Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 272
________________ २४२ समयसार कलश टोका संबंधा-कोउ मानवान कहे जान तो हमारो रूप, अंय पदाव्य सो हमारो रूप नाहीं है। एक ने प्रमाण ऐमे दूजी प्रब कहूं जैम, सरस्वती प्रक्सर प्ररथ एक ठांही है। तसे ज्ञाता मेगे माम मान चेमना बराम, मेय रूप सति अनंत मुझ पांही हैं। ता कारन वचन के मेद मेड को कोउ, माता मान ज्ञेय को विलास ससा मांही है। चौपाई-स्व-पर प्रकाशक शति हमागे, तात वचन मेद भ्रम भागे। मेय दशा दुविधा परकाशी, निजरूपा परस्पा भासी। दोहा--निजस्वरूप प्रातम कति, पर रूप पर वस्त। जिगह लखि लोनो पेच यह, तिन्हें लम्वि लियो समस्त ॥६॥ पृथ्वी कचिल्लसति मेचकं कचिन्मेचकामेचकं कचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहृतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ॥१०॥ इस शास्त्र का नाम नाटक समयसार है इसलिए जिस प्रकार नाटक में एक भाव अनेक रूप में दिखाया जाता है उमी प्रकार एक जीवद्रव्य अनेक भावों द्वारा साधा जाता है मेरा ज्ञानमात्र जीवपदार्थ कमसयांग में रागादि विभावरूप परिणति से देखने पर अशद्ध है-सा आस्वाद आता है पर ऐसा एकान्त नहीं है। ऐसा भी है कि वह एक वस्तु मात्र रूप देखने पर शुद्ध है-पर ऐसा भी एकान्त नहीं है। अशुद्ध-परिणतिरूप तथा वस्तुमात्ररूप एक ही बार में देखने पर वह अशुद्ध भी है शुद्ध भी है-इस प्रकार दोनों विकल्प घटित होते हैं। स्वभाव में सा ही है तो भी सम्यग्दष्टि जीवों की तत्वज्ञानरूप जो बुद्धि है वह संशयरूप नहीं होती। भावार्थ-जीव का स्वरूप शुद्ध भी है, अशद भी है। शद्ध-अशट भी है-ऐसा कहने पर अवधारण करने में भ्रम को स्थान है तथापि जो स्याहादरूप वस्तु का अवधारण करते है उनके लिए सुगम है । प्रम उत्पन्न

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