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[Upāsakadaśāṅgasūtra]
1. Itvarikā: A woman who lives with a man for some time and then leaves, but during the time she lives, she is considered his wife, and there is no sexual relationship with any other man. This is considered living with a woman temporarily as a wife.
2. Aparigṛhītāgamana: Living with a woman who is not accepted or recognized as one's wife by anyone, such as a prostitute. This is the second transgression of this vow.
3. Ananga-krīḍā: Unnatural sexual activities such as homosexual intercourse, unnatural coitus, and using artificial means to satisfy sexual desires. This is the third transgression.
4. Para-vivāha-karaṇa: Arranging the marriages of others. As a householder, one should avoid activities that are detrimental to the practice of celibacy. This is considered the fourth transgression.
5. Kāma-bhogativṛābhilāṣa: Excessive and uncontrolled indulgence in sensual pleasures. This is a transgression according to the commentary of Ācārya Abhayadeva.
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[उपासकदशांगसूत्र जो स्त्री कुछ समय के लिए किसी पुरूष के साथ रहती है और फिर चली जाती है, पर जितने समय रहती है, उसी की पत्नी के रूप में रहती है और किसी पुरूष के साथ उसका यौन सम्बन्ध नही रहता, उसे इत्वरिका कहा जाता था। यों कुछ समय के लिए पत्नी के रूप में परिगृहीत या स्वीकृत स्त्री के साथ सहवास करना। इत्वरिका का एक अर्थ अल्पवयस्का भी किया गया है। तदनुसार छोटी आयु की पत्नी के साथ सहवास करना। ये इस व्रत के अतिचार है। ये हीन कामुकता के द्योतक है। इससे अब्रह्मचर्य को प्रोत्साहन मिलता है।
अपरिगृहीतागमन--अपरिगृहीता का तात्पर्य उस स्त्री से है, जो किसी के भी द्वारा पत्नी रूप में परिगृहीत या स्वीकृत नहीं है, अथवा जिस पर किसी का अधिकार नहीं है। इसमें वेश्या आदि का समावेश होता है। इस प्रकार की स्त्री के साथ सहवास करना इस व्रत का दूसरा अतिचार है। ये दोनों अतिचार अतिक्रम आदि की अपेक्षा से समझने चाहिए, अर्थात् अमुक सीमा तक ही ये अतिचार है। उस सीमा का उल्लंघन होने पर अनाचार बन जाते है।
अनंग-क्रिडा--कामावेशवश अस्वाभाविक काम-क्रीड़ा करना। इसके अन्तर्गत समलैंगिक संभोग, अप्राकृतिक मैथुन, कृत्रिम कामोपकरणों से विषय-वासना शान्त करना आदि समाविष्ट है। चारित्रिक दृष्टि से ऐसा करना बड़ा हीन कार्य है। इससे कुत्सित काम और व्यभिचार का पोषण मिलता है। यह इस व्रत का तीसरा अतिचार है।
पर-विवाह-करण--जैनधर्म के अनुसार उपासक का लक्ष्य ब्रह्मचर्य-साधना है। विवाह तत्वतः आध्यात्मिक दृष्टि से जीवन की दुर्बलता है। क्योंकि हर कोई संपूर्ण रूप से ब्रह्मचारी रह नहीं सकता। गृही उपासक का यह ध्येय रहता है कि वह अब्रह्मचर्य से उत्तरोत्तर अधिकाधिक मुक्त होता जाय और एक दिन ऐसा आए कि वह सम्पूर्ण रूप से ब्रह्मचर्य का आराधक बन जाय। अतः गृहस्थ को ऐसे कार्यों से बचना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य के प्रतिगामी हों। इस दृष्टि से इस अतिचार की परिकल्पना है। इसके अनुसार दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाना इस अतिचार में आता है। एक गृहस्थ होने के नाते अपने घर या परिवार के लड़के-लड़कियों के विवाहों में तो उसे सक्रिय और प्रेरक रहना ही होता है
और वह अनिवार्य भी है, पर दूसरों के वैवाहिक संबंध करवाने में उसे उत्सुक और प्रयत्नशील रहना ब्रह्मचर्य-साधना की दृष्टि से उपयुक्त नही है। वैसा करना इस व्रत का चौथा अतिचार है। किन्हीकिन्ही आचार्यों ने अपना दूसरा विवाह करना भी इस अतिचार में ही माना है।
__व्यावहारिक दृष्टि से भी दूसरों के इन कार्यों में पड़ना ठीक नहीं है। उदाहरणार्थ, कहीं कोई व्यक्ति किन्हीं के वैवाहिक संबंध करवाने में सहयोगी है, वह संबंध हो जाय। संयोगवश उस संबंध का निर्वाह ठीक नही हो, अथवा अयोग्य संबंध हो जाय तो संबंध करवाने वाले को भी उलाहना सहना होता है। संबंधित लोग प्रमुखतः उसी को कोसते है कि इसके कारण यह अवांछित और दु:खद सम्बन्ध हुआ। व्रती श्रावक को इससे बचना चाहिए।
___ काम-भोगतीव्राभिलाष--नियंत्रित और व्यवस्थित काम-सेवन मानव की आत्म-दुर्बलता के १. अतिचारता चास्यातिक्रमादिभिः । अभयदेवकृतटीका।