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बीव-वधिकार कर दिया हो, संबोधित करके कहा है कि तुम्हें पोहे हो काल में उस शुद्ध जीव अर्थात् आत्म-सत्त्व को प्राप्ति हो जो अतिमयमान मान-ज्योति है, मनादि सिड है और मिथ्यावाद अथवा बौदादिक की कल्पना से अक्षण है।
स शुरु स्वरूप को भन्यजीव कैसे पा सकता है ? पिन बबन या दिव्य ध्वनि केरा जो उपादेय पुराजीव वस्तु कही गई है उसका अनुभव करने मे फल की प्राप्ति होगी। बासन्नमव्यजीव उस शुरजीप वस्तु में सावधानी से रुषि-श्रया-प्रतीति करते हैं । शुद्धजीव वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव करना ही सच्ची रुषि-पदा-प्रतीति कहलाती है, केबल पुद्गल वचन की रुचि करने से स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती।
जिन वचन दोनों नयों के पक्षपात से रहित व परस्पर विरोध और रभाव को मंटने वाले हैं। व्याथिक नय तो सत्व को न्यल्प कहता है मोर पर्यायाधिक नय उसी सत्व को पर्यायल्प कहता है, इसमें जो विरोध है, दिव्यध्वनि उसका ध्वंस करती है। दोनों ही नय विकल्प हैं और शुरजीव स्वरूप का अनुभव निर्विकल्प है। इसलिए बायजीव स्वरूप का अनुभव होने पर दोनों हो नयों का विकल्प मूठा पड़ जाता है। वस्तु मात्र तो निर्मंद है परन्तु उसको कहने के लिए जो भी बचन बोल जायगे वह एक पक्षल्पही होंगे और इस पक्षपात को मेटने वाले स्वाद्वाद चिह्न से चिह्नित चिन वचन ही हैं ॥४॥ संबंधा-निहचे में एकरूप व्यवहार में अनेक
पाही नय विरोष जगत भरमायो है। अप के विवाद नासिको जिन मागम है, जामें स्यावादनान लक्षण सुहायो है।
परसनबह जागो गयो है साल्प, मागम प्रमाल ताहिर में पायो है। अनय से प्रसहित अनूतन अनन्त तेज, ऐती पर पूरल तुरन्त तिन पायो है ॥४॥
मालिनी छन्द व्यवहरसनयः स्वापि प्रापदन्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः ।