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The Shramanopasaka Kundakolika said to the Deva, "Deva! If you have obtained these divine powers without effort, striving, or exertion, then why are those beings who have no effort, striving, or exertion not Devas? Deva! If you have obtained these divine powers through effort, striving, and exertion, then your statement that "the teachings of Gosala Mankhaliputta are not beautiful because they do not accept effort, striving, and exertion, while the teachings of the Bhagavan Mahavira are beautiful because they accept effort, striving, and exertion, and all things are determined by them" is false."
[172] When the Deva heard this from the Shramanopasaka Kundakolika, he became filled with doubt, (desire and uncertainty), and was overcome with shame. He could not answer Kundakolika. He placed the named ring and scarf back on the stone slab and returned in the direction from which he had come.
[173] At that time, the Bhagavan Mahavira arrived in Kampilya.
[174] The Shramanopasaka Kundakolika, having been praised in this way, became firm and resolute, like Kamadeva, and went forth to live in the forest.
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[उपासकदशांगसूत्र १७१. तए णं से कुंडकोलिए समणोवासए तं देवं एवं वयासी-जइ णं देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ अणुट्ठाणेणं जाव' अपुरिसक्कार-परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, जेसिं णं जीवाणं नत्थि उट्ठाणे इ वा, परक्कमे इ वा, ते किं न देवा? अह णं देवा! तुमे इमा एयारूवा दिव्वा देविड्डी ३ उट्ठाणेणं जाव परक्कमेणं लद्धा, पत्ता, अभिसमण्णागया, तो जं वदसि-सुन्दरी णं गोसालस्स मंखलि-पुत्तस्स धम्मपण्णत्ती-नत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव नियया सव्वभावा, मंगुली णं समणस्स भगवओ महावीरस्स धम्मपण्णत्ती-अत्थि उट्ठाणे इ वा, जाव अणियया सव्वभावा, तं ते मिच्छा।।
___तब श्रमणोपासक कुंडकौलिक ने उस देव से कहा-देव! यदि तुम्हें यह दिव्य ऋद्धि प्रयत्न, पुरूषार्थ, पराक्रम आदि किए बिना ही प्राप्त हो गई, तो जिन जीवों में उत्थान, पराक्रम आदि नहीं है, वे देव क्यों नहीं हुए? देव! तुमने यदि दिव्य ऋद्धि, उत्थान, पराक्रम आदि द्वारा प्राप्त की है तो "उत्थान आदि का जिसमें स्वीकार है, सभी भाव नियत नहीं है, भगवान् महावीर की यह शिक्षा असुन्दर है" तुम्हारा यह कथन असत्य है। देव की पराजय
१७२. तए णं से देवे कुंडकोलिएणं समणोवासएणं एवं वुत्ते समाणे संकिए, जाव (कंखिए, विइगिच्छा-समावन्ने,) कलुस-समावन्ने नो संचाएइ कुंडकोलियस्स समणोवासयस्स किंचि पामोक्खमाइक्खित्तए; नाम-मुद्दयं च उत्तरिजयं च पुढवि-सिलापट्टए ठवेइ, ठवेत्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए, तामेव दिसिं पडिगए।
श्रमणोपासक कुंडकौलिक द्वारा यों कहे जाने पर वह देव शंका, (कांक्षा व संशय) युक्त तथा कालुष्ययुक्त-ग्लानियुक्त या हतप्रभ हो गया, कुछ उत्तर नहीं दे सका। उसने कुंडकौलिक की नामांकित अंगूठी और दुपट्टा वापस पृथ्वीशिलापट्टक पर रख दिया तथा जिस दिशा से आया था, वह उसी दिशा की ओर लौट गया।
भगवान् द्वारा कुंडकौलिक की प्रशंसा : श्रमण-निर्ग्रन्थों को प्रेरणा १७३. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। उस काल और उस समय भगवान् महावीर का काम्पिल्यपुर में पदार्पण हुआ।
१७४. तए णं कुडकोलिए समणोवासए इमीसे कहाए लद्धढे हट्ठ जहा कामदेवो तहा निग्गच्छइ जाव' पज्जुवासइ। धम्मकहा। १. देखें सूत्र-संख्या १६९ । २. देखें सूत्र-संख्या १६९ । ३. देखें सूत्र-संख्या १६९ । ४. देखें सूत्र-संख्या १६८। ५. देखें सूत्र-संख्या ११४ ।