Book Title: Samaysaar Kalash Tika
Author(s): Mahendrasen Jaini
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (बो पं. राजमल जी की एंगरी भाषा का माधुनिक भावासार) समयसार-कलश (टीका) पातरकार: श्री महेनसेन अनी . बीर सेवा मन्दिर २१ परियागंब, नई दिल्ली-२ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथममकरण: वीर नि०म० २५०० वि.सं. २०१८ मन् १९८५ माय : १ प्रमाणक: वीर सेवा मन्दिर २१, दरियागज, नई दिल्ली-२ गीता सिटिंग एजमो दाग विष्यवासिनी पोजिम म्यू सोलमपुर, दिल्ली-५३ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राभार समयसार कलश को पं० गजमल जी कृत ढढारी भाषा के आधुनिक भाषा-रूपान्तरकार श्री महेन्द्रमेन जैनी का जन्म ३० जनवरी, १९२० को लखनऊ में हआ था। उच्च शिक्षा संप्राप्ति के पश्नात् आपने सक्रिय जीवन में प्रवेश किया तथा पूर्ण लगन और अनवरत अध्यवसायपूर्वक अपने विभिन्न कार्य-क्षेत्रों में पूर्ण सफलता प्राप्त की आप सरिता एवं कारवा नामक पत्रिकाओं में मेटगे रहे और तत्पश्चात् भारत सरकार के. "सैनिक समाचार" नामक पत्र में आपने विज्ञापन प्रबन्धक के पद पर इलाघनीय कार्य किया। तदनन्तर आपने अनेक वर्ष पर्यन्त भारत सरकार के प्रकाशन विभाग (मूचना एवं प्रमारण मंत्रालय में सहायक व्यापार श्री महेन्द्र सेन नो प्रबन्धक आदि महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। सामाजिक क्षेत्र में भी श्री जैनी ने अनेक महत्वपूर्ण संस्थाओं से सम्बद्ध रह कर महन्वपूर्ण भूमिका निभाई। आप जैन समाज को एक मात्र शोधपीठ वार मंवा मन्दिर के महासचिव रह ओर स्थानीय अनेक संस्थाओं में प्रतिप्टिन पदों पर रहे। साहित्य-माधना के क्षेत्र में भी आपने सराहनीय कार्य किए. कई पुस्तकों का सम्पादन और प्रणयन किया। वे अब हमारे बीच नहीं हैं उनका केन्मर रोग से दि. ४ सितम्बर ७६ को स्वर्गवास हो गया। वे अन्त समय तक धर्म में सावधान रहे । समयसार कलश का प्रस्तुत भाषान्तर उनकी आध्यात्मिक रुचि और गुणग्राह्यता का जीता-जागता प्रमाण है । हम इसके लिए उनके आभारा हैं। वीर सेवा मंदिर का यह प्रकाशन पाठकों को लाभप्रद रहेगा। -महासचिव Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका क्रमांक पृष्ठांक १-२८ विषय प्रस्तावना १. जीव अधिकार २. अजीव अधिकार ३. कर्ता-कम अधिकार ४. पुण्य-पाप एकस्व द्वार ५. आस्रव अधिकार ६. संवर अधिकार ७. निबंरा अधिकार ८. बन्ध अधिकार ६. मोक्ष अधिकार १०. शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार ११. स्यादाद अधिकार १२. साध्य-साधक अधिकार १०५ १११ १४१ १५५ २१२ २४ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना 'देखे को अनदेखा कर रे अनदेखे को देखा" आज सर्वत्र पीड़ा है, अशान्ति है, हाहाकार है । प्रत्येक जीव मुख चाहता है और उसका हर एक प्रयत्न सुख प्राप्ति के लिए ही है पर सिवाय दुख के हासिल उसे कुछ भी नहीं होता और जिसे ये मुख मानकर उसमें हा अटक जाता है वह वास्न सुख नही क्योकि जो सुख अपने साथ अपने पीछे-पीछे दुख को आए उसे सुख नहीं कहते । सच्चा सुख तो अपनी आत्मा को अपने रूप देखना, जानना और उस रूप रह जाना ही है पर ज्ञानस्वरूप उस आत्मा को न पहचानकर यह जीव अज्ञानो हुआ इस दुख सागर में परिभ्रमण कर रहा है। जोब की पीड़ा व दुख का मूल कारण इसकी अज्ञानता ही है और वह अज्ञानता इसके जीवन के प्रत्येक पहलू में विस्तृत है । अब उसी अज्ञानता के विविध आयामों का विवेचन करते हैं : (१) अगल भूल यही है कि यह जीव अनन्त गुण वाला चैतन्य तत्त्व, ज्ञान शरीरी है पर मृतिक जड़ शरीर को, पुद्गल को इसने अपना होना मान लिया है । वह चैतन्य तत्व अमृनिक है अत इन जड़ आँखों से नहीं दिख सकता, वह मात्र स्वसंवेदनगम्य है, अपने अनुभव मे ही जाना जा सकता है। उसे तो अज्ञानी ने पहचाना नहीं और आंख के माध्यम से जब बाहर झांका तो उसे ये स्थूल शरीर दिखाई दिया और अपने आपको न पहचानने की भूल के कारण उसने इसको ही अपने रूप मान लिया और फिर संसार को वेल बढ़ती ही चली गई । आत्मा व शरीर में भेद तो स्वयं सिद्ध है, वह कुछ इसे करना नहीं, मात्र उसका ज्ञान करना है और वह भेदज्ञान कर उस एक अकेले चैतन्य में सर्वस्व स्थापित करना है। जिस रूप ये है नहीं जब उस रूप स्वयं को अनुभव कर सकता है तो उस रूप क्यों नहीं अनुभव कर सकता जिस रूप यह है, अनुभव करने वाला तो ये स्वयं Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) ही है। जैसी अहंबुद्धि शरीर में है वैसी तो चेतना में होनी चाहिए और जैसी परबुद्धि वस्त्रों में है वैसी इस शरार में होनी चाहिए। शरीर के स्तर पर तो इसे अनुभूति है, गरार में अपनी सत्ता की अनुभूति होती है कि मैं हूँ पर यही मैं पना चेतना में में उठना चाहिये क्योंकि ये वास्तव में चंतन्य ही तो है, तो जड़ है। शरीर के स्तर पर इसे भेदविज्ञान भी है, अपने घर, शरीर, धन, वैभव, स्त्री, पुत्र आदि को ही अपना मानता है । किमी दूसरे के की नहीं, पर यही भेदविज्ञान चेतना के स्तर पर होना चाहिए कि अनन्त गुण वाला ये चेतन पदार्थ तो मैं हूँ और ये शरीर एवं बाकी सारे पदार्थ पर है । (२) जीव को दूसरी अज्ञानता इस मिथ्या मान्यता से सम्बन्धित है कि सुख दुःख पर में से आना है और पर ही मुझे कपाय कराता है । वास्तविक स्थिति यह है कि पर पदार्थ कभी भी सुख-दुःख का कारण होता नहीं संयंत्र ही जीव के सुख-दुख का मूल कारण इच्छाओं - विकल्पों का अभाव वा सद्भाव ही है। अधिक इच्छाओं वाला प्राणी दुःखो और कम इच्छाओं वाला सुखी देखा जाता है। एक इच्छा की पूर्ति होने पर जो मुख का आभास सा होता है वह मुख वास्तव में उस पर पदार्थ में से नही आता जो इच्छा की पूर्ति होने पर मिला है वरन् तत्सम्बन्धी इच्छा का उस समय जो अभाव हुआ है उस अभाव से वह मुख आया है और अभी भी एक इच्छा का ही तो अभाव हुआ है, अन्य अनन्ता तो पंक्ति में खड़ी ही है अतः निरन्तर दुखी ही है। तथ्य तो यही है पर अज्ञानी उस सुख की इच्छा के अभावजनित नहीं मान कर ऐसो मान्यता करता है कि पर पदार्थ में से यह सुख आया और अपनी इस झूठी मान्यता के कारण वह इन पर पदार्थों को शरीर, स्त्री, पुत्र, धन, वैभव, मकान, दुकान आदि को बढ़ाने की सतत धुन में लगा रहता है और इस प्रकार इच्छा करने का प्रयोजन इसके बना रहता है । मायाचारी आदि करके भी इच्छाओं की पूर्ति करने का लोभ इसे निरन्तर बना रहता है और पूर्ति न हो पाने पर क्रोध व पाय व पूर्ति हो जाने पर मान कपाय करता है और इस प्रकार कपाय करने का प्रयोजन भी अज्ञानी के बना रहता है। जीव स्वयं कषाय रूप परिणमन करता है और मानता ये है कि पर ने मुझे कषाय कराई। यह बात इसकी बुद्धि में बैठती नहीं कि जिम्मेवारी सारी मेरी ही है, पर तो मात्र निमित्त था और उसे निमित्त भी मैंने ही बनाया। पर का परिणमन पर के आधीन है, मेरा परिणमन मेरे आधीन है, जब पर को निमित्त बनाकर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अपना परिणमन करता हूँ तो उपचार से ऐसा कहा जाता है कि उसने ऐसा कर दिया पर उपचार झूठा हो होता है, मेरा बिगार सुधार 'मेरे हो आधीन है।' पर मुझे सुखी दु.खो कर नहीं सकता, पर मुझे कषाय करा नहीं सकता' ऐसा मानने पर भी पर से बचाव इसीलिए किया जाता है क्योंकि अभी मुझमें आत्मबल की इतनी कमी है कि उसकी मौजूदगो में मैं उसको लक्ष्य करके अपना बिगाड़ कर लेता हूँ जैसे कमजोर आदमी ठण्डी हवा से उसे बुरा जान कर नहीं वरन् अपनी स्वास्थ्य की कमी के कारण ही बचता है। () जीव की तीसरी अज्ञानता पर में इष्ट अनिष्ट कल्पना कर राग देष करना है। यह जीव स्व को भुला कर निरन्तर पर में ही लगा हुआ है। उन पर पदार्थों में जो इसके अनुकूल रहता है उसमें ये इष्ट की कल्पना कर राग कर लेता है और जो प्रतिकूल रहता है उसमें अनिष्ट की कल्पना कर देष कर लेता है । इप्ट अनिष्टपना पदार्थ का कोई गुण धर्म तो है नहीं, मात्र इसके द्वारा की गई कल्पना ही है। यदि इष्ट अनिष्टपना वस्तु का गुण धर्म होता तो कोई एक वस्तु सबको इष्ट ही लगनी चाहिए पी और कोई एक सबको अनिष्ट ही लगनी चाहिए थी। पर सबको इष्ट या अनिष्ट लगने की बात तो जाने दो, एक ही वस्तु एक व्यक्ति को कभी इष्ट लगती है और कभी अनिष्ट । भूख लगी होने पर जो भोजन इतना सुस्वादु और रुचिकर लगता है उसे ही भूख शमन होने पर देखने की भी इच्छा नहीं होती अतः इष्ट अनिष्टपना जीव में से उठने वाली झूठी कल्पनाएँ ही हैं। सर्वत्र हमारे सुख दुःख का या कपाय का कारण वस्तु या स्थिति नहीं वरन् उसमें हमारे द्वारा उठाया गया विकल्प या कल्पना ही है। हम चाहें तोइष्ट का विकल्प उठाकर स्वयं को सुखी मान लें, चाहें तो अनिष्ट का विकल्प उठा कर स्वयं को दुःखी मान लें पर वास्तविक आनन्द तो निर्विकल्प रह जाने में ही है जब चाहे कैसी भी स्थिति हो उसमें हम कोई भी विकल्प न उठाएं और ऐसा हम कर सकते हैं। प्रति समय हमारे मन में कुछ न कुछ चलता रहता है। मन के विकल्पों को भी जानने वाला जो साक्षी आत्मा भीतर है उसकी तो हमें पहचान नहीं और मन को ही हमने अपना होना समझ लिया है। हम पल-पल उलझे हैं या तो भूतकाल में घटी घटनाओं की स्मृति में या भविष्य की कुछ योजनाओं, इच्छाओं व चिन्ताओं मे या फिर अन्य अनेक उल-जलूल बातों के विचार में। ये विचार वा विकल्प किसी भी रूप में तो सार्थक नहीं, वर्तमान में तो ये अशान्ति देकर जाते हैं और भविष्य के लिए Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) फालतू का कर्म बंध कर जाते हैं। आत्म शान्ति प्राप्त करने के लिए सबसे पहले हमें विकल्पों को निरर्थकता समझ में आनी चाहिए कि उनके आधीन काम होने का नियम नहीं और साथ ही साथ यह भी कि हमारे द्वारा उठाया गया एक भी विकल्प बेकार नहीं जाता, प्रत्येक की हमें भारी कीमत चुकानी पड़ती है। भूतकाल तो चला गया, वह तो मुर्दा है उसके बारे में हम क्यों सोचें और भविष्य के बारे में विचार भी फालतू हैं क्योंकि कोई भी काम हमारी इच्छा के आधीन होता नहीं, हमारे विकल्पों के आश्रित कुछ भी तो नहीं तो हम मात्र वर्तमान में ही क्यों न रहें। जो कुछ भी वर्तमान में घट रहा है उसे देखते जानते रहें। (४) चौथी अज्ञान ।। पर-पदार्थों में कत्तत्व बुद्धि की है। है तो यह जानस्वरूप; ज्ञाता दृष्टा रूप रहने के सिवाय आत्मा कुछ भी तो नहीं कर सकता पर क्योंकि स्वयं को ये पहचानता नहीं, मात्र ज्ञान रूप रहने के अपने कार्य व पुरुषापं को जानता नहीं अत: पर्याय में जो कुछ भी घट रहा है उस सबका करने वाला स्वयं को मान लेता है और इस मिथ्या कर्ताबुद्धि के कारण इसका सारा पुरुषार्थ जाता बनने में नहीं वरन् चौबीस घंटे कुछ न कुछ उधेड़ बन करने में ही लगा रहता है । वस्तु स्थिति यह है कि इसके करने के आधीन कुछ भी नहीं। यदि पर पदार्थों का परिणमन इसके विकल्पों के या इसके करने के ही आश्रित होता तो इसकी सर्वदा हो सारी इच्छाओं को पूर्ति होनी चाहिए थी पर ऐसा होता कभी देखा नहीं गया। कदाचित् कभी इसकी इच्छा और कर्म के वैसे ही उदय का संयोग बैठ जाता है तो ये कहता है कि मैंने किया। अपने करनेपने के विस्तार में इसके ऐसा अनुभव में आता है मानो सारा संसार इसके चलाने से ही चल रहा हो। यदि यह कर्म का कार्य करना छोड़ कर (कर्म का कार्य कर थोड़े ही सकता है ये, मात्र मानता है ऐसा कि 'मैं करता हूँ तो इस मूठी मान्यता को छोड़ कर) शाता बन जाए तो भी सारा संसार चलेगा तो अपनी धुरा पर ही, इसको तो खत्म होना नहीं, हां, इस अज्ञानी का संसार अवश्य खत्म हो जाए, जन्मों-जन्मों के सारे इसके दुख आत्यंतिक क्षय को प्राप्त हो जाएं पर यह बात इसकी समझ में बैठतो नहीं। (५) पांचवीं अज्ञानता भगवान को कर्ता बनाने की है। अपनी इच्छा के अनुकूल इसे कर्म का कार्य होता दीखता है तो ये कहता है मैंने किया और कदाचित् स्वयं से होता न दीखे, अपनी बाशाबों पर पानी फिरता दिखाई दे तो देवी देवताओं को अपने से अधिक शक्तिशाली समझ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) उनके पास मन्नत मांगने पहुँच जाता है कि 'मेरा फलां काम कर देना, ये दे देना, वो दे देना।' और तो और वीतराग के मन्दिर में भी इन्हीं संसार शरीर भोगों के अभिप्राय को लेकर पहुँच जाता है और वहां सौदेबाजी करता है - 'तुम दस लाख दोगे तो मैं चार छत्र दूंगा।' धारणा वही विपरीत चल रही है तो या तो ये स्वयं को कर्ता बनाता है या फिर भगवान को कर्ता बना देता है और सोचता है कि भगवान मेरी सारी इच्छाओं की पूर्ति कर देंगे। या फिर इस अज्ञानी की समझ में ये बैठा हुआ है कि यथायोग्य पुण्य के उदय से सारी अनुकूल सामग्री प्राप्त होती है अतः ये पुण्यबंध करने के लिए वीतरागी की उपासना करता है और संसार की ही इस रूप में चाह किया करता है, मोक्ष की या मोक्ष सुख की इसे पहचान ही नहीं । संसार शरीर भोगों की प्राप्ति का ही इसका अभिप्राय है और मन्दिर में जा रहा है इस मान्यता को लेकर कि देवी-देवता सुख बांटते हैं अतः सारे देवताओं में इसके समभाव है, किसी को ही पुजवा लो, सुदेव हो, बुदेव हो, धरणेन्द्र पद्मावती हो, चाहे कोई हो । (६) छठी अज्ञानता वीतरागी देव गुरु शास्त्र के सम्बन्ध में है । यदि जीव को कभी सच्चे देव गुरु शास्त्र की प्राप्ति भी हुई और मोक्ष प्राप्ति का इसका ध्येय भी बना तो ये देव गुरु शास्त्र में ही अटक गया, वहाँ भी इसकी अज्ञानता छिपी नहीं रही। आचार्यों ने सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र को मोक्ष का मार्ग बताया । पने को अपने रूप, ता दृष्टा रूप श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन, अपने रूप जानना सम्यग्ज्ञान और ज्ञाता दृष्टा रूप रह जाना ही सम्यभ्चारित्र है और यही मोक्षमार्ग है एवं वीतरागी देव गुरु शास्त्र उस मोक्ष मार्ग की प्राप्ति में निमित्त या माध्यम पड़ते हैं । देव दर्शन के माध्यम से भी जीव को आत्मदर्शन करना था, गुरु दर्शन से भी आत्मदर्शन करना था और शास्त्रकेद्वारा भी अपनी आत्मा का स्वरूप समझ कर उस आत्मा को अपने भीतर खोजना था पर अज्ञानी ने देव दर्शन, पूजन, भक्ति कर उन पर श्रद्धान करने से अपने आपको सम्यग्दृष्टि मान लिया, शास्त्र ज्ञान से अपने आपको सम्यग्ज्ञानी मान लिया और गुरु की बाहिरी पुण्य क्रियाओं - व्रत तप उपवास आदि को ही मोक्षमार्ग मान उन्हें अपना कर उनसे स्वयं को सम्यग्वारित्री मान लिया पर असली मोक्षमार्ग की खोज नहीं की । शास्त्रों का इसने खूब अध्ययन किया उनमें यह भी तो कथन आया है कि द्रव्यलिंगी मुनि के सच्चे देव शास्त्र गुरु के मानने पर भी, ग्यारह अंग नौ पूर्व तक का अध्ययन कर लेने पर भी व शुभ क्रियाओं को Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करने व परीवह को सहने की पराकाष्ठा होने पर भी मोभमार्ग नहीं हुवा अतः मोक्षमागं कुछ और ही है' इस कथन पर इसने ध्यान ही नहीं दिया। शास्त्रों में देव गुरु शास्त्र की भक्ति व स्वाध्याय को शुभ राग व पुण्य वंध का और बंध की संसार का कारण बताया गया है और आत्मदर्शन को संवर निरा का व संवर निजंरा को मोक्ष का कारण बताया गया है पर अज्ञानी ने पूजन भक्ति व स्वाध्याय से ही मोक्ष मान लिया और इस रूप में बंध को ही संवर निजंरा मान कर तत्त्वों का सही श्रदान नहीं किया एवं शुभ राग में ही धर्म मान कर आचार्यों के अभिप्राय की ओर दृष्टिपात नहीं किया। आचार्यों ने देव गुरु शास्त्र के श्रदान को कहीं सम्यक्त्व कहा भी है तो वहां उस कथन को ठीक से समझ लेना चाहिए कि सम्यक्त्व तो निश्चय से मात्मदर्शन ही है पर देवगुरु शास्त्र क्योंकि उस आत्मदर्शन में निमित्त पड़ते हैं अतः उन्हें भी व्यवहार से सम्यक्त्व कहा है और निमित्त भी वे हमारे लिए तो तब बनेंगे जब हम उन्हें निमित्त बनाएंगे। शास्त्रों में विवक्षा भंद से अनेक स्थलों पर अनेक प्रकार के कथन मिलते हैं अतः उन्हें ठीक प्रकार से समझ कर बुद्धि में अच्छी तरह बैठा लेना चाहिए कि कहाँ कोन सी विवक्षा से क्या कहा गया है। भगवान आचार्यों ने ग्रन्थों में वर्णन किया है कि शरीर व आत्मा अलग-अलग हैं पर हमें क्या दिखाई देता है। शास्त्रों में तो आचार्यों का अपने जीवन का अनुभव लिखा है और उनका अनुभव पढ़ना हमारे लिए इसी रूप में कार्यकारी है कि कह हमारा भी अनुभव बने। जब वह हमारे जीवन का अनुभव बनेगा तभी हमारी पर पदार्य की पकड़ छूटेगी। जीवन में परिवर्तन तो जो हमें दिखाई देता है उससे होगा न कि जो उनको दिखाई देता है उससे । जो उनको दिखाई देता है वह तो हमारे लिए गवाही बन सकती है। इस प्रकार इस अज्ञानी की अज्ञानता का विस्तार सब ओर फैला हुआ है और स्व को न पहचान कर शरीर व पर पदार्थों को ही ये अपने रूप देख जान रहा है। पांच लम्धि-अपने स्वरूप की जीव को खबर नहीं, सच्चे देव शास्त्र गुरु के स्वरूप को इसे पहचान नहीं, उनको पूजने के प्रयोजन का इसे विचार नहीं। सबसे पहले तो अपने प्रयोजन को ठीक करने पर दृष्टि होनी चाहिए। संसार से वैराग्य पैदा हो, उसमें आकुलता ही प्रतिभासित हो और मोक्ष सुख की चाह पंदा हो। मोक्ष सुख की इच्छा उत्पन्न होगी तो आत्म तत्त्व को जानने की बोर इसका पुरुषार्थ मुकेगा और तब सच्चे देव गुरु शास्त्र का Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) पता लगाएगा कि कहाँ से मुझे तत्व मिल सकता है और उनका निर्णय कर उन्हें भी आत्मा को जानने व पहचानने का ही माध्यम बनाएगा। सच्चे देव गुरु शास्त्र का निमित्त भी बड़े भाग्य से कभी कदाचित् किसी जीव को मिलता है और उसके मिलने के बाद भी आत्मदर्शन का पुरुषार्थ कर आत्म अनुभव कर लेना और भी साहस का काम है, तीव्र रुचि चाहिए उसके लिए । पर इतना क्षयोपशम है प्रत्येक सैनो पंचेन्द्रिय जीव के पास, ज्ञान शक्ति का उघाड़ है इतना कि वह स्वयं को देख जान सके। शक्ति का उघाड़ तो उतना ही है अब चाहे इसे भोगों में लगा दो चाहे स्वभाव में लगा दो, चुनाव करने में ये स्वतंत्र है, यदि इसने इस शक्ति का सदुपयोग न कर इसे भोगों में लगा दिया तो वह घटते घटते अक्षर के अनंतवें भाग रह जाएगी और ये अपने चिर परिचित स्थान निगोद में पहुँच जाएगा और इस शक्ति का सही उपयोग कर उसे यदि स्वभाव में लगा दिया तो वही शक्ति बढ़ते-बढ़ते केवलज्ञान तक पहुँच जाएगी। जैसे किसी के पास एक लाख रुपया है, अब वह उसे कहां लगाए यह उसकी स्वतंत्रता है, यदि उसने सही चुनाव कर उसे ठीक व्यापार में लगाया तो वह एक लाख से बढ़ता हुआ करोड़ों तक पहुँच जाता है अन्यथा एक लाख भी कम होते-होते नहीं के माफिक रह जाता है । अब जीव में शक्ति का सदुपयोग करने की सद्बुद्धि जाग्रत हो, कषायों की मंदता बने, परिणामों में विशुद्धिलब्धि की प्राप्ति हो एवं स्व की खोज की जिज्ञासा इसमें पैदा हो - कि अनादिकाल से इस शरीर को अपनाकर मैं संसार में दुःखों ही दुखों का पात्र बनता रहा हूँ। जन्म के समय मैं इसे अपने साथ लाया नहीं था और मरण के समय ये यहीं पड़ा रह जाएगा तो ऐसा लगता है कि मैं इस रूप नहीं । ये जड़ मुझसे कोई जुदा ही पदार्थ है और मैं चेतन जाति का हूँ। अहो ! मैंने बड़ी गल्ती की जो आज तक इसे अपना मानता रहा । इसको अपना कर मैंने क्या-क्या पाप नहीं किए, अभक्ष्य भक्षण किया, अन्याय रूप आचरण किया। अब मैं कैसे स्व तत्व को सम, कहाँ जाऊं ?' ऐसी पात्रता जब यह जीव पैदा करता है, ऐसी प्यास जब उत्पन्न होती है तो बरसात को आना ही पड़ेगा। कहते हैं जब राजस्थान में धरती बुरी तरह प्यासी हो जाती है तब फट जाती है, अर्थात् वह प्यास के मारे अपना मुंह खोल देती है उस समय वर्षा अवश्य होती ही है उसी प्रकार यहाँ भी ऐसा पात्र जब तैयार होता है तो कहीं विपुलाचल से मेघ गर्जना होनी ही पड़ती है। पात्र ही वर्षा को नहीं खोजता कभी वर्षा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) भी पात्र की खोज लेती है। भगवान सर्वश कहते हैं-'तू अपने पात्र को सीधा नो कर, वां आएगी, जरूर आएगी। अगर पात्र ही उल्टा रखा हो तो बरसात भी क्या करेगी आकर, वह आई हुई भी नहीं बाने के माफिक है और यदि नेरा पात्र सोधा हो तो देशनालब्धि की प्राप्ति तुझे अवश्य होगी, अवश्य ही कहीं किसी कुन्दकुन्द की दया को बहना ही होगा कि यह मोका मत चूक जाना, यह चूक गया तो अनंत संसार में रुलना पहुंगा। अब तो स्वभाव को देख, ज्ञान के उस अखण्ड पिण्ड को देख जो वास्तव में तू है। वर्तमान में तुम में इतनी शक्ति है, गृहस्थी में रहते हुए भी तू स्वयं को उस भगवान आत्मा को आंम्न से नहीं, इन्द्रियों से नहीं, स्वयं से ही देख सकता है। अपने को अपने रूप देखना गृह त्याग की या किसी निन मुनसान वन को अपना नहीं रखता। अभी इसी समय, इसी परिस्थिति में, इसी क्षत्र में तू उस अप्रतिम आनन्द को प्राप्त हो सकता है उस चंतन्य का अनुभव कर सकता है और यही वास्तव में धर्म है। धर्म के साथ कोई ऐसी बात नहीं कि आज करो और फल चार दिन बाद मिलेगा। धर्म रूम तो तुम अभी हा जाओ और अभी शान्ति को प्राप्त कर लो। देख, कहीं एक समय भो, एकक्षग भी. व्ययं न चला जाए। वह कहीं बाहर नहीं, तू हो है इसलिए तू उन पा सकता है। वह इन चमं चक्षुओं से नहीं दोखगा, उस देखने के लिएता भातर को आंख तूने खोलनी ही होगी। भीतरी आंख खानने पर तुझ ज्ञान सा समुद्र स्वयं को आह्वान करता हुआ प्रतीत होगा कि आओ। मुझमें मग्न हा जाओ अनंत काल से भीषण गर्मों में संतप्त हुए तुम घून रह थे और मुझे तुमने पाया नहीं, अब तुमने बड़ यत्न से मुझे पाया, देखने क्या हा दूर से लगा लो डुबको डूब जाओ इस आनन्द के, ज्ञान के सागर मुम्नमें। जैसे काई स्वच्छ निर्मल जल से भरा हुआ तालाब हो और अत्यंत गर्मो में मुलमा हुआ कोई आदमी वहां आए और उसको शोतलता, स्वच्छता व निमलता को देखकर अनायास ही उसके मुंह से निकल पड़े-अरे ! ये तो मुम बला हो रहा है स्नान कर अपना ताप बुमाने के लिए।' इसी प्रकार आचाय कुरकुद कह रहे हैं कि इस अमूल्य अवसर को खो मत देना। कहीं पुण्य क फल में आसक्त मत हो जान. । यह सबसे बड़ा धोखा है जो व्यक्ति स्वयं को दे लिया करता है, इसे तूने अनंत बार भागा है, ज्ञानियों ने, चक्रातियों ने इसे पाप समझ कर छोड़ा है। यह मौका तेरे हाय आया है, 'कथमपि मत्वा' किसी प्रकार से मर कर भी Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस तत्त्व की प्राप्ति कर ले, अगले जन्म पर छोड़ेगा तो अनंत जन्म लेने पड़ेंगे, ज्ञानी की श्रद्धा में एक भी भव नहीं. वह एक क्षण भी ठहरना नहीं चाहता, असमर्थता से चाहे अनेक जन्म धारण करने पड़े। इस प्रकार आ० कुंदकुंद व अमृतचंद्र के समान किसी ज्ञानी को ऐसी दिव्य देशना को मुन कर यदि इसे यह सनझ में आए कि आज तक मैंने बड़ी भूल की थी जो संसार शरीर भोगों को तरफ तो मुंह किया हुआ था और भगवान आत्मा को पीठ दी हुई थी और परमात्मा बनने का ये निर्णय कर अपनी तत्व सम्बन्धी रुचि में तीव्रता लाए तो कषायों में और मंदता पड़, प्रायोग्पलब्धि की प्राप्ति हो और फिर इसका आत्मा के अनुभव का पुरुषार्थ जाग्रत हो । यहाँ तक चार लब्धि हुई, पांचवी करपलब्धि तो तब होगी जब यह अपने को अपने में खोजेगा तब स्वानुभव होगा स्वानुभव ही सम्यग्दर्शन है. वही मम्बग्ज्ञान है, वहीं मोक्ष का माग है, वही सब कुछ है । जाव का कैसे वह सौभाग्य जगे ? कैसे इसको स्वानुभव हो ? इसका मार्ग यही है कि काई आत्मानुभवो गुरु यदि सुलभ हो तो उसके उपदेश से सम्पूर्ण वस्तु तत्व को जान कर (गुरु होना चाहिए अनुभवी हो । क्योंकि जो स्वयं उस मार्ग न गया हो वह दूसरे को मार्ग क्या दिखाएगा) और यदि ऐसा गुरु प्राप्त न हो तो स्वयं ही अध्यात्म ग्रंयों का खव अभ्यास कर उनसे आत्मा के बारे में जान कर अपने भीतर यह आत्मा को देखे । गुरु की इस सम्बन्ध में बड़ी महत्ता है क्योंकि वह जीवंत शास्त्र है, कहीं भी कुछ छोटी सो भो भूल या रुकावट यदि है तो वह हाथ पकड़ कर झट रोक देगा, पर फिर भी ऐसा गुरु यदि उपलब्ध न हो पाए तो भ० कंदकंद को वाणी का तो जोव को सहारा है हो । आत्मा के बारे में पूरी जानकारी अध्यात्म ग्रंथों से हो जाएगी और स्वानुभूति का तरीका भी इसे ज्ञात हो जाएगा वह इसकी बदि में खूब अच्छी तरह बठ जाए कि वस्तु तत्त्व यही है, इसी प्रकार है, दूसरा नहा है और दूसरा प्रकार हो भी नहीं सकता फिर उसके बाद ये अपने अन्दर ही जहाँ वह है उस चैतन्य को देखने का पुरुषार्थ करे, वह देवों का देव इसके भीतर ही विराज रहा है, कहीं बाहर नहीं मिलेगा, भीतर ही ये देख, उसे ढूंढे तो उसको प्राप्ति अवश्य होगी क्योंकि वहाँ वह आप है ही। दो वातों का ज्ञान तो इसे दिया जा सकता है-आत्मा के बारे में ज्ञान एवं स्वानुभव के मार्ग का ज्ञान, पर अनुभव का पुरुषार्थ इसे स्वयमेव ही करना है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) श्रात्मा के बारे में जानकारी संमार में मुख्य दो द्रव्य हैं जीव व पुद्गल । जीव अनन्त है, पुद्गल अनन्तानन्त है। अनादि काल से जीव के साथ द्रव्य कर्म का संयोग पाया जाता है और उस द्रव्य कर्म के उदय में आत्मा के साथ शरीर का व उससे सम्बन्धित अन्य चंतन व अचेतन पदार्थों का सम्बन्ध होता है । यह जीव स्वयं को एक अमृत्तिक चैतन्य न पहचान कर शरीर व पर पदार्थ रूप अपने को मान लेता है तो अनेक प्रकार की इच्छाओं का इसमें जन्म होता है safe आत्मा तो एक त्रिकाली नित्य और ध्रुव द्रव्य है पर शरीर के साथ गंग, जन्म जग, मरण, भूख प्यास सर्दी-गर्मी आदि की अनेक समस्याएँ हैं और उन भूख प्यास आदि के शमन के लिए जीव अनेक इच्छाएं उठाता है । फिर उन इच्छाओं की पूनि में जो कुछ भी सहकारी होता है उसमें यह राग ओर जो कुछ प्रतिकूल पड़ता है उसमें यह द्वेष कर लेता है अतः राग द्वेष आदि अनेक विकारी भाव भी आत्मा में पाए जाते हैं। इस प्रकार अनादि काल से ही जीव के साथ द्रव्यकर्म व उस द्रव्यकर्म के उदय के कारण राग द्वेष आदि भाव कर्म व शरीरादि नोकर्म और शरीर से सम्बन्धित अन्य चेतन व अचंतन पदार्थों का संयोग पाया जाता है। बाहर में चेतन अचेतन पदार्थों का संयोग अपने-अपने पाप-पुण्य के उदय के अनुसार शुभ व अशुभ होता है, शरीर को क्रिया भी शुभ व अशुभ होती हैं और भाव भी शुभ अशुभ दो तरह के होते हैं पर यह सारा काम द्रव्य कर्म के उदय का है, यह समस्त कर्मधारा है इसमें चेतना का अपना कुछ भी तो नहीं । चेतन ज्ञान, दर्शन, मुख, वीर्य आदि अनन्त गुणों का पिण्ड है पर ज्ञान गुण उसमें मुख्य है क्योंकि वह ज्ञान गुण स्व पर प्रकाशक है अतः चेतन ज्ञाता मात्र है और उसका काम मात्र जानने देखने का है । यह ज्ञानधारा चल रही है प्रत्येक व्यक्ति में पर ज्ञान स्वयं को पहचानता नहीं, किसी निद्रा में है. मूछिन है और गहना होकर कर्मधारा में अपनापन मान लेता है । परन्तु कर्मधारा में अर्थात् शुभ अशुभ आदि विभाव और शरीर में अपनापन मानते हुए भी ज्ञान रूप चैतन्य कभी .भी राग-द्वेष रूप या शरीर रूप नहीं होता, सदैव चैतन्य हो बना रहता है जैसे घो के साथ मिट्टी मिली हुई है ओर अब उसको आपने गर्म कर दिया । मिट्टी से मिला होने पर भी घी तो घो हो है, मिट्टी अलग द्रव्य है और घा अलग एवं गर्म होते हुए भी वह घी अपने स्वभाव में अर्थात् चिकनेरने में ही विद्यमान है। गरमपने के अभाव में भो चिकनेपने को अर्थात् घो की उपलब्धि Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (११) है पर चिकनेपने के अभाव में घो को उपलब्धि नहीं अतः चिकनापना ही थी का सर्वस्व है और घी में गर्मी स्वयं से नहीं आई वरन् अग्निजन्य है। यहां दान्ति में मिट्टी के स्थान पर शरीर, चिकनेपने के स्थान में चैतन्यपना, गर्मी के स्थान में भावकमं व अग्नि के स्थान में द्रव्यकम है। मिट्टी और घी के समान शरीर व चतन्य मिलकर एक से भास रहे हैं पर हैं वे पृषक-पृथक् द्रव्य मोर गर्म घी के समान चैतन्य भी राग-द्वेष आदि भावकों से तप्तायमान हो रहा है पर ये सारे विकारो भाव हैं, चेतना के अपने नहीं, द्रव्यकर्म जन्य है, द्रव्य कर्म के उदय से आत्मा में हए हैं अत: पर ही हैं। चीज वहां दोनों हैं शान भी है कर्म भी और देखने वाला यह स्वयं है, इसे स्वयं ही चनाव करना है कि मैं अपने आपको ज्ञान रूप देखू या कर्म व उसके फल रूप । अपने को पर रूप देखना तो संसार, देखना-पढ़ना नहीं, सुनना नहीं, कहना नहीं, मात्र देखना। जोर देखने पर है और अपने को अपने रूपरेखना सो मोक्ष | अपने को अपने रूप देखना ही मोक्षस्वरूप है, मोक्ष का मार्ग है, सम्यग्दर्शन है, स्वानुभूति है। पर से हटना है, अपने में माना है अपने में आना है, पर से हटना है। जब तक ज्ञान मूछित अवस्था में है, मूछित अवस्था का तात्पर्य है कि जैसे मतवाला स्वयं को और अपने घर को नहीं जानता और किसी पर मे अपनापना मान लेता है वैसे ही यह भी किसी पर में शरीर में, पुण्य पाप के उदय में या शुभ अशुभ भाव में अपनापना, अपना मान लेता है-यह मैं और ये मेरा और मैं इनका कर्ता और अशुभ क्रिया व भाव को शुभ क्रिया व भाव में पलटने को ही ये अपना पुरुषार्थ समझता है, इसी को मोक्षमार्ग मान लेता है, कभी ज्ञान को जागृत करने का पुरुषार्थ किया नहीं। ज्ञान के जागृत होने का सम्बन्ध न तो शुभ अशुभ भावों से है न शुभ अशुभ क्रिया से है और न ही क्षायोपशमिक ज्ञान को अर्थात् पर्याय में ज्ञानशक्ति के उघाड़ को बढ़ाने से ही है। अतः सम्यग्दर्शन के लिए शुभ भावों का, शुभ क्रिया का व क्षायोपमिक ज्ञान को बढ़ाने का पुरुषार्थ मही नहीं है। ज्ञान को जागृत करने के लिए तो इसे भीतर में जानने वाले को पकड़ना होगा। शुभ अशुभ भावों व क्रिया में अपनापना न होकर उस जानने वाले में अपनापना, स्वामित्वपना, कर्तापना, एकरवपना आवे तो शुभ अशुभ भाव करने का मिथ्या अहंकार नष्ट हो और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो। प्रत्येक व्यक्ति के प्रति समय तीन क्रिया हो रही हैं-शरीर की शुभ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) या अशुभ क्रिया, परिणामों की शुभ या अशुभ त्रिया और एक ज्ञान की, जानने की क्रिया । क्योंकि जानने की क्रिया इसके पकड़ में नहीं आ रही है और शरीर व परिणामों की पकड़ में आ रही है इसीलिए ये स्वयं को शरीर या परिणाम रूप ही समझ लेता है पर जानने की क्रिया हो रही है प्रति समय । शरीर की कंसी भी स्थिति हो उसका जाननपना हो रहा है ! तभी तो ये वह सकता है कि कुछ देर पहले मैं ऐसे बैठा था। जिस समय उस रूप में शरीर को बैठने की त्रिया हो रही थी उसी समय वो जानने वाला उसे जानता जा रहा था, शरीर की श्रिया व जानने की श्रिया में समय भेद नही । इसी प्रकार परिणामों की भी चाहे कोई अवस्था हो उसका जाननपना भी उसी समय साथ-साथ होता जा रहा है। कोई है वहाँ पर जो सतत जानता जा रहा है कि अभी क्रोध रूप परिणाम थे और अब त्रोध रूप परिणाम नहीं हैं। पूछने पर ये बताना भी है, इसका अर्थ है कि उन सबको जानने वाला कोई वहाँ जरूर होना चाहिए। शोध के सद्भाव में उस जानने वाले ने क्रोध को जाना और उसके चले जाने पर वो अय क्रोध के अभाव को जान रहा है । वह जानने वाला सतत एक रूप से जो कुछ भी परिणमन हो रहा है उसको जान रहा है, जानता जा रहा है। उसका काम मात्र जानने का है । कर्म का फल बदल रहा है पर वह जान रहा है, जानने वाला नहीं बदल रहा है पर वह जन्म को भी जान रहा है और मृत्यु को भी जान रहा है और स्वयं न मरता न जीता है । यह अवस्था, यह जानपना सभी में है पर जानने वाला स्वयं को नहीं देख रहा है । अन्य जो ज्ञेय पदार्थ, अपना विकारी परिणमन, शरीर की क्रिया और शरीर के साथ संयोग- ये सब ज्ञेय हैं ओर वह ज्ञाता है । ज्ञाता का कार्य हो रहा है, नहीं तो इन सबको कौन जान सकता था ? दी है वहाँ पर ज्ञान व कर्म साथ-साथ चल रहे हैं। हर समय सोते-जागते - एक वह है जो सो रहा है एक उसका जानने वाला है, एक वह है जो खा रहा है, चल रहा है, देख रहा है, रो रहा है, देख रहा है और एक वह है जो खाते हुए भी खाता नहीं चलने हुए भी चलता नहीं रोते हुए भी रोता नहीं, कोधादि होते हुए भी क्रोधी नहीं होता, दुःख होते हुए दुखी नहीं होता, सुख होते हुए सुखी नहीं होता, परन्तु सबको मात्र जान रहा है । अब इन दोनों में से जीव को यह निर्णय करना है कि मैं कौन ? क्योंकि आत्म नित्य है अतः मैं जानने वाला ही हो सकता हूँ और ये सारे परिणमन अनित्य हैं निरन्तर बदलते जा रहे हैं अतः में वे नहीं हूँ । यदि मैं इन रूप होता तो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १३) इनके नाश के साथ मेरा नाश हो जाना चाहिए था पर मेरी सत्ता इनके विनष्ट होने पर भी बनी हुई है अतः इन रूप में कैसे हो सकता हूँ। इस प्रकार पहले तो ये विकरप में निश्चित करें कि मैं तो जानने वाला और बाकी सब पर और से निर्णय के बाद अब उस जानने वाले में जहां कि वह है, अपने भीतर - उसमें अपनी सत्ता की अनुभूति करनी है। स्वानुभव के मार्ग का ज्ञान प्रश्न होता है किसी अनभूति कैसे हो? बड़ी कठिनाई आती है। यहीं पर कि जो कुछ भी निशाद में जाना गया है उसे शब्द में कैसे कहें, जो स्वयं निविकल्प रूप है उसे विकल्प में कैसे कहें? पर फिर भी उसकी प्राप्ति के उपाय को कहने का कुछ साहस किया जाता है। हममें मन के विचारों की, श्वास की, वचन की व काय की जो भी त्रिया प्रतिसमय होती जा रही है, चेतना उसकी साक्षीभूत बनी उमे निरन्तर देखती जा रही है पर विचारों आदि को हमने अपना होना समझ लिया है और उस साक्षी को हम पहचानते नहीं अत: आत्म अनुभव के लिए उस साक्षी का अभ्यास ही अपेक्षित है । साक्षी का अर्थ है दर्शन अर्थात् बिना सोचे देखना। साक्षी है निश्चिारदशा। जहाँ मात्र देखना है तो अपने विचारों के या श्वास के या मंत्र वा पूजा का नच्चारण कर उसके साक्षी वन हम अपने चैतन्य में अपनी सत्ता की अनुः भूति कर सकते हैं। मन साक्षी- हमारी जितनी भी आत्म-शक्ति है वह थोड़ी तो शरीर की क्रिया में व्यय हो रही है या कुछ न कुछ बोलने में और अधिक शक्ति मन के द्वारा विचार करने में जा रही है। जो भो शक्ति वाणी या मन में जा रही है उसे ही समेट कर ज्ञाता में, उस जानने वाले में लगानी है। तो एक उपाय है कि मन में कुछ भी भाव चल रहे हैं हम उनको देखना चालू करें। शक्ति वह एक ही है तो जब तक मन के विचार विकल्प चल रहे हैं तब तक ज्ञातापन नहीं और जब वही शक्ति ज्ञाता में लग जाएगी तो विचारों को बंद होना ही पड़ेगा । ये जो विचार हैं ये ही दिन के स्वप्न हैं, ये आँख खोले चलते हैं और रात वाले आँख बंद करने पर चलते हैं, दोनों में कोई अन्तर नहीं। इन विचारों की कोई कीमत नहीं, फालतू है । स्वप्न को जैसे जागकर फालतू समझा जाता है वैसे ही ये विचार बेकार हैं परन्तु इनके होने की कीमत चुकानी पड़ती है। विचार आता है और चला जाता है पर चेतना पर संस्कारों के रूप में अपनी छाप छोड़ जाता है। वे संस्कार भविष्य में फिर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १४) उभरते है और फिर चेतना उम्प में परिमन करती है अतः मन जब तक है तब तक दुःन है, मन जब तक है तब तक नरक है, अब मन का आश्रय छोड़ो, मन की खिड़की से हटो-यही ध्यान का अर्थ है । मन से हटे कि निविकार हए । ध्यान में बैठो और विचारों को देखते जाओ, देखते जाओ, चाह शुभ विचार हो या अशुभ -- उसका कोई भी विरोध न करो कि ऐसा क्यों उ.1 और मा क्यों नहीं उठा, तुम्हारा काम है मात्र जानना, उस जाननपने पर जोर देते जाओ, तुम उन विचारों को न तो करने वाले हो, न रोकने वाले, तुम तो उन्हें मात्र जानने वाले हो, अपना काम किए जाओ। तुम मन नहीं, तुम देह नहीं, जरा भीतर सरक जाओ और देखते रहो। मन का कहो-'जहाँ जाना हो जा, जो विचार उठाने हैं उठा, हम तो बैठकर तेरे को देखेंगे।' जमे ही यह कह कर देखना चाल किया तुम पाओगे कि मन सरकता ही नहीं। तुम करके देखना, आज ही करके देखना, यह मन अब अन्तिम विकल्प उठाएगा कि छोड़ न, किसमें लग गया तू, पहले ही ठीक था, सब बातें मुठो हैं। पर तुम्हें इस मन से ऊपर उठना है। अगर तुमने धैर्य रखा और देखते ही गए तो तुम पाओगे कि कभी-कभी कुछ होने लगा, बरसात की फुहार का मोका आया, एक क्षण के लिए शून्य हो जाता है, निविचार हो जाता है। अगर ऐसा हुआ तो चावी मिल गई कि निर्विचार हा जा सकता है और जो एक क्षण के लिए हो सकता है वह एक मिनट के लिए, एक घण्टे के लिए, एक दिन के लिए व हमेशा के लए क्यों नहीं ? पहले बंद-बंद बरसेगा फिर एक दिन तूफान आ जाएगा, बाढ़ आ जाएगी। तब क्या होगा ? वह होगा जो आज तक कभी नहीं हुआ था। मालूम होगा कि भीतर कोई जागा हुआ है, बाहर में सोए हुए भी वह जागा मालूम होगा, चलते हुए भी अनचला मालूम देगा, बोलते हुए भी अनबोला दिखाई देगा, बाहर में सारो क्रिया होगो पर उसमें कुछ भी होता मालूम न होगा। जिस क मौजूदगी में तुम शान्त होने लगो, जब चश्मे को तरह मन को उतार कर अलग रखा जाने लगे, जो विचारों से बार-बार हटाकर तुम्हें भीतर पहुंचाने लगे वही साक्षी भाव है। साक्षी को गैर मौजूदगी ही मन है। जब साक्षी सोता है तो मन अपना काम करता है। जहाँ तुम बगे सावधान हए, साक्षी बने वेसे हो पाओगे कि मन गया। तुम्हारा संसार तुम्हारे मन में है, साक्षी हुए, मन गायब हो जाता है। मेटोगे किसको ! जब तुम हो तब वह नहीं और जब वह है तब तुम नहीं। जब तक मन के विचारों में तुम्हें रस आ रहा है, Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) रखा है तब तक तुम्हें रस आ रहा है तब तक जैसे ही तुमने मन से पीठ की वंसे ही तुम सन्मुख हो जाओगे, सारे विचार विकल्प गायब जाएगा और मात्र एक जानने वाला रह जाएगा, उनकी ओर तुमने मुंह कर ही उन्हें बल मिल रहा है, उस साक्षी के, आत्मा के हो जाएंगे, सब शून्य हो तभी अपना दर्शन होगा । मंत्र व श्वास साक्षी - णमोकार मंत्र का उच्चारण करो और अपने ही कानों से सुनो। जहां मन और कहीं गया, सुनना बंद हो जाएगा। बार-बार सुनने को चेष्टा करो। अगर कुछ देर तक सुनना चालू रहा तो बोलना मंद होने लगेगा, उपयोग में स्थिरता आने लगेगी, विचार जो भीतर में चलते थे रुक जाएंगे, मात्र मंत्र का बोलना और सुनना चालू रहेगा। चेतना की शक्ति सुनने में लगेगी तो बोलने में कम होने लगेगी, बोलना सूक्ष्म से सूक्ष्म होकर जीभ हिलनी भी बंद हो जाएगी परन्तु मंत्र का उच्चारण अंतर में चलेगा और सुनना भी अंतर में चालू रहेगा। इससे आगे बढ़ोगे तो मंत्र रुक जाएगा आर श्वास का आना-जाना जो अभी तक कभी अनुभव में नहीं आया था, मालूम होने लगगा परन्तु तुम श्वास लेने वाले मत बन जाना, श्वास का जानने वाले ही रहना । काफी दिन तक इसका अभ्यास चालू रखना होगा । निरन्तर अभ्यास करते रहोगे तो शांति मिलने लगेगी, परमात्मा के आनन्द का झोंका आने लगेगा, सागर तो अभी नहीं दिखा परन्तु ठण्डी हवा तो लगने लगेगी, रस आने लगेगा परन्तु रुकना मत, कुछ होने वाला है, पानी से भरे हुए बादल आ गए हैं, बस अब थोड़ी ही देरी है, बाहर से हट गए, इन्द्रिय के विषयों से हट गए, इन्द्रियों से हट गए, मन से हट गए अब श्वास पर आकर रुके हैं । जहाँ ज्ञाता पर जरा जोर पड़ा कि श्वास से हटे और तब मात्र एक अकेला वह चैतन्य अनुभव में आता है । -- पूजा व स्तुति साक्षी - पूजा करो और सुनने को चेष्टा करो, स्तुति बोलते हुए उसे सुनने की चेष्टा करो। सुनने की चेष्टा करने पर मन का व्यापार रुकेगा । मन द्वारा जो शक्ति फालतू की बातें सोचने में जाती थी वही सुनने में लग जाएगी। बाहर में पूजा व स्तुति चल रही है और भीतर में उसका जाननपना चल रहा है, चलता जा रहा है, इन दोनों क्रियाओं के बीच में। क्योंकि मन के कोई विचार विकल्प नहीं रहते अतः शांति का अनुभव होता है । जानने वाले पर यदि जोर देते जाओगं तो पूजा व स्तुति का बोलना मंद होता होता एक समय बन्द हो जायेगा और तब मात्र एक अकेला चैतन्य तुम्हारे अनुभव में आ जायेगा, वहां शरीर नहीं, कर्म नहीं, कोई Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्द नही, कोई विकल्प नहीं, गग-द्वेषादि कुछ नहीं, कोई मैं नहीं, मात्र एक अकला वह तन्य अपनी निगली महिमा को लिए विराज रहा है। इस प्रकार किसी भी क्रिया का माध्यम बना उसका साक्षी बनते. बनते जीव को अनुभूति जाग्रत होती है और तब इमे पता चलता है कि अरे ! मैं ना यह जानने वाला था, आज तक मैं कमा मतवाला गहला हो रहा था जो मैंने सबको जाना, जानने वाला जो है उमको ही नहीं जाना था, स्वयं को जाना ही नहीं था, यह नो प्रत्यक्ष ही था पर मेरे न देखने के कारण यह आवत था। जैसे कोई स्वप्न में उठकर अपने दुख को खो बैठता है वैसे ही यह जाग जाना है और इसकी अनादिकालीन दरिद्रता ममाप्त हो जाती है। माक्षी भाव ही एक मा उपाय है. जिमन कपाय हटता है, इन्द्रियों को आधीनता समाप्त हाना है, जो अपना है वह रह जाता है और जो अपना नहीं वह जाने लगता है। उम अनुभव में जो आनन्द प्राप्त होता है वह कहने की वस्तु नहीं, वह ना गृग का गृह है। गंग का गुड़ का स्वाद तो प्रत्यक्षही आया है पर वह उमे जिह्वा में बना नहीं सकता। और ऐसा अनुभव इमक्षत्र में, दम काल में बालक, जवान, वृद्ध, स्त्री व पुरुष मभी के घर में रहते हा भी हो सकता है और तो आर पशु के भी हो सकता है और इम अनुभव के बाद वह पग भी ज्ञानी कहलाने लगता है, मोक्षमार्गी हो जाता है। अनुभव के लिए गुरुपाय व धेयं का अत्यधिा आवश्यकता है । यदि ये धंयपूर्वक प्रयत्न करना हो जाए तो अनुभूति होनी ही पड़ेगी। क्योंकि वह स्वाधान चोज है। व.को मागे वम्मा का प्राप्त करने के लिए तो कर्म का महमाव अक्षिा है आर इसने अभाव चाहिए पर जोव का पुरुषार्थ ज्ञाता पर जोर देना मात्र है, जाननाने में आना सर्वस्व स्थापित करता है, अनुभूति हुई कि नहीं इस पर दृष्टि नहीं रहनो चाहिए । यह मन बहत चालाक है, ज्ञातापने मे डिगाने के लिए यह विकल उठता है कि तुम्हें तो स्थानुभूति गानो थो, देखो नो सही यह हुई कि नहीं, यह क्यों नहीं हो पा रही है, क्या कारण है ? यह मन प्रलोभन देने में बहुत पक्का है। तुम इसकी मुनना मत, इमकी मुनने बैठे तो विकल्पों में ही ठहर जाओगे और अनुभूति की तो बात ही दूर, ज्ञानापने में भी वंचित रह जाओगे। तुम तो जानने वाले पर ही जोर देने के पुस्पार्थ में संलग्न रहना एक दिन स्वानुभव तो स्वयमेव ही अनायाम हो जाएगा, तुमने कभी सोचा भी न होगा, कल्पना भी न की होगी कि ऐसा भी कभी हो सकता है। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामी कोरसा : . शानी को स्वभाव के आनन्द का अनुभव हुआ है, स्वरूप के आनन्द सागर में गोते लगा डुबको मार मारकर वह बारम्बार शीतलता का अनु. भर करता है और जब उस सागर की सतह पर आ संसार पर इसको दष्टि जाती है तो सारा जगत इसे सोया हुआ प्रतीत होता है मानो यह किसी गाढ़ निद्रा में लान हो ओर बाहरो सब कुछ इसे ऐसा भासता है जैसा दिन में देखा जाने वाला स्वप्न हो । रात को हम स्वप्न देखते हैं, सुबह उठकर पाते हैं कि वह तो सब झूठ था, विशेषता यही कि जिस समय वह स्वप्न देखा जा रहा था उस समय वह सत्य ही लग रहा था पर जब नींद खुली, जागृति आई तब समझ में आया कि वह तो स्वप्न था, स्वप्न को स्वप्न जान लिया, बस खत्म हो गई बात, इसके आगे उसको कोई व्याख्या नहीं होती। इसी प्रकार उस सम्यग्दष्टि ज्ञानी को भी मोह निद्रा जिसमें वह चिरकाल से सो रहा था, समाप्त हुई। जिस समय वह नींद में था उस समय संसार उसे वास्तविक ही दिख रहा था पर जागते ही वह सब स्वप्नवत भासने लगा। सात तत्व गुणस्थानों की परम्परा- अज्ञान दशा में जब यह स्वयं को कर्म व उसके फल शरीर रूप देखता था अर्थात् जीव जब स्वयं को अजीव रूप देखता था तो आत्मिक शक्ति के कर्म में लगने से आस्रव व बंत्र होना था और कर्म की हो बनवारी होती थी, अब इसने अपने आपको ज्ञान रूप, आरूप देखना प्रारम्भ किया तो आगामी जो कर्म आते उनका आना रुक गया अर्यात संवर हो गया और पहले वध हए कर्मों की निर्जरा प्रारम्म हा गई। अब यह उपयोग को अंतर में जोड़कर शांत रस में बारबार स्थिर होता है परन्तु वहां, अपने स्वभाव में अधिक देर ठहर नहीं पाता, इसके दर्शन मोह (मिथ्यात्व) व अनंतानुबंधी कपाय तो चली गई पर अभी कषाय को अप्रत्याख्यान आदि तीन चौकड़ी शेष हैं, चारित्र मोह का सद्भाव है। पर के मालिकरने का, स्वामित्वपने का राग तो इसके नहीं रहा पर असमर्थता का राग अभी भी बाकी है अत: वह गग इसे भीतर से बाहर खींच ल.ता है और वहां पुराने संचित कर्म का उदय भी आता है क्योंकि यह अनंत-अनंत जन्मों का इकट्ठा किया हुआ है पर अब यह इसको जानने वाला तो रहता है, कर्म के फल रूप नहीं होता, अब कर्म में इसका अपनापना, कर्तापना, अहंपना नहीं रहा, इसका महंपना तो अपने में, चैतन्य में, Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१८) भाता इप्टा में आ गया। अब मे भीतर का स्वाद आ गया, वास्तविक मोक्षमार्ग का ज्ञान हो गया। रागवश बाहर जाता है पर फिर अपने को मावधान कर भीनर में जाने की कोगिन करता है. फिर बाहर जाता है, फिर भीतर का पृरुपाचं करना है और प्रेमा करते-करते ही इसका भीतर गहने का समय बढ़ने लगता है और बाहर जाना, पर में उपयोग जाना घटने बगना है, और दिनमी में नया स्थिति हो जाती है। जैसे किमी बन्न वामहमउगनी ने की आदन पर गई। बार-बार समझाए जाने पर भी उसकी ममममहीन बंटना था कि यह आदत गदी है और अब नब ग्यय उसकी ममल में न बंट किटम मुझं छोड़ना चाहिए तब तक नो उमनपा प्रमही नहीं उटना पर एक दिन बार-बार मनते-सुनते उसको ममान में आया कि यह आदत बहन बर्ग है । अब वह दम विषय में गावधानी बनना है कि महम उगली न जाए पर जंग ही जग मी अमावधानाहानी है फिर वह ग्वभावन अन्दर पहन जानो है, फिर मावधान होकर उग बाहर निकालना है और नामम्बधी मावधानी बनाने का निम्तर परुपा करता है, और माकन-निक गजबह पाना है कि अब पूर्ण जागतिहाग और अय अगनी ममबल नही जानी, अब आदन पूर्ण. मेष ट ग :मी प्रसार जानी क. भी ग्वाप में रमणता बढाने-बनाने कपाय घटने लगती है और पूर्व मानन कमां का निजंग होती चली जाती है ओर आगामी आमय बध ग हो ही नहीं रहा है क्योंकि आयव बध का मनन कर में अपने पाप अजानना थी वह उसके नष्ट हो गई । जो कुछ पारा आम बध होना भी है. वह तुच्य है, उसको यहाँ गिनती में नहीं लिया गया) और दम प्रकार निजंगहात होत जब इसकी आत्मा में लीनता पाती। तो बाहर में भी प्रत, प आचरण होता चला जाता है, भीतर में जितनी स्थिरता बनमी उनना बाहर में परिवर्तन आना ही पड़ेगा और हम प्रकार इमक गुणस्थाना में बढवाग होती चली जाती है और समने मचित कर्म नष्ट होकर दमकी कामं में मांस हो जाती है. मात्र एक अकेली बतना अपने मृद स्वरूप में विगबनी हुई बाकी बच रहती है। मातापने को सहज किया--मानी बारम्बार अनुभूति करने का नहीं बन जाता प रहने का ही पुरुषार्थ करता है और उसे 'मैं जाता है. में जातामा विकल्प नहीं करना परता। दोपक जल रहा है, वह यह विकल्प नही करना वि. मे प्रा कर रहा है. मैने हनने पदार्थों को प्रकाशित किया, अभी वकयों निकला था उस भी मैन प्रकाशित किया पा' Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९) वह तो कह रहा है कि मैं तो मात्र प्रकाश रूप हूँ। इसी प्रकार जानो को भी सातापने को स्वाभाविक स्थिति बनती है, वह सबको जानता रहता है। वह बार-बार मातापने से हटना है, मन से जुड़ जाता है, विचार चालू हो जाते हैं फिर स्वयं को टोकता है. सावधान हो जाता है और श्वास के साक्षी रहने का और शरीर को सागे क्रियाओं का चलते-फिरते, उठते-बैठते साक्षी रहने का ही प्रयास करना है. माक्षीभूत रहते-रहने अनुभूति तो कभी स्वय. मेव ही हो जाती है। अनुभूति व ज्ञानापने में अन्तर यही है कि अनुभूति में तो मात्र एक अकेला चैतन्य हो रह जाता है, मन, श्वास, शारीरिक क्रिया आदि किसी पर भी दृष्टि नहीं रहती पर ज्ञातापने में भीतर में जानने वाला और बाहर में श्वास या कोई शारीरिक क्रिया या बोलने की क्रिया-ऐसे दो रहते हैं. मन नहीं रहता। जहाँ ज्ञानापना होगा वहाँ मन तो रह हो नहीं सकता क्योंकि शक्ति तो वही है, यदि वह मन में लग जाएगी तो जाता में कहाँ मे लगेगी, हाँ शरीर की कोई क्रिया या श्वास को क्रिया जाननपने के साथ भी बनी रह सकती है क्योंकि इन क्रियाओं में चेतना की बढ़त थोड़ी सी शक्ति लगती है पर मन के विकल्पों में तो अत्यधिक शक्ति खर्च होती है। नानी नाम काही कर्ता-शानी के भी ज्ञान धारा व कर्मधारा दोनों चल रही हैं पर वह ज्ञानधारा का ही मालिक है। कर्मधारा का कार्य हो रहा है पर ज्ञानी उसका जानने वाला ही है, कत्ता नहीं हैं, कर्मधारा में उसके अहंपना नहीं हैं। जैसे हम दूसरे आदमी को देखते, जानते हैं, उसके क्रोधादिक को भी देखने हैं और शरीर की अवस्था को भी देखते हैं परन्तु उस रूप नहीं होते मे ही यह भी दूर खड़ा होकर कर्मधारा को देखता है पर उसे अपने रूप नहीं करता अनः अब ज्ञान अपना ही कर्ता भोक्ता है कर्म के कार्य का कर्ता भोक्ता नहीं। सोने में यदि चांदी मिली हो तो भी वह शुद्ध स्वर्ण की दष्टि से तो खोट ही कहलाएगी, उसे ऐसा नहीं कहेंगे कि यह चांदी की है तो कुछ अच्छी है। मोक्षमार्ग में भी मात्र शुद्ध स्वर्ण को, शुद्ध बात्मा को ग्रहण करने की दृष्टि है अतः समस्त कर्म ही संसार को बढ़ाता है चाहे वह कितनी ही ऊँची से ऊंची जाति का हो, तीर्थकर प्रकृति ही क्यों न न हो। 'जितना ज्ञान रूप रहना उतना मोक्ष, जितना कम उतना संसार' यह वस्तु तत्व ज्ञानी के अच्छी तरह समझ में आ गया अतः अभी तक जो शक्ति कर्म के करने में लगती थी वही अब शान में, उसे जानने में लगने लगी अतः मानी शान का कर्ता हो गया और उसी का भोक्ता कहलाया, कर्मव उसके फल का कर्ता व भोगना न रहा। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२०) म्य दृष्टि, पर्याय दृष्टि-जब तक यह अज्ञानी था तब तक अपने आपको मात्र पर्याय प ही देखता जानता था, पर्याय दष्टि का ही इसे एकान्त था, द्रव्य स्वभाव का इमे जान ही न था और आत्मा है द्रव्य-पर्याय रूप अत: वस्तू का मम्यक परिज्ञान न होने के कारण यह मिथ्यादष्टि कहलाता था। चेतन द्रव्य दृष्टि से त्रिकाल शुद्ध और एक अकेला है पर पर्याय दृष्टि से देख तो अशद्ध हो रहा है और शरीर, कर्म आदि अनेक संयोगों को प्राप्त हो रहा है अतः जीव को दोनों दृष्टियों का ज्ञान होना चाहिए और वस्तु का पर्याय रूप तो ये अनुभव अनादि काल से कर ही रहा है, वस्तु का द्रव्य कप भो अनुभव इसे होना चाहिए। अब आचार्यों के सम्यक उपदेग मे जब द्रव्य स्वभाव का ज्ञान कर द्रव्य रूप इसने वस्तु का अनुभव किया नो इसका ज्ञान यथार्थ हुआ और ये ज्ञानी कहलाया और पर्याय में एकत्व बद्धि छुट गई। ग्य दष्टि के बल से भय, इच्छाब कषाय के प्रयोजन का प्रभाब-अजान दशा में वस्तु को मात्र पर्याय रूप ही देखने से आकुलता के सिवाय और कुछ इसके हाथ न लगता था क्योंकि सप्त भयों से यह निरन्तर घिरा रहता था-मरण का डर, पुण्य के उदय में पाप का उदय आने का हर, मख में दुःखी हो जाने का डर, सम्मानित है तो अपमान का डर आदि और इच्छा व कपाय करने का प्रयोजन भी इसके बना हुआ था। सारी स्थिति सब तरह से अनुकल बनी रहे इस बात की इच्छा एवं इच्छा को प्रति न होने पर क्रोधादि कषाय रूप परिणमन हो हो जाना था। अब ज्ञानी होने के बाद जब इसकी द्रव्य दृष्टि जाग्रत हई, इसने अपने आपको ज्ञान रूप जाना, निज भाव रूप देखा तो पाया कि मैं तो एक अकेला चतन्य है, बस इतना ही हूँ, ऐसा ही अनादि काल से हूं और अनन्त काल तक ऐसा ही रहूंगा। जब स्वयं को ऐसा अनुभव किया तो कुछ भी होने का सवाल ही नहीं रहा, कोई भय न रहा एवं इच्छा व कषाय करने का प्रयोजन भी चला गया। जब शरीर मेरा है नहीं और मेरा मरण है नहीं तो मरण का भय कैसा ? अपना वैभव, आत्मा के अनन्त गुण अपने पास है, अन्य सांसारिक वैभव अपना हो ही नहीं सकता तो वैभव की इच्छा कसे हो ? अपना सब कुछ अपने में हैं, चेतना के अनन्त गुण ही मात्र मेरे हैं, वे कहीं बाहर जा नहीं सकते और बाहर से उनमें कुछ भी आकर मिलने वाला भी नहीं तो तो अन्य धन, परिवार आदि सबको चाह कैसे हो? इसी प्रकार मेरा कोई अनिष्ट नहीं तो क्रोध किस पर करूं? कोई मुझसे बड़ा-छोटा नहीं तो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२१) अपमान सम्मान कैसा? कोई इष्ट नहीं तो राग किससे एवं कोई अनिष्ट नहीं तो देष किस से ? इस प्रकार निज का आश्रय लेने वाले के कषाय करने का भी अभिप्राय नहीं रहा। जैसे एक दीपक एक झोपड़े में जल रहा है वह यदि स्वयं को दीपक रूप न देख कर सोपड़े रूप माने तो उसे झोपड़े के चले जाने का निरन्तर भय बना रहेगा, मोपड़े सम्बन्धी हजारों चिन्ताएँ व इच्छाएँ उसमें जन्मेंगी, अन्य महल में जल रहे दीपकों से देष होगा एवं स्वयं के मोतर महल में जाने का राग उपजेगा परन्तु यदि वह स्वयं को झोंपड़े रूप न देखकर अपने रूप, दीपक रूप, ही देखे तो न तो झोपड़े सम्बन्धी कोई भय या चिन्ता रहेगी, न महल में जाने की इच्छा होगी और न ही अन्य महल वाले दीपकों से द्वेष होगा, वह तो स्वयं को मात्र झोपड़े को प्रकाशित करने वाला, जानने वाला हो देखेगा परन्तु उस रूप नहीं।। पर्याय की सारी कमी अपनी बजाता रूप रहने से उसका प्रभाव शानी को द्रव्य दृष्टि जागति हुई और वह स्वयं को ज्ञान रूप ही देख जान रहा है। द्रव्य दृष्टि से तो वह शाता ही है और जब तक साधक रूप अवस्था है तब तक ज्ञान रूप रहने को ही अपना कार्य समझता है पर द्रव्य दृष्टि का भी एकान्त नहीं करता, पर्याय को भी जानता है और जितनी पर्याय में कमी है उसे अपनी कमजोरी व गस्ती मानता है और उसका कारण पर्याय में होने वाले विकार को जानता है, पर्याय दृष्टि से विकार से हटना भी चाहता है एवं बार-बार द्रव्य स्वभाव का अवलम्बन लेकर अपनी उस कमजोरी को दूर करने का पुरुषार्थ करता है। ज्ञाता बनते ही विकार दूर होने लगते हैं, क्रोध का ज्ञाता होते ही क्रोध का अभाव होने लगता है, वह अदृश्य हो जाता है, कामवासना का ज्ञाता होते ही उसका अभाव होने लगता है, वह बर्फ की भांति पिघलने लगती है क्योंकि विकार व वासना तो चेतना के सहयोग के कारण ही फलते-फूलते हैं और जब चेतना का सहयोग नहीं रहता तो वे नष्ट प्रायः हो जाते हैं । द्रव्य दृष्टि से तो आत्मा त्रिकाल शुद्ध है ही, पर्याय में अशुद्ध थी और वह पर्याय की अशुद्धता उस शुद्ध द्रव्य के निरन्तर अनुभव से कम होती हुई एक दिन समाप्त हो जाती है और तब पर्याय के भी शुद्ध हो जाने पर द्रव्य परिपूर्ण शुद्ध हो जाता है। दोनों दृष्टियों का मान-पर 'जीव शुद्धता के लिए पुरुषार्थ करता है' यह बात भी पर्याय दृष्टि से कही जाती है, द्रव्य दृष्टि से तो वह उसका Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२२) भी ज्ञाता हो है, उस परिणनि का भी कर्ता नहीं। द्रव्य दृष्टि से न उमे इच्छाओं का कता कहते हैं न कषायों का, परंतु पर्याय में अभी भारी कमजोरी है, बहुत पराधीनता है अत: इच्छाओं और कषाय का सद्भाव पाया जाता है। द्रव्य दृष्टि के विषय को पर्याय में और पर्याय दृष्टि के विषय को द्रव्य में नहीं मिलाना चाहिए । द्रव्य दृष्टि से जीव मात्र ज्ञाता है और पर्याय दष्टि में मारी जिम्मेवारी उसकी अपनी है। पर्याय में पश्चात्ताप भी आता है कि मेरी मी परिणति क्यों हुई? कर्म का नाश तो द्रव्य दृष्टि के बल पर होगा पर पर्याय दृष्टि के ज्ञान के बल से स्वच्छंदीपना नहीं आएगा। मानो का पर्याय में विवेक-ज्ञानी ज्ञान का ही मालिक है, उसके मिवाय अन्य कुछ कर नहीं सकता पर अभी अधूरी अवस्था है इसीलिए पर्याय में इतना विवेक उसे है कि तीव्र कषाय से हट कर मंद व.षाय रूप रहने की चेष्टा करता है परन्तु उसे मोक्षमार्ग नहीं मानता, राग का ही कार्य जानना है । आत्मबल की कमी के कारण निर्विकल्पता नहीं बन पाती और विकल्पों में जाता हो है तो अन्य लौकिक बातों से बच कर देव, शास्त्र, गुरु में ही लगने की चेष्टा करता है और लौकिक में भी तीव्र कषाय गभित विकल्प न उठा कर मंद कपाय वाले ही उठाता है। जैसे कोई व्यक्ति जा रहा है, उसको देखकर हम यह विकल्प भी उठा सकते हैं कि 'बड़ा आदमी हा गया, अब क्यों हमारी तरफ देखता' और यह भी सोच सकते हैं कि 'जल्दी में होगा इसीलिए नहीं देखा। प्रत्यक्षतः पहला विकल्प दूसरे की अपेक्षा अधिक कषाय को लिए हुए है, तो जानी दूसरी प्रकार के विकल्प में हो जाएगा। उसका सोचने का ढंग ही अज्ञानियों से निराला हो जाता क्योंकि उसे वस्तु तत्त्व समझ में आ गया कि परिस्थिति तो मुझे कषाय कराती नहीं, मैं स्वयं ज्ञाता रूप रहने को अपनी असमर्थता के कारण परिस्थिति से जड़कर विकल्पों में बह जाता है और उसके फलस्वरूप स्वयं ही अपनी चेतना का घात कर बैठता हूँ अतः अपेक्षाकृत मंद कषाय वाले विकल्प ही क्यों न उठाऊँ जिससे मेरे आत्म-स्वभाव का कम घात हो।' द्रव्य दृष्टि से जानी ज्ञाता रूप ही रहने का पुरुषार्थ करता है पर पर्याय दृष्टि से अपनो कमजोरी और न बढ़े इसके लिए बाहरी व्रत तप क्रिया को भी अंगीकार करता है जैसे यदि शरीर में १०२ को बुखार है तो उसके लिए दो प्रयत्न किये जाते हैं-बखार आगे और न बढ़े इसके लिए परहेज और जितना है उतना भी खत्म करने के लिए दवाई। उसी प्रकार शानी भी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जितना विकार है उसको दूर करने के लिए जाता रूप रहता है और उस विकार से और ज्यादा न बढ़ जाए इसके लिए शरीराश्रित प्रत तप बादि क्रिया भी करता है पर उन क्रियाओं में भी उसके ममत्व नहीं होता, जब शरीर में ही ममत्व न रहा तो उसके आश्रित क्रियाओं में ममत्व कैसा? इन क्रियाओं में वह खंचतान भी नहीं करता। जब देखता है कि इन्द्रियों और मन चंचल हो रहे हैं तो उपवास करता है और जब उन्हें शिथिल देखता है, अपने ध्यान अध्ययन में कमो आते देखता है तो भोजन का ग्रहण करता है। सब परिवर्तन बमाचरण स्वाभाविक-ज्ञानी को वस्तु स्वरूप अनुभव में आ गया अतः उसके जीवन में परिवर्तन निश्चित रूप से आता है पर वह सारा परिवर्तन स्वाभाविक होता है। हम यदि ऐसा कहें कि पर पदार्थ मेरा नहीं है पर अनुभव में यही आए कि है तो मेरा ही तो फिर हमारा जीवन बदलेगा नहीं और यदि बाहर में कुछ परिवर्तन दीखं भी तो वह लाया हुआ ही होगा, आया हआ नहीं एवं लाया हआ आवरण वास्तविक नहीं होता और इसके लिए निरन्तर चिन्ता रहती है जैसे कोई स्त्री ऊपर से बहुत ज्यादा शृंगार करके जा रही है तो वह चूंकि उसकी स्वाभाविक मुन्दरता नहीं है अतः उसे बार-बार दर्पण में मंह निहारना पड़ता है कि कहीं कुछ बिगड़ तो नहीं गया, निरन्तर उसे उसको ही चिंता रहती है। पर ज्ञानी का आचरण ऊपर से ओढ़ा हुआ नहीं होता, उसे बार-बार यह देखना नहीं पड़ता कि कहीं कोई कुछ गल्ती तो नहीं हो रही। सम्यग्दर्शन के आठ अंग उसे पालने पड़ते हों ऐसा नहीं वरन् वे स्वतः हो पलते हैं। वह बाहरी पर पदार्य में सुख दुःख नहीं मानता, ऐसा नहीं वरन् उसके पर पदार्थ में सुख दुःख पैदा ही नहीं होता। बहरी कृत्यों से जानी जानीपने का माप नहीं-जोव को बाहर की दशा व कृत्यों से उसके जामी अज्ञानीपने का माप नहीं किया जा सकता। हो सकता है अज्ञानी के कृत्य ज्यादा शभ दिखाई दे और ज्ञानी के अशुभ । जानी अज्ञानीपने का सम्बन्ध तो भीतर ज्ञान की जागृति व मूर्छा से हैं। यदि बाहर में जानी अज्ञानी दोनों के कृत्य एक जैसे भी दिखाई दे रहे हैं तो भी भीतर में उन दोनों के अभिप्राय में महान अन्तर है । ज्ञानी उन कृत्यों को करना नहीं चाहता, उसकी रुचि नहीं है उनमें, रुचि तो नसकी मात्र ज्ञाता रूप रहने में ही हैं। कर्म के उदय की बरजोरी में काम करना और चाह करके करना दोनों में महान अन्तर है। पहले भाकपी ली और अब उसका Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) मैशा चढ़ा तो झूम रहे हैं पर अब वह यदि यह चाहे भी कि मुझे नशा न गढ़े तो यह सम्भव नहीं। तो इस ज्ञानी ने भी पहले जो मोह को भांग पी थी उसका अभी इसे नशा चढ़ा हुआ है और अभी भी यह झूमता हुआ पाया जाता है पर भीतर में उस नशे को हेय हो समझ रहा है और चाहता भी यही है कि कब यह नशा खत्म हो और एक समय ऐसा आएगा हो कि नशा खत्म होगा और आगे यह भांग पिएगा नहीं तो हमेशा के लिए स्वस्थ हो जाएगा, स्व में स्थित हो जाएगा। पर यह नशा तो जब खत्म होगा तब होगा अभी बाहर से देखने वाले को तो वह झूमता हुआ ही दिखाई दे रहा है, परिवर्तन जी बहुत बड़ा उसमें आया है उसे तो वह स्वयं ही जानता है, वह उसके भीतर की वस्तु है और अभी वह बाहर दिखाई देगा नहीं। बाहर में तो जब व्रती या मुनि अवस्था आएगी तभी वह प्रगट होगा । वचन से भी ज्ञानी अज्ञानीपने का माप नहीं-ऐसे ही ज्ञानी अज्ञानीपने का सम्बन्ध मुंह से क्या कहा जा रहा है इससे भी नहीं। हो सकता है कि ज्ञानी मुंह से शरीर को अपना कहे, स्त्री पुत्र आदि को अपने कहे पर ऐसा कहते हुए भी दिखाई उसे वे पर ही दे रहे हैं और अज्ञानी मुंह से चाहे उन्हें पर कहें कि ये मेरे नहीं पर दिखाई उसे वे अपने हो देते हैं। लोक में इसके उदाहरण भी पाए जाते हैं। हम दूसरे के बच्चे को लेकर जा रहे हैं, रास्ते में किसी ने पूछा- 'किसका बच्चा है ?' हमने कहा- 'अपना ही है।' उस बच्चे को अपना कह रहे हैं पर वह अपना मात्र कहने भर को ही है, दिखाई वह पर का ही दे रहा है। ऐसे ही हमारा अपना कोई बच्चा है, उसमे खूब लड़ाई झगड़ा हो गया और हमने कहा कि आज से तेरा हमारा कोई सम्बन्ध नहीं और वह अलग भी रहने लगा। मुंह से कुछ ही कह दें पर हृदय निरन्तर यहो कहता रहता है कि कुछ ही कह ले, है तो अपना ही और कल को यदि किसो दुर्घटना के वशीभूत वह बहुत घायल हो जाए तो खबर लेने पहुँच हो जाएँगे उसके घर या हो सकता है कि तीव्र कषायवश न भो जाएं पर ध्यान निरन्तर वहीं का ही लगा रहेगा। जब लौकिक में यह सम्भव है तो परमार्थ में क्यों नहीं ? ज्ञानी वचन व काय से लौकिक व्यवबहार बलाता है पर मन उसका चेतना से ही जुड़ा रहता है। संसार नाटकदत् - क्योंकि ज्ञानी का मन निरन्तर बेतना से ही जुड़ा रहा है अत: यह संसार उसके लिए नाटक का रंगमंच हो जाता है और स्वयं को वह नाटक का एक पात्र मात्र देखने लगता है। नाटक में जिस Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २५) समय अभिनेता अभिनय कर रहे हैं उसी समय वे स्वयं भी अपने उभं अभिनय के दर्शक भी होते हैं। अभिनय करते हुए भी वे जानते जा रहे हैं कि यह तो अभिनय है। दो धारा वहाँ भी सतत चल रही हैं, हम कह सकते हैं कि वे रोते हुए भी रोते नहीं हैं और हंसते हुए हंसते नहीं हैं। वे चाहे गरीब का अभिनय कर रहे हों चाहे करोड़पति का, दर्शकों को अपनी उसउस भूमिका के दुख सुख को दिखाते हए भी वे वास्तव में दुःखी सुखी नहीं होते क्योंकि अपने असली रूप का उन्हें ज्ञान है, अभिनय करते हुए भी निरन्तर अपनी असलियत उन्हें याद है, उसे वे भूले नहीं है, भूल सकते नहीं हैं और उन्हें यदि यह कहाजाए कि तुम जिसका अभिनय कर रहे हो उस रूप ही अपने आपको वास्तव में देखने लग जाओ तो वे यही उत्तर देंगे कि यह तो नितान्त असम्भव है, किसी हालत में भी यह हो नहीं सकता। यही स्थिति उस सम्यग्दृष्टि शानी को है, उसे आत्मा का अनुभव हुआ, अपने असली रूप का ज्ञान हुआ अतः बाकी सब नाटक दिखने लगा, अभिनय करना पड़ रहा है उसे क्योंकि अभी स्व में ठहरने की असमर्थता पर समस्त अभिनय के समय वह जानता जा रहा है कि इसमें मेरा अपना कुछ भी तो नहीं। उपयोग चाहे उसका बाहर में जाए पर. भीतर में धयां का बोर्ड निरन्तर टंगा ही रहता है कि मैं एक अकेला चेतन हूँ और यदि उसे यह कहो कि तू इस शरीर को या कर्म को अपने रूप देख तो वह कहेगा'कैसे देबूं? जब मैं उन रूप हूँ ही नहीं तो उन रूप स्वयं को देखना ती सर्वथा असम्भव ही है। मैं तो अब अपने को ही अपने रूप देख सकता है।' और जिस प्रकार नाटक के बाद वे अभिनेता अपने-अपने अभिनय के वेश को उतार फेंकते हैं और अपने असली रूप में आ जाते हैं और शीघ्र ही अपने घर जाने की उन्हें सुध हो आती है उसी प्रकार ये जानी भी सारा दिन संसार का नाटक कर सामायिक के समय अपने सांसारिक वेष को उतार फैकते हैं, ये शरीर रूप जो चोला धारण किया हआ है उसे भी स्वयं से प्रथक कर वे अपनी असलियत को प्राप्त करते है और फिर अपने घर में जाए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ती मतः निज शुढात्मा में वे रमण करते हैं, वहीं स्वतंत्र रूप से विहार करते हैं। इस ग्रंथ का नाम भी समयसार नाटक है, उसका अर्थ यही किब यह जीव समयसार रूप होता है, धुतात्मा का अनुभव करता है तो वह संसार उसके लिए नाटक के समान हो जाता है। - . उपसंहार-यह बन्ध तो चिन्तामणि रत्न रूप है। इसकी प्रत्येक Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । २६) पंक्ति भेदनान को दर्शाती है, प्रत्येक लाइन में अपने पापको निजमाव न, मान म्प देखने की प्रेरणा की गई है जो कि यह बताती है कि इस बास्त्र के रचयिता उन आचार्यदेव के भीतर केसा करुणा का समुद्र बहता होगा कि जिस किसी प्रकार भी यह जीव अपने अनादि मिथ्यात्व को छोड़ कर सम्यग्दर्शन को, उस निर्विकल्प स्वानुभव को प्राप्त कर ले। निर्विकल्प स्वानुभव चौपे गुणस्थान में हो सकता है क्योंकि चतुर्ष गुणस्थान अविरत सम्यम्दृष्टि का है और निर्विकल्प स्वानुभूति के बिना सम्यग्दर्शन होता नहीं। कुछ व्यक्तियों की मान्यता के अनुसार चौधे गुणस्थान में निर्विकल्प स्वानुभूति नहीं होती क्योंकि वे कहते हैं कि शास्त्रों में पाठवें गुणस्थान से निर्विकल्प समाधि लिखी है। शास्त्रों में यह कथन बाता है यह बात सत्य है पर किस विवक्षा से ऐसा लिखा गया है यह तो हमें ही समझना होगा क्योंकि 'चतुर्थ गु. में निर्विकल्पानुभूति होती है' यह कथन भी शास्त्र का ही है। शास्त्रों में अलग-अलग स्थलों पर भिन्न-भिन्न ढंग के कथन मिलते हैं उनमें माचार्यों की अपेक्षाएं लगाकर हमें बुद्धि में उनका तालमेल बैठाना होगा बिससे पूर्वापर कोई विरोध न रहे। चतुर्थ गु० में निर्विकल्पानुभूति उन्होंने कैसे कही इसका खुलासा यही है कि विकल्प दो प्रकार के होते है-एक तो दुटिपूर्वक और एक अबुटिपूर्वक । जो जीव को पकड़ में बाएं उन्हें बुम्पूिर्वक और जो उसकी पकर के बाहर हों उन्हें अबुटिपूर्वक कहते हैं। चौथे गु० में जीव के क्योंकि बुद्धिपूर्वक कोई विकल्प नहीं रहते बत: उसे निर्विकल्प अनुभूति कहा और आप यदि उस आनन्दास्वादो से पूछे तो वह भी यही कहेगा कि 'सच में ही मेरी उस समय निर्विकल्प अवस्था पी। कोई भी विकल्प मुझे नहीं था।' अब वह तो अलाशानी है, छपस्व है और उसको पकड़ में बाने योग्य बुद्धिपूर्वक जो सारे विकल्प हैं उनका उस समय अभाव हमा ही है बतः उसको अपेक्षा यह कथन सत्य है पर किसी महान ज्ञानी से, केवम शानी से उसी ममय यदि बाप बात करें तो वे कहेंगे-'बभी निर्विकल्पता कहाँ ? बभी तो अग्रिपूर्वक बनम्तों विकल्प इसके पड़े हैं। कषाय की तीन चौकड़ियां शेष है, केवल अनन्तानुबंधी हो तो गई है। हम तो आठवें गुणस्थान में जब यह जोव घेणी मारकर शुक्ल ध्यान प्रारम्भ करेगा और भीतर में लीनता इसकी बढ़ेगी तब इसे निर्विकल्प समाधि स्थित करेंगे।' इस प्रकार से इन कथनों को यदि हम सममें तो बात पूरी सन्ट हो जाती है। उदाहरण के रूप में मान लीजिए कि हम एक निश्चित स्थान परब ए दूर नितिन की ओर जाते हुए एक व्यक्ति को देख रहे हैं । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२७) एक समय ऐसा भाएगा कि वह धुंधमा होते-होते हमें दिखाई देना हो बाएना तो हम यही तो कहें कि यह मक्ति अब नहीं रहा पर यह कपन हमारे ज्ञान की अपेक्षा हो सत्य है, वास्तव में यदि दे, तो दूर क्षितिज पर सम्पक्ति का सदभावकहीं न कहीं अवश्य है ही बार कोई और पक्ति जिसकी दृष्टि हमसे ज्यादा तीक्ष्ण है उसे उस समय भी देखकर यही कहेगा किला तो जा रहा पह, निषेध कसे कर रहे हो तुम उसका?' इस प्रकार विभिन्न कथन विभिन्न व्यक्तियों की अपेक्षा सत्या हो सकते है।मतः पतु मु. में निर्विकल्प स्वानुभव का सर्वचा निषेध करना मोवमार्ग काही निषेध करना है। पौषे गु० में स्वानुभूति होती है बार बतीनिय बानन्द का प्रत्यक्ष वेदन होता है । वह मानन्द 'मैं हूं, पुट हूँ, निरंजन हूँ, निर्विकार हूँ इस प्रकार के विकल्पोंजनित नहीं होता वरन् बारम बस्तु के प्रत्यक्ष स्वादयनित होता है। उसकी महिमा ही कुछ और है। कल्पना करके भी अगर देखा जाए कि किसी समय यदि हम ऐसे हो खून्य सेठ जाएं और कोई भी विकल्प न करें तो ही कितनी शांति मिलती है जबकि उस समय अबुद्धि व बुद्धिपूर्वक लाखों विकल्प खड़े रहते हैं तो जिस समय बुद्धिपूर्वक के कोई विकल्प न रहें उस समय कितनी शांति मिलती होगी जो कि वर्णनातीत है। यह अन्य ढूंडारी भाषा में था। इसकी स्वाध्याम दिल्ली बाने पर मंदिरजी में शास्त्र सभा में की। जन समुदाय को मध्यात्म की तरफ दषि बढ़ो। भाई महेन्द्रसैन जी ने कहा कि इस अन्य की शुद्ध हिन्दी हो जाती तो सबको नाम मिलता। मैंने उनसे अनुरोध किया कि यह काम नापको करना हो चाहिए क्योंकि यह टीका मारम अनुभव के लिए बहुत ही प्रेरणादायक है। उन्होंने अन्य की टीका करनी प्रारम्भ की, बनी दो बध्याय पपये कि वे अस्वस्थ हो गए। एक रोज बोले कि यह काम बाकी पता लगता है। केन्तर के रोग के कारण उनको वेचनी पो परन्तु उस हालत में भी इसे पूरा करने की उन्होंने चेष्टा की। एक अध्याय मोर लिखा बोर एक बाकी छ गया वो बाबू महताबसिंहनी की पुषी. कुंदमता ने पूरा किया। प्रस्तावना मे भी इनका पूर्ण योगदान रहा है। धन्यवाद की पाय है। इसके एक संशोधन का सब काम श्री पपचन्द्र शास्त्री वीर सेवा मन्दिर ने बड़ी भवन से किया जिसके लिए उनका बहुत ही आभार है। इस ग्रंथ को पाने की प्रेरणा बड़े मंदिरवी, कूचा सेठ में बाल सा Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८) में बैठने वालों को रही, भाई कपूरचंद जी की खास प्रेरणा रही, उन्होंने इस पंथ की छपाई में अपने पास मे चार हजार रु. दिए और बाकी और भी अन्य भाइयों को प्रेरणा कर इकट्ठं कर दिए जिसके लिए मैं उन्हें बहुतबहुत धन्यवाद देता है। वीर मेवा मन्दिर से यह प्रकाशित किया जा रहा है। यह पंथ सो आत्म रस में भरा हुआ रस का कप है। ऐसा लगता है मानो यह अपने स्वरूप में रमण करने का निमंत्रण ही दे रहा हो। स्वानुभव की जैसी प्रेरणा इममें की गई है सी कम ग्रंथों में मिलतो है। ऐसे शास्त्र का बार-बार स्वाध्याय, मनन व चिन्तन करना आवश्यक है, इसी मभिप्राय से इसको छपाया गया है। स्वाध्याय प्रेमियों से अनुरोध है कि इसकी मात्र एक बार नहीं वरन् दस-बीस बार स्वाध्याय कर, तत्व को समझ कर अपने भापको चैतन्य रूप अनुभव करने का पुरुषार्थ करें जिससे स्वानुभूति उदय को प्राप्त हो। काललब्धि बाने पर अर्ध पुद्गल परावर्तन काल शेष रहने पर जीव को सम्यग्दर्शन होता है, ऐसा कवि राजमल जी ने बार-बार लिखा है परन्तु मेरी समझ में और श्री महेन्द्रसेन जी के भो अनुसार जब जीव सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर सम्यक्त्व प्राप्त करता है तब उसका अनंत संसार समाप्त होकर अधिक से अधिक अई पुद्गल परावर्तन शेष रह जाता है। जोर सदेव पुरुषार्ष पर ही आना चाहिए। यदि काललब्धि पर जोर देंगे तो जीव का पुरुषार्ष कुण्ठित हो जाएगा और वह यही समझ कर बैठ जाए कि अभी मेरी कामलग्धि नहीं आई है, उसके आने पर स्वयमेव सम्यग्दर्शन हो जाएगा। पं० टोररमल जी ने भी 'मोक्षमार्ग प्रकाशक' में इस विषय का अच्छा बुलासा करते हुए यही लिखा है कि किसी भी कार्य की पूर्ति में स्वभाव, निमित्त, पुरुषार्थ, कामलन्धि व होनहार ये पांच समवाय चाहिए पर इस सन्दर्भ में पुरुषार्थ ही मुख्य है। जीव पर सम्यग्दर्शन प्राप्ति का पुरुषार्थ कर रहा है तो उसकी कालसन्धि आ गई और होनहार भी उसी प्रकार की है तभी तो उससे बह पुरुषार्थ बन पा रहा है, काललन्धि व होनहार स्वयं में तो कोई वस्तु है नहीं। इसके बारे में पाठकों को विचार करना चाहिए। सन्मति-विहार नई दिल्ली-२ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीप्रमृतचन्द्राचार्य विरचित- समयसारकलश पर श्री राज-मल्लकविकृत ढूंढारी भाषा-टीका का हिन्दी अनुवाद समयसार कलश टीका ( कविवर बनारसीदास जी कृत नाटक समयसार सहित ) प्रथम अध्याय जीव-अधिकार नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते । चित्स्वभावाय भावाय सर्वभावान्तर च्छिदे ॥१॥ अर्थ- समस्त सत् स्वरूप पदार्थों में जो उपादेय है अर्थात् जीवद्रव्य और ऐसा जीवद्रव्य जिसने निराकुल शुद्धात्मरूप परिणमन करके अतीन्द्रिय सुख को जाना है या उस रूप अवस्था प्राप्त की है, जिसका ज्ञान चेतना ही स्वभाव सर्वस्व है और जो अतीत-अनागत-वर्तमान पर्याय सहित अनन्तगुणयुक्त जीवादि पदार्थों को एक ही समय में प्रत्यक्षरूप से जानने-देखने वाला उसको हमारा नमस्कार है । इस नमस्कार मंत्र में शुद्धजीव का हो हितकारी होना घटित होता है। हितकारी तो सुख होता है और अहितकारी दुःख। क्योंकि अजीब पदार्थों - पुद्गल, धर्म, बधर्म, आकाश, काल को और संसारी जीवों को सुख नहीं होता है और आत्मज्ञान भी नहीं होता है; इनका स्वरूप जान Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका लेने मात्र से भी किसी चेतन जीव को न तो सुब होता है और न मान ही; इसलिए इनमें से किसी का भी उपादेय होना सिद्ध नहीं होता। शुरुजीय को मुबह और शान भी है अतः उसको जानने अनुभव करने वाले चेतन जीव को मुख है और मान भी है। इस प्रकार शुदजीव का ही उपादेय होना सिट होता है ॥१॥ संबंया-बो अपनी पति पाप विरामस, है परवान पदारय मानी। चेतन प्रक सा निकलंक, महासुन सागर को बिलरामो॥ भीष मनीष मिते जग में, तिनको गुन गायक मन्तरवामी। सो सिवरूप बसे सिवनायक, ताहि बिलोकिनमें सिवानी ॥१॥ __अनुष्टुप छन्द अनन्तधमंणस्तत्वं पश्यन्ती प्रत्यगात्मनः । अनेकान्तमयी मूत्तिनित्यमेव प्रकाशताम् ॥२॥ अर्थ-भिन्न कहे जाने वाले द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से रहित जो अनन्तधर्मगुणयुक्त आत्मा या जीव द्रव्य है वही सर्वज्ञ वीतराग है। ऐसे सर्वज्ञ वीतराग की अनेकान्त अर्यात् स्याढादमयी, सदा त्रिकाल प्रकाश करने वाली, दिव्यध्वनि या वाणी को नमस्कार किया है। शंका-वाणी तो पुद्गल है-अचेतन है और अचेतन को नमस्कार निषिद्ध है। समाधान-यह शंका ठीक नहीं है। वाणी अचेतन होते हुए भी सर्वज्ञस्वरूप की अनुसारिणी है। उसको सुनकर ही जीवादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान प्राप्त होता है । अतः वह भी पूज्य है। कोई मिथ्यावादी यदि यह कहे कि परमात्मा तो निर्गुण है, गुणों का विनाश होने पर ही परमात्मपना होता है, तो ऐसा मानना मूठा है। गुणों के विनाश होने से तो द्रव्य का ही विनाश हो जाता है। संका-अनेकान्त तो संशय है और संशय मिथ्या है। समाधान-अनेकान्त संशय नहीं बल्कि उल्टे संशय को दूर करने वाता है और वस्तु स्वरूप को कहने के लिए साधन है। जो भी सत्ता-स्वरूप वस्तु है वह द्रव्य-गुणात्मक है। इसमें जो सत्ता बभेद-रूप से द्रव्य कही जाती है बही सत्ता भेद-रूप से गुणल्प कही जाती है। इसी का नाम अनेकान्त है। अनादि निधन वस्तु स्वरूप ऐसा ही है। किसी का चारा नहीं। इस प्रकार अनेकान्त प्रमाण है ॥२॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार सबंधा-जोग परे रहे योगसं भिन्न, धनन्तगुलातन केवलज्ञानी । तासु हवं ग्रह सों निकली, सरिता समद्ध भूत सिधुसमानी ॥ बाते झमन्त नयातम लक्षरण, सत्य सरूप सिद्धान्त बसानी । बुद्ध लचे दुरबुद्ध लये मह, सदा जनमाहिं जगे जिनवाणी ॥२॥ मालिनी छन्द परिपरिगतिहेतोमोहनाम्नोऽनुभाबादविरत मनुभाव्यव्याप्तिकल्मावितायाः । मम परमविशुद्धिः शुद्धचिन्मात्रमूर्तमंत्रतुसमयसारव्याख्ययंवानुभूतेः ॥ ३ ॥ अर्थ - शास्त्रकर्ता अमृतचन्द्र सूरि कामना करते हैं कि मुझको जो सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि या निर्मलता है और जो शुद्ध स्वरूप में ही उपलब्ध है, वह प्राप्त हो । समयसार या शुद्ध जीव की व्याख्या परमार्थरूप वैराग्योत्पादक है । रामायण-महाभारत की भांति रागवर्द्धक नहीं है। अतः समयसार का उपदेश करते हुए मुझे वैराग्यवृद्धि होकर शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो । द्रव्याधिक नय से मैं स्वानुभूतियुक्त, अतीन्द्रिय सुख स्वरूप, रागादि उपाधि से रहित और वेतनमात्र स्वभाव वाला हूं। दूसरे पक्ष से, अर्थात् पर्यायार्थिक नय से मैं अनादिकाल से निरन्तर विषयकषायादि से पूर्ण, अशुद्ध चेतनरूप, विभाव परिणमन कर रहा हूं। कलंकपने से युक्त हूं। पर्य्यायार्थिक नय से जिस अशुद्धता से यह जीव अनादिकाल से परिणमन कर रहा है, उसके नाश होने पर ही वह ज्ञानस्वरूप या सुखस्वरूप को प्राप्त होगा। प्रश्न उठता है कि जब जीव वस्तु अनादिकालसे अशुद्ध परिणमन कर रही है तो उसमें निमित्त क्या है ? उत्तर - आठों कर्मों में जो मोह नाम का कर्म है उसका उदय या विपाक अवस्था जीव के अशुद्ध परिणमन में निमित्त कारण है; यद्यपि व्याप्यव्यापकरूप से तो जीवद्रव्य स्वयं ही परिणमन करता है। जैसे कोई धतूरा पीकर बोराता है तो धतूरे का सेवन उसके बौराने में निमित्त मात्र है । बीराता तो वह स्वयं ही है। जीव का जो परपरिणति परिणाम अथवा अशुद्ध परिणाम है उसके निमित्त का रस लेकर मोहकर्म बंधता है और फिर उदय में आकर स्वयं अशुद्ध परिणमन में निमित्त बनता है ॥३॥ छप्पय बन्द – हूं निश्चय तिहुंकाल, शुद्ध चेतनमय मूरति, पर-पररगति संयोग, भई जड़ता बिस्कूरति । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलग टोका मोहम पर न पार, चेतन पर रच्चय, यो धनूर रसपान करत. नर बह विधि नस्चय । प्रब समयमा वर्णन करत, परममता हो. मुझ। अनायाम बनारसीदाय काम, मिटो हा भ्रम को अरुक ॥३॥ मालिनी छन्द उभयनविरोधध्वंसिनिस्यात्पदाई जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः माद ममयसारं ते परंज्योतिरच्च रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ॥४॥ अनन्त ममार में भ्रमतं हा जीव एक भव्य गाय हैं और एक अभव्य राशि है। उनमें अभव्य जीव ना नीन काल में भी मोक्ष जाने के अधिकारी नहीं हैं। भव्य जीवों के मोक्ष जाने के काल का परिमाण है। कौन-मा जीव कितना काल बीनने पर मोक्ष जायगा यह तो केवलज्ञानी ही जान मकने है। भ्रमने-श्रमने जब अधंपुद्गलपगवनं रह जाय तब सम्यक्त्व की उत्पत्ति होती है। इसी का नाम काललब्धि है। यद्यपि सम्यक्त्वम्प जीव ही परिणमता है परन्तु काल लब्धि के बिना कोटि उपाय भी करें ना भी जोव मम्यक्त्वरूप परिणमन नहीं कर सकता, ऐसा नियम है । इसमें समझना चाहिए कि सम्यक्त्व वस्तु जतन-साध्य नहीं, सहजरूप है ।' एम भव्यजीवों को, जिन्होंने मिथ्यात्व अर्थात् विपरीतपना वमन १. स्वयं वांतमाहाः के शब्दार्थ हैं-जिनने मोह का स्वयं बमन कर दिया हो । इसमें टोकाकार ने स्वयं का सहज हो' अर्थ करके उसमें से पुरुषार्ष का अंश निकाल ही दिया है और सम्यक्त्व की प्राप्ति को 'काल-लब्धि' के आधीन कर दिया जो न्यायसंगत नहीं मालूम होता। 'काल-लब्धि' का रोपण तो उस पुरुषार्थ से हो होगा जो जीव सम्यक्त्व को प्राप्ति के लिए करेगा। जब किसान ने बोज बोया तो फल की प्राप्ति के लिए स्वयं की काल को मर्यादा बंध गई कि बमुक दिनों-महीनों वर्षों बाद फल निकलेगा। बिना बीज बोने के पुरुषार्थ के काल-लन्धि कुछ नहीं कर सकेगी। - Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीव-वधिकार कर दिया हो, संबोधित करके कहा है कि तुम्हें पोहे हो काल में उस शुद्ध जीव अर्थात् आत्म-सत्त्व को प्राप्ति हो जो अतिमयमान मान-ज्योति है, मनादि सिड है और मिथ्यावाद अथवा बौदादिक की कल्पना से अक्षण है। स शुरु स्वरूप को भन्यजीव कैसे पा सकता है ? पिन बबन या दिव्य ध्वनि केरा जो उपादेय पुराजीव वस्तु कही गई है उसका अनुभव करने मे फल की प्राप्ति होगी। बासन्नमव्यजीव उस शुरजीप वस्तु में सावधानी से रुषि-श्रया-प्रतीति करते हैं । शुद्धजीव वस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव करना ही सच्ची रुषि-पदा-प्रतीति कहलाती है, केबल पुद्गल वचन की रुचि करने से स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। जिन वचन दोनों नयों के पक्षपात से रहित व परस्पर विरोध और रभाव को मंटने वाले हैं। व्याथिक नय तो सत्व को न्यल्प कहता है मोर पर्यायाधिक नय उसी सत्व को पर्यायल्प कहता है, इसमें जो विरोध है, दिव्यध्वनि उसका ध्वंस करती है। दोनों ही नय विकल्प हैं और शुरजीव स्वरूप का अनुभव निर्विकल्प है। इसलिए बायजीव स्वरूप का अनुभव होने पर दोनों हो नयों का विकल्प मूठा पड़ जाता है। वस्तु मात्र तो निर्मंद है परन्तु उसको कहने के लिए जो भी बचन बोल जायगे वह एक पक्षल्पही होंगे और इस पक्षपात को मेटने वाले स्वाद्वाद चिह्न से चिह्नित चिन वचन ही हैं ॥४॥ संबंधा-निहचे में एकरूप व्यवहार में अनेक पाही नय विरोष जगत भरमायो है। अप के विवाद नासिको जिन मागम है, जामें स्यावादनान लक्षण सुहायो है। परसनबह जागो गयो है साल्प, मागम प्रमाल ताहिर में पायो है। अनय से प्रसहित अनूतन अनन्त तेज, ऐती पर पूरल तुरन्त तिन पायो है ॥४॥ मालिनी छन्द व्यवहरसनयः स्वापि प्रापदन्यामिह निहितपदानां हन्त हस्तावलम्बः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कमा टीका तदपि परमन विचमत्कारमात्र, परविरहितमन्तः पश्यन्तां नंब किश्चित् ॥५॥ व्यवहार नय के कथन का विवरण-जोर वस्तु निर्विकल्प है। वह तो मानगोचर है। इस बीववस्तु का बब कपन करना पड़े तो बही कहना पड़ता है कि जिसका गुण दर्शन-बान-बारिष है वह बीच है। यदि किसी ने बहुत साधना की है, उसको भी ऐसे ही कहना पड़ेगा। इतना भी कहने का नाम व्यवहार है। शंका-जो वस्तु निर्विकल्प है, उसमें विकल्प दा करना युक्तिसंगत नहीं है। समाधान-व्यवहार नय हम्नावलम्बन है। जैसे कोई नीचे गिरा हवा हो तो उसको हाथ पकड़कर ऊपर लेते हैं। इसी तरह गुण से गुणी का मंद करके कपन करना जान उत्पन्न करने का अंग है। जैसे-जीव का मक्षण बेतना कहने मे पुद्गलादि अचेतन द्रव्यों से भिन्न अप होने की प्रतोति होती है। इस तरह जब नक अनुभव हो नब तक गुण-गृणी का भेद करके कपन करना ज्ञान का अंग है। म्यवहार नय कमे जीव का हस्तावलम्बन है ? विद्यमान शान उपजने को आरम्भिक अवस्था में जिसने सर्वस्व स्थापित किया है अर्थात् जो जीव सहज हो अज्ञानी है और जीवादि पदायों के द्रव्यपर्याय स्वरूप को जानने का अभिलाषी है उसको गुण-गुणी भेदरूप कथन करना योग्य है। यपि व्यवहारलय हस्वावलम्बन है मोर मान को अपेक्षा मूठा है, परन्तु कैसे जीव के लिए व्यवहारनयमठा है? ऐसे जीव के लिए व्यवहारनय मूठा है जो चेतना, प्रकाश मात्र शुरुजीव वस्तु को प्रत्यक्ष रूप से अनुभवन करता है। बस्तु का प्रत्यक्ष अनुभव होने पर व्यवहार सहज ही छूट जाता है । कैसी है (पट जीब) बस्तु ? उतष्ट है, उपादेय है, पर-वस्तु अर्थात् द्रव्यकर्म, नोकर्न मोर माक्र्म से भिन्न है ॥५ सया-ज्यों मर कोक गिरे गिरि सोलिहि, हो हि हे माहीं। त्यों पुष को विपहार भलो, तबला जवलो शिव प्रापति नाहीं॥ यपि यो परमारण तगाषि, स परमारव चेतन माहीं । गोष पन्यापक है पर सो, बिहार तु तो पर की परवाहीं ॥५॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोक्-धिकार शार्दूलविक्रीडित एकत्वे नियतस्य शुरुनयतो व्याप्तुरस्यात्मनः प्रसनानधनस्य वनामिह म्यान्तरेभ्यः पृषन् । सम्यग्दर्शनमेतदेवनियमावल्मा ताबालयम्, तन्मुक्त्वा नवतस्वतंततिनिमामालाबनेकोतु नः ॥६॥ इस कारण से हममें शुद्ध चेतन पदार्थ विचमान होवे। भावार्थजीव वस्तु का चेतना लक्षण तो सहज ही है परंतु मिप्यात्व परिणाम के कारण प्रमित होता हुमा अपने स्वरूप को नहीं जानता है । इसलिए अज्ञानी ही कहाता है। इससे ऐसा कहा है कि मिप्या परिणाम के जाने पर यह ही जीव अपने स्वरूप का अनुभव करने वाला होता है। संसार अवस्था में जीवद्रव्य नवतस्वरूप परिणमन करता है सो तो विभाव परिणति है। इसलिए नवतत्त्वरूप का अनुभव मिथ्या है बोर उन नवतत्वों का अर्थात् जीवाजीवालव-बंध-संबर-निर्जरा-मोम-पुण्य-पाप का अनादि संबंध छोड़ कर ही जीव अपने स्वरूप का अनुभव करता है। जिस कारण से यही जीवद्रव्य सकलकोपाधि से रहित, पैसा है पता ही, प्रत्यक्षरूप से अनुभव होता है, निश्चम से बहो सम्यकदर्शन है। भावार्ष-सम्यकदर्शन जीव का गुण है। वह गुण संसार अवस्था में विनाष परिणमन करता है। वही गुण जब स्वभाव परिणमन करे तो मोलमार्ग बनता है। विवरण-सम्यक्त्वभाव होने पर नए भानावरणादिव्य कर्मानव रुक पाते है बार पुराने बंधे कर्मों की निर्जरा होजाती है। इसी से मोलमार्ग है। शंका-मोक्षमा तो सम्पादन, मान बार पारित तीनों के मिलने से होता है। उत्तर-पर पीव स्वस्म के अनुभवन में तीनों ही है। कैसा है पर बीब ? निर्विकल्प वस्तु मात्र की दृष्टि से देखने पर, पटरूप से, उखील्म है। भावा-बीब का लक्षण चेतना है बार चेतना तीन प्रकार की है :मानचेतना कर्मचेतना बोर कर्मफसतना। इनमें शानचेतना तो शुट चेतना है भोर मेष दो अशुट चेतना। बधुत चेतनास्प वस्तु का स्वाद सभी जीवों को अनादिकाल से समान है । उसरूप बनुभव सम्यक्त्व नहीं है । अपने गुण Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलश टीका पर्याय को लिए हुए, शुद्ध चेतना मात्र वस्तुस्वरूप स्वाद में आवे तब सम्यक्त्व है । ८ शंका-सम्यक्त्वगुण जीववस्तु से भेदरूप है अथवा अभेदरूप ? उत्तर—अभेदरूप । यह सम्यक्त्व जीवद्रव्य का गुण मात्र है || ६ || सर्वया - शुद्धनव निचं प्रकेला प्राप चिदानन्द, अपने ही गुरण परजाय को गहत है । पूरण विज्ञानघन सो है व्यवहार मांहि, नवतत्वरूपी पंचद्रव्य में रहत है ॥ पंचद्रव्यनवतत्व न्यारे जीव न्यारो, लहे सम्यकदरस यह औौर न गहत है । सम्यकदरस जोई प्रातम सरूप सोई, मेरे घट प्रगटो बनारसी कहत है ॥६॥ अनुष्टुप छन्द प्रतः शुद्धनयायतं प्रत्यग्ज्योतिश्चकास्ति तत् । नवतस्वगतत्वेऽपि मदेकत्वं न मुम्बति ॥७॥ शुद्धनय अर्थात् वस्तुमात्र के विचार से वस्तु जैसी है वैसा ही अनुभव करने से सम्यक्त्व होता है और उसे ही शुद्धस्वरूप कहा है। उसी शुद्ध चेतना मात्र वस्तु का मुक्ति से शब्द द्वारा कथन किया है। शुद्ध वस्तु अपने शुद्ध स्वरूप को नही छोड़ती है । शंका- जीव वस्तु जब संसार से छूटती है तब शुद्ध होती है। उत्तर - जीववस्तु, द्रव्यदृष्टि से विचारने पर त्रिकाल ही शुद्ध है। जिस समय वह नव तत्त्वरूप - जीवाजीवास्रव-बंध-संवर-निर्जरा-मोक्ष-पुण्यपापरूप परिणमित होती है तब भी उसका शुद्ध स्वरूप है जैसे, अग्नि का दाहक लक्षण है । वह काष्ठ, तृण, छप्पर, आदि समस्त जलने वाली वस्तुओं को जलाती है और जलाते समय अग्नि जलती हुई वस्तु के आकार की ही होती है। तब यदि काष्ठ, तृण, छप्पर, की दृष्टि से देखा जाय तो काष्ठ की आग, तृण की आग या छप्पर की आग कहना सच ही है । परन्तु यदि आग की उष्णतामात्र का विचार करें तो उष्णमात्र ही है और काष्ठ की आग, तृण की आग, छप्पर की आग ऐसा समस्त विकल्प झूठा है। इसी तरह जीव का नवतत्त्वस्वरूप परिणाम है। वह परिणाम कोई तो शुद्ध है और कोई अशुद्ध Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार स्म है। वो नवों परिणामों में देखा जाय तो नव ही तत्त्व सत्य है। परन्तु यदि चेतनामात्र अनुभव किया जाय तो नवों ही विकल्प मूठे हैं ॥७॥ संबंया-से हरस, काष्ठ, बास, पारने इत्यादि और जाति पिलोकत कहावे मागि नानाल्प, रोसे एक हक स्वभाव जब महिए। तसं नवतत्व में भया है बहु मेवी जोक, शख रूप मिश्रित प्रशल्प कहिए, जाही माल चेतना सकति को विचार कोजे, ताही मरण अलख अमेवरूप लहिए ॥७॥ मालिनी छन्द चिरमितिनवतस्वच्छन्नमुन्नीयमानं कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे। अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकल्पं प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥८॥ मुझे जीव द्रव्य को ज्योति अर्थात् शुद्ध मान-मात्र का सर्वथा अनुभव हो। नाटक की तरह एक हो जीववस्तु, एक ही समय में, अनेक आश्चर्यकारी भावरूप दिखाई देती है। इसी कारण इस शास्त्र का नाम नाटक समयसार है । पर्यायमात्र के विचार से यह शानवस्तु अनादि काल से विभावरूप रागादि परिणामों से अपवा नवतत्त्वों से आच्छादित है। भावार्थजीववस्तु अनादिकाल में धातु और पाषाण के संयोग की तरह कर्म पर्याय से मिली हुई चली आ रही है। मिथित राणादि विभाव परिणाम से व्याप्त, व्यापकल्प अपने को परिणमन करा रही है। यदि परिणमन को देखा जाय तो जीव नवतस्वरूप है, ऐसी दृष्टि बनती है। कथंचिन ऐसा है, सर्वचा मूठ नहीं है। विभाव रागादि रूप परिणमन की शक्ति जीव ही में है। अव दूसरा पक्ष कहते हैं-वह जीववस्तु द्रव्यरूप है, अपने गुण-पर्याय में विराजमान है। यदि शुद्धद्रव्यस्वरूप को देखा जाय, पर्यायम्वरूप को न देखा जाय, तो वह निरंतर नवतत्वों के विकल्पों मे रहित है शद्ध वस्तुमात्र है । शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही सम्यक्त्व है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० समयसार कलम टोका वर्णमाला के दो अर्थ है-एक तो बनावट और दूसरा समूह । वर्ष माने मंद और माला माने पंक्ति । जैसे एक ही सोना बनावट के भेद करके अनकम्प कहा जाता है ऐसे ही एक ही जीववस्तु द्रव्य-गुणपयर्यायम्प अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रोव्यरूप से अनेकरूप कहो जाती है। इम पक्ष में जानने के लिए गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पाद-व्यय-धोव्यरूप अथवा, दृष्टांनकी अपेक्षा, आकार भेद है। उन भंदों में भी एकरूप का अर्थ कायम है। वस्तु के विचार से भेवरूप भी वस्तु ही है, वस्तू से भिन्न भेद कोई वस्तू नहीं है। भावार्थ-यदि स्वर्णमात्र न देखा जाय, आकारभेद मात्र देखा जाय, नो आकारभेद है, सोने की ऐसी ही शक्ति है। यदि आकारभेद न देखा जाय और स्वर्णमात्र देखा जाय तो आकार भेद मठा है। उमी प्रकार जो शुद्ध जीववस्तु मात्र न देखो जाय, गुण-पर्यायमात्र अथवा उत्पाद-व्यय-ध्रोव्यमात्र देखा जाय तो गुण-पर्याय है, उत्पाद-व्ययधोव्य है। जीव वस्तु ऐसी ही है। यदि गुण-पर्याय भेद, उत्पाद-व्यय-धोव्य भेद न देखा जाय, वस्तु मात्र देखी जाय तो समस्त भंदमठा है। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है। आत्मज्योति चेतना लक्षण से जानी जाती है इसलिए अनुमान गोचर भी है । दूसरे पक्ष से प्रत्यक्षजानगोचर है । इसलिए भेदबुद्धि करके जीव चनना लमण से जोववस्तु को जानता है। परन्तु वस्तु विचार से इतना विकल्प भी मूठा है। शुद्ध वस्तु मात्र है-ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है ।।८।। संबंया-जैसे बनवारी में कुधातु के मिलाप हेम, नानाभांति भयो तथापि एक नाम है। फसिके कसोटी लोक निरसराफ ताहि नानके प्रमाण करि लेतु रेतु नाम है। तत हो मनारि पुगत सौ संजोगी जीव, मवतवरूप में प्रस्पी महापान है। दोसपनुमान सौरोतबान ठोरठार, इसरो न मोर एकमात्मा ही राम है । मालिनी बन्न उपयति न नयभीरस्समेतिप्रमाणं पवचिदपि न वियो याति निक्षेपकं । Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार किमपरममिवम्मो बाम्निसकऽस्मिन्न नुभवमुपयाते माति न द्रुतमेव ॥६॥ यह जो स्वयंसिद्ध चेतनात्मक जीववस्तु है उसका प्रत्यक्षरूप से आस्वाद माते हुए कोई भी सूक्ष्म या स्थूल अन्तर्जल्प या बहिर्जल्प रूप विकल्प नहीं होता है । भावार्थ-अनुभव प्रत्यक्ष भान है। प्रत्यक्ष अर्थात् वेद्यवेदकभावपने से आस्वादस्प है। ऐसा अनुभव पर सहायता से निरपेक्षरूप है । ऐसा अनुभव यद्यपि मानविशेष है, तथापि सम्यक्त्व से अविनाभूत है जो सम्यग्दृष्टि को होता है, मिथ्यादृष्टि को नहीं होता, ऐसा निश्चय है । ऐसा होने पर जीववस्तु अपने शुलस्वरूप का प्रत्यक्षरूप से आस्वादन करता है। इससे जितने काल अनुभव है उतने काल बचन व्यवहार छुटा रहता है।पन व्यवहार तो परोक्षरूप से कथन है और जीव प्रत्यक्षरूप से अनुभवशील है। इससे वचन व्यवहारपना कुछ नहीं रहता । जीववस्तु सब विकल्प क्षय करने बाली है । भावार्थ-सूर्य का प्रकाश जैसे अन्धकार मे सहज ही भिन्न है वैसे ही अनुभव भी समस्त विकल्पों से रहित है। प्रश्न-अनुभव होते समय कोई विकल्प रहता है या कि अपने आप ही समस्त विकल्प मिट जाते हैं ? उत्तर-समस्त विकल्प मिट जाते हैं। जिस अनुभव के होने पर प्रमाण-नय-निक्षेप भी मूठे हो जाते हैं, वहां रागादि विकल्पों की तो बात ही नहीं। भावार्थ-रागादि तो मूठे ही हैं। जीव स्वरूप से बाहर हैं। प्रमाणनय-निक्षेप बुद्धि से कोई जीवद्रव्य का द्रव्य-गुण-पर्यायरूप अथवा उत्पादव्यय-ध्रौव्यरूप भेद करते हैं वह सब मूठा है। जो कुछ वस्तु का स्वाद है बही अनुभव है। प्रमाण अर्थात् युगपत् अनेक धर्म ग्राहक ज्ञान, वह भी विकल्प है। नय अर्थात् वस्तु का कोई एक गण ग्राहक ज्ञान भी विकल्प है। निक्षेप अर्थात उपचार घटनास्प ज्ञान, वह भी विकल्प है। अनादि से जीव मन्नानी है। जीवस्वरूप को नहीं जानता । उसको जब जीव सत्व की प्रतीति होती है तब ही वह वस्तु स्वरूप को साधता है। उसका साधना गुण-गुणी शान के द्वारा होगा। दूसरा उपाय तो कोई है नहीं। इसलिए वस्तु स्वरूप का गुणगुणी भेदरूप विचार करने मे, प्रमाण, नय, निक्षेप विकल्प उत्पन्न होते हैं। वे विकल्प पहली अवस्था में भले ही है । तथापि स्वल्पमात्र के अनुभव होने पर मूठे हैं ॥६॥ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका मवया जंमे विमंडल के उयं महिमंडल में, प्रातपटल तम पटल दिलाते है । तं परमानम को प्रनुभो रहन जोलों, मोमों कहूं दुविधा न कहूं पक्षपात है ।। नय को न लेम परमाल को न परबेस, निक्षेप के बस को विध्वंस होत जानु है। जे जे वस्तु साधक हैं तेऊ तहाँ बाधक है, बाकी रागद्वेष की दशा को कौन बातु है ॥९॥ उपजाति छन्द आत्मस्वभावं परभाव भिन्न मापूर्णमाद्यन्त विमुक्तमेकं । विलीन संकल्प विकल्पजालं प्रकाशयन् शुद्धनयोऽभ्युदेति ॥१०॥ शुद्ध नय से शुद्धस्वरूप जीववस्तु का निरूपण करते हुए, निरुपाधि जीववरत स्वरूपोपदेशरूप प्रकट हुई है। वस्तुस्वरूप सारे पिछले काल से तथा समस्त आगामी काल से रहित है। भावार्थ गद्ध जीव का आदि भी नही, अन्त भी नही । ऐसा जो मन्त्रा स्वरूप है उसका नाम शुद्धनय कहलाता है । जिसका संकल्प अर्थात् गगपरिणाम और विकल्प अर्थात् अनेकनयविकल्परूप ज्ञान की पर्याएँ विलीन हो गयी हैं, ऐसी जीववस्तु है । भावार्थ - समस्त संकल्प-विकल्प से रहित वस्तुस्वरूप का अनुभव सम्यक्त्व है वह जीववस्तु रागादि भावों से भिन्न है और अपने गुणों से परिपूर्ण है तथा आत्मा का निज-भाव है ।। १० ।। डिल्ल छन्द--प्रावि अन्न पूररण स्वभाव संयुक्त है, पर स्वरूप पर जोग कल्पना मुक्त है। सदा एक रस प्रकट कही है जंन में, शुद्धनयातम वस्तु विराजे बॅन में ।।१०।। मालिनी छन्द न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी स्फुटमुपरितरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठां । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समंताज्जगदपगत मोहीभूय सम्यकस्वभावं ।। ११ ।। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ जीव-अधिकार जगत के गव जीव पूर्वोक्न निश्चय में शुद्ध जीववस्तु का जैसी है वैसा प्रत्यक्षम्प में बमवेदनम्प आम्वादन कगे। मोह अर्थात शरोरादिक परद्रव्य मे एकत्वबाद छोटकर अनभवन कगे। भावार्थ-मसारीजोव को समार में वमन अनकल गया। शरीरााद पर-द्रका स्वभाव था; परन्तु यह जीव अपना जानकर प्रयनां । मां जब भी वह वपन बद्धि छुटेगी तभी जीव शुद्ध म्वरूप का अनभव करने योग्य होगा। यह गद्ध स्वरूप मब प्रकार प्रकाशमान : । भावार्थ - अनभव गानर होने में कुछ ब्रान्ति नहीं है। प्रश्न जीव ती गद्ध स्वरूप कहा आर वैसा ही है भी, फिर गगद्वप-माहरूप परिणाम अथवा मखदःखादिम्प परिणाम कौन करता है, कोन भागता है उनर.- करता ना जीव ही है. भोगना भी जीव ही है । परन्तु यह परिणति विभावका है. उपाधिम्प है. इलिए निजम्वम्प के विचार में जीव का म्वम्प नहीं है । अगद्ध गगादिभाव (अन्यभाव, अनियतभाव, विशेषभाव. मयुक्तभाव। परम्पर पिप एक क्षेत्रावगाह हैं फिर भी अन्यभाव अर्थात् नर-नारक-नियंत्र-देव पर्यायम्प अथवा अनियन अर्थात् अमख्यात प्रदेश मंबंधी मकाच-विस्तार रूप परिणमन,विशंप अर्थात दर्शनज्ञान-चारित्र कपमंद कथन, मयुक्त अर्थात् रागादि उपाधि सहित जितने भी विभाव परिणाम है. वे सभी भाव गद्धस्वरूप में प्रतिष्ठा या गोभा को नहीं पाते हैं। भावार्थ ...बद्ध-म्पष्ट-अन्य-अनियन-विगंप-मंयुक्त जो विभाव परिणाम हैं वे मब मंमारावस्था में जीव के हैं । गद्ध जीवम्वरूप का अनुभव करते हए जीव के ये परिणाम नहीं है। बद्ध-माष्टादि विभावभाव प्रगटम्प मे उपजा हुआ है परन्तु ऊपर ही ऊपर रहता है। भावार्थ-जैसे जीव का ज्ञान गुण त्रिकालगोचर है, वमे रागादि विभाव भाव जीववस्तु मे त्रिकालगोचर नहीं हैं और मोक्ष अवस्था में तो मवंथा हो नहीं हैं। इसमें यही निश्चय हुआ कि रागादि जीवस्वरूप नहीं हैं ॥११॥ कवित-सतगुरु कहें भव्य जीवन सो, तोरहु तुरत मोह को जेल । सक्तिरूप गहो अपनो गुण, करह शुद्ध अनुभव को खेल ॥ पुदगलपिंड भावरागाबिक, इनसों नहीं तिहारो मेल । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टोका येमा प्रगट गुपत नृम खेलन, जमे भिन्न होय अरु तेल ॥११॥ शार्दूल विक्रीडित छन्द मूनं मान्तमभूतमेव रमसा निमिद्य बन्धं सुधीयंद्यन्तः किलकोऽप्यहो कलयति व्याहत्य मोहं हठात् । प्रात्मात्मानुभवंकगम्यमहिमा व्यक्तोऽयमास्ते ध्रुवं नित्यं कर्मकलङ्कपविकलो देवः स्वयं शाश्वतः ॥१२॥ त्रिकालगाचर अगुद्धपन की कालिमा और कीचड़ में सर्वथा भिन्न यपि चतनालक्षण जीव ग्व-ग्वभावरूप विद्यमान है नथापि चारों गतियों में भ्रमण में दहित है । परन्तु द्रव्यम्प में वह नीन लोक में पूज्य है । चेतनवस्तु अद्वितीय महिमा अर्थात् बदाई. प्रत्यक्षम्प म आम्वाद गोचर है। भावार्थ जीव का जम एक जान गण है वमे एक अतीन्द्रिय मुख गण है। वह मखगण ममागवस्था में अगलपना हान में प्रगटम्प में आस्वादरूप नहीं, अगदपना जाने पर प्रगट होना है। वह मृख अतीन्द्रिय परमात्मा को है। उस सम्व का बनाने के लिए काई दृष्टान्न चाग गनिया में नहीं। इसलिए नागं गतियों दुःखरूप है । इमलिए ऐमा कहा है कि उसका जो शुद्ध स्वरूप अनुभव करे वही जीव परमात्मा है। जीव का मुख को जानना योग्य है। इसमे शुद्ध स्वरूप अनुभव करना अतीन्द्रिय मुख है, यही सच्चा भाव है। प्रश्न-किम कारण से जीव शुद्ध होता है ? उतर-- शुद्ध का अनुभव करनेमे शुद्ध होता है। शद्ध है बद्धि जिमकी ऐमा जो जीव द्रव्य पिडरूप मित्थ्यात्व कर्म के उदय को मेटकर अथवा मल में ही सत्ता को मेटकर तथा बलपूर्वक मिथ्यात्वरूप ( जीव का) परिणाम मूल से उखाड़ कर शुद्ध स्वरूप का निरन्तर अनुभवन कर वह निश्चय में अतीतकाल, वर्तमान काल तथा आगामी काल संबंधी बध अथवा मोह से मुक्त होता है । भावार्थ- ..जो त्रिकाल संस्काररूप शरीरादि में एकन्वद्धि है उसको मिटाकर जो जीव शुद्ध जीव का अनुभवन करे मो जीव निश्चय में कर्म से मुक्त होता है ॥१२॥ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार सर्वया - कोऊ बुद्धिवंत नर निरले शरीर घर मेद ज्ञान दृष्टि से विचारं वस्तु वासतो | प्रतीत अनागत वर्तमान मोहरस, भीग्यो चिदानन्द लखे बंध में विलासतो ॥ बंधको विडारि महा मोह को स्वभाव डारि, प्रातम को ध्यान करे देले परमागम तो । करम कलंक पंक रहित प्रगटरूप, ree marधित विलोकं देव सासतो ॥ १२ ॥ वस तातलका श्रात्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुध्वा । श्रात्मानमात्मनि निवेश्य सुनिः प्रकम्पमेकोsस्ति नित्यमय बोधघनः समन्तात् ॥१३॥ १५ चंतन द्रव्य ( निश्चय नय से ) अशुद्ध परिणमन से रहित, सद्यकाल, सर्वांग में, ज्ञानगुण के समूह रूप विद्यमान है अर्थात् ज्ञानपुंज है। ( व्यवहारनय से आत्मा किस प्रकार शुद्ध होता ? इस प्रश्न का उत्तर है कि आत्मा स्वयं ही स्वयं में प्रविष्ट होकर शुद्ध होता है । भावार्थ आत्मानुभव परद्रव्य की सहायता से रहित है। इससे स्वयं से ही आत्मा स्वयं ही शुद्ध होता है । प्रश्न- यहाँ पर तो ऐसा कहा कि आत्मानुभव करने से आत्मा शुद्ध होता है, और कहीं पर कहा कि ज्ञानगुणमात्र अनुभव करने मे आत्माशुद्ध होता है । सो इन दोनों बातों में विशेष अन्तर पड़ गया । उत्तर- अन्तर तो कुछ नहीं है। शुद्ध वस्तु स्वभाव है जिसका ( शुद्ध नय से) ऐसी जो आत्मा है उसकी स्वानुभूति अर्थात् प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद ही ज्ञानानुभूति है। दूसरे शब्दों में निरुपाधिरूप जीवद्रव्य जैसा है उसका वैसा ही प्रत्यक्ष आस्वाद आवे उसी का नाम शुद्धात्मानुभव कहाना है । उसी को ज्ञानानुभव कहा है। नामभेद है वस्तुभेद नहीं। ऐसा जानो कि आत्मानुभव मोक्षमार्ग है। तब और भी यह संशय होता है कि फिर द्वादशांग ज्ञान को क्यों अपूर्व लब्धि कहा इसका समाधान- द्वादशांग ज्ञान भी विकल्प है । उसमें ( द्वादशांग में) ऐसा कहा है कि शुद्धात्मानुभूति मोक्षमार्ग Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टीका है माला सद्भामान न होन र मात्र पढ़ने का प्रयोजन कुछ नहीं है ।।१।। मक्या शुद्ध पानम प्रातम की अनुभूति विज्ञान विभूनि है मोई । बत विचारत एक पदारथ, नाम के भेद कहावन दोई। या मग्वंग पदा ग्वि प्रापहि, ग्रातम ध्यान करे जब कोई । मेटि अगद्ध विभाव दहा तब, द्धि स्वरकी प्रापति होई ॥१३॥ पृथ्वी छन्द अवण्डितमनाकुलं ज्वलदनन्तमन्तर्वहिमंहः परममस्तु नः सहजमुहिलासं सदा । चिदुच्छलननिर्भरं मकलकालमालम्बते यदेकरममल्लसल्लवनखिल्यलीलायितम् ॥१४॥ जो गद्ध ज्ञानमात्र वस्न उत्कृष्ट है. खण्डिन नहीं परिपूर्ण है, आकुलता मे रहत है. अन्दर-बाहर प्रकाराम् परिणमती है. स्वय सिद्ध है. अपने गणपर्याय गे धागप्रवाहमा परिणमती है। जो जानपज त्रिकाल ही चेतन म्वरूप का आधारभून है, ज्ञान परिणमन में भरा हुआ है. और जो उसी प्रकार मर्वाग हो चेतन है । जिस प्रकार नमक की डला सर्वाग ही खारी होती है। वह ज्ञानमात्र वस्तु मुझं प्रकट हो । भावार्थ - इन्द्रिय ज्ञान खण्डित है और यद्यपि चंतन वनमान काल में उस रूप परिणम रहा है तथापि उसका (निश्चय में) म्बम्प नो अतीन्द्रियज्ञान हो है। संसारी अवस्था में जोव कर्मजनित मुखदुःखरूप परिणमता है परन्तु स्वाभाविक मुख नो निज म्वरूप ही है । जीव वस्तु असख्यान प्रदेशी है और ज्ञानगुण उसके सब प्रदेशों में एक-सा परिणमता है। किसी प्रदेश में कम ज्यादा नहीं है ॥१४॥ संबंया -प्रपने ही गुण परजाय सों प्रवाह रूप, परिणयो तिहं काल अपने प्राधार सों। अन्तर बाहर परकाशवान एक रस, क्षोणता न गहे भिन्न रहे भी विकार सों॥ चेतन के रस सरवंग भरि रग्रा जीव, जैसे लूण-कांकर भर्यो है रस बार सों। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार पूरण स्वरूप प्रति उज्ज्वल विज्ञानघन, मोको होह प्रगट विशेष निरवार मो॥१४॥ अनुष्टुप एषज्ञानघनो नित्यमात्मा मिद्धिमभोप्सुभिः माध्यसाधकमावेन द्विधंक: ममुपास्यताम् ॥१५॥ माधक। मकल कर्मक्षय लक्षण वाले मोक्ष को उपादेयम्प अनुभव करता है। जो अपना आत्मा गिद्ध चैतन्य द्रव्य। जान अथात् म्वपरग्राहक क्नि का पज है और ममस्त विकल्प में गहन है. उमका महाकाल अन भव कगं। दो अवस्थाओं में भंद करके मा भाव किया, कि माध्य नो मकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष है आर माधक है उसका कारण मद्धोपयोग लक्षण गद्धात्मानुभव । भावार्थ-एक ही जीवद्रव्य कारणम्प ना अपने में ही परिणमन करना है और कायर भा अपने में हा परिणमन करता है। इसम मोक्ष जाने तक द्रव्यानर का कोई चारा नहीं । इसमे गद्धानभव करिये ।।१५।। कवित-जहां ध्रव धर्म कर्मक्षय लक्षण, मिद्धि समाधि माध्यपद सोई। शुद्धोपयोग जोग नहि मंडिन, माधक ताहि कहे मब कोई ॥ यो परतक्ष परोक्ष म्बम्प मो, माधक माध्य अवस्था दोई। दुहको एक ज्ञान मंचय करि, मेवे शिव बंछक' थिर होई ॥१५॥ अनुष्टुप दर्शनजानचारित्रमित्रत्वादेकत्वतः स्वयम् मेचकोऽमेचकश्चापि सममात्मा प्रमारणतः ।।१६।। आत्मा अर्थात् चंतन द्रव्य एक प्रकार भी है नथा अनेक प्रकार भी १. वांछा रखने वाला Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समयसार कलश टीका - है। fक्त करने पर एक ही जोव में दर्शन अर्थात् सामान्यरूप से अर्थग्राहक शक्ति ज्ञान अर्थात् विशेषरूप में अर्थग्राहक शक्ति तथा चारित्र अर्थात् यन्त्र शक्ति तांना ही है इसलिए वह अनेक रूप हैऐसा व्यवहार है। और आत्मा अर्थात् चंतन द्रव्य निर्मल है तथा अपने आप से ही निर्भद है. ऐसा निश्चय नय में कहा है। इस प्रकार एक ही समय में आत्मा अनेक भी है एक भी है ऐसा प्रमाण ज्ञान ने सिद्ध होता है । ( प्रमाण कहते है उस ज्ञान को जो एक साथ अनेक धर्मो को ग्रहण करता है) भावार्थ वस्तु को अभेद एकरूप देखना निश्चय दृष्टि है। उसे अनेक गण व स्वभावरूप देखना व्यवहारदृष्टि है। दोनोंरूप एक समय में एक साथ देखना प्रमाण दृष्टि है। आत्मा में दर्शन, ज्ञान व चारित्रगुण हैं इसलिए अनेकरूप है। वह अपने इन गुणों से अभेद है इसलिए एकरूप है। एकरूप अनुभव करना स्वानभव का साधक है ।। १६ ।। कवित - दरमन ज्ञान चरा त्रिगुणातम, समलरूप कहिए विवहार । free दृष्टि एकरस चेतन, भेद रहित प्रविचल प्रविकार ।। सम्यकदशा प्रमाणउभयनय, निर्मल समल एक ही बार । यों समकाल जीव को परिपनि, कहें जिनंद गहे गरणधार ॥ १६ ॥ अनुष्टुप दर्शनज्ञानचारिस्त्रिभिः परिरणतत्त्वतः । Reisfy frस्वभावत्वाद्वयवहारे रण मेचकः ॥१७॥ यद्यपि द्रव्य दृष्टि में जीव द्रव्य शुद्ध है तो भी गुण गुणीरूप भेद दृष्टि से वह अनेक है। उसके दर्शन ज्ञान चारित्र तान गुणरूप परिणमने के कारण भेद वृद्धि भी घटती है ||१७|| दोहा - एक रूप प्रातम दरब, ज्ञान- खररण-हग तीन । भेद भाव परिणाम यो, विवहारे सो मलीन ॥ १७ ॥ अनुष्टुप परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषककः । सर्व भावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचकः ॥ १८ ॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोव-अधिकार गद्ध द्रव्य दृष्टि से जहा ज्ञानमात्र प्रकारा-म्बम्प प्रगट है. वहां शुद्ध जीव वस्तु निर्मल है नवकल्प है। भावायं मदनद वन्द मात्र को ग्रहण करने वाला ज्ञान निश्चय नय करता है। उमनिरचय नय से जीव पदार्थ मवं भेद हित शद्ध है। मवं दम कम भावकम. नोकम अथवा परद्रव्य जिसमें ज्ञेयम्प है. ऐमा जो जीव व भावान्तर अथान :पाधन विभावभाव है उसको निज म्बम्प मेटने वाला है ।।१८ !! रोहा-परि समन व्यतार मो. पर्ययक्ति अनेक । नदप गिर नप देखिए. शुद्ध निरंजन एक ॥१८॥ अनुष्टुप प्रात्म श्चिन्तयवालं मेचकामेचकत्वयोः दर्शनज चारित्रः माध्यसिद्धिर्न चान्यथा ॥१६॥ चनन द्रव्य का नया के पक्षपात में मलीन अमलोन रूप विचार करने में भी माध्य की सिद्धि नही. गेमा निश्चय जानो। भावार्थ-श्रुतज्ञान से आत्मम्वरूप का विचार करन में बहत विकल्प उत्पन्न होते हैं। एक पक्ष से । व्यवहार नय में। विचारने में आत्मा अनेकरूप है, दूसरे पक्ष मे (निश्चय नय से। विचाग्ने में आत्मा अभद रूप है। इस तरह विचार करना भी स्वम्प अनभव नहीं। प्रश्न विचार करना अनुभव नहीं है तो फिर अनुभव है क्या ? उनर -प्रत्यक्षम्प में वस्तु का स्वाद लेना अनुभव है। पद स्वरूप का अवलोकन (दगंन), शुद्ध स्वम्प का प्रत्यक्ष जानना ( जान। और गद्ध स्वरूप का आचरण । चारित्र). इन्ही के द्वारा साध्य अर्थात मकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष प्राप्त होगा। भावार्थ-गद्ध स्वरूप के अनुभव करने में मोक्ष की प्राप्ति है । प्रश्न इतना ही मोक्षमार्ग है या कुछ और भी मोक्षमार्ग है ? उनर इतना ही मोक्ष मार्ग है। अन्य प्रकार माध्य सिद्धि नहीं ॥१६॥ दोहा - एक देखिये जानिये, रमि रहिये इक ठोर । समल विमल न विचारिये, यह मिति नहिं और ॥१६॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार कला टीका मालिनी छन्द कथमपि ममुपात्त त्रित्वमप्येकताया, प्रपतितमिदमात्मज्योतिरुद्गच्छदच्छम् । मतनमनुमवामोऽनन्तचैतन्य चिह्न, न खलु न ग्वलु यस्मादन्यथा माध्यसिद्धिः ॥२०॥ जो आत्म ज्योति प्रकाशरूप परिणमन करनी है, निर्मल है, जिसका अनन्तज्ञान लक्षण है. उस चैतन्य प्रकाशमय आत्माज्योति का निरन्तर प्रत्यक्ष रूप आग्वादन करने से ही माध्यसिद्धि अर्थात् स्वरूप की प्राप्ति है, अन्य प्रकार से नहीं है, नहीं है. ऐसा निश्चय है । व्यवहार दृष्टि से उस आत्मज्योति का भेदरूप ग्रहण है परन्तु शुद्ध दृष्टि से वह ( भेद) घटित नहीं होता अर्थात आत्मज्योति भेदरूप नहीं है ॥२०॥ पद 8P ज्ञान, मोहत मुलक्षण अनन्त ज्योति लह नहीं है। विकासवंत त्रिविधटप व्यवहार में तथापि, एकता न तर्ज यों नियत अंग कही है ।। सो हैं जो कमी हुजुर्गान के सदीव ताके, ध्यान करवेक मेरो मनसा उगी है। जाते अविचल रिद्धि होत, और भांति सिद्धि नाहि, नाहि नाहि यामें धोखा नाहि सही है ||२०|| मालिनी छन्द कथमपि हि लभन्ते भेदविज्ञानमूलामचलितमनुभूति ये स्वतो वान्यतो वा प्रतिफलन निमग्नानन्तभावस्वभाव सर्वया - जाके विमल यद्यपि कुरवदविकाराः संततं स्युस्त एव २१ ।। २१ । अनन्त समार के भ्रमण में जब किसी प्रकार कालन्नब्धि प्राप्त हो तब सम्यक्त्व उपजता है, तब अनुभव होता है। या तो मिध्यात्व कर्म के उपशम से स्वयं ही, बिना उपदेश के अनुभव होता है या अंतरंग में मिथ्यात्व कर्म के Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार उपगम मे तथा बहिरंग में गुरु के द्वारा मूत्र का उपदेग पाकर अनुभव होता है। इस तरह कोई निकट भव्य समारो जीव गद्धजीववस्तु का आग्वाद पाता है जिसका म्व-स्वरूप और परम्वार को अलग-अलग करने वाला विज्ञान अर्थात् जाननपना मूल है। प्रग्न वह अनुभव पाना कंमा है : उनर - निविकार है। गणपर्याय में निविकार गकल द्रव्य जिस में, दर्पण की तरह गगर्देष में रहित निरन्तर प्रतिबिम्बम्प गभित है, ऐसा वह जीव है। भावार्थ - जिम जीव को गद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उसके ज्ञान में मकल पदार्थ उद्दीप्त होते है। भाव अर्थात् गणपर्यायों का जिसको निर्विकार कप अनभव है उमी के ज्ञान में मकल पदार्थ गभित है ॥२१॥ सर्वया के प्रपनो पद प्राप संभारत, के गुरु के मुख को सुनि बानी। • मेव विज्ञान जग्यो जिन्ह के, प्रगटो मुविवेक कला रजधानी ॥ भाव अनन्त भये प्रतिविम्बित, जीवन मोक्ष दशा ठहरानी। ते नर दर्पण ज्यों अविकार, रहें थिररूप सदा मुख दानी ॥२१॥ मालिनी छन्द त्यजतु जगदिदानों मोहमाजन्मलीढं रमयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत् । इह कयमपि नात्माऽनात्मना साकमेकाम् किल कलयति काले क्वापि तादात्म्यवृत्तिम् ॥२२॥ हे जगत की जीव गशि । अनादि काल में लगा हुआ मोह अर्थात मिथ्यान्व परिणाम मर्वथा तत्काल छोड़ी। भावार्थ --गगरादि पगद्रव्य से जीव की एकव वद्धि हो रही है। उसका मुटम काल मात्र के लिए भी आदर करना योग्य नहीं। शुद्ध चैतन्यवस्न म्बानभव ने प्रत्यक्षम्प आम्वादी। वह शद्ध चैतन्य वस्तु अर्थात् जान गद स्वम्प का अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टी जीवों को अन्यन्त मुखकारी है तथा त्रिकाल हो प्रकाशरूप है। प्रश्न --रोमा करने में कार्य मिद्धि कम होगी? उत्तर-मोह का त्याग तथा ज्ञान वस्तु का अनुभव बारम्बार अभ्यास Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ समयसार कला टीका करने में । जीव निसन्देह शब्द है । नेनन द्रव्य का अनात्मा अर्थात् द्रव्यकर्म, भावकर्म, नाकमं इत्यादि समस्त विभाव परिणामां में तादात्म्य किसी भी अतीत-अनागत-वर्तमान काल की समय-धड़ी-पहर-दिन-वरम में किसी भी तरह नहीं ठहरना । भावार्थ - जीव द्रव्य, धातु-पाषाण संयोग की तरह पुद्गल कर्म मे मिन्न. हुआ हो चला आ रहा है। मिलने में मिथ्यात्व रागद्वेषरूप, विभाव वेतन परिणामरूप परिणमना ही आया है। इस तरह परिणमने ऐसी दशा हा गई कि जो जीवद्रव्य का निज स्वरूप है केवलज्ञान- केवन्नदर्शनअतीन्द्रियसुख कवलवीयं उस अपने स्वरूप में तो जीवद्रव्य भ्रष्ट हुआ तथा मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम में परिणमित हुआ । ज्ञानपना भी छूटा । जीव का निज स्वरूप अनन्त चतुष्टय है । र सुख-दुख मोह राग-द्वेष इत्यादि समस्त पुद्गल कर्म की उपाधिया है, जीव का स्वरूप नहीं ऐसी प्रतीति भी छूटी। प्रनानि छूटने से जीव मिथ्यादृष्ट हुआ। मिध्यादृष्टि होने में ज्ञानावरण कर्म वध करने वाला हुआ उस कर्म बंध के उदय होने से जीव नार गनियां में भ्रमण करना है। इस प्रकार ही समार की परिपाटी है । इस प्रकार समार मे भ्रमने भ्रमने किसी भव्यजीव का शव निकट संसार आ जाना है तब जीव सम्यक्त्व ग्रहण करता है। सम्यक्त्व ग्रहण मे पुद्गलपिङरूप मिध्यात्वकर्मा का उदय मिटना है, तथा मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिटता है। विभाव परिणाम के मिटने में शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है। ऐसी सामग्री मिलने पर जीवद्रव्य उद्गलकम ने तथा विभाव परिणाम में सर्वथा भिन्न होता हुआ अपने अनंतचनुष्य को प्राप्त होता है । दृष्टांत जन माना धातु-पाषाण मे ही मिला आया है। तथापि आग का संयोग पाकर उस पाषाण में माना भिन्न हो जाता है ॥२६॥ - सर्वया - यही वर्तमान समे भव्यन को मियो मोह, कर्ममन मों । लग्यो है अनादि को पग्यो हे उद करे मेदज्ञान महा रवि को निधान. उर को उजागे भारी न्यारो बुंद दल सों ॥। जाते थिर रहे अनुभी विलास गहे फिर, कबहूं अपनापो न कहे पुद्गल मों 1 Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोव-अधिकार यह करतूती यों जुदाई करे जगत सों, पावक ज्यों भिन्न करे कंचन उपल सों ॥२२॥ मालिनी छन्द प्रयि कथमपि मृत्वा तत्वकौतूहलोसन् ___ ननुभव भवमूतः पाश्र्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगविलसंतं स्वं ममालोक्य येन त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥२३॥ है भव्य जीव । शरीर में भिन्न स्वरूप हो। भावार्थ--अनादिकाल में जीवद्रव्य एक संस्कारम्प चला आ रहा है। उस जीव का ऐसा कह कर प्रतिबोधित करते हैं कि है जीव, यह मब जो शरीरादि पयाय है सब पुद्गल ममं के है। तुम्हारे नहीं। इसलिए इन सब पर्याया में अपने आप को भिन्न जान। भिन्न जानकर, थोड हो काल में, शरीर में भिन्न चेतन द्रव्य का, प्रत्यक्षम्प मे आम्वादन कर । भावार्थ-गरीर तो अचेतन है, विनश्वर है। गरीर में भिन्न काई नो आत्मा है, प्रेमी प्रतानि ना मिथ्यादष्टि जीव को भो होती है परन्तु माध्य सिद्धि तो उसमें कुछ नहीं होती। जब जोव द्रव्य के द्रव्यगृणपर्याय म्वम्प का प्रत्यक्ष आम्वाद आवे नब मम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र हो । गद चतन्य स्वरूप का कोहली अर्थान म्वरूप देखना नाहने वाला किसी भी प्रकार, किमी भी उपाय मे, मर कर भी, गुद्ध जीव स्वरूप को जानने का उपाय करता है। शुद्ध चैतन्य के अनुभव में द्रव्यकर्म-भावकमनोकर्म इन्यादि कमम्प पर्याय में जो एक समारम्प---में देव, मैं मनुष्य, मैं नियंच, मैं नारकी, मैं मुखी, मैं दुखा, मैं क्रोधी. मैं मानी, मैं यती, मैं गृहस्थ इत्यादि रूप जो प्रतीति है वह जाती है अर्थात नष्ट होता है। मोह अर्थात् विपरीत रूप में अनुभव होना । हे जीव ! अपनी ही वृद्धि में तू ही छोड़ सकता है। भावार्थ-अनुभव जानमात्र वस्तु है। एकन्वमोह-मिथ्यात्व जीव द्रव्य का विभाव परिणाम है । तो भी इनका आपम में कारण-कायंपना है। इसका खुलासा-जिस काल जीव को स्वानुभव होता है उस काल मिथ्यात्व Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार कलश टीका परिणमन मिटता है. उस काल अवश्य स्वानुभव शक्ति होती है । अनादिनिधन, प्रगटरूप में चेतनारूप परिणमित अपनी शुद्ध चैतन्य वस्तु का स्वसंवेदन प्रत्यक्षरूप से आस्वादन करने से मिथ्यात्व परिणमन मिटता है ||२३|| २८ सर्वया - बनारसी कहे भया भव्य सुनो मेरी सीख, केहू भांति कंसेह के ऐसो काज कोजियो । एक मुहरत मिध्यात्व को विध्वंस होइ, ज्ञान को जगाय श्रंस हंस खोज लीजिए || वाही को विचार वाको ध्यान यह कौतूहल, योंही भर जनम परम रस पीजिए । तजि भववाम को विलास सविकाररूप, अंत कर मोह को अनन्त काल जोजिए ॥ २३ ॥ शार्दूलविक्रीडित छन्द कान्त्येव स्नपयन्ति ये दशदिशो धाम्ना निरुन्धन्ति ये, धामोद्दाममहस्विनां जनमनो मुष्णन्ति रूपेण ये । दिव्येन ध्वनिना सुखं श्रवणयोः साक्षात्भरन्तोऽमृतम्, वन्द्यास्तेऽष्टसहस्रलक्ष रणधरास्तीयश्वराः सूरयः 112311 शंका- कोई मिथ्यादृष्टि कुवाद मतांतर की स्थापना करता है कि जीव और शरीर एक हो वस्तु है। जिस तरह जैन मानते हैं कि शरीर से जीव भिन्न है । उस तरह नही - एक ही है। इसलिए शरीर की स्तुति करने से आत्मा की स्तुति होती हैं। ऐसा जैन भी मानते है कि तीर्थकर देव त्रिकाल नमस्कार करने योग्य हैं। तीर्थकर के शरीर की दीप्ति निश्चय में दशों दिशाएं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर दक्षिण- चार दिशा, चार कोणरूप विदिशा, ऊर्द्ध और अध ) पवित्र करती है । इस प्रकार तीर्थकर के शरीर का वर्णन किया है। ऐसे जो तीर्थकर है उनको नमस्कार है। इससे हमको ऐसी प्रतीति हुई कि शरीर और जीव एक है। तीर्थकर शरीर के तेज से उम्र है, तेजस्वी है जिसमे कोटिसूर्य का प्रताप भी रुकता है । भावार्थ - तीथंकर के शरीर में ऐसी दीप्ति है कि यदि करोड़ सूर्य्य होते तो उस दीप्ति में करोड़ सूर्य की भी दीप्ति रुकती अर्थात् फीकी पड़ती । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार २५ यहाँ भो शरीर की ही बड़ाई कही गई है। तीर्थकर गरीर की गोभा मे. देव-मनुष्य-तिर्यच के अंतरंग को चुरा लेते हैं। भावार्थ--जीव, तीर्थकर के शरीर की शोभा को देखकर जैसा मुख मानते हैं वैमा मुख तीन लोक में अन्य वस्न को देखकर नहीं मानते है । यहाँ फिर शरीर की बढ़ाई है। नीर्थकर देव की ममग्न त्रिलोक में उत्कृष्ट निरक्षरी वाणी के द्वारा सब जीवों को कर्णेन्द्रियों में त्रिकाल अमन अर्थात् मुखमई गान्नग्म बरमता है। भावार्थ तीर्थकर की वाणी मुनना मत्र जीवों को चिकर लगता है, बहुन जीव मुखी होते हैं । यहां भी गरीर को बड़ाई है। आठ और एक हजार अर्थात् एक हजार आठ लक्षण महज हो जिनके शरीर के चिह्न है मे है नीर्थकर । भावार्थ-तीर्थकर के शरीर पर शख, चक्र, गदा, पद्म, कमल, मगर, मच्छ, ध्वजा इत्यादि मी आकृतियों की रेखाएं पड़ती है जिन समस्त गणों की एक हजार आट गिनना होती है। यहां फिर गरीर की बड़ाई है। तीर्थकर मोक्षमार्ग का उपदेश करते है । यहाँ फिर शरीर को बड़ाई है। इसमें शरीर और जीव एक ही है, हम तो ऐसी ही प्रतीति है. ---कोई मिथ्यामतोमा मानता है। समाधान -- प्रथ के रचयिता तो वचन व्यवहार मात्र में जोव और शरीर का एकरूप कहते है। इसमे मा कहा कि शरीर का तांत्र (वन्दन) तो व्यवहार मात्र जीव का स्तोत्र है। द्रव्यदृष्टि में देखने मे जीव और शरीर भिन्न-भिन्न है। इसमें जैमा म्तोत्र कहा वह तो म्वसिद्ध झूठा है क्योंकि शरीर का गुण कहने में जीव की म्नति नहीं होती है। जीव के जानगण की स्तुति करने में (जीव की) स्तुति होती है। प्रश्न-जैसे नगर का स्वामी गजा है इसमे नगर की स्तुति (नार्गफ) करने मे राजा की स्तुति होती है। उसी तरह गरीर का स्वामी जीव है इसमें शरीर की स्तुति करने मे जीव की स्तुति होती है। उत्तर-ऐसा नहीं है। राजा के निज (अपने) गुणों की स्तुति करने Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलग टीका में ही गजा का ति होनी है । उमी तरह जीव के निज (अपने) चैतन्यगुण की स्तुति करने में ही जीव की स्तुति होती है, "मा कहा है ।।४।। मईया ..जाके देश धनि मों दमों दिशा पवित्र भई. जाक मेज प्रागे मब तेजवन के हैं। जाको कम्व निग्वि थकित महारूपवंत, जाके वपु वाम मों मुबाम और नुके हैं। जाको दिव्य ध्वनि मुनि श्रवण को मुम्ब होत, जाक नन नभन अनेक प्राय ढके हैं। तेई जिनगज जाके कहे विवहार गुरण, निश्चय निवि शुद्ध चेतन मों चके हैं ॥२४॥ प्रार्या प्राकारकवलितांवरमुपवनराजीनिगोर्गभूतितलं । पिबतोव हि नगरमिदं परिखावलयन पातालम् ॥२५॥ गजग्राम को परिक्रमा करती बाई इतना गहग : कि मानों पाताल अर्थान अधालाक का जल पाती है। नगर कोट इतना ऊना है कि जमे आकाग को ही निगल रहा हो । नगर को नहंदिन घर घने उपवन हैं कि माना ममग्न भूमनल पर छा जायग । एमा वह नगर है। भावार्थ नगर के नाग नरफ घना बाग है। इस तरह नगर की स्तुति करने में राजा का म्नति नहीं हाती है। यहा पर खाई का. कोट का, बाग का वर्णन किया वह ता राजा के गुण नहीं है । गजा के गृण है दान, पोम्प, जान उनका स्नान करने में राजा का स्तुनि होती है ।।२५। सर्वया ऊंचे-ऊंचे गढ़ के कांगुरे यों विराजत हैं. मानों नभ लोक लीलिवेको दांत दियो है ! मोई, चहं पोर उपवन की मघनताई, घेराकर मानों भूमिलोक घेर लियो है।। गहरी गंभीर खाई ताकी उपमा बताई, नीचोकरि प्रानन पाताल जल पियो है। ऐसो है नगर यामें नप को न अंग कोऊ, यों ही चिदानन्द सों शरीर भिन्न कियो है ।।२।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार २७ प्रार्या नित्यमविकारसुस्थितसर्वांगमपूर्वसहजलावण्यं । प्रक्षोममिव समुद्रं जिनेन्द्ररूपं पर जयति ॥२६॥ नीर्थकर के आयुपर्यन एक प. बालकपन ---तरुणापन-बढ़ापे के विकार मे हित, मर्वाग में मुस्थित, बिना यत्न के आश्चर्यकारी लावण्य से पूर्ण ममुद्र की नग्ह निःचल शरीर को शाभा जयवत हो। भावार्थ-जम वायु ने गहन समुद्र निश्चल है वम ही तीर्थकर का शरीर निश्चल है। इस प्रकार अर्गर को स्नान करने में आत्मा की स्तुति नहीं होती है । क्याकि शरीर का गृण आत्मा में नहीं है । आत्मा का ज्ञानगुण है । ज्ञानगुण की स्तुति करने में आत्मा को स्तुति होती है ॥२६॥ सबंया ---- जामें बालपनो तरुनापो वृद्धपनो नाहि, प्रायुपर्यन्न महारूप महाबल है। बिना ही जतन जाके तन में अनेक गुन, प्रतिमय विराजमान काया निमल है। जमे बिन पवन समुद्र प्रविचन रूप, तसे जाको मन अरु प्रासन अचल है। ऐमो जिनगज जयवन्त होउ जगत में, जाको शुभगति महामुकृति को फल है ॥२६॥ शार्दूलविक्रीडित छन्द एकत्त्वं व्यवहारतो न तु पुनः कायात्मनोनिश्चयाव: स्तोत्रं व्यवहारतोऽस्ति वपुषः स्तुत्या न तत्तत्वतः स्तोत्रं निश्चयतश्चितो मति चित्स्तुत्यंवसंबंभवेनातस्तीर्थकरस्तवोनरबलादकत्वमात्मानयोः ॥२७॥ इम प्रकार, नीर्थकर अथवा परमेश्वर के गरीर की स्तुति करने में आत्मा का म्नति होती है--सा जा मिथ्याति जीव कहते हैं, उनको उत्तर दिया है कि शरीर की प्रति कग्न म आत्मा की स्तुति नहीं। आत्मा के ज्ञान गुण की स्तुति करने में आत्मा की स्तुति है । इम उनर में जिस आत्मा का मंदेह दूर हो गया उसका ममम्न कम की उपाधि के साथ एक द्रव्यपना नहीं होता है। जैसे मिथ्यादृष्टि कहता था जीव की स्तुति में नहीं होती है कमे होती है यह आगे बताते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टीका गंगाद नथा तन हव्य का कथन मात्र के लिए एकपना है। जमें- मोने और चादी को मिलाकर एक पामा बना ले तो कहने के लिए तो उम मारे को मांना ही कहा जाता है। इसी प्रकार जीव और कम अनादि मे एक क्षेत्र मबंध म्प मिला आया है इमर्माना कथन मात्र के लिए उस जीव ही कहते है । परन्तु दूसरे पक्ष में द्रव्य के निज म्बम्प के विचार में, निश्चय ही, जीव-कर्म का एकपना नहीं है। भावार्थ---मोना-चांदी यद्यपि एक क्षेत्र मिला है, एक पिंडम्प है, मोना पीलापन, भारीपन चिकनापन इम प्रकार अपने गुण लिए हए है और चांदी भी अपना श्वेतगुण लिए हुये है। इाला एकपना कहना झूठा है । इसी प्रकार जीव-कर्म याप अनादि-काल मे बंध-पर्यायम्प मिला आया है, एक पिइरूप है तथापि जीव द्रव्य में अपना ज्ञानगुण विराजमान है। कर्म भी पुद्गल द्रव्य का अचेतन गुण लिए हुये हैं। इसलिए एकपना कहना झूठा है नथा म्नति करने में भंद है। __व्यवहारतः अर्थात् बध-पर्यायम्प एक क्षेत्रावगाह होने की दृष्टि मे, शरीर की स्तान में जीव का ग्तति होती है परन्तु दूसरे पक्ष मे शुद्ध जीव द्रव्य के विचार में नहीं होता है। भावार्थ-यप कहने में स्वंत म्वणं आता है तथापि वेतपना गुण चांदी का है। इसलिए माना मफंद है गेमा कहना झठा है। दो तीर्थकर रक्तवणं थे. दो कृष्ण, दा नील. दो पन्नावर्ण तथा मालह म्वर्ण के रंग के थे यद्यपि मा करने में आता है तथापि वेत, रक्त, पीतादि पुद्गल द्रव्य के गण हैं. जीव के गण नहीं है। इस तरह वन. ,रक्त, पीतादि कहने से नही, ज्ञानगुण कहने में जीव की ग्नान है। प्रश्न--फिर गरीर की म्नति करने में जीव की म्नति कैसे होती है ? उत्तर-उसका चिद्र प अर्थात ज्ञान-स्वरूप कहने में होती है। गद्ध जीव द्रव्य के विचार मे. गद्ध ज्ञानादि का वारंवार वर्णन-म्मरणअभ्यास करने मे नि संदेह जीव द्रव्य की म्नति होती है। भावार्थ पीला, भारी, चिकना मोना कहना मोने की बम्प म्नति है। केवली सा है ? केवली गेमा है कि जिसने पहले तो गद्ध जीव म्वरूप का अनुभव करके इन्द्रियों को तथा विषय-कपाय को जीता और बाद में जड़ में ही उनका क्षय कर दिया। जो मकल कर्मों का क्षय करके केवलज्ञानकेवलदर्शन-केवलवीयं-केवल मुम रूप विगजमान है---ऐसा कहने मे, जानने से तथा अनुभव करने में केवली की गणम्वरूप स्तुति होती है। इस तरह यह Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार अर्थ ठहग कि जीव-कर्म एक नहीं भिन्न-भिन्न है। यदि जीव-कर्म एक होता तो इतना म्ननि भेद कैसे होता ॥७॥ कवित--नन-चेतन व्यवहार एक से, निह भिन्न-भिन्न हैं दोई। तनु को स्तुति विवहार जीव युनि, नियतवृष्टि मिथ्या युति मोई ।। जिन मो जीव, जीव मो जिनवर, तनु-जिन एक न माने कोई। ना कारण तनु को जो थुति, मो जिनवर को थुति नहीं होई ॥२७॥ मालिनी छन्द इति परिचिततत्त्वरात्मकार्यकतायां नर्यावमजनयुक्त्यात्यन्तमुच्छादितायाम् । अवतरति न बोधो बोधमेवाद्य कस्य स्वरमरभसकृष्टः प्रस्फुरने के एव ॥२८॥ इम प्रकार भंदकर समझाए जाने पर त्रिलोक में मा कोन जीव है जिमको जानक्ति, स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप में अनुभव करने के लिए अब भी परिणमनील नहीं होगी ! भावार्थ-- जीव और कर्म का भिन्नपना अति प्रकट करके दिखाया, उमे मृन कर भी जिम जीव का ज्ञान नहीं उपजना, वह भाग्यहीन है। जोवादि मकल द्रव्य के गृण-पर्याय में परिचित भगवान सर्वज्ञ ने द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयों के पक्षपात का विभाग द निरूपण करके, भिन्न स्वरूप-वस्तु के माधनाथं, जीव द्रव्य को अत्यन्त निःमंदहरूप में, इस प्रकार प्रकट कर दिया है जैसे किमी छिपी हुई सम्पत्ति को प्रकट कर देते हैं। परिकम संयोग मे ढंका होने में चेतन द्रव्य और कमंपिड की एकता का भ्रम पैदा होता था मां भ्रांति श्री नीर्थकर का उपदेश मूनकर मिटनी है और कर्म संयोग से भिन्न शुद्ध जीव स्वरूप का अनुभव होता है। ऐमा अनुभव सम्यक्त्व Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० समयमार कलग टीका है। एक नन्याप निम्नय में प्रकटम्प है तथा उसके बग्म अर्थात् मान ग्वभाव का उत्कर्ष पृज्य है ।।।। मया ज्यों चिरकाल गही मुधा महि. नर महानिधि ग्रंकर गझी। को ग्वारि घरे महि परि, जो दगवन निने ब मूझी ।। न्यों गर प्रारम की अनुमति, पड़ी जाभाव प्रनादि प्रमझी। नं जुगनागम माधि कही गृह. लहान वेदि विचक्षण बझी ॥२॥ भालिनी छन्द अवतरति न यावद्वतिमत्यन्नवेगादनवमपरमावत्यागदृष्टान्तदृष्टिः झटिति मकल भावग्न्यदीय विमुक्ता म्वमियमनुभूतिम्तावदाविभूट ॥२६॥ जिनन काल गद नैतन्य द्रव्य का प्रत्यक्षम्प में जानना है, उतने काल नक, उमी ममय. महज है। अपने ही परिणमनम्प अनुभूति होगी। वह अनुभूनि. गद चतन्यरूप में भिन्न जो द्रव्यकम. भावकम, नोकर्म संबधी समस्त गणम्थान-मागंणास्थानरूप. गग-द्वेष-मोह इत्यादि बहत मे विकल्प अथवा भावरूप परिणाम है. उनमें मया हित है । भावार्थ जितने भी विभाव परिणाम. विकल्प अथवा मन-वचनउपचार में द्रव्य-गण-पयांय भद. उत्पाद-व्यय-ध्राव्य भद है. उनके विकल्पों में रहित शद्ध चेतना मात्र के. आम्बादम्प ज्ञान का नाम अनुभव कहा है। शद्ध चैतन्य मात्र में भिन्न ममम्त द्रव्यकम---भावकम नोकर्म आदि भावों का न्याग कि यह ममम्न झट है. जीव का स्वरूप नही, जिम समय तथा जितने ममय मा जो प्रत्यक्ष आस्वादरूप ज्ञान है उमको दृष्टान्त से समझाते है। कोई पुरुप धोबो के घर में अपने कपड़े धान में पराया कपड़ा ले आया और उसका वैसे ही. बिना जान पहन कर अपना जान लिया। बाद में उस कपडं के मालिक ने कांना (निमान दिखा कर कहा कि यह Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीव-अधिकार ३१ कपड़ा ना मेरा है और मेरा हो है। ऐसा सुन कर उसने देखा, पहचाना और जाना कि हमारा ता निशान मिला नही । इसलिए निश्चय ही यह कपड़ा हमारा नही. पराया है। ऐसी प्रतीति होने पर व्याग होना घटित होता है । कपड़ा अभी पहना हुआ ही है फिर भी उसका त्याग घटिन होता है क्योंकि उसमें मालिकपना छूट गया। इसी प्रकार जोव अनादि काल में मिथ्यादृष्टि है जो कर्म-मयोग जनित अवस्था है । शरीर दुख-सुख-गग-द्वेषादि विभाव पयाय को अपना हो जानता है और उन्ही रूप प्रवर्तता है। हेय उपादेय नही जानना है। इसी प्रकार अनन्तकाल भ्रमता हुआ जब परमगुरु का उसको ऐसा उपदेश मिले कि हे जीव ! यह सब जो शरीर सुख-दुख रागद्वेष-मोह को तु अपना जान रहा है और जिनमें तु रत हुआ है वे तो सब ही ने नहीं हैं, अनादि कर्म- संयोग को उपाधि है तो ऐसा उपदेश बराबर सुनते-सुनते जीव को विचार उपजता है कि जीव का लक्षण तो शुद्ध चिप इसलिए इतनी उपाधियां तो जीव की नहीं और उसका थोडा समोर शेष रह जाना है। जिस समय ऐसा निश्चय हुआ कि ये सब कर्म- संयोग की उपाधि हैं, उसी समय मकल विभाव-भाव का त्याग है। शरीर सुख-दुख जैसा था अभी वैसा ही है. परन्तु परिणामों में त्याग है । जिसमें मालिकपना छटा उसका नाम अनुभव है, उसका नाम सम्यक्त्व है । ऐसे दृष्टान्त की तरह किसी जीव की दृष्टि उपजी अर्थात् जिसको शुद्ध चिप का अनुभव हुआ, उसके अनादिकाल से चले आए कर्म-पर्याय से reaपने के सरकार नहीं रहे। वह त प परिणमन करता है । भावार्थ - यदि कोई कहे कि शरीर-सुख-दुःख-राग-द्वप-मोह इन सब की न्यागवद्धि कुछ और है- कारणरूप है और शुद्ध चित्र पमात्र का अनुभव कुछ और है कार्यरूप है तो उसको इस प्रकार उत्तर देते हैं: राग-द्वेष-मोहशरीर सुख-दुःखादि विभाव परिणमन जीव करता था। जिस समय ऐसा अशुद्ध परिणमन संस्कार छूटा उसी समय उसका शुद्ध चिद्र पमात्र का अनुभव है। विवरण - शुद्ध चेतना मात्र का स्वाद आए बिना अशुद्ध भाव परिणाम छूटना नहीं और अशुद्ध संस्कार छूटं विना शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता नहीं। इससे जो कुछ है, मां, एक ही काल, एक ही वस्तु, एक ही ज्ञान, एक ही स्वाद है । जिसको शुद्ध अनुभव हुआ है वह जीव कैसा है यह आगे कहते हैं ||२६|| मया - जैसे कोउ जन गयो धोबी के मदन तिनि, पहरू यो परायो वस्त्र मेरो मानि रह्यो है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टीका धनी देवि को भइया यह तो हमारे वस्त्र, बोनहो पहचानन हो त्यागभाव लह्यो है ॥ तसे ही प्रनादि प्रबगल मो मंजोगी जीव, मंग के ममत्व मों विभाव नामें बह्यो है। भेद-जान भयो जब प्रापा पर जान्यो तब, न्यारो परभाव मों मुभाव निज गयो है ॥२६॥ त्रोटक छन्द मर्वतः म्बरमनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैक । नास्ति नास्ति मम कश्चनमोहः शुद्ध निद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ विभाव परिणाम जिमम छुट गया है, मैं एमी अनादि निधन चिद्र प वग्न ह जिमको मा म्वाद कि मैं ममम्त भेद वद्धि मे रहिन गद्ध वस्तु मात्र है स्वयं ही, उपदंग बिना ही. स्वमवेदन प्रत्यक्षम्प में आता है, ऐमी चिद्रप वम्न के भाव में उनके असम्यान प्रदंग चैनन्यपने में सम्पूर्ण है। ___ भावार्थ----जो कोई मा जानता है कि जैन सिद्धान्त का बारबार अभ्याम करने में दनु प्रतीति होती है उसका नाम अनुभव है. सो मा नहीं है। मिथ्यान्व कम के रम-पाक मिटने में मिथ्यान्व भावरूप परिणमन मिटता है नव वस्तु म्बम्प का जो प्रत्यक्ष आस्वाद आता है उसका नाम अनुभव है। अनुभवगील जीव अनुभव करता है कि मर माह अथांत् ममम्न विभावरूप अगद्ध परिणाम द्रपिडरूप और जीव मबंधो भाव परिणमनम्प ...सर्वथा ही----नहीं है, नहीं है । मैं समस्त विकल्पों में रहिन, चेतनपने का समूह उसके उद्यांत की निधि अर्थात् समुद्र है। भावार्थ कोई यह न जान ले कि सब ही नास्तिरूप होता है इसलिए एसा कहा कि गुद्ध चिद् पमात्र वस्तु नो है हो ॥३०॥ डिल्ल- कहे विचक्षण पुरुष सदा हूं एक हों। अपनेरससं भरयो प्रापकी टेक हों। मोहकर्म मम नाहि नाहि भ्रमकूप है। शुद्ध चेतन सिंधु हमारो रूप है ॥३०॥ मालिनी इति सति सह सर्वरन्यभावविवेके स्वयमयमुपयोगो बिभ्रदात्मानमेकं । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोव-अ-िप्रकटितपरमार्दर्शनज्ञानवृत्तः कृतपरिणतिरात्माराम एवं प्रवृत्तः ॥३१॥ पूर्वोक्त प्रकार में यही जोवद्रव्य, अन्य द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न शुद्ध चिद्र पमात्र. गुट चैतन्यरूप होते हुए, शुद्ध पर्यायरूप जैसा था वसा प्रकट हुआ। आत्मा का निभेद, निर्विकल्प चिद् प वस्तु जैसी है उसी म्प परिणाम हुआ । दर्शन अर्थात् श्रद्धा-रुचि-प्रतीति, शान, चारित्र अर्थात् शुद्ध परिणति, ऐसा जा रत्नत्रय है उस रूप उसने परिणमन किया। और उम जीव ने, जिमका क्रीडावन अर्थात् आराम का स्थल अपनी आत्मा में ही है, मकल-कर्म-क्षय लक्षण मोक्ष को प्रकट किया है। भावार्थ-- जीव द्रव्यशक्ति रूप में तो शुद्ध था और कर्म संजोग से अगदरूप परिणमा था। अशुद्धपना गया तो जैसा था तैसा हो गया। जैसे सोने की गोधने में कालिमा जाने पर मोनामात्र रह जाता है उसी तरह मोहगग-द्वेष विभाव परिणाम मात्र के जाने पर महज ही शुद्ध चेतनमात्र रह जाता है। मिथ्यात्व परिणति का त्यागकर, शुद्ध स्वरूपका अनुभव होने में माक्षात् रतनत्रय घटित होता है। "सम्यग्दर्शनज्ञानारत्राणि मोक्षमार्ग: एसा कथन तो सर्व जैन सिद्धान्त में है और यह हो प्रमाण है । अशुद्ध अवस्था में चनन पर रूप परिणमता था, वह तो मिट गया, अब स्वरूप परिणमन मात्र रह गया ॥३१॥ संबंया- तत्व की प्रतीति सों लल्यो है निज-परगुरण, दृग-जान चरण त्रिविध परिणयो है। वसद विवेक पायो माछो विसराम पायो, प्रापही में अपनी सहागे सोधि लयो है। कहत बनारसी गहत पुरुषारय को सहज सुभाव सों विभाव मिटि गयो है। पन्ना को पकाए जैसे कंचन विमल होत, तसे शुद्ध चेतन प्रकाश रूप भयो है ॥३१॥ उपेन्द्रवज्रा मज्जंतु निर्भरममी मममेव लोका आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार प्राप्लाव्य विभ्रमतिरस्करिणी भरेरण प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ॥३२॥ इस प्रकार भगवान अर्थात् जीवद्रव्य, जिसका मदाकाल प्रत्यक्ष चेतन म्वरूप है और जो जान मात्र का पात्र है, जिसने विपरीत अनुभव मिथ्यारूप परिणाम को जड़ से उखाड़ कर दूर किया, शुद्ध म्वरूप का आच्छादन करने वाले परदे को ममूल नष्ट करके, शुद्धांग म्वरूप दिखा कर प्रकट हुआ। भावार्थ - इस ग्रन्थ का नाम है नाटक । रंगमंच पर भी प्रथम ही मदांग नाचना है तथा यहां भी प्रथम ही जीव का शद्ध स्वरूप प्रकट हआ। रंगमंच पर भी पहले कपड़े का पर्दा पड़ा होता है उसको हटा कर शुद्धांग नाचता है। यहां भी अनादिकाल मे मिथ्यात्व परिणति है जिसके छूटने पर गद्ध म्वरूप परिणमता है। हे समम्त लोक में विद्यमान जीव गशि ! शुद्ध म्वरूप के अनुभवरूप मातरम में, जो मर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है, लोकालोक का ज्ञाता है, एक ही वार ही अति ही मग्न हो, तन्मय हो । भावार्थ-- रंगमंच पर भी शुद्धांग प्रदर्शन करता है वहां जितने भी देखने वाले हैं एक ही बार में मग्न हाकर देखते हैं तथा जीव का स्वरूप शुद्ध रुप मे दिखाया जाय तो सब ही जीवों को अनुभव करना योग्य है ॥३०॥ सवया. जैसे कोउ पातुर बनाय वस्त्र प्राभरण, प्रावत प्रखारे निमि प्राडोपट करिके। दुहं मोर दीवटि संवारि पट दूर कीजे, सकल सभा के लोक देखें दृष्टि परिकें। तैसे मान सागर मिण्यात प्रन्थि मेदिकरि, उमग्यो प्रगट रह्यो तिहुं लोक भरिके। ऐसो उपदेश मुनि चारिए जगत जीव, शुद्धता संभारे जग जालमों निकरिः॥३२॥ दोहा-जीवतत्व अधिकार यह, प्रगट को समझाय । प्रब अधिकार प्रजोव को, सुनो चतुर मनलाय ।। ॥ इति जीव-अधिकार ॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय अध्याय प्रजीव-अधिकार मालिनी जोराजीवविवेकपुष्कलदृशा प्रत्याययत्पार्षदा. नासमारनिबद्धबन्धनविधिध्वंमाद्विशुद्धं स्फुटत् ॥ प्रात्माराममनन्तधाममहसाध्यक्षेण नित्योदितं । धीरोदात्तननाकुलं विलसति ज्ञानं मनोह्लादयत् ॥१॥ इस प्रकार ज्ञान अर्थात् जीव द्रव्य जमा है वंमा ही प्रकट होता है। शदांग तन्वरूप जीव का निरूपण विधिरूप । अम्तिम्प) है नथा उसी जीव का प्रतिपंध (नास्ति) कप भी कथन होता है। जैम-शद जीव है, टकांकाणं है, चिद्रप है-एसा कथन तो विधि (अस्ति) रूप है और जीव का स्वरूप गुणस्थान नहीं, नोकम नहीं, भावकम नहीं- ऐसा कहना प्रतिबंध (नास्ति रूप कथन है। जो जीव अतःकरणद्रिय का आल्हादित (आनन्दित) करता हआ आठ कर्मो म रहिन स्वम्वरूप मपरिणमा है, स्वसवदन प्रत्यक्ष है, जिसका स्वस्वरूप ही कीड़ावन अर्थात विश्रामस्थल है, जिसका नेजपज अनंत है, जो निरावरण प्रत्यक्ष है, जिस चतन्य शक्ति का प्रताप त्रिकाल शाश्वत है, जो धीर (अडाल) है, सबम वड़ा है तथा जो इन्द्रियनित सुख-दुःख से रहित अतीन्द्रिय मुख में विराजमान है, वह किम प्रकार प्रकट हुआ यह कहते है। अनादिकाल में जीव में मिली आई जो बधनविधि अर्थात् ज्ञानावरणकर्म, दर्शनावरण कर्म, वंदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र, अन्तराय, इत्यादि जो आठ कम से तथा राग-दंष-मांह परिणाम इत्यादि भावकम से बद्ध विकल्परूप थिति है उसके ध्वंम में अर्थात् नाश में जीव जमा कहा, वैसा प्रकट होता है। भावार्थ-जिस समय जल और मिट्टी एक माय मिले हए हैं उस समय भी यदि स्वरूप का अनुभव किया जाय तो मिट्टी जल से भिन्न है। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलग टीका जल अपने बाप है। उमा नरह, ममागवस्था में जीव पर्याय में कर्मों से एक क्षत्र मिला हुआ है। उमी अवस्था में यदि गद्ध स्वरूप का अनुभव किया जाय नी ममम्न कम जीव स्वरूप में भिन्न है। जीव द्रव्य का म्वच्छ स्वरूप जमा कहा वैमा है। मी विवेकद्धि उमो भेदज्ञान दृष्टि के द्वारा उपजती है जिसके द्वाग गणधर मनावर का यह प्रतानि उपजी कि चेतना द्रव्य का अजीव म-जरकम-नांकम-भावकर्म में भिन्न भिन्नपना है। विस्तीर्ण अर्थात विशाल ज्ञानदृष्टि में जीव और कर्म का भिन्न-भिन्न अनुभव करता जीव जमा कहा वैमा है. ॥१॥ संबंया.... परम प्रतीति उपजाय गणधर कोसी, प्रतर प्रनादि की यिभवता विदारी है। मेव मान दृष्टि मों विवेक की, मकति ताप, खेनन प्रचन्न की दमा निग्वारी है । करम को नाश करि, अनुभौ प्रभ्याम धर्धार, हिये में हरवि निज उद्धता मंभारी है। नगय नाम गयो शुद्ध परकास भयो, मान को विलाम ताको बंदना हमारी है ॥१॥ मालिनी विरम किमपरेणाकार्यकोलाहलेन म्वयमपि निभृतः मन् पश्य षण्माममेकं । हृदयसरसि पुंसः पुद्गलादिन्नधाम्नो ननु किमनुपलब्धि ति कि चोपलब्धिः ॥२॥ कोई मिथ्यादृष्टि जीव-शरीर को जीव कहता है. कोई आठ कमों को जोब कहता है तथा कोई गगादि मूक्ष्म अध्यवसाय को जीव कहना है-इस प्रकार जो नाना मूठे विकल्प हो रहे हैं उनमे हे जीव ! विरक्त होकर, एकाग्ररूप होता हआ, जैसे भी बने विपरीतपन को छोड़ कर. शद चिद्रप मात्र का स्वसंवेदन प्रत्यक्षपने मे अनुभव कर । बारम्बार बहुत क्या कह, अनुभव करने से ही म्वरूप की प्राप्ति है। हे जाव ! हृदयरूपी मरांवर में जोवद्रव्य रूपी कमल को अप्राप्ति नहीं है। शुद्ध म्वरूप का अनुभव करने से स्वरूप Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव-आधका . की प्राप्ति न हो, ऐसा नहीं है, द्रव्यकर्म-भावकर्म-नोकर्म से भिन्न चेतनरूप तेजपज को अवश्य प्राप्ति होगी ॥२॥ संबंया-भैया जगवासी तं वासीह के जगत मों, एक छः महीना उपदेश मेरा मान रे। और संकलप विकलप के विकार तजि, ठिके एकांत मन एक ठौर प्रान रे॥ तेगे घट सर नामें तंहीहै कमल बाको, तूंही मधुकर है, हंगुवास पहिचान रे। प्रापनि न कछ ऐको शिवारत है, सही प्रापति मरूप गोंडी जान रे॥२॥ अनुष्टुप विच्छक्तिव्याप्तमर्वस्वसारो जीव इयानयं अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि नावाः पौद्गलिका प्रमी ॥३॥ दर्शन-जान-चरित्र-मुख-वीर्य इत्यादि चेतनामात्र के अनन्त गुणों से व्याप्त जीव, बस इतना ही है। द्रव्यकम-भावकम-नोकर्मरूप अशुद्ध रागादि विभाव परिणाम मत्र पुद्गल द्रव्य से उपजे हैं और गुट चननामात्र जीववस्नु मे अति ही भिन्न हैं । इमी ज्ञान का नाम अनुभव कहा है ॥३॥ दोहा-चेतनवन अनंत गुण, सहित मु प्रातमराम । यात अनमिन और मब, पुद्गल के परिणाम ॥३॥ मालिनी सकलमपि विहायालाय चिच्छतिरिक्तं स्फुटतरमवगाह स्वं च विच्छक्तिमात्रं । इममुपरि चरन्तं चारु विश्वस्य साक्षात् कलयतु परमात्मात्मानमात्मन्यनन्तं ॥४॥ जीवद्रव्य अपने में, आपको, निग्नर अनुभव करो । मानगुण से शून्य जो समस्त द्रव्यकर्म-भावकम-नोकर्म इत्यादि हैं उनका मूल से छोड़कर जीवद्रव्य अर्थात् आत्मा समस्त त्रैलोक्य में सर्वोत्कृष्ट है, उपादेय है, मुख स्वरूप है, शुद्ध स्वरूप है और शास्वत है। साक्षान ऐसा ही है, कुछ वड़ाई करके ऐसा नहीं कहा है । जैसा अनुभव में आया वैसा ही कहा है। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार कलश टीका भावार्थ - जिननी कुछ भी कर्म जाति है वह समस्त हेय है। उनमें कोई भी कर्म उपाय नहीं है। कैसे अनुभव में आया, वैसा ही कहते हैं ज्ञानगुण ही जिसका स्वरूप है, उस स्व का प्रत्यक्ष रूप से आस्वाद करके । भावार्थ - जितने भी विभाव परिणाम हैं वह कोई भी जीव के (अपने) नहीं । ક जीव शुद्ध चैतन्य मात्र है - ऐसा अनुभव करना कर्तव्य है ॥ ४ ॥ कवित -जब चेतन संभारि निज पौरुष, शुद्ध चेतन को, निरलं निज दृग सों निज ममं । तब मुखरूप बिमल प्रविनाशिक, जाने जगत शिरोमणि धर्म ॥ अनुभव करं रमं स्वभाव वमं सब कर्म । इति विधि स मुकति को मारग, प्ररु समीप जावं शिव समं ॥४॥ वसंततलिका वर्गाचा वा रागमोहादयो वा मिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनवान्तस्तस्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युष्टमेकं परं स्यात् ॥५॥ जितना भी अशुद्ध विभाव परिणाम है, वह सब, निश्चय मे, विद्यमान शुद्ध चैतन्य द्रव्य मे अर्थात् जीव के स्वरूप से निराला है, भिन्न है। कर्म तो अचेतन शुद्ध पुद्गलपिण्ड रूप है इसलिए वह तो । रागमोहादिक विभाव यद्यपि अशुद्धरूप हैं दीखते है । ऐसे जो रागद्वेष मोहरूप जीव सम्बन्धी स्वरूप के अनुभव में जीव स्वरूप में भिन्न हैं । जीव स्वरूप से निराला ही तथापि देखने में चेतना से परिणाम हैं वे भी जीव प्रश्न - विभाव परिणाम को जो जीव में भिन्न भावार्थ हमारी समझ में नहीं आया । भिन्न कहने से अथबा अवस्तु रूप भिन्न है ? उत्तर - अवस्तुरूप है । इस कारण जो जीव शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करने वाला है उसको विभाव परिणाम नहीं होता है। उसको तो उत्कृष्ट शुद्ध चैतन्य द्रव्य ही दृष्टि गोचर होता है । कहा सो भिन्न का वस्तुरूप भिन्न है ? Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव-अधिकार भावार्थ-जो वर्णादिक व रागादिक दिखते तो हैं परन्तु जब स्वरूप का अनुभव हो तो मात्र विभाव परिणति है, वस्तु तो कुछ नहीं है ॥५॥ दोहा-परणारिक रागादि जड़, रूप हमारो नाहिं। एकब्रह्म नहिं दूसरो, दरोसे अनुभव माहि ॥५॥ उपजाति निर्वय॑ते येन यवत्र किंचितदेव तत्स्यान्न कपंचनान्यत् । समेण निवृत्तमिहासिकोशं पश्यन्ति रुक्मं न कचनासि ॥६॥ वस्तु के स्वरूप का विचार करें तो जो निश्चयल्प वस्तु का परिणाम जिस वस्तु से जैसा पर्यायल्प उपजता है, वैसा उपजा है तथापि उपजते हुए भी जिस द्रव्य से उपजा है द्रव्य तो वही है। निश्चय ही अन्य कुछ द्रव्यरूप नहीं हुआ । जैसे-प्रत्यक्ष है कि चांदी धातु से घर कर तलवार की म्यान बना कर तय्यार की गई। यद्यपि वह म्यानरूप हो गई फिर भी बस्तु विचार से तो वह चांदी ही है। ऐसा सब लोग देखते हैं, मानते हैं और कहने के लिए उसको चांदी की तलवार भी कहते हैं। तथापि ऐसा नहीं हैतलवार चांदी की नहीं हुई। ऐसी कहावत है कि जो तलवार चांदी की म्यान में रक्खी जाती है उसको कहने मात्र के लिए चांदी की तलवार कर दिया जाता है परन्तु चांदी की तो म्यान है, तलवार तो लोहे की है। चांदी की तलवार नहीं। चांदी की म्यान का संयोग होने से उसको चांदी की तलवार कहा जाता है ॥६॥ दोहा-साटो कहिये कनक को, कनक म्यान संयोग। न्यारो निरखत म्यान सों, लोह कहें सब लोग ॥६॥ उपजाति वर्णादिसामध्यमिदं विवन्तु निर्माणमेकस्य हि पुद्गलस्य । ततोऽस्स्विदं पुद्गल एव नात्मा यतः स विज्ञानधनस्ततोऽन्यः ॥७॥ हे जीव ! यह निश्चय से जान ले कि गुणस्थान, मार्गणास्थान, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म इत्यादि जो भी अशुद्ध पर्याय विद्यमान हैं वे समस्त ही एकमात्र पुद्गल द्रव्य की ही चित्रकारी जैसी है। इस कारण मे शरीरादि Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलग टीका मामग्री, जिग गुदगल द्रव्य में हुई है वह बही पुद्गल द्रव्य है । निश्चय में ऐमा ही है । आन्मा अजीव द्रव्यम्प नहीं हुआ। जीव द्रव्य नो ज्ञानगृण का समूह है। जीव दव्य भिन्न है, गांद परद्रव्य भिन्न है।। भावार्थ लक्षण भेद वस्तु को मंद होता है। इसलिए चैतन्य लक्षणयुक्त जीववस्तृ भिन्न है. अवतन लक्षणयुक्त गर्गगदि भिन्न है। प्रग्न कहने का नागा ही कहा जाता है. एकद्रिय जीव, वद्रिय जीव. प्रत्यादि । व जीव. मनुष्य जीव इन्यादि । गगी जीव, द्वषो जीव इत्यादि। उनर व्यवहार में मा कहा जाता है। निश्चय में ऐसा कहना मटा है। मा कहते है | दोहा वर्गादिक पुदगल दशा, घरे जोत्र बहस्प। दस्त विचारत करम मों, भिन्न एक चिद्रप ॥७॥ अनुष्टुप घृतकुम्माभिधानेऽपि कुम्भो घृतमयो न चेत् । जीवो वर्णादिमजीवो जल्पनेऽपि न तन्मयः ॥८॥ जमे---घड़ा घी का नहीं मिट्टी का है। न्तु जिस घड़े में थी हाला है उमको याप 'घी का घडा' मा कहते हैं नथाप घड़ा मिट्टी का है. धी भिन्न है। इसी प्रकार जीव को शरीरमय, मुख-दसमय, गग-दंषमय उनके मयोग के कारण कहने है. तथापि जीव अर्थात् चेतनद्रव्य नो गर्गर नहीं, जीव तो मनुष्य नहीं, चेननम्वरूप जीव भिन्न है। भावार्थ-आगम में जहां गृणग्थान का स्वरूप कहा है वहा सा कहा है- देव जीव, मनुष्य जीव, गगीजीव, हंपीजीव इत्यादि । बहुत प्रकार से कहा है । सो सभी कथन व्यवहार मात्र में है। द्रव्य स्वरूप को देख तो सा कहना झठा है। यहा प्रश्न उठता है कि फिर जीव कसा है ? जैसा है, बंसा कहते हैं ॥८॥ दोहा - ज्यों घट कहिए घीव को, घट को रूप न धोव । स्यों धरणादिक नाम सों, जड़ता लहै न जीव ॥८॥ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजीव-अधिकार अनाद्यनन्तमनलं स्वसंवेरामवाधितम् ।' जीव: स्वयं तु चैतन्यमुच्चश्चकचकायते ॥६॥ द्रव्य के स्वरूप को विचार तो आत्मा चैतन्य स्वरूप है, स्वयं अपनी सामथ्यं में अति ही प्रकागमान है। और कैसा है चैतन्य जिमका न आदि है और न अन्न अगांत विनाग है. जो अचान है. अपने से ही अपने को जानता है और अमिट है-ोमा नव का स्वरूप है । बोडा--निगवाघ वेतन प्रलव.नने गहन मुकीव । प्रचल प्रनादि अनंत निन, प्रगटन में जो ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित वचिः महितस्तथा विरहितो देशास्त्यजीवो यतो। नामूर्नत्वमुपास्य पश्यति जगजीवस्य तत्वं ततः ॥ इत्यालोच्य विवेचकः समुचितं नाव्याप्यतिव्यापि वा। व्यक्तं व्यजितजीवतत्त्वमचलं चैतन्यमालम्यतां ॥१०॥ ____जिम पुरुष को भंदज्ञान है वह, जैमा कहा गया है वैसा विचार कर उम चंतन मात्र का अनुभव को जिसका अनुभव करना याग्य है, जो जीव द्रव्य में कभी भित्र नहीं होता, जो जीव में अन्य पांच द्रव्य हैं उनसे भिन्न है, प्रगट है, जिसका स्वरूप प्रगट है, और जो अचल है अर्थात् जिसके प्रदेशकंप मे रहित है । म जीव गांश-जीव का अमूरतीक अर्थात् स्पर्श-रस-गंध-वर्ण गुणों मे हिन मानकर अनुभव नहीं करता है । भावार्थ-- जो कोई जाने कि जीव अमरतीक है गेमा जानकर अनुभव करते हैं, सो इस तरह नो अनुभव नहीं है। जीव अमूर्त तो है परन्तु अनुभव के समय तोगमा अनुभव है कि जीव चतन्य लक्षण है। क्योंकि अजीव अर्थात अचेनन द्रव्य भी दो प्रकार का है-वर्ण-ग्म-गंध-म्पर्श मे मंयुक्न नो एक पुदगल द्रव्य हो है । धमंद्रव्य, अधर्मद्रव्य, कालद्रव्य, आकागद्रव्य ये चार द्रव्य वर्ण-ग्म-गंध-म्पर्म में रहित अमूनिक द्रव्य कहे हैं। इस तरह अमूर्तपना १. कहीं पर "स्वसंवेद्यमिदं स्फुटम्" ऐमा पाठ भी है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० समयमार कलश टीका अचंतन द्रव्य के भी है। इलिए अमूसंपना जान कर जीव का अनुभव न करी-चंतन जान कर अनुभव करो ॥१०॥ संबंया-रूप-रसवंत मरतीक एक बगल, कप दिन और यों अजीव द्रव्य दिया है। ज्यारिप्रमूरतीक जीव भी प्रमूरतीक, याहीतं ममूरतीक बस्तु ध्यान मुषा है। पौर सो न कहूं प्रगट पाप प्रापही सों, ऐसोचिर चेतन स्वभाव शुद्ध सुषा है। चेतन को अनुमी पारा जग तेई जीव, चिन्ह के प्रखर रस चाखको अषा है ॥१०॥ बसंततिलका जीवावजीवमिति लक्षणतो विमिन्नं, मानी बनोज्नुनपति स्वयमुल्लसंतं । प्रमानिनो निरवषिप्रविम्मितोऽयं मोहस्तु तत्कषमहोबत नानटीति ॥११॥ जीव का लक्षण चतन्य है और अजीव का लक्षण अचेतन है अर्थात् पर है। इस प्रकार जीव द्रव्य से पुद्गल आदि सहज ही भिन्न है। ऐसा सम्यकदृष्टि जीव स्वानुभव मे प्रत्यक्षरूप अनुभव करता है। जीव तो स्वयं अपने गुष- पर्याय से प्रकाशमान है । परन्तु अनादिकाल से पां संतानरूप पसरे हुए मोह के वश में पड़ा अज्ञानी मिथ्यादृष्टि (भ्यक्ति) जीव और कर्म को एकत्वल्प मान कर विपरीत संस्कार में पड़ा हुआ है-यह कैसा नाश्चर्य है ॥११॥ सबया-बेतन जीव जीव प्रचेतन, लमरण मेव उभं पर न्यारं। सम्यक दृष्टि उपोत विचारण, भिन्न ललक्षिके निरबारे। जे जगमाहि प्रनावि प्रशस्ति, मोह महामर के मतवारे । तेजा चेतन एक कह, तिन को फिर टेक टर नहि टारे ॥११॥ वसंततिलका पस्मिन्ननारिनि महत्यविवेकनाट्ये Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अजोव-अधिकार वर्णादिमानटति पुद्गल एव नान्यः । रागारिपुद्गलविकारविल्यशुर चंतन्यधातुमयमूतिरयं च जीवः ॥१२॥ जीव और अजोव में एकत्वबुद्धि का अविवेक अर्थात् मिथ्यात्व अनादि काल ने है। संसार में पुद्गल अर्थात् अचेतन मूत्तिमंत द्रव्य निश्चय ही नाटक की भांति धारासंतानरूप में, बारम्बार, विभावरूप (नानारूप) परिणमन कर अनादिकाल से नाच रहा है। भावार्थ-चेतन द्रव्य तथा अवेतन द्रव्य अनादि से अपना-अपना स्वरूप लिए हुए हैं। परस्पर भिन्न है। ऐसा प्रगट अनुभव करना आसान है। इनका एकत्र संस्काररूप अनुभव हो अचम्भे की बात है। ऐसा अनुभव क्यों होता है ? जबकि एक चेतन द्रव्य है और एक अवेतन द्रव्य है और उनमें घना (बहुत) अन्तर है । यह कोई अचम्भा नहीं है बल्कि अशुअपना लिए हुए बुद्धि का प्रम है। जैसे धतूरा पीने मे दृष्टि विचलित हो जाती है। श्वेत शंख पीला दिखता है। वस्तू विचार से ऐसी दष्टि सहज नहीं है, दष्टिदोष है। दष्टिदोष धतूरे की उपाधि से हमा है। जीवद्रव्य कर्मसंयोगरूप अनादि मे हो मिला चला जा रहा है। इस मिलावट ने ही उसका विभावरूप अशुरूप परिणमन कराया है। इस अशुपने में उसके ज्ञान व दृष्टि भी अशुद्ध हैं जिनके कारण वह चेतन द्रव्य को एकत्व संस्काररूप अनुभव करता है। ऐसा संस्कार है, परन्तु वस्तु स्वरूप के विचार में ऐसी अशुख दृष्टि सहज (स्वाभाविक) नहीं, अशुद्ध है-दृष्टिदोष है। यह दृष्टिदोष पुद्गलपिरस्प जो मिथ्यात्व कम है उसके उदय की उपाधि (संयोग) से हमला है। जैसे-दृष्टिदोष के कारण श्वेत शंख का पीला अनुभव करता है तो वह दृष्टि में दोष है, शंख तो श्वेत ही है। पीला दिखने में शंख तो पीला हुआ नहीं। उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि चेननवस्तु और अचेतनवस्तु को एकल्प अनुभव करता है । यह भी दृष्टि का ही दोष है। एकरूप अनुभव करने से एक होता नहीं क्योंकि (दोनों में) घना (बहुत) अन्नर है। स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण गुणों से युक्त पुद्गल से संयोग तथा रागद्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभादि असंख्यात लोक मात्र जीव के अशुद्ध परिणामपुद्गल के साथ अनादि काल के विकारी बंध पर्याय के कारण जीव के विभाव Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ समयमार कलश टीका परिणाम हैपरन्नु शुद्ध-चन- धातुमय-चिद्र प-जीव इनमे रहित शुद्धनिधिकार है। ____ भावाय ... जमे पानः यद मिट्ट ने मिलकर मैला हो रहा है तो वह मना गमिट्ट का है पानं. नही । यदि रंग को अंगीकार न कर तो बाका जो बनगा कर पानंद है। उसी प्रकार जाव की कमवध पयांय अवस्था गगाटिक का गई। उस रंग को अंगीकार न कर तो बाकी जो कुछ है. चेतनधातृमाय बग्नु । उमी व गुद्ध म्बम्प का अनुभव मम्यकदष्टि को होना है, ।।