Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 274
________________ २४४ समयमार कलश टीका परजे तरंगनि के अंग छिन भंगुर हैं, चेतना सकति सों प्रखंडिन प्रचत है। मो है जीव जगत विनायक जगतसार, जाको मौज महिमा अपार अद्भुत है ॥११॥ पृथ्वी कषायकलिरेकतः स्वलति शांतिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकाम्त्येकतः स्वभावमहिमा-मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥१२॥ जीवद्रव्य की स्वरूप की महिमा सबमे उत्कृष्ट है। वह आश्चर्य में आरचयंका है। विभावपरिणाम गक्ति कप विचारने पर मोह-गग-द्वेष का उपद्रव होकर वह स्वरूप मे भ्रष्ट हो परिणमता है मा प्रगट ही है। जीव नगद ग्वाप का विचार करने पर वह चेतना मात्र स्वरूप है, गगादि अगद्धपना विद्यमान ही नहीं है। अनादिकमंमयोग रूप परिणमा है इम कारण मंमार चतुर्गनि में अनेक बार परिभ्रमण है । जीव के गद्ध स्वरूप का विचार करने पर जीववस्तु सर्वकाल मुक्त है ऐमा अनुभव में आता है । 'जीव का स्वभाव स्व-पर जायक है ऐसा विचार करने पर समस्त जेय वस्तु की अनोत अनागत वर्तमान कालगोचर पर्याय एक समय मात्र काल में ज्ञान में प्रतिबिम्बम्प है। वस्तू के स्वम्प मनामात्र का विचार करने पर शुद्ध ज्ञानमात्र शोभित होता है। भावार्थ-व्यवहारमात्र में ज्ञान ममम्त जय को जानता है, निश्चय में नहीं जानता है अपना स्वम्पमात्र है क्योंकि सेय के साथ व्याप्य-व्यापक रूप नहीं है ॥१२॥ सबैया-विभाव शकति परपति मों विकल दीसे, शुरुचेतना विचार ते महज संत है। करम संयोग सों कहावे गति को निवासी, निहवं स्वरूप सदा मुकत महंत है। नायक स्वभाव घरं लोकालोक परकासो, सत्ता परमारण सत्ता परकाशवन्त है।

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