________________
। २५) समय अभिनेता अभिनय कर रहे हैं उसी समय वे स्वयं भी अपने उभं अभिनय के दर्शक भी होते हैं। अभिनय करते हुए भी वे जानते जा रहे हैं कि यह तो अभिनय है। दो धारा वहाँ भी सतत चल रही हैं, हम कह सकते हैं कि वे रोते हुए भी रोते नहीं हैं और हंसते हुए हंसते नहीं हैं। वे चाहे गरीब का अभिनय कर रहे हों चाहे करोड़पति का, दर्शकों को अपनी उसउस भूमिका के दुख सुख को दिखाते हए भी वे वास्तव में दुःखी सुखी नहीं होते क्योंकि अपने असली रूप का उन्हें ज्ञान है, अभिनय करते हुए भी निरन्तर अपनी असलियत उन्हें याद है, उसे वे भूले नहीं है, भूल सकते नहीं हैं और उन्हें यदि यह कहाजाए कि तुम जिसका अभिनय कर रहे हो उस रूप ही अपने आपको वास्तव में देखने लग जाओ तो वे यही उत्तर देंगे कि यह तो नितान्त असम्भव है, किसी हालत में भी यह हो नहीं सकता। यही स्थिति उस सम्यग्दृष्टि शानी को है, उसे आत्मा का अनुभव हुआ, अपने असली रूप का ज्ञान हुआ अतः बाकी सब नाटक दिखने लगा, अभिनय करना पड़ रहा है उसे क्योंकि अभी स्व में ठहरने की असमर्थता पर समस्त अभिनय के समय वह जानता जा रहा है कि इसमें मेरा अपना कुछ भी तो नहीं। उपयोग चाहे उसका बाहर में जाए पर. भीतर में धयां का बोर्ड निरन्तर टंगा ही रहता है कि मैं एक अकेला चेतन हूँ और यदि उसे यह कहो कि तू इस शरीर को या कर्म को अपने रूप देख तो वह कहेगा'कैसे देबूं? जब मैं उन रूप हूँ ही नहीं तो उन रूप स्वयं को देखना ती सर्वथा असम्भव ही है। मैं तो अब अपने को ही अपने रूप देख सकता है।' और जिस प्रकार नाटक के बाद वे अभिनेता अपने-अपने अभिनय के वेश को उतार फेंकते हैं और अपने असली रूप में आ जाते हैं और शीघ्र ही अपने घर जाने की उन्हें सुध हो आती है उसी प्रकार ये जानी भी सारा दिन संसार का नाटक कर सामायिक के समय अपने सांसारिक वेष को उतार फैकते हैं, ये शरीर रूप जो चोला धारण किया हआ है उसे भी स्वयं से प्रथक कर वे अपनी असलियत को प्राप्त करते है और फिर अपने घर में जाए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती मतः निज शुढात्मा में वे रमण करते हैं, वहीं स्वतंत्र रूप से विहार करते हैं।
इस ग्रंथ का नाम भी समयसार नाटक है, उसका अर्थ यही किब यह जीव समयसार रूप होता है, धुतात्मा का अनुभव करता है तो वह संसार उसके लिए नाटक के समान हो जाता है। - . उपसंहार-यह बन्ध तो चिन्तामणि रत्न रूप है। इसकी प्रत्येक