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माध्य-माधक अधिकार
२४३ नहीं होना है। जीव वस्तु तो परस्पर मिली हुई स्वानुभवगोचर जीव की अनेक शक्तियों का समूह है और सर्वकाल उद्योतमान है ॥१०॥ संबंया-करम अवस्था में प्रशुखसो विलोकियत,
करम कलंक सों रहित शुद्ध अंग है। उभे नय प्रमाण समकाल शुद्धाशुद्ध रूप, ऐसो पर्यायधारी जीव नानारंग है।
एक हो मर्म में विधारूप पं तथापि याकी, अवण्डित चेतना शकति सरवंग है। यहै. म्याद्वार याको मेद स्याठायी जाने, मूरख न माने जाको हियो हग-भंग ॥१०॥
पृथ्वी इतोगतमनेकतां वदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदंबोदयात् । इत परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेश निज
रहो सहजमात्मनस्तविदमद्भुतं भवम् ॥११॥ अहो ! जीववम्न की अनेकान्त बम्प मी आत्मा के गणस्वरूप लक्ष्मी अचम्भा उपजाती है। वह जीव वस्नु पर्याय दृष्टि मे देखने पर अनेकतारूप भाव को प्राप्त हुई है, द्रव्य रूप में देखने पर सदा ही एक है, प्रेमी प्रतीनि को उत्पन्न करती है। 'समय-समय प्रति अखण्ड धाराप्रवाह रूप परिणमती है मी दृष्टि में देखने पर वह विनगती है, उपजती है। 'सर्वकाल एक रूप है' मी दृष्टि से देखने पर मर्वकाल अविनश्वर है ऐसा विचार करने पर गाग्वत है। वस्तु को प्रमाण दृष्टि से देखने पर प्रदेशों में लोक प्रमाण है, जान में श्रेय प्रमाण है। निज प्रमाण की दृष्टि से देखने पर अपने प्रदेशमात्र प्रमाण है ॥११॥ संबंया-निहरख दृष्टि रोजे तब एक ल्प,
गुरण परयाय भेद भावसों बहुत है। असंख्य परपेश संजुगत सत्ता प्रमाण, मान की प्रभा सो लोकालोकमानत है।