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Seventh Study: Sakdalputra
[175. He announced his journey.
_ The use of the term "Mahasarthavah" to describe Lord Mahavira is indicative of the social respect associated with the term. Just as a Mahasarthavah takes ordinary people with him and brings them to a very large commercial market, so too does Lord Mahavira help beings wandering in the world to reach liberation, which is the ultimate goal of life's business.
219. Then, the Shramanopasaka Sakdalputra said to Gosala Mankaliputra, "Devanupriya! You are so clever, discerning (skilled-clever-firm-eloquent-possessing a voice), skillful-subtle-sighted, nayavadi-policy-speaker, upadeshalabdha-obtained from the wise, learned, knowledgeable-obtained-possessing special knowledge, are you able to debate with my Dharmacharaya, Dharmaupadeshaka, Bhagavan Mahavira?
Gosala - No, that is not possible.
Sakdalputra - Devanupriya! How can you say that you are not able to debate with my Dharmacharaya (Dharmaupadeshaka Shraman Bhagavan) 1. See the Sutra itself.
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सातवां अध्ययन : सकडालपुत्र]
[१७५ से अपनी यात्रा की घोषणा करवाई।
___ भगवान् महावीर को 'महासार्थवाह' के रूपक से वर्णित करने के पीछे महासार्थवाह शब्द के साथ रहे सामाजिक सम्मान का सूचन है । जैसे महासार्थवाह सामान्य जनों को अपने साथ लिए चलता है, बहुत बडी व्यापारिक मंडी पर पहुंचा देता है, वैसे ही भगवान् महावीर संसार में भटकते प्राणियों को मोक्ष-जो जीवन-व्यापार का अन्तिम लक्ष्य है, तक पहुंचने में सहारा देते हैं।
२१९. तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए गोसालं मंखलिपुत्तं एवं वयासी-तुब्भेणं देवाणुप्पिया! इयच्छे या जाव (इयदच्छा, इयपट्ठा,) इयनिउणा, इय-नयवादी, इयउवएसलद्धा, इय-विण्णाण-पत्ता, पभू णं तुब्भे मम धम्मायरिएणं धम्मोवएसएणं भगवया महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए?
नो तिणठे समठे!
से केणढेणं, देवाणुप्पिया! एवं वुच्चइ नो खलु पभू तुब्भे ममं धम्मायरिएणं जाव (धम्मोवएसएणं, समणेणं भगवया) महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए?
सद्दालपुत्ता! से जहानामए केइ पुरिसे तरूणे जुगवं जाव (बलवं अप्पायंके, थिरग्गहत्थे, पडिपुण्णपाणिपाए, पिठंतरोरूसंघायपरिणए, घणनिचियवट्टपालिखंधे, लंघण-पवन-जइण-वायाम-समत्थे, चम्मेठ-दुघण-मुट्ठिय-समाहय-निचिय-गत्ते, उरस्सबलसमन्नागए, तालजमलजुयलबाहू, छेए, दक्खे, पत्तठे) निउण-सिप्पोवगए एगं महं अयं वा, एलयं वा, सूयरं वा, कुक्कुडं वा, तित्तिरं वा, वट्टयं वा, लावयं वा, कवोयं वा, कविंजलं वा, वायसं वा, सेणयं वा हत्थंसि वा, पायंसि वा, खुरंसि वा, पुच्छंसि वा, पिच्छंसि वा, सिगंसि वा, विसाणंसि वा, रोमंसि वा जहिं जहिं गिण्हइ, तहिं तहिं निच्चलं निप्पंदं धरेइ। एवामेव समणे भगवं महावीरे ममं बहूहिं अद्वेहि य हेऊहि य जाव(पसिणेहि य कारणेहि य) वागरणेहि य जहिं जहिं गिण्हइ तहिं तहिं निप्पट्ठ-पसिण-वागरणं करेइ। से तेणढेणं, सद्दालपुत्ता! एवं वुच्चइ नो खलु पभू अहं तव धम्मायरिएणं, जाव' महावीरेणं सद्धिं विवादं करेत्तए।
तत्पश्चात् श्रमणोपासक सकडालुपत्र ने मंखलिपुत्र गोशालक से कहा-देवानुप्रिय! आप इतने छेक, विचक्षण (दक्ष-चतुर-प्रष्ठ-वाग्मी-वाणी के धनी), निपुण-सूक्ष्मदर्शी, नयवादी-नीति-वक्ता, उपदेशलब्ध-आप्तजनों का उपदेश प्राप्त किए हुए--बहु श्रुत, विज्ञान-प्राप्त-विशेष बोधयुक्त हैं, क्या आप मेरे धर्माचार्य, धर्मोपदेशक भगवान् महावीर के साथ तत्त्वचर्चा करने में समर्थ हैं ?
गोशालक-नहीं, ऐसा संभव नहीं है।
सकडालपुत्र-देवानुप्रिय! कैसे कह रहे हैं कि आप मेरे धर्माचार्य (धर्मोपदेशक श्रमण भगवान्) १. देखें सूत्र यही।