१०।। मया या घट में भ्रमरप नादि, बिलाम महा अविवेक प्रवागे। नार्मात प्रौर म्यरूप न दीपन, पुदगन नन्य कर अति भागे। फेरत भेष दिग्वायन कोतृक, नोज लिए बग्णादि पमागे। मो. म भिन्न जुदो जड़मो. चिन-मर्गत नाटक देखन हागे ॥१२॥ पृथ्वी इत्यं ज्ञानक्रकचकलनापाटनं नायित्वा । जीवाजीवो स्फुटविघटनं नव यावत्प्रयातः ।। विश्वं व्याप्य प्रमविकमव्यक्तनिन्मात्राक्त्या । ज्ञातृद्रव्यं स्वयमति रमातावदुच्चंश्चकाशे ॥१३॥ चतनवस्तु वर्तमानकाल जपन में अत्यन्त आन म्वाद को लिए सर्व प्रकार प्रगट है। कैम : क्योंकि वह ममम्न जेय पदार्थों को प्रतिविबित करता है। चंतन लोक्य को कंन जानता है : वह अपनी निज शक्ति से प्रकाशमान है और ज्ञानगुण स्वभाव ने बिनोक को जानना है । पूर्वोक्त विधि में. बारंवार अभ्यास करके. भंद-बर्बाद के द्वारा जीव और अजोव को भिन्नरूप में अलग-अलग छेद कर देखता है। प्रश्न-जोव और अजीव के ज्ञान के द्वारा तो दो भाग किए परन्तु पहले किम रूप था? उत्तर-अनन्नकाल में मिला हुआ जीव और कर्म का एक पिण्डरूप पर्याय प्रकटरूप में कभी भिन्न-भिन्न नहीं हुआ है। भावार्य .. जसे मोना और पापाण मिला चला आया है और है भिन्न-भिन्न रूप. परन्न अग्नि के संयांग के बिना प्रगटरूप से भिन्न होता नही । जब अग्नि का मयोग पायेगा तभी तत्काल भिन्न-भिन्न हो जायेगा। Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ अजोव-अधिकार उमो तरह यद्यपि जीव और कर्म का संयोग अनादिकाल से चला आया है परन्तु जीव और कर्म भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी शुद्धस्वरूप के अनुभव के बिना प्रगटम्प में भिन्न-भिन्न नहीं होतं । जिस समय शुद्धस्वरूप का अनुभव होगा उसी समय भिन्न-भिन्न होंगे। संबंया से करवन एक काठ बोच खंडकर, जैसे राजहंस निरवार दूध जल कों। तंसे भेद ज्ञान निज मेदक सकति सेती, भित्र-भिन्न करे चिदानन्द प्रबगल कों॥ प्रधिकों पावे मनपर्य को अवस्था पावं, उमगि के माथे परमावधि के पल कों। याही भांति पूरण मरूप को उदोत पर, करं प्रतिबिंबित पदारथ सकल कों॥१३॥ ॥ इति दिनीयो अध्याय ॥ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रध्याय कर्ता-कर्म अधिकार पृथ्वी एक: कर्ता चिदहमिह मे कर्म कोपादयोऽमी, इत्यज्ञानां शमयदमितः कतृकर्मप्रवृत्ति । ज्ञानज्योतिः स्फुरति परमोदात्तमत्यन्तधीरं, माक्षात्कुर्वन्निरुपधिपृथग्द्रव्यनिर्मासि विश्वं ॥ १ ॥ मिध्यादृष्टि जीव को ऐसी प्रनीति होती है कि जीव-वस्तु पुद्गल कर्म काकर्ता है या मैं अकेला जीवद्रव्य चेतन स्वरूप पुद्गल कर्म करता हूं और जो ज्ञानावरणाfar fuड विद्यमान है वे मेरी ही करतुत है। ऐसा जो मिथ्यादृष्टि का विपरीतपना है उसको सम्पूर्णन दूर करके शुद्ध ज्ञान प्रकाशमान होता है। वह सर्वोत्कृष्ट है. त्रिकाल शाध्वन है. सकल शेय वस्तु को साक्षात्, एक समय में प्रत्यक्ष रूप से जानता है, उपाधि से रहित है तथा भिन्न-भिन्न रूप में सकल द्रव्य-गुण-पर्याय को जानने वाला है। इसी को लेकर अब कर्ताकर्म अधिकार आरम्भ करते हैं ॥ १ ॥ दोहा- यह प्रजोव प्रधिकार को, प्रगट बलान्यो ममं । अब सुतु जीव-प्रजीव के, कर्ता किरिया कर्म ॥ सर्वया 1- प्रथम प्रज्ञानी जोव कहे मैं सदीव एक, दूसरो न और मैं ही करता करम को । अन्तर विवेक प्रायो प्रापा-पर-भेद पायो, भयो बोध गयो मिटि भारत भरम को । भासे छहों दर के गुरण पराजय सब, नासे दुःख लख्यो सुख पूरण परम को । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार करम को करतार मान्यो पुद्गल पिंड, माप करतार भयो प्रातम धरम को॥१॥ __ मालिनी परपरिणतिमुज्झत् खंडयद्भववादा निदमुदितमखण्डं ज्ञानमुचण्डमुच्चः । ननु कथमवकासः कर्तृकर्मप्रवृत्ते रिहमवति कर्ष वा पौद्गलः कर्मबन्धः ॥२॥ जीव और कम में जो एकन्व बुद्धि थी उसको छोड़कर चिद्रप शक्ति जो म्वयं में पूर्ण है प्रगट हुई । ऐमा अतिशयरूप जीव अपने ज्ञानगुण का ही अनुभव करता है तथा उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य अथवा द्रव्य-गण पर्याय आदि अनेक विकल्पों को जड़ से उखाड़ फेकना है। हे शिष्य ! शुद्ध ज्ञान प्रगट होने पर. जीव कनां है और जानावरणादि पुद्गापड उसके कर्म हैं, ऐसा जो व्यवहार बुद्धि का विपरीतपना है. उमका क्या अवमर है ?-कोई नहीं । भावार्थ- जमे, मूर्य का प्रकाश होने पर अंधकार को अवसर नहीं, वैसे ही स्वरूप का अनुभव होने पर विपरीत रुप मिथ्यात बुद्धि का प्रवेश नहीं है। प्रश्न-गुद ज्ञान का अनुभव होने पर विपरीन बुद्धि मात्र मिटती है या कम बन्ध मिटता है? उतर-विपरीत बुद्धि मिटनी है। कर्म बन्ध भी मिटना है। विपरीत बर्बाद के मिटने पर, जो पदल सम्बन्धी द्रपिडकप कमंबंध हैं, मानावग्णादि कर्मों का आगमन है, वह फिर क्यों होगा?-नहीं होगा ॥२॥ संबंया-जाही सम जीव देह बुद्धि को विकार तजे, बेदत स्वरूप नित भेदत भरम को। महा परवड मतिमान प्रक्षण रस, मनभी प्रन्यास परकासत परम को। ताही समं घट में न रहे विपरीत भाव, जैसे तम नासे भानु प्रगटि धरम को। ऐसी दशा मावे जब माधक कहावे तब, करता हूं कैसे करें पुदगल करम को ॥२॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ya ममयमार कलश टोका शार्दलविक्रीडित इत्येवं विरचय मम्प्रति परद्रव्यानिवृत्ति परां म्वं विज्ञानघनस्वगावममयादास्तिप्नुवानः परं । प्रजानोस्थितकर्तृकर्मकलनात् क्लेशान्निवृत्तः स्वयं जानीभूत इतश्चकास्ति जगतः साक्षी पुराणः पुमान् ॥३॥ जीव द्रव्य अपने में अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ होने पर, मकल द्रव्य स्वरूप का जानने वाला गोभायमान होता है। भावार्थ--- जब जीव को शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है तब सकल परद्रव्यम्प द्रव्यकम भावकम, नोकर्म के प्रति उदासीनता होती है। जीवद्रव्य, द्रव्य की अपेक्षा अनादि निधन है और कर्म के सम्काररूप मूठे अनुभव में उपजे दुख में तथा इस विपरात प्रतीति में कि जीव कनां है तथा ज्ञानावरणादि द्रव्यापड जीव की करतूत है, मवंथा रहित है। पूर्व कहे अनुसार मा जीव द्रव्यकम, भावकम, नाकमरूप परवम्न है उनके प्रति मल से त्यागवृद्धि करके अपने गुद्ध चिद्रप म्वरूप का स्वाद लेना है। उम शुद्धम्वरूप का जिमका स्वभाव शुद्ध-ज्ञान-ममह है और वह अपने सदा शुद्ध स्वरूप का मान-भय से रहित स्वाद लेना है ॥३॥ संबंया-जग में प्रनादि को प्रजानी कहे मेरो कर्म, करता मैं याको किरिया को प्रतिपायी है। अन्तर मुमति भासी जोग भयो उदासी, ममता मिटाय परजाय बुद्धि नाखो है ।। निरभय म्वभाव लोनो अनुभव को रम भीनो, कोनो व्यवहार दष्टि निहचे में गयी है। भरम की डोरी तोरी धरम को भयो धोरी, परम सों प्रीति जोरी करम को साखी है ॥३॥ शार्दूलविक्रीडित व्याप्याग्यापकता तदात्मनि भवेन्नवातदात्मन्यपि व्याप्याव्यापकमावसम्भवमृते का ककस्थितिः । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-की-अधिकार इत्युद्दामविवेकयस्मरमहो मारेण मिनस्तमो ज्ञानीभूय तदा स एष लसितः कर्तृत्वशून्यः पुमान् ॥४॥ मूर्य की भांति तेजवान भेदनान के द्वारा, जोव मिथ्यात्वरूप अंधकार का छंदन करता है और अनादि के मिथ्यात्वरूप कर्म के एक पर्यायरूप परिणाम से छूट कर शुद्ध चेतन का अनुभव करता है। ऐसा जीव जो अनादिकाल में मिथ्यात्वरूप परिणमन कर रहा था वह कर्म के कर्तृत्व से रहित होता है। एक ही द्रव्यरूप वस्तु या सत्तारूप वस्तु में जितने भी गुणरूप या पर्याय रूप भंद है उनक विकल्प से भेद ज्ञान हाता है। भावार्थ-- जमे, सोना पोला, भारी. चिकना कहने के लिए है परन्तु (उमकी) एक मता है। मे ही जोव द्रव्य जाता-दष्टा कहने के लिए है परन्तु है एक मनाम्प । इम प्रकार एक सनारूप द्रव्य में भेद बुद्धि करने से व्याप्य-व्यापकना घटित होती है। परिणामी द्रव्य अपने परिणाम का करने वाला है । द्रव्य ने (अमक) परिणाम किया ऐमा भे दकरने में ही व्याप्यव्यापकपना बनता है, अन्यथा नहीं। जीव की मना मे पुद्गल द्रव्य की सत्ता भिन्न है। इनमें निश्चय ही व्याप्य-व्यापकपना नहीं हो सकता। भावार्थ---उपचार मे द्रव्य अपने परिणाम का कर्ता है और वह परिणाम तो द्रव्य का किया हआ है। परन्तु अन्य द्रव्य का कर्ता कोई अन्य द्रव्य तो उपचार में भी नहीं है। इसलिए कि उनकी एक मता नहीं, भिन्न सत्ता है। परिणाम-परिणामी भंद की उत्पनि के बिना ज्ञानावरणादि पुद्गल कम का कता जीव द्रव्य है, मा अनुभव नहीं घटता। इस तरह जीवद्रव्य और पुद्गल की एक मत्ता नहीं है। उनकी भिन्न मना है। इस तरह ज्ञान-सूर्य के द्वारा जिस जीव का मिथ्यात्वरूपी अधकार मिटता है, वह सम्यग्दृष्टि होता है ॥४॥ सर्वया-जसो जो दरव ताके से गुरण परजाय, ताहीसों मिलत मिल न काहू प्रान मों। जीव वस्तु चेतन करम जर जाति भेद, अमिल मिलाप ज्यों नितम्ब बुरे कान मों॥ ऐसो मुविवेक जाके हिरवं प्रकट भयो, ताको प्रम गयो ज्यों तिमिर भागे भानसों। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका मोह गोष करमको करतातो से 4, प्रकरता को शुद्धता के परमानसों ॥४॥ स्त्रग्धरा जानी जाननपीमा स्व-परपरिणति पुद्गलश्चाप्यजानन व्याप्तृव्याप्यत्वमन्तः कलयितुमसही नित्यमत्यन्तमेदात् । प्रजानात्क-कर्मभ्रमतिग्नयोर्माति तावन्न यावद्विजानाधिश्नकास्ति क्रकचवदयं भेदमुत्पाद्य सद्यः ॥५॥ जितने कान भद-ज्ञानरूप अनुभव प्रगट नहीं होता उतने काल जीव और पुदगल . मंबध म मा भ्रम रहता है कि जानवरणादि का कर्ना जीव द्रव्य ही है। अज्ञानपन ग मी मिथ्या-प्रतानि होता है, वम्त का स्वरूप तो मा नहीं। प्रश्न---ज्ञानवरणादि का कनां जान है मा अजानपना क्या है ? उनर... जाव वम्न नथा ज्ञानावरणादि कर्मापर परिणामी परिणाम भाव. एन. मक्रमणहान म असमर्थ है। द्रव्य-स्वभाव, दाना में अति ही भद है : व्याग जीव द्रव्य द. भिन्न प्रदा चैतन्य म्वभाव. पद्गल द्रव्य के भिन्न प्रदंदा अचनन स्वभाव "मा बहुत भद ।। प्रसिद्ध है कि ज्ञानी अपनी तथा जितनी भी जय वस्तु है उनकी परणात अथांन् द्रव्य-गुण-पर्याय अथवा उनके उम्पाद-व्यय-धाव्य का जाना है। प्रगट है कि पुदगल अप या जितने भी परद्रव्य है उनके द्रव्य-गुण-पर्याय आदि को नहीं जानता है। ऐसा है पुदगल द्रव्य । भावार्थ.... जीव द्रव्य जाता है और पद्गन कम जय है. ! "सा जीव का जय-ज्ञायक नबध है। परन्तु व्याप्य-व्यापक मबध न।। द्रव्य का अति भिन्नपना ... एकपना नहीं है। भदज्ञानरूप अनुभव ने. आरके तरह शीघ्र ही जीव व पुदगल के भेद को उत्पन्न किया है ।।५।। छप्पर जोर जान-गुण नहित, प्रापमा परगण जायक । पापा परगरण लते. नाहि पुद्गल र लायक ।। जीव रूप चिद्रप महज, पृदगल प्रचेत जा। जोर प्रमति, मूग्नीक पुदगल. अन्नर बह ॥ जब लग न होड अनुभौ प्रकट. तब लग मिथ्यानि लमे । परतार जोब उड़ करम को, मुद्धि विकाश यह भ्रम नसे ॥५॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार प्रार्या यः परिगमति म कर्ता यः परिणामो भवेत्तु तत्कर्म । या परिणतिः क्रिया ना त्रयमपि मिन्नं न वस्तुतया ॥६॥ जो कोई मना मात्र वस्तु जिन अवस्था रूप है उस रूप अपने से ही है। उग अवस्था का कना मत्ता मात्र वस्तुहा है। जिम द्रव्य का जो कुछ म्वभाव परिणाम है उसी का उम द्रव्य का परिणाम कर्म कहते हैं। जो द्रव्य पूर्व अवस्था में उनर अवस्थाम्पहआ वही किया है। जैसे, मिठो घटरूप होती है. मा मद्रां को कनां कहा: उममे घटा बना, तो वह कम हआ। मिली। पिट घटरूर होना क्रिया कहीं। मनाम्प वस्तु का कता कहा, उमम जी । अवम्या उपजी उंग परिणाम कम कहा तथा वह ज ( उपजने कप , त्रिया हम उसको। क्रिया कहा । मना मात्र वम्त का अनुभव करीना कना-यम- या कप नीन मद निचय ही नीन मना ता नहीं, एक ही गता है। भावार्थ -- कता : मं-प्रिया का स्वरूप ना इसी प्रकार है। इसमें जानावरणादि द्रव्यापडम्प कम का कता जाव द्रव्य है एसा जानना अठा है। उनर साय जीव द्रव्य क. एक मना नहीं है फिर कर्ता-कम-क्रिया मबंध (उनमे) परम्पर घट हा का गाने है . अर्थात् नहीं घट मकत ।।६।। दोहा-कर्ता वारणामो द्रव्य, कर्म रूप परिणाम । क्रिया पर्याय को फेरनी, वस्तु एक प्रय नाम ॥६॥ प्रार्या एकः परिगति सदा परिगानो जायते सबैकस्य । एकस्य परिणतः स्यादनेकमप्येकमेव यतः ॥७॥ त्रिकाल में मनामात्रवस्तु अपनी में अवम्थान्तरम्प होती है और त्रिकालगांचर होने वाला अवस्थाओं के माथ एक मना मात्र है। भावार्थ--मनामात्र वस्नु, अवस्थास्प है तथा अवस्था अपनी वस्नुरूप है । और फिर किया मना मात्र वस्नु की है। भावार्थ---त्रिया वस्तुमात्र ही है, वस्तु में भिन्न (उसकी) सता नहीं है। इस प्रकार यद्यपि एक मनः के मंद मे कर्ना-कम-क्रिया में तीन भेद हैं तथापि सत्ता नो वस्तुमात्र ही है। तीनों ही विकल्प मूठे हैं। भावा Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. ममयसार कलश टोका जानावरणादि द्रव्यम्प पुदगलपिडकर्म की कर्ना जीव वस्तु है, ऐसा जानना मियाजान है। एक मना में कर्ना-कम-क्रिया (का कयन) उपचार में किया है। जो जीव द्रव्य और पुद्गल द्रव्य भिन्न मतारूप हैं उनमें कर्ना-कर्म-क्रिया (मबधकम घटगा : ॥७॥ दोहा...कर्मा कम क्रिया करे, क्रिया कर्म करतार । नाम भेद वविधि भयो, बस्तु एक निर्धार ॥७॥ पार्या नोमी परिणामतः खलु परिणामो नोनयोः प्रजायेत । उभयानपरिणतिः म्याद् यदनेकमनेकमेव सदा ॥८॥ मा निश्चय है कि नननालक्षण जीवद्रव्य तथा अचनन कपिडरूप गुदगल व्य. ए. परिणाममप परिणमन नहीं करते हैं। भावार्थ ..जवद्रव्य अपनी ही गद्र चननाम्प अथवा अगद्ध चेतनारूप व्याया म र कला हैगुदगलद्रव्य अपने अचेतन लक्षणम्प, गद्ध परमाणमा अथवा जानावग्णादि कर्मापड म्प अपन में ही व्याय-व्यापकम्पम परिणमन करता है। परन्तु जीवद्रव्य और पुदगल द्रव्य दोना मिलकर अगद्ध चननाम्प हैं और रागद्वषम्प परिणाम में परिणमन करने है, मा नो नही है। जीवद्रव्य और पदगल द्रव्य दानों मिलकर एक पयांग कप नहा दान । जाब और उद्गल को मिलकर एक क्रिया नहीं होनी । वस्तु का म्वरूप माहा है। जीव और पुद्गल भिन्न मतारूप हैं तथा जीव आर गुदगल गदा हा मित्र म्प --एक रूप कम हांगे ? भावार्थ जीवद्रव्य और पुद्गलद्रव्य भिन्न मनाम्प, मोदि पहले भिन्न मत्तापना छोड़ कर एक मनाम्प हो तो पाछे : उनमें। कना-कम-क्रियापना टिन हो । मो वे एक म्प तो होगे नही. दौलए जीव और पुद्गल का आपस में कर्ना-कर्मक्रियापना भी टिन नहीं होगा ।।८।। दोहा--एक कर्म कर्तव्यता, करे न कर्ता दोय । दुवा प्रव्य सत्ता गुदो, एक भाव क्यों होय ॥८॥ प्रार्या नकस्य हि कर्तारौ द्वौ स्तोतु कर्मणी न कस्य । नकस्य किये हे एकमनेकं यतो न स्यात् ॥६॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार यहाँ यदि कोई भिन्न मत का निरूपण करने के लिए कहे कि जब द्रव्य की अनन्न शक्ति है तो एक शक्ति ऐसो भो होगो कि एक द्रव्य दो द्रव्यों के परिणाम को करे। जमे जाव द्रव्य अपने अशुद्ध चेतनरूप राग-द्वेष-मोह परिणाम को व्याप्य-व्यापकरूप में करता है, वैसे ही ज्ञानवरणादि कर्मपिड को भी व्याप्य-व्यापक रूप में करे। इसका उत्तर है कि -- द्रव्य की अनन्त शक्ति तो है परन्तु ऐसी शक्ति कोई नहीं है कि जिस भाति वह अपने गुणों के साथ व्याप्य-व्यापक है उसो भाति परद्रव्य के गुणा में भा व्याप्य-व्यापकरूप हो जाए। एक परिणाम के दो द्रव्य का नहीं है । भावार्थ मा नही है कि अशुद्ध नतनामा गग-द्वेष-माह परिणाम का जिम प्रकार व्याप्य-व्यापकरूप में जीव कता है पदगल द्रव्य भी उनी प्रकार अगद्ध चेतनारूप राग-द्वेष-मोह परिणाम का कना है। जीव द्रव्य अपने राग-द्रंप-मोह-परिणाम का कर्ता है, पुद्गल द्रव्य उनका कर्ना नहीं है। एक द्रव्य के दो परिणाम नहीं होते। भावार्थ --मा नहीं है कि जीव द्रव्य जैसे गग-द्वंष-मांह रूप अगल चनन परिणामी का व्याप्य-व्यापक रूप में कर्ना है वैसे ही ज्ञानावरणादि अंचंतन कम का कना भी जीव है । वह तो अपने परिणाम का कर्ता है। अचेतन परिणामरूप कर्म का कर्ता जीव नहीं है। फिर कहते हैं कि एक द्रव्य के दो क्रिया नहीं है। भावार्थ ---मा नहीं है कि जिस तरह जीव द्रव्य का चतन परिणतिर परिणमन होता है उसी तरह उसका अचंतन परिणतिम्प परिणमन होता है। इसलिए कहते है कि एक द्रव्य दो द्रव्यम्प क्या होगा, अर्थात् नहीं होगा। भावार्थ .. जीव द्रव्य एक चंतन द्रव्यरूप है। यदि वह अनेक द्रव्यरूप हो नत्र. ज्ञानावरणादि कर्म का का हो आर अपने गग-दंप-मोहम्प अगुद्ध चनन परिणाम का भी कतां हा। पर, एमा ना नहीं है। अनादि निधन जीवद्रव्य एकरूप ही है इसलिए अपने अगुद्ध चंतन परिणाम का कता है। अचनन कम का कना नहीं है। ऐसा वस्तु स्वरूप है ॥६॥ सर्वया -- एक परिणाम के न करना इग्य होय, होय परिणाम एक द्रव्य न धरत है। एक करतूति होय द्रव्य कब न करे, दोय करतूति एक द्रव्य न करत है। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ समयसार कलश टोका जीव पुद्गम एक खेत चाहि दोउ, अपने अपने रूप कोऊ न टरत है । जड़ परिणामनिको करता है पुद्गल, चिदानंद चेतन स्वभाव प्राचरत है ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित प्रासंसारत एक धावति परं कुर्वेऽहमित्युच्चकदुर्वारं ननु मोहिनामिह महाहङ्काररूपं तमः । तद्भूतार्थपरिग्रहेण विलयं यद्येकवारं ब्रजेत् तत्कि ज्ञानघनम्य बन्धनमहो भूयो भवेदात्मनः ॥ १० ॥ अहो जीव | मिध्यादृष्टि जीवी के निवरणादि कर्म का कर्त्ता जीव है ऐसा परद्रव्यस्वरूप अनि ही हीट, मिथ्या वरूप अन्धकार अनादि में एक संतानरूप चला आ रहा है. जिसके वा व.. मै देव में मय में नियंत्र, मैं नारकी इत्यादि कर्म पर्यायों में आत्मबुद्धि करता है और अपने स्वरूप को वैसा हो मानता है। ऐसा जो अनादिकाल का मिध्यान्त्र अन्धकार है वह अन्तमंहनं मात्र में शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने में विनय जाता है । 'भावार्थ --- जीव के यद्यपि मिथ्यात्व अन्धकार अनन्तकाल का चला हो आ रहा है तथापि सम्यक्त्व होने पर वह मिथ्यात्व छूट जाता है । हे जीव, एक बार जो मिथ्यत्त्व छूट जाए तो फिर जीव की परद्रव्य में एकत्र बुद्धि कहा होगी ? अर्थात् नहीं होगी। वह तो ज्ञान का समूह है। भावार्थ - शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने पर संसार में हलना नहीं होना ||१०|| सबंया महाधीठ दख को बसोठ परद्रव्यरूप, erapy का निवार्यो नह गयो है । ऐसो मियाभाव सग्यो जोब के बना हो को, पाहि महंबुद्धि लिए नानाभांति गयो ? ।। काहू समं काहू को मिध्यात अंधकार मेदि, ममता उच्छेदि शुद्धभाव परिरहयो है । तिनही विवेकधारि बंध को विलाम डारि प्रातम सति स जगत बोति लयो है ॥१०॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म अधिकार अनुष्टुप श्रात्मभावान्करोत्यात्मा परभावान्सदा परः ग्रात्मैव ह्यात्मनो भावाः परस्य पर एव ते ॥ ११॥ जीव द्रव्य निज शुद्ध चेतनारूप अथवा अशुद्ध चेतनारूप जो राग-द्वेषमोहभाव हैं. उन्हीं रूप परिणमन करता है। पुद्गल द्रव्य अपने त्रिकालगोचर ज्ञानावरणादि रूप पर्याय को करता है । निश्चय ही जीव का परिणाम ब आत्मा एक जोव ही है । ५५ भावार्थ -- जिन चेतना परिणामों को जीव करता है वे वेतन परिणाम भी जीव ही है. इसमें कोई द्रव्यांतर नहीं हुआ। पुद्गल द्रव्य के परिणाम पुद्गल द्रव्य है वे जीव द्रव्य नहीं हो जाते। भावार्थ -जिन ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता पुद्गल है वे कर्म भी पुद्गल हो हैं कोई द्रव्यांतर नहीं हैं ॥। ११ ॥ सर्वया शुद्धभाव चेतन प्रशुद्धभाव चेतन, दुहूं को करतार जीव और नहि मानिए । hifts को विलास वर्ग रस गन्ध फास, करता दुहंको पुद्गल परवानिए | ताते वररणादि गुण ज्ञानावररणादि कर्म, नाना परकार पुद्गलरूप जानिए | समल विमल परिणाम जे जे चेतन के, ते ते सब अलख पुरुष यों बखानिए ॥११॥ वसंततिलका प्रजानतस्तु स तृरणभ्यवहार कारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः । पीत्वा दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृध्या गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम् ॥१२॥ जिस प्रकार हाथी अन्न और घास दोनों के मिले जुने आहार को बराबर मान कर खाता है और घास का और अनाज का विवेक नहीं करता, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव कर्म के संयोग मे हुई अपनी विचित्र दशाओं में ही रंजायमान होता रहता है। वह कर्म को सामग्री को अपनी मानता है Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ समयसार कलश टाका और जीव का ओर कर्म का विवेक नहीं करता । निश्चय दृष्टि से, स्वरूपमात्र की अपेक्षा से तो जीव ज्ञान स्वरूप है । परन्तु इसकी वर्तमान दशा ऐसी हो रही है कि जैसी दशा उस व्यक्ति को होती है जो शिखरिणी (दही में मीठा मिला हुआ) के मोटं खट्टे स्वाद में ऐसा लोलुप है और मानता है कि मैं गाय का दूध पी रहा हूँ । भावार्थ- स्वाद का विषयी होकर शिखरिणी पीता है परन्तु स्वाद भेद नहीं करना । उसमें ऐसा निर्भेदपना मानता है जैसा कि गाय का दूध पीते समय निर्भेदपना मानना चाहिए ।। १२ । सर्वया जैसे गजराज नाज घास के गराम करि, भक्षण स्वभाव नहि भिन्न रम नियो है । जैसे मतवारी न जाने सिम्बर्गरण स्वाद, युग मैं मगन कहे गऊ दूध पियो है ॥ नमे मिथ्यामति जीव ज्ञानरूपी है सदीत्र, यो पाप पुण्यमों महज सुन्न हियो है । चेतन प्रचेतन दृहूं को मिश्र पिंड लखि, एकमेक मानेन विवेक कछु कियो है ||१२|| शार्दूलविक्रीडित प्रज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मगा । श्रज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः ॥ प्रज्ञानाञ्च विकल्पचक्रकररणाद्वानोत्तरङ्गान्धिव ज्ञानमया श्रपि स्वयमसी कर्त्रीभवन्त्यालाः ॥ १३ ॥ यद्यपि जीव सहज ही शुद्ध स्वरूप है परन्तु जैसे हवा के संयोग से समुद्र हिलता और उछलता है, वम सारं समारी मिध्यादृष्टि जांव मिथ्यादृष्टि की बरजोरी न अनेक रागादि के समूह के कर्त्ता बने हुए आकुलित हो रहे हैं । भावार्थ जैसे समुद्र का स्वभाव निश्चल है परन्तु वायु के वेग से प्रेरित होकर उछलता है और उछलने का कत्ता भी होता है। बम ही जीव द्वं व्यस्वरूप में अकता है परन्तु कर्म के संयोग मे विभावरूप परिणमन करता है तथा विभावपने का कर्ता भी होता है। लेकिन वह ऐसा, अज्ञान के वश से करता है, स्वभाव से नहीं । दृष्टान्तः जैसे—मृग मिथ्याबुद्धि के कारण - Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार मरीचिका को पानी समझकर पीने के लिए भागता है अथवा मनुष्य अंधकार में भ्रांति के कारण रस्सी में मां को बुद्धि करके डरता है ॥१३॥ संबंया...जैसे महा धूप की तपनि में तिसायो मग, भरम से मियाजल पोवने को पायो है। जैसे अंधकार माहि जेवरी निरखि नर, भरम से उरपि सरप मानि प्रायो है॥ अपने स्वभाव जैसे सागर है पिर सदा, पान संयोग सों उछरि अकुलायो है। तसे जी: जरमों अध्यापक महज रूप, भग्म मों करम को कर्ता कहायो है ॥१३॥ वसंततिलका ज्ञानाद्विवेचकतया तु परात्मनोर्यो, जानाति हम इव वाः पयसोविशेष । चैतन्यधातुमचलं स सदाधिरूढ़ो, जानीत एव हि करोति न किञ्चनापि ॥१४॥ कोई मम्यकदष्टि जीव सम्यक्ज्ञान के बल पर जीव के चैतन्यमात्र लक्षण में भंद करके द्रव्यकर्मपिट में आत्मा को भिन्न जानता व अनुभव करना है। इसी को भेद ज्ञान कहा है। जैसे हम पानी और दुध को भिन्न करता है। भावार्थ--जैसे हम दुध पानी भिन्न-भिन्न करता है। वैगे ही कोई जीव आत्मा का पुद्गल गे भिन्न अनुभव करता है । ऐमा जीव जायक तो है परन्न परमाण मात्र भा करना ना नहीं है। "मा ज्ञानी जीव मदा निश्चल चैतन्य धातुमय आत्मा के स्वरूप में दृढ़ता करता है ।।१४।। सर्वया... जैसे राजहंम के बदन के मपरमत, देखिए प्रगट न्यारो क्षोर न्यागे नीर है। तैसे समकिनी के मुदृष्टि महजरूप, न्यारो जीव न्यारो कर्म न्यागेही शरीर है। जब शुद्ध चेतन के अनुभी अभ्यासे तब, भामे प्राप प्रचल न दूजो और सीर है । पूरब करम उप्राइके दिखाई देह, करता न होई तिन्ह को तमासगीर है ॥१४॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ समयसार कलश टोका मंद्राकांता मानादेव ज्वलनपयसोरोग्यसत्यव्यवस्था, जानादेवोल्लमति लवणस्वादमेदव्युदासः । जानादेव स्वरमविकसन्नित्यचंतन्यधातोः, क्रोधादेश्च प्रमति मिदा मिन्दती कर्तृभावम् ॥१५॥ गद म्वरूप मात्र वस्न का अनुभव होते ही समम्न अशद्ध चेतनारूप रागादि परिणाम में भिन्न, अविनम्वर गद्ध जीव स्वरूप प्रकागमान होता है, जिममें यह भ्राति ममल दर होनी है कि कम का कर्ता जीव है। भावार्थ सभा ममार्ग जात्र रागादि अशुद्ध चेतनाम्प परिणमन कर रहे है, परन्तु यह पयाय है। वह ज्ञान जिमने क्रोधरूप परिणमन किया है भिन्न है और काध भिन्न : एमा अनुभव ना वहत ही कठिन है ? इमका उनर है कि मनमन हो कठिन ना है परन्तु वम्न के गद म्बम्प का विचार करन म भिन्न म्बाद ना आता ही है । दष्टान.--जम निज स्वरूपग्राही जान में म्पाट प्रगट हाता है कि उष्णता आग की है आर मानलता पाना का है. परन्तु आग के मयोग में पानी का है. गर्म कहा जाता है । भावार्थ.. पहले आग में पानी को गर्म किया जाना है और फिर उन गम पाना कहते है परन्तु दोनों वस्तुओ के स्वभाव का विचार कर ना उष्णपना आग का है, पानी तो स्वभाव में गीतन है। नमक में ग्वारा किया हुआ व्यजन था परन्तु उसको जो खारा व्यजन कहता व जानता था, वह यह जानने पर छुट गया कि नमक का स्वभाव खारा है। वैसे हा निज म्वरूप के जानपन मे (ज्ञान मे। यह भंद प्रगट हुआ। भावार्थ -जैसे नमक डाल कर व्यंजन बनाया ना उमको कहते है कि व्यंजन नमकीन मारा) है और एमा ही जानते भी है। परन्नु स्वम्प के विचार में नो खाग नमक ही होता है. व्यंजन तो जमा था वैसा ही है ।।१५। सर्वया जैसे उषपोटक में उदक स्वभाव मोन, प्राग की उपलता फरम मान लखिए। जैसे स्वाद व्यंजन में दोमन विविधरूप, लोंग को सुबाद सारोजीभ मान बखिए। तसे पपिर में विभावता प्रज्ञान रूप, मानल्प जीव मेवमान सों परखिए। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार भरम सो करम को करता है चिदानंद, परब पिार करतार नाम नखिए ॥१५॥ अनुष्टुप प्रज्ञानं ज्ञानमप्येवं कुर्वन्नात्मानमञ्जमा । स्यात्कर्तात्मात्ममावस्य परमावस्य न क्वचित् ॥१६॥ जीव द्रव्य सभी प्रकार अपने ही परिणामों का कर्ता है। कर्मरूप अचेतन पदगल द्रव्य के परिणामों का तो जोत्र कभी तीन काल में भी कर्ता नहीं होता । शुद्ध चेतन के विचार मे ना जीव अपनी सिद्ध अवस्था के अनुरूप ही परिणमन करता है । अशुद्ध अवस्था में अशुद्ध चेतनारूप विभाव परिणामों में भी परिणामत होता है। भावार्थ-जीवद्रव्य अशुद्ध चतनारूप परिणमता है और शुद्ध नंतनारूप भो परिणमना है। जिम समय जैसी चेतनामा परिणमता है. उम समय वैसी ही चंतना में व्याप्य-व्यापकरूप होता है और इसमें उस समय वैमी ही चेतना का कर्ता है ना फिर, ज्ञानावरणादि जा पुदगलपिडरूप है उनमें ना व्याप्यव्यापकरूप नहीं होता। उनका ना कर्ता नहीं है। सब जगह ऐमा ही अर्थ है ॥१६॥ दोहा--ज्ञान भाव ज्ञानी रे, मनानी प्रशाम । द्रव्य-कर्म पुद्गल करे, यह निश्चं परमान ॥१६॥ प्रात्मा ज्ञानं स्वयं जानं ज्ञानादन्यत्करोति कि । परमावस्य कर्तात्मा मोहोऽयं व्यवहारिणाम् ॥१७॥ चंतन द्रव्य चंतना मात्र परिणाम करता है। इस तरह आत्मा अपने ही चंतनापरिणाम मात्र स्वरूप है। चंतना परिणाम में भिन्न अचंतन पुद्गलपरिणाम कम उनको आत्मा क्यों करें। अर्थात नहीं करता--सर्वथा नहीं करता । जो जानता है कि चननद्रव्य जानवग्णादि कर्म को करता है वह मिथ्यादृष्टि जीव का अज्ञान है । भावार्थ-मानवरणादि कर्म का करता जीव है ऐमा कहना झूठा है।॥१७॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका दोहा-ज्ञान स्वरूपो प्रात्मा, करे ज्ञान नहि शौर । aruni चेतन करे, यह व्यवहारी दौर ॥ १७ ॥ वसंततिलका जीवः करोति यवि पुद्गलकर्म नव कस्तहि तत्कुरुत इत्यभिशङ्कयैव । एतह तीव्ररयमोहनिवर्हरणाय संकीर्त्यते शृणुत पुद्गलकर्मकर्तृ ॥ १८ ॥ इस समय जिसका दुनिवार उदय है ऐसे विपरीत ज्ञान का मूलतः निवारण करने के हेतु द्रव्यपि आठ कर्म का कर्ता जो है, उसका कथन करते है। क्योंकि निश्चय कथन में ऐसी शंका की गई है कि चंतन, द्रव्यपिंडरूप आठ कर्मो को नहीं करना है तो कौन करता है ? भावार्थ - ऐसा जाति उपजा है कि जीव के करने में ज्ञानावरणादि कर्म होते है। उसका उत्तर यह है कि पुद्गल द्रव्य स्वयं परिणामी है इसलिए वह स्वयं ही महज भाव से वर्मख्य परिणमन करता है || १८ || सर्वया --- पुद्गल कर्म करे नत्र जांय, की तुम में समझी नहि तंमी । कौन करे यह रूप कहो प्रव. को करता करनी कह कमी II प्राप ही प्राप मि बिल रे जड़, क्यों करि मो मन मंशय ऐमी, शिष्य सन्देह निरण बात कहें गुरु है क जैसी ॥ १८ ॥ उपजाति स्थितेत्यविघ्ना पलु पुद्गलस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां न करोति भावं यमात्मनस्तस्य स एव कर्ता ॥ १६ ॥ इस प्रकार निश्चय में मूर्तिक अर्थात् पुद्गल द्रव्य का स्वभाव परिणमनशील है जो अनादि निधन है, महज है और निविघ्न है। इसी परिणमन शक्ति के होने से पुद्गल द्रव्य अपने अचेतनद्रव्यसंबंधी परिणामों को करता है । और पुद्गलद्रव्य ही उन परिणामों का कर्ता है। भावार्थ -- जो ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गल द्रव्य परिणमन करता है। उन भावों का कर्ता पुद्गलद्रव्य ही होता है ॥ १६ ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कता-कर्म आधका. दोहा-पुदगल परिणामी परब, सबा परणये सोय । या पुद्गल कर्म को, पुदगल पा होय ॥१६॥ उपजाति स्थितेति जीवस्य निरन्तराया स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां स्थितायां न करोति भावं यं स्वस्य तस्यैव नरेत्मकर्ता ॥२०॥ चेतन द्रव्य की सहज, प्रवाहरूप और एक समय भी उससे अलग न होने वाली जो परिणमन करने की मामथ्र्य है वह अनादि काल में ऐसी ही है। ऐसी परिणमन शक्ति के होने में जीव अपने आप गे मंबंधित शद्ध चेतनारूप नथा अशुद्ध चेतनारूप भावों को करता है। उन परिणामों का निश्चय में जीव हो करनेवाला होता है। भावार्थ-जीवद्रव्य की अनादि निधन परिणमन शक्ति है ॥२०॥ दोसा -जीव चेतना मंजुगत, मदा काल मब ठौर । तातं चेतन भाव को, करता जीव न पोर ॥२०॥ प्रार्या ज्ञानमय एव भावः कुतो भवेद् ज्ञानिनो न पुनरन्यः । प्रज्ञानमयः सर्वः कुतोऽयमज्ञानिनो नान्यः ॥२१॥ कोई ऐसा प्रश्न करता है कि सम्यग्दृष्टि जीव के मंदविज्ञान स्वरूप परिणाम होने का तथा अज्ञानरूप न होने का क्या कारण है ? भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय का भागता हुआ विचित्र रागादिरूप परिणमन करता है तो भी वह ज्ञानभाव का ही कर्ता है और उसके ज्ञानभाव है, अज्ञानभाव नहीं । सो कम है- मा किसी ने पूछा। मिथ्यादृष्टि के परिणाम, उसका समस्त परिणमन, अशुद्ध चेतनारूप होने मे बन्ध का कारण होता है । कोई प्रश्न करता है कि ऐमा कमे है ? तो कहते हैं कि क्योंकि वे समस्त परिणाम जान की जाति के नहीं होते। भावार्थमिथ्यादृष्टि के जो कुछ परिणाम है सो सभी बन्ध के कारण हैं ॥२१॥ डिल्ल-मानवन्त को भोग निर्जरा हेतु है। मसानो को भोग बन्ध फल देतु है ।। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कला टीका माहिए हमारही। प्रवे ने जिय गुरु सरकाबही ॥२१॥ जानिनो नानानिवत्ताः सर्वे भावा भवन्ति हि। मवंऽप्यज्ञान निवृता भवन्त्यमानिनस्तु ते ॥२२॥ निश्चय में सम्यग्दष्टि के जितने भी परिणाम है. चाहे वे गुभोपयोग पहा अथवा अगभोपयोग रूप हो-- मब ज्ञानम्वरूप है। भावार्थ... सम्यकदाट का द्रव्य गदत्वम्प परिणमा है इसलिए मम्यगर्दाष्टके जो भी परिणाम है ज्ञानमय दव जाति के होने में कर्म के अवधक है। मथ्यादाट का द्रव्य अगदत्व रूप परिणमा है अत उसके सभी परिणाम गम बन्ध वं. कारण है। भावार्थ मम्य र जीवनी तथा मध्यादष्टि जीव की क्रियाएं चाह र. मी. प्रिया मरः विपय कपाय भीक मा है परन्तु द्रव्य के परिणमन में है। योग ... मम्मदष्टि का द्रव्य चकिशद्धन्वरूप परिणाम मला या जनने भी राम:. नाई ने दिपक अनुभव म्प हो, अथवा विनारम्प हो, अथवा न क्रियामा ६. अथवा भागांवलाम म्प हो, अथवा चरित्रमाह. . उदयन काध-गान-माया-नाम रूप हा, व मवक सब हा परिणाम ज्ञान जानि 7 घोटत हान है और मवर, निजंग के कारण है। मिथ्याप्टि का द्रव्य अशुद्धम्प परिणमन कर रहा है इसलिए जा भी मिथ्यादष्टि के परिणाम है अनुभवम्प ना है ही नहीं--माला चाहे मूत्र तथा मिद्धान्तों न. पाटप हो, अथवा ग्रन या नाग्नगणम्प हो. अथवा दान-पुजादया-गील प हो. अथवा मार्गावलामम्प हो. अथवा काध-मान-माया-माम सपनों वे सभी परिणाम अजान जाति के है तथा बन्ध्र के कारण है, संवर. निजंग के कारण नहीं है। दया के परिणमन की ऐसी ही विशेषता है ॥२२॥ संबंया दगा दान पूजादिक विषय कमायादिक. दह कर्म भोग पंह को एक खेत है। जानी मढ़ कामदोस एक से परिणाम. परिणाम मेद न्यारो न्यागे फल देता है। ज्ञानवंत करनी कर 4 उदासीन प. ममता न पर तात निर्जरा को हेतु है। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा-कर्म अधिकार वह करदूति र मगनल्स, अंष भयो ममता बंधपत है ॥२२॥ प्रज्ञानमयभावानामज्ञानी व्याप्य भूमिकाः । द्रव्यकर्मनिमित्तानां मावानामेति हेतुताम् ॥२३॥ पहले कह आप है कि सम्यक्दृष्टि जीव तथा मिथ्यादष्टि जीव की बाहरी क्रिया एक मी है। परन्तु दोना का द्रव्य परिणमन अलग-अलग है। उनके अलग-अलग विशेष परिणमन का अब कथन करेंगे। यद्यपि उनका मवंथा ज्ञान नो न्यभनान गोत्रर हो है। मिथ्यादृष्टि जीव का द्रव्यकर्म में धागप्रवाह पनिग्नर बध होता है। पुद्गलद्रव्य की पयायम्प कार्माणवर्गणा जानावग्णाद कम पिहरूप जीव में प्रवेश कर एक क्षेत्रावगाही होकर वन्ध्र को प्राप्त होते है। जीव आर पुद्गल में परस्पर बंध्यबंधक भाव भी है नथा मिथ्याप्टि का मिथ्यान्व अथात् गगद्वष रूप परिणामबन्ध का वाहरी कारण है। जंग कलगम्प परिणमन मिट्टी करती है. उमभ कुम्भकार का परिणाम उमका बाहरी निमिन कारण है. उनमें व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध नहीं है। उसी प्रकार जानवरणादि वम पिइम्प पुद्गन्नद्रव्य म्वय ही व्याप्य-व्यापक स्प है और जीव वा अगद्ध चतनम्प मोह-राग-द्वेष- आदि परिणाम बन्ध का बाहरी निमिन कारण है ---व्याप्य-व्यापकरूप तो नहीं है। उम अगुद्ध चंतनम्प परिणाम का कारण पाकर पुदगल म्वयं हो कपिम्प परिणमन करता है। भावार्थ- यदि कोई समझ कि जीव द्रव्य नी गट है केवल उपचार मे कम वन्ध का कारण होता है. मां गया तो नहीं स्वय अपने में ही जीव माह-गग-द्वप इन्यादि अगद चतना परिणामरूप परिणमता है इसलिए कर्म का कारण है। कर्म के उदय की अवस्था पाकर, उसकी मगति में मध्यादष्टि जीव अगद्ध परिणामरूप परिणमन करना है-गेमी मिथ्यात्व जाति है। भावार्थ-द्रव्य कर्म अनेक प्रकार के हैं और उनक उदय भी अनेक प्रकार के हैं। एक कर्म मा है जिमकं उदय में गरीर बनता है; एक कर्म सा है जिसके उदय के अनमार मन, वचन, काय की रचना होती है। एक कर्म मा है जिसके उदय म मन-द ख का प्राप्ति हाती है-मे अनेक प्रकार कर्मो के उदय होने में मिथ्यादष्टि जीव कमों के उदय का अपन आप रूप Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलश टीका अनुभव करता है जिसमे राग-द्वेष-मोह परिणाम होते हैं जिनमे नए कमों का बन्ध होता है। मिथ्या दृष्टि जीव अशुद्ध चनन परिणाम का कर्ता है जिससे उमको गद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं होता और कमों के उदय के कार्य को ही अपने म्प मानकर अनुभवन करता है। जैसे मिथ्यादृष्टि के कर्म का उदय है, वैसे ही सम्यग्दष्टि के भी है । परन्तु सम्यग्दष्टि जीव को शुद्ध म्वरूप का अनुभव है इाला कर्म के उदय को कम की जानि का ही मान कर अनुभवन करता है। और अपने आप को शद्ध स्वरूप अनुभवन करता है। इसलिए कम के उदय में रंजायमान नही होता और राग-द्वेष-मोहरूप परिणमन नहीं करना। नब उमका कर्म वन्ध नहीं होता और इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव अगद्ध परिणाम का करता नही है ॥२३॥ अप्पं ज्यों माटी मालिश, होने की शक्ति हे ध्रव । दंड, चक्र, चोवर, कलाल, वाहिज निमित्त हव ।। न्यों प्रदगत परमाग, पंज बग्गरगा मेष धरि । ज्ञानवरगादिक स्वरूप, विचरन्त विविध परि ॥ बाहिन निमिन बहिरातमा, गहि मंश प्रज्ञानमति । जगमांहि पहंकृत भाव मों, कर्मरूप हूं परिगमति ॥२३॥ उपेन्द्रवज्रा य एव मुक्तानयपक्षपातं स्वरूपगुप्ता निवसन्ति नित्यं । विकल्पजालच्युतशान्तचित्तास्त एव साक्षादमृतं पिबन्ति ॥२४॥ जो कोई जीव निरन्तर शुद्ध चैतन्य मात्र वस्तु में तन्मय है वह जीव द्रव्य-पर्यायरूप विकल्प बुद्धि को नथा एक पक्षम्प अंगीकार को अर्थात् किमी एक पक्ष के पक्षपात को छोड़कर तथा एक सत्ता के अनेक रूप के विचार में रहित होकर, शान्तचित व निविकल्प समाधान मन में अतीन्द्रिय सुखरूप साक्षात् अमृत का भोग करता है। भावार्थ ---एक सत्ता वस्तु के द्रव्य-गुण-पोयरूप, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप का विचार करने से विकल्प होता है । विकल्प मे मन में आकुलता होती है । आकुलता दुःख है । इसलिए वस्तुमात्र के अनुभव से विकल्प मिटता है। विकल्प मिटने से आकुलता मिटतो है । आकुलता मिटने से दुःख मिटता है। इस प्रकार अनुभवशील जीव ही परमसुखी है ॥२४॥ संबंया न करें नय पक्ष विवाद, परन विषाद, पलीक न भालें। जे उद्वेग त घट अन्तर, सीतल भाव निरन्तर रा॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार ६५ जे न गुरणी गुरण भेद विचारत, प्राकुलता मन की सब नाहीं । ते जग में घरि प्रातम ध्यान, प्रखण्डित ज्ञान सुधारस चालें ||२४|| उपजाति एकस्य बद्धो न तथा परस्य विति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिश्चिदेव ||२५|| एकस्य मूढो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु निशिदेव ॥ २६ ॥ एकस्य रक्तो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥ २७॥ एकस्य दुष्टो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ २८ ॥ एकस्य कर्ता न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ २६ ॥ एकस्य भोक्ता न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ३० ॥ एकस्य जीवो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥ ३१ ॥ एकस्य सूक्ष्मो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलुचिच्चि देव ।। ३२ ।। एकस्य हेतुर्न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चि देव ॥ ३३ ॥ एकस्य कार्य न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ३४ ॥ एकस्य भावो न तथा परस्य चिति द्वयोर्द्वाविति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चि देव ।। ३५ ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૬ समयमार कलश टीका एकम्य चको न तया परस्य चिति द्वयोहाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३६॥ एकम्य मांतो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३७॥ एकस्य नित्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं बलु चिच्चि देव ॥३८॥ एकस्य वाच्यो न तथा परस्य चिति द्वयोढाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥३६॥ एकस्य नाना न तथा परस्य चिति द्वयो-वितिपक्षपाती । यस्तत्ववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥४०॥ एकस्य चेत्यो न तया परस्य चिति दयोहाविति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥४१॥ एकस्य दृश्यो न तथा परस्य चिति द्वयोर्दा विति पक्षपाती। यस्तत्ववेदी च्युतपक्षापातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥४२॥ एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चिति द्वयोविति पक्षपाती । यस्तत्ववेदी व्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥४३॥ एकस्य भातो न तथा परस्य चिति द्वयोाविति पक्षपातौ । यस्तस्ववेदी व्युतपक्षपात स्तस्यास्ति नित्यं खलु चिञ्चिदेव ॥४४॥ चैतन्य मात्र वस्तु को द्रव्याथिक नय से एसी है या पर्यायाथिक नय से ऐसी है. ऐसा कहना दोनों ही पक्षपात है। ज्ञान यदि अशुद्ध पर्यायमात्र को ग्रहण करता है तो कहता है, कि जोव द्रव्य [कर्मों में] बंधा हुआ है, मुक्त है, कर्ता है, भोक्ता है-आदि । भावार्थ--एक पक्ष तो ऐसा है कि जीव द्रव्य अनादि काल में कर्म के संयोग से एक पर्यायरूप चला आ रहा है, विभावरूप परिणमन कर रहा है. ऐसा व्यक्ति एक बंध पयाय को ही अंगीकार किए है और द्रव्य स्वरूप के पक्ष का विचार नहीं करता। दूसरी ओर, जब द्रव्याथिक नय का पक्ष पकड़ता है तो कहता है कि Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म अधिकार [जीव बंधा आदि-नहीं है। भावार्थ----जीव द्रव्य का तो अनादि-निधन चेतना लक्षण है-- ऐसा जो द्रव्य मात्र का पक्ष ग्रहण करता है सो कहता है कि जोव द्रव्य बंधा है हो नहीं, सदा अपने ही म्वरूप है। कोई भी द्रव्य कभी भी अन्य द्रव्य के गुणपर्याय में नहीं परिणमन करना, मब ही द्रव्य अपने ही स्वरूप में अपने में परिणमन करते हैं। परन्तु जो जीव गद्ध चेतन-मात्र जीव के स्वरूप का अनुभव कर लेता है वह पक्षपात मे रहित होता है। भावार्थ----एक वस्तू में अनेक रूपों को कल्पना करना पक्षपात है। यह पक्षपात वस्तु मात्र का स्वाद आन पर स्वयं ही मिट जाता है। जिसको चैतन्यवस्तु के शुद्ध स्वरूप का अनुभव है उमको यह चेतना मात्र वस्तु है ऐसा प्रत्यक्ष रूप से स्वाद आता है ॥२५॥ मर्वया व्यवहार दृष्टि मों विलोकन बंध्यों मो दोसे, निहर्च निहारत न बांध्यो यह किन हो। एक पक्ष बंध्यो एक पक्ष सों प्रबन्ध सदा, दोउ पक्ष अपने प्रनादि घरे इनही॥ कोउ कहे समल विमलरूप कोउ कहे, चिदानन्द तंसा हो बखान्यो जैसे जिनही। बन्ध्यो माने खुल्यो माने नय के मेव जाने, सोई ज्ञानवंत जीव तत्त्व पायो तिनही ॥२५॥ वसंततिलका स्वेच्छासमुच्छलवनल्पविकल्पजाला मेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षाम् । अन्तर्बहिस्समरसंकरसस्वभावं __ स्वं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमात्रम् ॥४५॥ पूर्वोक्न प्रकार सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव मे, अन्तर और बाहर मे जिमको महज स्वभाव मे एकमी ममतारूप चेतना शक्ति है, उस वक्त एक शुद्ध स्वरूप चिद्रूप आत्मा का स्वाद लेता है। द्रव्याथिक व पर्यायाथिक भेदों के अंगोकार अर्थात् पक्षपातों के समूह तथा अनंत नयों के विकल्पां का दूर हो में छोड़ कर उस शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति होती है। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका भावार्थ - अनुभव निर्विकल्प होता है। अनुभव करने के समय सारे विकल्प छूट जाते हैं। वाह्य व आभ्यन्तर बुद्धि के जितने भी विकल्प हैं उतने ही नय भेद हैं। वे असंख्य भंद बिन उपजाए ही उपजते हैं और निर्भेद वस्तु में भेद कल्पना के समूह है। आत्मस्वरूप तो अतीन्द्रिय सुख रूप है ।। ४५ ।। सबंध – प्रथम नियत नय दूजो व्यवहार नय, को फलावत प्रनंत भेद फले हैं । ज्यों-ज्यों नय फैले त्यों-त्यों मन के कल्लोल फैले, चंचल सुभाव लोकालोकलों उछले हैं ॥ - ऐसो नय कक्ष ताको पक्ष तजि ज्ञानी जीव, समरसि भये एकताम नहि टले है । महा मोह नामे शुद्ध प्रनुभो प्रम्यासे तिज, बल परगासि सुखरासी मोहि रले है ।। ४५ ।। रथोद्धता इन्द्रजालमिदमेवमुच्छलत् पुष्कलोच्च लवि कल्पवीचिभिः यस्य विस्फुररणमेव तत्क्षरगं ६८ कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ॥ ४६ ॥ मैं ऐसा ज्ञान पुंज रूप हूं जिससे प्रकाशमात्र होता है। जिस समय मुझे शुद्ध चिद्रूप का अनुभव होगा उस समय निश्चय से जो अनेक नय विकल्प यद्यपि बहुत है परन्तु झूठे हैं--विनश जाएंगे । भावार्थ - जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अंधकार फट जाता है उसी प्रकार निज चैतन्य मात्र का अनुभव होने पर जितने भी समस्त विकल्प हैं, मिट जाते हैं। ऐसी जो शुद्ध चैतन्य वस्तु है, वह तो मेरा स्वभाव है, बाकी सभी कर्म की उपाधि है। यह सब जो अत्यन्त स्थूल विकल्प व भेद कल्पना की तरंगें उठतो हैं, वे सब आकुलता रूप हैं इसलिए हेय हैं, उपादेय नही हैं ॥४६॥ सर्वया - जैसे बाजीगर चोहटे बजाइ डोल, धरिके भगल बिद्या ठानी है । नानाप तैसे मैं अनादि को मिध्यात्व को तरंगनि सौं, भरम में थाइ बहु काय निज मानी है ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार प्रबहान कला जागी भरम की दृष्टि भागी। अपनि पराई सब मोज पहचानी है। जाके उद होत परमारण ऐसी भांति भई, निह हमारी ज्योति सोई हम जानी है ॥४६॥ रयोद्धता चित्स्वभावभरभावितभावाभावभावपरमापतये। बन्धपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारं ॥४७॥ शुद्ध चतन्य का अनुभव करना ही कार्य की सिद्धि है वह अनादि. अनन्त शुदस्वरूपचैतन्य अपन उस ज्ञानगुण के द्वारा (जिसका कार्य ही अर्थ ग्रहण करना है) तथा उसक उत्पाद-व्यय-धोव्य रूपी तीन भेदों के विचार द्वारा सघता है। यह साधना, जितनी भी असंख्यात लोकमात्र भेदरूप ज्ञानवरणादि कर्मबंध रचना है..... उस सबका ममत्व छोडकर सघती है। भावार्थ-शद्ध म्वरूप के अनुभव होने पर जो नय विकल्प हैं वे मिटते हैं-वे सब नय कर्म के उदय हैं। वे जितने भी भाव हैं फिर सभी मिट जाते हैं, ऐसा स्वभाव है ॥४७॥ सबंया-से महरनन को ज्योति में लहरि उठे, जल को तरंग जैसे लीन होय जल में। ते शुद्ध प्रातम दरब परजाय करि, उपजे विनसे घिर रहे निज पल में॥ ऐसोपविकल्पी अजलपि प्रानन्द कपि, प्रनादि अनंत गहि लीजे एक पल में। ताको अनुभव कोजे परम पीयूस पोजे, बन्धको विलास डारि बोजे पुद्गल में ॥७॥ शार्दूलविक्रीडित भाकामनविकल्पमावमवलं पक्षनयानां विना, सारो यः समयस्य भाति निमृतंरास्वाधमानः स्वयं । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० समयसार कलश टोका विज्ञानंकरमः स एष भगवान् पुष्यः पुराणः पुमान्, ज्ञानं दर्शनमध्ययं किमथवा यत्किचनकोऽप्ययम् ॥ ४८ ॥ शुद्ध स्वरूप आत्मा अपने ही शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है । यार्थिक ओर पर्यायार्थिक विकल्पों का बिना पक्षपात किए, त्रिकाल ही एकरूप रहने वाला निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य आत्मा, जो उसका शुद्ध स्वरूप है वैसा ही परिणमित होता है । भावार्थ जिनने नय हैं वे सब श्रुतज्ञान के विषय हैं और श्रुतज्ञान परोक्ष है जबकि अनुभव प्रत्यक्षज्ञान है । इसलिए श्रुतज्ञान से रहित जो ज्ञान है वह प्रत्यक्ष अनुभव ही है। इस प्रकार प्रत्यक्षरूप में अनुभव के द्वारा जो शब्द स्वरूप आत्मा का ज्ञान होता है वही ज्ञान पुज वस्तु है । वही परब्रह्म परमेश्वर है, वही पवित्र पदार्थ है, वहीं अनादिनिधन वस्तु है, वहीं सम्यग्दर्शन व सम्यक्ज्ञान है बहुत क्या कहें- शुद्ध चैतन्य वस्तु की प्राप्ति जो कुछ कहीं वही है, जैसे कहो वैसे ही है। भावार्थजो शुद्ध चैतन्य वस्तु प्रकाशमान, निविकल्प, एकरूप है उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए अनन्त नाम भी कह तो वे सब घटित होते हैं, परन्तु वस्तु ता एक रूप है। वह शुद्ध स्वरूप आत्मा निश्चल ज्ञानी पुरुषों के द्वारा स्वयं अपने में ही अनुभव में आता है ।। ४८ ।। सर्वया -- द्रार्थिक नय पर्यायायिक नय दोउ, श्रुतज्ञानरूप भूतज्ञान तो परोल है । शुद्ध परमात्मा को प्रनुभी प्रकट ताते, प्रतुभौ विराजमान प्रनभौ प्रदोल है ॥ अनुभौ प्रमारण भगवान् पुरुष पुराण, ज्ञान प्रौ विज्ञानघन महा सुख पोष है । परम पवित्र यो अनंत अनुभौ के, अनुभी बिना न कहूं और ठौर मोल है । शार्दूलविक्रीडित दूरं मूरि विकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघान्च्युतो, दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजोधं बलात् । विज्ञानंकरमस्तदेकर सिनामात्मानमात्माहरन्नात्मन्येव सदागतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥४६॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्ता-कर्म-अधिकार ७१ द्रव्य स्वरूप ऐसा है कि जो बेतन पदार्थ पहले अपने स्वरूप से नष्ट हुआ था वह फिर से उसी स्वरूप को प्राप्त हुआ। जो अनुभव के रसिक पुरुष है वे अपने ज्ञानगुण का अपने आप में निरन्तर अनुभव करते हैं । जैसे पानो का शीत-स्वच्छ द्रवत्व स्वभाव है परन्तु उस निज स्वभाव से कभी च्युत होकर वृक्षरूप आदि परिणमन करता है । वैसे ही जीव द्रव्य का स्वभाव केवलज्ञान, केवलदर्शन, अतीन्द्रियमुख इत्यादि अनन्तगुण है परन्तु अनादि काल में लेकर उनसे भ्रष्ट हो रहा है, विभावरूप परिणमित है । अर्थात् कर्मजनित जितने भी भाव है उनमें अपनेपने को जो संस्कार बुद्धि है उसके समूह में फंसा भवरूपो वन में भ्रमण कर रहा है । भावार्थ - जैगे पानी अपने स्वाद में भ्रष्ट हुआ नाना वृक्षरूप परिगमन कर रहा है वैसे ही जावद्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप से भ्रष्ट हुआ नाना प्रकार चतुर्गतिरूप (पर्यायरूप) अपने आपको अनुभव करता है। ऐसा क्यों है ? ऐसी सरकार बुद्धि जोव को अनादिकाल से मिली है। जैसे नोचा मार्ग पाकर पानी फिर में अपने निज स्वरूप को प्राप्त होता है । वैसे ही शुद्ध स्वरूप कं अनुभव में जीव द्रव्य का जैसा स्वरूप था वंगा हो प्रगट हुआ । भावार्थ जैसे पानी अपने स्वरूप से भ्रष्ट होना परन्तु काल का निमित्त पाकर फिर जलरूप होता है--नीचा मार्ग पाकर ढलकता है और फिर से जलाकार हो जाता है- उसी प्रकार जीव द्रव्य अनादि काल से अपने स्वरूप में भ्रष्ट है परन्तु शुद्ध स्वरूप का लक्षण जो सम्यक्त्व गुण है, उसके प्रगट होने पर मुक्त होता है। ऐसा ही द्रव्य का परिणाम है ।। ४६ ।। है सर्वया - जैसे एक जल नानारूप दरवानुयोग, भयो बहु भांति पहिचान्यो न परत है । फिर काल पाई दरवानुयोग दूर होत, अपने सहज नीचे मारग हरत है । तैसे यह चेतन पदारथ विभावतासों, गति जोनि भेष भव भांवर भरत है । सम्पक स्वभाव पाइ अनुभौ के पंथ धाइ, बंध की जुगत भानि मुकती करते है ||४६ || इलोक विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्मकेवलं । न जातु कर्तुं कर्मत्वं सत्रिकल्पस्य नश्यति ॥ ५० ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमयसार कलश टीका शार्दूलविक्रीडित कर्ता कर्मरण नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि, द्वन्द्वं विप्रतिविध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मरिण सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिनेपथ्ये वत् मानटीति रभसान्मोहस्तथाप्येव किं ।। ५३ ।। मिथ्यात्व रागादि अशुद्ध ज्ञानावरणादि पुद्गल पिउ कर्म में, निश्चय से एक द्रव्यपना तो नहीं है। और उधर ज्ञानावरणादि पुद्गल पिंड कर्मों में तथा अशुद्ध भावों में परिणमन कर रहे मिथ्यादृष्टि जीव में भी एक द्रव्यपना नहीं है । जब जीवद्रव्य का तथा पुद्गलद्रव्य का एकपना निषिद्ध है तो फिर जीव ज्ञानावरणादि कर्म का कर्ता है-ऐसी अवस्था कहां में घटित होगीअपितु नहीं घटती है। जीव द्रव्य का अपने द्रव्य से ही एकत्वपना है । सब ही काल में ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। ज्ञानावरणादि पुद्गलपिड अपने ही पुद्गलपिड रूप हैं । द्रव्य का ऐसा स्वरूप अनादि-निधन रूप से प्रगट है । वस्तु का स्वरूप तो जैसा कहा वैसा है फिर यह बड़े अचम्भे की बात है कि मिथ्यामागं मे जीवद्रव्य की पुद्गन्नद्रव्य के साथ एकत्वरूप बुद्धि का क्यों निरन्तर प्रवर्तन हो रहा है। ان भावार्थ - जीवद्रव्य और पुद्गल द्रव्य भिन्न-भिन्न है । परन्तु मिध्यात्वरूप परिणमित होता हुआ जीव इनको एक जानता है यह कितने अचम्भे की बात है । आगे यह वर्णन करेंगे कि मिथ्यादृष्टि के एकरूप जानने पर भी जीव- पुद्गल कैसे भिन्न-भिन्न है ।। ५३ ।। - करमपिड प्ररु रागभाव मिलि एक होय नहि, -- दोऊ भिन्न स्वरूप वर्साह, बोऊ न जीव महि । करमपि पुद्गल, भाव रागादिक मूढ भ्रम, अलख एक पुद्गल अनंत, किमि धरहि प्रकृति सम ॥ निजनिज बिलास गुत जगत महि, जया सहज परिणमहि जिम, करतारजी बजड़ करम को, मोह विकल जन कहहिं इम ॥५३॥ मंदाक्रांता कर्ता कर्ता भवत न यथा कर्म कर्मापि नंब, ज्ञानं ज्ञानं भवति च यथा पुद्गलः पुद्गलोऽपि । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ कर्ता-कर्म-अधिकार नानज्योतिज्वलितमधलं व्यक्तमन्तस्तयोच. श्चिच्छतीनांनिकरभरतोऽत्यन्त गम्भोरमेतत् ॥५४॥ अपने स्वरूप मे विचलित न होने वाला, अमन्यात प्रदेशों में प्रगट, अनन्त से अनन्न गक्ति का धारक, ज्ञान गुण के निरंगभेदभाग का अनंतानंत समूह होने से अत्यन्त गम्भीर जो शुद्ध चैतन्य प्रकाश है वह जैसा था वैसा प्रगट हआ। ज्ञान गुण प्रकाशित होने से कैसे फल की सिद्धि होती है, अब यह कहेंगे। ज्ञान गुण ऐसा प्रकट हुआ कि ज्ञान प्रकाश होकर जो (पहले) अज्ञानपने को लिए हुए जीव मिथ्यात्व परिणाम का करता हो रहा था सो अब अज्ञान भाव का करता नहीं रहा। मिथ्यात्व रागादि विभाव कर्म भी अब उमके रागादि रूप नहीं होते । नब जिस शक्ति ने उसका (जीव का) विभाव परिणमन करवाया था उसी के द्वारा वह फिर अपने स्वभावम्प हुआ। जिस प्रकार पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मरूप परिणमित हुआ या वही पुद्गलद्रव्य कर्मपर्याय को छोड़कर फिर पुद्गलद्रव्य हो गया ॥४५॥ ॥ इनि तृतीयो अध्यायः ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ अध्याय पुण्य-पाप एकत्व द्वार व्रतविलंबित तत्य कर्म शुभाशुममेवतो, द्वितयतां गतमण्यमुपानयन् । ग्लपितनिर्भरमोहरजा प्रयं, स्वयमुदत्यवबोधसुधाप्लवः ॥१॥ जो गगादि अशुद्धचेतनरिणाम अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गल पिंडरूप में एकत्वपना साध रहा था (मान रहा था) उममें दोपना करके, अत्यन्त घने मिथ्यान्व अंधकार को दूर करके, विद्यमान शुद्ध ज्ञान प्रकाश रूपी चन्द्रमा जैसा था, वैसा ही अपने तेजपुंज मे प्रगट हआ। पहले भले और बुरे के चक्र में विहार कर रहा था जो अब छूट गया। भावार्थ-- मिथ्यादष्टि जीव का ऐसा अभिप्राय है कि दया-व्रत-तप-शीलसंयम आदि जितनी भी शुभ क्रियाएँ हैं और उनके अनुसार जो शुभोपयोग परिणाम हैं तथा उन परिणामों के निमित में जो साता-कर्म आदि पुण्यम्प पुद्गलपिड का बंध होता है वह अच्छा है, जीव को मुखकारी है या, हिसाविषय-कषायरूप जितनी क्रियाएं है उनके अनुमार जो अशुभोपयोगरूप संक्लेश परिणाम हैं तथा उनके निमिन से अमाता कर्म आदि पापरूप पुद्गल पिंड का बन्ध होता है वह बुरा है, जीव को दुःखकर्ता है। परंतु-अशुभ कर्म जीव को दुखकर्ता है तो शुभकर्म भी जीव को दुःखकर्ता ही है। कर्म में तो कोई अच्छा नही, परन्तु मिथ्यादष्टि जीव अपने मोह के कारण (शभ) कर्म को भला मानता है-ऐसी सम्यक् प्रतीति शुद्ध स्वरूप के अनुभव होने पर होती है ॥१॥ कवित-जाके उ होत घट अंतर, विनसे मोह महा तम रोक, शुभ पर प्रशुभ करम को दुविधा, मिट सहज दोसे इक पोक ॥ जाकी कला होत संपूरण, प्रतिभासे सब लोक प्रलोक । सो प्रतियोष शशि निरखि बनारसि, सीस नमाइरेत पग पोक ॥१॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एकत्व द्वार मंदाक्रांता एको दूरात्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमानादन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तव । द्वावप्येतो युगपदुदरा निर्गतौ शूद्रिकायाः, शूद्रो साझादय च चरतो जातिभेदभ्रमेण ॥२॥ चांडालो के पेट में एक साथ जन्मे हैं इसलिए दोनों ही पुत्र चांडाल हैं। दोनों के हो चाण्डाल होने में कोई सन्देह नहीं है। परन्तु परमार्थ-शुन्य अभिमान मात्र के कारण ब्राह्मण और शूद्र आदि के वर्णभेद का भ्रम हुआ है। उनमें से एक, उपजा तो चांडालो के पेट मे है परन्तु उसका प्रतिपालन ब्राह्मण के घर में होने में वह मृगपान आदि का अति ही त्याग करता है । इतना विरक्त हो गया है कि छना भी नहीं है, उसका नाम भी नहीं लेता है, मैं ब्राह्मण हूँ ऐमा उमको पक्षपात है। दूमरा भी शूद्री के पेट में उपजा है परन्तु उसका शूद्र के यहां प्रतिपालन हुआ है ऐमा जीव मदिग को आवश्यक जान नित्य ही अति मग्न होकर पीना है । कहता है. --मैं शूद्र हूँ, मेरे कुल में मदिग योग्य है। भावार्थ-किमी चांडाली के दो युगलिया पुत्र एक ही बार में जन्मे । कर्मयोग मे एक पत्र का प्रतिपालन ब्राह्मण के यहां हुआ वह नो ब्रह्मणों की क्रियाएं करने लगा। दूसरे पत्र का प्रतिपालन चांडाली के यहां हुआ तो वह चांडाल को ही क्रियाएं करने लगा। जो दोनों के वंश की उत्पत्ति का विचार किया जाए तो दोनों ही चाण्डाल हैं। वैसे ही कोई जीव दया-व्रतशील-संयम में मग्न है उसके शुभ कर्म का ही बन्ध होता है और कोई जीव हिंसा-विषय-कषाय में मग्न है उमको पाप का बन्ध ही होता है। मां दोनों ही अपनी-अपनी क्रियाओं में मग्न है। दोनों ही मिथ्यादृष्टिपने सेगमा मानते हैं कि शुभ कर्म भला है, अशभ कर्म बुरा है। मोमे दोनों ही जीव मिथ्यादृष्टि हैं। दोनों ही जीव कर्म-बन्ध करने वाले हैं। जैसे जो शूद्रो के पेट से उपजा वह, इस ममं को तो जानता नहीं, परन्तु कहता है में ब्राह्मण हं, हमारे कल में मदिरा निषिद्ध है "मा जान कर मदिरा छोडना है तो भी विचार करो नो वह चांडाल ही है। उसी प्रकार कोई जीव शुभोपयोगी होकर यति क्रियाओं में मग्न होता हुबा शुद्धोपयोग को नहीं जानता है-मात्र गति क्रियाबों में ही मग्न है- ऐसा जीव यह मानता है कि मैं तो मुनीश्वर Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार काला टीका हं. मेरे लिए विषय-कपाय इत्यादि सामग्री निषिद्ध है। सा जानकर ही विषय-गाय आदि मामग्री को छोड़ता है, अपने आपको धन्य मानता है. और अपने माग को मोक्षमार्ग मानता है। परन्त विचार कगे तो मा जीव मिथ्याष्टि है। नमवला को करना है. कोई भलागना तो नहीं है। जो मिथ्या जीव गमवाना है.. गदम्य का कियात्रा में ग्न है आर ममजना है कि हम गहम्य है, हमारे लिए विपय-सपाय आदि क्रियाग योग्य हैं और म प्रकार विषय-पाय का सेवन करना है, वह भी जीव मिय्यादष्टि है। कम का बन्ध करता है । वह कम-जनित पर्याय को ही अपने कप जानता है। उमको जीव पद ग्वा का अनुभव नही ।।।। मक्या जमे कार चण्डाली जुगल पुत्र जने तिन, एक दीयों बामनक एक घर गयो है। बामन कहायो जिन मद्य मांस न्याग कीनो. चापटान कहाशे जिन मद्यमांम चास्यो है। नमे एक वेदनीय करम के जुगल पुत्र, एक पाप एक पुन्य नाम भिन्न भाल्यो है । दहं माहि दोर धप, दोऊ कर्म बन्ध रूप, याते जानवन्त कोऊ नाहि भिलाग्यो है ॥२॥ उपेन्द्रवज्रा हेतुस्वभावानुभवाश्रयाणां, सदाप्यभेदान्न हि कर्मभेदः तद्वन्धमार्गाश्रितमेकमिष्टं, स्वयं समस्तं खलु बंधहेतुः ॥३॥ मान्यता के अन्तर में कोई प्रश्न करना है और कहना है कि कर्मों में भंद तो है-कोई कर्म गम है, कोई अशभ है। उनके हेत में भेद है, स्वभाव में भेद है, अनुभव में भंद है और उनका आश्रय भी भिन्न-भिन्न है। इम नरह चार प्रकार के कर्मों में भेद है। उनके हेतु अर्थात् पारण में इस प्रकार भेद है कि संक्लेश परिणामों में अशभ कर्म वधता है और भ परिणामों में शुभ बन्ध होता है। स्वभाव भेद अर्थात् प्रकृति भेद इस प्रकार है कि अशुभ कर्मों की प्रकृति भिन्न है तथा उनकी पद्गल कम वर्गणा भिन्न है और शुभ कर्मों की प्रकृति भिन्न है और उनकी पद्गल कमवगंणा भो भिन्न है। कर्मों के अनुभव में अर्थान उनके रस में भी भेद है--अभ कर्म के उदय में Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एकत्व द्वार नारकी, नियंच या हीन मनुष्य होता है जहां अनिष्ट करने वान विषयों के मयांग से दुःख पाता है जो अशुभ कर्मों का स्वाद है । शुभ कर्म के उदय से जीव देव या उत्तम मनुप्य होता है। वहां इष्ट करने वाले विषय संभोग रूप मुख को पाता है, जैसा शभ कम का स्वाद है। तो यह स्वादभेद है। अव फल की प्राप्ति के विचार में भी भेद है---अशुद्ध कर्म के उदय से हीन पय्याय होती है और अधिक मंक्लेश होकर संसार की परिपाटी बनती है। गभ कम के उदय में उत्तम पर्याय होती है, जहा धर्म की सामग्री मिलती है जिसमें जाव मोक्ष जाता है। तो इस तरह मोक्ष की परिपाटी दाम कम है। ऐसा कोई मिथ्यावादी मानते हैं जिसका उत्तर इस प्रकार है...... कोई कर्म शुभरूप है, कोई कर्म अशुभरूप है एसा कोई अन्तर या मंद नहीं है । कर्म के बंध के कारण जो शुभ परिणाम या मलंग परिणाम हैं, वे दोनों ही परिणाम अशुद्धरूप हैं, अज्ञानरूप है । अतः दोनों के कारण में कोई भंद नहीं है। कारण एक ही है। स्वभाव के विचार से शुभकर्म और अशमकर्म ऐसे दोनों कर्म पुद्गल पिडरूप है इसलिए दानों का एक ही स्वभाव है-स्वभाव का भेद भी नहीं है। अनुभव अर्थात उनके रस में भी भेद नहीं है- शुभ कर्म के उदय में जीव बंधा और मुखी है, अशुभ कर्म के उदय से भी जीव बंधा और दुःखी है। दोनों ही दशाओं में बंधा है- इसमें विशेष अन्तर कोई नहीं है। आश्रय अर्थात् फल की प्राप्ति के विचार में भी एक ही हैं, कोई विशेष अन्तर नहीं है-शुभ कर्म के उदय में संसार परिपाटी बनती है वैसे ही अशुभकर्म के उदय में भी संसार की ही परिपाटी बनती है। इस प्रकार यह अर्थ ठहरा कि कोई कम भला, कोई कम बुरा---सा नहीं है. सभी कर्म दःखरूप है। कर्म निःसन्देह बन्ध को करने वाले है, सा गणधरदेव ने माना है। इस प्रकार निश्चय मे जितनी भी कर्मजाति है, स्वयं ही बन्ध रूप है। भावार्थ- जो स्वयं मुक्त स्वरूप होगा वही कदाचित् मुक्ति को कंगा । कर्म जाति अपने आप ही बन्ध पर्यायरूप, पुद्गल पिंडरूप, बंधी है, सो वह मुक्ति कहां में कर सकती है । इसलिए कम गर्वथा वधमार्ग है ॥३॥ सबंया-संकिलेस परिणामनिसों पाप बन्ध होय, विशद्धसों पुन्यबन्ध, हेतु भेद मानिए। पाप के उद प्रमाता ताको हैं कटक म्वाद, गुन्य उ माता मिष्ट ग्यभेद जानिए । पाप संक्लेिस स्प पुन्य है विशुद्ध रूप, दुहं को स्वार भिन्न भेद यों बसानिए । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E . ममयसार कलश टाका पापमों कुर्गात होय पुन्बसों मुर्गात होय । ऐमो फलमेव परतन परमानिए। पाप बन्ध पुन्य बन्ध में मुकति नाहि, कटुक मधुर स्वाद दुग्गल को पेखिए । महिलेस विशुद्धि सहन होउ कर्मचाल, कुर्गात मुर्गात जग जाल में बिसेलिए। कारणादि मेर तोहि मत मिण्यात माहि, ऐसो तभाव मानष्टि में न लेखिए। होउ महा अन्य कप, दोउ कर्म बंधाप, दुहं को बिनाश मोममारग में रेखिए ॥३॥ रयोदता कर्म सर्वमपि सवितो यह बन्धसाधनमुशन्त्यविशेषात् । तेन सर्वमपि तत्प्रतिषिलं ज्ञानमेव विहितं शिवहेतुः ॥४॥ टम प्रकार मवंशवीतराग ने ममम्न शुभम्प-वन-मयम-तप-शीलउपवाम इन्यादि क्रियाओं को अथवा विषय-कपाय इत्यादि अशुभप क्रियाओं को एकमी दृष्टि में बंध का कारण कहा है। भावार्थ-जैसे जीव की अगभ किया करने में वध होता है वैसे ही शुभ क्रिया करने से भी जीव को बंध होता है । बध में नी विशेष अन्नर नहीं। इसलिए कोई मिथ्यादृष्टि जीव गुभ क्रिया को मोक्षमागं जान कर उसका पक्षपात करे तो उसका निपंध किया है । मा भाव रखा कि कोई भी कर्म मोजमार्ग नहीं है । निश्चय में गुट स्वरूप का अनुभव ही मोक्षमार्ग है। अनादि काल की परम्परा से ऐसा ही उपदेश है ।। ४।। संबंधा-सील तप संयम विरति न पूजारिक, अपवा असंयम कवाय विवं भोग है। कोउ शुभरूप कोउ प्रशुभ स्वरूप मूल, बस्तु के विचारत दुविष कर्म रोग है। ऐसी बन्ध पति बलानी बोतराग देव, पातम परम में करत त्याग जोग है। भो बल तरंया रागांव के हरया, महा मोम के करंया एक शुद्ध उपयोग है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एकवहार ८१ शिखरिणी निषितु सर्वस्मिन् सुकृादुरिते कर्मणि किल प्रवृते नष्कम्यं न खलु मुनयः सन्त्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वगं विन्दन्त्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥५॥ यहां कोई प्रश्न करता है कि जब शुभ क्रिया और अशुभ क्रिया सभो निषिदकारी हैं तो मुनीश्वर किसका अवलम्बन लेते हैं ? इसका इस प्रकार समाधान किया है-आमूल-चूल से अर्थात् जड़ मात्र से व्रत-संयम-तपरूप क्रिया अथवा शुभोपयोगरूप परिणाम या सक्लेश परिणाम-ऐसो जितनी भो क्रियाएं हैं वे कोई भी मोक्षमार्ग नहीं हैं। सूक्ष्म या स्थूल रूप जितने भी अंतजंल्प या बहिणल्प विकल्प है उनमे रहित निर्विकल्प शुद्ध चैतन्य मात्र प्रकाशरूप वस्तु ही मोक्ष मार्ग है । एकरूप ऐसा हो है-जो निश्चय से ऐसा मान कर चलते हैं उन्हीं के मोक्षमार्ग है। जिन्होंने संसार शरीर भोगों से विरक्त होकर यतिपना (मुनिपना) धारण किया है उनका मन, बिना आलम्बन के, शुन्य है-ऐसा तो नहीं है। तो कैसा है ? जब ऐसी प्रतीति होती है कि अशुक्रिया मोक्षमार्ग नहीं, और शभ क्रिया भी मोक्षमार्ग नहीं, तब निश्चय ही मुनीश्वर को शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही आलम्बन होता है। जो ज्ञान बाहर परिणमन करता था वही अपने शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव होने की यह विशेषता होतो है कि जो सम्यकदृष्टि मुनीश्वर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करते हैं, जो उसी में मग्न हैं, वे सर्वोत्कृष्ट अतीन्द्रिय सुख का आस्वादन भावार्थ-शुभ क्रियाओं में मग्न हुआ व्यक्ति विकल्पी होने से दुःखी है। क्रियाओं का संस्कार छूटने पर शुट स्वरूप का अनुभव हो तो जीव निर्विकल्प होता है । उसी से मुखी होता है ।।५।। सबंधा-शिष्य कहे स्वामी तुम करनी प्रशुभ शुभ, कोनी है निषेष मेरे संशं मन माहि है। मोन के संघया माता देश विरती मुनीश ! तिनको अवस्था तो निरालम्ब नाहीं है। कहे गुरु करम को नाश अनुमो अभ्यास, ऐसो प्रबलम्ब उनहीं को उन माहि है। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलण टीका निरुपाधि प्रातम समाधि सोई शिव रूप, पौर और धूप पुद्गल परछांही है॥५॥ शिखरिणी यदेतद् जानात्मा ध्रुवमचलमामाति भवनं । शिवम्यायं हेतुः स्वयपि यंतस्तच्छिव इति ।। प्रतोऽन्यद्वन्धस्य स्वयमपि यतो बन्ध इति तत् । ततो ज्ञानात्मत्वं भवनमनुभूतिहि विहितं ॥६॥ जिम चेतना लक्षण मन्त्र (गुण) स्वरूप वस्नु का निश्चय से स्थिर प्रत्यक्ष रूप से म्वरूपका आम्वादक कहा है वह स्वयं अपने में ही मोक्षरूप है। भावार्थ - जीव का स्वरूप मदा कर्म में मुक्त है जिसके अनुभव मे मोक्ष होना है. मा घटित होना है. इसमें कुछ विरुद्ध तो नहीं है। शुद्ध म्वरूप का अनुभव माक्षमागं है, उमक मिवाय मब अनेक प्रकार की शुभ क्रियाए व अगभ क्रियाए बध का मार्ग है । वे स्वयं ही सब की सब बन्ध रूप है। पूर्वोक्न चतना लक्षण जीव निरचय में प्रत्यक्ष रूप में निज गुण के आचरण का स्वाद लेता हुआ (अनुभव करता हुआ) मोक्षमार्ग है ॥६॥ संबंया-मोल स्वरूप सदा चिन्मति, बंध मई करतात कही है। जावत काल बसे जहं चेतन, तावत सो रस रोति गही है। प्रातमको अनुभी जबलों, तबलों शिवरूप बशा निवही है। पंप भयो करनी जब ठानत, बंध विषा तब फैलि रही है ॥६॥ श्लोक वृत्तं ज्ञानस्वमावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्र व्यस्वभावत्वान्मोलहेतस्तदेव तत् ॥७॥ ज्ञानम्पी शुद्ध चेतन वस्तुमात्र के स्वरूप की पूर्णता (स्वरूपाचरणचारित्र) में ही मोक्षमागं है। इस बान में मंदेह नहीं। भावार्थ---यदि कोई समझे कि स्वरूपाचरणचारित्र उसको कहा है जो आत्मा के शुद्ध स्वरूप का विचार करे अथवा चिन्तन करे अथवा एकाग्र मन से अनुभवन करे- सो ऐसा तो नहीं है। ऐसा करते हुए तो बंध होता है। इसलिए ऐसा तो स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता। तो प्रश्न उठता है कि फिर स्वरूपाचरण चारित्र कैमा है? मेसे पकाने से Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३ पुण्य-पाप एकत्ववार स्वर्ण के भीतर की कालिमा चली जाती है और स्वर्ण शुद्ध हो जाता है वैसे ही जीव द्रव्य में अनादि से जो अशद चेतनारूप रागादि परिणमन थे वे चले जाते हैं और शुद्ध स्वरूपमात्र शुद्ध चेतनारूप जीवद्रव्य परिणमता है। उसका नाम स्वरूपाचरण चारित्र कहा है-ऐमा मोक्षमार्ग है । इसका विशेष विवरण इस प्रकार है-जब तक शुद्ध परिणमन सर्वोत्कृष्ट दशा को प्राप्त नहीं हो जाता तब तक शवपने के अनेक भेद हैं। वे भेद जाति-भेद से नहीं है-बहत शुद्धता, उससे ज्यादा शुढना, फिर उसमे भी अधिक शुद्धता, ऐसा थोड़-बहुत की अपेक्षा में भेद है। भावार्थ --- जितनी शुद्धता हुई उतनी ही मोक्ष का कारण है। जब सर्वथा शद्धता होती है तब मकल कर्मों का क्षय जिसका लक्षण है उस मोक्ष पद की प्राप्ति होती है। त्रिकाल में शट चेतना रूप परिणमन करने वाला जो स्वरूपाचरण चारित्र है वह आत्मद्रव्य का निजस्वरूप है। शुभाशुभ क्रियाओं की भांति उपाधिरूप नही है। इसलिए वह एक जीवद्रव्यस्वरूप है। भावार्थ-यदि गुण व गुणी को अपेक्षा से भेद किया जाए तो ऐसा भेद होता है। परन्तु यदि जीव की शुदगुणमय वस्तु मात्र का अनुभव करें तो ऐसा भेद भी मिट जाय। इस प्रकार शढपने से जीव द्रव्य की तो एक ही सत्ता है। ऐसा शुद्धपना मोक्ष का कारण है । इसके बिना जो कुछ भी क्रियारूप है वह सब बंध का कारण है ।।७।। सोरठा-प्रन्तर दृष्टि लखाव, निज स्वरूपको प्राचरण । ए परमातम भाव, शिव कारण येई सदा ॥७॥ श्लोक वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि। द्रव्यान्तरस्वभावत्वान्मोलहेतुर्न कर्म तत् ॥८॥ जितना भी शुभ क्रिया रूप अथवा अशुभ क्रियारूप आचरण के लक्षण से युक्त चारित्र है वह चारित्र शुद्ध चतन्य वस्तु का शुद्ध स्वरूप परिणमन नहीं है, यह तो निश्चय है।। भावार्थ-जितनी भी गुभ या अशुभ क्रियाएं हैं उनका आवरण चाहे बाहरी वक्तव्य हो या सूक्ष्म अंतरंग में चितवन हो, अभिलापा या स्मरण इत्यादि हो, यह सारा ही आचरण अशुद्धत्वरूप परिणमन है, शुद्ध परिणमन नहीं है, इसलिए वह बंध का कारण है, मोक्ष का कारण नहीं है। जैसे कामला का सिंह कहने मात्र को सिंह है उसी तरह आचरणरूप चरित्र कहने मात्रको Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयमार कलग टीका चारित्र है, परन्न । अमन में) चारित्र नहीं है । इस प्रकार बाहरी या अंतरंग का अथवा सूक्ष्म म्यूलम्प कोई भी आचरण कर्म के भय का कारण नहीं, बन्ध का ही कारण है। विकल्पम्प आचग्ण आन्मद्रव्य मे भिन्न है, पुद्गल द्रव्य का स्वभाव और पुद्गल द्रव्य के उदय का कार्य है, जीव का स्वरूप नहीं है । भावार्थ- जो भी अन्तर्जल्प या वहिजंल्प, मूक्ष्म या स्थल क्रियाएं हैंचाहं वे शुभ हो अथवा अशुभ---विकल्पम्प आचरण होने में सभी कर्म के उदयरूप परिणमन है, जीव के गुट परिणमन नहीं है, बन्ध के ही कारण है ॥८॥ मोरठा--कर्म शुभाशुभ दोय, पुद्गलतिर विभावमल । इनसों मुक्ति न होय, नाही केवल पाइये ॥८॥ श्लोक मोक्षहेतुतिरोधानान्धत्वात्स्वयमेव च । मोमहेतुतिरोधायिभावत्वात्तन्निषिध्यते ॥६॥ कोई कहे कि क्रियारूप जो आचरणरूप चारित्र है वह करने योग्य नहीं है तो वर्जन योग्य भो नहीं है। इसका उनर यही है कि वर्जन योग्य है क्योंकि व्यवहार चारित्र होने से दुष्ट है, अनिष्ट है, घातक है और इसलिए विषय-कषाय को भांति क्रियारूप चारित्र निषिद्ध है । शुभ-अशुभ रूप करतूत त्यजनीय है-निषिद्ध है। मोक्ष अर्थात् निष्कम अवस्था का कारण जीव का शुद्धत्व परिणमन है उसके लिए करतृत (क्रिया) घातक होने से निषिद्ध है। स्वयं ही बंधरूप है। भावार्थ--जितने भी शुभ-अशुभ आचरण है वे समस्त कर्म के उदय से अशुरूप हैं इसलिए त्याज्य है, उपादेय नही हैं ।। मोक्ष अर्थात् सकलकर्मक्षय लक्षण परमात्मपद का सहज लक्षण जीव का शुद्ध चेतनास्प परि. गमन जो गुण है, कर्म उसका घातनशील है इसलिए कर्म (क्रिया) निषिद्ध है। भावार्थ-जैसे पानी का स्वरूप तो निर्मल है परन्तु कीचड़ मिलकर मेला होता है और पानी के शुम्पने का पात हो जाता है, वैसे ही जीव द्रव्य स्वभाव से स्वच्छ स्वरूप है. केवलनान-दर्शन-सुख-वीर्य रूप है। वह स्वच्छ पना विभावरूप अशुधबेतना जिसका लक्षण है उस मिथ्यात्व तथा विषय. कषायल्प परिणाम से मिट गया है । अव परिणाम का स्वभाव ऐसा ही है कि वह शुपने को मिटा देता है, इसीलिए कर्म (त्रिया) निषिट है। मानों Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एकत्वद्वार ક્ कोई जोव क्रियारूप यतिपना अपनाने और उस यतिष में हो मग्न होकर कहे कि हमने मोक्षमागं पा लिया, क्योंकि जो करना था वह तो कर लिया। ऐसे जीव को समझाते हैं कि यनिपने का भरोसा छोड़ पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप का अनुभव करो ॥ ६ ॥ सर्वया - कोउ शिष्य कहे स्वामी प्रशुभ क्रिया अशुद्ध, शुभ क्रिया शुद्ध तुम ऐमी क्यों न बरनी । गुरु कहे जबलों क्रिया के परिणाम रहे, तबलों चपल उपयोग जोग धरनी ॥ घिरता न प्रावे तौलों शुद्ध प्रनुभौ न होप, पाते दो किया मोक्ष पंथ की कतरनी । बंध को करंया दोउ, बुहू में न भली कोउ, बाधक विचार में निषिद्ध कोनो करनी ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित संन्यस्तव्यमिदं समस्तमपि तत्कमँव मोक्षार्थिना संन्यस्ते सति तत्र का किल कथा पुष्यस्य पापस्य वा । सम्यक्त्वादिनिजस्वभावभवनान्मोक्षस्य हेतुर्भवनंष्कर्मप्रतिबद्धमुद्धतरसं ज्ञानं स्वयं धावति ॥ १० ॥ जो जीव सकन्न कर्म-क्षय के लक्षण से युक्त पद को (अनन्तसुख में) उपादेय अनुभव करता है, उसके लिए, पहले वर्णित जितने भी शुभ क्रियारूप, अथवा अशुभ क्रियारूप, अन्तर्जला रूप अथवा बहिजंल्प रूप क्रियाएं हैं अथवा ज्ञानावरणादि पुद्गल के पिंड अशुद्ध ' रागादि रूप जीव के परिणाम हैं, वे सब जीव-स्वरूप के घातक होने मे आमूल-चूल त्याज्य हैं। जब ममस्त ही कम का त्याग है तो फिर पुण्य का या पाप का क्या भेद रहा ? भावार्थ - जब समस्त कर्म जाति हो हेय है तब पुण्य-पाप के विचार को क्या बात रही ? यह बात निश्चय में जान लो और पुण्य कर्म भला है, ऐसी भ्रांति में मत पड़ी। सकल कर्मक्षय लक्षण युक्त अवस्था का कारण जो शुद्ध चेतनारूप परिणमन, वह ही मोक्ष का कारण है, उसमें समस्त कर्म जाति का स्वयं ही महज हो त्याग हो जाता है। भावार्थ-जैसे सूर्य का प्रकाश होने पर अन्धकार सहज हो मिटना है, वैसे ही जीव के शुद 'चेतनरूप परिणमन से, समम्न विकल्प मिट जाने हैं, ज्ञानावरणादि कर्म-अकर्म रूप Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका परिणमन कर जाते हैं नया रागादि अशुद्ध परिणाम मिट जाते हैं । शान निविकल्प म्बम्प है, प्रगट ही चैतन्य स्वरूप है। इसीलिए मोक्ष का कारण है और जीव मम्यकदर्शन, मम्यज्ञान व सम्यक्चारित्र जो जीव के निज. स्वभाव नथा क्षायिक गुण हैं उनका प्रकट रूप ही भवन अर्थात् धारण करने वाला है । भावार्थ- यदि कोई यह शंका उठाए कि मोल मार्ग तो सम्यक. दगंन-जान-चारित्र तीनों के मिलने मे है तो फिर यहां ज्ञान मात्र को मोक्षमाग कमे कहा? उमका समाधान यह है कि शुद्ध स्वरूप ज्ञान में मम्यकदगंन और सम्यकरित्र भी सहज ही शामिल है। इसलिए इस कथन में कोई दोष नहीं बल्कि गुण है ॥१०॥ संबंया-मति के साधक को बाधक करम सब, प्रात्मा प्रनादि को करम माहि लक्ष्यो है। एते परि कहे जो कि पाप रो पुण्य भलो, सोई महामूढ़ मोम मारगसों क्यो है ॥ सम्यक स्वभाव लिए हिये में प्रगटोमान, ऊरष उमंगि चल्यो काहं न रुक्यो है। प्रारमो मो उज्वल बनारसी कहत प्राप, कारण स्वरूप के कारिज को दूक्यो है ॥१०॥ शार्दूलविक्रीडित यावत्पाकमुपैति कर्मविरतिनिस्य सम्यानमा कर्मज्ञानममुन्थ्योऽपि विहितस्तावन्न काचिमतिः । किन्त्यत्रापि समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धाय तन्मोलाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञानं विमुक्तं स्वतः ॥११॥ कोई माने कि मिथ्यादृष्टि का यतिपना तो क्रिया रूप है इसलिए बंध का कारण है परन्तु सम्यकदृष्टि जीव का यतिपना तो शुभक्रियारूप और मोक्ष का कारण है, जिसमे अनुभवज्ञान तथा दया, व्रत, तप संयमरूप क्रियाएं दोनों मिलकर शानावरणादि कर्म का क्षय करते है तो यह भ्रान्ति है और ऐसी प्रतीति कोई अज्ञानी जीव करते हैं। इसका समाधान इस प्रकार हैजितनी भी शुभ-अशुभ किया, बहिर्जल्प रूप विकल्प अथवा अन्तर्जल्प रूप विकल्प, या द्रव्य का विचाररूप अथवा शुद्ध स्वरूप का विचार इत्यादि समस्त विकल्प कर्म बन के कारण है। शिया का ऐसा ही समाव। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एक बार सम्यकदृष्टि और मिथ्यादष्टि में गमा भेद ना कोई नहीं है। कसी भी करतति करो, ऐसा ही बन्ध है । शद्ध स्वरूप परिणमन मात्र मे ही मोक्ष है। यपि एक ही काल में मम्यकदष्टि जीव के शुद्ध ज्ञान भी है और क्रियारूप परिणाम भी हैं परंतु विक्रिया ( विभाव) कप जो परिणाम है उनसे तो एकमात्र बन्ध हो होता है, कर्म का क्षय एक अग भी नही होता--ऐसा हो वस्तु का स्वरूप है। दूसरी तरफ जिमको जिम काल में शुद्ध स्वरूप का अनुभव शान हो रहा है उस काल में ज्ञान में कर्म का भय ही होता है एक अंश मात्र भी बन्ध नहीं होता। वस्तु का मा हो स्वरूप है । कभी कर्मरूप परिणाम और आत्मदव्य के द्धन्वका परिणमन का एक हो जीव में एक ही काल में अस्तित्व हो ऐसा भी है...इममें कोई हानि (दोष) नहीं है। भावार्थ-कोई कहे कि एक ही जीव में. एक हो काल में, शान और त्रिया दोनो कैसे होते है तो उसका समाधान है कि यह कोई विरोधी बात नहीं है। कभी एक ही समय में दोनों होते है ऐमा ही वस्तु का परिणाम है। यद्यपि यह विरोधी-सा दोखना है, परन्तु दोनों का अपना-अपना सका है, विरुद्ध नहीं है। पूर्वोक्त कथन के अनुमार जितने काल तक आत्मा का मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिटता है उसका आत्मद्रव्य (उस काल में) शद्ध होता है, परन्तु अभी कर्म का मूल मे त्याग या विनाश नहीं हआ है। भावार्थ- जब तक शभ-अशुभ परिणमन है तब तक जीव का विभाव परिणमन रूप है। उम विभाव परिणमन का अंतरंग निमित्त है ओर बहिरंग निमित्त भी है। जीव की जो विभावरूप परिणमन करने की शक्ति है वह तो अंतरंग निमिन है और पुदगलपिण्ड के उदय में उपजा मोहनीय कम्मं रूप परिणमन उसका बहिरंग निमित है। मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का हैएक मिथ्यान्वरूप है, दूसरा चारित्रमोह रूप । जीव का विभाव परिणाम भी दो प्रकार का है। जीव का एक सम्यक्त्व गुण है, वही विभावस्प होकर मिथ्यात्वरूप परिणमन करता है। तो उसका अंतरंग निमित मिथ्यात्वरूप परिणाम है । जीव में एक चारित्र गुण है जो पदगल पिण्ड (कर्म) के उदय से विभावरूप परिणमन करता हुआ विषय-कपाय लक्षण में युक्त चारित्र मोहरूप परिणमना है। उसका बहिरंग निमित्त है---चारित्र मोहरूप परिणमन किया हुआ पुद्गलपिंड का उदय । उपशम का क्रम सा है कि पहले मिथ्यात्व कम्मं का उपशम होता है अथवा क्षय होता है। उसके बाद चारित्रमोहकम का उपशम होता है अथवा क्षय होता है। किसी आसन्न भव्य जीव के काल. लब्धि पाकर मिथ्यात्वरूप पुद्गल-पिडकर्म का उपगम होता है अथवा अय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ समयसार कलश टीका होता है। गेमा होने पर जीव सम्यक्त्व गुणरूप परिणमन करता है-वह परिणमन गुदनारूप है। जब तक वह जीव क्षपकश्रेणी न चढ़े तब तक उमको चारित्र मोह कर्म का उदय है। ऐसे उदय में जीव फिर विषय-कषायरूप परिणमन करता है-वह परिणमन रागरूप है, अशुद्धरूप है । इस प्रकार किमी काल में किसी जीव के शपना और अशद्धपना दोनों एक ही समय में घटित होता है. इसमें कोई विरोध नहीं है । इसमें जो विशेष बात है कि यपि जीव को एक ही काल में शुद्धपना तथा अशुद्धपना दोनों होते हैं नथापि वे अपना-अपना कार्य करते है। सम्यकदृष्टि पुरुष समस्त द्रव्यकर्मरूप भावकमका अंतजंल्प, बहिल्परूप, सूक्ष्म-स्थलरूप क्रिया से विरक्त है परन्तु चारित्रमोह के उदय मे बलात् उसे क्रिया करनी पड़ती है। जितनी भी क्रिया है उतनी ही जानावरणादि कर्मबन्ध करती है, संवर-निर्जरा अंश मात्र भी नहीं करती है। पूर्वोक्त कथन के अनुसार एक जान ही अर्थात् एक गद्ध चतन्य प्रकाश ही ज्ञानावरणादि कर्म को क्षय करने का निमित्त है। भावार्थ----एक जीव में गद्धपना ओर अगदपना दोनों एक ही काल में होते हैं। परन्तु जितने अंश में गढपना है उतने अंग में कर्मों का क्षय है और जितने अंग में अशुद्धपना है उतनं अंग में कमंबंध होता है। एक ही समय में दोनों कार्य होते है। यह ऐसा ही है, इसमें मन्देह करना नहीं । शुद्ध ज्ञान सर्वोत्कृष्ट है, पूज्य है और त्रिकाल में समस्त परद्रव्य से भिन्न है ।।१।। संबंया---जोलों प्रष्ट कर्म को विनाश नाहि सर्वथा, तोलों अन्तरातमा में धारा दोई परनी। एक मानधारा एक शुभाशुभ कर्मधारा, दुहूं को प्रकृति न्यारी-न्यारी धरनो इतनो विशेष करमपारा बधल्प, पराधीन सकति विविष बंध करनी। मानपारा मोलरूप मोल को करनहार, दोष को हरनहार भी समुद्र तरनी ॥११॥ शार्दूलविक्रीडित मग्नाः कर्मनयावलम्बनपरामानं न जानन्ति ये मग्ना माननयंषिणोऽपि यतिस्वन्धनमन्दोचमः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्य-पाप एकत्व द्वार विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमावस्य च ॥१२॥ अनेक प्रकार की क्रिया को मोक्ष का अवलम्बन (मार्ग) जानकर जो अज्ञानी जीव उनके (उन क्रियाओं के) पालन में तत्पर है वे भी मझधार में वंगे क्योंकि देशदचतन्यवस्तु का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करने में समर्थ नहीं हैं। क्रिया ही मोक्षमार्ग है वे ऐसा जान कर किया करने में तत्पर हैं। भावार्थ-वे संसार में रुलते हैं, मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं । जो जीव शुद्ध चैतन्य प्रकाश के (मात्र) पक्षपाती हैं ऐसे भी जीव संसार में डूबे ही हैं। भावार्य-शुद्ध स्वरूप का उसको अनुभव तो है नहीं परन्तु उसने उसका मात्र पक्षपात पकड़ रक्खा है। ऐसा भी जीव संसार में इबा ही है। क्योंकि वह अत्यन्त स्वेच्छाचारी है। वह चैतन्य स्वरूप का विचार मात्र भी नहीं करता है। ऐसा जो कोई हो, उसको मिथ्यादृष्टि जानना। यहां कोई आशंका करे कि शट स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है ऐसी जिसको प्रतीति है वह मिथ्यादृष्टि कमे हुआ? समाधान-वस्तु का स्वरूप ऐसा है कि जितने काल तक शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उतने काल तक जितनी भी अशुद्धतारूप भाव-द्रव्यरूप क्रियाएं हैं वे सब सहज ही मिट जाती हैं। परन्तु मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा मानता है कि सब क्रियाओं के ज्यों की त्यों ही रहते हुए भी शुद्ध स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग बन जाता है । सो वस्तु का स्वरूप ऐसा तो नहीं है। इसलिए जो वचनमात्र से यह कहता है कि शुट स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है वह जीव मिथ्यादृष्टि है। ऐसा कहने से तो कोई कार्य की सिद्धि नहीं है। यदि कोई जीव सम्यक्ष्टि है तो ऊपर कहे दोनों प्रकार के जीवों से ऊपर उठ कर सकल कमों का क्षय करके मोक्षपद को प्राप्त होता है। जो कोई निकट संसारी सम्यकदृष्टि जीव निरंतर शुद्ध ज्ञानरूप परिणमन कर रहा है बह (अनेक प्रकार की क्रियाएं करते हुए भी) अनेक प्रकार की क्रियाओं को मोक्षमार्ग मान कर नहीं करता है। भावार्य-कर्म के उदय से शरीर कंसा ही है परन्तु उसको हेय स्प जानता है। तथा अनेक प्रकार की क्रियाएं भी जैसी है परन्तु उनको हेय रूप मानता है ॥ क्रिया तो कुछ नहीं ऐसा जान कर वह विषयी या असंयमी कदाचित् भी नहीं होता। क्योंकि असंयम का कारण जो तीव्र संक्लेश परिणाम है यह संदेश तो मून ही से चला गया है। ऐसा जो सम्पष्टि Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टीका जीव है वह जीव तत्काल मात्र माक्ष पद को पाता है ॥१२॥ मया- ममझे न मान, कहे करम किए सों मोक्ष, ऐसे जीव विकल मियान की गहल में। मान पभ गहें कहें प्रातमा प्रबन्ध मदा, बरते मुछन्न तेउ ये है चहल में। जथा योग्य करम करें पं ममता न पर, रहें मावधान जान ध्यान की टहल में। तेई भव सागर के ऊपर हं तरें जीव, जिन्हें को निवाम स्यादवाद के महल में ॥१२॥ मन्दाक्रांता भेदोन्मादं भ्रम-रसमरानाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन । हेलोन्मो परमकलया साईमारब्धकेलि मानज्योतिः कलिततमः प्रोजजम्मे भरेण ॥१३॥ निश्चय ही जिसका परिणमन अतीन्द्रिय सुख के प्रवाह से हुआ है और जिसने मिथ्यात्व अंधकार को दूर किया है ऐसा शुद्ध स्वरूप प्रकाश अपनी सम्पूर्ण सामयं से तथा अपने सहज स्वरूप मे (उपरोक्त सम्यक्दृष्टि जीव के) प्रगट होता है। जैसा कहाहे-अनेक प्रकार भावरूप या द्रव्यरूप किया, चाहे पापरूप हों अथवा पुण्यरूप (उसके) बरजोरी से होती हैं और (वह जानता है कि) ये जितनी भी क्रियाएं हैं कोई मोक्षमार्ग नहीं है अतः उन क्रियाओं में ममत्व का त्याग करता है। इस तरह शदज्ञान ही मोक्षमार्ग है यह सिदान्त सिद्ध हुआ। जमे कोई धतूरा पीकर मतवाला हो जाता है उसी प्रकार (मिप्यादृष्टि जोव) शुभ त्रिया मोक्षमार्ग है ऐसे पक्षपात में मतवाला हुआ विपरीत मान्यता को धारण कर पुण्य कर्म को भला मानता है । इस धोखे के नशे के ज्यादा चढ़ जाने से नावना है। भावार्थ-जैसे कोई धतूरा पीकर वेमुध होकर नाचता है वैसे ही मिप्यात्व कर्म के उदय से शुद्ध स्वरूप के अनुभव को सुध नहीं रहती। शुभ पार्म के उपप से जोर बारिक पदवी मिलती है उन्हीं से मुब मान सा है Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ पुष्प-पाप एकलार कि मैं देवता हूं, मेरे ऐसी विभूति है, कैसा मेरे पुण्य का उदय है, ऐसा मान कर बारम्बार रंजायमान हो रहा है ॥१३॥ संबंया-जैसे मतवारो कोउ हे प्रौर करे पोर, तैसे मूह प्राणी विपरीतता परत है। प्रशुभ करम बंध कारण बताने माने, मुकति के हेतु शुभ रोति प्राचरत है । अन्तर मुष्टि भई मूढ़ता बिसर गई, मान को उद्योत भ्रम तिमिर हरत है। करणी सों भिन्न रहे प्रातम स्वरूप गहे, अनुभी प्रारंभि रस कौतुक करत है ॥१३॥ ॥ इति चतुर्थोध्याय ॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम अध्याय प्रास्त्रव-प्रधिकार द्रुतविलंबित प्रथमहामनिर्भरमन्यरं समररङ्गापरागतमात्र । प्रयमुबारगमीरमहोदयो, जयति दुर्जयवोषधनुर्वरः ॥१॥ यहां में | आगे] यह कथन करेंगे कि गद्ध स्वरूप अनुभव रूपी योदा, रागादि परिणाम लक्षण वाले आरव को मिटाना है। भावार्थ-यही में लेकर आरव का स्वरूप कहेंगे । एक ओर में शाश्वन अनन्त शक्तिमे युक्न [निज] स्वरूप, और दूसरी ओर से आम्रव (जिसके आधीन होने में ममम्न मसारो जीवराशि गवं-अभिमान में मग्न होकर मतवाली है। संग्राम भूमि में सन्मुख आए हैं। भावार्थ-जैसे प्रकाश और अन्धकार परम्पर विरुद्ध हैं वैसे ही शुद्ध ज्ञान और आम्रव विरुद्ध है ॥१॥ संबंया-जेते जगवासी जीव पावर जंगम रूप, तेते निज बस करि राखे बल तोरि के। महाअभिमानी ऐसोमानवअगाध जोपा, रोपि रमपम्भ ठाडो भयो चमोरि के॥ प्रायो तिहि पामक प्रचानक परम पाम, मान नाम सुभट सवायो बल फोरिके। माधव पछारो रगषम्भ तोपिरपोताहि, निरखि बनारसी नमत कर जोरि के ॥१॥ शालिनी भावो रागषमोहेविना यो, बीवस्य स्थान माननित एव । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्रव-अधिकार रुन्धन सर्वान् ब्यकर्मानवौधान एपोमावः सर्वमावालवाणान् ॥१॥ जिस जीव के काललब्धि पाकर सम्यक्त्व गुण प्रकट हुआ और जिसके सुख मान चेतना मात्र का कारण पाकर शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप परिणाम हुए वह जीब, असंख्यात लोक मात्र जितने भी अशुद्ध चेतनारूप राग-रेषमोह आदि जीव के विभाव परिणाम हैं उनका, तथा उनके निमित्त से उपजे सब मानवरणादि पुद्गल कमों का, मूलोन्मूल विनाश कर देता है। भावार्य-जिस काल शुद्ध चैतन्य वस्तु की प्राप्ति होती है उस काल मिथ्यात्व-गग-देष रूप जीव के विभाव परिणाम मिटते है। यह एक ही समय में होता है। इसमें समय का अन्तर नहीं है। शुरभाव शुढचेतनमात्र भाव है और रागादि परिणाम से रहित है। द्रव्यकर्म अर्थात् मानवरणादि कर्म पर्यायरूप पुद्गल पिण का समूह धाराप्रवाहरूप से परिणमित होकर समयममय आत्मा के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह हो रहा है। भावार्ष-जो कर्मवर्गणा ज्ञानावरणादिरूप परिणमन करता है उसके असंख्यात लोक मात्र मेव हैं । सम्यक्त्व गुण प्रकट होकर समस्त कर्म-जो धारा प्रवाह रूप आ रहे हैंउनको रोक देता है। भावार्थ- अगर कोई ऐसा माने कि जीव के शुद्ध भाव होने से रागादि अशुट परिणाम मिटते हैं परन्तु आस्रव से होता था वैसे ही होता है- सो ऐसा तो नहीं है । जैसे कहा है वैसा है। जीव के शुद्धभावरूप परिणमन से अवश्य ही अशुद्ध भाव मिटने हैं, अशुट भाव के मिटने से अवश्य ही द्रव्यकर्मरूप आस्रव मिटते हैं- इसलिए शुढभाव उपादेय है, अन्य समस्त विकल्प हेय हैं ॥२॥ संबंया-क्ति पायव सो कहिए जहि, पुदगल बीच प्रवेश गरासं। भावित मानब सो कहिए बहि, राग विमोह विरोष विकासे ॥ सम्यक परति सो कहिए बहि, रक्षित भावित प्राभव मासे। मामकला प्रगटे लिहिं पानक, अन्तर बाहिर और , भाले ॥२॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका उपजाति भावानवामावमयं प्रपन्नो, ग्यानबेम: स्वत एव भिन्नः । मानी सदा ज्ञानमयंकमावो, निरासबो कायक एक एव ॥३॥ द्रव्याप ऐसा है कि जो मानी जीव अर्थात् सम्यष्टि जीव गगादि अणुद परिणाम मे रहिन है, शुटत्वरूप जिसका परिणमन है, जो म्वद्रव्यम्वरूप और परद्रव्यस्वरूप समस्त शेय वस्तुओं को जानने में समर्थ है, जो सर्व काल अर्थान् हर समय धाराप्रवाहरूप चेतनरूप एक भाव में परिणमन कर रहा है, वह सम्यकप्ट जीव आश्रव से रहित है। अब सम्यकदृष्टि जोव निराश्रव कैसे सिद्ध होता है, यह कहेंगे । [वह सम्यदृष्टि जीव] मिथ्यात्व राग-देषरूप अशुद्ध चेतना परिणामों के विनाश को प्राप्त हा है। भावार्थ-अनन्त काल से लेकर जीव मिथ्यादृष्टि होता हुबा मिथ्यात्व-राग-परूप परिणमन कर रहा था उसी का नाम आस्रव है। वह तो काललम्धि पाकर वह जीव सम्यक्त्व पर्यायरूप परिणमा, शुद्धतास्प परिणमा, उसके अशुद परिणाम मिटे, और इस प्रकार भावास्रव से रहित हुमा । जो मानापरणादि कर्म पर्यायरूप से जीव के प्रदेशों में बैठे हैं, उन पुद्गल पिंडों से यह जीव स्वभाव ही से भिन्न है और सब काल में निराला ही है। भावार्थ-आस्रव दो प्रकार का है-एक द्रव्यास्रव और एक भावानव। मात्मा के प्रदेशों में जो पुदगलपिट कर्मरूप बैठे हैं उनको द्रव्यास्रव कहते हैं। यह जीव स्वभाव ही से इन द्रव्याखवों से रहित है। इससे यद्यपि जीव के प्रदेश और पुद्गलपिर के प्रदेश एक ही क्षेत्र में रहते हैं तथापि वे दोनों वस्तुतः-स्व-सत्ता और गुण-स्वभाव में रहने से एक द्रव्यरूप नहीं होते हैं। अपने-अपने द्रव्य गुण पर्यायरूप ही रहते हैं । पुद्गल पिगे से जीव मित्र है। भावात्रव अर्थात् मोह-राग-देष रूप विभाव-अशुद्ध चेतन परिणाम यद्यपि जीव की मिथ्यादृष्टि अवस्था में ऐसे ही होते हैं तबापि सम्यक्त्व रूप परिणमन से अशुद्ध परिणाम मिट जाते हैं। इसलिए सम्यकदष्टि जीव भावासब से रहित है। इससे ऐसा अर्थ निकला कि सम्यकदृष्टि जीव निरालय है॥३॥ चौपाई-बोम्यानमम होई। वहं भावाला भाव न कोई॥ चाकोपमा मानव महिए।तोमातार निराब करिए ॥३॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maa-अधिकार शार्दूलविक्रीडित सन्यस्यन्निजबुद्धिपूर्वमनिशं रागं समग्रं स्वयम् वारंवारमबुद्धिपूर्वमपि तं जेतुं स्वर्शाक्त स्पृशन् उच्छिन्दन् परवृत्तिमेव सकलां ज्ञानस्य पूर्णो भवन्नात्मा नित्यनिरालवो भवति हि ज्ञानी यदा स्यातवा ॥४॥ ६५ जब किसी जीव का अनंतकाल से हो रहा विभाव ( मिथ्यात्व भाव ) रूप परिणमन निकट सामग्री पाकर छूट जाए तब वह स्वभाव ( सम्यक्त्व) रूप परिणमता है। ऐसा सम्यक्दृष्टि जीव समस्त आगामी काल में सर्वथा, सर्वकाल अस्त्रव से रहित होता है। भावार्थ-यदि कोई संदेह करे कि सम्यकदृष्टि जीव आस्रव सहित है या आत्रव से रहित है ? उसका यह समाधान है कि आस्रव से रहित है। वह ऐसे कि अपने मन के आलम्बन से जितने भी असंख्यात लोकमात्र भेदरूप मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणाम हैं अथवा परद्रव्य से रंजित परिणाम हैं, उन सबको सम्यक्त्व की उत्पत्ति से लेकर आगामी सब काल में सहज ही छोड़ता है। भावार्थ- नाना प्रकार के कर्मों के उदय से नाना प्रकार की संसार शरीर भोग सामग्री होती है । सम्यकदृष्टि जीव ऐसी समस्त सामग्री को भोगते हुए भी मैं देव हूं, मैं मनुष्य हूं, मैं दुःखी हूं, मैं मुखी हूं, इत्यादि रूप से आनन्दित नहीं होता । जानता है कि मैं चतनमात्र शुद्ध स्वरूप हूं। यह सब कर्म की रचना है। ऐसे अनुभव से मन का व्यापार रूप राग मिट जाता है ॥ मन के आलम्बन के बिना भी मोह कर्म के उदय का निमित्त कारण पाकर जीव के प्रदेश, जो अशुद्धतारूप परिणमन कर रहे हैं, सम्यकदृष्टि जीव, उनको भी जीतने के निमित्त अखण्डित धारा प्रवाहरूप शुद्ध चैतन्य वस्तु को स्वानुभव प्रत्यक्षपने से आस्वादना है । भावार्थ - मिथ्यात्व-राग-द्वेष रूप जो जीव के अशुद्ध चेतनारूप विभाव परिणाम हैं वे दो प्रकार के हैं- एक परिणाम बुद्धिपूर्वक हैं और एक परिणाम अबुद्धिपूर्वक हैं। विवरण बुद्धिपूर्वक परिणाम उनको कहते हैं जो मन के द्वार से प्रवर्तन करते हैं, बाहरी विषयों के आधार से प्रवर्तन करते हैं और प्रवर्तन होते हुए जीव स्वयं भी जानता कि हमारे परिणाम इस रूप हैं। तथा अन्य जीव भी अनुमान से जानते कि उस जीव के ऐसे परिणाम हैं। ऐसे परिणामों को बुद्धिपूर्वक परिणाम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E समयसार कलश टीका कहते हैं। ऐसे परिणाम जीव की जानकारी में हैं और उनको सम्यकदृष्टि जोव मिटा सकता है। क्योंकि शुद्ध स्वरूप का अनुभव होने से उसमें ऐसा करने की सामर्थ्य है। अबुद्धिपूर्वक परिणाम उनको कहते हैं जो पांच इन्द्रियों तथा मन के व्यापार बिना ही, मोह कर्म के उदय का निमित्त पाकर, मोहराग-द्वेष रूप अशुद्ध विभाव परिणाम रूप स्वयं ही जीवद्रव्य के असंख्यात प्रदेशों में परिणमते हैं। ऐसा परिणमन जीव की जानकारी में नहीं और जीव की सामथ्यं में भी नहीं इसलिए जैसे-तैसे मिटाया नहीं जा सकता । तब ऐसे परिणाम मेटने के लिए निरंतर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने से वे सहज ही मिट जाते हैं। और तो कोई उपाय हो नहीं है, मात्र एक शुद्ध स्वरूप का अनुभव ही उपाय है। और क्या करने से निरास्रव होता है ? शुभरूप अथवा अशुभरूप जितनी भी शेय पदार्थों में रंजायमान होने की परिणाम क्रियाएं हैं उनको मूल से उखाड़ता हुआ सम्यकदृष्टि (जीव) निरास्रव होता है । भावार्थ - शेय और ज्ञायक का संबंध दो प्रकार का है। एक तो जानना मात्र है और रागद्वेषरूप नहीं है-जैसे केवन्नी सकल जय वस्तुओं को देखने और जानते हैं परन्तु किसी वस्तु में राग-द्वेष नहीं करते हैं। उसका नाम शुद्ध ज्ञान चेतना कहा । सम्यदृष्टि जोन के शुद्ध ज्ञान चेतनारूप जानपना है इसलिए मोक्ष का कारण है, बन्धका कारण नहीं है। दूसरा जानना ऐसा है कि कितनी ही विषय वस्तुओं को जान रहा है ओर माह् कर्म के उदय का निमित्त पाकर इष्ट वस्तुओं में राग कर रहा है, उनके भोग की अभिलाषा कर रहा है, तथा अनिष्ट वस्तुओं में द्वेष करता है, अरुचि करता है, सो ऐसा जो रागद्वेष से मिला हुआ ज्ञान है उसका नाम अशुद्धचंतना लक्षणावाली कर्म चेतना अथवा कर्मफल चतनारूप कहा है और इसीलिए वह बन्ध का कारण है। ऐसा परिणमन सम्यकदृष्टि का नहीं है। क्योंकि मिथ्यात्वरूप परिणाम के चले जाने पर ऐसा परिणमन नहीं होता है । ऐसे अशुद्ध ज्ञान चेतनारूप परिणाम मिध्यादृष्टि के होते हैं ॥ और कैसे निरालब होता है ? पूर्णज्ञानरूप होता हुआ निरास्रव होता है। भावार्थ-राग-द्वेष से मिला हुआ ज्ञान खंडित ज्ञान है। रागद्वेष के चले जाने पर ज्ञान का पूर्ण होना कहा है। ऐसा होता हुआ सम्यक्दृष्टि जीव निरास्रव होता है ||४|| सर्वया - जेते मन गोचर प्रगट बुद्धि पूरबक, तिन परिणामन की ममता हरतु हैं । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आसव-अधिकार मनसों प्रगोबर प्रबुद्धि पूरवक भाव, तिनके बिनास को उद्यम परतु हैं ॥ याही भांति पर-पररगति को पतन करें, मोक्ष को जतन करें भोजल तरतु हैं । ऐसे ज्ञानवंत ते निरास्रव कहावे सदा, जिन्हें को सुजस सुविचक्षरण करत हैं ॥४॥ धनुष्टुप् सर्वस्यामेवजीवन्त्यां द्रव्यप्रत्ययसन्ततौ । कुतो निरालवो ज्ञानो नित्यमेवेति चेम्मतिः ॥५॥ कोई आशंका करता है कि सम्यकदृष्टि जीव को सर्वथा निरालव कहा और है भी यही । परन्तु ज्ञानावरणादि द्रव्यपिण्ड जैसे थे वैसे के वैसे ही हैं; तथा उन कर्मों के उदय से जो भांग सामग्री प्राप्त थी वह भी सब वैसी की वैसी ही है; तथा उन कर्मों के उदय में नाना प्रकार के सुख-दुःख भी भोगता है : इन्द्रियों और शरीर सन्बन्धी सामग्री जैसी थी वैसी हो है और सम्यकदृष्टि जीव उम सामग्री को भोग रहा है । इतना सब रहने पर भी निरालवपना कैमे घटित होता है ? यह प्रश्न उठाया गया है। जीव के प्रदेशों में ही पुद्गल पिण्डरूप अनेक प्रकार के मोहनीय कर्म परिणमते हैं और बहुत काल तक जीव के प्रदेशों में स्थित रहते हैं। आत्मा जो भी थी जैसी भी थी, वैसी ही है। फिर भी निश्चयपूर्वक कहा है कि सम्यक दृष्टि जीव सर्वधा, सर्व काल आलव से रहित है - ऐसा किस विचार मे कहा ? उत्तर में आचार्य कहते हैं कि हे शिष्य ! यदि तेरे मन में ऐसी शंका उपजी है तो उसका उत्तर सुन कहते हैं ||५|| सर्वया क्यों जग में विचरे मतिमंद, स्वछन्द सवा बरतं बुध तंसे । चंचल चित प्रसंजम बैन, शरीर सनेह यथावत जैसे || भोग-संयोग परिग्रह-संग्रह, मोह विलास करे जहां ऐसे । पूछत शिष्य प्रचारज को यह, सम्यक्वन्त निराखव कंसे ||५|| मालिनी ७ विवहति न हि सत्तां प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः, समयमनुसरन्तो यद्यपि द्रव्यरूपाः । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासा दवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबन्धः ॥ ६ ॥ सम्यकदृष्टि जीव के किसी भी नय से, ज्ञानावरणादि पुद्गलपिण्ड का नूनन आगमन, कर्मरूप परिणमन नहीं होता अथवा जो कभी सूक्ष्म, अबुद्धिपूर्व रागद्वेष परिणाम मे बन्ध होता भी है तो वह बहुत ही अल्पबन्ध होता है। तो भी वह इतना अल्प होता है कि उसे सम्यक्दृष्टि जीव के बंध होता है ऐसा कोई त्रिकाल में भी नहीं कह सकता। जितने भी शुभरूप अथवा अशुभरूप प्रीतिरूप परिणाम, दुष्टरूप परिणाम, अथवा पुद्गलद्रव्य की विचित्रताओं (नाना प्रकार के रूपों व अवस्थाओं) में आत्मबुद्धि का जो विपरीत परिणाम है उनसे जो रहितपना है उसके कारण सम्यकदृष्टि जीव के बन्ध घटित नहीं होता। सारी सामग्री होते हुए भी सम्यकदृष्टि जीव कर्म का कर्ता नहीं है । सारी सामग्री इसलिए है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति से पहले जीव मिथ्यादृष्टि था उससे जो मिथ्यात्वरूप तथा चारित्रमोहरूप पुद्गलकर्मपिण्ड, रागद्वेष आदि मिथ्या परिणामों के कारण बंधा था वह मत्ता -स्थिति-बंधरूप जीव के प्रदेशों में वैसा ही पड़ा है, उसने अपना अस्तित्व नही छोड़ा और उदय में भी आता है। समय-समय पर अखंडित धारा प्रवाह रूप वह पूर्व का बंधा कर्म उदय में आकर नाना सामग्री प्रस्तुत करता रहता है तो भी सम्यक दृष्टि जीव कर्मबन्ध का कर्त्ता नहीं है। દ भावार्थ - यद्यपि अनादिकाल के मिथ्यादृष्टि जीव ने काललब्धि पाकर सम्यक्त्व गुणरूप परिणमन किया परन्तु चारित्रमोहकर्म की सत्ता तो अभी वैसी ही है और उदय भी वैसा ही है। उसके पंचेन्द्रियों के विषयों के संस्कार भी मे ही है और उनको भोगता भी है। ज्ञानगुणयुक्त होने से भोगते हुए उनका वेदन भी करता है तो भी, जैसे मिथ्यादृष्टि जीव आत्मस्वरूप को नही जानता है और कर्म के उदय को ही अपना जानता है तथा इष्ट या अनिष्ट सामग्री को भोगना हुआ उनमें राग-द्वेष करता है, वैसा सम्यक दृष्टि जीव नही है । सम्यकदृष्टि जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है | शरीरादि समस्त सामग्री को कर्म का उदय जानता है। उदय में आया तो उसको भोगता व बरतता है परन्तु अंतरंग में परमउदासीन है । इसलिए सम्यक्दृष्टि जीव के कर्मबन्ध नहीं है। ऐसी अवस्था सम्यकदृष्टि जीव की सर्वकाल नही रहतो । तब तक ही रहती है जब तक वह सकल कर्मों का क्षय करके निर्वाण पदवी को नहीं पा लेता । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ मानव अधिकार जब निर्वाण पदवी को पा लेता है उस समय का क्या कहना-तब तो वह साक्षात् परमात्मा है ॥६॥ संबंया-पूरब अवस्था बेकरमबन्ध कोने प्रब, तेई उदय प्राह नाना भांति रस देत हैं। केई शुभ साता केई प्रशुभ प्रसातारूप, ई में न रागन विरोष समवेत हैं। पवायोग्य क्रिया करें फल की नइच्छा परें, जीवन • मुकति को विरद गहि लेत हैं। यातें जानवन्त को न मालव कहत कोउ, मुखता सों न्यारे भये शुद्धता समेत हैं॥६॥ अनुष्ट्रप रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः । तत एव न बन्धोऽस्य ते हि बन्धस्य कारणं ॥७॥ ऐसा कहना कि- सम्यग्दृष्टि जीव के बन्ध होता है ऐसी प्रतीति क्यों होती है, इसका और विवरण देते हैं । सम्यग्दृष्टि जीव में राग अर्थात् रंजायमान होने का परिणाम, देष अर्थात् उद्धंग अथवा मोह अर्थात् विपरीतपना ऐसे जो अशुद्ध भाव हैं वे विद्यमान नहीं हैं। भावार्थ-सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय से रंजायमान नहीं होता, इसलिए उसके रागादिक नही हैं। इसी कारण मे सम्यग्दष्टि जीव के ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का बन्ध नहीं है निश्चय में ऐसा ही द्रव्य का स्वरूप है। इस प्रकार राग-देष-मोह ऐसे जो अशुद परिणाम है वे ही बंध के कारण हैं। भावार्थ- यदि कोई अज्ञानी जीव ऐसा माने कि सम्यग्दष्टि जीव के चारित्रमोह का उदय होते उस उदय मात्र के होने से आगामी ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध भी होता होगा तो उसका समाधान यह है कि-बारित्रमोह के उदय मात्र से बंध नहीं होता। उदय होने पर जो राग-दष-मोह परिणाम हों तो बन्ध होता है अन्यथा और कारण हजारों भी हों तो भी कर्मबन्ध नहीं होता । और दूसरी ओर राग-द्वेष-मोह परिणाम मिथ्यात्व कर्म के उदय की शक्ति से होते हैं । मिथ्यात्व के जाने पर अंकले चारित्रमाह के उदय की शक्ति नहीं कि वह राग-द्वेष-मोह रूप परिणमन करवा दे। इस प्रकार सम्यकदृष्टि जीव के राग-देष-मोह परिणाम नहीं होते और इस Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܘܟ ७॥ समयसार कलश टोका लिए कर्मबन्ध का कर्ता मम्यकदृष्टि जीव नहीं होता ॥७॥ दोहा-जो हित भावमु राग है, अहित भाव विरोष। भ्रमभाव विरोष है, निर्मल भाव सुबोष। गग विरोष विमोह मल, येई प्राथव मूल । घेई कर्म बढ़ाइके, करे धर्म की मूल ॥ जहां न रागारिक दशा, सो सम्यक परिणाम । पाते सम्पबन्त को, कयो मिराबब नाम ॥७॥ वसंततिलका अध्यास्य शूबनयमुढतबोधचिह्नमकायमेव कलयंति सदेव येते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्तः पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारं ॥८॥ जो कोई निकट भव्य जीव समम्त रागादि विकल्पों से चित्त निरोध करके और निश्चय मान कर उम निविकल्प शुद्ध चतन्य वस्तु मात्र का सदा काल धारा प्रवाह म्प से अभ्यास करता है कि जिसका लक्षण है कि उसमें जानगुण सर्वकाल प्रगट है । वह जीब निश्चय मे सकल कर्मों से रहित अनंत चतुष्टय से युक्त परमात्म-पद को प्रकट ही प्राप्त करता है। वह परमात्मा पद अनादिकाल से एक बंध-पर्यायम्प चले आये ज्ञानावरणादिकर्मरूप पुदगल पिण्डों से सर्वथा रहित है। भावार्थ .. जो सकल कमों का भय करके शुद्ध हुमा है उस शुरु स्वरूप का अनुभव करता हुआ वह जीव ऐसा है कि जिसका परिणाम राग-द्वेष-मोह से रहित है और वह निरन्तर ऐसा ही है। भावार्ष-यदि कोई कहे कि हर समय ऐसा हो जाता होगा जैसा ऊपर वर्णन किया है। सो यह बात नहीं है, वह तो सदा, सभी समय में शुरूप रहता है ।।८।। संबंया-कोई निकट भम्यराशी जगवासी जीव, मियामत मेखि मान-भाव परिणये हैं। जिन्ह के मुदृष्टि में न रागसंष-मोह कहूं, बिमल त्रिलोकनि में तोनों जोति लये है। तजि परमार घट सोधि निरोष बोग, शुस उपयोग की दशा में मिलि गये हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -अधिकार तेई बन्ध पद्धति विडारि पर संग भारि, भाप में मगन हं के प्रापरूप भये हैं ||८|| वसंततिलका प्रच्युत्प शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः । ते कर्मबन्धमिह विश्वति पूर्वबद्धद्रव्यात्सर्वः कृतविचित्रविकल्पजालम् ॥६॥ ܕܕ जो कोई उपशम सम्यग्दृष्टि अथवा वेवकसम्यग्दृष्टि जीव शुद्धचैतन्य स्वरूप के अनुभव से भ्रष्ट हुआ है अर्थात् जिसका शुद्ध स्वरूप का अनुभव छूट गया है उसके राग-द्वेष-मोहरूप परिणाम हो जाते हैं और वह ज्ञानावरणादि कर्मरूपपुद्गल के पिंडों का नया उपार्जन करता है । भावार्थ - जब तक सम्यकदृष्टि जोव सम्यक्त्व के परिणामों से युक्त रहता है तब तक उसके राग-द्वेष-मोह आदि अशुद्ध परिणामों के न होने से ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध नहीं होते। पीछे यदि सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व के परिणामों से भ्रष्ट होता है तो राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामों के होने से ज्ञानावरणादि कर्मबन्ध होते हैं, क्योंकि मिथ्यात्व का परिणाम अशुद्धरूप है । वह कर्मबन्ध उन नाना प्रकार के राग-द्वेष-मोह परिणामों का समूह है जो सम्यक्त्व उपजने से पूर्व मिथ्यात्व राग-द्वेष परिणामों से बंधे पुद्गल fisरूप मिध्यात्वकर्म तथा चारित्रमोह कर्मों के कारण हुए हैं। भावार्थजितने समय तक जीव ने सम्यक्त्व के भावरूप परिणमन किया उतने समय चारित्रमोह कर्म कीले हुए सांप की तरह अपना कार्य करने में समर्थ नहीं था । वही जीव जब सम्यक्त्व के भाव से भ्रष्ट हुआ और मिथ्यात्व भावरूप परिणमा तो उस समय चारित्रमोह कर्म अकीले हुए साँप की भांति अपना कार्य करने में समर्थ हो गया । अर्थात् चारित्रमोह का कार्य जीव के अशुद्ध परिणमन में निमित्त होना है, उसमें वह समर्थ हो गया । मिथ्यादृष्टि जीव के तो सभी चारित्र मोह कर्म से बन्ध होगा ही । परन्तु जब जोव सम्यक्त्व पाता है तब जो चारित्रमोह के उदय से बन्ध होता है उस समय बन्ध शक्तिहीन होने के कारण वह बन्ध नहीं कहाता । इसलिए ऊपर सम्यक्त्व के समय चारित्रमोह को कीले हुए सांप की भांति बताया है। और मिथ्यात्व Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ समयसार कलश टीका के समय चारित्रमोह को अकीले सांप की भांति बताया। उपरोक्त कथन का ऐसा भावार्थ समझ लेना चाहिए ॥६॥ सर्वया - जेते जोव पंडित क्षयोपशमी उपशमी, इनकी व्यवस्था ज्यों लुहार की संडासी है। खिर प्राणिमांहि खिल पारिणमहि तसे येउ, खिर में मिध्यात विरण ज्ञानकला भासी है । जो लों ज्ञान रहे तोलों सिथल चरणमोह, जैसे कोले नाग को सकति गति नासी है। प्रावत मिष्यात तब नानारूप बंध करे, जेउ कोले नाग की सकति परगासी है ॥६॥ अनुष्टुप इदमेवाव तात्पय्यं हेयः शुद्धनयो न हि । नास्ति बन्धस्तदत्यागात्तत्यागाद्वन्ध एव हि ॥१०॥ इस समस्त अधिकार का निश्चय में इतना ही (बताना) कार्य है कि आत्मा के शुद्ध स्वरूप के अनुभव को सूक्ष्मकाल मात्र के लिए भी बिसारना योग्य नहीं है क्योंकि शुद्धस्वरूप का अनुभव छूटे बिना ज्ञानावरणादि कर्म का बन्ध नहीं होता । शुद्ध स्वरूप का अनुभव छूटने पर ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध है । भावार्थ स्पष्ट है ॥ १० ॥ दोहा-यह निचोर या ग्रंथ को, यह परम रस पोल । तजे शुद्धनय बंध है, गहे शुद्धनय मोल ॥१०॥ शार्दूलविक्रीडित धीरोदारमा हिम्न्यनादिनिधने बोधे निबध्नन्धृतिम् । त्याज्यः शुद्धनयो न जातु कृतिभिः सर्वकषः कर्मणाम् ॥ तत्रास्थाः स्वमरोचिचक्रम चिरात्संहृत्य निर्यद्वहिः । पूर्ण ज्ञानघनौघमेकमचलं पश्यन्ति शान्तं महः ॥११॥ सम्यकदृष्टि जीव को उस शुद्ध चैतन्यमात्र वस्तु के अनुभव को सूक्ष्म कालमात्र के लिए भी विस्मृत नहीं करना चाहिए जो आत्मस्वरूप में अतीन्द्रिय सुख स्वरूप परिणति का परिणमन करवाता है । शाश्वतरूप से धाराप्रवाहरूप परिणमनशील होना जिसकी महिमा है, जिसका न आदि है बीर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mere-अधिकार न अंत है और जो ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मपिड अथवा राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणामों का जड़ से क्षय करने वाला है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव में जो जीव मग्न हैं वे कर्म की सामग्री, इन्द्रिय, शरीरादि में आत्मबुद्धि के झूठे भ्रम का तत्कालमात्र विनाश करके सर्व उपाधि से रहित उस चैतन्यद्रव्य अर्थात् परमात्मपद को प्रत्यक्षरूप से प्राप्त होते हैं जिसके असंख्यात प्रदेशों में ज्ञान विराजमान है, जो चेतनगुण का पुंज है, समस्त विकल्पों से रहित निर्विकल्प वस्तु मात्र है और जो कर्म के संयोग को मिटा कर निश्चल हुआ है । भावार्थ- परमात्मपद की प्राप्ति होने पर समस्त विकल्प मिट जाते हैं ।। ११ ।। सर्वया - करम के चक्र में फिरत जगवासी जीव, ह्र रह्यो बहिरमुख व्यापत विषमता । प्रन्तर सुमति प्राई बिमल बड़ाई पाई, पुद्गल सों प्रीति टूटी छुटो माया ममता ॥ शुद्ध नं निवास कोनों अनुभौ प्रम्यास लीनो, भ्रमभाव छोड़ दोनों, भोनो बित्त समता । अनादि अनन्त प्रविकलप प्रचल ऐसो, पद प्रविलम्बि प्रवलोके राम रमता ॥ ११ ॥ मन्दाक्रांता रागादीनां भगिति विगमात्सर्वतोऽप्यास्त्र वारणां नित्योद्योतं किमपि परमं वस्तु सम्पश्यतोऽन्तः । स्फारस्फारः स्वरसविसरः प्लावयत्सर्व भावा १०३ नालोकान्तादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ॥ १२॥ जिस जीव का शुद्ध चैतन्य प्रकाश प्रगट हुआ है वह निर्विकल्प सत्तामात्र जो कुछ वस्तु है उसका भावश्रुतज्ञान के द्वारा प्रत्यक्षरूप से अवलंबन करता है । भावार्थ- शुद्ध स्वरूप के अनुभव के समय जीव काठ की भांति जड़ तो नहीं हो जाता परन्तु सामान्यरूप से सविकल्पी जीव की भांति विकल्पी भी नहीं होता । भावनज्ञान के द्वारा कुछ निविकल्प वस्तु मात्र अवलंबता Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलर टीका (धारण करता) है । उस अवलम्बन को वचन द्वार के द्वारा कहने में समर्थ नहीं है इसलिए कह नहीं सकता। उस शुद्ध ज्ञान प्रकाश का प्रकाश अवि. नाशी है, उमने राग-दंष-मोह आदि जितने भी असंख्यातलोक मात्र अशुद्ध परिणाम हैं जिनकी मब प्रकार आम्रव नाम संज्ञा है, उनका तत्काल विनाश किया है। भावार्थ-जीव के अशुद्ध रागादि परिणाम पर ही सच्चा मालव पना घटिन होता है जिनका निमित्त पाकर कर्मरूप आस्रव होता है। पुद्गल की वगंणाय नो अशुद्ध परिणाम के आधीन हैं इसलिए उनकी क्या बात रही। वह तो परिणाम पद होते ही मिट जाती है ॥ शुद्धज्ञान तो अपने चिद्रप गुण के द्वारा जितनी भी अतीन-अनागत-वर्तमान पर्याय सहित शेय वस्तुएं है उन मवको अपने में प्रतिबिम्बित करता है। उसकी अनन्त शक्ति अनन्त ज्ञेय पदार्थों में भी अनन्नानन्तगुण है। भावार्थ-द्रव्य अनन्त हैं। उनसे उनकी पर्याय अनन्तगणी हैं। उन समम्न शंय मे ज्ञान को शक्ति अनन्तगुणो है। ऐसा द्रव्य का स्वभाव है । सकल कर्मों के क्षय होने पर शुद्ध ज्ञान जैसा उपजा वैसा ही अननकाल तक रहता है अन्य रूप नहीं होता। उस शुद्ध मान के मुखरूप परिणमन करने का त्रिलोक में कोई दृष्टान्त नहीं है । ऐसा शुद्ध ज्ञान प्रकाश प्रगट हुआ ॥१२॥ संबंया-जाके परकाश में न दीसे राग-द्वेष-मोह, प्रास्त्रव मिटत नहिं बंध को दरस है। तिहुं काल जामें प्रतिविम्बित अनन्तरूप, प्रापहुं प्रनन्त सत्ताऽनन्त तें सरस है। भावभूतमान परमार्थ जो विचारि वस्तु, मनभी करे न जहां वारणी को परस है। प्रतुल अलग प्रविचल अविनाशी पाम, चिदानन्द नाम ऐसो सम्यक् बरस है ॥१२॥ ॥ इति पंचमो अध्यायः ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठम अध्याय संवर-अधिकार शालविक्रीडित पासंसारविरोषिसंवरजयकान्तावलिप्तानबन्यक्कारात्प्रतिलम्पनित्यविजयं सम्पादयत्संबरम् । व्यावृतं परस्पतो नियमितं सम्यक् स्वल्पे स्फुर ज्योतिश्चिन्मयमुज्ज्वलं निजरसमाग्मारमुज्जम्भते ॥१॥ पिछले अधिकार में कहा है कि सम्यक्त्व से वह (शान) प्रकाश स्वस्प वस्तु प्रकट होती है जिसका स्वरूप चेतना है, जो सर्व काल प्रकट है। कमों के कनंक से रहित है, निज चेतनगुण का समूह है। (मेय वस्तुगों को जानते हए भी)जिसका शेयाकार में परिणमन नहीं होता, जीव के स्वरूप में बसी है वैसी ही प्रगाढ़ रूप से स्थापित है और जिसने शानावरणादि कर्मों के घाराप्रवाहरूप आस्रव को रोक दिया है। भावार्थ-अब यहाँ मे आगे मंवर का स्वरूप कहेंगे। मुमसे बड़ा तीनों लोकों में कोई नहीं है, ऐसा जिसको गर्व हुमा है उस मानब अर्थात् धाराप्रवाहरूप कर्मों के आगमन के मान को भंग करके, अपने अनन्तकाल के बेरी बासव पर, बंध जाने वाले कर्मों का निरोध करके, संवर ने चिरस्थायी विजय पाई है। भावार्थ-आस्रव और संवर हर स्थिति में अत्यन्त वैरी हैं। अनन्तकाल से समस्त जीव राशि विभाव-मिथ्यात्वरूपपरिणमन कर पी है इसलिए उसे शुद्ध ज्ञान का प्रकाश नहीं मिलता बोर मानव के बाधीन सब जीव है। काललब्धि को पाकर कोई निकटभव्य-जीव सम्यक्त्वाम स्वभाव परिणति में परिणमन करता है, जिससे शुद्ध प्रकाश प्रकट होता है गौर उससे कर्मों का आस्रव मिटता है। इस प्रकार शुद्ध ज्ञान का विजयी होना सिख होता है ॥१॥ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बमकानोका मया ---प्रातम को प्रहित प्रध्यानम तो , मात्र महातम प्रयण्ट अण्डवत है। नाको विमतार गिलिव को परगट भयो, ब्रह्मण्ड को विकाम ब्रह्मण्यमण्डवन है। जामें मबरपजों मब में मब रूपमों में, मनिमों लिप्त प्राकारा वण्डवत । मोहे जानभान शुद्ध मंबर को मेष घरे, नाको कचि रेव को हमारो दंडवत है ॥१॥ शार्दलविक्रीड़ित चंदूप्यं जहरूपतां च दधतोः कृत्वा विभाग द्वयो. रन्तरुपदारणेन परितो ज्ञानस्य रागस्य च । भेदज्ञानमुदेति निर्मलमिदं मोदध्वमध्यामिताः शुद्धज्ञानघनौघमेकमधुना मन्तो द्वितीयच्युताः २॥ दम प्रकार गग-दप-मोहम्प अगद परिणनि मे रहित, गद्ध स्वरूप के ग्राहक जान के ममद का पज. ममम्त भद विकल्प में रहित, भेदज्ञान अर्थात् जोव के गद्ध स्वरूप का अनुभव प्रकट हाता है। ज्ञानगुण मात्र तथा अशद परिणत इन दोनों के एक दूसरे में भिन्नपने (के अनुभव) मे भेदज्ञान प्रकट होता है। अन्नग्ग की मू:म अनुभवदृष्टि के द्वारा (जीव) जीव के चैतन्य मात्र स्वरूप को तथा अगदपन के जड़त्व स्वरूप को अलग-अलग कर भावार्थ-शुद्ध जान मात्र तथा रागादि के अशुद्धपना इन दोनों का भिन्न-भिन्न अनुभव करना अति मुहम है क्योंकि गगादि अगदपना भी चेतनसा दिखाई देता है । इसलिए जंग पानी यद्यपि मिट्टी में मिल कर मला हुआ है तो भी अति सूक्ष्म दष्टि में देखने पर. स्वम्प का अनुभव करें तो जितना पच्छ है उतना ही पानी है और जितना मन है इतनी मिट्टी की उपाधि है। उसी प्रकार रागादि परिणामों के कारण ज्ञान अशुद्ध जमा दोखना है तो भी जितना ज्ञानपना है उनना हो जान है, गगादि अशुद्धपना उपाधि है। इसलिए. हे मम्यकदष्टि जीव सदध ज्ञानानुभव का आस्वादन कर । शुद्ध स्वरूप का अनुभव हो जिसका जीवन है और जो किमी हय वस्तु का अवसंबन नही लेना वही सत पुरुष है । २॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रधिकार संबंया-शुरु प्रछेर प्रमेव अबाधित, मेव विज्ञान सुतीछन प्रारा। अंतर भेद स्वभाव विभाव, करे जड़ चेतन रूप दुफारा ॥ सो जिन्ह के उर में उपज्यो, न रुचे तिनको पर संग सहारा। प्रातम को अनुभो करि ते, हरसे परसे परमातम पारा ॥२॥ मालिनी यदि कथमपि धारावाहिना बोधनेन ध्रुवमुपलभमानः शुद्धमात्मानमास्ते । तदयमुदयदात्माराममात्मानमात्मा परपरिणतिरोधाच्छुदमेवाभ्युपंति ॥३॥ अगदपने का विनाश करते, शद्ध (स्वरूप) की प्राप्ति होने पर, ममम्न द्रव्यकर्मों और भावको मे हित आन्मा प्रत्यक्षरूप में अपने स्वरूप की प्राप्ति करता है. और अपने स्वद्रव्य में निवाम पाता है। चेतन द्रव्य काललब्धि पाकर सम्यक्त्व पर्यायरूप परिणमन करता है तथा द्रव्यकर्म व भावकम से रहित होकर भावथत ज्ञान के द्वारा अपने निज स्वरूप का आस्वादन करता हुआ धागप्रवाह रूप से निरनर प्रवत्तंता है। यह बात निश्चय है ॥३॥ भावार्थ-जो कहूं यह जीव पदारथ, प्रोसर पाय मिण्यात मिटाये। सम्यकपार प्रवाह बहे गुरण, ज्ञान उद मुख ऊरष धाये ॥ तो अभ्यन्तर बवित भावित, कर्म कलेश प्रवेश न पाये। प्रातम साधि प्रध्यातम के पय, पूरण ह परब्रह्म कहावे॥ मालिनी निजमहिमरतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलम्मः । प्रचलितमखिलान्यद्रव्यदूस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नमयः कर्ममोक्षः ॥४॥ जो जीव शुद्ध स्वरूप परिणमन में मग्न हैं उनको भेदविज्ञान अर्थात् उम अनुभव के द्वारा कि ममग्न परद्रव्य मे आत्मम्वरूप भिन्न है, मकल कर्म से रहित अनंतचतुष्टय में विराजमान आत्मा वस्तु की प्राप्ति होती है । शुद्ध Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ ममयसार कमन टोका स्वर की प्राप्ति हाने व्यकमां नया भाव कमां का समूल विनाश होता है. --ीमा दव्य का खम्र अमिट है । आगामी अनन्तकाल तक फिर कर्म का वन्ध नहीं होता है। ऐसा जीव अपने जीवद्रव्य में भित्र जितने भी द्रव्य है उन सबमे मब प्रकार भिन्न है ॥४॥ मया--- मेदि मियान्च मु वेदि महारम, मेहविमान कला जिनि पाई । जो प्रपनो महिमा अबधारत, म्याग करें उरमों जो पगई। उन रोत बसे जिनके घट, होत निरंतर ज्योति मवाई । ने मनिमान मुवरणं ममान, लगे निनकों न शुभाशुभ काई ॥४॥ उपजाति सम्पद्यते संवर एष साक्षाच्छद्धात्मतत्वम्य किलोपलम्मात् । म मेव विज्ञानत एव तस्मान दविज्ञानमतीव भाव्यम् ॥५॥ इमलिए समन पर दव्य में भिन्न चैतन्य स्वरूप को मर्वथा उपादेय मान कर अष्टिन व धागवाहरूप में अनुभव करना योग्य है । शुद्ध स्वरूप के अनुभव के द्वारा शुद्ध स्वरूप निश्चय हो प्रकट होता है और जाव की शुद्ध म्वम्प की प्राप्ति के दाग ननन कर्मा के आगमन का निगेध अर्थात् मवं प्रकार संवर हाता है। भद विज्ञान यद्यपि विनाश होने वाला है नथापि उपादेय है ॥५॥ मडिल्ल -मेरमान मंवर निदान निरदोष है. संबर सों निरजग अनुक्रम मोम है। मेव मान शिवमून जगन महि मानिए, जापि हेय है तदपि उपाय जानिए ॥५॥ अनुष्टुप मावयेद् मेदविज्ञानमिदमन्छिनधारया । ताचावत्पराव्युत्वा जानं जाने प्रतिष्ठते ॥६॥ जब तक आत्मा र स्वरूप में एकरूप में परिणमन न करने मगे Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवर-अधिकार तब तक उस शुद्ध स्वरूप के अनुभव का अखण्डित व धाराप्रवाहरूप से आस्वादन करो, जिसका लक्षण ऊपर कह आये हैं।। भावार्य-निरन्तर रूप से शुद्ध स्वरूप का अनुभव करना कर्तव्य है। जब सकल कर्मों का क्षय जिमका लक्षण है ऐसा मोक्ष होता है, तब समस्त विकल्प महज हो छट जाते हैं। तब तो भेदविज्ञान भो एक विकल्परूप होगा, केवलज्ञान को भांति जीव का म्वरूप नहीं। और इसलिए सहज ही नाशवान है ॥६॥ दोहा-मेव जान तबलो भलो, जबलों भक्तिन होय । परम ज्योति परगट जहाँ, तहां विकल्प न कोय ॥६॥ अनुष्टुप भेदविज्ञानतः सिद्धाः मिढा ये किल केचन । तस्यवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ॥७॥ ममारी जीवांश में जो कोई निकट भव्य जीव हैं और जो समस्त कर्मों का क्षय करके निर्वाण पद को प्राप्त हुग, वे समम्न जीव सकल परद्रव्य में भिन्न शुद्ध स्वरूप के अनुभव । भविज्ञान) के द्वाग मोक्ष पद को प्राप्त हुए हैं। भावार्थ-गदम्वरूप का अनुभव ही अनादिकाल में मिद एक मोक्षमागं है । जो कोई ज्ञानावग्णादि को में बधे है, व ममम्न जीव, निश्चय से, ऐसा भवज्ञान बिना हा, वध को प्राप्त होकर समार में रुलते है। भावार्थ-भंदविज्ञान मथा उपादय है ।।।। चौपाई-भेद ज्ञान मंवर जिन पायो, मो चेतन शिवरूप कहायो। मेवज्ञान जिनके घट नाही, ते जर जीव बन्धं घट माही ॥७॥ मंदाक्रांत भेवज्ञानोच्छलनकलनाच्छुद्धतत्त्वोपलम्मा. द्रागग्रामप्रलयकरणात्कर्मणां संवरेग । विभ्रत्तोषं परमममलालोकमम्लानमेकं मानं जाने नियतमुदितं शाश्वतोटोतमेतत् ।।८।। प्रत्यक्षरूप से ऐसा ही है। (इम नरह) वह गुट चैतन्य प्रकाश प्रगट हुआ है जो अनन्नकाल में अशुट गगादि विभावरूप परिणमन कर रहा था Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टीका और कालब्धि पाकर अपने गुद म्वरूप परिणमा है, जिसका अविनश्वर प्रकार है, अतीन्द्रिय मुखम्प जिसका परिणमन है और जो उत्कृष्ट है, सब प्रकार सब काल में ओर मा नाक्य में जो निमंल है, साक्षात् शुद्ध है, सदा प्रकागरूप है, निर्विकल्प है। गुड़ जान मा कम हुआ यह कहते हैं-वह जो पुदगल कम का ज्ञानावरणादि कप आम्रव हो रहा था उसका निरोध करके एसा हुआ। ओर वह निगध कम हुआ : शुदम्बाप ज्ञान के प्रगटगने के निरंतर अभ्याम में गुद्ध तन्त्र पयांत गद नन्य वस्तु की माक्षात् प्राप्ति के दाग हा। वह निगंध गग-उप-माहा' अशुद्ध विभाव परिणामों के अमन्यात लोकमात्र भंदा की सना का मन में नाग करता है। भावार्थडम्वरूप का अनुभव उपादेय है ।।८।। मक्या-मे रजमोधी, रज मोधि के दब का, पावक कनक का दाहत उपल को। पंक के गरभ में ज्यों हारिये कनक फल, नीर को उज्वल निनारि डारे मल को। दधि के मया मयि कादमे मावन हो, गजाम मे दूध पोवे त्यागि जल को। तमे जानवन्त मेदज्ञान को मकान माधि, बेरे निज मंपति उच्छेरे पर बल को ।।८।। ||नि षष्टम अध्याय ।। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम प्रध्याय निर्जरा-प्रधिकार शार्दूलविक्रीडित रागाचालवरोधतो निजधुरान्धृत्वा परः संवरः कर्मागामि समस्तमेव भरतो दूराग्निरुन्धन स्थितः । प्राग्बद्धं तु तदेव दग्धमधुना व्याजम्मते निजरा ज्ञानज्योतिरपावतं न हि यतो रागादिमिर्मछति ॥१॥ अब इसके आगे निजंग अर्थात् पूर्व बन्धं हाए कर्म का अकर्मरूप परिणाम केमे प्रगट होता है, यह कहेंगे। भावार्थ - निरा का स्वरूप जमा है वमा कहते है। सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यात्व ओर गग-द्वप परिणामी के कारण जो ज्ञानावरणादि कर्म बाध थे उनको सवर पूर्वक निजंग जलाती है । निजंग वह है जिसका संवर अग्रसर है। भावार्थ -मवरपूर्वक हाने वाली निजंग ही निजंग है। जो उदय देकर कर्म की निगरा मभी जीवा के होती है वह निजरा नहीं है ।। वह सवर रागादि आस्रव भावा का निगध परके तथा अपने एक संवरस्प पक्ष का ही धारण करता हा नाना प्रकार के जिन जानावरणादि, दर्शनावरणादि कर्मों का अपन माह के वग अखण्ड धारा प्रवाहरूप पुद्गल का आस्रव हो रहा था, उनकी आने नहीं देना। मवर पूर्वक निजंग में इसलिए काम होता है कि उसके होने पर जीव का गुट म्वरूप निगवरण होता है और वह रागादि अगुद परिणामी के द्वाग अपने स्वरूप को छोड़कर रागादिरूप नहीं होता ॥१॥ दोहा-बरणी संवर को दशा, ययायुक्ति परमारण। मुक्ति बितरणो निगरा, मुनो भविक परिबान । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टोका जो मंबर पद पार प्रनंदे, मो पूरवकृत कम निकले। जो प्रफंव हरि न फंदे, मो निजंग बनारमि बंदे ॥१॥ अनुष्टुप तग्नानम्यव मामध्यं विरागस्यंव वा किल । यत्कोऽपि कम्ममिः कम्मं भुंजानोऽपि न बध्यते ॥२॥ मी गद स्वरूप के अनुभव में कोन मी मामथ्यं है. जिसमे रागादि अगदपना घटता है, वह मी मामय्यं है कि पूर्व के बध हा ज्ञानावरणादि कर्मों के उदय में प्राप्न) हा गरीर, मन, वचन. दन्द्रिय मुख-दुःखरूप नाना प्रकार की मामग्री को यद्धपि काई मम्यग्दृष्टि जीव भोगता है नथापि ज्ञानावग्णादि कर्मा को नहीं बांधता है । जैसे कोई वैद्य प्रत्यक्ष हो विष को पीना है, तो भी नहीं मरता है. क्योकि वह गुण को जानना है. इसलिए अनेक यनन भी जानता है और विप को प्राणघातक क्ति दर कर देता है। वही विष ओर कोई व्यक्ति खाय तो नत्काल मर जाए परन्तु उमी में वैद्य नहीं मरता। जानने की मी मामयं है। या जने कागद मदिरा पीना है. लेकिन परि. णामी मनिता और मदिरा पाने में मचि नहीं है. मा व्यक्ति मनवाला नहीं होना है। जमा था वगाहा रहता है। मद्य ना मा है कि अन्य कोई पोले तो तत्कान मनवाना हो जाए। परन्तु यदि कोई उसे पीकर भी मत. वाला न दा नी वह अनि परिणाम का गुण जानना चाहिए। उसी प्रकार कोई मम्यग्दष्टि जीव नाना प्रकार सामग्री को मांगता है. मख-दुख को जानता है परन्न अपने ज्ञान में गम्वरूप आत्मा का अनुभव होने में "मा अनुभवन करता है कि मी मामग्री कम का स्वरूप है तथा जीव के लिए दखमय है, जीव का स्वरूप नहीं है उपाधि है. म जीव को कर्म का बन्ध नहीं होता है। मामग्री तो वहा है जिसके भोगने मे मिथ्यादष्टि जीव को मात्र कर्म का बन्ध हो होता है। यदि जीव को कर्म बन्ध न हों तो जानना कि यह उसके ज्ञान को मामथ्र्य है । या यों कही कि सम्यग्दृष्टि जीव यद्यपि नाना प्रकार के कमों के उदय का फल भोगता है परन्तु अन्नस् में शुद्ध स्वरूप की हो अनुभवन करता है इसलिए कमों के फल में उसको रतिया रुचि नही उपजती, उनको उपाधि जानता है-दुम जानता है इसलिए उनके प्रति अत्यन्त रूखा है । ऐसे जीव को कर्मों का बन्ध नही होता है। म्ह रूले परिणामो को मामप्यं है। इस प्रकार यह अपं ठहरा कि सम्यग्दष्टि जीव Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजंग-अधिकार गरीर नया इन्द्रियों के विरों में भोगों को निजंग हो उहगता है और निजंग ही होती है। जिसमे आगामा कम तो नहीं बधने और पिछले कम उदय में आकर फल देकर गमन निजंग का प्राप्त हो जाते है। इसलिए गम्यग्दष्टि जीव के भोग निजगर कारण है ।।।। दोह-महिमा मम्यक जान को प्रा विगग बल जोय । क्रिया करत फन भजते, कम बन्ध न होय ।। मया जैसे भूप कौतुक म्वरप करे नोच कर्म, कौतुक कहावे तासो कौन कहे. रंक है। जैसे व्यभिचारिणी विचारे व्यभिचार वाको, जारही मां प्रेम भरतार मों चित्त बंक हे ॥ जमे धाई बालक चुघाई करे लालपाल, जाने तांहि प्रौर को जदपि बाके अंक है। से जानपन्त नाना भांति करतूति ठाने, किरिया को भिन्न माने याते निकलंक है ॥२॥ रथोद्धता नाश्नुते विषयसेवनेऽपि यत् स्वं फलं विषयसेवनस्य ना। ज्ञानवंभविरागतावलात्सेवकोऽपि तदसावसेवकः ॥३॥ इस प्रकार सम्यग्दृष्टि जाव कम के उदय में प्राप्त शरीरादि पन्चन्द्रिय विषय मामग्री को भीगता है नथाप नहीं मांगता है। क्योकि सम्यग्दृष्टि जीव पचन्द्रिय सम्बन्धी विषया का गबन ना करता है परन्तु उनके सेवन का फल जो ज्ञानावग्णादि का कमंबन्ध है. उमको नहीं पाता है। एसी उसके गद्ध स्वरूप के अनुभव की महिमा है। विपया का मुख कम क. उदय में होता है, जोव का स्वरूप नहीं है इसलिए उसका विपया के मुख से रतिभाव पैदा नहीं होता। भावार्थ-मभ्यग्दृष्टि जीव जो भाग भोगता है वह भी निगरा का निमित्त है ॥६॥ सोरठा-पूर्व उ सम्बन्ध, विषय भोग बे समकिती। करेन नूनन बंध, महिमा मान विगग की। मंदाक्रांता सम्यग्दृष्टेभंवति नियतं जानवराग्यशक्तिः बस्तुत्वं कर्नायतुमयं स्वान्यरूपाप्तिमुक्त्या । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कला टाका यस्मान मात्वा व्यतिकमिदं तत्वतः स्वं परं च स्वस्मिन्नास्ते विरमति परात्सर्वतो रागयोगात् ॥४॥ जिम मम्यन्दष्टि जीव के. मियान्व कम का उपशम हुआ है, उसका गद्ध मम्यक्त भावरूप परिणाम है, उसके गद्ध स्वरूप का अनुभवरूप म जानपना होता है तथा द्रव्यकम भावव मं, नाकम तथा ज्ञेयरूप जितने भी पग्द्रव्य है उन मबका मब प्रकार मयाग होता है-मी दोनों शक्तियाँ उसमें अवश्य ही मबंथा होती है, क्याकि सम्यन्दष्टि जीव जहाँ सहज ही शुद्ध म्वम्प के अनुभवम्प होता है वहां पदगल द्रव्य की उपाधि से उपजी जितनी भी गगादि अशुद्ध परिणति है, उन मबम मब प्रकार हित भी होता है । भावार्थ-गलक्षण सम्यग्दष्टि जीव के अवश्य होते है और ऐसे लक्षण होने में वैराग्यगृण भी अवश्य होता है। मम्यग्दृष्टि जीव कहने के लिए नहीं बल्कि यह अनुभवरूप में जानना है कि शुद्ध चतन्यमात्र ही मेरा म्वरूप है और द्रव्यकर्म, भावकम, नोकमं का विस्तार तो पराए पुद्गल द्रव्य का है। यही उमकी ज्ञानमक्ति है। इस प्रकार वह अपन गद्ध स्वरूप का निरन्तर अभ्याम करता है और निजम्बाप की प्राप्ति के निमिन अपने शुद्ध म्बाप का ग्रहण करता है तथा परद्रव्य का मर्वथा त्याग करता है ॥४॥ सया--सम्यकवना महा उर प्रता, ज्ञान विराग उभं गुण धारे। जानु प्रभाव लते निज लक्षण, जीव प्रजोव दशा निरवारे। प्रातमको अनुभौ करि स्थिर, प्राप तरे प्रोरनि तारे। साधि स्वाम्य लहे शिव समं मो, कर्म उपाधि व्यथा वमिसरे ॥४॥ मन्दाक्रांता सम्यग्दृष्टिः स्वयमयमहं जात बन्धो न मेस्याबित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु । प्रालम्बन्ता समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा पास्मानामावगम विरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिताः ॥५॥ यहाँ यह कहा है कि मम्यग्दृष्टि जीव के विषय भोगते हुए भी कम का बन्ध नहीं है क्योंकि सभ्यदृष्टि का परिणाम अति ममा है। इसलिए भोग ऐसे लगते है कि जैसे किसी रोग का उपसर्ग हो रहा हो इसी कारण कर्म का बन्ध नहीं है। और जो मिध्यादष्टि जीव पन्द्रिय के विषयों का सूब Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा-अधिकार ११५ भोगते है वे परिणामों में चिकने है। मिथ्यान्व भाव का ऐमा ही परिणाम होता है इसमें किमी का नारा नहीं है। वे जीव जो सा मानते है कि हम भी सम्यग्दष्टि जमे है और हम भी विपया का मुख मांगते हा कर्म का बन्ध नही है, तो वे जीव धोग में गई है। मिथ्यादष्टि जीवराशि शुद्धात्मस्वरूप के अनुभव मे गून्य ;' और गद ननन्य वस्तु तथा द्रव्यकर्म, भावक मं, नोकर्म के हेयोपादेयना और उनके भिन्नरूप का जानना न होने से शरीर व पंचद्रिय के भोगों-मुखों में अवश्य रजा है, कोटि उपाय भी करें तो अनन्तकाल तक पापमय है, ज्ञानावरणादि कमां का बन्ध्र करते है. महानिद्य है। भावार्थ-मिध्यादष्टि जीव के मद्ध वस्तु के अनुभव को शक्ति नही होती ऐसा नियम है इसलिए मिथ्यादाट जीव कर्म के उदय को ही अपना (स्वरूप) जानकर अनभवन करता है। वह मात्र पर्याय में अत्यन्त रत है इसलिए मिथ्यादष्ट मथा गगा होता है, ओर गगी होने में कर्मबन्धका करता है। वह जो अपने आपको स्वय ही मम्यग्दष्टि कह कर मानता है कि अनेक प्रकार के विषय मखां को भोगते हा भी हमें तो कर्म का वन्ध नहीं है--सा जीव यह मानना है तो मानों नथापि कर्म बन्ध तो है। वह मह ऊंचा करके गाल फुलाकर कहे कि मैं मम्यवादीष्ट है या मोन रह कर अथवा थोड़ा बोलकर या अपने आपको हीन दिखाकर. मयानेपन में, सावधानी से ऐसा दिखाए यह मब नो उमको प्रकृति है, ग्वभाव है। परन्तु गगी होते हुए नो मिध्यादष्टि ही है। कमों का बन्ध करना है। भावार्थ-जो जीव पर्यायमात्र में रत हैं वे मिथ्यादष्टि है। यह उनकी प्रकृति का ग्वभाव है कि हम सम्यग्दृष्टि हैं, हमको कर्मों का बन्ध नहीं होता। कोई नो मह में बोल कर गग्जता है, कोई ग्वभावतः मान रहता है, कोई बोलता है। मो यह सब प्रकृति का स्वभाव है । इममें परमार्थ ना कुछ भी नहीं है। जितने काल तक जीव पर्याय में अपनेपन का अनुभव करना है. उननं काल तक मिथ्यादृष्टि है, कर्मों का वध करता है ।।५।। संबंया-जो नर मम्यकदन्त कहावन, सम्यकमान कला नहीं जागी। मातम अंग प्रबन्ध विचाग्न, भारत संग कहे. हम त्यागी मेव घरे मुनिराज पटंतर, नंतर मोह महानल बागी। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ मममगार कलाका शून्य हिथे करन करे परि, मो मठ जीव न होय विरागो॥ तपाई गोबिन मान किया प्रवगाह । ओ दिन क्रिया मोन पर चाहे। को दिन मोक्ष की मैं मृविया ।मो प्रजान मूदन में मूलिया। मंदाक्रांता प्रासमागत्प्रतिपदममी गगिगो नित्यमनाः मुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तहिनुध्यध्वमन्याः एततेतः पदमिमिदं यत्र चंतन्यधातुः शवः शुद्धः स्वरसमरतः स्थायिभावत्वमेति ॥६॥ है मुद्ध बाप के अनुभव में गन्य जीवगांग ! यह पयका जान लो कि कम क. उदय में होने वाली चार गनिम्पपयांय नया गगादि अशुद्ध परिणाम तपा इन्द्रिय विषयनित मन-दम् इत्यादि कुछ भी मवंथा जीव स्वरूप नही है, नहीं है । ये जो कुछ भी है मर कम के मांग की उपाधि है। यह मा मायाजाल है कि कम क. उदय जनित अगड पाया में प्रत्यक्षरूप में रंजाय. मान होने वाल जीव अनादिकाल में लेकर उमाकर अपने आप को अनुभव कर रहे है। भावार्थ- अनादिकाल मलकर मा म्वाद मवंथा मिथ्यावृष्टि जीव आस्वादन कर रहा है कि मै देव हू, मनुष्य ह. मुखी हूं. दुखी हूं । इस प्रकार पर्याय मात्र को अपने रूप अनुभव कर रहा है। परन्तु यह सब जीव राशि बंसा अनुभव कर रहा है मो मब मूठा है, जीव का तो स्वरूप नहीं है। वह सब जीव राशि बंसी भी पर्याय लेती है उम हो रूप में सी मतवाली हो रही है कि किसी भी ममय किमी भी उपाय में उसका मतवालापन नहीं उतरता। आचार्य गुरचंतन्य स्वरूप का दिमा कर कहते है-जोन पर्याय मात्र धारण की है, म्वय उमी मागं पर मत जा। क्योंकि वह नेरा मार्ग नही है, नहीं है। इस मार्ग पर आ, अरे आ, क्योकि तेरा मार्ग यहां है, यहां है, जहाँ चेतनामात्र वस्तु का स्वरूप अत्यन्त गड, सर्वथा प्रकार सवं उपाधियों से रहित है। मात्र कहने के लिए ही नहीं, चेतन स्वरूप नो वास्तव में सत्य स्वरूप वस्तु है। इसलिए नित्य है-शाश्वत है। भावार्थ-जिस पर्याय को मिप्याटि जोब अपने कप मानता है वह मब बिनागवान है Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजंरा-अधिक मोलिा जीव वा या नहीं है। चेतन मात्र अविनाशी है इसीलिए वही जीव का स्वरूप है ॥६॥ मग - (१) काया चित्रशाला में करम परजंक भारी, माया को मवारी मे बाबर कलपना । शंन करें सेवन प्रवेतनता नीर लिए. मोर को मगेर यो लोचन को उपना ।। उबल जोर यह श्वास को शबर घोर, विर्ष मुबकारी जाकि और यह सपना ।। ऐमे पूर दशा में मगन रहे तिहंकाल, धाव भ्रममान में न पाये रूप अपना ।। गया - चित्रशाला न्यारी, पाजंक न्यागे, सेज न्यारि, चादर भी न्यागे यहां झूठी मेगे पपना । प्रतोन प्रवम्या मंन निद्रा वाटिकोउ न, विद्यमान पलक न यामें प्रा सपना ।। वाम प्रोमपन दोउ निद्रा की प्रलंग झे, मुझे सब अंग लखि प्रातम बरपना । न्यागि भयो वेतन प्रवेतनता भाव घोषि, भाने दृष्टि खोलि के संभाले हप अपना ॥ दोहा-इह विधि जे जागे पुरुष, ते शिवरूप सीव । जे मोहि मंगर में, ते जगवासी जोर ॥६॥ अनुष्टुप एकमेव हि तत्स्वाचं विपदामपदं पदम् । प्रपदान्येव भासन्ते पदान्यन्यानि यत्पुरः ॥७॥ यह निरन्तर अनुभव करना है कि समस्त भद-विकल्पों से रहित निर्विकल्पवस्तुमात्र, ममन्त चतुगंति सबंधी नाना प्रकार के दुखों के अभाव के लक्षण में युक्त, गुढ़ चैतन्यमात्र वस्तु निश्चय में मोम का कारण है। भावार्थ-आत्मा मुख म्वरूप है, माता-असाता कर्म के उदय के मयोग में होने वाले जो मुग्न-दुःख है व जीव के स्वरूप नहीं है, कर्म की उपाधियां है । शुद्ध बाप का "मा अनुभवम्प म्वाद माने पर Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ समयसार कलशटीका जीव प्रत्यक्षरूप में जानता है कि चार गतियों की पर्याय, राग-द्वेष-मोहसुख-दुख रूप इत्यादि जितने भी अवस्था भंद है वे कोई भी जीव का अपना स्वरूप नहीं हैं, उपाधिरूप है, विनश्वर है और दुखरूप हैं। भावार्थ - शुद्ध चिप उपादेय है, अन्य समस्त देय है ||3| दोश-जो पद भव पद हरे को पद से अनूप । जिहि पद परमन श्रौर पद, नगे आपदा रूप ||७|| शार्दूलविक्रीडित एकनायक भावनिर्भर महाम्वाद समासादयन् स्वावं द्वन्दमयं विधातुनग्रहः ग्वां वस्तुवृत्ति विदन् । प्रात्मात्मानुभवानुभावविवश भ्रश्यविशेषोदयं सामान्यं कलयत्किलंय मकलं ज्ञानं नयत्येकतां ॥८॥ वस्तुरूप में चेतन द्रव्य ऐसा है कि मतिज्ञान, धनज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान आदि पर्यायों में जो ज्ञान का जितना भी अनेक विकल्परूप परिणमन है उसको निविकल्परूप से अनुभवन करता है । भावार्थ - जैसे उष्णता मात्र अग्नि है परन्तु जलने वाली वस्तु को जलाते समय उसी के आकार में परिणमन करता है। इसलिए लोगों को ऐसा ख्याल उपजता है कि जैसे काट की आग, छप्पर की आग, तृण की आग इत्यादि । सो ऐसा सब विकल्प झुटा है। वस्तुरूप से आग का विचार करें तो उष्णतामात्र आग है । उसी में एकरूप है। उसी प्रकार ज्ञानचेतना तो प्रकाशमात्र है । समग्न ज्ञेय वस्तुओं को जानने का उसका स्वभाव है । इसलिए समस्त ज्ञेय वस्तुओं को जानना और जानने हुए ज्ञेयाकार परिनमन करता है। इस प्रकार ज्ञानी जावा की ऐसी बुद्धि उपजती है कि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान आदि ज्ञान के मंद सब झूठे विकल्प है । ज्ञय वस्तु की उपाधि मे मति श्रुत-अवधि- मन:पर्यय- केवल ऐसे विकल्प उपजाने है क्योंकि शेयवस्तु नाना प्रकार की है । जैसे शेय का जानना होता है. ज्ञान वैसा ही नाम पाना है । वस्तु स्वरूप का विचार करें तो वह ज्ञान मात्र है। अन्य नाम धरने सब झूठे हैं ऐसा अनुभव शुद्ध स्वरूप का अनुभव है। ऐसा अनुभवशील आत्मा निर्विकल्प चेतनद्रव्य में अत्यन्त मग्न है, अनाकुलित सुख का आस्वादन करती है. कर्म के संयोग से हुए विकल्परूप - आकुलतारूप इन्द्रियों के विषय जनित - Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियंग- अधिकार ११६ मुखों को अज्ञानी मुख मानना है परंतु जानीजीव जो दुःखरूप है ऐसे मुखों को अगीकार करने में असमर्थ है। भावार्थ - जानोजीव विषय-कषाय को दुखरूप जानता है। अपने द्रव्य मबंधी आत्मा के शुद्ध स्वरूप में परिणमन करता रहना है, चेनन द्रव्य के अनुभव अर्थात् स्वाद की महिमा में चर्या कर रहा है, जान को नाना प्रकार पर्यायां को मेटने वाला है तथा निभेद सत्तामात्र व का हो अनुभव करता रहता . संबंया---पंडित विवेक लहि एकता की टेक गहि, हुंदुज प्रवस्था को प्रनेकता हरतु है। मति श्रुति प्रविधि किल्प मेटि. निर विकलप ज्ञान मनमें घग्तु है ॥ इन्द्रिय जनित मुख दावों विमुख हके, परम के रुप करम निबंरतु है। महज समाधि साधि त्यागी परको उपाधि, प्रातम बाराघि परमातम करतु है ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित अच्छाच्छाः स्वयमुच्छलन्ति यदिमाः संवेदनव्यक्तयो निष्पोताखिलभावमण्डलरमप्राग्भारमत्ता इव । यस्यामिन्नरसः स एष भगवानेकोऽप्यनेकोमवन वलगत्युत्कलिकाभिरद्भुनिश्चितन्यरत्नाकरः ॥६॥ यह जिम जीव द्रव्य का वर्णन है, वह महासमुद्र के समान है। भावार्थ-जीवद्रव्य को समुद्र को उपमा देने में यह कहा है कि द्रव्याथिकनय मे वह एक है । पर्यायाथिकनय मे अनेक है। जमे समुद्र एक है परंतु तरंगावलि के विचार में अनेक है। समुद्र में अनेक तरंगावलियों की भांनि जीव में एक ज्ञानगुण मतिज्ञान-तमान इत्यादि रूपों के अनेक भंदों में अपनी ही भक्ति में अनादि में परिणमन करता है। जितनी भी पर्याय हैं उनकी भिन्न सत्ता नहीं है बल्कि वह मव एक ही सत्य है। यद्यपि उसमें जान-दर्शन-मोठ्य-वीयं इत्यादि अनेक गुण विराजमान हैं तो भी सतास्प से एक है। अंगों के विचार में अनेक है। अनन्तकाल से चारों गतियों में फिरते-फिरने भी जो मुग्य नहीं पाया, प्रेमे अनन्त सुख का विधान है। जिस जीव के प्रत्यक्षरूप में मवंदन भान है, मनिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. समयसार कलश टोका मन पर्ययज्ञान, केवलज्ञान इत्यादि उसके महज ही पर्यायरूप अंशभेद है। इसलिए वे अवश्य प्रगट होते हैं। भावार्थ अगर कोई आशंका करे कि ज्ञान तो शान मात्र है उनके ये मनिज्ञान आदि पांच मंद क्यों है ? उसका समाधान है कि ये जान की पर्याय हैं इसमें विराधी बात तो कोई नहीं है । वस्तु सहज ही ऐसी है। पर्याय मात्र के विचार में मतिजान आदि पांच भेद ऐसे ही हैं । परन्तु वम्बुमात्र का अनुभव हो तो वह ज्ञान मात्र है और जितने भी विकल्प है मब मठे हैं। इस प्रकार विकल्प कोई वस्तु नहीं है, वस्तु तोशान मात्र है। वह निमंल मे निमंल है। भावार्थ अगर कोई यह माने कि जितनी ज्ञान की पर्याय है वे सब अगद्ध प है सो ऐसा तो नहीं है । इसलिए जैसा शान शुद्ध है, वैसे ही ज्ञान की पर्याय वस्तु का स्वरूप है इसलिए शुद्ध स्वरूप है। परन्तु एक पर्याय-विगंप को अवधारण करते हुए विकल्प उपजता है और अनुभव निर्विकल्प है। इसलिए वस्तुमात्र का अनुभवन करते हए समस्त पर्याय भी जान मात्र है। इसलिए ज्ञानमात्र अनुभव योग्य है। जान ने समस्त भावमण्डल-- जीव, पुदगल, धर्म, अधम, काल व आकाश समस्त द्रव्यों की अतीत-अनागत-वर्तमान अनन्त पर्यायों को इस प्रकार ग्रहण किया है कि जैसे कोई किसी ग्मायनभूत दिव्य औषधि के ममह मे सर्वांग मग्न हुआ हो। भावार्थ जैसे कोई किसी परम रसायनभून दिव्य औषधि को पी ले तो उसके सर्वांग में सरंगावली मी उपजती है। उसी प्रकार समस्त द्रव्यों को जानने में ज्ञान समर्थ है इसलिए उसके सर्वांग में आनन्द तरंगाबली गभित है ॥ संबंया-जाके उर अन्तर निरन्तर प्रनन्त द्रव्य, भाव भासि रहे स्वभाव न टरत है। निर्मल सों निर्मल मु जोबन प्रगट जाके, बट में प्रघट रस कौतुक करत है। जाने मति, भूति, प्रोषि मनपर्यं, केवला, पंचषा तरंगनि उमंगि उधरत है। सो है मान उदधि उदार महिमा अपार, निराधार एक में अनेकता परत है ॥६॥ शार्दूलविक्रीड़ित नियन्ता स्वयमेय दुष्करत मोक्षोन्मुखः कर्मभिः नियन्ता परे महावृततपोमारेण भग्नाश्चिरं । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा-अधिकार १२१ साक्षान्मोन इदं निरामयपदं संवेरमानं स्वयं शानं ज्ञानगुरणं विना कथमपि प्राप्तुंभमन्ते न हि ॥१०॥ जो जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव से भ्रष्ट है, वह जैसा कि पहले कहा है, शुद्ध स्वरूप के अनुभव के अतिरिक्त चाहे हजार उपाय क्यों न करे तो भी समस्तभेदविकल्प मे रहित ज्ञानमात्र वस्तु को पाने में निश्चय ही असमर्थ है। प्रत्यक्षरूप मे, सर्वथा प्रकार, मोक्ष का स्वरूप जितने भी उपद्रव, बनेश है उन सबमे रहित है और स्वयं अपने द्वारा आस्वादन करने योग्य है। भावार्य मानगुण, ज्ञानगुण के द्वारा ही अनुभव करने योग्य है। इसके अतिरिक्त किमी भी अन्य कारण मे ज्ञानगुण ग्राह्य नहीं है । मिथ्या. दृष्टि जीवराशि के विगद्ध शभोपयोगम्प परिणाम हैं, जैनोक्न मूत्रों का अध्ययन है, जीवादि द्रव्यों के स्वरूप का बारंबार स्मरण करता है. तथा पंचपरमेष्ठी की भक्ति इन्यादि भी करता है । परन्तु वह अनेक क्रियाओं को करके बहुन कायकष्ट करे ता करे परन्तु शुद्ध म्बम्प की प्राप्ति तो शुद्ध जान के द्वारा ही महज होगी। मिथ्यादष्टि को सभी क्रियाएँ कष्ट माध्य हैं । भावार्थ-जितनी भी क्रियाएं हैं सब दुःखात्मक है, शुद्ध स्वरूप के अनुभव की भांति मुखस्वरूप नहीं हैं । सकल क्रियाओं का पालन करना परंपरा से मोक्ष का कारण है यह जो भ्रम उपजता है वह झठा है। मिथ्यादृष्टि जीव ने हिमा, झठ, चोरो, अब्रह्म (कुशील) तथा परिग्रह में रहित रहकर महा परीषह । भार सहा, उस आचरण के बहुत बोझ से बहुत काल तक दब-दब के मरा या चूर हुआ, बहुत कष्ट झंले तो भी यह सब करने से उसके कर्मों का क्षय तो नहीं है ।॥१०॥ संबंया-कोई कर कष्ट महे तपसों शरीर बहे, धूम्रपान करे प्रषोमुल हके झूले है। कई महावत गहे क्रिया में मगन रहे, बहे मुनिभार पयार कैसे पूले है। इत्यादिक जीवनिकों सबंधा मुरुति नाहि, फिर जगमा ह ज्यों क्यार के बबूले हैं। जिन्ह के हिये में शान तिन्हहीको निरवाण, करम के करतार भरम में मूले है॥ रोहा-लीन भयो ग्यवहार में, युक्तिन उपजे कोय । बीन भयो प्रभ पर जपे, मुक्ति कहाँ ते होय ॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कमश टोका प्रभु मुमगे पूना पढ़ो, करो विविध व्यवहार। मोक्ष म्बरपो प्रातमा, मानगम्य निरधार ॥१०॥ द्रुतविलम्बित पमिदं ननु कर्मदुरामदं सहजबोधकलासुलभं किल । तत इदं निजबोधकलावलात्कलयितुं यततां सततं जगत् ॥११॥ इमलिए है नीनों लोकों की जीव गशि, अपने शुद्ध मान को प्रत्यक्षरूप में अनुभव करने को मामयं के बल पर तुम्हें निर्विकल्प शुद्ध शानमात्र. वस्तु का निरन्तर अभ्याम करने के निमित्त अखण्ड-धारा प्रवाहरूप से यत्न करना है । निश्चय ही वह ज्ञानपद जितनी भी क्रियाएं हैं उनसे अप्राप्य है। जब कि ज्ञान के निरंतर अनुभव में महज ही पाया जाता है। भावार्थ · शुभ, अगभरूप जिननी भी क्रियाएं हैं उनका ममत्व छोड़ कर एक शुद्ध स्वरूप का अनुभव जानपद की प्राप्ति का कारण है ॥११॥ दोहा बहविधि क्रिया कलापसों, शिवपद लहे न कोय । मानकला परकाश ते, सहज मोमपद होय ॥ जानकला घट-घट बसे, योग पुक्ति के पार । निज-निज कला उदोत करि, मुक्त होइ संसार ॥११॥ उपजाति अचिन्त्यशक्तिः स्वयमेव देवश्चिन्मानचिन्तामणिरेष यस्मात् । सर्वार्षसिद्धात्मतया विधत्ते ज्ञानी किमन्यस्य परिग्रहेण ॥१२॥ सम्यग्दृष्टि जीव यह जानकर निर्विकल्प विद्रूपवस्तु का निरन्तर अनुभव करता है कि उममें चतुति संमार सबधो दुखों का विनाश. अतीन्द्रिय मुजों की प्राप्ति जैसे कार्यों को सिद्धि होती है। वह मानपद ऐसा है कि उसके शद्ध स्वरूप में अन्य जितने भी विकल्प हैं सबबाहर हैं। विवरणशुभ-अशुभ त्रियारूप अथवा रागादि विकल्परूप अथवा द्रव्य के भेदों के विचाररूप जो भी अनेक विकल्प हैं उनके सावधानी ने प्रतिपालन अथवा आचरण अथवा स्मरण में कोनसी कार्य की सिद्धि है ? कोई कार्यसिद्धि नहीं है केवल भरम है। यह निश्चय में जानो कि शुद्ध जीववस्तु अपने में ही शुद्ध मानमात्र के अनुभवरूप चिन्तामणि रत्न है. इसमें कोई धोखा नही है। भावार्थ-जैसे किसी पुण्यात्मा जीव के हाथ चिन्तामणि रत्न पड़ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा-अधिकार १२३ जाए, जिसमे उसके सभी मनोरथ पूरे होते हैं तो वह व्यक्ति नोहे, तांबे या चांदी इत्यादि धातुओं का संग्रह नहीं करता। उसी प्रकार सम्यग्दष्टि जीव के पास शुद्ध स्वरूप के अनुभव रूप चिन्तामणि रत्न है जिसमें सभी को का क्षय होना है और परमात्मा को प्राप्ति होती है। अतीन्द्रिय मख की प्राप्ति होती है। ऐसा सम्यग्दष्टि जोव शभ-अशभरूप अनेक क्रियाओं के विकल्प का मग्रह नहीं करता जिनमें कोई कार्य सिद्धि नहीं होती। शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूपो चिन्तामणि रत्न की महिमा वचन गोचर नही है और वह परमपूज्य है ॥१२॥ पालिका अनुभव चिन्तामणि रतन, जाके हिय परकाश। सो पुनीत शिवपद लहे, बहे चतुर्गति बास ॥ दहे चतुर्गति बाम, प्रास धरि क्रिया न महे । नतन बंध निगेधि, पूर्वकृत कर्म बिहणे ॥ ताके न गिग विकार, न गिण यह भार, न गणु भव । जाके हि माहि रतन चितामगि अनुभव ॥१२॥ वसंततिलका इत्यं परिग्रहमपास्य समस्तमेव मामान्यतः स्वपरयोरविवेकहेतुं । प्रहानमुज्झितमना अधुना विशेषाद्भूयस्तमेव परिहर्तुमयं प्रवृत्तः।। जीव का कर्म मे एकत्वबुद्धिम्प जो मिथ्यात्व है वह कैसे छुटे, ऐसा जिनका अभिप्राय है उनको ग्रन्थकर्ना यहां मे आरम्भ करके कुछ विशेष कहने का उद्यम करेंगे । जितने भी परद्रव्यम्प परिग्रह है उनके भिन्न-भिन्न नामों के विवरण सहित छोड़ने अथवा छुड़वाने के लिए अभी तक जो कुछ कहा वह ऐसे है कि जितनी भी पुदगल मामग्री कर्म की उपाधि से प्राप्त है, परद्रव्य है, सो त्यागने योग्य है ।सा कहकर परद्रव्य का त्याग कहा। अर्थात् जितना परद्रव्य है उनना सब त्याज्य है। क्रोध परद्रव्य है, इसलिए त्याज्य है, मान परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है, इन्यादि । एमी नम्ह भोजन परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है, पानी पीना परद्रव्य है इसलिए त्याज्य है । परद्रव्य परि. ग्रह शुद्धचिद्रूप-वस्तु और द्रव्यकर्म, भावकम तथा नोकमं के एकत्वरूप संस्कार का कारण है। भावार्थ- मिथ्यादष्टि जीव की जीव और कम में एकत्त्व बुद्धि है। इसलिए मिथ्यादृष्टि जीव में परद्धव्य का परिग्रह घटित होता है। सम्यक Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलग टीका दृष्टि जीव को भेद बुद्धि है, इसलिए परद्रव्य का परिग्रह उस के नहीं घटना । हम विषय का यहां में लेकर कथन करंगे ॥१३॥ मया.. प्रातम स्वभाव परभावकीन द्धिताकों, जाको मन मगन परिग्रहमें रह्यो है। ऐमो प्रविवेक को निधान परिग्रह राग, नाको न्याग हालों समुन्धरूप को है। प्रब निज-पर भ्रम दूर करिवेको काज, बहरो सुगुरु उपदेशको उमग्यो है। परिग्रहमा परिपह को विशेष अंग, कहिवेको उद्यम उदार लहलह्यो है। दोहा-त्याग जोग परवस्तु मब, यह सामान्य विचार । विविध वस्तु नाना विति, यह विशेष विस्तार ॥१३॥ स्वागता पूर्वबद्धनिजकर्मविपाकाद् मानिनो यदि भवत्युपभोगः । तद्भवत्वय च रागवियोगान्नूनमेति न परिपहनावम् ॥१४॥ जहां मे जीव सम्यक्ष्टि हुआ वहां से विषय सामग्रो में राग-द्वेषमोह से रहित हो गया इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव के कदाचित् शरीरादि सम्पूर्ण भोग सामग्री हो तो हो और वह उस सामग्री को भोगता भी हो परंतु यह निश्चय है कि वह विषय सामग्री के स्वीकार के अभिप्राय को नही प्राप्त होता। कोई प्रश्न करे कि मे वैरागी-सम्यग्दष्टि जीव के विषय सामग्री होती क्यों है ? उत्तर- सम्यक्त्व उपजने से पहले जीव मिश्यावृष्टि था, रागी था। उस गगभाव से जो अपने प्रदेशों में ज्ञानावरणादि के रूप में कार्माण वगंणा का बन्ध किया था उसके पककर उदय में आने में विषय सामग्री होती है। भावार्थ--राग-देष-मोह के परिणामों के मिट जाने पर द्रव्यरूपबाहरी सामग्री भांग बंध का कारण नहीं है, वह तो पहले से बंधे हुए कर्मों की निर्जरा है ।।१४।। चौपाई प्रब करम उदरस भंजे। ज्ञान मगन ममता न प्रपंजे।। मनमें उदासीनता लहिये । यो तुष परिपहवंत न कहिये ॥१४॥ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा-अधिकार १२५ स्वागता वेद्यवेदकविभावचल वादेयते न खलु काभितमेव । तेन कामति न किञ्चन विद्वान् सर्वतोऽप्यतिविरक्तिमुपंति ॥१५ इस प्रकार कर्म के उदय से जो नाना प्रकार की सामग्री मिलती है सम्यकदृष्टि जीव उसकी किचित् आकांक्षा नहीं करता। कर्म को सामग्री में में कोई सामग्री जीव के लिए सुख का कारण है, ऐसा नहीं मानता है। मभी सामग्री दुख का कारण है, ऐसा मानता है। सम्यग्दृष्टि जोव सभी कमंजर्जानन सामग्री का मन-वचन-काय को त्रि-शुद्धि के द्वारा, सर्वथा त्यागरूप परिणमन करता है क्योंकि, यह निश्चय है कि जिसकी आकांक्षा करे वह मिलता नहीं । जिस वस्तु या सामग्री की वाछा की जाए और वांछारूप जीव के अशुद्ध परिणाम दोनों ही अशुद्ध, विनश्वर और कर्मजनित हैं। क्षणक्षण में और मे और होते रहते हैं। चिन्तता कुछ है, होता कुछ और है। भावार्थ-अशुद्ध रागादि परिणाम और विषय सामग्री दोनों ही समयसमय पर नष्ट होते हैं इसलिए जीव का स्वरूप नहीं है। इसलिए सम्यकदष्टि जीव के ऐसे भाव का सर्वथा त्याग है। इस प्रकार सम्यग्दष्टि के बन्ध नहीं है, निर्जरा है ॥१५॥ संबंया-जे जे मनवांछित विलास भोग जगत में, ते बिनासीक सब राम रहत हैं। और जेजे भोग प्रभिलाष चित परिणाम, ते ते बिनासीक पाररूप हूबहत हैं। एकता न बुहों माहि ताते वांछा फरे नाहि, ऐसे भ्रम कारिजको मूरख बहत है। सतत रहे सचेत परसों न करे हेत, यात मानवंत को प्रबंधक कहत है ॥१५॥ स्वागता मानिनो न हि परिग्रहमा कर्मरागरसरिक्ततयंति । रङ्गयुक्तिरकवायितवस्त्रे स्वीकृतंव हि बहिलठतोह ॥१६॥ सम्यग्दृष्टि जीव के जितनी भी विषय सामग्री अथवा उसको भोगने की क्रिया है, उनका ममतारूप स्वीकारपना निश्चय से नहीं है। कर्म की मामग्री को अपना जानने में जो उसमें रजने के (गुब पाने के) परिणाम Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ समयसार कलश टाका होते हैं उनके वेग से सम्यग्दृष्टि जीव रोता है। इसका दृष्टांत इस प्रकार है- जसे यह सारे लोक में प्रकट है कि जिस कपड़े में फिटकरी की लांद नहीं लगी है उसमें मजीठ के रंग की डबट्टा कर लेने पर अथवा उसका सयोग करने ग भी उस पर लाल रंग नहीं चढ़ता, बाहर ही बाहर फिरता रहता है। भावार्थ- सभ्यवदृष्टि जीव के पंचेन्द्रिय विषय सामग्री है और उसको वह भांगना भी है परन्तु उसके अनग्ग में राग-द्वेष मोह भाव नहीं है इसलिए कर्म का बन्ध नहीं होता. निजंग होती है ||१६|| सर्वया - जैसे फिटको लोद हरडे की पुट बिना, स्वेत वस्त्र डारिये मजांठ रंग दोर में । भीग्या रहे चिरकाल मदया न होइ लाल, मेदे नहि अन्तर मफेदी रहे चीन में ॥ तैसे ममferaन्त रागद्वेष मोह बिन, रहे निशि वासर परिग्रह को भोर में । पूरब करम हरे नूतन न बन्ध करे, जावे न जगत सुखराचे न शरीर में ||१६|| स्वागता ज्ञानवान् स्वरसतोऽपि यतः स्यात्पर्वरागरसवज्र्जनशीलः । लिप्यते सकलकर्मभिरेषः कम्मंमध्यपतितोऽपि : तो न ॥ १७॥ इस प्रकार जो जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभवशील हैं उनका विभाव परिणमन मिट कर द्रव्य का शुद्धताम्प परिणमन हुआ है । इसलिए समस्त राग-द्वेष-मोहरूप परिणामों के अनादिकाल के सम्कारों से उनका स्वभाव रहित हो गया है। इस कारण में यद्यपि सम्यग्दृष्टि जीव कर्म के उदय से प्राप्त होने वाली अनेक प्रकार की भांग सामग्री (पचेन्द्रियों के द्वारा भोगी जाने वाली सामग्री) का भोग करता है, सुख-दुख पाता है, तो भी आठों ही प्रकार के ज्ञानावरणादि कर्मों को नहीं बांधता है । भावार्थ - चूंकि अंतरंग चिकना नही है, इसलिए बंध नहीं होता, निर्जरा होती है ॥ १७ ॥ सर्वया - जैसे काह देशको वर्तया बनत नर, जंगल में जाई मधु छता को गहन है। बाको लपटाय हुं प्रोर मधुमक्षिका पं, कंबल की प्रोड सों प्रशंकित रहत है । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निबंरा-आंधकार तैसे समकितो जोब सत्ताको स्वरूप साये, उको उपापो को समाधिमी कहत है। पहिरे सहज को सनाह मन में उछाह, ठाने मुम्ब राह उबवेग न राहत है। दोहा-मानीमान मगन रहे, राग.विक मल खोय। चित्त उपास करनो करे, कर्मबन्ध नहि होय ॥ मोह महातम मल हरे, घरे मुमति परकाम । मुक्ति पंच परगट करे, दीपक ज्ञान शिलाम ॥१७॥ शार्दूलविक्रीडित याहक तागिहास्ति तस्य वशतो यस्य स्वभावो हि यः कत्तुं नव कपंचनापि हि परंरन्यादृशः शक्यते । मनानं न कदाचनापि हि भवेत् ज्ञानं भवेत्सन्ततम् मानिन् भुभव परापराधजनितो नास्तीह बन्धस्तव ॥१८॥ यहां कोई प्रश्न करे कि कोई सम्यग्दृष्टि जीव परिणामों से तो शुद्ध है, परन्तु पंचेन्द्रिय के विषयों को भोग रहा है, सो भोगते हुए उसके कर्म का बन्ध है कि नहीं है ? इसका समाधान है कि उसके कर्म का बन्ध नहीं है। वह सम्यग्दष्टि जोव कर्म के उदय मे जो भोग सामग्री उपलब्ध हुई है उसको भोगता है तो भी उसके ज्ञानावरणादि कर्मों का आगमन नहीं है। भावार्थ-सम्यग्दष्टि जीव के विषय सामग्री का भोग करते हए भी बन्ध नहीं होता, निर्जरा होती है। क्योंकि मम्यग्दृष्टि जीव सर्वथा अवश्य ही परिणामों में शुद्ध होता है। ऐसा ही वस्तु का स्वरूप है। परिणामों की शुद्धता रहते हुए बाहरी भोगसामग्री से बन्ध नहीं किया जा सकता। कोई कहे कि जब सम्यग्दृष्टि जीव भोग भोगता है तो भोग भोगते हुए अशुद्ध परिणाम होते हैं तो वहां रागरूप परिणामों के होने पर बन्ध तो होता ही होगा? सो ऐसा नहीं है-वस्तु का स्वरूप तो यों है कि शुद्ध शान होने पर भोग सामग्री के करने से अशठल्प किया नहीं जा सकता। कितनी ही भोग सामग्री भोगे, शुद्ध शान तो अपने निज स्वरूप अर्थात् शुद्धमान स्वरूप ही रहता है, यह वस्तु का सहज स्वरूप है। जो आत्म द्रव्य शुङ स्वभावरूप परिणमा है वह अनेक प्रकार की मतीत-अनागत-वर्तमान Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܟܪܕ ममयमार कनगटीका कालग मधित भाग मामग्र का भोगतं हा मा विभावमा अधांत अगद गगाटार नही हाना । जीव हव्य न मापनमा मभद स्वर परिणमन किया ? बर माया नाल का नाम क्षण म बनम्बर नहीं है । अब दाटान में बतक का गिद्ध करने । जिम बम्न क; जा मी स्वभाव है, जमा भाग्यमान है य. अनादिनिधन है | जमशन का स्वत स्वभाव है तो वह वन हाहाना है । उगः प्रकार सम्यग्दष्ट कागद परिणाम है ना ही है। म.न. ग्वभाव का और भित्र पर देने को अन्य किसी भी वम्न में किमी मा प्रकार मामथ्यं नही । भावाय ... स्वभाव मे गम्ख श्वेत है। वह काली मिट्टी खाला. या नाली मिट्टी माना है. नाना वणं का मिट्टा नाता है पगल मयर मिट्टी खाकर मद्रा र ग का नहीं हो जाना, अपने वनरूप मही रहता है वग्न का गा ही महज म्वरूप है। उसी प्रकार सम्यकदाट जीव के स्वभाव गग-दंप-मोह गहन पद परिणाम है।रोमा जीव पर्याप नाना प्रकार की अनक भाग मामग्रा भागता है ना भी उमका अपना अशद परिणाम परिणमन नही हाता। यही वम्न का स्वभाव है। इम प्रकार सम्यग्दर जीव यो का बध नही है. निजंग है ।।१८।। मा... जामें धमको नाशवानको २ पावेश, काम पतंगन को नाश को पल में। नशाकोन भोग न मनेहको मयोग जाम, मोह पन्धकार को वियोग जाके पन में । जामें न तनाई नदि गग कमाई रब, लानो ममता समाधि जोग जल में । ऐसेनान दोपको मिव जगी प्रभंगरूप, निगधार फरीदुगे है पुरगम में । अंसे और नामें तमा हो स्वभाव सर्ष, कोउम्प काहको स्वभाव न गहत है। सेब उज्जल विविष बरणं माटी भो, माटोमा न होसे नित उम्मल रहत है। संसे मानवत नाना भोग परिषह योग, करत बिलास न मानता बहत है। मानकला नो होयाममा सुनो होय, मनी होष भवपिति बनारतो पत॥१८॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नियर-अधिकार १२६ शार्दूलविकाड़ित मानिन् कर्म मनातु कर्तमुचितं किश्चित्तपापुज्यते भुने हन्त न जातु मे परिरक्त एपालि मोः । बन्यः स्यादपमोगतो पनि तकि कामचारोऽस्ति ते मानं सन बस बन्यमेष्यपरषा स्वस्थापरापारभषम् ॥१६॥ सम्यग्दृष्टि जीव किसी भी प्रकार, कभी भी, ज्ञानाबरणादि पुदगल. कर्म शिबाँधने के योग्य नहीं है। भावार्य-सम्यग्दृष्टि जीव के कर्मों का बन्ध नही है तो फिर विषद क्या है? वह वचनों के दाग कहते है। यदि कोई यह बान कर भोग सामगो का भोग अपवा पन्द्रिय के विषयों का सेवन करता है किम कर्म का बध नहीं है की है जीव, गेमा ममम कर भोगी का भोग करना भला नही है। जहाँ भोग सामग्री भोगते भी नानापरणादि कर्मों का बन्ध नही होता वहां सम्यकदष्टि जीव का ऐसा स्वेच्छाचारी बाचरण कंमे होगा--अपितु ऐसा नहीं होगा। भावार्ष.. सम्बन्दृष्टि जीव राग-ष-मोह मे गहन है। वहीं सम्यग्दृष्टि जीव जब सम्यक्त्व छूटने पर मिथ्यात्वरूप परिणमन करता है तो भानावरणादि को का अवश्य बन्ध करता है। इस प्रकार मिप्यावृष्टि होता हवा हो वह रागब-मोहल्प परिणमन करता है, ऐमा कहा है। सम्यकदृष्टि होता हुमा जितने समय प्रवर्तन करता है उनने समय बन्ध नहीं होता । मियादृष्टि होता हुमा अपने ही रोष मे रागादि बारम्प परिणमन के बग मानावरणादि को का बन्ध करता है ॥१६॥ नवंबा-गोनों जामको चित तोलों माहिर होत, बरते मियाब तब मामा बन्यहोहि । ऐतोर सुनके नयो विषय बोलना, बोगनित न की लत विवाह है। दुनो या संत हे समकितवंत, महतो एवंत परमेपरही है। सिविल होहि अनुगौला पारोहि, मोल मुसोहि होहि ऐसी मति सोही है। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० ममयसार कलश टीका गोपाई-मानकला जिमके घट बागो, से ज्ग माहो महज बरगी। मानी मगन कि मुन्ब माहो, यह विपरीत मंभवं नाहीं ॥१६॥ शालविक्रीडित कर्तारं म्वफलेन यत्किल बलात्कमव ना योजयेत् कुर्वाग्ग: फलिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मरणः । जानं मंम्तदपाम्तरागरचनो नो बध्यते कर्मग्गा कर्वाग्गोऽपि हि कम तत्फलपरित्यागंकशीलो मुनिः ॥२०॥ जय जिग गम्मष्टि जीव के गट म्वरूप का अनुभव हा है वह नानावग्णादि कमां का नहीं बाधता है। मन प्रकार की कम जानन मामग्री में आमोद जान कर हान बाल जन परिणामा में निवन वह एक मुखाय म्वभाव । यद्यपि वह निश्चय ही कमजनित मामग्री में जो भागम्य क्रिया होती है उसको करना भी.. भागना भी है। भावार्थ ...मम्यकदष्टि जीव के विभावरूप मिथ्या परिणाम मिट गये है ओर अनाकलना के लक्षण म पुन अतीन्द्रिय मम अनुभव गावर हा है। उमन मानमय होकर गगभाव का दूर कर दिया है। कमानत जो बार गनियों को पर्याय ओर पचेन्द्रिय के भाग है व मब आकुलना के लक्षण म यस्म बाप है। सम्यकदष्ट जीव मा ही अनुभव करता है इमलिए जो भी कार माना अथवा असाताप कम के उदय मे इष्ट-कारक अथवा अनिष्टकार मामग्री प्राप्त होती है वह मर मभ्यम्दष्टि जीव के मम्मुख अनिष्टकारक है। बम किसी जीव के अगम कम र उदय में गंग, गोक. दाग्दिरा इत्यादि हो जाए तो वह उन्हें छोड़न को । उनसे बचने को) घना ( अधिक हो प्रयत्न करता है। परतु अशुभ कर्म का उदय होने में वह उनम छटना नहीं है और उम भागना ही पड़ता है। वैसे ही मम्रकदृष्टि जीव को पिछन्ने प्रमानाप परिणामों के आधीन बधे मानारूप अथवा अमाताप कर्मों के उदय मे अनेक प्रकार को विषय मामग्री प्राण हाता है । सम्यग्दृष्टि जोन उन सबका दुखाप ही अनुभव करता है और उनम बचने का पना हो प्रयन्न करता है। परन्तु अब तक अपकधणी न पद नब तक उनका घटना अशक्य है ।ग प्रकार परवन हुआ उनको भोगना है। हृदय Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निजंग-अधिकार में तो अत्यन्न विरक्त है मामा अग्जक और भोग सामग्री को भोगते हए भी उसको कर्म का बन्ध नहीं है. निजंग।। उदाहरणार्थ .. राजा की मेवा आदि में लेकर जितनी भी कमीम को त्रिगाए है उन सब क्रियाजों को जो कोई पुरुष रजक होकर. तन्मय होकर करना है उसको जैसे राजा को मेवा में द्रव्य को प्राप्ति होती है, भमि की प्राप्ति होती है, जैसे खेती करने में अन्न की प्राप्ति हानी है चंग कनां गुमरको अवध्य ही क्रिया के फल का मयोग होता है । भावार्थ : जाक्रिया को न करे नी उमको फल को प्राप्ति नहीं होनः । उमी प्रकार मम्यकदांप्ट जोनको बन्ध नहीं होता, निजंग होती है क्योकि मम्यकदाट जीव भांग सामग्री में सन्धित क्रियाओं का कना नहीं है मलिए उसे प्रिया का फन्न नहीं है। इस प्रकार दादांत के हाग यह दया मं गप्टि जीयक नहीं होना । हम प्रकार. पल की अभिलाषा जा का पर्वाचन नाना प्रकार की क्रियाए करता है वही 'गुगल कि पल का पाता है। भावार्थ जी काई पुरुष निर्गभलाव होकर पिया करना है उमका फिर किया का फल नही है ॥२०॥ चौपाई -मूह कर्म को कर्ता हो । फल भिलाव परे फल गोवे ।। मानो क्रिया करे फल मूनो। लगे न लेप निजंग दूनी ।। दोहा बंधे कर्ममों मर ज्या, पाट कोट तन पेम । ___म्बुले कर्ममों मर्माकतो. गोरख धंदा जेम ।।२०।। शार्दूलविक्रीडित स्यक्तं येन फलं म कर्म करने नेति प्रतीमो वयं, किन्यस्यापि कुतोऽपि किञ्चिदपि तत्कर्मावशेनापतेत् । तस्मिन्नापतिते स्वकम्पपग्मजानम्वभाव स्थितो मानी कि कुम्नेय किन कुरुने कम्मति जानाति कः ॥२१॥ हम ऐसी तो प्रतीति न कर किजिमका कर्म के उदय में भाग मामग्री प्राप्त हुई है, परन्तु उसमें जिसने सर्वथा ममत्व छोड़ दिया है, ऐसा सम्पकदृष्टि जीव मानावरणादि कर्मों का बन्ध करता है। भावार्य-जो कर्मक उदय में उदासीन है, उमको कर्मों का बन्ध नहीं होना-कमों को निराहोती।।परन्त यह विशेष बात है किसम्यकदृष्टि को भी पहने नई हुए मानावरमादि कमों के उदय में पंचनिन विषय Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलशटीका भोग क्रियाएं, बिना अभिलाष किए. बरजोरी में प्राप्त होती है। भावार्थजम किमी की गंग, गांक, दारिद्रय बिना उनकी वांछा किए भी प्राप्त होते है वम ही मम्यकदृष्टि जीव की भी जो क्रियाएं होनी है बिना ही वांछा के होती है । मम्यकदृष्टि जीव को बरजोरी में भोग क्रियाएं होते हुए भी मम्यकदष्टि जीव अनिच्छक है। कर्म के उदय मे क्रिया करता है, तो क्रिया का करता क्या होगा ? अर्थात् नही होगा। मम्यग्दष्टि जीव भोग रूप क्रिया का करता किमी भी भांति नहीं है। वह तो शायक स्वरूप मात्र है और अपने निश्चल परम ज्ञान म्वभाव में स्थित है ॥२१॥ मया से निज पूरब कर्म उ सुख, भंजत भोग उदास रहेंगे। जे दुख में न विनाप करें, निरवर हिये तन ताप सहेंगे। है जिनके हर प्रातम मान, क्रिया करके फल कोन बहेंगे। से मुविचक्षण नायक , जिनको करना हम तो न कहेंगे ॥२१॥ शार्दूलविक्रीडित सम्यग्दृष्टय एव साहसमिर कतुं समन्ते परं यह ऽपि पतत्यमो भयचलस्त्रलोक्यमुक्तावनि । सर्वामेव निसर्गनिर्भयतया शहां विहाय स्वयं जानन्तः स्वमवध्यबोधवपुर्ष बोधाच्यवन्ते न हि ॥२२॥ जो जीवराशि स्वभाव गुणम्प परिणमो है वह ऐसी, मबमे उत्कृष्ट, वोरता (माहम) करने में ममर्थ है कि महान वम पड़ने पर भी गुट म्बम्प के अनुभव के कारण अपने महज गुण मे चलित नहीं होती। भावार्थ- यदि कोई अनानी ऐमा माने कि जब सम्यकदृष्टि जीव को साता कर्म के उदय में अनेक प्रकार की इष्ट भोग सामग्री प्राप्त है और अमाना कर्म के उदय मे अनेक प्रकार गंग, शोक, दारिद्रय, परीषह, उपमगं इत्यादि, अनिष्ट मामग्री मिली है तो उनको भोगते हुए तो वह गुढ म्वरूप के अनुभव मे चूकना ही होगा। इसका समाधान यह है कि अनुभव मे नही चूकता है । अनुभव नो जमा है वैसा ही रहता है-वस्तु का ऐसा ही म्वरूप है। बज पड़ने पर मब ममारी जीव साहस छोड़ देते हैं. अपनी-अपनो क्रिया करना बन्द कर देते हैं । भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव को उपसर्ग, परी. यह पड़ने पर मान की सुधि नहीं रहती। परन्तु सम्बदृष्टि जीव तो पुर Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जराधिकार चिप का जो प्रत्यक्ष अनुभव करता है वह साश्वत है, मानगुण मात्र ही उमका शरीर है। वह सात प्रकार को शका व भय मे किस प्रकार छूटता है ? तो कहते है कि सम्यग्दष्टि के स्वभाव में हो भय से रहितपना है, उसी के द्वारा उसका भय छूटता है। भावा--सम्यग्दृष्टि जीव के निर्भय स्वभाव के कारग महज ही अनेक प्रकार के परीषह-उपसर्ग का भय नही है। वह सहज ही निर्भय है। इसलिए सम्यग्दष्टि जीव के कम-बन्ध नहीं है, निजंग है ॥२२॥ मया -जमकोसोभातासाता है प्रसाताकर्म, नाके उचं मूरब न माहम गहत है। मुरगनिवासो भूमिवासो प्रो पातालबासी, मबहोको तन मन कंपत रहत है॥ उको उजागे म्यागेखिये सपत भैसे, बोलत निशंक भयो मानन लहत है। महज सुवोर जाको मास्वत शरीर ऐसो, मानी जोब पारज प्राचारज कहत है॥ दोहा-नभव भय परलोक भय, मरण बेदना मात । अनरमा प्रनगुप्त भय, अकस्मात भय सात ॥२२॥ शार्दूलविक्रीडित लोकः शाश्वत एक एप सकलव्यक्तो विविक्तात्मनः विचल्लोकं स्वयमेव केवलमयं पल्लोफयत्येककः । लोको पन्न तवापरस्तरपरस्तस्यास्ति तीः कुतो निःशः सततं स्वयं स सहजं जानं सदा विमति ॥२३॥ सम्यग्दृष्टि जीव स्वभाव ही मे शुद्ध चतन्य वस्तु का निरन्तर रूप से-अतोन, अनागत, वर्तमान काल में---अनुभव करता है, आम्वादन, करता है। अपने आप हो अपने आप का अनुभव करता है। सम्यग्दृष्टि जीव सप्तभय में रहिन है। ऐसे सम्यक्ष्टि जीव को इहलोक भय-परलोक भय कहाँ मे होगा, अर्थात नहीं होता है। हे जीव, जो चिप मात्र है वही नेग लोक है । और जो कुछ भी इहलोक-परलोक-पर्यायरूप है वह नेरा म्वरूप नहीं है। इहलोक अर्थात् वर्तमान पर्याय में यह चिन्ता कि जो भोग मामग्री प्राप्त हुई Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका है वह पूरी पर्याय में अर्थात् पर्याय के अन्न नक रहेगी या नहीं रहेगी, परलोक की चिन्ता--कि मर कर किमी अच्छी गनि में जाऊगा या नहीं जाऊंगा-यह कोई जीव के स्वरूप नहीं है । दन्निाा जो चैतन्य लोक है वह निविकल्प है। वह मान म्बा आत्मा का बय दमता है। भावार्थ - जीव गाम्न जानमात्र ही है। चैतन्यलोक अविनाशी है. एक ( अला। गान है और विमान प्राट है। जिमका पाम स्वरूप पर मभिन्ना है. nमा है. भवज्ञान एरप ।। । प्प .नग्य शिमिन पग्मिामा ज्ञान प्रगाह निग्मत। मानम अंग अभंग मंग पर धन इम बमत । छिन भंगुर मंमार दिभव, परिवार भार जम् । जहां उनपनि तहां प्रलय. जासु संयोग वियोग तम् । परिग्रह प्रपंचपरगः पथि, इसमय भय उपजे न चिन । मानी निशंक निकलंक निज, मानरूप निरवंत मित मानचक्र मम साक, जामु अवलोक मोक्ष मुख । इतर लोक मम नाहि नाति जिस माहि दोष दुख । पुन्य मुगति दानार, पाप दुर्गति दुखदायक । दोऊ खन्हित खानि, मैं अम्बन्धित शिव नायक । इहविधि विचार परलोक भय, नाहि ध्यापन करते मुस्यित। जानो निशंक निकतंक मिक, मानरुप निरखंत नित ॥२३॥ गाईलविक्रीडित एषकेव हि वेदना यदचलं ज्ञानं स्वयं के है। निर्भोदितवेघवेदकवलादेकं सदानाकुलः ॥ नवान्यागतवेदनं हि भवेतदीः कुतो मानिनो निःशङ्कः सततं स्वयं स सह ज्ञानं सदा विन्दति ॥२४॥ सम्यग्दष्टि जीव स्वग ही नजर... त्रिकाल प--- अपने स्वभाव मे उत्पन्न ज्ञान अर्थात जीव के जवारा अनुभव करता है, स्वाद लेता है। सम्यग्दृष्टि जीव मान प्रकार के भय से मुक्त होता है । उमको वेदना का भय कहा से हो.---अर्थात नहीं होता। जो पुरष मदा भेदज्ञान में युक्त हैं वे पुरुष निश्चय ही ऐसा अनुभव करते हैं और इसलिए अन्य कर्म के उदय से हुई सुखरूप अथवा दुःखरूप वेदना मे अलग हैं, जो जीव को है ही नहीं। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्जरा अधिकार मान शाश्वत है, एकल्प है, अभेद है। अपनो सामयं मे उसका जो वेदन करता है, वही वेदन कर्ता है। भावार्थ-जीव का स्वरूप ज्ञान है जो एकका है । साना-असाता कर्मों के उदय मे जो मुख-दुन कप वेदन होता है, वह जीव का ग्वरूप नही है इसलिए मम्यकदृष्टि जीव को रोग उत्पन्न होने का भय नहीं हाता ॥२४॥ वर्ष-वेदनहारो जोव, जाहि वेदंत सोउ जिय । एह बेदना अभंग, सो तो मम प्रंग नाहि विय। करमबेदना दिविष, एक सुखमय दुतीय । रोउ मोह विकार, पुरगलाकार बहिर्मत। बब यह विमान में परत, सबनबेदना भय विक्ति । मानी निशंक निकलंक निज, मानरूप निरखंत नित ॥२४॥ शाईनविकीडित यसबाशमुपैति तग्न नियतं ज्योति वस्तुस्थितिहनिं सत्स्वयमेव तत्किल ततस्त्रातं किमस्यापरः । अस्यात्राणमतो न किञ्चन भवेत्तीः कुतो मानिनो निःशरः सततं स्वयं स सहजंहानं सदा विन्दति ॥२५॥ सम्यकदृष्टि जीव उस शुद्ध स्वरूप का त्रिकालरूप में अनुभवन करता है, आस्वादन करता है, जो ज्ञान निरन्तर वर्तमान है, अनादि निधन है और बिना कारण द्रव्यल्प है। मेरा कोई रक्षक नहीं है--सम्यकदृष्टि जीव ऐसे भय में रहित है। सम्यकदृष्टि जोव को मेरा कोई रक्षक है या नही सा भय क्यों होगा. अपितु नहीं होगा। इस कारण मे जीव वस्तु के परमाणुवात्र भी अरक्षकपना नहीं है। क्योंकि जो कुछ सना म्वरूप वस्तु है वह तो विनाश को प्राप्त नहीं होती। इस कारण से वस्तु का अविनम्वरपना निश्चय ही प्रगट है। जीव का शुद्ध स्वरूप महज हो सता रूप है। इसलिए किमी द्रव्यानर के भय में उसकी रक्षा कोई क्या करना ? । भावार्थ--मेरा रक्षक कोई है या नहीं ऐसा भय मम्यकदृष्टि जीव को नहीं होता इसलिए ऐसा अनुभव होता है कि शुरु स्वरूप सहज ही शाश्वत है इसका कोई क्या रखेगा ॥२५॥ बर्ष-गोस्ववस्तु सत्ता स्वल्प, जगमाहि त्रिकालगन । तास पिनास होय, सहत निश्चय प्रमाण मत । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश रोका मो मनपातम परब, सरपवा हि सहाब पर। तिहि कारण रकम होय भनकम कोष पर । जब यह प्रकार निरधार किय, तब मनरमा भय नसत। मानी निशंक निकलंक मिन, मानम्प निरखत नित ॥२५॥ शार्दूलविक्रीड़ित म्वं रूपं किल वस्तुनोऽस्ति परमा गुप्तिः स्वरूपे न य छतः कोऽपि परः प्रवेष्टुमकृतं मानं स्वरूप नुः । प्रस्थापितरतो न काचन मवेतीः कुतो मानिनो निशः सततं स्वयं स महणं गानं सरा विम्मति ॥२६॥ मम्यकदृष्टि जीव उम शुद्ध चैतन्य वस्तु का निरनर अनुभवन करता है. जो अनादि मिड है, गुरु वस्तु स्वरूप है तथा अखंड धाराप्रवाह रूप है । वस्तु का जनन में रम, नहीं तो कोई चुरा लगा, सम्यकदृष्टि जीव ऐसे अगुप्ति (अमुरमा) के भय से रहित है। जिस कारण शुर जीव को किसी प्रकार का अगुप्तिपना नहीं है । सम्यकटि जीव को हमारा कुछ कोई छीन न ले ऐसा अप्निभय कहाँ से हागा - अर्थात् नहीं होगा। निश्चय ही जो कोई द्रव्य है उसके जो कुछ निज लक्षण हैं वे सर्वथा प्रकार गुप्त (मुरक्षित) हैं। अस्तित्व की दृष्टि में कोई दव्य किसी अन्य द्रव्य में संक्रमण होने में (प्रवेश करने में) समर्थ नही है। आत्म द्रव्य चैतन्य स्वरूप बमानस्वरूप है अनन्य न तो किसी का किया हबा है न कोई उसको हर सकता है। भावार्ष-सब जीवों को ऐसा भय हो रहा है कि हमारा कोई कुछ पुरा लेगा, छीन लेगा सो सा भय सम्यकदृष्टि को नहीं होता। क्योंकि सम्यकदृष्टि ऐसा अनुभव करता है कि हमारा तो शुर पैतन्य स्वरूप है उसको तो कोई चुरा सकता नहीं, छोन सकता नहीं। वस्तु का स्वरूप मनादि-निधन है ॥२६॥ वर्ष-परम रूप परतच, बासु लन्चन चिन् मंरित। पर परवेश तहं माहि, माहि महिनगम पति ॥ सो ममम अनूप, यकृत बनषित बटूट पर। ताहि पोर किम गहे, गेर महिलहे और बन ॥ चितवंत एमपरि म्यानबब, तबसमय पवित। मानी निक नितंक निव, जानन निरसंत नित ॥२६॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरा-अधिकार मालिपिजीड़ित प्रायोज्येषनुवाहरन्ति मरणं प्राणः किलस्यालको मानं तत्त्ववमेव मास्वततया मोजितने जातुचित । तस्यातो मर न किचन मवेतमीः कुतो मानिनो निःसरः सततं स्वयं स सह मान सा विनति ॥२७॥ सम्पदृष्टि बीब उस मान अर्थात् शुरु पैतन्य बस्तु का निरन्तरता से स्वाद मेता है वो बनादि सिद्ध है. बबण धारा प्रवाह रूप है और बिना सरप सहब ही निष्पम है। सम्यकदष्टि जीव मरण के संका रोष (भय) से रहित है, परीर के नाम के विचार से निःषक है। क्योंकि मात्म-सम्म के प्राणों का बनान-किषित भी वियोग नहीं होता और इसीलिए सम्पष्टिको मरन का भय कहां से होगा ? अपितु नहीं होगा। इनिय, बन, उपास, बाबु ऐसे जो प्राण है उनके बिनाश को मरण कहते है-ऐसा बरहतव में कहा है। परन्तु बीबदम्य का तो निश्चय ही शुटतन्यमात्र प्राण है। र मान किसी भी काल में विनष्ट नहीं होता । वह बिना ही यन्न विनश्वर है। भावा-सब मिप्यादृष्टि जीवों को मरण का भय होता है । सम्यक्. दृष्टि बीच ऐसा अनुभव करता है कि मेरा र बैतन्यमान स्वस्म है उसका विनास नहीं है। प्राणों का विनाश होता है यह तो मेरा स्वरूप हो नहीं, पुदगल का स्वरूप है। इसलिए मेरा मरण होता हो तो मेंट, ऐसे कैसे -मेरा स्वरूप तो शाश्वत है ॥२७॥ -फरसबीन मासिका, नयनमा पालपाति। मन, सनत तीन, स्वास रस्वासमा विति। जान प्राण संयुक्त, बीब सिंह कालम बोले। बहरित महिमरल भय, भय प्रमाण जिनवर पवित। पानी निक निब, बागम्य निरत गित ॥२०॥ सानावितरित एमालमनाचनतम सि कितत्वतो वारसारित सव हिमवेलास तीवोदयः । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ समयमार कलश टोका तन्नाकस्मिकत्र किचन मवेतभीः कुतो ज्ञानिनो । निःशंकः सततं स्वयं स सहजं ज्ञानं सदा विन्दति ॥ २८ ॥ सम्यकदृष्टि जीव उम शुद्ध चैतन्य वस्तु का त्रिकाल में भास्वादन करना है जो महज ही उपजा है, अबड धारा प्रवाह रूप है और बिना उपाय किए ऐसी ही वस्तु है । सम्यकदृष्टि जीव विचारता है कि शुद्ध चैतन्य जिसका लक्षण कहा है. उसका अकस्मात् एक वस्तु अन्य वस्तु होना है ही नहीं । इसलिए सम्यकदृष्टि जीव को अकस्मात् अनिष्ट हो जाने का भय कहां में होगा ? अपितु नहीं होगा। शुद्ध जीव वस्तु अपने सहज भाव में जितनी है उननी है, जैसी है वैसी है। जितनी भी अतीत, अनागत, वर्तमान काल गोचर है उसमें निश्चय में ऐसी ही है। शुद्ध वस्तु में और कंसा भी स्वरूप नहीं होता है। ज्ञान विकल्प मे रहिन है, उसका न आदि है न मन्त है, वह अपने स्वरूप में विचलित नहीं होना और निष्पन्न है ||२८|| . वर्ष- शुद्ध बुद्ध प्रविरुद्ध महज सुसमृद्ध सिद्ध सम । प्रन्नख प्रनादि अनंत, प्रतुल प्रविचल स्वरूप मम । चिदविलास परकाया, वीत विकलप सुख थानक । जहां दुविधा नहि कोड, होइ तहां कछु न प्रचानक । जब यह विचार उपजंत तब, प्रकस्मात भय नह उदित । ज्ञानी निशंक निकलंक निज, ज्ञानरूप मिरवंत नित ||२६|| 9 मंदाक्रांता टंकोत्कोस्वरसनिचितज्ञानसर्वस्वमाजः सम्बग्दृष्टेयदिह सकलं घ्नन्ति लक्ष्मासि कर्म । तत्तस्यास्मिन्पुनरपि मनाक कर्म्मणो नास्ति बन्धः सूर्योपासं तदनुभवतो निश्चितं निर्जव ॥ २६ ॥ जिस जीव ने शुद्ध रूप परिणमन किया है उसमें विद्यमान जो निःशंकित, निकाक्षिन, निविचिकित्सा अमूढदृष्टि, उपग्रहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, तथा प्रभावनांग ये आठ गुण हैं व ज्ञानवरणादि अष्ट प्रकार के पुद्गल द्रव्यों के परिणम का हनन कर देते है । अतः, 1 ' : भावार्थ- सम्यकष्टि जांव के जा भी कोई गुण हैं, वे सब सुद्ध परिणमन का है इसलिए उनसे कनेक निर्जरा है । इस लिए सम्यकदृष्टि 1 Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वरा-अधिकार १३९ जीव के शुरु परिणाम के होते हुए ज्ञानावरणादि कर्म का सूक्ष्म मात्र भी बंद कभी नही है । सम्यक्त्व के उपजने से पहले अपने अज्ञान परिणामों केास जो कर्म वाध य उन ज्ञानाबरणादि कमांक उदय का भोगता है। ऐसे सम्पकदृष्टि जीव क निश्चय ही ज्ञानावग्णादि कर्म गलते हैं । सम्यकदृष्टि जीव वह है जो उग जोवद्रव्य का अनुभव करने में समर्थ है जो "व" "पर" ग्राहक सानो पता है गाणं मपूर्ण, आर प्रकाश गुण ही जिसका आदि भूल है। एमा जा सम्यकदृष्टि जीव है उसके नए का का बन्ध नही है, पूर्ववड कर्मों का निचरा है ॥२६॥ छप्प---जो परगुरण त्यागत, शुस निज मुरग गहंत ध्रुव । विमल मान कर, जाम घट माहि प्रकाश ।। जो पूरब कृतकर्म, निर्जरा पारि बढ़ावत । जो नव-वन्य निगेधि मोल मारग मुल धावत ।। निःशकिनादि जम प्रष्ट गुरग, प्रष्ट कर्म प्ररि संहरत । मो पुरुष विचक्षण तास पद, बनारमो वन्दन करत ॥२६॥ मंदाक्रांता रुन्धन्बन्ध नवमिति निजैः सङ्गतोऽष्टाभिरङ्ग प्रारबद्धं तु क्षयमुपनन्निजरोज म्भाणेन । मम्यकदृष्टिः स्वयमतिरसादादिमध्यान्तमुक्ती जानं भूत्वा नति गगनामोगरङ्ग विगाह ॥३०॥ जो जीव शद्ध म्वभावरूप परिणमा है वह ज्ञान स्वरूप होकर अपने उम गुद्ध स्वरूप में परिणमन करता है. जा अतीत, अनागत और वनमान काल में गायन प्रगट है। वह जीव के शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है जहां ज्ञान मात्र वस्तु हो दिखाई पड़ती है। अनाकुलत्व लक्षण में यक्न अतीन्द्रिय मम्द को पाकर.जो जानवग्णादि रूप पुदगल पिण हैं और जीव के प्रदगा में एक क्षत्रावगाह हो रहे है उनको मेटता हुआ मम्यकदष्टि जीव धागप्रवाहम्प परिणमन करता है । वह अपने ही निशंकित, नि काक्षित इत्यादि जो आठ अंग कह है और मम्यक्त्व के सारगुण हैं उन्ही भावों में परिणमन करता है। म सम्यकाष्ट जीव का दूसरा काम यह भी होता है कि वह पूर्ववद्ध जो भानावरणादि कर्मों का पुद्गल पिण है Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलर टीका उसकी सता को (गुर परिणामों के प्रगट होने से) मूल से नाश करता संग-पूर्व बनाते सो तो संगीत कला प्रकासे, नवल रोषि ताल तोरत उचारिके। निकित प्रावि अष्टभंग संग-सबागोरि, समता प्रलाप पारि करे स्वर भरिके ।। निबंरा नाव गाजे म्यान मिसंग बाजे, पायो महामन में समापि कि करिके। सत्ता रंगभूमि में मुक्त भयो तिहूं काल, माचे भुवि मरमान स्थान परिके ॥३०॥ ॥इति सप्तम अध्यायः ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम अध्याय aru-अधिकार शार्दूलविक्रीडित रागोद्गारमहारसेन सकलले कृत्वा प्रमर्श जगत् क्रीडन्तं रसभावनिर्भर महानाट्येन व धुमत् । मानन्दामृतनित्यमोजिसहजावस्थां स्फुटनाट्यद् धीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मज्जति ॥ १॥ अब उस शुद्ध जीव का स्वरूप कहते है जो अतीन्द्रिय सुखरूप है, जिसकी अमृत के समान अपूर्व लब्धि है, जो निरन्तर आस्वावनशील है, स्पष्ट अपने शुद्ध स्वरूप को प्रकट करता है, अविनश्वर सत्ता रूप है, जिसका धाराप्रवाह रूप परिणमन स्वभाव है, जो सब दुःखों से रहित है और जो समस्त कर्मों की उपाधि मे रहित है। वह शुद्ध ज्ञान उन ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध को मेट कर प्रगट होता है जो कर्म संसार में गर्जन करते और क्रीड़ा करते दिखाई पड़ते हैं। उस कर्मों के बन्ध मे अहंकार के द्वारा समस्त जीव राशि को अपने वश में किया और वह अनंतकाल से इस संसाररूपी अखाड़े में सारे संसार की जीवराशि को बुद्धस्वरूप से भ्रष्ट करके उसकी राग-द्वेष-मोह रूप अशुद्ध परिणति में प्रगट हो रहा है - संसार की समस्त जीवराशि को अत्यन्त अधिक मोहरूपी मदिरापान करा रहा है। भावार्थ - जैसे कोई किसी जीव को मदिरा पिला कर विकल (बेहोश ) करे मीर उसका सर्वस्थ छीन ले, पद से भ्रष्ट कर दे उसी प्रकार मनादि से लेकर सब जीवराशि राग-द्वेष-मोह के मथुद्ध परिणामों में मतवाली हो रही है जिससे ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध होता है। ऐसे बन्ध को शुद्ध ज्ञान का अनुभव मेटने बाला है इसलिए शुद्ध ज्ञान उपादेय है ॥ १ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ ममयसार कलश टोका संबंया--मोह मद पाइ जिन्हें मंगागे निकल कोने, याही प्रजानबान बिग्द बहन है। ऐमो बंधवोर विकगल महा जाल मम, जान मन्द करे चन्द गह ज्यों गहन है ।। ताको बन्न भंजिवे को घट में प्रगट भयो, उद्धत उदार जाको उद्यम महत है। मोहै मकित मुर प्रानन्द प्रकर नाहि, निरब बनारमी नमो नमो कान है॥१॥ बग्धरा न कर्मबहुलं जगन्नचलनात्मकं कर्म वा न नंककरणानि वा न चिचियो बन्धकृत् । यदक्यमुपयोगभूः समुपयाति रागादिभिः ___स एव किल केवलं भवति बन्धहेतुन रणाम् ॥२॥ जो चेतनागृण है वही मल वस्तु है। गग-द्वप-मोह रूप अशुद्ध परिणामों से एकपना उसकी उमरूप (बधम्प पारणमाता है। यह अशुद्ध परिणामों के माथ एकपना अन्य किमी की महाय बिना, निश्चय से समस्त संसारी जीव राशि का ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध का कारण होता है। प्रश्न-बन्ध का कारण इतना ही है या और भी कुछ बन्ध का समाधान-बन्ध का कारण इतना ही है और कुछ नहीं है । प्रश्न-जानावरणादि कमरूप बधने के योग्य तीन सौ नतालीम राज प्रमाण लोककाश के प्रदंगों में घड़े में घी की भांनि भरी हई जो कार्माण वर्गमा है क्या वह भो बन्ध की कर्ता नहीं है ? समाधान यदि रागादि अशुद्ध परिणाम विना कार्माण वगंणा मात्र मे बन्ध होता तो जो मुक्त जीव उनके भी बन्ध होता। प्रश्न-जो रागादि परिणाम है तो जानवरणादि कर्मों का बन्ध है तो क्या कार्माण वर्गणा को मामध्यं कुछ नही है? . . समाधान-यदि रागादि अगढ भाव नही है तो फिर कार्माण वगंगा की सामर्थ्य कुछ नहीं है। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार प्रश्न-क्या मन-वचन-काय के योग भी बना के कर्ता नहीं हैं ? समाधान-यदि मन-वचन-काय के योग बन्ध के कता होते तो तेरहवें गृणस्थान में जहां मन-वचन-काय का योग है वहां भी कम का बन्ध होता। प्रश्न-यदि रागादि अशुद्ध भाव है तो कर्मों का बन्ध है तो क्या मन-वचन-काय के योग की सामन्यं कल नहीं है? समाधान रागादि अशरभाव नहीं है तो कर्म का बन्ध नहीं है.इसलिये मन-वचन-काय के योग की सामथ्यं कुल नहीं है। प्रश्न-पाच इन्द्रिय-स्पर्शन, रमना, घ्राण. नक्ष श्रोत्र-और छठा मन ये सब भी क्या बन्ध के का नहीं हैं , समाधान- सम्यकदष्टि जीव के पाच इन्द्रिया है, मन भी है और इनके द्वारा वह पुद्गल द्रव्य के गृणा को जानने वाला भी है। यदि पांच इन्द्रियों व मन मात्र में कर्म का बन्ध हाना ना सम्यकदाट जीव के भी बन्ध सिड होता। इसलिए अगर गगादि अगदभाव है ना को का बन्ध है। . प्रश्न-तो क्या पांच इन्द्रियां व छठ मन का मामर्थ्य कुछ नहीं है ? . समाधानः-यदि रागादि अशुद्ध भाव नहीं है तो कम का बन्ध नहीं है इसलिये पांच इन्द्रियों व छठं मन की सामथ्यं कुछ नहीं है। प्रश्न-जीव के सबंध वाले एकेन्द्री आदि शरीर और जीव के संबंध से रहित पाषाण, लोहा, मिट्टी, का मल मे विनाश हाना अथवा उनको पीड़ा पहुंचाना भी बन्ध के करने वाले नहीं है ? समाधान-महामनीवर भालिगी मागं चलते है ओर देव संयोग से सक्ष्म जीवों को बाधा होती है। तो यदि जीव के घान होने मात्र में बन्ध होता तो ऐसे मुनीश्वर के भी बन्ध होता। इसलिए गगादि अपर परिणाम हैं तो कर्म का बन्ध है मात्र जीव घात का मामथ्यं कुछ नहीं है ॥२॥ संबंया-कर्मजाल वर्गरणासों जग में न बंधे जीव, बंधे न कदापि मन-वच-काय जोग सों। चेतन प्रवेतन को हिसा मों न बंधे जीव, बंधन अलख पंच विर्ष विर गेगमों। कमसों प्रबंध मिद्ध जोगमों प्रबंध जिन, हिमामों प्रबंध गाघु जाता निवं भोग मों। इत्याविक वस्तु के बिनापसोंग बंधे जोक, एक रागादि पर उपयोग सो १२॥ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका शार्दूलविक्रीडित लोकः कर्मततोऽस्तु सोऽस्तु च परिस्पन्वात्मकं कर्म तत् ताम्यस्मिन् कारणानि सन्तु चिदचिदम्यापावनं चास्तु तत् । रामादीनुपयोग भूमिमनयन् ज्ञानं भवेत् केवलं वयं मैव कुतोऽप्युपेत्ययमहो सम्यगात्मा ध्रुवम् ॥३॥ हे भव्य जीव ! विभाव परिणामों के उपयोग रहित अथवा चेतनमात्रगुण रूप परिणमता हुआ शुद्ध स्वरूप का अनुभवनशील सम्यकदृष्टि जीब भोग सामग्री को भोगता हुआ अथवा नहीं भोगता हुआ अवश्य निश्चय से ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध नहीं करता है। वह तो मात्र ज्ञान स्वरूप रहता है । १४४ भावार्थ- सम्यकदृष्टि जीव के बाहरी या भीतरी सामग्री जैसी बी बेसी ही है परन्तु रागादि अशुद्ध रूप विभाव परिणति नहीं है इसलिए उसके ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्ध नहीं है । जो समस्त लोकाकाश कार्माण बर्षणा से भरा हुआ है सो जैसा था वैसा ही रहे। मात्म प्रदेशों के कम्पन से उत्पन्न मन, बचन, काय के तीन योग भी जैसे के तैसे ही रहें तथापि कमों का बन्ध नहीं है क्योंकि राग-द्वेष-मोह रूप अशुद्ध परिणाम चले गए हैं। पांच इन्द्रियां तथा मन भी जैसे हैं वैसे ही रहें और पूर्वोक्त चेतन व अचेतन के बात भी जैसे थे वैसे ही रहे तथापि शुद्ध परिणाम होने से कचों काः बन्ध नहीं है || ३ || सर्व कर्मचाल बरगा को बास लोकाकाश मोहि, मम बच काय को निवास गति-म्राउ में । चेतन प्रचेतन की हिला बसे पुद्गल में, वियं-भोग बरते उनके उरभार में ॥ रानाविक शुद्धता प्रशुद्धता है यहे उपादान हेतु बन्ध के याही ते विचरण प्रबंध को राग-द्वेष-मोह नाहि सम्यक् स्वभाव लव की, बढ़ाव में 1 तिहूं काल, झाईसविक्रीडित तथापि न निरर्नशं परितुमिष्यते ज्ञानिनां सदस्यतममेव सा किल निरर्गला व्यावृतिः । 11311 Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार १४५ प्रकामकृतकर्म तन्मतमकारणं ज्ञानिनां द्वयं न हि विरुध्यते किमु करोति जानाति च ॥४॥ नथापि कार्माण वर्गणा, मन-वचन-काय के योग, पांचों इन्द्रिया और मन, जीव का घात, इत्यादि बाहरी मामग्रो कर्मों को बाधने के लिए कारण नहीं हैं । कर्मों को बांधने का कारण तो गगादि का अगदपना है वन्तु का स्वरूप ऐसा ही है। तो फिर भी, जब गद्ध स्वरूप का अनुभव करने वाले सम्यग्दष्टि जीव ने प्रमादी होकर विषयभाग किया तो किया ही। जीव का घात यदि हुआ तो हा हो। मन-वचन-काय को जानबग्न कर निरंकुश प्रवति हई। तब भी उमको कम का बन्ध नहीं है, "मा तो गणधरदेव नहीं मानते हैं। क्योंकि बुद्धिपूर्वक, जानबम कर, अन्नग्ग की कचि पूर्वक विषयकपाय में निरंकुश आचरण निश्चय में, अवश्य हो, मिथ्यात्व रागद्वेष रूप अमद्ध भावों को लिए हए है. इौला कर्म बंध का कारण है। भावार्थ---ऐसी स्थिति के भाव मिथ्यादष्टि जीव के होते हैं सी मिथ्यादष्टि तो कर्मों का कर्ता है ही। सम्यग्दष्टि जीव जी कुछ पूर्व में बंध कमों के उदयवश करता है सो सब अवाठित त्रिया रूप है इसलिए कर्मबध का कारण नहीं है ऐसा गणधरदेव ने माना है और ऐसा ही है। कोई कहे कि भोग सामग्री मिलती तो कर्मो के उदय में है परन्तु मिली हुई भोग सामग्री मेरे अन्तर में महावनी लगती है और सा भी है कि शद्ध स्वरूप का अनुभव होता है और समस्त कमजनित सामग्री का हेय जानता हूं। ऐसा कोई कहता है तो वह झठा है। क्योंकि ज्ञाता भी हो ओर वाछक भी होगेसी दो क्रियाएं विरुद्ध नहीं हैं क्या ? अथांत सर्व या विरुद्ध हैं ॥४॥ सर्वया-कर्मजाल जोग हिंसा भोगसों न बंध 4, तथापि माता उद्यमी बलाग्यो जिन बेन में। ज्ञानदृष्टि देत विव-भोगिन सों हेत दोऊ, क्रिया एक खेत योंतो बनं नाहि जंन में ।। उदय बल उतम गहे व फल को न चहे, निर शान होइ हिरोके नन में। पालम निरुखमको भूमिका मिष्यात माहि, जहाँ न संभारे जीव मोह-नोंद संन में चौपाई-जिय मोह नींद में सो। ते पालसो निरुद्यमी हो। दृष्टि खोलिये जर्ग प्रबोना । तिनि मालस तजि उचम कोना ॥४॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ समयसार कलश टोका वसंततिलका जाति यः स न करोति करोति यस्तु, जानात्ययं न खलु तत्किल कर्मरागः । रागं त्वबोधमयमध्यवसायमाहुमिथ्यादृशः स नियतं म च बन्धहेतुः ॥५॥ जो कोई सम्यग्दष्टि जीव शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है सो सम्यग्दष्टि जीव कमों के उदय में मिलने वाला सामग्री को अभिलाषा नहीं करता है। जो कोई मिथ्यादष्टि जीव कर्मा की विचित्रता में उपलब्ध मामग्री को अपनी जानकर उसकी अभिलाषा करता है वह मिध्यादृष्टि जाव, जीव के शुद्ध म्वरूप को नहीं जानता है। भावार्थ --मिथ्यादष्टि जीव के, जीव के स्वरूप का जानना नहीं घटित होता । जब मा हो वस्तु का निश्चय है, तो यह जो कहा है कि मिथ्यादष्टि कर्ता है.-सो वह कर्ना क्या है । वास्तव में जो कर्मों से प्राप्त सामग्री में अभिलापाम्प चिकना परिणाम है वही कर्म-जनित सामग्री का कपिना है। कोई माने कि कम-जनित सामग्री में अभिलाषा हुई तो क्या और न हुई तो क्या। सोमा नहीं है-अभिलाषा मात्र पूरा मिथ्यात्व परिणाम है-सा कहा है। वस्तुस्थिति ऐसी है कि केवल परद्रव्य मामग्री में अभिलाषा मात्र मिथ्यान्व परिणाम है ऐमा गणधरदेव ने कहा है ।मिथ्यादृष्टि जीव के कर्म-जनित सामग्री में गग अवश्य ही होता है । सम्यकदष्टि जीव के निश्चय ही नहीं होता। वही राग परिणाम कर्मों के बन्ध का कारण होता है । भावार्थ--मिथ्यादृष्टि जीव कर्मों का बन्ध करता है-सम्यकदृष्टि जीव नही करता ॥५॥ संबंया-जब लगि जीव शुख वस्तु को विचारे घ्यावे, तब लग भोगसों उदासी सरजंग है। भोग में मगन तब मानकी जगन नाहि, भोग प्रभिलाषकी दशा मिण्यात अंग है। तातें विवं भोगमें मगनसों मिथ्याति जीव, भोगसों उदाससो समकिति अभंग है। ऐसे जानि भोगसों उदास हं मुकति साचे, यह मन चंग तो कठोतो माहि गंग है ॥५॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार १४७ वसंततिलका सर्व सदंव नियतं भवति स्वकीयकर्मोदयान्मरणजीवितदुःखसोल्यम् । मनानमेतदिह यत परः परस्य, कुर्यात्पुमान् मरण-जीवितदुःख-सौल्यम् ॥६॥ मिथ्यात्व परिणाम का एक अंग दिखाने है---ऐसा भाव मिथ्यात्व होने पर होता है कि कोई पुरुष किमी अन्य पुरुष का प्राणघात करता है या उसको प्राणरक्षा करता है अथवा किसी को अनिष्ट का संयोग कराता (दुख देता) हे या सुख की प्राप्ति कराता है। भावार्थ-अजानो लोगों में एमी कहावत है कि अमुक जोव ने उस जीव को मारा, अमुक जीव ने उस जीव को जिलाया, उस जीव ने उस जीव को मुखी किया, उस जीव को दुखी किया। मी प्रतीति जिस जोव को होती है वह जीव मिध्यादष्टि है, नि:मंदहरूप में जान ला। इसमें कोई धोखा नहीं है। जो समस्त जीव गांश को प्राणघात, प्राण-रक्षा, इष्ट या अनिष्ट संयोग होता है, वह मबका काल में होता है ये सब निश्चय ही उसके आयुकर्म अथवा सानाकर्म अथवा अमाता-कम के उदय में होता है जिनको जोव ने अपने विशुद्ध अथवा सक्लेशरूप परिणामों मे पहले बांधा था। उन्हीं कर्मों के उदय में जीव का मरण अथवा जोबन अथवा दुःख अथवा सुख होता है, ऐसा निश्चय है। इस बात में कोई धोखा नहीं है । भावार्थ-कोई जोव किसी जीव को न मारने में समर्थ है और न जिलाने में समर्थ है । सुखी-दुःखी करने में भी समर्थ नहीं है ॥६॥ संबंया-तिहुं लोक माहि तिहुं काल सब जीवनिको, पूरब करम उद प्राय रस देत है। कोऊरियाऊ परं ऊ प्रल्पाऊ मरं, कोऊ दुली कोऊ सुखो कोऊ समचेत है। याहि में जियाऊं, याहि मारू, याहि मुली करू, याहि दुनो कई ऐसे मूढ़ मान लेत है। याही प्रहं बुद्धिसों न बिनसे भरम मूल, यह मिच्या भरम करम-बन्ध हेत है ॥६॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ ममयसार कलशटोका वसंततिलका प्रजानमेतदधिगम्यः परात्परस्य, पश्यन्ति ये मरगजीवितदुःखसौल्यम् । कम्ाण्यहंकृतिरसेन चिकोर्षवस्ते, मिथ्यादृशो नियतमात्महनो भवन्ति ॥७॥ जो कोई अज्ञानी जीवशि, मिथ्यात्वरूप अशुद्ध परिणामों के कारण नथा अगदपने के कारण अन्य जीव में अन्य जीव का मग्ना-जीना, दुखमुम्न मानते है वे निश्चय में मव प्रकार गे मिथ्यादष्टि (जीव) गांग है। उम मिथ्यादष्टि जीव गांग की कम जनित पर्यायों में रोमी आत्मर्वाद्ध है कि मैं देव ह. मै दुःखी हूं. मै मुखा है। कर्मों के उदय में होने वाली जितनी किया है उनमें एमे मग्न हो रहे हैं कि मैं करने वाला हं. मैंने किया है-- सा अज्ञान . कारण मानते है । एमी मिथ्यादष्टि जीव राशि अपना घात करने वाली है ॥७॥ संबंया ---जहांलो जगतके निवासी जीव जगत में, सर्व प्रमहाय कोउ काहको न धनो है। जमी-जंसी पूरब करम सत्ता बांधि जिन्ह, तमी-सी उदमें प्रवस्था प्राइ बनी है। एते परि जो कोऊ कहे कि मैं जियाऊं मारू, इत्यादि अनेक विकलप बात धनी है। सांतों प्रहं बुद्धिसों विकल भयो तिहुंकाल, डोल निज मातम सकति तिन्ह हनी है ।।७।। अनुष्टुप मिथ्यादृष्टेः स एवास्य बन्धहेतुर्विपर्ययात् । य एवाध्यवसायोऽयमज्ञानात्माऽस्य दृश्यते ॥८॥ मिथ्यादृष्टि जीव के मिथ्यात्वरूप ऐसे परिणाम होते है कि उसने इतने जीव जिलाए, यह भाव ज्ञानावरणादि कर्मों के बन्ध के कारण होते हैं । इसलिए ऐसे परिणाम मिथ्यात्वरूप ही हैं। जिसके ऐसे परिणाम हों कि इसको मारूं, इसको जिलाऊं ऐसे जाव का मिथ्यात्वमय स्वरूप देखा जाता है। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार १४६ चौपाई-मैं करता मैं कोन्हीं कमी। प्रब यों करों कहे जो ऐसी। ए विपरीत भाव हैं जामें। सो बरते मिष्यत्व दसा ।। अनुष्टुप अनेनाध्यवसायेन निष्फलेन विमोहितः । तत्किञ्चनापि नवाऽस्ति नात्माऽऽत्मानं करोति यत् ॥६॥ मिथ्यादष्टि जीव अपने आपको अपने का अनुभव न करके जमी पर्याय है वैमा ही विकल्प करना है। परन्तु वैमा तो तीनों लोक में है ही नहीं। भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव जंमी पर्याय धारण करता है वैसे ही भावों में परिणमन करता है और उम मत्र को अपना आपा जान कर अनुभव करता है। कर्म के स्वरूप को जीव के स्वरूप में भिन्न नही जानता है. ---एक रूप अनुभव करता है। इमको माम. इगको जिलाऊं, इमे मैंने मारा, इसे मैंने जिलाया, इमे मैंने सुखी किया, इमे मैंने दुखी किया ... इस तरह के परिणामों में मतवाला हो रहा है, जो सब झूठे हैं । भावार्थ-- -याप माग कहता है, जिलाया कहता है परंतु वह सब कर्म के उदय के हाथ है उसके परिणामों की सामर्थ्य नहीं है । यह अपने अज्ञानपने के वा अनेक झट विकल्प करता है ॥६॥ दोहा--प्रहबुद्धि मिथ्यादशा, घर सो मिध्यावंत । विकल भयो संसार में, करें विलाप अनंत ॥६॥ श्लोक विश्वादिभक्तोऽपि हि यत्प्रभावादात्मानमात्मा विदधाति विश्वम् । मोहेककन्दोऽध्यवसाय एष नास्तीह येषां यतयस्त एव ॥१०॥ मिथ्यान्व ही जिनका मुल कारण है ऐसे मिथ्यात्वरूप परिणाम (कि इसको मारू, उसको जिलाऊं) जिमके मूक्ष्मरूप में और या स्थूलरूप में नहीं होते वही यतीश्वर (मुनिराज) है। मिथ्यात्व परिणाम मे ही जीव अपने आपको 'मैं देव, मैं मनुष्य, मैं कांधी, मैं मानो, मैं सुखी, मैं दुःखी' इत्यादि नाना रूपों में अनुभव करता है याप वह कमों के उदय में होने वाली समम्न पर्यायों मे भिन्न है। भावार्थ-मिथ्यादृष्टि जीव पर्याय में रत (मग्न) है इसलिए पर्याय Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० समयसार कलश टीका को अपना आप मान कर अनुभव करता है। ऐसा मिथ्यात्व भाव छूटने पर मानी भी सच्चा है और आचरण भी सच्चा है ॥१०॥ परिल्ल-सदा मोह सो भिन्न, सहजचेतन कयो। मोह विकलता मानि, मिथ्यात्वीह रहो। करं विकल्प अनन्त, महंमति पारिक। सो मुनि जो पिर होड, ममत्व निवारिकं ॥१०॥ शार्दूलविक्रीडित सर्वसाध्यवसानमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनस्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्रयमेकमेव तदमी निठकम्पमाकम्प कि शुवज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥११॥ सम्यग्दृष्टि जीव गशि अपने शुद्ध चिद्रूप म्वरूप में स्थिर होता हुआ क्यों न मुख को करे ? अपितु सर्वथा करना है। क्योंकि निज महिमा (रागादि में हित) चेतनागुण का ममूह है। निविकल्प वस्तु मात्र अनुभव गोचर है सभो उपाधियों में हित है। इसलिए मैं माझं, में जिलाऊं, मैं दुखी करूं, मैं मुखो करू, मैं मनुष्य हूँ इत्यादि जितने भी मिथ्यात्वरूप असंख्यात लोक मात्र परिणाम है वे सब हेय है और मिथ्यात्व भाव के होने से हुए है, ऐसा माक्षात विराजमान केवलज्ञानो परमात्मा ने कहा है। जितने भी सत्यरूप अथवा असत्यरूप, शुद्ध स्वरूप मात्र मे विपरीत, मन-वचन-काय के विकल्प हैं उनको सब प्रकार में छोड़ो। भावार्थ-जिसके पीछ कहे गये मिथ्याभाव छूटे उसका समस्त व्यवहार छूटना है । इस प्रकार मिध्यान्व के भाव तथा व्यवहार के भाव एक ही वस्तु है । व्यवहार वही है जिसका विपरीतपना ही अलम्बन है ॥११॥ संबंया-प्रसंख्यात लोक परमान जे मिथ्यात्व भाव, तेई व्यवहार भाव केवली उकत है। बिहके मिथ्यात्व गयो सम्यकदरस भयो, ते नियत लोन पवहारसों मुक्त हैं। निरविकल निरुपाधि प्रातम समाधि, साधिजे सुगुरण मोम पंथकों दुकत है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध-अधिकार तेई जीव परम दशा में पिर रूप हूके, परममें दुके न करमसों रुकत हैं ॥११॥ उपजाति रागादयो बन्धनिदानमुक्तास्ते शुचिमात्रमहोऽतिरिक्ताः । मात्मा परो वा किमु तनिमित्त-मिति प्रगुन्न : पुनरेवमाहुः ॥१२॥ किसी ने विनम्र होकर यह प्रश्न पूछा है कि हे स्वामिन् ! रागतुष-मोह इत्यादि असंख्यात लोक मात्र विभाव परिणाम अशुद्ध चेतनारूप है और ज्ञानावरणादि कर्म बन्ध के कारण है. ऐसा कहा. सुना, जाना और माना। शट ज्ञान तो चेतनामात्र है। ज्योतिस्वरूप जीव वस्तु उन विभाव परिणामों में अतिरिक्त है, अलग है। तो मैं पूछना चाहता ह कि उन रागटेप-मोहम्प अगद परिणामां का करने वाला कोन है --जीव द्रव्य करने वाला है या मोहरूपकम ने परिणमन किया है : अथवा पुदगल द्रव्य का पिट उनका करने वाला है ? इस प्रश्न का पथ के कनां श्री कुन्दकुन्दाचार्य उत्तर देते हैं ॥१२॥ कवित-जे जे मोह कर्म की परिणति, बंध निदान कहो तुम सम्ब। संतन भिन्न शुद्ध चेतनमों, तिन्हको मूल हेतु कहु प्रम्य ॥ के यह महज जीव को कौतुक, के निमित्त है पुगत बन्न । सोस नवाइ शिष्य इम पूछत, कहें सुगुरु उत्तर सुन भम्य ॥१२॥ उपजाति न जातुरागादिनिमित्तमाव-मा:माऽऽत्मनो याति यथार्थकान्तः । तस्मिन्निमित्तं परसङ्ग एव, वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥१३॥ पीछे जो प्रश्न किया था उसका उत्तर इस प्रकार है.. आत्मा किसी भी काल में अपने आप में राग-द्वेष-मोह आदि अशुद्ध परिणामों का कारणरूप परिणमन नहीं करता-सा वस्तु का स्वभाव मवं काल प्रगट है। भावार्ष-द्रव्य के परिणामों का कारण दो प्रकार है : एक उपादान कारण है और एक निमित्त कारण है । उपादान कारण अर्थात् द्रव्य में अन्तगभित जो अपने परिणाम मे पर्यायरूप परिणमन की शक्ति है वह तो उस द्रव्य की उसी द्रव्य में होती है। यह निश्चय है। अन्य द्रव्य का मंयोग पाकर अथवा उसके निमित्त कारण से जो द्रव्य अपने पर्यायल्प परिणमन करता है Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलश टीका वर परिणमन जिम द्रव्य का है उमी द्रव्य में होता है किमी अन्य द्रव्य द्वारा ग्राद्य नहीं-- यह निश्चय है। जैसे मिट्टी घटरूप परिणमती है । घट की उपादान कारण मिट्टी में घटरूप परिणमन करने की शक्ति है। बाहरी निमित्त कुम्हार, चक्र, दण्ड इत्यादि कारण हैं। उसी प्रकार जो जीवद्रव्य अशुद्ध परिणामा-माह-गग-दंप इत्यादि - में परिणमन करता है उसका उपादान कारण है, जीव द्रव्य में अन्नगंभित विभावरूप परिणमन करने की शक्ति, निमिन कारण है दर्शनमोह और चारित्रमोह जो पुद्गल द्रव्य के पिण्ड जीव के प्रदेशों में एक क्षेत्रावगाह में कमंम्प बन्ध है उनका उदय । यद्यपि मोह कर्ममाप पुदगल पिर का उदय अपने निज द्रव्य में व्याप्य-व्यापकरूप है, वह जीव द्रव्य में व्याप्य-व्यापकरूप नहीं है । तथापि मोहकम के उदय होने पर जीव द्रव्य अपने विभाव परिणामम्प परिणमता है। माही वस्तु का म्वभाव है, उममें किमका चाग है। उदाहरणार्थ-जम म्फटिकर्माण की कांनि लाल, पीनी, काली इत्यादि अनेक छवियों में परिणमन करती है उमका उपादान कारण नी है म्फटिकर्माण में अन्नगंभित नाना रूपों में परिणमन करने की शक्ति और निमिन कारण है नाना रंगों के द्रव्य का मंयोग ।।१३॥ संबंया-जैसे नाना परम पुरी बनाइ दोजे हेठ, उज्जल विमल मरिण सूरज करति है। उज्जलता भासे जब वस्तुको विचार कीजे, पुरोको झलकसों वरण भांति-भांति है । से जीव दरबको पुद्गल निमितरूप, ताकी ममता मों मोह मदिरा की भांति है। भेद-जान दृष्टि सों स्वभाव साधि लीजे नहीं, सांची शुद्ध चेतना प्रवाचि सुखशांति है ॥१३॥ अनुष्टुप इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः । रागादोन्नात्मनः कुर्यान्नातो भवति कारकः ॥१४॥ सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्य का स्वभाव पहले कहे अनुसार मानता है और अपने शुद्ध चैतन्य का आस्वादरूप अनुभव करता है । सम्यग्दृष्टि जीव ऐसा अनुभव नहीं करता कि राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणाम जीव Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंध -अधिकार १५३ द्रव्य के स्वरूप हैं और इसीलिए रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता नहीं होता । भावार्थ -- सम्यग्दृष्टि जीव के रागादि अशुद्ध परिणामों का स्वामित्वपना नहीं है इसलिए सम्यग्दृष्टि जीव कर्त्ता नहीं है ।। १४ ।। चौपाई - इह विधि वस्तु व्यवस्था आने । रागादिक निज रूप माने ।। ताते ज्ञानवंत जग मांही। करमबंध को करता नांही ॥१४॥ शार्दूलविक्रीडित इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात् तन्मूलां बहुभावसन्तरि मिमामुद्धर्तकामः समम् । श्रात्मानं समुपैति निर्भर वहत्पूर्णकसं विद्युतम् येनोन्मूलितलन्ध एष भगवानात्माऽऽत्मनि स्फुर्जति ।। १५ ।। प्रत्यक्ष है कि जो जीव द्रव्य अनादिकाल से निज स्वरूप से भ्रष्ट हो रहा था उसने उपरोक्त अनुक्रम मे अपने स्वरूप को प्राप्त किया। स्वरूप की प्राप्ति होने पर उसका पर द्रव्य से सम्बन्ध छटा मात्र अपने आपसे सम्बन्ध रहा। उसने ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गलद्रव्य के पिंड को मूल मत्ता में दूर कर दिया। वह ज्ञान स्वरूप है, अनंत शक्ति का पुज है और उसी रूप निरंतर परिणमन करता है और विशुद्ध ज्ञान से युक्त शुद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। ऐसा जिस आत्मा का स्वरूप कहा है उसका अभिप्राय राग-द्वेष-मोह आदि अनेक प्रकार के अशुद्ध परिणामों तथा उनके बहुविधि भावों की उस परम्परा को जिसका मूल कारण पर द्रव्य में स्वामित्वपना है; एक ही समय में उखाड़ कर दूर करना है। निश्चय ही उसने ज्ञान के बन्न मे द्रव्यकर्म, भावकर्म और नाकर्मरूप जितना भी पुद्गल द्रव्य की विचित्र परिणतियां हैं उन सबको प्रर्वाचित प्रकार से विचार करके ज्ञान स्वरूप में भिन्न किया है। भावार्थ- शुद्ध स्वरूप उपादेय है, अन्य समस्त पर द्रव्य हैय है ।। १५ ।। सर्वथा - ज्ञानी भेदज्ञानसों विलेखि पुद्गल कर्म, ग्रात्मीक धर्मसों निरालो करि मानतो । ताको मूल कारण प्रशुद्ध-राग-भाव नाके, नासिबेकों शुद्ध अनुभौ प्रभ्यास ठानतो ॥। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ समयसार कलश टोका याही प्रनकम पररूप संबंध स्थागि, प्रापमाहि प्रापनो स्वभाव गहि मानतो। माधि शिवचाल निरबंध होत तिहंकाल, केवल विलोक पाह लोकालोक जानतो ॥१५॥ मंदाकांता रागादीनामुदयमदयं दारयत्कारणानां कार्य बन्धं विविधमधुना सच एव प्रणुच । ज्ञानज्योतिः अपिततिमिरं साधु सन्नसमेतत् तद्वद्वत्प्रसरमपरः कोऽपि नास्यावृणोति ॥१६॥ शुद्ध चैतन्य वस्तु म्वानुभवगोचर है । अपने बल पराक्रम से ही (शुद्ध) प्रगट हुई है। शुद्ध ज्ञान का लोक तथा अलोक सम्बन्धी ममस्त श्रेय वस्तुबों को जानने का विस्तार है उसको कोई भी अन्य मग द्रव्य नहीं मिटा सकता। भावार्थ- जीव का स्वभाव केवलज्ञान केवलदर्शन है परन्तु वह नानावरणादि कर्मों के बंध में आच्छादिन है। वह आवरण शुद्ध परिणामों से मिटता है और वस्तू स्वरूप प्रकट होता है। जिसने मानावरण, दर्शनावरण कों का विनाश किया है ऐसा जीव मब तरह के उपद्रवा में रहित है। वह जीव जो राग-द्वेष-मोहरूप अशुद्ध परिणाम बन्ध के कारण हैं उनको निर्दयता मे उखाड़ता हुआ ऐसा होता है। रागादि अशुद्ध परिणामों के होने से जो पुद्गल कर्मों का धारा प्रवाहरूप बंध होता है वह जिस समय मिटते हैं उस समय असंख्यात लोक मात्र जानावरण, दर्शनावरण इत्यादि कर्म भी मिट जाते हैं ॥