्ष की आयु वाले नैरयिक के रूप में उत्पन्न होगी। रेवती ने ज्यों ही यह सुना, वह कांप गई। अब तक जो मदिरा के नशे में और भोग के उन्माद में पागल बनी थी, सहसा उसकी आंखों के आगे मौत की काली छाया नाचने लगी। उन्हीं पैरों वह वापिस लौट गई। फिर हुआ भी वैसा ही, जैसा महाशतक ने कहा था। वह सात रात में भीषण अलसक व्याधि से पीडित होकर आर्तध्यान और असह्य वेदना लिए मर गई, नरकगामिनी हुई। ___ संयोग से भगवान् महावीर उस समय राजगृह में पधारे । भगवान् तो सर्वज्ञ थे, महाशतक के साथ जो कुछ घटित था, वह सब जानते थे। उन्होंने अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को यह बतलाया और कहा-गौतम! महाशतक से भूल हो गई है। अन्तिम संलेखना और अनशन स्वीकार किए हुए उपासक के लिए सत्य, यथार्थ एवं तथ्य भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय और अमनोज्ञ हो, तो कहना कल्पनीयधर्म-विहित नहीं है । वह किसी को ऐसा सत्य भी नहीं कहता, जिससे उसे भय, त्रास ओर पीडा हो। महाशतक ने अवधिज्ञान द्वारा रेवती के सामने जो सत्य भाषित किया, वह ऐसा ही था। तुम जाकर महाशतक से कहो, वह इसके लिए आलोचना-प्रतिक्रमण करे, प्रायश्चित्त स्वीकार करे। जैनदर्शन का कितना ऊंचा और गहरा चिन्तन यह है । आत्म-रत्त साधक के जीवन में समता, अहिंसा एवं मैत्री का भाव सर्वथा विद्यमान रहे, इससे यह प्रकट है। गौतम महाशतक के पास आए। भगवान् का सन्देश कहा। महाशतक ने सविनय शिरोधार्य किया, आलोचना-प्रायश्चित्त कर वह शुद्ध हुआ। श्रमणोपासक महाशतक आत्म-बल संजोये धर्मोपासना में उत्साह एवं उल्लास के साथ तन्मय रहा। यथासमय समाधिपूर्वक देह-त्याग किया, सौधर्मकल्प में अरूणावतंसक विमान में वह देव रूप से उत्पन्न हुआ। २. विकारहेतौ सति विक्रि यन्ते, येषां न चेतांसि त एव धीराः। --कुमारसंभव सर्ग--५ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन महारातक श्रमणोपासक महाशतक २३१. अट्ठमस्स उक्खेवओ'। एवं खलु, जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं रायग नय गुणसीले चेइए। सेणिए राया । उत्क्षेप' - उपोद्घातपूर्वक आठवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है- आर्य सुधर्मा ने कहा- जम्बू ! उस काल - वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, राजगृह नामक नगर था । नगर के बाहर गुणशील नामक चैत्य था । श्रेणिक वहाँ का राजा था। २३२. तत्थ णं रायगिहे महासयए नामं गाहावई परिवसइ, अड्ढे, जहा आणंदो । नवरं अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ निहाण - पउत्ताओ, अट्ठ हिरण्ण- कोडीओ सकंसाओ वुड्ढि - पउत्ताओ, अट्ठ हिरण्णकोडीओ सकंसाओ पवित्थर - पउत्ताओ, अट्ठ वया, दस-गोसाहस्सिएणं वएणं । राजगृह में महाशतक नामक गाथापति निवास करता था । वह समृद्धिशाली था, वैभव आदि में आनन्द की तरह था। केवल इतना अन्तर था, उसकी आठ करोड़ कास्य - परिमित स्वर्ण मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, आठ करोड़ कांस्य - परिमित स्वर्ण मुद्राएं व्यापार में लगी थीं, आठ करोड़ कांस्य - परिमित स्वर्ण मुद्राएं घर के वैभव में लगी थीं। उसके आठ ब्रज- गोकुल गोकुल में दस-दस हजार गायें थी । । प्रत्येक विवेचन प्रस्तुत सूत्र में महाशतक की सम्पत्ति का विस्तार कांस्य - परिमित स्वर्ण मुद्राओं में बतलाया १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं सत्तमस्स अज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते, अट्ठमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पणत्ते ? २. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के सातवें अध्ययन का यदि यह अर्थभाव प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने आठवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें।) Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [उपासकदशांगसूत्र गया है । कांस्य का अर्थ कांसी से बने एक पात्र-विशेष से है। प्राचीन काल में वस्तुओं की गिनती तथा तौल के साथ-साथ माप का भी विशेष प्रचलन था। एक विशेष परिमाण की सामग्री भीतर समा सके, वैसे माप के पात्र इस काम में लिए जाते थे। यहां कांस्य का आशय ऐसे ही पात्र से है। महाशतक की सम्पत्ति इतनी अधिक थी कि मुद्राओं की गिनती करना भी दुःशक्य था। इसलिए स्वर्ण-मुद्राओं के भरे हुए वैसे पात्र को एक इकाई मान कर यहाँ सम्पत्ति का परिमाण बतलाया गया है। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में इन प्राचीन माप-तौलों के सम्बन्ध में चर्चाएं प्राप्त होती हैं। प्राचीन काल में मागध-मान और कलिंग-मान-यह दो तरह के तौल-माप प्रचलित थे। मागधमान का अधिक प्रचलन और मान्यता थी। भावप्रकाश में इस सन्दर्भ में विस्तार से चर्चा है। वहां महर्षि चरक को आधार मानकर मागधमान का विवेचन करते हुए परमाणु से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर बढ़ते हुए मानों-परिमाणों की चर्चा की है। वहां बतलाया गया है "तीस परमाणुओं का एक त्रसरेणु होता है । उसे वंशी भी कहा जाता है । जाली में पड़ती हुई सूर्यकी किरणों में जो छोटे-छोटे सूक्ष्म रजकण दिखाई देते हैं, उनमें से प्रत्येक की संज्ञा त्रसरेणु या वंशी है । छह त्रसरेणु की एक मरीचि होती है । छह मरीचि की एक राजिका या राई होती है । तीन राई का एक सरसों, आठ सरसों का एक जौ, चार जौ की एक रत्ती, छह रत्ती का एक मासा होता है । मासे के पर्यायवाची हेम और धानक भी हैं। चार मासे का एक शाण होता है, धरण और टंक इसके पर्यायवाची हैं । दो शाण का एक कोल होता है । उसे क्षुद्रक, वटक एवं द्रङ् क्षण भी कहा जाता है । दौ कोल का एक कर्ष होता है । पाणिमानिका, अक्ष, पिचु, पाणितल, किंचित्पाणि, तिन्दुक, विडालपदक, षोडशिका, करमध्य, हंसपद, सुवर्ण, कवलग्रह तथा उदुम्बर इसके पर्यायवाची हैं। दो कर्ष का एक अर्धपल (आधा पल) होता है। उसे शुक्ति या अष्टमिक भी कहा जाता है। दो शुक्ति का एक पल होता है । मुष्टि, आम्र, चतुर्थिका, प्रकुंच, षोडशी तथा बिल्व भी इसके नाम हैं। दो पल की एक प्रसृति होती है, उसे प्रसृत भी कहा जाता है । दो प्रसृति की एक अंजलि होती है । कुडव, अर्ध शरावक तथा अष्टमान भी उसे कहा जाता है । दो कुडव की एक मानिका होती है । उसे शराव तथा अष्टपल भी कहा जाता है। दो शराव का एक प्रस्थ होता है अर्थात् प्रस्थ में ६४ तोले होते हैं । पहले ६४ तोले का ही सेर माना जाता था, इसलिए प्रस्थ को सेर का पर्यायवाची माना जाता है । चार प्रस्थ का एक आढक होता है, उसको Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१८७ आठवां अध्ययन : महाशतक ] भाजन, कांस्य-पात्र तथा चौसठ पल का होने से चतुःषष्टिपल भी कहा जाता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि २५६ तोले या ४ सेर तौल की सामग्री जिस पात्र में समा सकती थी. उसको कांस्य या कांस्यपात्र कहा जाता था। - कांस्य या कांस्यपात्र का यह एक मात्र माप नहीं था। ऐसा अनुमान है कि कांस्यपात्र भी छोटेबड़े कई प्रकार के काम में लिए जाते थे। इस सूत्र में जिस कांस्य-पात्र की चर्चा है, उसका माप यहां वर्णित भावप्रकाश के कांस्यपात्र में बड़ा था। इसी अध्याय के २३५ वें सूत्र में श्रमणोपासक महाशतक अपने दैनन्दिन लेन-देन के सम्बन्ध में एक मर्यादा करता है, जिसके अनुसार वह एक दिन में दो द्रोणपरिमाण कांस्यपरिमित स्वर्ण-मुद्राओं से अधिक का लेन-देन में उपयोग न करने को संकल्प-बद्ध होता है । इसे कुछ स्पष्ट रूप में समझ लें। ऊपर आढक तक के मान की चर्चा आई है। भावप्रकाश में आगे बताया गया है कि चार आढक का एक द्रोण होता है । उसको कलश, नल्वण, अर्मण,उन्मान, घट तथा राशि भी कहा जाता है। दो द्रोण का एक शूर्प होता है, उसको कुंभ भी कहा जाता है तथा ६४ शराव का होने से चतुःषष्टि शरावक भी कहा जाता है। . इसका आशय यह हुआ, जिस पात्र में दो द्रोण अर्थात् आठ आढक या ३२ प्रस्थ अर्थात् ६४ १. चरकस्य मतं वैद्यै राद्यै र्यस्मान्मतं ततः। विहाय सर्वमानानि मागधं मानमुच्यते ॥ त्रसरे णुर्बुधै : प्रोक्त स्त्रिशता परमाणुभिः। त्रसरे णुस्तू पर्यायनामा वंशी निगद्यते ।। जालान्तरगतै : सूर्यकरैर्वशी विलोक्यते । षड्वंशीभिर्मरीचिः स्यात्ताभिः षड् भिश्च राजिका ॥ तिसृभी राजिकाभिश्च सर्षपः प्रोच्यते बुधैः। यवोऽष्ट सर्षपैः प्रोक्तो गुञ्जास्यात्तच्चतुष्ट यम् ॥ षड् भिस्तु रक्तिकाभिः स्यान्माषको हे मधानको । मापैश्चतुर्भिः शाणः स्याद्धरणः स निगद्यते ॥ टङ्कः स एव कथितस्तद्वयं कोल उच्यते । क्षुद्रको वटकश्चैव द्रङ्क्षणः स निगद्यते ।। कोलद्वयन्तु कर्षः स्यात्स प्रोक्तः पाणिमानिका । अक्षः पिचुः पाणितलं किञ्चित्पाणिश्च तिन्दुकम् ॥ विडालपदकं चैव तथा षोड शिका मता। कर मध्यो हंसपदं सुवर्ण क वलग्रह ः॥ उदुम्बरञ्च पर्यायैः कर्ष मेव निगद्यते । स्यात्कर्षाभ्यामर्द्ध पलं शुक्तिरष्ट मिका तथा ॥ शुक्तिभ्याञ्च पलं ज्ञेयं मुष्टि राम्रं चतुर्थिका। प्रकुञ्चः षोडशी बिल्वं पलमेवात्र कीर्त्यते ॥ पलाभ्यां प्रसूति या प्रसृतञ्च निगद्यते । प्रसृतिभ्यामञ्जलिः स्यात्कु डवोऽर्द्धशरावकः॥ अष्ट मानञ्च स ज्ञेयः कुडवाभ्याञ्च मानिका। शरावोऽष्ट पलं तद्वण्जे यमत्र विचक्षणैः॥ शरावाभ्यां भवेत्प्रस्थश्चतुः प्रस्थस्तथाऽऽ ढकः। भाजनं कांस्यपात्रंच चतु: षष्टि पलश्च सः॥ --भावप्रकाश, पूर्वखंड द्वितीय भाग, मानपरिभाषाप्रकरण २-४ चतुर्भिराढकोणः कलशो नल्वणोऽर्मण। उन्मानञ्च घटो राशिोणपर्यायसंज्ञितः ॥ शूर्पाभ्याञ्च भवेद् द्रोणी वाहो गोणी च सा स्मृता ॥ द्रोणाभ्यां शूर्पकुम्भौ च चतुःषष्टि शरावकः। --भावप्रकाश, पूर्वखण्ड, द्वितीय भाग, मानपरिभाषा प्रकरण १५, १६ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [उपासकदशांगसूत्र तोले के सेर के हिसाब से ३२ सेर तौल की वस्तुएं समा सकती थीं, वह शूर्प या कुंभ कहा जाता था। इस सूत्र में आया कांस्य या कांस्यपात्र इसी शूर्प या कुंभ का पर्यायवाची है। भावप्रकाशकार ने जिसे शूर्प या कुंभ कहा है ठीक इस अर्थ में यहाँ कांस्य शब्द प्रयुक्त है, क्योंकि दो द्रोण का शूर्प या कुंभ होता है और यहाँ आए वर्णन के अनुसार दो द्रोण का वह कांस्य पात्र था। शार्ङ्गधर-संहिता में भी इसकी इसी रूप में चर्चा आई है। पत्नियाँ : उनकी सम्पत्ति २३३. तस्स णं महासयगस्स रेवई पामोक्खाओ तेरस भारियाओ होत्था, अहीण जाव (पडिपुण्ण-पंचिंदियसरीराओ, लक्खण-वंजन-गुणोववेयाओ, माणुम्माणप्पमाणपडिपुण्णसुजायसव्वंग-सुन्दरंगीओ, ससि-सोमाकार-कंत-पिय-दंसणाओ) सुरूवाओ। ___ महाशतक के रेवती आदि तेरह रूपवती पत्नियां थी। (उसने शरीर की पांचों इन्द्रियां अहीन, प्रतिपूर्ण-रचना की दृष्टि से अखंडित, संपूर्ण, अपने अपने विषयों में सक्षम थीं, वह उत्तम लक्षणसौभाग्य सूचक हाथ की रेखाएं आदि, व्यंजन-उत्कर्ष सूचक तिल, मस आदि चिह्न तथा गुण-सदाचार पातिव्रत्य आदि से युक्त थीं, अथवा लक्षणों और व्यंजनों के गुणों से युक्त थीं। दैहिक फैलाव, वजन, ऊंचाई आदि की दृष्टि से वे परिपूर्ण, श्रेष्ठ तथा सर्वांगसुन्दर थीं। उनका आकार-स्वरूप चन्द्र के समान तथा देखने में लुभावना था,) रूप सुन्दर था। ___२३४. तस्स णं महासयगस्स रेवईए भारियाए कोल-घरियाओ अट्ठ हिरण्णकोडीओ, अट्ठ वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था। अवसेसाणं दुवालसण्हं भारियाणं कोल-घरिया एगमेगा हिरण्ण-कोडी, एगमेगे व वए, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था। ___महाशतक की पत्नी रेवती के पास अपने पीहर से प्राप्त आठ करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दसदस हजार गायों के आठ गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में थे। बाकी बारह पत्नियों के पास उनके पीहर से प्राप्त एक-एक करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं तथा दस-दस हजार गायों का एक-एक गोकुल व्यक्तिगत सम्पत्ति के रूप में था। महाशतक द्वारा व्रत-साधना २३५. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे । परिसा निग्गया। जहा आणंदो तहा निग्गच्छइ। तहेव सावय-धम्म पडिवज्जइ। नवरं अट्ठ हिरणकोडीओ सकंसाओ उच्चारेई, अट्ठ वया, रेवइपामोक्खाहिं तेरसहिं भारियाहिं अवसेस मेहुणविहिं पच्चक्खाइ। सेसं सव्वं तहेव, इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कल्लाकल्लि च णं कप्पइ मे बे-दोणियाए कंस-पाईए हिरण-भरियाए संववहरित्तए। उस समय भगवान् महावीर का राजगृह में पदार्पण हुआ। परिषद् जुड़ी। महाशतक आनन्द १. शाङ्ग धरसंहिता १.१.१५-२९ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन :महाशतक ] [१८९ की तरह भगवान् की सेवा में गया। उसी की तरह उसने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। केवल इतना अन्तर था, महाशतक ने परिग्रह के रूप में आठ-आठ करोड़ कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राएं निधान आदि में रखने की तथा आठ गोकुल रखने की मर्यादा की। रेवती आदि तेरह पत्नियों के सिवाय अवशेष मैथुन-सेवन का परित्याग किया। उसने बाकी सब प्रत्याख्यान आनन्द की तरह किए। केवल एक विशेष अभिग्रह लिया-एक विशेष मर्यादा और की-मैं प्रतिदिन लेन-देन में दो द्रोण-परिमाण कांस्य-परिमित स्वर्ण-मुद्राओं की सीमा रखूगा।। २३६. तए णं से महासयए समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' विहरइ। तब महाशतक, जो जीव, अजीव आदि तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त कर चुका था, श्रमणोपासक हो गया। धार्मिक जीवन जीने लगा। २३७. तए णं समणे भगवं महावीरे वहिया जणवय-विहारं विहरइ। तदन्तर श्रमण भगवान् अन्य जनपदों में विहार कर गए। रेवती की दुर्लालसा . २३८. तण णं रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त-कालसमयंसि कुकुम्ब जाव( जागरियं जागरमाणीए) इमेयारूवे अज्झथिए'-एवं खलु अहं इमासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं विघाएणं नो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाई भोगभोगाइं भुंजमाणी विहरित्तए। तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालस वि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा, सत्थप्पओगेणं वा, विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयासिं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एगमेगं वयं सयमेव उवसम्पज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाइं जाव (माणुस्सयाइं भोगभोगाइं भुंजमाणी) विहरित्तए। एवं संपेहेइ, संपेहेत्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ। एक दिन आधीरात के समय गाथापति महाशतक की पत्नी रेवती के मन में, जब वह अपने पारिवारिक विषयों की चिन्ता में जग रही थी, यों विचार उठा-मैं इन अपनी बारह सौतों के विघ्न के कारण अपने पति श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोग नहीं पा रही हूं। अतः मेरे लिए यही अच्छा है कि मैं इन बारह सौतों की अग्नि-प्रयोग, शस्त्र-प्रयोग या विषप्रयोग द्वारा जान ले लूं । इससे इनकी एक-एक करोड़ स्वर्णं-मुद्राएँ और एक-एक गोकुल मुझे सहज ही प्राप्त हो जायगा। मैं श्रमणोपासक महाशतक के साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख भोगती रहूँगी- यों विचार कर वह अपनी बारह सौतों को मारने के लिए अनुकूल अवसर, सूनापन एवं एकान्त की टोह में रहने लगी। १. देखें सूत्र-संख्या ६४। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] [उपासकदशांगसूत्र २३९. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतरं जाणित्ता छ सवत्तीओ सत्थप्पओगेणं उद्दवेइ, उद्दवेत्ता छ सवत्तीओ विसप्पओगेणं उद्दवेइ, उहवेत्ता तासिं वालसण्हं सवत्तीणं कोल-घरियं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एममेगं वयं सयमेव पडिवजइ, पडिवजित्ता महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाइं भोगभोगाई भुजमाणी विहरइ। एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती ने अनुकूल अवसर पाकर अपनी बारह सौतों में से छह का शस्त्र-प्रयोग द्वारा और छह को विष-प्रयोग द्वारा मार डाला। यों अपनी बाहर सौतों को मार कर अपनी पीहर से प्राप्त एक-एक गोकुल स्वयं प्राप्त कर लिया और वह श्रमणोपासक महाशतक के साथ विपुल भोग भोगती हुई रहने लगी। रेवती की मांस-मद्य-लोलुपता २४०. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया, गिद्धा, गढिया, अज्झोव-वन्ना बहु-विहेहिं मंसेहि य सोल्लेहि य तलिएहि य भजिएहि य सुरं च महुं च मेरगं च मजं च सीधुं च पसन्नं च आसाएमाणी, विसाएमाणी, परिभाएमाणी, परिभुंजेमाणी विहरइ। गाथापति की पत्नी मांस-भक्षण में लोलुप, आसक्त, क्षुब्ध तथा तत्पर रहती। वह लोहे की सलाखों पर सेके हुए , घी आदि में तले हुए तथा आग पर भूने हुए बहुत प्रकार के मांस एवं सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु व प्रसन्न नामक मदिराओं का आस्वादन करती, मजा लेती, छक कर सेवन करती। विवेचन प्रस्तुत सूत्र में सुरा, मधु, मेरक, मद्य, सीधु तथा प्रसन्न नामक मदिराओं का उल्लेख है, जिन्हें रेवती प्रयोग में लेती थी। आयुर्वेद के ग्रन्थों में आसवों तथा अरिष्टों के साथ-साथ मद्यों का भी वर्णन हैं। वैसे आसव एवं अरिष्ट में भी कुछ मात्रा में मद्यांश होता हैं , पर उनका मादक द्रव्यों या मद्यों में समावेश नहीं किया जाता । मदिरा की भिन्न स्थिति है। उसमें मादक अंश अधिक मात्रा में होता है, जिसके कारण मदिरासेवी मनुष्य उन्मत्त, विवेकभ्रष्ट और पतित हो जाता है। आयुर्वेद में मद्य को आसवं एवं अरिष्ट के साथ लिए जाने का मुख्य कारण उनकी निर्माणविधि की लगभग सदृशता है । वनौषधि, फल, मूल, सार, पुष्प, कांड, पत्र, त्वचा आदि को कूट-पीस कर जल के साथ मिला कर उनका घोल तैयार कर घड़े या दूसरे बर्तन में संधित कर-कपड़मिट्टी से अच्छी तरह बन्द कर, जमीन में गाड़ दिया जाता है या धूप में रक्खा जाता है। वैसे एक महीने का विधान हैं, पर कुछ ही दिनों में भीतर ही भीतर उकट कर उस घोल में विलक्षण गन्ध, रस, प्रभाव उत्पन्न हो जाता है । वह आसव का रूप ले लेता है । वनौषधि आदि का जल के साथ क्वाथ तैयार कर, चतुर्थांश जलीय भाग रहने पर, उसे बर्तन में संचित कर जमीन में गाड़ा जाता है या धुप में रखा जाता है। यथासमय संस्कार-निष्पन्न होकर वह अरिष्ट बन जाता है । जमीन में गाड़े हुए या धुप में दिए हुए द्रव से Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक ] [१९१ मयूर-यंत्र-वाष्प-निष्कासन-यन्त्र द्वारा जब उस का सार चुआ लिया जाता है, वह मद्य है। उसमें मादकता की मात्रा अत्यधिक तीव्रता लिए रहती है। मद्य के निर्माण में गुड़ या खांड तथा रांगजड़ या तत्सदृश मूल-जड़ डालना आवश्यक है आयुर्वेद के ग्रन्थों में जहाँ मदिरा के भेदों का वर्णन है, वहां प्रकारान्तर से ये नाम भी आए हैं, जिनका इस सूत्र में संकेत है। उनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है-- सुरा-भावप्रकाश के अनुसार शालि व साठी धान्य की पीठी से जो मद्य तैयार होती है, उसे सुरा कहा जाता है। मधु-वह मद्य जिसके निर्माण में अन्य वस्तुओं के साथ शहद भी मिलाया जाता है । अष्टांगहृदय मैं इसे माधव मद्य कहा गया है । सुश्रुतसंहिता में इसका मध्वासव के नाम से उल्लेख है । मधु और गुड़ द्वारा इसका संधान बतलाया गया है। मेरक-आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसका मैरेय नाम से उल्लेख है । सुश्रुतसंहिता में इसे त्रियोनि कहा गया है अर्थात् पीठी से बनी सुरा, गुड़ से बना आसव तथा मधु इन तीनों के मेल से यह तैयार होता है। मद्य-वैसे मद्य साधारणतया मदिरा का नाम है, पर यहां संभवतः यह मदिरा के मार्दीक भेद से सम्बद्ध है। सुश्रुतसंहिता के अनुसार यह द्राक्षा या मुनक्का से तैयार होता है।' सीधु-भावप्रकाश में ईख के रस से बनाए जाने वाले मद्य को सीधु कहा जाता है । वह ईख के पक्के रस एवं कच्चे रस दोनों से अलग-अलग तैयार होता है । दोनों की मादकता में अन्तर होता है।६ प्रसन्न--सुश्रुतसंहिता के अनुसार सुरा का नितरा हुआ ऊपरी स्वच्छ भाग प्रसन्न या प्रसन्ना कहा जाता है। १. शालिषष्टि कपिष्टादिकृतं मद्यं सुरा स्मृता। -भावप्रकाश पूर्व खण्ड, प्रथम भाग, सन्धान वर्ग २३। २. मध्वासवो माक्षिकेण सन्धीयते माधवाख्यो मद्यविशेषः -अष्टांगहृदय ५,७५ (अरूणदत्तकृत सर्वाङ्गसुन्दरा टीका)। ३. मध्वासवा मधुगुडाभ्यां सन्धानम् । __ --सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान ४५, १८८ (डल्हणाचार्यविरचितनिबन्धसंग्रह व्याख्या)। सुरा पैष्टी, आसवश्च गुडयो निः, मधु च देयमिति त्रियोनित्वम् । -सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान ४५, १९० (व्याख्या)। ५. मार्दीकं द्राक्षोद्भवम्। -सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान ४५, १७२ (व्याख्या) ६. इक्षोः पक्वै रसै: सिद्धैः सीधु : पक्वरसश्च सः। आमैस्तैरेव यः सीध: स च शीतरसः स्मृत॥ ___-भावप्रकाश पूर्व खण्ड, प्रथम भाग, सन्धान वर्ग २५ । ७. प्रसन्ना सुराय मण्ड उपर्यच्छो भागः। --सुश्रुतसंहिता सूत्र स्थान ४५.१७७ (व्याख्या) Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [उपासकदशांगसूत्र अष्टांगहृदय में वारूणी का पर्याय प्रसन्ना लिखा है। तदनुसार सुरा का ऊपरी भाग प्रसन्न है। उसके नीचे का गाढ़ा भाग जगल कहा जाता है। जगल के नीचे का भाग मेदक कहा जाता है। नीचे बचे कल्क को निचोड़ने से निकला द्रव बक्कस कहा जाता है। २४१. तए णं रायगिहे नयरे अन्नया कयाइ घुढे यावि होत्था। एक बार राजगृह नगर में अमारि-प्राणि-वध न करने को घोषणा हुई। २४२. तए णं सा रेवई गाहावइणी मंस-लोलुया, मंसेसु मुच्छिया ४ कोल-घरिए पुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी-तुब्भे, देवाणुप्पिया! मम कोल-घरिएहितो वएहितो कल्लाकल्लि दुवे-दुवे गोण-पोयए उद्दवेह, उद्दवित्ता ममं उवणेह। गाथापति की पत्नी रेवती ने, जो मांस में लोलुप एवं आसक्त थी, अपने पीहर के नौकरों को बुलाया और उनसे कहा-तुम मेरे पीहर के गोकुलों में से प्रतिदिन दो-दो बछड़े मारकर मुझे ला दिया करो। २४३. तए णं ते कोल-घरिया पुरिसा रेवईए गाहावइणीए 'तहत्ति' एयमटुं विणएणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता रेवईए गाहावइणीए कोल-घरिएहिंतो वएहिंतो कल्लाकल्लिं दुवे दुवे गोण-पोयए वहेति, वहेत्ता रेवईए गाहावइणीए उवणेति। पीहर के नौकरों ने गाथापति की पत्नी रेवती के कथन को 'जैसी आज्ञा' कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया तथा वे उसके पीहर के गोकुलों में से हर रोज सवेरे दो बछड़े लाने लगे। २४४. तए णं सा रेवई गाहावइणी तेहिं गोण-मंसेहिं सोल्लेहि य ४ सुरं च ६ आसाएमाणी ४ विहरइ। गाथापति की पत्नी रेवती बछड़ों के मास के शूलक-सलाखें पर सेके हुए टुकड़ों आदि का तथा मदिरा का लोलुप भाव से सेवन करती हुई रहने लगी। महाशतक अध्यात्म की दिशा में २४५. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स बहूहिं सील जाव भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छरा वइक्वंता। एवं तहेव जेटुं पुत्तं ठवेइ जाव पोसहसालाए धम्मपण्णतिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ। ___ श्रमणोपासक महाशतक को विविध प्रकार के व्रतों, नियमों द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह १. वारूणी--प्रसन्ना। वारूण्या अधोभागो घनो जगलः। जगलस्याधो भागो मेदकः। पानीयेन मद्यकल्कपीडनोत्पन्नो बक्कसः। --अष्टांगहृदय सूत्र स्थान ५, ६८ (टीका)। २. देखें सूत्र-संख्या ११२ ३. देखें सूत्र-संख्या ९२ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक ] [१९३ वर्ष व्यतीत हो गए। आनन्द आदि की तरह उसने भी ज्येष्ठ पुत्र को अपनी जगह स्थापित कियापारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व बड़े पुत्र को सौंपा तथा स्वयं पोषधशाला में धर्माराधना में निरत रहने लगा। महाशतक को डिगाने हेतु रेवती का कामुक उपक्रम २४६. तए णं सा रेवई गाहावइणी मत्ता, लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिजयं विकड्डमाणी विकड्ढमाणी जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मोहुम्मायजणणाई, सिंगारियाइं इत्थिभावाइं उवदंसेमाणी उवदंसेमाणी महासययं समणोवासयं एवं वयासी-हं भो! महासयया! समणोवासया! धम्मकामया! पुण्ण-कामया! सग्ग-कामया! मोक्ख-कामया! धम्म-कंखिया! ४ धम्मपिवासिया ४, किण्णं तुम्भं, देवाणुप्पिया! धम्मेण वा पुण्णेण वा सग्गेण वा मोक्खेण वा? जं णं तुमं मए सद्धिं उरालाइं जाव (माणस्साई भोगभोगाई) भुंजमाणे नो विहरसि? ___ एक दिन गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय-दुपट्टा या ओढना फेंकती हुई, पोषधशाला में जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई। आकर बार-बार मोह तथा उन्माद जनक, कामोद्दीपक कटाक्ष आदि हाव भाव प्रदर्शित करती हुई श्रमणोपासक महाशतक से बोली-धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष की कामना, इच्छा एवं उत्कंठा रखनेवाले श्रमणोपासक महाशतक! तुम मेरे साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषय-सुख नही भोगते, देवानुप्रिय! तुम धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या पाओगे-इससे बढ़कर तुम्हें उनसे क्या मिलेगा? २४७. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए एयमटुं नो आढाइ, नो परियाणाइ, अणाढाइजमाणे, अपरियाणमाणे, तुसिणीए धम्मज्झाणोवगए विहरइ। श्रमणोपासक महाशतक ने अपनी पत्नी रेवती की इस बात को कोई आदर नहीं दिया और न उस पर ध्यान ही दिया। वह मौन भाव से धर्माराधना में लगा रहा। २४८. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासययं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी-हं भो! तं चेव भणइ सो वि तहेव जाव (रेवईए गाहावणीए एयमढें नो आढाइ, नो परियाणाइ) अणाढाइज्जमाणे अपरियाणमाणे विहरइ। उसकी पत्नी रेवती ने दूसरी बार तीसरी बार फिर वैसा कहा। पर वह उसी पकार अपनी पत्नी रेवती के कथन को आदर न देता हुआ, उस पर ध्यान न देता हुआ धर्म-ध्यान में निरत रहा। २४९. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं अणाढाइज्जमाणी, अपरियाणिजमाणी जामेव दिसं पाउब्भूया, तामेव दिसं पडिगया। यों श्रमणोपासक महाशतक द्वारा आदर न दिए जाने पर, ध्यान न दिए जाने पर उसकी पत्नी रेवती, जिस दिशा से आई थी उसी दिशा की ओर लौट गई। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४] [उपासकदशांगसूत्र महाशतक की उत्तरोत्तर बढ़ती साधना २५०. तए णं से महासयए समणोवासए पढमं उवासग-पडिमं उवसंपजित्ता णं विहरइ पढमं अहासुत्तं जाव एक्कारसवि। श्रमणोपासक महाशतक ने पहली उपासकप्रतिमा स्वीकार की। यों पहली से लेकर क्रमशः ग्याहरवीं तक सभी प्रतिमाओं की शास्त्रोक्त विधि से आराधना की। २५१. तए णं से महासयए समणोवासए तेणं उरालेणं जाव' किसे धमणिसंतए जाए। उग्र तपश्चरण से श्रमणोपासक महाशतक के शरीर में इतनी कृशता--क्षीणता आ गई कि उस पर उभरी हुई नाड़ियां दीखने लगी। आमरण अनशन २५२. तए णं से महासययस्य समणोवासयस्य अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त-काले धम्म-जागरियं जागरमाणस्स अयं अज्झथिए ४ -एवं खलु अहं इमेणं उरालेणं जहा आणंदो तहे व अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाए झूसिय-सरीरे भत्त-पाण-पडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। एक दिन अर्द्ध रात्रि के समय धर्म-जागरण-धर्म स्मरण करते हुए आनन्द की तरह श्रमणोपासक महाशतक के मन में विचार उत्पन्न हुआ-उग्र तपश्चरण द्वारा मेरा शरीर अत्यन्त कृश हो गया है, आदि। आनन्द की तरह चिन्तन करते हुए उसने अन्तिम मारणान्तिक संलेखना स्वीकार की, खान-पान का परित्याग किया-अनशन स्वीकार किया, मृत्यु की कामना न करता हुआ, वह आराधना में लीन हो गया। अवधिज्ञान का प्रादुर्भाव २५३. तए णं तस्स महासयगस्स समणोवासगस्स सुभेणं अज्झवसाणेणं जाव (सुभेणं परिणामेणं, लेसाहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिज्जाणं कम्माणं) खओवसमेणं ओहि-णाणे समुप्पन्ने-पुरत्थिसेणं लवणसमुद्दे जोयण-साहस्सियं खेत्तं जाणइ पासइ, एवं दक्खिणेणं, पच्चत्थिमेणं, उत्तरेणं जाव चुल्लहिमवंतं वासहरपव्वयं जाणइ पासइ, अहे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लालुयच्चुयं नरयं चउरासीइ-वाससहस्सट्ठिइयं जाणइ पासइ। तत्पश्चात् श्रमणोपासक महाशतक को शुभ अध्यवसाय, (शुभ परिणाम-अन्तःपरिणति, विशुद्ध होती हुई लेश्याओं के कारण) अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान उत्पन्न हो गया। फलतः वह पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में एक-एक हजार योजन तक का लवण समुद्र का क्षेत्र, १. देखें सूत्र-संख्या ७३ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक ] [१९५ उत्तर दिशा में हिमवान् वर्षधर पर्वत तक क्षेत्र तथा अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में चौरासी हजार वर्ष की स्थिति वाले लोलुपाच्युतनामक नरक तक जानने देखने लगा। रेवती द्वारा पुनः असफल कुचेष्टा २५४. तए णं सा रेवई गाहावइणी अन्नया कयाइ मत्त जाव(लुलिया, विइण्णकेसी) उत्तरिजयं विकड्डमाणी २ जेणेव महासयए समणोवासए जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता महासययं तहेव भणइ जाव' दोच्चंपि तच्चपि एवं वयासी-हं भो तहेव। तत्पश्चात् एक दिन महाशतक गाथापति की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त (लड़खड़ाती हुई, बाल बिखेरे) बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई पोषधशाला में, जहाँ श्रमणोपासक महाशतक था, आई। आकर महाशतक से पहले की तरह बोली। (तुम मेरे साथ मनुष्य-जीवन के विपुल विषयसुख नहीं भोगते, देवानुप्रिय! तुम्हें धर्म, पुण्य, स्वर्ग तथा मोक्ष से क्या मिलेगा?) उसने दूसरी बार, तीसरी बार, फिर वैसा ही कहा। महाशतक द्वारा रेवती का दुर्गतिमय भविष्य-कथन २५५. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि, तच्चपि एवं वुत्ते समाणे आसुरत्ते ४ ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवई गाहावइणिं एवं वयासी-हं भो रेवई! अपत्थिय-पत्थिए ४ एवं खलु तुमं अंतो सत्त-रत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया समाणी अट्ट-दुहट्ट-वसट्टा असमाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा अहे इसीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुयच्चुए नरए चउरासीइ-वाससहस्सट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववजिहिसि। अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान द्वारा जानकर उसने अपनी पत्नी रेवती से कहा-मौत को चाहने वाली रेवती! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर आर्त्त-व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई आयु-काल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मरकर अधोलोक में प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्यवाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी। प्रस्तुत सूत्र में अलसक रोग का उल्लेख हुआ है, जिससे पीड़ित होकर अत्यन्त कष्ट के साथ रेवती का मरण हुआ। अलसक आमाशय तथा उदर सम्बन्धी रोगों में भीषण रोग है। अष्टांगहृदय में मात्राशितीय अध्याय में इसका वर्णन है । वहां लिखा है-- "दुर्बल, मन्द अग्निवाले, मल-मुत्र आदि का वेग रोकने वाले व्यक्ति का वायु विमार्गगामी हो १. देखें सूत्र-संख्या २४६ । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६] [उपासकदशांगसूत्र जाता है, वह पित्त और कफ को भी बिगाड़ देता है । वायु विकृत हो जाने से खाया हुआ अन्न आमाशय के भीतर ही कफ से रूद्ध हो कर अटक जाता हैं, अलसीभूत-आलस्ययुक्त-गतिशून्य हो जाता है, जिससे शल्य चुभने जैसी भयानक पीड़ा उठती है, तीव्र, दुःसह शूल उत्पन्न हो जाते हैं , वमन और शौच अवरूद्ध रहते हैं, जिससे विकृत अन्न बाहर नहीं निकल पाता। अर्थात् आमाशय में कफरूद्ध अन्नपिण्ड जाम हो जाता है । उसे अलस या अलसक रोग कहा जाता है।''१ उसी प्रसंग में वहां दण्डकालसक की चर्चा है जो अलसक का भीषणतम रूप है, लिखा है-- "अत्यन्त दूषित या विकृत हुए दोष, दूषित आम--कच्चे रस से बंधकर देह के स्रोतों को रोक देते हैं, तिर्यगामी हो जाते हैं, सारे शरीर को दंड की तरह स्तंभित बना देते हैं --देह का फैलना-सिकुड़ना बन्द हो जाता है उसे दंडकालसक कहा जाता है । वह असाध्य है, रोगी को शीघ्र ही समाप्त कर देता है।"२ माधवनिदान में भी अजीर्ण निदान के प्रसंग में अलसक की चर्चा है। वहां लिखा है "जिस रोग में कुक्षि या आमशय बंधा सा रहे अर्थात् आफरा आ जाय, खिंचावट सी बनी रहे, इतनी पीड़ा हो कि आदमी कराहने लगे, पवन का वेग नीचे की ओर न चल कर ऊपर अमाशय कीओर दौड़े, शौच व अपानवायु बिलकुल रूक जाय, प्यास लगे, डकारें आएं, उसे अलसक कहते है "३ अष्टांगहृदय तथा माधवनिदान के बताए लक्षणों से स्पष्ट है कि अलसक बड़ा कष्टकर रोग है। विशेषाद् दुर्बलस्याऽल्पवढे वेगविधारिणः। पीडितं मारूतेनान्नं श्लेष्माणा रुद्धमन्तरा ॥ अलसं क्षोभित दोषैः शल्यत्वेनैव संस्थितम्। शूलादीन्कुरूते तीव्राश्छद्यतीसारवर्जितान् ॥ सोऽलसः दुर्बलत्वादियुक्तस्य यन्मारूतेन विशेषादन्नं पीडितमन्तराऽऽमाशयमध्य एवं श्लेष्मणा रुद्धमलसीभूतं, तथा दोषैः क्षोभितमाकुलितमत एवाऽतिपीडाकारित्वाच्छल्यरूपत एवं स्थितं, तीव्रान् दुःसहान् शूलादीन् छादिवर्जितान् कुरूते। छर्घतीसाराभ्यां विसूचिकोक्ता । सोऽलससंज्ञो रोगः। दुर्बलो ह्यानुपचितधातुः, स न कदाचिदाहारं सोढुं शक्तः अल्पाग्नेश्चाहारं सम्यङ् न जीर्यति। यतो वेगधारणशीलस्य प्रतिहतो वायुर्विमार्गगः पित्तकफावपि विमार्गगौ कुरूत इत्येतद्विशेषेण निर्देशः। __ अष्टांगहृदय ७.१०, ११ टीकासहित २. ...अत्यर्थ दुष्टास्तु दोषा दुष्टाऽऽ मबद्धखाः। यान्तस्तिर्यक्तनुं सर्वां दण्डवत्स्तम्भयन्ति चेत् ॥ __ अष्टाङ्गहृदय ८. १२ ३. कुक्षिराहन्यतेऽत्यर्थं प्रताम्येत् परिक जति। निरूद्धो मारूतश्चैव कु क्षावुपरि धावति ॥ वातव) निरोधश्च यस्यात्यर्थ भवेदपि। तस्यालसकमाचष्टे तृष्णोद्गारौ च यस्स तु ॥ माधवनिदान, अजीर्ण निदान १७, १८ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९७ आठवां अध्ययन : महाशतक ] रेवती का दुःखमय अन्त २५६. तए णं सा रेवई गाहावइणी महासयएणं समणोवासएणं एवं वुत्ता समाणी एवं वयासी-रूटे णं ममं महासयए समणोवासए हीणे णं ममं महासयए समणोवासए, अवज्झाया णं अहं महासयएणं समणोवासएणं, न नजइ णं, अहं केण वि कुमारेणं मारिजिस्सामि त्ति कटु भीया, तत्था, तसिया, उव्विग्गा, संजायभया सणियं २ पच्चोसक्कइ, पच्चोसक्कित्ता जेणेव सए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ओहय-जाव (मण-संकप्पा, चिंता-सोग-सागर-संपविट्ठा, करयल-पल्हत्थमुहा, अट्ट-ज्झाणोवगया, भूमिगय-दिट्ठिया) झियाइ। श्रमणोपासक महाशतक के यों कहने पर रेवती अपने आप से कहने लगी-श्रमणोपासक महाशतक मुझ पर रूष्ट हो गया, मेरे प्रति उसमें दुर्भावना उत्पन्न हो गई है, वह मेरा बुरा चाहता है, न मालूम मैं किस बुरी मौत से मार डाली जाऊं। यों सोचकर वह भयभीत, त्रस्त, व्यथित, उद्विग्न होकर , डरती-डरती धीरे-धीरे वहाँ से निकली, घर आई। उसके मन में उदासी छा गई, (वह चिन्ता और शोक के सागर में डूब गई, हथेली पर मुंह रखे, आर्तध्यान में खोई हुई, भूमि पर दृष्टि गड़ाए) व्याकुल होकर सोच में पड़ गई। २५७. तए णं सा रेवई गाहावइणी अंतो सत्तरत्तस्स अलसएणं वाहिणा अभिभूया अट्टदुहट्ठ-वसट्टा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए लोलुपच्चुए नरए चउरासीइ-वास-सहस्स-ट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ना। ___ तत्पश्चात् रेवती सात रात के भीतर अलसक रोग से पीड़ित हो गई। व्यथित, दु:खित तथा विवश होती हुई वह अपना आयुष्य पूरा कर प्रथम नारकभूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में नारक रूप में उत्पन्न हुई। गौतम द्वारा भगवान का प्रेरणा-सन्देश २५८. तेणं कालेणंतेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरणं जाव' परिसा पडिगया। उस समय श्रमण भगवान् महावीर राजगृह में पधारे । समवसरण हुआ। परिषद् जुड़ी, धर्मदेशना सुन कर लौट गई। २५९. गोयमा! इ समणे भगवं महावीरे एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! इहेव रायगिहे नयरे ममं अंतेवासी महासयए नाम समणोवासए पोसह-सालाए अपच्छिम-मारणंतियसंलेहणाए झूसिय-सरीरे, भत्तपाण-पडियाइक्खिए कालं अणवकंखमाणे विहरइ। १. देखें सूत्र-संख्या ११। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [उपासकदशांगसूत्र श्रमण भगवान् महावीर ने गौतम को सम्बोधित कर कहा-गौतम! यहीं राजगृह नगर में मेरा अन्तेवासी-अनुयायी महाशतक नामक श्रमणोपासक पोषधशाला में अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगा हुआ, आहार-पानी का परित्याग किए हुए मृत्यु की कामना न करता हुआ, धर्माराधना में निरत है। २६०. तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव (लुलिया, विइण्णकेसी उत्तरिज्जयं) विकड्ढमाणी २ जेणेव पोसहसाला, जेणेव महासयए, तेणेव उवागया, मोहुम्माय जाव (-जणणाई, सिंगारियाई इत्थिभावाइं उवदंसेमाणी २ महासययं समणोवासयं) एवं वयासी, तहेव जाव' दोच्चंपि, तच्चपि एवं वयासी। घटना यों हुई-महाशतक की पत्नी रेवती शराब के नशे में उन्मत्त, (लड़खड़ाती हुई, बाल विखेरे, बार-बार अपना उत्तरीय फेंकती हुई) पोषधशाला में महाशतक के पास आई। (बार-बार मोह तथा उन्माद जनक कामोद्दीपक, कटाक्ष आदि हावभाव प्रदर्शित करती हुई) श्रमणोपासक महाशतक से विषय-सुख सम्बन्धी वचन बोली। उसने दूसरी बार, तीसरी बार फिर वैसा ही कहा। २६१. तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरत्ते ४ ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवइं गाहावइणिं एवं वयासी-जाव' उववजिहिसि, नो खलु कप्पइ, गोयमा! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संले हणा-झूसणा-) झूसिय-सरीरस्य, भत्तपाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं, तच्चेहिं, तहिएहिं, सब्भूएहिं, अणिद्वेहिं, अकंतेहिं, अप्पिएहिं, अमणुण्णेहिं, अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए। तं गच्छ णं, देवाणुप्पिया! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि-नो खलु देवाणुप्पिया! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स,) भत्त-पाण-पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव(तच्चेहि, तहिएहिं , सब्भूएहिं, अणितुहिं, अकंतेहिं, अप्पिएहिं, अमणुण्णेहिं, अमणामेहिं वागरणेहिं) वागरित्तए। तुमे य णं देवाणुप्पिया! रेवई गाहावइणी संतेहिं ४ अणिटेहिं ५ वागरणेहिं वागरिया। तं णं तुम एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव जहारिहं च पायच्छित्तं पडिवजाहि। ___ अपनी पत्नी रेवती द्वारा दूसरी बार, तीसरी बार यों कहे जाने पर श्रमणोपासक महाशतक को क्रोध आ गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग किया, प्रयोग कर उपयोग लगाया। अवधिज्ञान से जान कर रेवती से कहा-(मौत को चाहने वाली रेवती! तू सात रात के अन्दर अलसक नामक रोग से पीडित होकर, व्यथित, दुःखित तथा विवश होती हुई, आयुकाल पूरा होने पर अशान्तिपूर्वक मर कर नीचे १. देखें सूत्र-संख्या २५४ २. देखें सूत्र-संख्या २५५ ३. देखें सूत्र-संख्या ८४ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक ] [१९९ प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक नरक में चौरासी हजार वर्ष के आयुष्य वाले नैरयिकों में उत्पन्न होगी।) गौतम! सत्य, तत्त्वरूप-यथार्थ या उपचारहित, तथ्य-अतिशयोक्ति या न्यूनोक्तिरहित, सद्भूतजिनमें कही हुई बात सर्वथा विद्यमान हो, ऐसे वचन भी यदि अनिष्ट-जो इष्ट न हों अकान्त-जो सुनने में अकमनीय या असन्दर हो, अप्रिय-जिन्हें सनने से मन में अप्रीति हो, अमनोज्ञ-जिन्हें मन न बोलना चाहे, न सुनना चाहे, अमन:आप-जिन्हें मन न सोचना चाहे न स्वीकार करना चाहे-ऐसे हों तो अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए उन्हें बोलना कल्पनीय-धर्मविहित नहीं है। इसलिए देवानुप्रिय! तुम श्रमणोपासक महाशतक के पास जाओ और उसे कहो कि अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, (तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत) वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन प्रतिकूल हों तो बोलना कल्पनीय नहीं है । देवानुप्रिय! तुमने रेवती को सत्य किन्तु अनिष्ट वचन कहे। इसलिए तुम इस स्थान की-धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो, यथोचित प्रायश्चित्त स्वीकार करो। २६२. तए णं से भगवं गोयमे समणस्य भगवओ महावीरस्स 'तहत्ति' एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझंमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे, जेणेव महासयए समणोवासए, तेणेव उवागच्छइ। भगवान गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर का यह कथन 'आप ठीक फरमाते है ' यों कह कर विनयपूर्वक सुना। वे वहां से चले। राजगृह नगर के बीच से गुजरे, श्रमणोपासक महाशतक के घर पहुंचे, उसके पास गए। २६३. तए णं से महासयए समणोवासए भगवं गोयम एजमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट जाव' हियए भगवं गोयसं वंदइ नमसइ। ___ श्रमणोपासक महाशतक ने जब भगवान् गौतम को आते देखा तो वह हर्षित एवं प्रसन्न हुआ। उन्हें वंदन-नमस्कार किया। २६४. तए णं से भगवं गोयमे महासययं समणोवासयं एवं वयासी-एव खलु देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खए भासइ, पण्णवेइ, नो खलु कप्पइ, देवाणुप्पिया! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव (मारणंतिय-संलेहणा-झूसणा-झूसियस्स भत्त-पाण-पडियाइ-क्खियस्स परो संतेहिं , तच्चेहिं , तहिएहिं, सब्भूएहिं, अणिटे हिं, अकंतेहिं, अप्पिएहिं, अमणुण्णेहिं, अमणामेहिं वायरणेहिं ) वागरित्तए तुमे णं देवाणुप्पिया! १. देखें सूत्र-संख्या १२ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [उपासकदशांगसूत्र रेवई गाहावइणी संतेहिं जाव' वागरिया, तं णं तुमं देवाणुप्पिया! एयस्स ठाणस्स आलोएहि जाव' पडिवजाहि। ___भगवान् गौतम ने श्रमणोपासक महाशतक से कहा-देवानुप्रिय! श्रमण भगवान् महावीर ने ऐसा आख्यात, भाषित, प्रज्ञप्त एवं प्ररूपित किया है-कहा है-(देवानुप्रिय! अन्तिम मारणान्तिक संलेखना की आराधना में लगे हुए, अनशन स्वीकार किए हुए श्रमणोपासक के लिए सत्य, तत्त्वरूप, तथ्य, सद्भूत वचन भी यदि अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ तथा मन के प्रतिकूल हों तो उन्हें बोलना कल्पनीय नहीं है) देवानुप्रिय! तुम अपनी पत्नी रेवती के प्रति ऐसे वचन बोले, इसलिए तुम इस स्थान की-धर्म के प्रतिकूल आचरण की आलोचना करो प्रायश्चित्त स्वीकार करो। महाशतक द्वारा प्रायश्चित्त २६५. तए णं से महासयए समणोवासए भगवओ गोयमस्स तहत्ति' एयमटुं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणेत्ता तस्स ठाणस्स आलाएइ जाव अहारिहं च पायच्छितं पडिवज्जइ। तब श्रमणोपासक महाशतक ने भगवान् गौतम का कथन 'आप ठीक फरमाते है' कह कर विनयपूर्वक स्वीकार किया, अपनी भूल की आलोचना की, यथोचित प्रायश्चित किया। २६६. तए णं से भगवं गोयमे महासयगस्स समणोवासयस्स अंतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मझं-मझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे, तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ। तत्पश्चात् भगवान् गौतम श्रमणोपासक महाशतक के पास से रवाना हुए, राजगृह नगर के बीच से गुजरे, जहां श्रमण भगवान् महावीर थे, वहां आए। भगवान् को वंदन-नमस्कार किया। वंदननमस्कार कर संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए धर्माराधना में लग गए। २६७. तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नयराओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता बहिया जणवय-विहारं विहरइ। तदनतर श्रमण भगवान् महावीर, किसी समय राजगृह नगर से प्रस्थान कर अन्य जनपदों में विहार कर गए। २६८. तए णं से महासयए समणोवासए बहूहिं सील जाव भावेत्ता वीसं वासाइं समणोवासग-परियायं पाउणित्ता, एक्कारस उवासगपडिमाओ सम्मं काएण फासित्ता१. देखें सूत्र-सूख्या २६१ २. देखें सूत्र-सूख्या ८४ ३. देखें सूत्र-संख्या ८७ ४. देखें सूत्र-संख्या १२२ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवां अध्ययन : महाशतक ] [२०१ मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता, सढि भत्ताइं अणसणाए छेदेत्ता, आलोइय-पडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे अरूणवडिंसए विमाणे देवत्ताए उववन्ने। चत्तारि पलिओवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। निक्खेवो ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं अज्झयणं समत्तं ॥ यों श्रमणोपासक महाशतक ने अनेक विध व्रत, नियम आदि द्वारा आत्मा को भावित किया-आत्मशुद्धि की। बीस वर्ष तक श्रमणोपासक-श्रावक-धर्म का पालन किया । ग्यारह उपासक-प्रतिमाओं की भली भांति आराधना की। एक मास की संलेखना और साठ भोजन-एक मास का अनशन सम्पन्न कर आलोचना प्रतिक्रमण कर, मरणकाल आने पर समाधिपूर्वक देह-त्याग किया। वह सौधर्म देवलोक में अरुणावतंसक विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। वहां आयु चार पल्योपम की है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। ॥ निक्षेप॥ ॥ सातवें अंग उपासकदशा का आठवाँ अध्ययन समाप्त ॥ १. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं अट्रमस्स अज्झयणस्स अयम> पण्णत्तेत्ति बेमि। २. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धि-प्राप्त भगवान् महावीर ने आठवें अध्ययन का यही अर्थ भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौवां अध्ययन सार : संक्षेप श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता नामक एक समृद्धिशाली गाथापति था। उसकी सम्पत्ति बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में थी, जिनका तीसरा भाग सुरक्षित पूंजी के रूप में अलग रखा हुआ था, इतना ही व्यापार में लगा था तथा उतना ही घर के वैभव-साज-सामान आदि में लगा हुआ था। उसके दस-दस हजार गायों के चार गोकुल थे। उसकी पत्नी का नाम अश्विनी था। नन्दिनीपिता एक सम्पन्न, सुखी गृहस्थ का जीवन बिता रहा था। एक सुन्दर प्रसंग बना। भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे । श्रद्धालु मानव-समुदाय दर्शन के लिए उमड़ पड़ा। नन्दिनी-पिता भी गया। भगवान् की धर्म-देशना सुनी। अन्तः प्रेरित हुआ। गाथापति आनन्द की तरह उसने भी श्रावकधर्म स्वीकार किया। नन्दिनीपिता अपने व्रतमय जीवन को उत्तरोत्तर विकसित करता गया। यों चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसका मन धर्म में रमता गया। उसने पारिवारिक तथा सामाजिक दायित्वों से मुक्ति लेना उचित समझा। अपने स्थान पर ज्येष्ठ पुत्र को मनोनीत किया। स्वयं धर्म की आराधना में जुट गया। शुभ संयोग था, उसकी उपासना में किसी प्रकार का उपसर्ग या विघ्न नहीं हुआ। उसने बीस वर्ष तक सम्यक् रूप में श्रावक-धर्म का पालन किया। यों आनन्द की तरह साधनामय जीवन जीते हुए अन्त में समाधि-मरण प्राप्त कर वह सौधर्मकल्प में अरूणगव विमान में देव रूप में उत्पन्न हुआ। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथापति नन्दिनीपिता २६९. नवमस्स उक्खेवो'। एवं खलु जंबू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी । age चे । जियसत्तू राया । नौवां अध्ययन नन्दिनीपिता तत्थ णं सावत्थीए नयरीए नंदिणीपिया नामं गाहवई परिवसइ, अड्ढे । चत्तारि हिरण्णकोडीओ निहाण - पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण- कोडीओ वुड्डि-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण- कोडीओ पवित्थर - पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगो - साहस्सिएणं वएणं । अस्सिणी भारिया । उत्क्षेप'-उपोद्घातपूर्वक नौवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है जम्बू ! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, श्रावस्ती नामक नगरी थी, कोष्ठक नामक चैत्य था । जितशत्रु वहाँ का राजा था । श्रावस्ती नगरी में नन्दिनीपिता नामक समृद्धिशाली गाथापति निवास करता था। उसकी चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं घर की साधन-सामग्री में लगी थी। उसके चार गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दसदस हजार गायें थीं। उसके चार गोकुल थे । प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम अश्विनी था । व्रत : आराधना विहरइ | २७०. सामी समोसढे । जहा आणंदो तहेव गिहिधम्मं पडिवज्जइ । सामी बहिया भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे। समवसरण हुआ । आनन्द की तरह नन्दिनीपिता ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। भगवान् अन्य जनपदों में विहार कर गए। १. जणं भंते! समणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं अट्ठमस्स अज्झयणस्स अयम ट्ठे पण्णत्ते, नवमस्स णं भंते! अज्झयणस्स के अट्ठे पण्णत्ते ? २. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा- सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने उपासकदशा के आठवें अध्ययन का यदि यह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया तो भगवन् ! उन्होंने नौवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया ? (कृपया कहें )। Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [उपासकदशांगसूत्र २७१. तए णं से नंदिणीपिया समणोवासए जाव' विहरइ। नन्दिनीपिता श्रावक-धर्म स्वीकार कर श्रमणोपासक हो गया, धर्माराधनापूर्वक जीवन बिताने लगा। साधनामय जीवन : अवसान २७२. तए णं तस्स नंदिणीपियस्स समणोवासयस्स बहूहिं सोलव्वय-गुण जाव' भावेमाणस्स चोद्दस संवच्छराइं वइक्कंताई। तहेव जेठं पुत्तं ठवेइ। धम्म-पण्णतिं। वीसं वासाइं परियागं। नाणत्तं अरूणगवे विमाणे उववाओ महाविदेहे वासे सिज्झिहिए। निक्खेवओ ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं नवमं अज्झयणं समत्तं ॥ तदन्तर श्रमणोपासक नन्दिनीपिता को अनेक प्रकार से अणुव्रत, गुणव्रत आदि की आराधना द्वारा आत्मभावित होते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। उसने आनन्द आदि की तरह अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपा। स्वयं धर्मोपासना में निरत रहने लगा। नन्दिनीपिता ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया। आनन्द आदि से इतना अन्तर है-देह-त्याग कर वह अरूणगव विमान में उत्पन्न हुआ। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। "निक्षेप "सातवें अंग उपासकदशा का नौवां अध्ययन समाप्त" १. देखें सूत्र-संख्या ६४ २. देखें सूत्र-संख्या १२२ ३. एवं खलु जम्बू ! समणेणं जाव संपत्तेणं नवमस्स अज्झयणस्स अयमटठे पण्णत्तेत्ति बेमि। ४. निगमन-आर्य सुधर्मा बोले-जम्बू ! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने नौवें अध्ययन का यही अर्थ-भाव कहा था, जो मैंने तुम्हें बतलाया है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां अध्ययन सार : संक्षेप श्रावस्ती में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य तथा प्रभावशाली गाथापति था। उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था। नन्दिनीपिता की तरह सालिहीपिता की सम्पत्ति भी बारह करोड़ स्वर्ण-मुद्राओं में थी, जिसका एक भाग सुरक्षित पूंजी के रूप में रखा था तथा दो भाग बराबर-बराबर व्यापार एवं घर के वैभव-साज-सामान आदि में लगे थे। एक बार भगवान् महावीर का श्रावस्ती में पदार्पण हुआ। श्रद्धालु जनों में उत्साह छा गया। भगवान् के दर्शन एवं उपदेश-श्रवण हेतु वे उमड़ पड़े। सालिहीपिता भी गया। भगवान् के उपदेश से उसे अध्यात्म-प्रेरणा मिली। उसने गाथापति आनन्द की तरह श्रावक-धर्म स्वीकार किया। चौदह वर्ष के बाद उसने अपने आपको अधिकाधिक धर्माराधना में जोड़ देने के लिए अपना लौकिक उत्तरदायित्व ज्येष्ठ पुत्र को सौप दिया, स्वयं उपासना में लग गया। उसने श्रावक की ११ प्रतिमाओं की यथाविधि उपासना की। - सालिहीपिता की आराधना-उपासना में कोई उपसर्ग नहीं आया। अन्त में उसने समाधिमरण प्राप्त किया। सौधर्म कल्प में अरुणकील विमान में वह देव रूप में उत्पन्न हआ। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां अध्ययन सालिहीपिता गाथापति सालिहीपिता २७३. दसमस्स उक्खेवो'। एवं खल जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं सावत्थी नयरी। कोट्ठए चेइए। जियसत्तू राया। तत्थ णं साबत्थीए नयरीए सालिहीपिया नाम गाहावई परिवसइ, अड्डे दित्ते। चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वड्डि-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं। फग्गुणी भारिया। उत्क्षेप'-उपोद्घातपूर्वक दसवें अध्ययन का प्रारम्भ यों है जम्बू! उस काल-वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय-जब भगवान् महावीर सदेह विद्यमान थे, श्रावस्ती नामक नगरी थी, कोष्ठक नामक चैत्य था। जितशत्रु वहां का राजा था। श्रावस्ती नगरी में सालिहीपिता नामक एक धनाढ्य एवं दीप्त-दीप्तिमान्-प्रभावशाली गाथापति निवास करता था। उसकी चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं सुरक्षित धन के रूप में खजाने में रखी थीं, चार करोड़ स्वर्ण-मुद्राएं व्यापार में लगी थीं तथा चार करोड़ स्वर्ण मुद्राएं घर के वैभव-साधन-सामग्री में लगी थीं। उसके चार गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस-दस हजार गायें थीं। उसकी पत्नी का नाम फाल्गुनी था। सफल साधना २७४. सामी समोसढे। जहा आणंदो तहेव गिहिधम्म पडिवज्जइ। जहा कामदेवो तहा जेटुं पुत्तं ठवेत्ता पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्म-पण्णत्तिं उवसंपजित्ताणं विहरइ। मवरं निरूवसग्गाओ एक्कारस वि उवासग-पडिमाओ तहेव भाणियव्वाओ, एवं कामदेवगमेणं नेयव्वं जाव सोहम्मे कप्पे अरूणकीले विमाणे देवत्ताए उववन्ने। चत्तारि पलिओवमाइं ठिई। महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ। १. जइ णं भंते! समणेणं भगवया जाव संपत्तेणं उवासगदसाणं नवमस्स अज्झयणस अयमढे पण्णत्ते, दसमस्स णं भंते ! अज्झयणस्स के अटे पण्णत्ते? २. आर्य सुधर्मा से जम्बू ने पूछा-सिद्धिप्राप्त महावीर ने उपाासकदशा के नवमे अध्ययन का यदि वह अर्थ-भाव प्रतिपादित किया, तो भगवन् ! उन्होनें दसवें अध्ययन का क्या अर्थ बतलाया? (कृपया कहें) Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दसवां अध्ययन : सालिहीपिता] [२०७ ॥ सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमं अज्झयणं समत्त ॥ भगवान् महावीर श्रावस्ती में पधारे । समवसरण हुआ। आनन्द की तरह सालिहीपिता ने श्रावक-धर्म स्वीकार किया। कामदेव की तरह उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व सौंपा। भगवान् महावीर के पास अंगीकृत धर्मशिक्षा के अनुरूप स्वयं पोषधशाला में उपासनानिरत रहने लगा इतना ही अन्तर रहा-उसे उपासना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ, पूर्वोक्त रूप में उसने ग्यारह श्रावक-प्रतिमाओं की निर्विघ्न आराधना की। उसका जीवन-क्रम कामदेव की तरह समझना चाहिए। देह-त्याग कर वह सौधर्म-देवलोक में अरूणकील विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। उसकी आयुस्थिति चार पल्योपम की है। महाविदेह क्षेत्र में वह सिद्ध-मुक्त होगा। "सातवें अंग उपासकदशा का दसवां अध्ययन समाप्त" Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार २७५. दसण्ह वि पण्णरसमे संवच्छरे वट्टमाणाणं चिंता। दसण्ह वि वीसं वासाइं समणोवासय-परियाओ।। उपसंहार दसों ही श्रमणोपासकों को पन्द्रहवें वर्ष में पारिवारिक, सामाजिक उत्तरदायित्व से मुक्त हो कर धर्म-साधना में निरत होने का विचार हुआ। दसों ने बीस वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया। २७६. एवं खलु जंबु! समणेणं जाव' संपत्तेणं सत्तमस्स अंगस्स उवासगदसाणं दसमस्स अज्झयणस्स अयमढे पण्णत्ते।। आर्य सुधर्मा ने कहा-जम्बू! सिद्धिप्राप्त भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दसवें अध्ययन का यह अर्थ-भाव प्रज्ञप्त-प्रतिपादित किया। २७७. उवासगदसाणंसत्तमस्स अंगस्स एगो सुय-खंधो। दस अज्झयणा एक्कसरगा, दससु चेव दिवसेसु उद्दिस्संति। तओ सुय-खंधो समुद्दिस्स। अणुण्णविजइ दोसु दिवसेसु अंगं तहेव। ॥ उवासगदसाओ समत्ताओ ॥ सातवें अंग उपासकदशा में एक श्रुत-स्कन्ध है । दस अध्ययन हैं। उनमें एक सरीखा स्वरपाठ-शैली है , गद्यात्मक शैली में ये ग्रथित हैं । इसका दस दिनों मे उद्देश किया जाता है । तत्पश्चात् दो दिनों में समुद्देश-सूत्र को स्थिर और परिचित करने का उद्देश किया जाता है और अनुज्ञासंमति दी जाती है। इसी प्रकार अंग का सुमुद्देश और अनुमति समझना चाहिए। "उपासकदशा सूत्र समाप्त हुआ" १. देखें सूत्र-संख्या २ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगह-गाहाओ वाणियगामे चंपा दुवे य बाणारसीए नयरीए। आलभिया य पुरवरी कंपिल्लपुरं च बोद्धव्वं ॥ १ ॥ पोलासं रायगिहं सावत्थीए पुरीए दोन्नि भवे । एए उवासगाणं नयरा खलु होन्ति बोद्धव्वा ॥ २ ॥ सिवनंद-भद्द-सामा धन्न-बहुल-पूस-अग्गिमित्ता य। रेवइ-अस्सिणि तह फग्गणी य भज्जाण नामाई ॥ ३ ॥ ओहिण्णाण-पिसाए माया वाहि-धण-उत्तरिज्जे य। भज्जा य सुव्वया दुव्वया निरूवसग्गया दोन्नि ॥ ४ ॥ अरूणे अरूणाभे खलु अरूणप्पह-अरूणकंत-सिटे य। अरूणज्झए य छठे भूय वडिं से गवे कीले ॥ ५ ॥ चाली सट्ठी असीई सट्ठि सट्ठी य सट्ठि दस सहस्सा। असिई चत्ता चत्ता एए वइयाण य सहस्साणं ।। ६ ॥ बारस अट्ठारस चउवीसं तिविहं अट्ठरसइ नेयं । धन्नण ति-चोव्वीसं बारस बारस य कोडीओ ॥ ७ ॥ उल्लण-दंतवण-फले अभिगणुव्वट्टणे सिणाणे य।। वत्थ-विलेवण-पुत्फे आभरणं धूव-पेज्जाई ॥ ८ ॥ भक्खोयण-सूय-घए सागे माहुर-जेमणऽन्नपाणे य। तं बोले इगवीसं आणंदाईण अभिग्गहा ॥ ९ ॥ उड्ढं सोहम्मपुरे लोलूए अहे उत्तरे हिमवंते । पंचसए तह तिदिसिं ओहिण्णाणं दसगणस्स ॥ १० ॥ दंसण-वय-सामाइय-पोसह-पडिमा-अबंभ-सच्चित्ते। आरं भ-पेस-उद्दिट् ठ-वज्जए समणभूए य॥ ११॥ इक्कारस पडिमाओ वीसं परियाओ अणसणं मासे। सोहम्मे चउपलिया महाविदेहम्मि सिज्झिहिइ ॥ १२ ॥ उवासगदसाओ समत्ताओ १. ये गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ के मुल पाठ का भाग नहीं हैं। ये पूर्वाचार्यकृत गाथाएं हैं, जिनमें ग्रन्थ का संक्षिप्त परिचय Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह-गाथाओं का विवरण प्रस्तुत में वर्णित उपासक निम्नांकित नगरों में हुए-- श्रमणोपासक आनन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुंडकौलिक सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता नगर वाणिज्यग्राम चम्पा वाराणसी वाराणसी आलभिका काम्पिल्यपुर पोलासपुर राजगृह श्रावस्ती श्रावस्ती श्रमणोपासकों की भार्याओं के नाम निम्नांकित थे-- भार्या शिवनन्दा भद्रा श्रमणोपासक आनन्द कामदेव चुलनीपिता सुरादेव चुल्लशतक कुंडकौलिक सकडालपुत्र महाशतक नन्दिनीपिता सालिहीपिता श्यामा धन्या बहुला पूषा श्रमणोपासक आनन्द अग्निमित्रा रेवती आदि तेरह अश्विनी फाल्गुनी श्रमणोपासकों के जीवन की विशेष घटनाएं निम्नांकित थी विशेष घटना अवधिज्ञान के विस्तार के सम्बन्ध में गौतम स्वामी का संशय, भगवान् महावीर द्वारा समाधान। पिशाच आदि के रूप में देवोपसर्ग, श्रमणोपासक की अन्त तक दृढ़ता। कामदेव २१०] Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह-गाथाओं का विवरण] __ [२११ चुलनीपिता देव द्वारा मातृवध की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित। सुरादेव देव द्वारा सोलह भयंकर रोग उत्पन्न कर देने की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित्त। चुल्लशतक देव द्वारा स्वर्ण-मुद्राएं आदि सम्पत्ति बिखेर देने की धमकी से व्रत-भंग, प्रायश्चित्त । कुंडकौलिक देव द्वारा उत्तरीय एवं अंगूठी उठा कर गोशालक मत की प्रशंसा, कुंडकौलिक की दृढ़ता, नियतिवाद का खडन, देव का निरूत्तर होना। सकडालपुत्र व्रतशील पत्नी अग्निमित्रा द्वारा भग्न-व्रत पति को पुनः धर्मस्थित करना। महाशतक व्रत-हीन रेवती का उपसर्ग.कामोहीपक व्यवहार, महाशतक की अविचलता। नन्दिनीपिता व्रताराधना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ। सालिहीपिता व्रताराधना में कोई उपसर्ग नहीं हुआ। श्रमणोपासक देह त्याग कर निम्नांकित विमानों में उत्पन्न हुए-- श्रमणोपासक विमान आनन्द अरूण कामदेव अरूणाभ चुलनीपिता अरूणप्रभ अरूणाकान्त चुल्लशतक अरूणश्रेष्ठ कुंडकौलिक अरूणध्वज सकडालपुत्र अरूणभूत महाशतक अरूणावतंस नन्दिनीपिता अरूणगव सालिहीपिता अरूणकील श्रमणोपासकों के गोधन की संख्या निम्नांकित रूप में थी-- श्रमणोपासक गायों की संख्या आनन्द ४० हजार कामदेव ६० हजार चुलनीपिता ८० हजार सुरादेव ६० हजार सुरादेव Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] [उपासकदशांगसूत्र चुल्लशतक ६०हजार कुडंकौलिक ६० हजार सकडालपुत्र १० हजार महाशतक ८० हजार नन्दिनीपिता ४० हजार सालिहीपिता ४० हजार श्रमणोपासकों की सम्पत्ति निम्नांकित स्वर्ण-मुद्राओं में थी-- श्रमणोपासक स्वर्ण-मुद्राएं आनन्द १२ करोड़ कामदेव १८ करोड़ चुलनीपिता २४ करोड़ सुरादेव १८ करोड़ चुल्लशतक १८ करोड़ कुंडकौलिक १८ करोड़ सकडालपुत्र ३ करोड़ महाशतक कांस्य-परिमित २४ करोड़ नन्दिनीपिता १२ करोड़ सालिहीपिता १२ करोड़ आनन्द आदि श्रमणोपासकों ने निम्नांकित २१ बातों में मर्यादा की थी-- १. शरीर पोंछने का तौलिया, २. दतौन, ३. केश एवं देह-शुद्धि के लिए फल-प्रयोग, ४. मालिश के तैल, ५. उबटन, ६. स्नान के लिए पानी, ७. पहनने के वस्त्र, ८. विलेपन, ९. पुष्प, १०. आभूषण, ११. धूप, १२. पेय, १३. भक्ष्य-मिठाई, १४. ओदन-चावल, १५. सूप-दालें, १६. घृत, १७. शाक, १८. माधुरक-मधु पेय, १९. व्यंजन-दहीबड़े, पकोड़े आदि, २०. पीने का पानी, २१. मुखवास-पान तथा उसमें डाले जाने वाले सुगन्धित मसाले। इन दस श्रमणोपासकों में आनन्द तथा महाशतक को अवधि-ज्ञान प्राप्त हुआ, जिसकी मर्यादा या विस्तार निम्नांकित रूप में थाआनन्द--पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में लवण समुद्र में पांच-पांच सौ योजन तक, उत्तर दिशा में चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत तक, ऊर्ध्व-दिशा में सौधर्म देवलोक तक, अधोदिशा में प्रथम नारक भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक स्थान तक। महाशतक--पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण दिशा में लवण-समुद्र में एक-एक हजार योजन तक, उत्तर दिशा चुल्लहिमवान् वर्षधर पर्वत तक, ऊर्ध्व-दिशा में सौधर्म देवलोक तक, अधोदिशा में प्रथम नारक Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संग्रह - गाथाओं का विवरण] भूमि रत्नप्रभा में लोलुपाच्युत नामक स्थान तक। प्रत्येक श्रमणोपासक ने ११-११ प्रतिमाएं स्वीकार की थी, जो निम्नांकित हैं- [ २१३ १. दर्शन - प्रतिमा, २ . व्रत - प्रतिमा, ३. सामायिक प्रतिमा, ४. पोषध - प्रतिमा, ५. कायोत्सर्ग-प्रतिमा, ६. ब्रह्मचर्य-प्रतिमा, ७. सचित्ताहार वर्जन - प्रतिमा, ८. स्वयं आरम्भ - वर्जन - प्रतिमा, ९ भृतक - प्रेष्यारम्भवर्जन - प्रतिमा, १०. उद्दिष्ट - भक्त - वर्जन - प्रतिमा, ११. श्रमणभूत- प्रतिमा । इन सभी श्रमणोपासक ने २०-२० वर्ष तक श्रावक-धर्म का पालन किया, अन्त में एक महीने की संलेखना तथा अनशन द्वारा देह त्याग किया, सौधर्म देवलोक में चार-चार पल्योपम की आयु वाले देवों के रूप में उत्पन्न हुए। देव भव के अनन्तर सभी महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होंगे, मोक्ष-लाभ करेंगे। ॥ उपाशकदशा समाप्त ॥ १. महाशतक के अवधिज्ञान के विस्तार का गाथा में उल्लेख नहीं हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द अइक्कम अइदूर अइभार अइयार अइरित्त अइवाय अकंत अकरणया अकाल अक्खुभिय अगरू अग्ग अग्गओ अग्गहत्थ अग्गजीह अग्गि अग्गिमित्ता अंग (देह का भाग) अंग (जैन आगम) अंगुली अचलिय अचवल अच्चणिज्ज अच्चासन्न अच्छ ● अच्छि अच्छिंद अजीव अज्ज (अद्य) परिशिष्ट १ : शब्द सूची सुत्र शब्द ४७, ४९, ५०, ५३ अज्ज (आर्य) ५९, २०८ ४५ ४४-५७ अज्जुण अज्झत्थिय ५२ अज्झयण १३, ४५ २६१ ५३ ९५, १०२, १०७, १२७, १३३, १६० ९६ २९, ३२ ९४, ९५, १०१ १३०, १३२, १३३, १३६, २२७, २३० ९४ ९४ २३८ १८३, २००, २०४, २०५, २०८ २१०, २११, २२७, २३० १०१ २,११७, १७५, २७७ ९४ ९६ ७७, ७८ १८७ २०८ अणणुपालणया १०७ अणतर ९४ अणभिओअ २०० ४४, ६४, २१३, २३६ ५८, ६८, ९५, ९७, १०२, १०७, १२७, १३२, १३३ अज्झवसाण अज्झोववन्न अंजण अट्ट अट्टहास अट्टय अट्ठ (अर्थ) अट्ठ (अष्ट) अट्ठम अट्ठ अड अडवी अड्ढ अणगार अणगारिय अणंग अट्ठ सुत्र ११७ ९४ ६६, ७३, ८०, १३६, १५४, १६३, १८८, १९३, २३०, २३८, २५२ १२४, १५०, १५७, २७६, २७७, ७४, २५३ २४० १०७ ९५, १०२, १०७, १२७१३३, १६०, २२७, २५५, २५७ ९५ २६ ६७, ८६, ८७, २१८, २२१, २४३, २४७ २७, १२५, २३२, २३४, २३५ ७१, २३१ १८१ ७७, ७८, ७९ २१८ ३, ८, १२५, १५०, १५७, २३२, २७३ ७६ १२ ४८ अणवकखमाण अणवट्ठिय अणसण अणागय ४३, ५२ ५५ १४- ५७, ९० ८१ ७३, ७९, २५९ ५३ ८९, १२२, २६८ १८७ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १: शब्दसूची] [२१५ १०१ शब्द अणागलिय अणाढाइज्जमाण अणाढायमाण अणारिय अणालत्त अणिक्खित्त अणि? अणियय अणुट्ठाण अणुप्पदा / अणुप्पविस अणुभाव अणुरत्त अणुराग अणुवाय अणुव्विग्ग अणेसण अण्ह अतत्थ अंत अंतरा अतंरद्धा अंतलिक्ख अंतिय सूत्र शब्द सूत्र १०७ अधर २१६, २४९ अन्न ५८,१११,१७५, १८४ २१५ अन्नत्थ १६-४२,५८ १३६, १४५, १६३ अन्नमन्न ७९ ५८ अन्नया ६३,६६,७३,७४,८८,१२०, ७६ १६६, १८५, १९५, २४१, २६७ २६१ अपच्छिम ७३,७९, २५२, २५९, २६१ १६८,१६९,१७१, अपत्थिय ९५,९७,१३२,१३३, १४२ १६९, १७०,१७१ अपरिग्गहिय ४८ अपरिजाणमाण २१५ १११, २६२ अपरिजाणिज्जमाण २१६ १६९ अपरिभूय ३,८,१२५ अपरियाण २४७, २४८ १८१, २२७ अपुरिसक्कार १६९, १७०, १७१, १९८, १९९ ५४ अप्प १०,११४, १९०, २०८ ९६ अप्पउलिअ ५१ ८६ अप्पडिलेहिअ १७५, १८५,१९२ अप्पमज्जिय ९६ अप्पाण ६६,७६,८९, १८१ १७९ अप्पिय २६१ ६६,२२३ अप्फोडंत ५० अब्भक्खाण ४१,१११,१६८,१८७,१९२ ।। अब्भंगण १२,१३,५८,६१,७८,८६ अब्भणुण्णाय ७७,७८,८६ १९२, २०२, २०४, २११, २२३ अब्भुग्गय ७७,७८ अभिओग ७९, २५९ अभिगज्जत १९५, २५५, २५७ अभिगय ४४,६४,१८१,२१३ ७३,८३,८४,८५,१६८,१६९ अभिगिण्ह ५८, २३५ १६९, १७१,१९२ / अभिग्गह ५८, २३५ ६२,८९, १२२ अभिभूय २१८, २५५, २५७ १५, ४७ अभिमुह २१८ ७९,८६ अभिरूइय ५८ १२७,१३०,१३३, २२७ अभिरूव १११ १८४ अभिलास १०१ ९५ अतुरिय अंतेवासि अंतो अत्थि अत्थेगइय अदिण्णादाण अदूर / अद्दह अद्ध ४८ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] [उपासकदशांगसूत्र शब्द / अभिवंद अभिसमण्णागय अभीय ५ २०० अमणाम अमणुण्ण अमाघाय अम्मगा अम्मया अम्मा अय (अयस्) अय (अज) अयं सूत्र शब्द सूत्र ८१ अवज्झाय २५६ १११,१६९,१७०,१७१ अवदालिय ९६,९८,१०३, १०८, ११६ अवर ६६,९३, १२६, १६६, १७५, १८५, १३९,२२६,२२८ १९२, २२३, २२४, २३८, २५२ २६१ अवसेस १६-४२, २३४, २३५ २६१ / अवहर २४१ अवि १४७ अवितह १३८ अविरत्त १३८ असई ९४ असण ५८,६६,६८ २१९ असद्दहमाण १११ २,७३,८०,९१,१८१, २३० असंभंत ७७,७८,९६ २५२, २७६ असमाहिपत्त २५५ ९५ असि ९५, ९९, ११६, १२७, १३८, १५१ १०१ असुर १८७ १८७ असोग १६६, १७५, १८५, १९२ ८९ अस्सिणी २६९ १५६ अहं १२,६६,७३, ८१, ८६,९५, १०२ २७४ १०७, १११, १२७, १३२, १३३, १३९ २७२ अहड १७९ अहरी ९४ १४९ अहा १२,५६,७०,७७,७९,२१०,२५० २३० अहिगरण ५२ २३८ अहिज्जमाण १६४ / अहियास (अभि-वासय्) १००,१०६,१४१ ६२ अहियास (अधिवास) १०० ५९, १९०, २०८ अहीण ६,२३३ १०१ अहे ७४, १०२,१०५, २५३ २५५, २५७ अहो (अधः, समास में) ५० १८४ अहो(आमन्त्रण के अर्थ में) . १११,१३६,१६३ २३ / आइक्ख ७९,१११,२६४ १०१ आउक्खय ९०, १२३ ५४ आउसो ४३ / आओस २०० अयसी अया अरहा अरूण अरूणकंत अरूणकील अरूणगव अरूणज्झय अरूणप्पभ अरूणभूय अरूणवडिंसय अरूणसिट्ठ अरूणाभ अलंकिय अलंब अलसय अलिंजरय अल्ल अल्लीण अवगासिय अवज्झाण ४७ ११७ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १:शब्दसूची] [२१७ ५७ आगर ७४ शब्द सूत्र शब्द सूत्र आकार ९४ आयव १९५ / आगच्छ १८८ आयाहिण १०,१९० आगमण /आराह ७०,७१ आगय ८६,२१६,२१८ आराहणा १०७ /आरोह १९७ आगार १२ आलंबण ५,६६ आगास १३६, १४५, १५४ आलभिया १५७, १६०,१६३ आघवणा २२२ / आलव आजीविओवासग १८२,१८३,१८४,१८६ / आलोय ८४-८७,८९,२६१,२६४,२६५ १८८,१९१,१९४,२०३ आवण १८४,१९३,१९४,२२०,२११ आजीविओवासय १८१,१८५, १८७,१९०, आवरणिज्ज १९२, १९३, १९५-२०२, २०४ आसंसा आजीविय १८१, २१४ आसण १११ आडोव १०७ असाइय १४५,१५४ / आढा २१५,२४७ आसाएमाणी २४०, २४४ आणत्तिय २०६ आसी १९७ आणंद २,३,५,१०,१२,५८,६२, २०४, आसुरत्त ९५,९९, १०५, १०९, ११६ २३२, २५२,२७०,२७४ १३०,१३८,२५५,२६१ आणवण ५४ आहय आणामिय १०१ आहयय १९५ आणद (आदान) १५, ४७,५१ आहार (आधार) आदाण (आर्द्रहण) १२७,१३०,१३३ आहार (आहार) / आदिय (आ-दा) ५८, ११९, १७७ इ (इति) __४४,८६, ११७, १६८, १६९, आदिय (आदिक) २९,३२ १७५, १९२, १९९, २००, २५१ आधार ६६ इ (अपि, चित्त) ६३,६६,७३,७४,८८, / आपुच्छ ५, ६८,६९, ६२ १२०,१८५, १९५,११२, आभरण १०,३१, १९०,२०८ २३८, २४१ २५२, २५४, २६७ / आभीय २५५, २३१ इइ / आमंत ११७,१७५ इंगाल आमलय २४ / इच्छ ७७,१३६,१५४,१६३, २०२ आयंक १५२,१५४,१५६ इच्छा / आयंच १२७,१३०, १३३,१३६, १४०,१५१, इच्छिय १२,५८ १५४, १५८,१६३, २२५, २२७, २३० इट्ठ आयरिय (आचरित) ४३ इड्डि १११,१६९,१७०,१७१ आयरिय (आयार्य) ७३,१८८,२१९, २२० इत्तरिय २०० ११२ १७ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८] [उपासकदशांगसूत्र सूत्र ३,७,७४, २५३ १६८ १६६ १७२, २४६,२५४ ५८,१७५ २७ इह १०१ ४१, १९७ - १०१ २३९,२४२ ८६,१६९,१९८ १३६,१४५,१५४ १८७, १८८,१९३ ९५,९९,११६,१२७,२३८, २०६ २१८ २१८ शब्द सुत्र शब्द इदाणिं ६६ उत्तर इंदभूई ७६ उत्तरिज्ज ५८,९४, १३३, १३६, १४२, उत्तरिज्जग १५४, १६३, १६९, २३०, २३५ उत्तरिज्जय इमेयारूव ६६,१३६, १८८,१९३ उत्थिय इव १०२ उदग ४४,५७,८६, १८८,२१६,२५९ उदग्ग इहलोक ५७ उदय ईरिया ७८ उदर ईसर ५,१२,६६ / उद्दव उक्कड १०७ उदाहु उक्खेव १२४, १५७,२६९, २७३ उप्पइय उक्खेवअ १५०,१६५,२३१ उप्पन्न उग्ग (उग्र) ७६, १०७ उप्पल उग्ग (आरक्षक अधिकारी) २१० उप्पियमाण / उग्गाह ७७ उम्मग्ग उच्च ७८ उम्माय / उच्चार (उच्चर-उच्चारण) १४१, २३५ उर उच्चार (उच्चार) ५५,६९ उरब्भ उच्चावय ६६ उराल उच्छूढ ७६ उल्लणिया उज्जल १००,१०६,१४१ उवएस उज्जाण १५७,१६५, १८०,१९०,२०८ उवएसय उज्जुग २०६ / उवकर उज्जोवेमाण १११ / उवक्खड / उज्झ ९५ उवगय ९४ उवचिय उट्टियं २७ / उवट्ठव उट्टिया ९४,१८४,१९७ /उवण उ8 (ओष्ठ) ९४ / उवदंसेमाण / उट्ठ (उत्था ) १९३ / उवनिमंत उट्टाण ७३, १६८, १६९, १७१, उवभोग १९८, १९९, २०० उवमा उड १११,२०८ / उववज्ज ५०,७४, १०२,१०५ उववन्न २४६ ९४,१०७,१०९ -९४ ७२,७६,८१, २३८,२३९, २४६ २२ ४३,४६, २१९ ७६, २१९ ६८ ६८ उट्ट ६९,९६,९७,९८,२१९, २४९ ९४,९५ २०६ २४३ २४६ १८७,१८८,१९३, २२० २२,५१,५२ ६२,९४, २५५ ६२,९०, २५५ ८९, १२२, १५६, १६४ उड Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १: शब्दसूची] [२१९ सूत्र २१४ ४४ शब्द सूत्र शब्द २३०, २५७,२६८,२७४ ८४,८५,८६,९२ उववाअ २७२ एसण उववास ५५,६६,९५ एसणिज्ज ५८ उववेय २०६ ओग्गहियय २०६ उवसग्ग ११२,११६,११७,१४६,१५६,२२५ / ओगिण्ह २२०, २२१ /उवसंपज्ज ६६,६९,७०,९२,१२१, ओदण १२५,१४८ ओसह ५८ उव्वट्टण २६ ओसहि / उवागच्छ १०,५८, ६९,७७, ७८,८०, ८२ ओहय २५६ ८६,९२, ९५, १०२, १०७,१३७, २५६ ओहि ७४,८३,२५३, २५५, २६१ उवासग ७०,७१, १२१, २५०, २६८ क २,८६, ९०, ९१,१२३, १६४,१६९ उवासगदसा २, २७६, २७७ १९६,१९८,२००,२१७ उव्विग्ग २५६ २१८, २१९, २५६ / उव्विह १०२, १०५ कइवय उस्सेह ७६ कक्कस १०७ उरू ९४ कंखा / ए (इयत् अथवा एवम् समास में) ८४ कंखिय ८६,९५,२४६ ए (इ) ८१, १८७ कज्ज ५, ६८,१२५ एक्क १६, १८२ कंचण १०१,२०६ एक्कसरग २७७ कट्ठ एक्कारस ८९,१२२,१७९,२५०,२६८,२७४ कडाहय १२७, १३०,१३३,२२७ एक्कारसम ७१,१४८ कडिल्ल एक्केक २२५ कणग ७६,२०६ २२, २३, २४,९३,१२६ कणीयसं १३२,१३६,१४५, १५१,१६३ १८६, १९२, २०४ २२५, २३० एगमेग २३४, २३८,२३९ कण्ण एगयाओ १८७ कण्णपुर २१५, २६३ कण्णेजय एत्थ ७,२०१ कत्तर एय ६७,८६,८७,१११,११८,१९४ कंतार ५८,२१८ एयारूव ७२,८०,९४,१६३,१६९ कंदप्प एलय २१९ कप्प (कल्प-विधि या मार्यादा) ७० २१९ कप्प (कल्प-देवलोक) ६२,७४,८९, १२२ २,१०,१२,४४,५८,५९,६२, ६६ १४९, १५६, १७९, २६८, २७४ ६८,७३, ७४,७७,७९, ८०, ८१, ८३ / कल्प (क्लृप्) ५८,९५, २३५, २६१, २६४ X ५२ एव Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२०] [उपासकदशांगसूत्र शब्द कभल्ल कम्म ८१ कम्पिल्लपुर १७५ कंबल १०७ २२ ९४ १३७ कय कयत्थ / कर (कृ) कर (कर) करग करण करणया करय करिस कलंद कलम कलसय कलाय कलाव कलुस कल्लं कल्लाकलिं कवाड कविल कविजल कवोय कंसपाई / कह कहा कहि काम कामदेव सूत्र शब्द सूत्र ९४ कायम ९५,२४६ ४६,५१,७२,७३,७४,७६,८४ काय ५३,७०, १०७, १०९ ८५, १९३, २१८ कार १६५ कारण ७८ कारिया १३३, १३६ ९५,१११,१३६ काल १, २, ३,९,५६,६६,७३,७५,७६, १११ ८९, ११६, १२२, १२६, १७३, १०,१६-४२,९९, १३२, २२५ २५२, २५५, २५७,२६८ १०१ कालग १९७ कास १५२ ४६, ४८,५९, १०७,२०६ कासाई १११ किंचि १७२ १८४ किण्ण (किण्व) १९७ किण्ण (किं नम्) ९४ /कित्त ७० ३५ कित्तण २१६, १८४ कित्ति ३६ किलिंज २०६ किस १७२ कीडा ४८ ६६,७६,१७५, १८९,१९२ कुकुड २१९ १८४, २३५,२४२,२४३ कुक्कुय ९४ कुंकुम ९४ कुच्छि २१९ कुडिल २१९ कुडुंब ५,६६,६८,२३८ २३५ कुंडकोलिय २,१६५-१७२,१७४, १७५, ६०,८६, १५६, २०९ १७७, १७९ १०,११४,११५, १७४,१९०,२१४ कुदाल २१८ कुमार २५६ ४८ कुंभकार १८१, १८४, १९३, १९४, ९२,९३,९५-११२,११४,११५, २००,२२१ ११६,११९,१२१,१२२,१२३ कुम्भ १०१ १२५,१७४ कुल ६६,६९,७७,७८ . ५७ कुविय (कुप्य) २५१ १ ९४ ९४ कामभोग , Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १: शब्दसूची] [२२१ केस २४ केसी ९२ शब्द सूत्र शब्द सुत्र कुविय (कुपित) ९५ खय ७४,९०,२५३ कुसुम ३०,९५ खलु २,३,१०,१२,४४,५८,६६,७३, ४६,४७ ७९,८१,८३,८६,९२, ९५, १११, कूणिय ११४, १२४ केइ ६८,२०० खाइम ५८ केणइ १११ खिंखिणिय १११, १८७ केवली १८७ खिंखिणी १६८ केवि १३८ खिप्प ५९,२०६ ५१ खीर २४६ /खुभं ९५,१०१,१०७,१११,२२२ कोहय ९४,१२४ खुर (क्षुर) कोट्ठिया ९४ खुर (खुर) २०६, २१९, कोडी ४,१७,९२, १२५, १५०, १५७, खेत्त १९,४९,५०,७४,२५३ १६०,१६३,१६५,१८२, २०४ खोम २८ २३२, २३४,२३८,२३९,२६९, २७३ / गच्छ १०,५८,८०,९०,२०४, २१४,२२० कोडुबिय १२,५९,२०६, २०७ गण कोढ १५२ गणि ११७,१७५ कोरेण्ट १० गंध २२, २६ कोलघरिय २३४, २३९,२४२,२४३ गंधव्व १११ कोलाल १९५, १९६,१९८,२०० /गम (गम्) कोलाहल १३६,१३७,१४५ गम (गम-जीवनक्रम) २७४ कोल्लाय ८,६६,६९,७९,८० गमण कोसी १०१ गय ११, १११ खइय २०६ गल्ल ९४ खओवसम ७४, २५३ गवल खज्जमाण २१८ गहिय खज्जय ३४ गाय १२७, १३०,१३३,१३६, २२७ ९४ गाहावइ २-६,८,१०,११,१२,१३, / खंड (खण्ड धातु) ५८, ९२, १२५, १५०, १५७, १६५, खंड (खण्ड) २३२, २६९, २७३ खंडाखंडिं ९५,९९ गाहावइणी २३८,२३९, २४०, २४२,२४३, खंध २४४, २४६, २४८, २४९, २५४, खंभ १३६, १४५,१५४ २५५, २५६, २५७, २६०, २६१ /खम ८६,८७,१११ गिण्ह (गेण्ह) १२७,१६८,२१९, २२५ खमण - ७७ गिह १०,५८,६९,११४ १२३ १८१ ९५ ३४ ९४ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२] [उपासकदशांगसूत्र गोत्त १०१ गोयम ९५ २१८ गोसाल शब्द सूत्र शब्द गिहि १२,५८,६१,८३, २०४, २७४ चउव्विह गीवा १०७,१०९ चक्क गुट्ठ ९४ चक्कवाल गुण ६६,७६, २१६, २२०, २७२ चक्खु गुणसील २३१ चंचल गुरू ५८,१४२ चंद गुलगुल १०१ चंडिकिय गुलिया ९५ चंदण ४,१८,३७,९२,९४,१५०,१५७ चंपा १,९२ १६५, १८२, २३२,२३४,२६९, २७३ चय (च्यु) १२३ गोण २०६, २४२, २४३, २४४ चय (च्यव, च्यवन) ९०, १२३ ७६ चलण ६२,७६, ८७, १२३, २५९, २६१, २६६ चाउद्दसिय गोर ___७६ चाउरंत १६८,१६९, १८५, २१५-२२२ चार १० घड २७ /चाल ९५,१०१,१११ धडय १८४ चाव १०१ घडी ९४ चिंध ९५ २०६ /चिंत १३६, १६३, २३० घंटिका २०६ चिंता ३४,३७ चिंतिय घर ७७,७८, चुलणीपिय १२५-१३८,१४०,१४२, २४४ घाए १२७,१३०, १३२, १३३, १३६, १४५,१४६ १४६,१४७,१४८,१४९,१५६, घाय २४१ १६३, १६४, २२५ . २४१ चुल्ल ७४, २५३ घोडय ९४ चुल्लसयग १५८,१६०,१६२,१६३ ७६,१०७ चुल्लसयय २,१५७,१५९,१६१, च १४-४३,५४-५७,८४,९४ चुल्ली ९४ ४,१७,१८,२१,४३,४९,६२ चेइय १,६, १०,८६,९२, १२४, २३१ ८९, १२२, १४१, १५६, १६४, २६८ २६९, २७३ २७४ चेडिया २०८ चउत्थ ७१, १४२ चेव ८१,८४,८३,९५,१०२,१०९, चउप्पय १८,४९ १२९,१३३,२००, २४८ चउरंस ७६ चोद्दस ६६, १७९, २२३, २४५, २७२ चउरासीय ९४,२५३, २५५, २५७ छ ९२,१५०,१५७,१६०,१६३, २३९ घंटा २७५ घय घुट्ठ घोर चउ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. जंघा परिशिष्ठ १ : शब्दसूची] [ २२३ शब्द सूत्र शब्द सूत्र ७१,७७ जागरिय ६६,७३, २५२ ९५ / जाण (ज्ञा) ४४-५७,७४,८३,१३८, छत्त २३९,२५३ छवि ४५ जाण (यान) ५९,६१, २०६, २०८, २११ छार १९७ जाणय १८७ छिज्जमाण २१८ जाणु छिद्द २३८ जाणुय ९५ / छिन्द ८९,१२२, २६८ जाय ६४,६५,७२,७३, ८१, १०१, छेय (छेक) २१९ २०६ २१३, २३६, २५१, २७१ छेय (छेद) ४५ जाल ५९,२०६ : १०,५८,७८,११४,१८७,२११ जाव २,६,५-१२,४४, ५८-६६,६८, जइ २,८३,८५,९१, १३८, २०० ७१,७२,७३,७५,७९,८१, ९४ ८३-८७,८९, २५३ जडिल १०७ जिण ७३,८५, १८७ जण ५१,७९,८०,८८,१२०, १७८ जिब्भा ९४ २१२,२२२, २३७,२६७ जिमिय जणण २४६ जियसत्तु ३,९,९२, १२४, १५०, १५७, जणणी १३३,१३६ १६५,१८०, २६९, २७३ जणवय ८८,१२०, १७८,२१२, २२, २३७, २६७ जीव १३,१४,१५,४४,६४,१७१, जंत २१३, २१८, २६३ जमग-समग - १५२ जीविय ५७,९५,१०२,१०७,१११,११६, जमल ९४,१०७ १२७, १३३, १५१, २००, २३८ जंबुद्दीव - १११ जीह ९५,१०७ २,९२,१२४,२३१,२६९,२७३,२७६ जुइ १११, १६९ जंबूणय २०६ जुग (युग-मानविशेष) जंबूलय । १८४ जुग (युग-यूप) २०६ जम्म १११ जुगवंत २१९ / जल ६६,७३,१८९ जुत्त १०१, २०६ जह ९४ जुयल २८,१०७ २,९,१२,४३-५७,६६,७९,९२, जुवाणय २०६ ९५, १०२, १२७ जे? ६६-६९,७६,९२,१२७,१३०, जहारिह २६१ १३६,१४५,१५१,१५४,२३०,२४५, जहेयं १२, २१० २७२, २९४ ८१ जेमण ६६,७३, २५२ जोइय २०६ जंबू ७८ जहा जा ४० / जागर Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४] शब्द जोणिय जोत्त जोयण झाण झिया झुसिर झूस झूसण झूसिय ठव ठाण ठिइ ठिय णं तं णाण ण्हाय हाविय तइय तओ (ततः) तओ (त्रय) तक्कर तच्च (तथ्य ) तच्च (तृतिय ) तज्ज तत्त तत्थ ( त्रस्त ) तत्थ (तत्र) तंत तम तंबोल सूत्र शब्द ११७ तया २०६ ७४, ८३, २५३ ७७,९६, ९७, ९८ तरूण तल तलवर ७७ तलाय ९४ तलिय ८९, १२२, २६८ ५७, ७३ २५२, २५९ ६६, ६८, १७२, २४५, २७२ ८४, ८५, ८६, ८७, १४६, २६१, २६४ ६२, ८९, १२२, १४९, १५६ १६४, २६८, २७४ ७४, २०८, २५३, २५५, २५७ २-८, १०-४३, ४५-७४, ७७-९० १८७, १८८, १९३, २१८, २५३ १०, १९०, २०८ ९४ १०, १२, १३, ४७-५७, ७४, १०९, १८७, २२७ ७७, १२४ तव तवस्सि तसिय तह ८,५१, ६२, १२२, १२५, १८१ १८४, १९३, २३२, २७३ १०१, २२२ तहं तहा तहिय ता ताल ताव ति तिक्ख तिक्खुत्तो ११८ १२७, १३०, १३३ तिणट्ठे ४७ तित्तिर तिरिक्ख ७०, ८५, १८८, २१८, २२० ७१, ९७, ९८, १०४, १२९, १३२ १३५, १३६, १४०, २२९, २३० तिरिय तिवलिय २०० तिविह ७६ तिव्व २५६ तीय तीर (तीर) तीर (तीर) तुच्छ २१८ तुट्ठ ४२ तुमं [ उपासकदशांगसूत्र सूत्र १४-४३, ४५-५७ २१९ १०२, १०५ १२ ५१ २४० ७२, ७६, ८४, ८५, २६६ ७६ २५६ ६६, ६७, ८७, ११८, १३५, १४१, १७६, २६०, २६५ १२ ९, १२, ७९, ९२, १२५, १३६ ८५, २२०, २६१ ७३ २०० ७३, ११७, १७५ १०, ५८, ८१, ८३, ९९, १०२, १०५, १०७, १०९, ११९, १९०, २०८ १०२, १०५, १०७, १०९ १०, ५८, ८१, ८३, १०२, १०५ १०७, १०९, ११९, १९०, २०८ ६२ २१९ ११७ ५० ९९ १३, १४, १५ ४८ १८७ ७० २१८ ५१ १२ ५८, ९५, १०७, १३३, १७१, २००, २५५ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची ] शब्द तुरक्क तुल्ल सणी तेण तेय तेरस तेलोक्क तेल्ल थणय थिमिय थूलग दक्खिण दच्छ दंड दंत दंतवणं दब्भ दरिसणिज्ज दरिसि दलय दवग्गि दस दंसण दंसणिज्ज दसम दह दा दाढा दाणव दाम दार दावणया दालिया दिट्ठ दिट्ठ सूत्र शब्द ३२ दिण्ण ४७ दित्त ९६, २१५, २४७ दिप्पमाण ४७ दिवस ९४ दिव्व दिसा २३३, २३५ १८७ दिसि २५ दिसी ९४ दीव ७ दु दुक्कर ७४, २५३ दुक्ख १०७ दुपय १३, १४, १५, ४५, ४६, ४७ ४३,५२,२००, २१८ २३,५१, ९४, १०१ २३ ६९, १११ ५१ २, ४, १८, ९२ १८७, १८८, १९३, २१८ १११ १८७ १९५ दुह २७३, २७६ दुप्पउलिय दुरंत दुरहियास दुरूह दुवालस दुविह देव ९४ देवत्त देवय ५१ ४० ११, १४६, ७८, ९३, २१४ दूइपलास दूइपलासय ५१ देवाणुप्पिय ५८ देविड्डी १०७, १०९ १११ देविंद १०, ३० देवी १६, ४६, ४८ देस दोच्च दोणिय धन्न (धान्य) धन्न ( धन्य ) [ २२५ सूत्र १८४ ७६, २७३ ९४ २७७ १०१, १०७, १११, १६९ २०, २१, ६१, ११९ ५० ३, ७ १११ १३, १४, १५, ४९, ५१ १३३, १३६ २२७, २३० ४९ ५१ ९५ १०० ६१, ६९, १०९, २११ १२, ५८, २११, २३४, २३८, २३९ १३, १४, १५, ५१ ९५, १०२, १०८, १२७ ५८, ७८, ८६ ३, १० ९०, १११, ११६, १२३, १२८ ६२, ८९, १२२, १४९, २६८, २७४ ५८, १३३, १३६ १२, ६८, ७७, ७९, ९५. १५६, २०४ १६९, १७१ १११ १११ ५४ ७१, ९७, १०४, १०८ २३५ ४९ १११ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६] [उपासकदशांगसूत्र २१८ शब्द सूत्र शब्द सूत्र धन्ना १५०, १५५,१५६ नवर २०४,२२५, २३०,२३२, २३५, २७४ धमणि ७२,७३,८१, २५१ नस्समाण २१८ / धमधमे १०७ नाई (ज्ञाति) ८,६९, ९२ / धम्म (ध्मा) १०७ नाइं (नत्रर्थक) १११ धम्म (धर्म) ६६,६९,७३,९२, १५७,२०९ नाण ७४,८३ धम्मकहा ११,११५,१९१ नाणत्त २७२ धम्मकही २१८ नाणा ९५, २०६ धम्ममय २१८ नाम १,३,६,७,३१,७६, ९२ धम्मायरिय ७३, १८८, २१९, २२० नाथ ६६,६९ धम्मिय ६१, २०६, २०८, २११ नायाधम्मकहा धम्मोवएसय ७३, १८८ नाराय ७६ / धर (धृ) २१९ नावा धर (धर) १८७,१८८,१९३,२१८ नासा धरणि १०२, १०५ नाही ९४ धरणी १०७ निउण २१९ धवल १०१ / निकुट्ट १०७,१०९ ९५ निक्खेव ९०, १२३, १४९, १५६, १६४ ९३,९५ १७९, २३०, २६८ ३२ निक्खेव २७२ धूवण ३२ निक्खेवणया नउल ९५ निगर १०७ नक्ख ९४,१०१ / निग्गच्छ ९,१०,६९,११४ नगर १८४,२०८ निग्गय ९,७५,९४, १८९, २३५ नत्था २०६ निग्गंथ (निर्ग्रन्थ) ५८,११७, ११८, १७५ नत्थि १६८,१६९,१७१,१९९, २०० १७६,२१४ नंदिणीपिय २, २६९, २७१ निग्गंथ (नैर्ग्रन्थ) १२, १०१, १११, २१०, २२२ / नमंस ५८,६२,७७,८१,८३,८६, ११९, १७७ निग्गंथी ११७,११८,१७५,१७६ नय २१९ निग्गह ५८ नयण १०७ निघस नयर १६५,१८०,२२२,२३१ निच्चल २१९ नयरी १,९२,११४,१२४,१५०, १५७ निच्छय २१८, २६९,२७३ /निच्छोड २०० नरय ७४,८३,२५३, २५५, २५७ निडाल ९४,९९ नव २२५,२२७ नित्थार २१८ नवम ७१, २६९ / निप्पट्ठ १७५, २१९ धारा धिइ धूव Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची ] शब्द निप्फंद निब्भच्छ निमिज्ज निम्मिय नियग नियत्तण नियय निरवसेस निल्लंछण निल्लालिय निवुड्डाण निव्वाण निसंत निसम्म निसा निसाम निहाण नीणे नीय नील नूणं त् नेयव्व नेरइय नेरइयत्त नो पइट्ठिय इविसिय पउंज पउत्त पउम पउलिय पओग सुत्र शब्द २१९ पक्केलय २०० १९७ पक्खेव २०६ पगास ८ १९ १६८, १६९, १७१, १९९, २०० २१८ २१८ ५८ १५६ पच्चक्खाण ५१ पच्चणुभवमाणी ९५ पच्चत्थिम १२, ६१, ८०, १३७, १५५, २०४, २१० ९४ ७९ ४, १७, १२, १२५, १६०, १६५ १८२, २०४, २३२, २६९, २७३ १०२, १३६, १६०, १६३, १९५, २३० ७७, ७८ ९५, ९९, ११६, १२७, १३८ ११६, १७५, १९२ पक्खिव १०१ २०६ पग्गह पग्गहिय २५५, २६१ ४, १७, ९२, १२५, १६० पच्चक्खा ~ पच्चप्पिण / पच्चोरूह पचोसक्क पच्छा पच्छिम पज्जत्त पज्जुवास पंच पंचम पट्टण ९४ पट्टय २७४ पडल २५५ २५५, २५७ १२, ५८, ६२, ८४, ८५, ९५, १०१ पंचाणुव्वइय पंजलि पडिउच्चारेयव्व पडिक्कंत पडिक्कम पडिगय पडिग्गह पडिग्गाह पडिच्छ [ २२७ सूत्र ३० पडिच्छिय ५१ पडिजागरमाणी ४७ ● पडिणिक्खम २०० १५२, १५४, १५६ ५४ ९५, १०७ १०६ ७२ १३, ४३, २३५ ६६, ९५ ६ ७४, २५३ २०६, २०७ २०८ १०१, १०७, १११, २५६ १९७ ५७, ७३, ७९, १०९, २५२, २५९,२६१ ७९ ९, १०, ५९, ११४, १७४ ६, १९, २०, ४२, ४४-५७, ७४, ८३ ७१, १५७ १२, ५८, २०४, २१०, २११ १११, २०८ २१८ १६६, १७२ २१८ ११६ ८९, १२२, २६८ ८६ ६१, ७५, १११, ११९, १७२ ५८ ७९ १०२, १०५ १२,५८ २३८ १०, ५८, ६९, ७८, ८६ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८] [उपासकदशांगसूत्र शब्द सुत्र ९५,९७,१३२, १३३, १३८ २१८ ७४, २५३, २५५ १११ १२,५८,६८ २१९ ६९,७७ ५५ ५,४९, १०१ ४३ सुत्र शब्द पडिणिग्गच्छ ७९ पत्थिय पडिणियत्त ११४ पंथ / पडिदंसे ८६ पभा / पडिनिग्गच्छ १२ पभासेमाण / पडिपुच्छ ६८ पभिइ पडिपुण्ण ०१ पभु पडिबद्ध ५१ / पमज्य पडिबंध १२,७७, २१० पमज्जिय / पडिभण १५६ पमाण पडिमा ७०,७१,११२,१४८,१७९ पमाय पडियाइक्खिय ४७,२५२, २५९ पम्ह पडिरूव १११ पयत्त पडिरूवग ४७ पयाण पडिलाभेमाण ५८,६४,६५ पयाहिण / पडिलेहे ६६,६९,७७ पर पडिलेहिय ५५ परक्कम / पडिवज्ज १२,५८,६१,८६,८७ पडिवत्ती १११ परम पडिवन्न १११,१६८,१८७,१९२,२१८ परलोक / पडिसुण ८७,११८,१७६,१९४,२०५ / परिकह पडुप्पन्न १८७ परिक्खित्त पडोच्छन्न २१८ परिकिण्ण पढम ७०,७७,९१,१२१,२५० परिगय पढमया १३ परिग्गहिय पणरसम ७५ / परिच्चय / पणिहा १९२ परिजण पणिहाण ५३ / परिजाण पण्णत्त २,५१, ६२,८९,९१ / परिट्ठवे पण्णत्ति ६६,६९,९२,१४१ परिणद्ध पण्णरस ५१ परिणाम पण्णरसम ६६,१७९,२२३ परितंत पण्णवणा २२२ परिभोग / पण्णव २६४ परिमाण ८९, १२१, १२२, १६९, १७०, १७१ परियाग /पत्तिय १२ परियाय ४३ १०,१९० ४४,४८,५६,५७ ७३,१६८,१६९,१७०, १९८, १९९,२०० १८१ ५७ २०३ १०,११४ २०८ १०७,१०९,१९०,२०६ ४८,५८ ९५, १५२ २१५ २०० १०१,२२२ २२,५१,५२ १६-४२, ४९ ८९,१२२, २७२ ६२,२७५ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची] [२२९ ५८ ११४ ४३ ४४ पविट्ठ सूत्र शब्द सूत्र / परियाण २४७ पामोक्ख १७२, २३३, २३५ परिलोयण ७८ पाय १०,८१,९४,१०२ पिरवज्जिय ९५ पायच्छित्त २६१,२६५ / परिवस ३,८,१२५,१८१ पायपुञ्छण परिवुड २०८ / पारे परिसा ९,११,७५, १२५, १८९, २३५ पारणग ওও २५८ पालंगा परिहिय १११, १८७ / पाले / परूव २६४ पाव परो २६१ पावयण १२, १०१, १११, २१०, २२२ पलंव १०१ पावेस १०,११४,१९०,२०८ पलिओवम ६२,८९, १२२,१४९,१५६, / पास ७४,८०,८१,८३,९७,९९,१०१, १६४, २६८,२७४ १०४, १०५, १०९,१११ पवण १०१ पासंड पवर ६१, १११, २०६, २०८, २११ पासवण ५५,६९ १०१ पासाईय १११ पवित्थर ४, १७,९२, १२५ पासादीय पव्वइय १२, २१० पाहाण / पव्वय (प्र-व्रज्) १२,६२ पि ९८,१०४,१०८,१२९,१३२ पव्वय (पर्वत) ७४, २५३ पिच्छ २१९ पसत्थ २०६ पिट्ठ १०१ पसन्न २४० पिडग ११७, १७५ पसंसा ४४ पिवासिय ९५, २४६ पसिण ५८, ११९, १७५, १७७, २१९ पिसाय ९४,९६, ९७, ९९, १०१, ११६ पसेवअ ९४ पिडहय १८४ पह १६० पीढ ५८,१८७, १९३, १९४,२१६,२२०, ६२ / पाउण ६२,८९, १२२, २६८ पीलण / पाउब्भव ८१,१६७, १८६, १९२, २२४ पुच्छ (पुच्छ) १०१,२१९ पाउब्भूय ६१,९३,१११,११९ / पुच्छ (प्रच्छ्) ५०,११९, १६३, १७७ पडिहारिय १८७,१८८,१९३,१९४,२२०, पुच्छा १२५ २२१ पुच्छिय १८१ पाण (पान) ५८,७३, ७९, ८६, २५२, २५९ पुंछ ९४ पाण (प्राण) १३, ४५ पुञ्छण पाणिय ४१ पुंज पहु २२१ ५८ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] [उपासकदशांगसूत्र शब्द पुड पुडग पुढवी २७३ ९४ पुणाई पुण्ण (पुण्य) पुण्ण (पूर्ण) पुण्णभद्द पुप्फ पुर पुरओ पुरत्थिम पुरवर पुरिस पुरिसक्कार सूत्र शब्द सूत्र ९४ पोसणया ९४ पोसह ५५, ६६,६९,७९,८०,९२, ९५ ९४,१६६,१६८,२५३,२५५ पोसहिय ६९,१११, १२५ २१४ फग्गुणी ११७, १७५ फरूस ९५, २४६ फल २४, १११ ३४,१०७ फलग ५८, १८७, १९३, १९४, २१६, २२० १,९२ फाल ९४ ६६,६७,१३०,१३६ /फास ७०,८९, १२२, २६८ ३०,६६ फासुएसणिज्ज ९४ फासुय ६६,६८,७८, १०१ फुग्गफुग्गा ___७४,८३,८९, १२२, १४९, २५३ फुट्ट ९४ फुड ५९, १३६, १३८,१३९, १४६, १५४ फोडी १६३ बंध ७३, १६८, १६९, १७०, १७१, बंभयारि १११, १२५ १९८,१९९ बंभचेर ७६ ७६ बल १८,७३,१६८,२१८ ६६,७३,९३, ११६, १२६ बहिया ३,७,५४, ६३,८८ ५८,१९७ बहु ४,१२,६२,६८,८९ १८७,२१८ बहुय ६६ बहुला १६५ बाह ९४ ३३ बिइय ७७ १८१ बीभच्छ ४४,४५ बुड्डमाण ५४ बुद्धि १३६ ५६ बे ५४ भई ९४ भक्ख २४२, २४३ भक्खणया ५१ ७७ भगवं १,१०,११,४४,६०,६२,६३,७३ १८०, १८१, १८४, १९०, १९३ २०४, २०८,२१२,२१४, २२२ भग्ग ९५, १४६ पुलग पुव्व पुव्विं पूइय ८ पूरण १५७ ९४ २१८ पूसा पेज्ज पेम पेयाल पेसवण पेहणया पोग्गल पोट्ट पोयय पोरिसी पोलासपुर २३५ १८४ ३४ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची ] शब्द / भंज भज्जिय भण भंड भंडग भय भरिय भत्त भद्दा (कामदेव की पत्नी का नाम) भद्दा (चुलनीपिता की माता का नाम) भव भव भवक्खय भसेल्ल भाडी भाणियव्व भाय भायण भारह भारिया भाव भावेमाण भास भिउडि भिक्खा भिक्खायरिया भिज्जमाण भिंद भीम भीय भुग्ग सूत्र शब्द भुज्जो १४२ भुंजमाण २४० ९५, १०२, १०७, १२७, १३२, १३३ १०२, १५३, २२९, २३०, २४८, २५४ १९५, १९६, १९८, २०० २१४ ४५, ७३, ७९, ८६, १२२ ९२ १३३, १३६, १३७, १३८ २५६ १२७, १३०, १३३, २२७, २३५ १२, ८९, १२२, २१०, २६६ ९०, १२३ ९०, १२३ सज्ज भोग (राजा के मंत्रीमंडल के सदस्य ) भोग (सांसारिक सुख ) भोयण म (अम्ह) मउल मग्ग ९४ मंखलिपुत्र ५१ भुत्त भुमगा भुमय भूमि २३० मंगल ३, ७, १०७, १०९ भूय भेय मंगुली ७७ मच्छरिया १११ ६, ५९, ६५, ९२, १२५, १६३ १३८, १६९, १९, २००, २२०, २४६ ६६, ७६, १७९, १८१, २२३, २४५, २६६, २७२ ७७, ७८, ८९ ७७, ७८, ७९ ११८ २०० ९५ २२८, २५६ मज्ज मज्जण मज्झ मज्झिम मज्झिमय मट्टिया २६४ मट्ठ ९९ मडह मंड मंडुक्किया मण मणि [ २३१ सूत्र १११ २००, २३८, २३९, २४६ ६६ ९४ ९५ ५५, ६९ ५, १०७ ४६ ५८ २१० २००, २३८, २३९ ३३, ५१ ५८, ६६, ७३, ८३, १३६, १४०, १७० १०१ ७० मणुय मणुस्स ९५ मणोगय १६८, १६९, १७१, १८८, १९२, २१४, २१६, २१८, २२१, २२२ १० १६८, १६९, १७१ ५६ २४० २७ १०, ६९, १११, ११४, १९०, २०८ ७७, ७८, १३२, १३६ २३० १९७ ३१ ९५ ३७ ३८ १३, १४, १५, ५३, ६६, १०१ २०६ १८७ १०, ११७, १९० ६६ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] [उपासकदशांगसूत्र सूत्र १८७, २१८ २४० मत्त २३ १२,६८,७७, २१० १२ मंस ११७ ६,१११, २३८ १३६,१४२ महइ ५७,७३, २४२,२५९ २५६ ३० शब्द सूत्र शब्द मंत ४६ महिय १०१,२४६,२५४,२६० महु मरण ५७ महुय मल्ल १० मा मल्लिया १०१ माडंबिय १२७,१३०,१३३,१५८, २२५, २२७, माण २४०,२४४ माणुस मसी १०७ माणुस्सय मंसु ९४ माया / मह (मथ्) २०० मायी मह (महत्) १०१,१०७,१११,१३८,१५१ मारणंतिय ११,६०, १९१, २१८ / मारे महग्घ १०,११४,१९०,२०८ मालइ महप्फल १० माला महल्ल ९४ मालियाय महाकाय १०७ मास (माष) महागोव २१८ मास (मास) महातव ७६ मासिय महाधम्मकही २१८ माहुरय महानिज्जामय २१८ मिच्छत महापट्टण २१८ मिच्छा महामाहण १८९, १८८, १९३, २१६, मिंज २१७,२१८ मित्त महालय ८४,२१८ मिसिमिसीयमाण महालिया ११ मीस महावाड २१८ मुइंग महाविदेह ९०,१२३, १४९,१५६,१६४, मुक्क १७९, २३०,२६८,२७२, २७४ मुगुंस महाविमाण ८९, १२२, १४९ मुग्ग महावीर ९, १०, ११, ४४, ५८, ६०,६१, मुच्छिय ६२, ६३,७३,७५,७६,७७,७८ मुण्ड महासत्थवाह २१८ मुंड महासमुद्द २१८ मुद्दगा महासयग २३३, २३४, २५३, २६०, २६६ मुद्दया महासयय २,२३२, २३६, २४६-२५२ मुद्दा ८९,१२२, २५७,२६८ ८९,१२२,१६८ ३९ २१८ ९३, १७१, २०० १८१ ८,६६, ६८,६९,९२ ९५ १९७ ९४ ९५ ९४ ३६ २४०, २४२ १२ १२,६२, २१० १६६ १७२ ३१,१६८,१७५ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची [२३३ शब्द मुद्धाण मुसल मुसा मुह मुहपत्ती १२ मूसा मेढी मेरग मेह मेहुण मोक्ख EE SEEEEEEEEE: मोसा २३ मोह मोहरिय यत्तिय सूत्र शब्द सूत्र ८१,८३ रुट्ठ ९५, २५६ १०२,१०५ रूव ५४, ६६,८०, ९४, ९६, ९७, ९९, १४,४६ १०१,१०३ ४२,७७ रेवई २३३,२३४,२३५,२३८,२३९,२४०, ७७ २४२, २४३, २४४, २४६, २४७, २४८, २४९ १०७ / रोए ५ रोग १५२, १५४, १५६ २४० रोम २१९ १०१ रोस १०७ १६,२३५ लक्षण ९५, १११, २०६ ९५,२४६ लक्खा ४६ लट्ठि २४६, २६० लडह ५२ लद्ध १०,११४,१६९,१७०,१७१,१७४, २,५,११,३१,५१,५८,६०,६६,७३ १८१, १९०, २१९ २०,२१ लट्ठ १०, ११४, १७४ १०७ / लंब (लम्ब्) ५, १२५, २४१ लंब (लम्ब) ९४,१०१ ४७ लंबोदर १०१ २०६ ललिय १०१ १०७, २२७ लवण ७४,८३, २५३ ६६,७३,९३, ११६, १२६ लहु ५९, २०६ ७४, २५३, २५५ लावय २१९ ७४, २५३, २५५ लिहिय २०६ २०६ लुप्पमाण २१८ २०६ लुलिय २४६ ५१ लेसा ७४ ४६ लेस्सा ११६ लेह १२५ लोग ५७,९०, १२३, १८७ ३, ९, ११, ५८,१११, १२४, १५० लोढ ९४ २३१, २३२, २४१, २५९, २६२, लोम ९४,९५ २६६, २६७ लोयण १०७ ७ लोलुयच्चुय ७४,८३, २५३, २५५, २५७ ७६ लोलुया २४०, २४२ यल यावि रज्ज रज्जुग रत्त (रक्त) रत्त (रात्र) रयण रयणप्पभा रयय रययामय रस रहिय राईसर राय रायगिह रिद्ध रिसह Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [उपासकदशांगसूत्र सूत्र ४५ वट्ट वट्टय वडि शब्द सूत्र शब्द लोले १०२,१०५ वयण (वचन) लोह १०७ वयण (वदन) लोहिय १०७ वर ९४,२०६ ९४ वराह १०१ वइक्कंत ६६, १७९, २२३, २४५, २७२ ववएस ५६ वइय १२,५८,२०४,२१०, २११ / ववरोये ९५,९७,१०२,१०७,११६ वक्खेव ६६ ववहार ५,४७ वग्गुरा १०, ११४, १९० वस ९५, १०२, १०७, १२७, १६०, २५५, २५७ वच्छ ९४, १११ वसण ९४ वज्ज ७६ वसंत ११७,१७५ वज्जिय ९५ वह ९४ वहिय १८७ वट्टमाण १७९,२२३,२७५ /वहे २४३ २१९ वा ३०,३४,३६,३८,५८ वडिय १११ / वागर २६१, २६४ वड्ढावय ५,१२५ वागरण १७५, २६१ ९२, २७३ वाणारसी १२४, १२५, १५० वण ५१,१५७,१६५,१८० वाणिज्ज ५१ वणिया १६४, १७५,१८५,१९२ वाणियगाम ३,७,१०,६६,७७, ७८,७९ वण्ण ९५, वाणियग्गाम ५८ वण्णओ १,३ वादि वण्णग ११६ वाय (वात) १९५,२०० वण्णावास ९४ वाय (वाद) वत्तव्वय ९२,१६५,२३० वायस २१९ वत्थ २८,५८,७७,११४ वारय १८४ वत्थु (शाकविशेष) ३८ वास (वर्ष) ६२,८९,९०,१११,१२३ वत्थु (वास्तु) १९,४९ वास (वास) /वंद् १०,५८,६२,७७,८१,८३,८६ वासधर ७४ /वम २१४ वासहर वय (पद) ८८, १२०, १७८, २१२, २२२,२३७,२६७ वासि वय (व्रत) ६६,८९,९५, २७२ वाहण वय (व्रज) ४,१८,९२,१२५,१५०, १५७, वाहि २५५, २५७ १६५,१८२, २३२,२६९, २७३ वि ५,५८,६६,८४,८९,९४,१०४,१०५ वय (वचस्) १३, १४, १५,५३ विइगिच्छा / वय (वद्) २,१२,४४,५८,५९ विइण्ण २४६ २१९ २५३ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३५ परिशिष्ठ १ : शब्दसूची] शब्द सूत्र शब्द विइज्जिया २२७ / विहर विउल ६६,७२,७६,२०० / विउव्व ९४, १०१, १०७, १११, ११६ विहार विकडमाण २४६, २५४,२६० / विक्खिर २०० विहि विगय ९४,९५ वीरिय विधाय २३८ वीस विणय ६७,८७,११८, १७६, २०५, २६२ वीसइ विणस्समाण २१८ / वुच्च विणिग्गय . ९४ वुड्डि विणिच्छिय १८१ विण्णवणा २२२ वुत्त विण्णाण २१९ वेग वित्ति ५८, १८४ वेगच्छ विदरिसण १४६ / वेढे विदेह ९०,१२३, १४९, १५६,१६४ वेणि / विपरिणामे १०१,१११, २२२ वेयण / विप्पइर १६०, १६३ वेयणा / विप्पजह १०१, १०७, १११ वेरमण विप्पण? विमल १०१ वेहास विमाण ६२,८९, १२२, १४९, १५६, १६४, वोच्छेय १७९,२३०, २६८,२७२, २७४ सइ वियड १०७ सइय २०६ सकंस विराइय १११ सक्क विरुद्ध ४७ सक्का विलुप्पमाण २१८ / सक्कारे विलेवण २९ सगड विवर २३८ सग्ग विवाद २१९ संकप्प ४८ संका विस ५१,१०७,१०९, २३८,२३९ संकिय विसाण २१९ संख विसुज्झमाण ७४ संखवण सूत्र ६,१०,६३, ६४, ६५, ६९,७० ७३,७६,७९,८८, ९२, ९६ १०,८८,१२०,१७८,२१२,२२२ २३७, २६७ १६-४२, २३५ ७३ ८९,१२२, १६८,२७२ १०१ २१८,२१९ ४, १७, १२५, १६०, १६५, १८२, २०४, २३२, २६९ ८६,९६,९८,१०३,१०८ १०१ ९५ १०७,१०९ १०७ १८४ १०० EFREE EEPREEEEEEEEEEEEEEEEEEEE ४५,४६, ४७,५२, ६६,९५ १०,११४, १९०, २०८ १०२,१०५ ५०,५३ विरइय २३२, २३५ १११ १११,११७,१७५ विवाह ८६,१७२ ११४ १५७ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ] शब्द संखित्त संगोवेमाण संघ संघयण संचाय चिट्ठ सचित्त संजम संजाय सज्झाय सं संठाण संठिय सट्ठि सणियं सण्णवणा संत ( श्रान्त) संत (सत्) संतय संतोसिए सत्त सत्तम सेह सत्थ सत्थवाह सत्थवाही / संथर संथव संथार संथारय सद्द सद्दह सद्दालपुत्त सद्दावे सूत्र शब्द ७६ सद्धा २१८ सद्धिं २१४ सन्निभ ७६ सन्निवेस १२, ६६, ८१, १०७, १११, १७२, २१०, २२२, २३८ २१५ ५१,५६ ७६, २६६ २५६ ७७ ५२ ७६, ९४ ७६, ९४, १०१ ८९, १२२, २६८ १०१, १०७, १११, २५६ २२२ १०१,१११, २२२ ८५, २२०, २६१, २६४ ७२, ७३, ८१, २५१ १६, ४८ १२, ५८, ७६, १०१ २, ७१,९१ ७६ २३८, २३९ ५, १२ १३३, १३६, १३७, १३८, १४६, १४७ ६९ ४४ ५५, ६९, १११, २१६ ६९ ५४, ७९, १३६, १३७, १४५, १५४, १५५ १२, २१० २, १८१, १८२, १८३, १८४, १८५, १८६, १८८, १९० ५९, ६६, २०६, २४२ सप्प सप्पह सभा सब्भूय सम समट्ठ समण समणोवासग समणोवासय समणोवासिया समत्त समंता समय समाण समायर समायरियव्व समावन्न समाहि समुद्द समुदाण समुद्दिस समुप्पज्ज समुप्पन्न समोस समोसरण समोसरिय संपउत्त सपत्त [ उपासकदशांगसूत्र सूत्र ७३ २००, २१४, २१९, २३८, २३९, २४६ ९४ ७, ८, ६६, ६९, ७९, ८० ९५, १०७, १०८, १०९, १११ २१८ २१४ ८५, २२०, २६१ ७६, २०६, २२७, २३० ६२, ८५, ११६, १७५, १९२, २१९ ९, १०, ११, ४४, ६०, ६२, ६३, ७३, ७५, ७७, ७८ ४४, ६६, ६७, ७३, ७४ ४५, ४९, ५१-५६, ५९, ६२, ६८, ६९, ८०, ८१, ८२, ८३, ८४, ८५ ६५ ९०, १२३, १४९, १५६, १६४, १७९, २३०, २६८, २७२, २७४, २७७ १६० १, २, ३, ९, ६६, ७५, ७६, ९२, ११३ १०, ५९, ७८, ८६, ९६, ९८, १०३ १३६, १५४ ४४-५७ ८३, १७२ ८९, १२२, २५५, २६८ ७४, ८३, २५३ ७५, ७७, ७८ २७७ ६६, ८३, ८४ ४, ८३, १८८, २३१, २५३ १२५, १५०, १५७, १६५, १७३, २०४, २३५, २७०, २७४ ९२, २५८ २,९, ६५, १८९ १८७, १८८, १९३, २१८ २,९१, २७६ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १:शब्दसूची] [२३७ १६० १८७ ७९,८६ १२५ शब्द सूत्र शब्द सूत्र संपया १८७,१८८,१९३,२१८ सव्व ५,१६-२२,८६,१२५,१४१, संपरिवुड २१४ १६८,१६९, १७१, १८७, १९२, / संपावे २१८ १९९, २००, २३०, २३५ संपुण्ण १११ सव्वो संपेह १०,६६,८०, ११४, १९०, सव्वण्णु १९३, २१४, २३८ संसार २१८ संबंधि ८ / सह (सह) १००, ११७ संबुद्ध २०१ सहसा सम्म ५५,७०,७९,८९, १००, १०१,११७, /संहर १२२, २६८ सहस्सपाग सम्मत्त ४४ सहस्संबवण १६५,१८०,१९०,२०८,२१२ / सम्माणे ६६ सहाइया सय (शत) १९,२०, २५,७४,८३, साइम १८४,१९३,१९४ साग सय (स्वक) १,१०,५८,६६,६९,११४, साडी २०४,२५६ सामंत सयं (स्वयम्) २३८, २३९ सामा सयण ८ सामाइय सयपाग ८५ सामाणिय सर ५१ सामि १२७,१५०,१५७,१६५,१७३, सरड १७८, २३५,२७०, २७४ सरसरस्स १०७,१०९ साय सरिस ९४ सारइय सरीर १०,७६,१५२,१९०,२०८,२५२,२५९ सारक्खमाण २१८ सरीरग १५४ साला ६६,६९,७९,९२,१०१,१०७,१११ / संलव ५८ सालि ३५,९४ संलेहणा ५७,७३,८९,१२२, २५२, २५९ सालिहीपिय २,२७३ संवच्छर ६६, १७९, २२३, २४५, २७२ सावग २११ सवत्तिया २३८ सावत्थी २६९, २७३ सवत्ती २३८, २३९ सावय ५८,९२, १६५, २३५ संववहर २३५ सास संवाहणिय २०,२१ साहत्थि २१८ संविभाग ५६ साहस्सिय ४,१८,९२,१२५, १५०,१५७, संवल्लिय १०१ १६५, १८२, २३२, २३४,२६९, २७३ संवेग ७३ साहस्सी १११ १११ ___३८ ३७ १५२ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [उपासकदशांगसूत्र सूत्र १७,४९ १२,७७, २१०, २२७,२३० ७3 शब्द सि सिक्कग सिक्खा सिंग सिंगय सिंगारिय सिंघाडग सिंघाडय सिज्जा / सिज्झ २१९ १२ २१९ २३१ ६६,७३,१३६,१५४,१६३, १९३, २३०,२३८ ४० ४२ सिप्प सिप्पि सिरी सिला सिवनंदा सूत्र शब्द १११, १७५ सुवण्ण ९४ सुह १२,५८,२०४, २१०, २११ सुहत्थि २१९ सुहम्म २०६ सूयर २४६ सूव १६३ सेट्ठि १६० सेणाय ५५,५८,१८७,२१६ सेणिय ९०,१२३, १४९,१५६,१६४, सेय २३०,२६८,२७२,२७४ २१९ सेह ९४ सोगंधिय ५ सोणिय १६६,१६८,१७२ सोंडा ६, १६,५८,५९, ६०, ६१, ६५ सोलस २४० सोल्ल ६६, ८९, ९५, १५१, १७९, २२३, सोल्लय २४५, २६८, २७२ सोसणया ९४ सोहम्म १११ ७२ / सोहे १०१,२०६ सोहेमाण १२,६१,८०,१३७, १५५, २०४, २१० हं ७०, १४८, २०६, २५० १०,३०,११४, १९०, २०८ १६८,१६९, १७१ / हट्ठ १२७,१३०,१३३,१३६,१५१,२२७ १०१,१०२, १०५ १५२, १५४, १५६ १२७, २४०, २४४ १३०, १३३, १५१, १५८, २२५, २२७ सीधु सील सीस सीह सुक्क सुजाय / सुण ६२,७४,८९, १२२, १४९, १५६, १६४,१७९,२६८,२७४ ७० ७८ सुत्त सुद्ध ९५,९७,१०२,१०४,१०७,१११, ११३, १२७, १२९, १३२,१३३, १३५,१३८,१४०,१४४ १२,५९,६१,८१, ११९, १७४, २०४, २१०, २६३ सुन्दरी सुप्प ६४ सुभ २०० सुय सुरहि सुरा सुरादेव सुरूव सुलद्ध ७४, २५३ /हण २७७ हणुय २६ हंत २४०,२४४ हत्थ १५०-१५६,१६३ हत्थि ६,१३३ हल १११ हव्वं ८३,११६, १७५, १९२ ९४, २१९ १०१, १०३, १०४, १०५, १०७ १९,९४ ८६,१११,१८८ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ १: शब्दसूची] [२३९ HET शब्द हार हास हिमवंत हियय हिरण्ण सूत्र शब्द १११ हिरी ९५ हिंसा ७४, २५३ हीण ८१, २०४, २६३ हेउ ४,१७, ४९, ९२, १२५, १५०, १५७, / हो १६०,१६३, १६५, १८२, २०४, २३२, २३४,२३५, २३८,२३९,२६९,२७३ ९५, २५६ १७५, २१९ १,३-७,९२, १२५, १८३, १८४, २३३, २३४,२४१ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २ : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची अनुवाद, विवेचन, प्रस्तावना आदि के सन्दर्भ में व्यवहृत ग्रन्थों की सूची अनुयोगद्वारसूत्र अभिधानराजेन्द्र कोष अष्ट प्राभृत : श्री कुन्दकुन्दाचार्य अष्टाङ्गहृदयम्, सटीकम् [ऋषिकल्पश्रीवाग्भट प्रणीतम् विद्वद्वर श्रीमदरूणदत्तकृता सर्वाङ्गसुन्दराख्या टीका, श्रीमदाचार्यमौद्गल्यकृता मौद्गल्यटिप्पणी च, प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास, पंजाब संस्कृत बुक डिपो, सैदमिट्ठा स्ट्रीट, लाहौर, सन् १९३३ ई०] अंगसुत्ताणि ३ [संपादक : मुनि श्री नथमलजी] प्रकाशक : जैन विश्वभारती, लाडनू विक्रमाब्द २०३१] अंगुत्तरनिकाय आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड १ : इतिहास और परम्परा [लेखक : मुनि श्री नगराजजी डी. लिट. प्रकाशन : जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा, 1, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ प्रथम संस्करण : सन् १९६९ ई.] आचारांग-चूर्णि आवश्यक-नियुक्ति THE UTTARADHYAYANA SUTRA [Translated from Prakrit by Hermann Jacobi] OXFORD, at the CLARENDON PRESS, 1895] Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४१ परिशिष्ठ २ : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची] उत्तराध्यययनसूत्रम्, संस्कृतच्छाया-पदर्थान्वय-मूलार्थोपेतम्, [अनुवादक : जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर उपाध्याय श्री आत्मारामजी महाराज प्रकाशक : जैन शास्त्रमाला कार्यालय, सैदमिट्ठा बाजार, लाहौर, वि. १९९६] उपासकदशासूत्रम् [संपादक : डॉ. ए. एफ. रूडोल्फ हार्नले प्रकाशक : बंगाल एशियाटिक सोसायटी, कलकत्ता, प्रथम संस्करणः १८९० ई.] उपासकदशासूत्र [संपादक, अनुवादक : बालब्रह्मचारी पं. मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज प्रकाशक : राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद-सिकंदराबाद जैन संघ, हैदराबाद (दक्षिण) वीराब्द २४४२-२४४६] [श्रीमद् उपासकदशांगम्, श्रीमद् अभयदेवाचार्य विहितविवरणयुतम् । प्रकाशक : आगमोदय समिति महेसाणा, प्रथम संस्करण : १९२९ ई.] उपासकदशांगसूत्रम् संस्कृत-हिन्दी-गुजराती-टीकासमेतम् [वृत्तिरचयिता : जैन शास्त्राचार्य पूज्य श्री घासीलालजी महाराज प्रकाशक : श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन संघ, करांची, प्रथम संस्करण : १९३६ ई.] श्रीउपासकदशांगसूत्रम् संस्कृतच्छाया-शब्दार्थ-भावार्थोपेतम् हिन्दीभाषाटीकासहितं च [अनुवादक : जैनधर्मदिवाकर, जैनागमरत्नाकर आचार्यश्री आत्माराजी महाराज प्रकाशक : आचार्य श्री आत्माराम जैन प्रकाशन समिति, लुधियाना प्रथम संस्करण : १९६४ ई.] उपासकदशांग [अनुवादक : संपादक : डॉ. जीवराज घेला भाई दोषी अहमदाबाद देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा] श्री उपासकदशांगसूत्र [अनुवादक : वी. घीसूलाल पितलिया प्रकाशक : श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (म. प्र.) प्रथम संस्करण : विक्रम संवत् २०३४] Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [उपासकदशांगसूत्र उववाईसूत्र [संपादक, अनुवादक : बालब्रह्मचारी पं. मुनि श्री अमोलक ऋषिजी महाराज प्रकाशक : राजाबहादुर लाला सुखदेवसहाय ज्वालाप्रसाद जौहरी, हैदराबाद, सिकंदराबाद जैन संघ, हैदराबाद (दक्षिण) वीराब्द २४४२-२४४६] । श्री उववाईसूत्र, श्री अभयदेव सूरिकृत टीका तथा श्री अमृतचन्द सूरिकृत बालावबोध सहित [प्रकाशक : श्रीयुक्त राय धनपतिसिंह बहादुर, जैन बुक सोसायटी, कलकत्ता] उववाइय सुत्त [अनुवादक : आत्मार्थी पं. मुनि श्री उमेशचन्द्रजी महाराज 'अणु' प्रकाशक : श्री अखिल भारतीय साधुमार्गी जैन संस्कृति रक्षक संघ, सैलाना (मध्य प्रदेश), प्रथम संस्करण : १९६२ ईसवी] उवासगदसाओ मूल अने श्री अभयदेवसूरि विरचित टीकाना अनुवाद सहित [अनुवादक अने प्रकाशक : पं. भगवादास हर्षचन्द्र, जैनानन्द पुस्तकालय, गोपीपुरा, सूरत प्रथम संस्करण : विक्रम संवत् १९९२] देवनागरी लिपि, गुजराती भाषा कल्प सूत्र कुमारसंभव महाकाव्य [महाकवि कालिदास विरचित] चरकसंहिता छान्दोग्योपनिषद् जयध्वज [लेखक : गुलाबचन्द नानकचन्द सेठ, प्रकाशक : श्री जयध्वज प्रकाशन समिति, ९८ मिण्ट स्ट्रीट, मद्रास-१] जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति सूत्र जीवाजीवाभिगम सूत्र जैन आगम [लेखक : पं. श्री दलसुख मालवणिया प्रकाशक : जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, पार्श्वनाथ विद्याश्रम, हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी-५] जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज [लेखक : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, एम. ए., पी-एच. डी. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ २ : प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची ] प्रकाशक : चोखम्बा विद्याभवन, वाराणसी - १, सन् १९६५ ] जैन दर्शन [ लेखक : प्रो. महेन्द्रकुमार जैन न्यायाचार्य प्रकाशक : श्री गणेशप्रसाद वर्णी जैन ग्रन्थमाला काशी, प्रथम संस्करण : सन् १९५५ ई.] जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व, पहला भाग [ लेखक : मुनि श्री नथमलजी प्रकाशक : मोतीलाल बेंगानी चेरिटेबल ट्रस्ट, १/४ सी, खगेन्द्र चटर्जी रोड, काशीपुर, कलकत्ता - २, प्रथम संस्करण : वि. सं. २०१७] जैनधर्म का मौलिक इतिहास, प्रथम भांग [लेखक एव निर्देशक : आचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज, प्रकाशक : जैन इतिहास समिति, जयपुर (राजस्थान) प्रथम संस्करण : सन् १९७१ ई.] जैनेन्द्रसिद्धान्तको [ क्षुल्लक जैनेन्द्र वर्णी प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ, ३६२०/२१ नेताजी सुभाष मार्ग, दिल्ली - ६, प्रथम संस्करण : १९७०-७३] तत्त्वार्थसूत्र : विवेचना सहित [विवेचनकर्ता : पं. सुखलालजी संघवी प्रकाशक : जैन संस्कृति संशोधन मण्डल, तैत्तिरीयोपनिषद् दशवैकालिक - वृत्ति दीघनिकाय [ सुमंगलविलासिनी टीका ] धम्मपद नायाधम्मकहाओ पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका पार्श्वनाथ विद्याश्रम, हिन्दी विश्वविद्यालय, बनारस -५, द्वितीय संस्करण : १९५२ ई.] पंचतन्त्र प्रज्ञापना सूत्र प्रमाणनयतत्त्वालोक प्रवचनसारोद्वार पाइअसद्दमहण्णवो पाणिनीय अष्टाध्यायी [ २४३ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ ] पातंजल योगसूत्र प्राकृत-सर्वस्व : मार्कण्डेय प्राकृत साहित्य (डॉ. हीरालाल जैन) प्राकृत साहित्य का इतिहास [ लेखक : डॉ. जगदीशचन्द्र जैन एम. ए., पी-एच. डी. प्रकाशक : चौखम्बा विद्या भवन, वाराणसी-१, सन् १९६१] ब्रह्मावैवर्तपुराणम् द्वितीयो भागः [प्रकाशक : राधाकृष्ण मोर ५, क्लाइब रोड, कलकत्ता, सन १९५५ ई. ] भगवतीसूत्र भगवती सूत्र : आचार्य अभयदेव सूरिकृत टीका भावप्रकाश : भाव मिश्र भाषा - विज्ञान [ लेखक : डॉ. भोलानाथ तिवारी प्रकाशक : किताब महल, इलाहाबाद तृतीय संस्करण : सन् १९६१ ई.] मज्झिमनिकाय मनुस्मृति महाभारत : प्रथम खण्ड (आदि पर्व, सभा पर्व ) महाभारत : तृतीय खण्ड ( उद्योग पर्व, भीष्म पर्व) महाभारत : पञ्चम खण्ड (शान्ति पर्व ) [ अनुवादक पं. रामनारायणदत्त शास्त्री पाण्डेय 'राम' प्रकाशक : गीता प्रेस, गोरखपुर ] माधवनिदान रघुवंशमहाकाव्य ( महाकवि कालिदास विरचित) शार्ङ्गधरसंहिता श्रृङ्गारशतक : भर्तृहरि सकडालपुत्र : श्रावक [ व्याख्याता : श्रीमज्जैनाचार्य पूज्य श्री जवाहरलालजी महाराज प्रकाशक : पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराज के सम्प्रदाय का श्री हितेच्छु श्रावक मण्डल, रतलाम, तृतीय संस्करण : विक्रम संवत् २००५] समवायाङ्ग : सानुवाद, सपरिशिष्ट [ संपादक : मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल' 1 [ उपासकदशांगसूत्र Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ठ २: प्रयुक्त-ग्रन्थ-सूची] [२४५ प्रकाशक : आगम अनुयोग प्रकाशन, पोस्ट बॉक्स नं. ११४१ दिल्ली-७ प्रथम संस्करण : सन् १९६६ ई.] संक्षिप्त प्रसार : क्रमदीश्वर संक्षिप्त हिन्दी शब्दसागर [संपादक : रामचन्द्र वर्मा प्रकाशक : नागरी प्रचारिणी सभा, काशी षष्ठ संस्करण : सन् १९५८ ईस्वी] संयुत्तनिकाय SANSKRIT ENGLISH DICTIONARY [Sir Monier Monier-Williams, M.A.; K.C.I.E., OXFORD, at the CLARENDON PRESS) SANSKRIT ENGLISH DICTONARY [Vaman Shivram Apte, M. A.] संस्कृत-प्राकृत जैन व्याकरण और कोश की परम्परा [संपादक : मुनि श्री दुलहराजजी, डॉ. छगनलालजी शास्त्री, डॉ. प्रेमसुमन जैन प्रकाशक : कालूगणी जन्म-शताब्दी समारोह समिति, छापर (राजस्थान), सन् १९७७ ई.] संस्कृत-हिन्दी कोश [लेखक : वामन शिवराम आप्टे प्रकाशक : मोतीलाल बनारसीदास, बंगला रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-७, सन् १९६६ ई.] सांख्यतत्त्वकौमुदी सिद्धहेमशब्दानुशासन सुत्तनिपात सुश्रुतसंहिता [महर्षिणा सुश्रुतेन विरचिता, श्री डल्हणाचार्यविरचियता निबन्धसंग्रहाख्यव्याख्यया, निदानस्थानस्य श्री गयदासाचार्यविरचियता न्यायचन्द्रिकाख्यपञ्जिकाव्याख्यया च समुल्लसिता प्रकाशक : पाण्डुरङ्ग जावजी, निर्णयसागर मुद्रणालय, २६-२८ कालबा देवी स्ट्रीट, बम्बई-२, शक संवत् १८६०] सूत्रकृतांगसूत्र सूत्रकृतांग वृत्ति नोट - व्यवहृत ग्रन्थों में केवल उन्हीं के संपादन, प्रकाशन आदि का विवरण दिया गया है, जो आवश्यक प्रतीत हुआ। -सम्पादक Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, चेन्नई २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, सिकन्दराबाद ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर ५. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग ६. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई ७. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया चेन्नई ९. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, चेन्नई १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई ११. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १३. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, चेन्नई १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १५. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई १७. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई स्तम्भ सदस्य १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर २. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर ३. श्री तिलोकचंदजी, सागरमलजी संचेती, चेन्नई ४. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी ५. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई ६. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, चेन्नई ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी ८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ९. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग संरक्षक १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी ४. श्री श. जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, बागलकोट ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर ७. ८. ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, चांगाटोला श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, चेन्नई श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला श्रीमती सिरेकुँवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् ९. १०. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (KGF ) जाड़न ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर १३. श्री खूबचन्दजी गदिया, ब्यावर १४. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, बालाघाट १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला १८. श्री सुगनचन्दजी बोकड़िया, इन्दौर १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, चांगाटोला २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, चेन्नई २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, अहमदाबाद १५. १६. २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झूठा २७. श्री छोगामलजी हेमराजजी लोढ़ा, डोंडीलोहारा २८. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर ३०. श्री सी. अमरचन्दजी बोथरा, चेन्नई ३१. श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, चेन्नई ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर ३३. श्री बादलचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, बैंगलोर श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, चेन्नई ३६. ३७. श्री भंवरलालजी गोठी, चेन्नई Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य नामावली] ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, चेन्नई ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, चेन्नई ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, चेन्नई ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, चेन्नई ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, चेन्नई ४५. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी मेहता, कोप्पल सहयोगी सदस्य १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेडतासिटी २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, विल्लीपुरम् ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर ७. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली ९. श्री के. पुखराजजी बाफणा, चेन्नई १०. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली ११. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर । १२. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, कुशालपुरा १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर १५. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर । १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी धर्मपत्नी श्री ताराचंदजी गोठी, जोधपुर २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर २३. श्री भंवरलालजी अमरचन्दजी सुराणा, चेन्नई २४. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर २५. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, जोधपुर २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर । [२४७ २९. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ३१. श्री आसूमल एण्ड कं., जोधपुर ३२. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर ३३. श्री सुगनीबाई धर्मपत्नी श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ३५. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ३८. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, चेन्नई ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग ४४. श्री पुखराजजी बोहरा, (जैन ट्रान्सपार्ट कं.) जोधपुर ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, मेटूपालियम ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ५३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, मेड़तासिटी ५४. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ५५. श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़तासिटी ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, मैसूर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर ६३. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८] [सदस्यनामावली ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर १०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा राजनांदगाँव १०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई १०३. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, चेन्नई ६८. श्री भंवरलालजी डूंगरमलजी कांकरिया, भिलाई १०४. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी ६९. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, भिलाई १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, चेन्नई ७०. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, १०६. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, चेन्नई दल्ली-राजहरा १०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मला देवी, चेन्नई ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर १०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशालपुरा ७२. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा १०९. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह । ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, कोलकाता ११०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरूंदा ७४. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, कोलकाता १११. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, हरसोलाव ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर ७६. श्री जवरीलालजी शांतिलाल सुराणा, बोलारम ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़तासिटी ७८. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली । ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ११६. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी लोढा, ८०. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर बम्बई ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गोहाटी ११७. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ११८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद ८३. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा ११९. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, ८४. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरड़िया, भैरूंदा (कुडालोर) चेन्नई ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी संघवी, कुचेरा कोठारी, गोठन १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला ८७. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कोलकाता ८८. श्री चम्पालाल हीरालालजी बागरेचा, जोधपुर १२३. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, धुलिया ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर १२४. श्री पुखराजी किशनलालजी तातेड़, सिकन्दराबाद ९०. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर १२५. श्री मिश्रीलालजी सजनलालजी कटारिया, ९१. श्री भंवरलालजी बाफना, इन्दौर सिकन्दराबाद ९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर १२६. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, ९३. श्री अमरचन्दजी बालचन्दजी मोदी, ब्यावर बगड़ीनगर ९४. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, बिलाड़ा ९५. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी स्व. श्री १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, चेन्नई पारसमलजी ललवाणी, गोठन १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड कं., ९६. श्री अखेचन्दजी लूणकरणजी भण्डारी, कोलकाता बैंगलोर ९७. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगाँव १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सुराणा, बोलारम १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, कुचेरा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर द्वारा प्रकाशित आगम-सूत्र नाम आचारांगसूत्र [दो भाग] उपासकदशांगसूत्र ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र अन्तकृद्दशांगसूत्र अनुत्तरौपपातिकसूत्र स्थानांगसूत्र समवायांगसूत्र सूत्रकृतांगसूत्र विपाकसूत्र नन्दीसूत्र औपपातिकसूत्र व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [चार भाग] राजप्रश्नीयसूत्र प्रज्ञापनासूत्र [तीन भाग] प्रश्नव्याकरणसूत्र अनुवादक-सम्पादक श्रीचन्द सुराना 'सरस' डॉ. छगनलाल शास्त्री (एम. ए. पी-एच. डी.) पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल साध्वी दिव्यप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी) साध्वी मुक्तिप्रभा (एम. ए., पी-एच. डी) पं. हीरालाल शास्त्री पं. हीरालाल शास्त्री श्रीचन्द सुराना 'सरस' अनु. पं. रोशनलाल शास्त्री सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल अनु. साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' सम्पा. कमला जैन 'जीजी' एम. ए. डॉ. छगनलाल शास्त्री श्री अमरमुनि वाणीभूषण रतनमुनि, सं. देवकुमार जैन जैनभूषण ज्ञानमुनि अनु. मुनि प्रवीणऋषि सम्पा. पं. शोभाचन्द्र भारिल्ल श्री राजेन्द्रमुनि शास्त्री श्री देवकुमार जैन महासती पुष्पवती महासती सुप्रभा (एम. ए. पीएच. डी.) डॉ. छगनलाल शास्त्री उपाध्याय श्री केवलमुनि, सं. देवकुमार जैन सम्पा. मुनि श्री कन्हैयालालजी 'कमल' श्री राजेन्द्र मुनि मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि मुनिश्री कन्हैयालाल जी 'कमल', श्री तिलोकमुनि उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंद जी महाराज उपाध्याय मुनि श्री प्यारचंदजी महाराज उत्तराध्ययनसूत्र निरयावलिकासूत्र दशवैकालिकसूत्र आवश्यकसूत्र जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र अनुयोगद्वारसूत्र सूर्यप्रज्ञप्ति, चन्द्रप्रज्ञप्तिसूत्र जीवाजीवाभिगमसूत्र [दो भाग] निशीथसूत्र त्रीणिछेदसूत्राणि श्री कल्पसूत्र (पत्राकार) श्री अन्तकृद्दशांगसूत्र (पत्राकार) विशेष जानकारी के लिये सम्पर्कसूत्र आगम प्रकाशन समिति श्री ब्रज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर-३०५९०१ मेहता आफॅसेट, ब्यावर - 01462 - 253990, 9829251990