Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
[10] I have heard the meaning of the sixth Anga, Nayadhammakhao, as explained. What meaning did the Lord explain in the seventh Anga, Upasakadasha?
Arya Sudharma said, "Jambhu! The Shraman Bhagwan Mahavira explained ten studies in the seventh Anga, Upasakadasha, which are as follows:
1. Anand, 2. Kamadeva, 3. Gathapati Chulnipita, 4. Suradeva, 5. Chullashatak, 6. Gathapati Kundakaulik, 7. Saddalputra, 8. Mahashatak, 9. Nandinipita, 10. Shalihipita.
Jambhu then asked, "Bhagwan! What meaning did Shraman Bhagwan Mahavira explain in the first study of the ten studies he explained in the seventh Anga, Upasakadasha?"
For general description, Jain Agamas use 'Vannao' to indicate, which takes the required context mentioned elsewhere to the present place. Similarly, Jain Agamas also have the practice of indicating with the word 'Jao' for descriptive description, expansion, etc. The related description is taken from other Agamas where it has come. Here, the descriptive descriptions of Bhagwan Mahavira, Sudharma and Jambhu are indicated by the word 'Jao'. These descriptive descriptions have been estimated here from Jnatridharmkatha, Aupapatik and Rajaprashriya Sutra. As indicated earlier, this style may have been accepted for the convenience of the memorized tradition of Jain Agamas.
Anand Gathapati
3. And Jambhu! At that time, at that time, there was a city named Vanijagama. Vannao. There was a Cheiya named Duipalasaya in the north-east direction of that Vanijagama. There was a king named Jiyasattu in that Vanijagama city. Vannao. In that Vanijagama, there was a Gathapati named Anand, who lived in a house with all the comforts (given, wealth, scattered-wide-building-bed-seat-knowledge-vehicle, many-wealth-wife-son-wealth, coming-going-equipped, scattered-city-food-drink, many...
________________
१०]
[उपासकदशांगसूत्र धर्मनायक, धर्म-सारथि, तीन ओर महासमुद्र तथा एक ओर हिमवान् की सीमा लिये विशाल भूमण्डल के स्वामी चक्रवर्ती की तरह उत्तम धर्म-साम्राज्य के सम्राट, प्रतिघात विसंवाद या अवरोध रहित उत्तम ज्ञान व दर्शन के धारक, घातिकर्मों से रहित, जिन-राग-द्वेष-विजेता, ज्ञायक-राग आदि भावात्मक सम्बन्धों के ज्ञाता अथवा ज्ञापक-राग आदि को जीतने का पथ बताने वाले, बुद्ध--बोधयुक्त, बोधकबोधप्रद, मुक्त-बाहरी तथा भीतरी ग्रन्थियां से छूटे हुए, मोचक-मुक्तता के प्रेरक, तीर्ण-संसार-सागर को तैर जाने वाले, तारक--संसार-सागर को तैर जाने की प्रेरणा देने वाले, शिव-मंगलमय, अचल-- स्थिर, अरूज्-- रोग या विध्न रहित, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध--बाधा रहित, पुनरावर्तन रहित सिद्धिगति नामक शाश्वत स्थान के समीप पहुंचे हुए हैं, उसे संप्राप्त करने वाले हैं,] छठे अंग नायाधम्मकहाओ का जो अर्थ बतलाया, वह मैं सुन चुका हूँ। भगवान् ने सातवें अंग उपासकदशा का क्या अर्थ व्याख्यात किया?
आर्य सुधर्मा वोले-जम्बू ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के दस अध्ययन प्रज्ञप्त किये-बतलाए, जो इस प्रकार हैं
१. आनन्द, २. कामदेव, ३. गाथापति चुलनीपिता, ४. सुरादेव, ५. चुल्लशतक, ६. गाथापति कुंडकौलिक, ७. सद्दालपुत्र, ८. महाशतक, ९. नन्दिनीपिता, १०. शालिहीपिता।
जम्बू ने फिर पूछा-भगवन् ! श्रमण भगवान् महावीर ने सातवें अंग उपासकदशा के जो दस अध्ययन व्याख्यात किए, उनमें उन्होंने पहले अध्ययन का क्या अर्थ-तात्पर्य कहा ? विवेचन
सामान्य वर्णन के लिए जैन-आगमों में 'वण्णओ' द्वारा सूचन किया जाता है, जिससे अन्यत्र वर्णित अपेक्षित प्रसंग को प्रस्तुत स्थान पर ले लिया जाता है। उसी प्रकार विशेषणात्मक वर्णन, विस्तार आदि के लिए 'जाव' शब्द द्वारा संकेत करने का भी जैन आगमों मेंप्रचलन है। संबंधित वर्णन को दूसरे आगमों से जहां वह आया हो, गृहीत कर लिया जाता है। यहां भगवान् महावीर और सुधर्मा और जंबू के विशेषणात्मक वर्णन 'जाव' शब्द से सूचित हुए हैं । ज्ञातृधर्मकथा, औपपातिक तथा राजप्रश्रीय सूत्र से ये विशेषणमूलक वर्णन यहां आकलित किए गए हैं। जैसा पहले सूचित किया गया है, संभवतः जैन आगमों की कंठस्थ परम्परा की सुविधा के लिए यह शैली स्वीकार की गई हो। आनन्द गाथापति
३. एवं खलु जंबू! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था।वण्णओ। तस्स वाणियगामस्स बहिया उत्तर-पुरत्थिमे दिसी-भाए दूइपलासए नामं चेइए। तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू राया होत्था।वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे आणंदे नाम गाहावई परिवसइ-अड्ढे जाव (दित्ते, वित्ते विच्छिण्ण-विउल-भवण-सयणासण-जाण-वाहणे, बहु-धण-जायरूव-रयए, आओग-पओग-संपउत्ते, विच्छड्डिय-पउर-भत्त-पाणे, बहु