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यह शुद्ध स्वरूपकी अपेक्षा कही । चारित्रके अपेक्षासे समल विमलका भेद होय है, सो शुद्ध स्वरूपमें| एक आत्माका अनुभव है तातै सर्व सिद्धि शुद्ध स्वरूपसे होय है अन्य स्वरूपसें नही है ॥ २० ॥
॥ अब शुद्ध अनुभव प्रशंसा कथन ॥ सवैया ३१ सा - IS जाके पद सोहत सुलक्षण अनंत ज्ञान, विमल विकाशवंत ज्योति लह लही है। । यद्यपि त्रिविधिरूप व्यवहारमें तथापि, एकता न तजे यो नियत अंग कही है।
सो है जीव कैसीहू जुगतिके सदीव ताके, ध्यान करवेकू मेरी मनसा उमगी है। जाते अविचल रिद्धिहोत औरभांति सिद्धि, नाही नाहीनाही यामे धोखो नाही सही है ॥२१॥ Sl अर्थ-अब ऐसो शुद्ध स्वरूपको अनुभव स्थिर रहना दुर्लभ है, तातै सर्व ज्ञाताजन अनुभवका 5
मनोरथ (चितवन, इच्छा,) करे है सो कहे है-शुद्ध अनुभवपदमें अनंत ज्ञानरूप सुलक्षण शोभे 8 है, तिस लक्षणकें शुद्ध प्रकाशकी ज्योति लखलखाट करे है। (स्व अर परका जानपणा करे है) यद्यपि व्यवहार नयसे आत्मज्योति दर्शन, ज्ञान, अर चारित्र रूप है वा बाह्यआत्मा, अंतरआत्मा, परमात्मा, त्रिविधिरूप है तथापि नियत (निश्चय ) नयसे अभेद है एकता नहि तजे है, ऐसे एक स्वरूपी जो जीव (आत्मा ) ताका संदाकाल ध्यान करनेवू मेरी मनसा ( इच्छा ) हो रही है सो 8/ कैसेही युक्तिकरी तिसका ध्यान होऊं । इस आत्मध्यानहीते अविचल रिद्धि ( मोक्ष सिद्धि ) होय है | अन्य रीतीसे सिद्धि होना नहीं है, इसिमें कछु धोका नही है, ये बात साची है ॥ २१ ॥
॥अव ज्ञाताकी व्यवस्था कथन ॥ २३ ॥ सा- . . कै अपनोपद आप संभारत, के गुरूके मुखकी सुनिबानी ॥. . . . भेदविज्ञानं जग्यो जिन्हके, प्रगटी सुविवेक कला रजधानी ।।
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