________________
अष्टम अध्याय
aru-अधिकार
शार्दूलविक्रीडित रागोद्गारमहारसेन सकलले कृत्वा प्रमर्श जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भर महानाट्येन व धुमत् । मानन्दामृतनित्यमोजिसहजावस्थां स्फुटनाट्यद् धीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मज्जति ॥ १॥
अब उस शुद्ध जीव का स्वरूप कहते है जो अतीन्द्रिय सुखरूप है, जिसकी अमृत के समान अपूर्व लब्धि है, जो निरन्तर आस्वावनशील है, स्पष्ट अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करता है, अविनश्वर सत्ता रूप है, जिसका धाराप्रवाह रूप परिणमन स्वभाव है, जो सब दुःखों से रहित है और जो समस्त कर्मों की उपाधि मे रहित है। वह शुद्ध ज्ञान उन ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध को मेट कर प्रगट होता है जो कर्म संसार में गर्जन करते और क्रीड़ा करते दिखाई पड़ते हैं। उस कर्मों के बन्ध मे अहंकार के द्वारा समस्त जीव राशि को अपने वश में किया और वह अनंतकाल से इस संसाररूपी अखाड़े में सारे संसार की जीवराशि को बुद्धस्वरूप से भ्रष्ट करके उसकी राग-द्वेष-मोह रूप अशुद्ध परिणति में प्रगट हो रहा है - संसार की समस्त जीवराशि को अत्यन्त अधिक मोहरूपी मदिरापान करा रहा है।
भावार्थ - जैसे कोई किसी जीव को मदिरा पिला कर विकल (बेहोश ) करे मीर उसका सर्वस्थ छीन ले, पद से भ्रष्ट कर दे उसी प्रकार मनादि से लेकर सब जीवराशि राग-द्वेष-मोह के मथुद्ध परिणामों में मतवाली हो रही है जिससे ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध होता है। ऐसे बन्ध को शुद्ध ज्ञान का अनुभव मेटने बाला है इसलिए शुद्ध ज्ञान उपादेय है ॥ १ ॥