१६॥ संबंया - जैसे कोउ मनुष्य प्रजान महा बलवान, खोदि मूल वृक्ष को उखार गहि बाहों। तसे मतिमान व्यकर्म भावकर्म त्यागि, ह रहे प्रतीत मति मानकी दशाहों ।। पाहि क्रिया अनुसार मिटं माह अंधकार, जग जोति केवल प्रधान सविताह सों। के न सकतिसों सुकं न पुद्गल माहि. दुके मोक्ष पलको, रुके न फिरि काहणे ॥१६॥ ॥ इति अष्टम अध्यायः ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम अध्याय मोम-अधिकार शिखरिणी द्विधाकृत्य प्रज्ञाक्रकचदलनाद्वन्धपुरुषो नयन्मोक्ष साक्षात्पुरुषमुपलम्भकनियतं । इदानीमुन्मज्जसहजपरमानन्दसरसं परं पूर्ण ज्ञानं कृतसकलकृत्यं विजयते ॥१॥ अब यहाँ से ममस्त आवरण का विनाश करती हुई शुद्ध (चैतन्य ) वस्तु प्रकाशमान होती है, जो आगामी अनन्तकाल नक इसी मप रहती है, अन्यथा नहीं होती है। उस शद्ध ज्ञान ने करन योग्य समस्त कर्मों का विनाश किया है और अनादिकाल में वह छिपा हुआ था....अब प्रकट हुआ है, सहज परमानन्दरूप द्रव्य के स्व-स्वभाव में परिणमन कर रहा है तथा अनाकुलता लक्षणयुक्त अतीन्द्रिय मुख में संयुक्त है। भावार्थ-मोक्ष का फल अतीन्द्रिय मुख है । मकल कर्म का विनाश होने से शद्धत्व अवस्था में परिणमन करके ज्ञान प्रकट होता है। भावार्थ---- यहाँ मे मकल कर्मों के क्षय लक्षण वाले मोक्ष का म्वरूप कहा जाता है। वह शुद्ध ज्ञान उत्कृष्ट है और एक निश्चय स्वभाव को प्राप्त है एवं वह भेदमान प्रतीति के द्वारा उत्पन्न होता है। प्रश्न- शुद्ध जीव द्रव्य को ऐमी भेदज्ञान प्रतीति कैसे होती है कि द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म की उपाधि हैं तथा मभी बंध हेय हैं और शुद्ध जीव उपादेय है ? उत्तर-वह तब होती है जब आगे की तरह भंदज्ञान के द्वारा ऐसा निरन्तर अभ्यास करे कि शुद्ध ज्ञान मात्र जीव द्रव्य है तथा रागादि उपाधियां बंध अशुद्ध वस्तु भिन्न हैं । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ममयमार कलश टोका ___ भावार्थ जैग आरं के बारम्बार चलने में काट जैसी पुदगल वस्तु के दो नगद हो जाते है, उसी प्रकार भंदनान के द्वारा बार-बार जीव नथा पुदगल का भिन्न-भिन्न अनुभव करने में वे भिन्न होते हैं। इसलिए भेदज्ञान उपादय है ॥२॥ दोहा-बंध द्वार पूरण भयो, जो दुःख दोष निदान । प्रब वररणं, संक्षेप सों, मोमवार मुखथान ।। मया--भेदज्ञान प्रागमों दुफारा कर मानी जीव । प्रातम करम धाग भिन्न-भिन्न चर। अनुभौ प्रभ्याम लहै परम धरम गहै, करम भग्मको खजानो खोलि खरचं ॥ योंही मोन मुम्ब घावं केवल निकट प्रावं, पूरग्ग समाधि लहै परमको परवं । भयो निग्दौर याहि करनो न कछौर, ऐमो विश्वनाथ ताहि बनाईस प्ररचे ॥१॥ स्त्रग्धरा प्रजाच्छेत्री शितेयं कथमपि निपुर्णः पातिता सावधान: सूक्ष्मेऽन्तःसन्धिबन्धे निपतति रभसादात्ममोभयस्य । प्रात्मानं मग्नमन्तःस्थिरविशदलसद्धाम्नि चैतन्यपूरे बन्धं चाज्ञानमावे नियमितममितः कुर्वती भिन्नभिन्नौ ॥२॥ 'जीवद्रव्य तथा कर्मपर्यायरूप परिणमित हआ पुदगल द्रव्य का पिंडइन दोनों का एक बंध-पर्यायम्प सम्बन्ध अनादिकाल में चला आया है। सो जीव द्रव्य अपने गद्ध स्वरूप में परिणमन कर, अनंत-चतुष्टय में परिणामत हो एवं पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि कर्मों की पर्याय को छोड़े, जीव के प्रदेशों में मर्वथा अबधरूप होकर यह सम्बन्ध छोड़े अर्थात जीव और प्रदगल दोनों भिन्न-भिन्न हो जाएँ, उमी का नाम मोक्ष है मा कहा है । इस भिन्न-भिन्न होने का कारण मोह-राग-द्वेष इत्यादि विभावरूप अशद्ध परिणति को मिटा कर जीव का गदत्वरूप परिणमन करना है। विवरण शवत्व परिणमन सर्वथा सभी कर्मों के क्षय करने का कारण है । ऐसा शद्धत्व परिणमन सर्वथा द्रव्य का स्वभाव में परिणमन रूप है, निविकल्पम्प है और इसलिए शब्दों में कह सकने की मामयं नहीं है। इस कारण इस रूप में कहते हैं-यो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-अधिकार १५७ ज्ञानगुण जीव को शुद्धस्वरूप के अनुभवरूप परिणमन करवाता है वह मोक्ष का कारण है । इसका समाधान यह है कि जीव के शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप जो ज्ञान है वह जांव के शुद्ध परिणमन को सर्वथा लिए है अर्थात् जिसका शुद्धरूप परिणमन होता है उस जीव को शुद्ध स्वरूप का अनुभव अवश्य होता है. इसमें धोखा नहीं है। इसके अतिरिक्त किसी भी प्रकार से अनुभव नही हो सकता। इसलिए शुद्ध स्वरूप का अनुभव माक्ष का कारण है । यहाँ मिथ्यादृष्टि जीव जो नाना प्रकार के विकल्प करते है उनका समाधान इस प्रकार करते हैं। कोई कहना है कि जीव का स्वरूप और बन्ध का स्वरूप जान लिया तो मोक्षमार्ग हो गया, कोई कहता है कि बन्ध के स्वरूप को जान कर ऐसा चितवन करे कि बन्ध कब मिटंगा, कैसे मिटंगा, ऐसी चिता ही मोक्ष का कारण है । ऐसा कहने वाने जीव झूठ है, मिध्यादृष्टि है । वस्तु स्वरूप ऐसा ही है कि जीव का ज्ञान गुण हो वह छेनी है जिसके द्वारा वह आत्मा के शुद्ध स्वरूप को भिन्न अनुभव करके उसी रूप परिणमन करने में समर्थ है । भावार्थ सामान्यत दो का छेद तो छेनी के द्वारा ही होता है । यहाँ भी जीव और कर्म दो का छेद किया है वह दो रूप छेद करने तथा स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ ज्ञानरूप छैनी है । और तो कोई दूसरा कारण न हुआ है और न होगा। ज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम होने पर और मिथ्यात्व कर्म का नाश होने पर शुद्ध चैतन्य स्वरूप में अत्यन्त पैठ जाने की जिसकी सामर्थ्य है वह प्रज्ञा (ज्ञान) छेनी, यद्यपि चेतना मात्र तथा द्रव्य कर्मो के पुद्गल पिण्ड यानी माह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति दोनों मिल कर एक क्षेत्रावगाह हैं, बंध पर्यायरूप है, अशुद्ध विकाररूप परिणमन कर रहे हैं परन्तु उनमें जो संधि है वे निधि नही हुए है उसमें पैठ कर दानों का भिन्न-भिन्न छंद करती है । भावार्थ - यद्यपि लोहे की छेनी अत्यन्त पैनी होती है तो भी संधि को देखकर उसमें देने से दो को अलग करती है । उसी प्रकार सम्यकदृष्टि जीव का ज्ञान अत्यन्त तीक्ष्ण है इसलिए जीव और कर्म के बीच जो संधि है उसमें प्रवेश करके पहले बुद्धि में अलग कर देता है और बाद में सभी कर्मों का क्षय होने पर साक्षात् अलग-अलग कर देता है । परन्तु जीव और कर्मों के बंध में संधि बड़ी सूक्ष्म है । विवरण - ब्रव्य कर्म हैं - ज्ञानावरणादि पुद्गल के पिण्ड । वह यद्यपि एक क्षेत्रावगाह हैं परन्तु ऐसा विचारने से जीव में भिन्न होने की प्रतीति होती है कि द्रव्य कर्म पुद्गल पिण्ड रूप हैं । यद्यपि वह जीव के साथ एक क्षेत्रावगाह रूप हैं तथापि (उनके तथा जीव के) भिन्न-भिन्न प्रदेश है, पुद्गल पिण्ड अचेतन हैं, बंधे भी हैं I Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० ममयसार कलश टोका और खुले भी हैं-शरीर-मन-वचन रूप नोकम से भी इसी प्रकार विचार करने में भंद की प्रतीति उपजती है। भावकर्म अर्थात् मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध चेतनारूप अशद्ध परिणाम वर्तमान में जीव में एक परिणमनरूप हैं तथा अशुद्ध परिणामों में वर्तमान में जीव से एक परिणमनरूप है तथा अशुद्ध परिणामों में वर्तमान में जोव व्यापप्य-व्यापकरूप परिणमन करता है इसलिए उन परिणामों में भिन्नपने का अनुभव कठिन है तथापि मुक्ष्म संधि का भंद मिलने पर भिन्नता की प्रतीति होती है। जैसे स्फटिकमणि स्वरूप में स्वच्छ वस्तु हैं, लाल-काली-पीली पुरी (पूरक) का संयोग पाकर लाल-काली-पीली रूप में स्फटिकमणि अलकती है परन्तु वर्तमान में भी स्वरूप के विचार से स्फटिकर्माण तो म्वच्छ मात्र ही है। लाल-काली. पोली मलक पर-मयोग की उपाधि है, स्फटिकर्माण का स्वभाव नहीं है। उमी प्रकार जीव द्रव्य का म्वच्छ चेतनामात्र स्वभाव है परन्त अनादि सन्तानरूप मोहकम के उदय से माह-राग-द्वेष कप (रंगों में) अशद्ध चेतना में परिणमन करता है फिर भी वर्तमान में स्वरूप का विचार करें । जीव वस्तु तो चेतना मात्र है। उसमें मांह-गग-द्वेषरूप रंग कर्मों के उदय की उपाधि है, वस्तु का स्वभाव गुण नहीं है। इस तरह विचार करने से भिन्नता की प्रनीति उपजती है जो अनुभव गांचर है। काई पर्छ कि कितने काल तक प्रज्ञा छनी का प्रहार होने से वह जीव और कर्म का भिन्न-भिन्न करती है ? उत्तर-अति सूक्ष्म काल में एक समय में-प्रजा छनी प्रहार कर भिन्न-भिन्न करता है । आत्मानुभव में प्रवीण हैं जो सम्यकदृष्टि जीव और जिनका काल लब्धि पाकर मसार निकट है उनके द्वारा स्वरूप में प्रज्ञा छनी बैठाने से बैठती है । भावार्थ-भेदविज्ञान बुद्धिपूर्वक विकल्प है, ग्राह्यग्राहक रूप है, शुद्ध स्वरूप को भांति निविकल्प नहीं है इसीलिए वह उपायरूप है । वे सम्यक्दृष्टि जीव, जीव के स्वरूप तथा कर्म के स्वरूप के भिन्नभिन्न विचार में जागरूक हैं, प्रमादी नहीं है और वह प्रज्ञा छंनी सभी तरह जीव और कर्म को जुदा-जुदा करती है। वह स्व और पर के स्वरूप को ग्रहण करने वाला प्रकाश गुण का जो त्रिकालगोचर प्रवाह है उसमें जीव द्रव्य को एक वस्तु रूप साधती है। भावार्थ - शुद्ध चेतना मात्र जीव का स्वरूप अनुभव गोचर होता है। रागादिपना नियम से बंध का स्वभाव हैऐसा साधती है । भावार्थ रागादि अशुद्धपना कर्मबन्ध को उपाधि है जीव का स्वरूप नहीं है ऐसा अनुभव में देखने में आता है। चतन्य का अपने सब बसंख्यात प्रदेशों में एक स्वरूप है । वह सब काल में शाश्वत है, शुद्ध स्वरूप Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-अधिकार १५६ है। सब काल में प्रत्यक्ष केवलज्ञान और केवलदर्शन का तेजपज है ॥२॥ सर्वया-काह एक जनी सावधान हं परम पंनी, ऐखि इंनी घटमांहि डार होनी है। पंठि नो-करम मेदि दरब-करम छेदि, स्वभाव विभावताको संषि सोधि लोनी है। तहां मध्यपाती होय लखी तिन धारा बोय, एक मुषामई एक मुषारस भीनी है। मुधासों विरवि सुधासिधु में मगन होय, एतो सब किया एक समय बोधि कोनी है। दोहा-से छनी लोहको, करं एकमों दोय । जड़ चेतन को भिन्नता, त्यों सुबुद्धिसों होय ॥२॥ श्लोक मित्या सर्वमपि स्वलक्षरणवलाद्मेत्तुं हि यच्छक्यते चिन्मुद्रातिनिविभागनहिमा शुद्धश्चिदेवात्म्यहम् । भियन्ते यदि कारकारिण यदि वा धर्मा गुरणा वा यदि मिन्तां न मिदाऽस्ति काचन विभौ मावे विशु चिति ॥३॥ भावार्थ-जिसको शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है उस जीव के परिणाम व संस्कार ऐसे होते हैं कि मैं तो चेतनागुण में चिह्नित तथा जिसकी महिमा भेद रहित है ऐमा शुद्ध चतन्य मात्र हूं। जितनी भी कर्मों के उदय की उपाधियां हैं जिनको यह जीव अनादिकाल में अपना जान कर अनुभव कर रहा था वह सब पर-द्रव्य जान कर उसका स्वामित्व छोड़ने पर शुद्ध स्वरूप का अनुभव होता है। कर्मरूप परद्रव्य को जीव से भिन्न करने के लिए 'जीव का लक्षण चैतन्य है कर्म का लक्षण अचेतन' ऐसा भेद सहायक है। जो यह भेद है कि आत्मा, आत्मा के लिए आत्मा से आत्मा को जानता है, अथवा आत्मा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्यरूप है, द्रव्य गुण-पर्याय रूप है, अथवा मानगुण, दर्शनगुण, सोज्यगुण इत्यादि रूप है ये सब भेद शब्दों में उपजाने से उपजते हैं परन्तु वचनमात्र में ही भेद हैं । चैतन्य सत्ता के विचार से तो कोई भेद नहीं है। निर्विकल्प मात्र चैतन्य वस्तु की सत्ता अपने स्वरूप में अपने बाप ही प्रवृत्त होने वाली एवं सब कर्मों की उपाधि से रहित है ॥३॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० ममयमार कलश टोका संबंया-कोऊ मनभवी जीव कहे मेरे अनुभी में, लमग विमेद भिन्न करमको जाल है। जाने प्राप प्रापकोजु प्रापर्कार प्रापटिष, उतपति नाश ध्रव धाग प्रमगल है। मारे विकलप मोसों न्यारे सरवथा मेरो, निश्चय स्वभाव यह व्यवहार चाल है। में तो शुद्ध चेतन अनन्त चिनमुद्रा धारि, प्रभना हमागे एकरूप तिहं काल है ॥३॥ शार्दूलविक्रीड़ित प्रदेताऽपि हि चेतना जगति चेदृग्नप्तिरूपं त्यजेत् तत्मामान्यविशेषरूपविरहात्माऽस्तित्वमेव त्यजेत् । तत्यागे जडता चितोऽपि भवति व्याप्यो विना व्यापकादात्मा चातमुपैति तेन नियतं दृग्नप्तिरूपास्तु चित् ॥४॥ इम प्रकार चेतनामात्र मता का दर्शन नाम तथा ज्ञान नाम दोनों ही संज्ञाओं में उपदेश होता है। भावार्थ - - सत्त्वरूप चेतना एक है, उसके नाम दा हैं। एक तो दर्शन नाम है, दूसरा ज्ञान नाम है। ऐसा भद होता है तो हो, इसमें कुछ विरोध नहीं है । ऐसा है कि स्व-पर ग्राहक शक्ति एक प्रकाशरूप त्रैलोक्यवर्ती जीवों में प्रकट है तथापि दर्शनम्प चेतना और ज्ञानरूप चेतना ऐसे दो नामों को छोड़ तो तीन दोष उपजते हैं। एक दूसरे में से कोई एक अपने सत्त्व को अवश्य छोड़ते हैं । भावार्थ-ऐसा भाव उपजता है कि चेतना सत्त्व नहीं है क्योंकि सत्ता मात्र में पर्यायरूप का रहितपना हो जाता है। भावार्थ-समस्त जीवादि वस्तु सत्वरूप है और वही सत्व पर्यायरूप है। चेतना भी अनादि निधन, सत्ता स्वरूप वस्तुमात्र और निविकल्प है इसलिए वेतना को दर्शन कहा है क्योंकि यह समस्त श्रेय वस्तु को ग्रहती है और वैसे हो मेयाकार परिणमन करती है इससे चेतना का ज्ञान नाम कहा है। इन दोनों अवस्थाओं को यदि छोड़ दें तो चेतना वस्तु नहीं है ऐसी प्रतोति उपजती है। यहां कोई प्रश्न करे कि चंतना नहीं तो न सही, जोव द्रव्य तो है हो-इसका यह उत्तर है कि जीव द्रव्य चेतना मात्र से सिद्ध होता है । बिना Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-अधिकार १६१ चेतना जीव द्रव्य भी सधंगा नहीं और जो सधेगा तो पुदगल द्रव्य को भांति अचेतन सधेगा । चेतन नहो सधंगा तो दूसरा दोष यह होगा कि चेतना का अभाव होने पर जीव द्रव्य भी पुद्गल द्रव्य को भाति अचंतन है "मी प्रतीति उपजेगी। तीसरा दोष-चेतना गुण के अभाव होने पर सो प्रतीति उपजेगी कि चेतना गुण मात्र है जो जीव द्रव्य वह मूल से जीव द्रव्य नहीं है। यह तीनों दोष मोटे दोष हैं। इन दोषों के भय में ऐमा मानों कि चेतना में दर्शन और ज्ञान ऐसी दोनों नाम संज्ञाएँ विराजमान हैं। ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है ॥४॥ सबंया-निराकार चेतना कहावे दरमन गुरण, साकार चेतना शुद्ध ज्ञान गुण सार है। खेतना प्रदत दोउ चेतन दरब माहि. सामान्य विशेष मत्ता हो को विस्तार है॥ कोउ कहे चेतना चिन्ह नहीं प्रातमा में, चेतना के नाश होत त्रिविधि विकार है। लागको नाश सत्ता नाश मूल वस्तु नाश, नाते जीव दरबको चेतना प्राधार है॥४॥ उपजाति एकश्चितश्चिन्मय एव भावो भावाः परे ये किल ते परेषाम् । ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो भावाः परे मर्वत एव हेयाः ॥५॥ ___ जीव द्रव्य का चंतना मात्र स्वभाव है। निश्चय मे पमा ही है, अन्यथा नहीं है । वह चंतना मात्र भाव निर्विकल्प है, निर्भद है, मवंथा शुद्ध है । निश्चय ही शुद्ध चतन्य स्वरूप में नहीं मिलने वाले जो द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म सम्बन्धी परिणाम हैं वे मब पुद्गल कर्म के हैं, जीव के नहीं हैं। इसलिए शद चेतना मात्र जो स्वभाव है वह जीव का स्वरूप है, "मा अन्भव करना योग्य है और इससे न मिलने वाले जो द्रव्यकम, भाबकर्म, नोकर्म स्वभाव हैं वे सर्वथा प्रकार जीव के स्वरूप नहीं हैं, ऐसा अनुभव करना योग्य है । ऐसा अनुभव सम्यक्त्व है । सम्यक्त्वगुण मोक्ष का कारण है ।।५।। परिल्ल-जाके वेतन भाव चिदानंद सोड़ है। मोर भाव जोपरे सो और कोई है। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका जो चिन मंडित भाव, उपाये जानने । त्याग योग्य परभाव, पगए मान॥ मर्वया जिन्हके सुमति जागी भोगसो भए विरागी, परसंग त्यागि जे पुरुष विभवन में। रागादिक भावनिमों जिनको रहनि न्यारी, कबहू मगन ह न रहे धाम धनमें । जे मदेव प्रापको विचारं मरवांग शुख, जिनके विकलता न व्यापे कहं मन में। तेई मोम मारगके साधक कहावें जीव, भावे रहो मंदिर में भावे रहो बन में ।।६।। शार्दलविक्रीडित मिद्धान्तोऽयमुदात्तचिलचरितर्मोक्षार्थिमि : मेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विबुधा भावाः पृथग्लक्षरणास्तेऽहं नाऽस्मि तोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥६॥ मकल कर्म के क्षय होने से जो अतीन्द्रिय मुख होता है उसको जो जीव उपादेयम्प अनुभव करता है उमे जमा वस्तु का म्वरूप बताया है उसका निरन्तर वैमा ही अनुभव करना चाहिए। मोक्षार्थी जीव के मन का अभिप्राय संसार शरीर भोगों मे रहित है । परमार्थ मे जीव द्रव्य स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है और सर्व काल में ज्ञानस्वरूप है। यह विशेष है कि शुद्ध चैतन्य स्वरूप मे न मिल पाने वाले जो रागादि अशद्ध भाव-शरीर आदि और मुख-दुःख आदि नाना प्रकार की जो अशुद्ध पर्याय हैं वे समस्त जीव द्रव्य के स्वरूप नहीं हैं. वे हमारे शुद्ध चैतन्य स्वरूप में नहीं मिल सकते। इसलिए निज स्वरूप का अनुभव होने पर जितनी भी रागादि अशुद्ध विभाव पर्याय हैं वे मेरे लिए पर-द्रव्यरूप हैं कारण कि वे शुद्ध चतन्य लक्षण से मिलती नहीं हैं इसलिए समस्त विभाव परिणाम हेय हैं ।।। संबंया-चेतन मंडित अंग प्रखण्डित, शुद्ध पवित्र पदारथ मेरो। राग विरोष विमोह दशा, समुझे भ्रम नाटक पुदगल केरो॥ भोग संयोग वियोग म्पया, अवलोकि कहे यह कर्मन घेरो। है जिन्हकों अनुभौ इह भौति, सदा तिनको परमारपरो॥६॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-अधिकार १६३ श्लोक परद्रव्यग्रहं कुर्वन् बध्येतवापराधवान् । बध्येतानपराधो न स्वद्रव्ये संवृतो मुनिः ॥७॥ शद्ध चिद्रप के अनुभव में जो जीव भ्रप्ट है. वह जानावरणादि को को बांधता है। क्योकि वह शरीर-मन-वचन, गगादि अशुद्ध परिणामों में अपनेपन की बद्धि रूप म्वामित्व करता है। कम के उदय के भाव को आत्मा के रूप में नही अनुभव करने वाला.. परद्रव्य में विरक्त सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञानावरणादि कमों के पिण्ड को नहीं बांधना। भावार्थ-जैसे कोई चोर पर वस्न चगता है नो गुनहगार होता है, और गुनहगार होने में बांधा जाता है। उसी तरह मिथ्यादृष्टि जीव परद्रव्यरूप जो द्रव्यकर्म, भावकम तथा नोकर्म हैं उनको अपना जानकर अनुभव करता है। परमार्थ दष्टि में देखा जाए तो वह गुनहगार है। इसीलिए ज्ञानावरणादि कर्मों का बन्धक है। सम्यग्दष्टि जीव गे भावां मे हित है । वह अपने आत्मद्रव्य में संवररूप है अर्थात् आत्मा में ही मग्न है ।।७।। दोहा-जगे पुमान परधन हरे, मो अपराधी प्रज। जो अपनो धन व्यवहरे, सो धनपति मर्वज ॥ पर को संगति जो ग्चे, बंध बढ़ावे मोय । जो निज सत्ता में मगन, सहज मुक्त मो होय । उपजे वनसे थिर रहे, यह तो वस्तु बखान । जो मर्यादा वस्तु की, सो मत्ता परमान ॥७॥ मालिनी अनवरतमनन्तंबंध्यते सापराधः स्पृशति निरपराधो बन्धनं नैव जातु । नियतमयमशुद्ध स्वं भजन्सापराधो भवति निरपराधः साधुशुद्धात्मसेवी ॥८॥ ऐसा मिथ्यादृष्टि जीव जो उन पुद्गल कर्मों को जो परद्रव्यरूप है आप रूप जानता है वह अखण्ड धागप्रवाहरूप, गणना से अतीत (परे) मानावरणादिरूप पुद्गल वर्गणा से बांधा जाता है। परन्तु सम्यग्दृष्टि जीव जो शुद्ध स्वरूप का अनुभवन करता है किसी भी काल में ऊपर कह हुए कर्म Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ममयसार कलश टीका बंध को निग्नय में नहीं छना है । आगं सापगध और निरापराध का लक्षण कहते है मिथ्यादष्टि जीव गगादि अगद्ध परिणाम रूप परिणमन करता है ओर अपने जीव द्रव्य का निग्नर वैमा ही अनुभव करता है इसलिए अपगध महित होता है। माध अर्थात् मम्यग्दष्टि जीव सकल रागादि अशद्धपने में भिन्न जो गद्ध चिद्रप मात्र जीव द्रव्य है उमो का अनुभव करता है, उसी में विराजमान है. इसलिए ममम्त अपराध में रहित है, उसको कर्म का बन्ध नहीं होना ॥८॥ दोहा-जाके घट ममता नहीं, ममता मगन सदीव । ग्मता राम न जानहो, सो अपराधी जीव ।। अपराधी मिथ्यामती, निगो हिरो अंष । पर को माने प्रात्मा, करे करम को बंध ।। झूठी करणी प्राचरे, झठे सुन्य को प्रास। झूठी भगती हिय धरे, झूठो प्रभको दास ॥ जिन्ह के मिथ्यामति नहीं, मानकला घट माहि। परचे प्रातमराममों, ते अपराधी नांहि ॥ प्रार्या प्रतो हताः प्रमादिनो गताः सुखासीनतां प्रलीनं चापलमुन्मूलितमालम्बनम् प्रात्मन्येवालानितं च चित मासम्पूर्णविज्ञानघनोपलम्धेः ॥६॥ शद्ध ग्वरूप को प्राप्ति मे भ्रष्ट मिथ्यादृष्टि जीव मोक्षमार्ग का अधिकारी नहीं है अन उमको धिक्कार कहा है। वह कर्म के उदय में प्राप्त भोग मामग्री में गण की वांछा करता है। रागादि अशुद्ध परिणामों में उसके प्रदेशों में आकुलता होनी है वे भी हेय हैं। बुद्धिपूर्वक ज्ञानोपार्जन करते हुए पढ़ना, विचार करना. चितन करना, स्मरण करना भी मोक्ष का कारण नही है ऐसा जानकर उनको भी हेय कहा है। शद्ध स्वरूप में एकाग्र होकर मन को बांधना ही मोक्ष का कारण है और वह निरावरण केवलज्ञान का समूहरूप जो आत्मद्रव्य है उसकी प्रत्यक्ष प्राप्ति से होता है ।।६।। संबंया-जिन्हके परम ध्यान पावक प्रगट भयो, संस मोह विभ्रम बिरस तीनों बड़े हैं। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष-अधिकार जिन्हके चितौनि प्रागे उदं स्वान मूमि भागे, लागे न करम रज ज्ञान गज बढ़े हैं ॥ जिन्ह को समझ को तरंग अंग ग्रागम से, प्रागम में निपुण प्रध्यातम में कड़े हैं। तेई परमारथी पुनीत नर पाठों याम, राम रस गाढ़ करे यह पाठ पढ़े हैं ॥६॥ वसंततिलका यत्र प्रतिक्रमणमेव विषं प्रणीतम् तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । तत्कि प्रमाद्यति जनः प्रपतन्नधोऽधः कि नोद्धं वमृद्ध वर्माधिरोहति निःप्रमादः ॥ १०॥ " जहाँ प्रतिक्रमण को ही विष बनाया गया है वहां अप्रतिक्रमण तो अमृत कहाँ से हो सकता है। जब ऐसा है तो संसारी जीवराशि क्यों प्रमाद करती है ! .. १६५ भावार्थ- - सूत्र के कर्त्ता कृपासागर आचार्य कहते हैं कि नाना प्रकार के विकल्प करने मे साध्य की सिद्धि तो नही है । जन (लोग) जैसे-जैसे अधिक क्रिया करते हैं, अधिक में अधिक विकल्प करते हैं, वैसे-वैसे अनुभव से भ्रष्ट होते जाते हैं। इस कारण से ममार्ग जीव राशि निर्विकल्प से निर्विकल्प अनुभवरूप परिणाम क्यों नहीं करती। उस निविकल्प अनुभव में जहाँ प्रतिक्रमण अर्थात् पठन-पाठन, स्मरण, चितन, स्तुति, वंदना इत्यादि अनेक क्रियारूप विकल्प विष की भांति कहे है। तब उस निविकल्प अनुभव में अप्रतिक्रमणरूप अर्थात् न तो पढना न पढ़ाना, न वदना न निंदा ऐसा भाव अमृत के निधान समान कैसे हो सकता है ? भावार्थ-निर्विकल्प अनुभव मुखरूप है इसलिए उपादेय है । नाना प्रकार का विकल्प आकुलतारूप है इसलिए हेय है ॥ १० ॥ दोहा -- नंदन वंदन युतिकरन, श्रवन चितवन जाप । पढ़न पढ़ावन उपदिसन, बहुविधि क्रिया कलाप | सुद्धातम अनुभव जहाँ, सुभाचार तह नाहि । करम करम मारग विबं, सिवमारग सिवमहि ॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ समयसार कलश टीका चोपाई - जहाँ प्रमाद दमा नहिं व्याये । तहाँ अवलंब प्रापनी प्रार्थ ॥ ना कारन प्रमाद उतपाती । प्रगट मोखमारग को घाती ॥ जेमद सयुक्त गुमाई । उठहि गिरोह गिदुक को नांई ॥ जे प्रमाद तजि उद्धत होई। तिनको मोक्ष निकट द्विग सोई ।। घटते प्रमाद जब नांई । पराधीन प्रारणी तब तांई ॥ जब प्रमाद की प्रभुता नासे । तब प्रधान प्रनुभव परका से || दोहा-ता कारण जगपंथ इन, उन शिवमारग जोर 1 परमादी जग के प्रपरमाद शिव प्रोर ॥१०॥ मालिनी प्रमादकलितः कथं भवति शुद्धभावोऽलसः कषायभरगौरवादलमता प्रमादो यतः । श्रतः स्वरसनिर्भरे नियमितः स्वभावे भवन् मुनिः परमशुद्धतां व्रजति मुच्यते चाऽचिरात् ॥ ११॥ जो जीव (शुद्ध चेतना का अनुभव करने में शिथिल है वह शुद्धोपयोगी कहा में होगा अथात् नहीं होगा । रागादि अशुद्ध परिणति के तीव्र उदय में नाना प्रकार के विकल्प होत है और इस कारण में अनुभव करने में शिथिलता आती है । भावार्थ जा जीव शिथिन्न है, विकल्पी है, वह जीव शुद्ध नही है क्योंकि शिथिलपना और विकल्पपना अशुद्धता का मूल है। इस कारण से सम्यग्दृष्टि जीव शुद्धापयाग परिणति में परिणमन करता है और उस काल में वह कर्मबंध से मुक्त होता है। ऐसा मुनि (सम्यग्दृष्टि जीव) शुद्धस्वरूप में एकाग्ररूप में मग्न होता हुआ अपने स्वभाव अर्थात् चेतनागुण से परिपूर्ण है ।। १११ ।। दोहा-जे परमादी प्रालसो, जिन्हके विकलप भूर । होइ मिथिल अनुभविवे, निन्हको शिवपथ दूर ॥ जे परमादी ग्रालसो, ते प्रभिमानी जीव । जे प्रविकल्पो अनुभवी, ते समरसी सदीव ।। जे प्रविकल्पी अनुभवी, शुद्ध चेतनायुक्त । से मुनिवर लघुकाल में, होहिं करम सों मुक्त ॥११॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम-अधिकार शार्दूलविक्रीडित त्यक्त्वाऽशुद्धिविधायि तकिल परद्रव्यं समग्र स्वयं स्वद्रव्ये रतिमेति यः स नियतं सर्वापराषच्युतः । बन्धध्वंसमुपेत्य नित्यमुक्तिः स्वज्योतिरच्छोच्छलञ्चतन्यामृतपूरपूर्णमहिमा शुद्धो भवन्मुच्यते ॥१२॥ राग-द्वेष-मोह म्प अशुद्ध परिणति में भिन्न होता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव मकल कर्म का क्षय करके अतीन्द्रिय मुख जिसका लक्षण है उस मोक्ष को प्राप्त होता है। ऐसा सम्यग्दष्टि जीव ज्ञानावरणादि पुद्गल कर्मों की बंधरूप पर्याय की सत्ता को नाग करता है तथा द्रव्यकम, भावकर्म, नोकर्म में प्राप्त सामग्री के ममत्व का मूल में स्वयं छोड़कर निश्चय से द्रव्य के निर्मल म्वभाव वाले चंतनागुण के अतीन्द्रिय मुख में धाराप्रवाहरूप परिणमन करता है, उममें तन्मयी है और वह सर्वकाल अतीन्द्रिय मुख स्वरूप है ऐसा उसका माहात्म्य है। वह अवश्य ही जितने भी सूक्ष्म अथवा स्थूल राग-द्वेप-मोह परिणाम हैं उनमे सब प्रकार रहित है। वह सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध चैतन्य के निर्विकल्प अनुभव मे उपजे मुख में मग्न है। भावार्थ-मवं अशुद्धपन के मिटने पर शुद्धपना होता है और सम्यक्दृष्टि का शुद्ध चिद्रूप के अनुभव का सहारा है. ऐसा मोक्षमार्ग है ॥१२।। चौपाई-जे ममकिती जीव समवेती। तिनको कया कहूं तुम सेती॥ जहां प्रमाद किया नहि कोई । निरविकल्प अनुभौ पद सोई॥ परिग्रह त्याग जोग थिर तीनों। करम बंध नहि होय नवीनो॥ जहां न राग द्वेष रस मोहें । प्रगट मोल मारग मुख सोहे। पूरब बंध उदय नहिं व्यापे। जहां न मेव पुण्य प्ररु पापे । द्रव्य भाव गुण निर्मल धारा । वोष विधान विविध विस्तारा॥ जिन्हके सहज अवस्था ऐसी। तिन्हके हिरो दुविधा कमी। मुनि अपकमि चदि धाये। ते केवलि भगवान कहाए। बोहा-हविषि जे पूरण भए, अष्टकर्म बन बाहि। तिन्हको महिमा जे लखें, नमें बनारसि ताहि ॥१२॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टोका मंदाक्रांता बन्धमदात्कलयदतुलं मोक्षमक्षय्यमेतनित्योद्योतस्फुटितसहजावस्थमेकान्तशुद्धम् । एकाकारस्वरसभरतोऽत्यन्तगम्भीरधोरं पूर्ण ज्ञानं ज्वलितमचले स्वस्य लीनं महिम्नि ॥१३ जानावग्णादि अष्टकम की मूल सता का नाश करके निष्कर्म अवम्थाम्प परिणमन करता हा जीव द्रव्य समस्त कर्ममल के कलंक का विनाश हान पर जंमा अनन्न गुण विराजमान था वैसा प्रगट हुआ। वह आगामी अनन्नकाल पर्यन्त अविनम्वर है, उपमा रहित है। शाश्वत प्रकाश में स्फुटित गद्ध ज्ञान में अनन्तगुण विराजमान गुद्ध जीव द्रव्य की सहज अवस्था प्रगट हुई है । वह मवंया प्रकार शुद्ध है, अनंतगुणों से युक्त है और मकान में शाश्वत है...-अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनतमुख, अनंतवीर्य के अतिशय में एक रूप हुआ है तथा अपने निष्कम्प प्रताप में मग्न है। भावार्थ मकन कमों के क्षय के लक्षण में युक्त माक्ष में आत्मद्रव्य स्वाधीन है; अन्य चाग गतियों में जीव पराधीन है। यह मोक्ष का स्वरूप कहा ॥१३॥ छप्पं भयो शुद्ध प्रकर, गयो मिथ्यात्व मूल नसि । कम कम होत उद्यात, सहज जिमि शुक्ल पक्ष ससि ।। केवलरूप प्रकाश, भास मुख राशि धरम ध्रुव । करि पूरण थिति प्राउ, त्यागि गत भाव परम हुआ। इह विधि अनन्य प्रभुता धरत, प्रगट बूंद सागर भयो। अविचल प्रखंड प्रनभय प्रलय, जीवद्रव्य जगमाहि जयो ॥१३॥ ॥ इति नवमांऽध्यायः ।। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशम अध्याय शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार मंदाक्रांता नीत्वा सम्यक् प्रलयमखिलान्कत भोक्त्रादिभावान दूरीभूतः प्रतिपदमयं बन्धमोक्षप्रक्लुप्तेः । शुद्धः शुद्धः स्वरसविसरापूर्णपुण्याचलाधिष्टोत्कीर्णप्रकटमहिमा स्फूर्जति ज्ञानपुंजः ॥१॥ अब विद्यमान शुद्ध जीव द्रव्य प्रगट होता है। भावार्थ-यहां में लेकर जैसा जीव का गद्ध स्वरूप है वैसा कहत है। जिसका स्वभाव स्वानुभव गोचर महिमा में युक्त है वह ज्ञानपुञ्ज (जीव) सर्वकाल एक रूप है एवं रद्ध ज्ञान चतना के अनन्त अंश भेदों से सम्पूर्ण है। वह निरावरण ज्योति प्रकाश स्वरूप है। अति ही विशुद्ध है। बन्ध अर्थात ज्ञानावरणादि कर्म के पिंड में जीव एक क्षेत्रावगाह है अथवा मोक्ष अर्थात् सकल कर्मों का नाश होने पर जीव के स्वरूप का प्रगटपना हैयह दोनों विकल्प एकन्द्रिय में पंचन्द्रिय नक की पर्याय में पाए जाने वाले जीव द्रव्य मे अति ही भिन्न हैं। भावार्थ-...एकन्द्रिय मे पंचेद्रिय आदि की मर्यादा के विचार से जहां तहां द्रव्य स्वरूप के विचार की अपेक्षा इस प्रकार बंधा है अथवा इस प्रकार मुक्त है--जीव द्रव्य मे विकल्पों से रहित है। द्रव्य का स्वरूप तो जैसा है वैसा ही है। जो अनंत जीव हैं वे कर्ता है ऐसा विकल्प, भोक्ता हैं ऐसा विकल्प इत्यादि, विकल्पों के अनंत भेदों को मूल से विनाश करके जीव शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होता है-नोसा कहा है ॥१॥ दोहा-पति भी नाटक प्रन्य में, कहीं मोख अधिकार । प्रब बरनों संक्षेप सों, सर्व विशुखी द्वार॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका सर्वया--कनिको करता है भोगान को भोगता है, जाको प्रभुता में ऐसो कथन अहित है। जामें एक इंद्रियादि पंचषा कथन नाहि, सदा निरदोष बंष मोभमों रहित है ।। जानको ममूह ज्ञानगम्य है स्वभाव जाको, लोक व्यापि लोकातीत लोकमें महित है। शुद्ध वंश शुद्ध चेतनाके रस अंशभरयो, ऐमो हंस परम पुनीतता सहित है। दोहा--जो निश्च निग्मल सदा, प्रादि मध्य प्रह अंत ।। सो चिप बनारसी, जगत माहि जयवंत ॥१॥ श्लोक कर्तृत्वं । स्वभावोऽस्य चितो वेदयितृत्ववत् । प्रजानादेव कर्ताऽयं तदभावादकारकः ॥२॥ चैतन्य स्वरूप जीव कही ज्ञानावग्णादि कर्म को करे अथवा रागादि परिणाम को करें एसा तो जीव का सहज गुण नहीं है। और जीव कम का भोक्ता भी नहीं है। भावार्थ-यदि जीव द्रव्य कर्म का भोक्ता हो तो कर्ता भी होगा। लेकिन भोक्ता तो है नहीं तो फिर कर्ता भी नहीं है। यही जीव रागादि अशुद्ध परिणाम को करता है यह फिर कैसे हुआ? कमजनित भावों में आत्मबुद्धिरूप जो मिथ्यात्व विभाव परिणाम है उसकी वजह से जीव कर्ता है । भावार्थ-..जीववस्तू रागादि विभाव परिणाम का कर्ता है-ऐसा जीव का स्वभाव गुण नही है परन्तु यह उसकी अशुद्ध रूप विभाव परिणति है। उस मिथ्यात्व राग-द्वेष रूप विभाव परिणति के मिटने पर जीव सर्वथा अकर्ता होता है ॥२॥ चौपाई-जीव करम करता नहि ऐते । रस भोक्ता स्वभाव नहिं तेते ॥ मियामतिसों करता होई । गए प्रज्ञान प्रकरता सोई ॥२॥ शिखरिणी प्रकर्ता जोवोऽयं स्थित इति विशुद्धः स्वरसतः स्फुरविज्योतिमिरितभुवनामोगमवनः । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार तथाप्यस्यासौ स्यादिह किल बन्धः प्रकृतिमिः स खल्वज्ञानस्य स्फुरति महिमा कोऽपि गहनः ॥३॥ विद्यमान चैतन्य द्रव्य जानावरणादि का अथवा रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता नही है। यह सहज म्वभाव मे अनादि-निधन ऐसा ही है। द्रव्य दृष्टि से जीव द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से भिन्न है एवं अनंत द्रव्य अपनी समस्त अतीत-अनागन-वर्तमान पर्यायों सहित इसमें इसके प्रकाशरूप चंतनागण के कारण प्रतिबिंबित है। यद्यपि निश्चय दृष्टि से जीव द्रव्य शद्ध है फिर भी मसार अवस्था में जोव के ज्ञानावरणादि कर्मरूप जो कुछ बन्ध होता है वह निश्चय हो मिथ्यान्वरूप विभाव परिणमन शक्ति का ऐसा हो कोई असाध्य स्वभाव है। भावार्थ- जो जोव द्रव्य मंसार अवस्था में विभावरूप मिथ्यात्वगग-दंष-मोह के परिणामा में परिणमा है तो वह जैसा परिणमा है वैसे ही भावों का कर्ता होता है। अशुद्ध भावां के मिटने पर जीव का स्वभाव अकां है ॥३॥ सर्वया . निह निहारत म्वभाव याहि प्रातमाको, प्रात्मीक परम परम परकासना । प्रतीत अनागत वरतमान काल जाको, केवल स्वरूप गुरण लोकालोक भासना ।। सोई जीव मंमार अवस्था माहि करम को, करतासों दोसे लिए भरम उपासना। यह महा मोहको पसार यहै मिथ्याचार, यह भो विकार यह व्यवहार वासना ॥३॥ श्लोक मोक्तृत्वं न स्वभावोऽस्य स्मृतः कर्तृत्ववञ्चितः । प्रज्ञानादेव भोक्ताऽयं तदमावाबवेदकः ॥४॥ गणधर देव ने ऐसा तो नहीं कहा है कि चैतन्य द्रव्य अपने सहज गुण से ज्ञानावरणादि कर्मों के फल अथवा सुख-दुख रूप कर्म चेतना का अथवा रागादि अशुद्ध परिणामरूप कर्म चेतना का भोक्ता है, बल्कि ऐसा कहा है कि जीव का स्वभाव भोक्ता नहीं है क्योंकि जीव द्रव्य कर्म का कर्ता ही नहीं है । तो प्रश्न उठता है कि फिर भी जीव द्रव्य अपने सुख-दुखरूप परि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ समयसार कलश टोका णामा का भोगता है एमा भा है-यह कैसे हुआ ? चूंकि जीव का अनादि काल में कम में मयांग है इसलिए वह मिथ्यात्व-राग-द्वेष रूप अशुद्ध विभाव म परिणामत हुआ है, इसलिए भोक्ता है । मिथ्यात्वरूप विभाव परिणामों का विनाश होने पर जीव द्रव्य साक्षात् अभोक्ता है। भावार्थ-जीव द्रव्य का जैसा अनन्लचतुष्टय स्वरूप है वसा कर्म का कापना-भाक्तापना उसका स्वरूप नहीं है। कर्म की उपाधि से वह उसका विभावरूप अशुद्ध परिणति का विकार है इसलिए विनाशीक है उस विभाव परिणान के विनगने पर जीव अकत्ता-अभोक्ता है। अब आगे यह कहेंगे कि मिथ्यादष्टि जीव द्रव्यकम का अथवा भावकम का कर्ता है, परन्तु सम्यकदृष्टि का नहीं है ॥४॥ चौपाई-यथा जीव कर्ता न कहावे, तया भोगता नाम न पाये। है भोगी मिभ्यामति मांहीं । गए मिथ्यात्व भोगता नाहीं ॥४॥ शार्दूलविक्रीड़ित प्रजानी प्रकृतिस्वभावनिरतो नित्यं भवेद्वेदको गानी तु प्रकृतिस्वभावविरतो नो जातुचिद्वेदकः । इत्येवं नियमं निरूप्य निपुर्णरज्ञानिता त्यज्यतां शुद्धंकात्ममये महस्यचलितंरासेव्यतां जानिता ॥५॥ जीव को परद्रव्य में आत्मबुद्धि रूप मिथ्या परिणति जस भी मिट, मंटना योग्य है क्योंकि सम्यग्दष्टि जीव शुद्ध चिद्रप के अनुभव में अखण्ड धारारूप में मग्न है, समस्त उपाधियों में रहित है और अकेला चैतन्यपना उसका स्वभाव है। उसके लिए तो शुद्ध वस्तु की अनुभव रूप सम्यक्त्व परिणति में सर्व काल रहना ही उपादेय है क्योंकि वह वस्तु स्वरूप के परिणमन को अवश्य ही जानता है। वस्तु स्वरूप ऐसा है कि मिथ्यादृष्टि जीव सवं काल में द्रव्यकर्म का, भावकर्म का भोक्ता होता हैं। मिथ्यात्व का परिणमन निश्चय ही ऐसा ही है। अज्ञानी जीव ज्ञानावरणादि अष्टकम के उदय में नाना प्रकार के चतुर्गति शरीरों को, रागादि भावों तथा सुख-दुख की परिणति को अपना जान कर उनमें एकत्व बुद्धि रूप परिणमा है । मिथ्यात्व के मिटने पर तो जिसका कर्म के उदय के कार्य में, उसे हेय जान कर, स्वामित्वपना छूट गया है ऐसा सम्यग्दृष्टि जीव ही है जो द्रव्यकर्म, Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदात्म-द्रव्य अधिकार भावकर्म का भोक्ता नहीं है- ऐसा वस्तु का स्वरूप है। भावार्थ-जीव के सम्यक्त्व होने पर अशुद्धपना मिटता है इसलिए भोक्ता नहीं है ॥५॥ सर्वया- जगवासी प्रज्ञानी त्रिकाल परजाय बद्धि, सो तो विष भोगनिसों भोगता कहायो है। समकिती जीव जोग भोगसों उदासी ताते, सहज प्रभोगता जु ग्रंथनिमें गायो है। याहि भांति वस्तुको व्यवस्था प्रवधारे दुष, परभाव त्यागि प्रपनो स्वभाव प्रायो है। निरविकलप निरुपाधि प्रातम प्राराधि, साधि जोग जुगति ममाधि में समायो है ॥५॥ वसंततिलका ज्ञानी करोति न न वेदयते च कर्म जानाति केवलमयं किल तत्स्वभावं । जानन्परं करणवेदनयोरभावा न्छुद्धस्वभावनियतः स हि मुक्त एव ॥६॥ सम्यग्दृष्टि जीव गगादि अशद्ध परिणामों का कर्ता नहीं है और मुख-दुम्ब आदि अशुद्ध परिणामों का भोक्ता नहीं है। मम्यग्दृष्टि जीव निश्चय मे यह जानता तो है कि जितने भी गर्गर भोग, गगादि, मुख-दुख इत्यादि है वे सब कम के उदय मे होते हैं, वे जीव का स्वरूप नहीं है परन्तु वह उनमें स्वामित्वरूप में परिणमन नही करना । सम्यग्दृष्टि जीव तो जैमा निर्विकार सिद्ध है, वैसा ही है। ममस्त पगद्रव्य की मामग्री का शायक मात्र है। मिथ्यादष्टि की तरह उस सामग्री का म्वामीपना नहीं है। सम्यग्दृष्टि जाव में कर्म के करने अथवा कर्म के भोगने का भाव मिट गया है इलिए वह शद चैतन्य वस्तु के आस्वाद में मग्न है। भावार्थ-मिथ्यात्व मंसार है। मिथ्यात्व के मिटने पर जीव सिद्ध सदृश है ॥६॥ संबंया-चिनमुद्रा पारी ध्रुव धर्म अधिकारी गुरण, रतन भंडारो पाप हारी कर्म रोग को। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका प्यारो रितनको हस्यारो मोल मारग में, न्यारो पुदगल सों उजारो उपयोग को॥ जाने निज पर तस रहे जग में निरत्त. गहे न ममत्त मन वच काय जोगको। ता कारण ज्ञानीज्ञानावरणादि कर.को, करता न होइ भोगना न होइ भोगको। दोहा--निभिलाख करणी करे, भोग प्ररुचि घट माहि । तास साधक सिद्धसम, कर्ता भोक्ता नाहि ॥६॥ श्लोक ये तु कर्तारमात्मानं पश्यन्ति तमसा तताः । मामान्यजनवत्तेषां न मोक्षोऽपि मुमुक्षताम् ॥७॥ मिथ्यादष्टि जीव के कर्म का विनाश अथवा शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति नही है। यद्यपि वह जैन मत के आधित है, बहन ही पढ़ा-लिखा है, द्रव्य त्रिया प चारित्र पालता है, मोक्ष का अभिलापी है तो भी जैसे तापस अथवा योगी भरड़ा इत्यादि जीवों को मोक्ष नहीं है वैसे ही मिथ्यादष्टि जीव को भी मोक्ष नहीं है। भावार्थयह जीव जैन मत का आश्रित है इसमें कुछ विशेषता होगी? इससे कुछ विशेषता नही है। ये मिथ्यादष्टि जीवोमा मानते हैं कि जीव द्रव्य का यह स्वभाव है कि वह ज्ञानावरणादि कर्मों को तथा रागादि अशट परिणामों को करता है। सी ही वे प्रतीति करते हैं और ऐसा ही आस्वाद लेते हैं। मिथ्यात्व भाव ऐसा अन्धकारमय होकर व्याप्त है कि उसमें मिध्यादष्टि जीव अन्धा हो रहा है। भावार्थ-जो जीव का वभाव कारूप मानते हैं वे महामिथ्यादष्टि है क्योंकि कपिना जीव का स्वभाव नहीं है, विभावरूप अशुद्ध परिणति है, पराये संयोग से है और विनाशोक है ॥७॥ कवित-जो हिय ग्रंप विकल मिष्यात घर, मृवा सकल विकलप उपनावत। गहि एकंत पक्ष प्रातमको, करता मानि प्रधोमुल पावत ॥ स्यों जिनमती द्रव्य-बारित कर, करनी करि करतार कहावत । बोषित मुक्ति तथापि मूहमति, बिन समकित भव पार न पावत ॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार १७५ १७५ श्लोक नास्ति सर्वोऽपि सम्बन्धः परद्रव्यात्मतत्वयोः । कर्तृकर्मत्वसम्बन्धाभावे तत्कर्तृता कुतः ॥८॥ इस प्रकार ज्ञानावरणादिरूप परद्रव्य पुद्गल के पिड का शुद्ध जीव कर्ता अथवा पुद्गल द्रव्य जीव के भावों का कर्ता क्यों होगा, अपितु नहीं होगा। संयोगी अवस्था के कारण जो जोव ज्ञानावरणादि कर्म का कर्ता दिखाई देता है सो दूसरे द्रव्य के साथ एक सम्बन्ध का अभाव हो जाए तो द्रव्य का स्वभाव ऐसा नही है यह स्पष्ट हो जाए। यद्यपि दो वस्तु एक क्षेत्रावगाह रूप हैं तथापि अपने-अपने स्वरूप को लिए हुए हैं....कोई द्रव्य किसी अन्य द्रव्य मे तन्मयरूप नहीं मिलता। ऐमा ही वस्तु का स्वरूप है इसलिए जीव पुद्गल का कर्ता नहीं है ।।८।। चोपाई-चेतन ग्रंक जीव लखि लोना । पुदगल कर्म प्रवेतन चीना ॥ वासी एक खेत के दोऊ । जपि तथापि मिले न कोऊ ॥ दोहा-निज निज भाव क्रिया सहिते, व्यापक व्याप्य न कोई। कर्ता पुद्गल कर्म को, जीव कहां सो होइ ॥८॥ वसंततिलका एकस्य वस्तुन इहान्यतरेण साई, सम्बन्ध एव सकलोऽपि यतो निषितः । तत्कर्तृकर्मघटनाऽस्ति न वस्तुमेदे, पश्यन्त्वकर्तृ मुनयश्च जनाः स्वतत्वं ॥६॥ जब जीव द्रव्य चेतना स्वरूप है और पुद्गलद्रव्य अवंतन स्वरूप है ऐसा भेद अनुभव में आ रहा है तो ऐसा व्यवहार कि जाव द्रव्य पुदगल पिंडरूप कर्म का कर्ता है, सर्वथा नहीं है। जो सम्यग्दृष्टि जीव हैं वे ऐमा अनुभव करें, ऐसा आस्वाद लें कि जीव का म्वरूप कर्ता नहीं है। क्योंकि शुद्ध जीव द्रव्य का पुदगल द्रव्य से अतीत-अनागत-वर्तमान किसी भी काल में एकत्वपना वर्जित है। भावार्थ-अनादि-निधन जो द्रव्य है वह तो जैसा है वैसा ही है, अन्य द्रव्य से नहीं मिलता है। इसलिए जीवद्रव्य पुद्गल कर्म का अकर्ता है ॥६॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ समयसार कलश टीका मईया .. जीव अरु पुदगल करम रहे एक खेत, यपि, तथापि सत्ता न्यारी न्यारी कही है। लक्षरण स्वरूप गुग्ण पर प्रकृति भेद, दह में प्रनादि हो की विधा ह रही है। एते पर भिन्नता न भासे जीव करमकी, जोलों मिथ्याभाउ तोलों मोंधी वायु बही है। जानके उद्योत होत ऐसी सूधी दृष्टि भई, जोव कर्म पिण्डको प्रकरतार सही है। दोहा-एक वस्तु जैसी जुहै, लासों मिले न मान । जीव प्रकर्ता कमको, यह अनुभौ परमान ॥६॥ वसंततिलका ये तु स्वभावनियम कलयंति नेममज्ञानमग्नमहसो वत ते वरापाः । कुर्वन्ति कर्म ता एव हि भावकर्म कर्ता स्वयं भवति चेतन एक नान्यः ॥१०॥ दुःख के साथ कहते है कि मिथ्यादष्टि जीव-राशि के गुद्ध चैतन्यरूप प्रकाश को मिथ्यात्वरूप भावों ने ऐसा आच्छादित कर लिया है कि वह मोह-गग-द्वेष रूप अशद्ध परिणमन कर रही है और जीवद्रव्य ज्ञानावरणादि पुद्गल पिड का कर्ता नहीं है। ऐसा जो वस्तु का स्वभाव है उसका उमे प्रत्यक्षरूप से अनुभव नहीं होता। भावार्थ-मिथ्यादष्टि जीव राशि शुद्ध स्वरूप के अनुभव मे भ्रष्ट है इमोलिए पर्याय में मग्न है और मिथ्यात्व-राग-द्वेष के अशुद्ध परिणाम में उसका परिणमन हो रहा है । क्योंकि मिथ्यात्व-राग-द्वेष अशुद्ध चनना रूप परिणामों में जीव द्रव्य का ही व्याप्य-व्याक रूप मे परिणमन है अतः वह अपने आप ही उनका कर्ता है, पदगल कम अशुद्ध चेतना रूप परिणामों का कर्ता नहीं है। भावार्थ-जो जीव मिथ्यादृष्टि हुआ जैसे अशुद्ध भावरूप परिणमता है, वैसे हो भावों का कर्ता होता है, ऐसा सिद्धांत है ॥१०॥ चौपाई-जो दुरमति पिकल प्रमानी। जिन्ह स्वरीत पररोत न जानो। माया मगन भरमके भरता। ते जिय भाव करम के करता। पोहा- मियामति तिमिरसों, लसेन जीव प्रजीव । तेई भाषित कर्मके, कर्ता होय सदोष ।। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार पशुख परिणति परे, करें ग्रहं पर मान । ते पशुट परिणाम के, कर्ता होय प्रजान ॥१०॥ खग्धरा कार्यत्वादकृतं न कर्म न च तज्जीवप्रकृत्योर्द्वयोरमायाः प्रकृतेः स्वकार्यफलभुग्भावानुषङ्गात्कृतिः । नकस्याः प्रकृतेरचित्वलसनाजीवोस्य कर्ता ततो जीवस्यव च कर्म तच्चिदनुगं जाता न यत्पुद्गलः ॥११॥ नो उस ममय में जीव-द्रव्य गगादि अगद्ध नेतना परिणामों में व्याप्य व्यापकप मे परिणमता है माला वह कर्ता है। रागादि अपड परिणमन अशुद्ध चेतनाम्प है और उम ममय में उम कप जीव-द्रव्य स्वयं व्याप्य व्यापक रूप में परिणमन करता है मालिए अगुद्ध परिणमन जीव का कर्म है। पुद्गल द्रव्य चेतनारूप नहीं है परन्तु गगादि परिणाम चेतनारूप हैं इसलिए वे जीव के किए हैं। आगे इमो हो भाव को गाढ़ा करते हैं। ऐसा नहीं है कि रागादि अशुद्ध चेतनारूप परिणाम आकाश द्रव्य की भांति स्वयं सिद्ध हैं, ये किसी के द्वाग किए हए हैं और (चंकि घड़े की तरह) उपजते और विनशते हैं इसलिए मी प्रतीति होनी है कि ये क्रियारूप । रागादि अशुद्ध चेतना परिणमन चतना द्रव्य तथा पुद्गलद्रव्य दोनों की क्रिया नहीं है। भावार्थ-बदि कोई ऐसा मानता है कि जीव और कर्म मिलने से रागादि अशुद्ध चेतना परिणमन होते है इसलिए दोनों ही द्रव्य कर्ता तो उमका ऐसा समाधान है कि दोनों कर्ता नहीं है कारण कि रागादि अशर परिणामों का बाह्य निमित्त-कारण मात्र पुद्गल कर्म का उदय है। अंतरंग कारण जीव द्रव्य का विभावरूप होकर उनम व्याप्य-व्यापकरूप से परि. णमना है इससे नीव का कर्तापना घटित होता है, पुद्गल कर्म का कर्तापना नहीं घटता। और फिर अचंतन द्रव्य रूप ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म यदि रागादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता हो तो उसे अपनी इस करतूत के फल सुब-दुब का भोक्ता भी होना चाहिए। भावार्थ --जो द्रव्य जिस भाव का कर्ता होता है वही द्रव्य उसका भोक्ता भी होता है । सो यदि रागादि बड़ों वेतन परिणामों को जीव और कर्म दोनों ने मिल कर किया होता तो दोन Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ समयसार कलश टीका ही उसके भोक्ता होते। सो दोनों तो भोगने नहीं हैं। यह तो घटित होता है कि जीव द्रश्य सुख-दुख को भोक्ता है क्योंकि वह चेतन है पर पुद्गल द्रव्य अचेतन है इसलिए उस पर सुख-दुख का भोक्तापना नहीं घटना । इसलिए रागादि अशुद्ध चेतन परिणामों का अकेला मंमारी जीव ही कर्ता है और भावना है। इसी अर्थ को और स्पष्ट करते हैं - यह अकेले पुद्गल कर्म की करतूत नहीं है । भावार्थ कोई यह माने कि रागादि अशुद्ध चेतन परिनाम अकेले पुद्गल कर्म के किए हैं तो उसका उत्तर है कि ऐसा भी नहीं है क्योंकि अनुभव में ऐसा आता है कि पुद्गल कर्म अचेनन द्रव्य है और रागादि परिणाम अशुद्ध चेतना हैं । अचेतन द्रव्य के परिणाम तो janak ही होंगे इसलिए गगादि अशुद्ध परिणामों का कर्ता संसारी जीव है और भोक्ता भी वही है ॥। ११॥ दोहा - शिष्य पूछे प्रभु तुम कह्यो, दुविध कर्म का रूप । द्रव्यकर्म पुद्गलमई, भावकर्म विद्रूप ॥ कर्ता द्रव्यजु कर्मको, जीव न होइ त्रिकाल । ar यह भावित कर्म तुम कहो कौन की चाल ।। कर्ता याको कौन है, कौन करे फल भोग । कं पुद्गल कं प्रात्मा, क दुह को संयोग ॥ क्रिया एक कर्त्ता जुगल, यों न जिनागम मांहि । थवा करणो प्रोरकी, धौर करे यों नाहि ॥ करे और फल भोगवे, श्रौर बने नहि एम । जो करता सो भोगता यहै यथावत जेम ॥ भावकर्म कर्त्तव्यता, स्वयं मिद्ध नहि होय । जो जगको कररगो करे, जगवासी जिय सोय ॥ जिय कर्ता जिय भोगता, भावकर्म जियचाल । पुद्गल करे न भोगवं, दुविधा मिष्याजान ॥ ताते भावित कर्मको, करे मिध्याती जीव । सुख दुख प्रापद संपदा, भुंजे सहज सबोब ॥११॥ शार्दूलविक्रीडित कर्मेव प्रतिक्यंकर्तृ हतर्कः क्षिप्तत्वात्मनः कर्तुं तां कर्तात्मंच कथंचिदित्यचलिता कंश्चिच्छतिः कोपिता । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार तेवामुखतमोहमुद्रितधियां बोधस्य संशुखये स्याद्वादप्रतिबन्धलग्धविजया वस्तुस्थितिः स्तूयते ॥१२॥ अब जीव द्रव्य के स्वभाव की उम मर्यादा का वर्णन करते हैं-जिसने 'जीव कर्ता हैं और अकर्ता भी हैं.'. ऐगे अनेकान्त को सावधानी से स्थापित कर विजय पाई है। मे मिथ्यादष्टि जोव जिनको शद-वरूप का अनुभव करने की मम्यशक्ति तीवकर्म के उदय में उपजे मिथ्यात्वभाव से अच्छादित है और जो जीव को मर्वथा अवतां कहते हैं उनको इस विपरीत बदि को छड़ाने के लिए जीव के स्वरूप का माधना है । चेतना स्वरूप मात्र जो जीवद्रव्य है वह किमो यक्ति में अगद्ध भाव का कर्ता भी है ऐसा सुनने मात्र में किमो-किमी मिथ्यादष्टि जीव को अत्यन्त क्रोध उपजता है जो गाड़ा और अमिट है। वह जीव के अपने गगादि अगद्ध भावों के कर्मापने को मर्वथा मेट कर क्रोध करता है और यह मानता है कि अकेला जानावरणादि. कर्म पिड गगादि अशद्ध परिणामों का अपने आप ही व्याप्य-व्यापकरूप से कर्ना है. ऐमा भाव गट लेता है और मी ही प्रतीति करता है। इस प्रकार वह स्वयं अपना घातक है और मिथ्यादप्टि है ॥१२॥ मबंया-कोह मूढ़ विकल एकल पक्ष गहे कहे, प्रातमा प्रकरतार पूरग्ग परम है। तिनमो जो कोउ कहे जीव करता है तासों, फेरि कहे करमको करता करम है। ऐसे मिथ्या मगन मिण्याती ब्रह्मघाती जीव, जिन्हें के लिए प्रनादि मोहको भरम है। तिनको मिथ्यात्व दूर करिवेको कहें गुरु, स्यावाद परमान प्रातम परम है ॥ दोहा-चेतन करता भोगता, मिथ्या मगन अजान । नहिं करता नहिं भोगता, निश्चं सम्यकवान ॥१२॥ शार्दूलविक्रीड़ित मा करिममो स्पृशन्तु पुरुषं साल्या इवाप्याहताः कर्तारं कलयन्तु तं किल सवा मेदावबोधावयः । ऊ तबतबोधधाम नियतं प्रयक्षमेनं स्वयं पश्यन्तु व्युतकर्तृभावमचलं ज्ञातारमेकं परम् ॥१३॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० ममयसार कलश टीका अब म्यादाद दृष्टि में जीव का स्वरूप कहते हैं। जिन्होंने नोक्त म्यादाद म्वरूप को अंगीकार किया है ऐसी जो मम्यग्दष्टि जीव राशि है वह जमे सांध्यमती जीव को मर्वथा अकर्ता मानता है वैमें जीव-द्रव्य रागादि अशुद्ध परिणामों का सर्वथा कना नहीं है, ऐमा न अंगीकार करे। जैनमती (जीव को) सर्वथा अकतां मत मान, जसा मानना योग्य है वैसा कहते हैं। सभी काल में जीव का म्वरूप मा है कि शद म्वरूप सम्यक्त्व परिणमन में भ्रष्ट हुआ मिथ्यादष्टि जीव जब तक मोह-गग-द्वेष रूप परिणमन कर रहा है तब तक माह-गग-द्रपम्प अगद्ध चनन परिणामों का कत्ता वह स्वयं है. सा अवश्य माना, मो प्रतीति कगे। वही जीव मिथ्यात्व परिणामों के छूटने पर जब अपनं गड म्वरूप सम्यक्त्व भाव में परिणमन करता है तब गगादि अशुद्ध भावों में कतांपने को छोड़ता है... मी ही श्रद्धा करो, मी ही प्रतीति करी-मा अनुभव करो। भावार्थ-जैसे जीव का ज्ञानगृण स्वभाव होने मे जानगृण संसार अवस्था या मोक्ष अवस्था में कही भी नहीं छूटता, वैमा रागादिपना जीव का स्वभाव नहीं है नथापि मंमार अवस्था में जब तक कर्म का संयोग है और जब नक मोह-राग-द्वेष रूप में अशुद्ध भावों में जीव परिणमन कर रहा है तब तक वह कर्ता है । जीव के मम्यक्त्व गुण रूप परिणमन होने के उपगंत तो वह मकल जंय पदार्थों को जानने के लिए उतावला ज्ञान का प्रताप मात्र है। म्वय ही स्वयं रूप पर प्रगट हआ है, चार गतिया में भ्रमण मे रहिन हुआ है, जानमात्र उसका स्वरूप है तथा गगादि अशुद्ध परिणति मे रहित शुद्ध वस्तु मात्र है ।।१३।। संबंया-मे सोल्यमति कहे मला प्रकरता है, मध्या प्रकार करता न होड करही। से जिनमति गुरुमुख एक पक्ष मुनि, बाहि भांति माने सो एकांत तमो प्रयही॥ जोलों दुरमति तोलों करमको करता है, सुमती सदा प्रकरतार को सब हो। जाके घटनायक स्वभाव जग्यो जवही सों, सोतो जगजालसे निरालो भयो तबही ॥१३॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदात्म-द्रव्यधकार मालिनी मणिकमिदमिहकः कल्पयित्वात्मतत्त्वं, निजमनसि विधत्ते कर्तृभोक्त्रोविमेवम् । अपहरति विमोहं तस्य नित्यामृतौघः स्वयमयमभिषिञ्चश्चिञ्चमत्कार एवं ॥१४॥ अब बोद्धमती प्रतिबद्ध किया जाता है। मे कोई जीव जो वर्तमान बोदधर्म के मानने वाले है वे अपने ज्ञान में कत्तापने और भोक्तापने को अलग-अलग कर देते है। भावार्थ-वे"मा कहते है कि क्रिया का कर्ता कोई अन्य है और भोक्ता कोई अन्य है। क्योंकि एक समय मात्र पहले का जीव दूसरे समय में मल से विनश जाता है और अन्य नया जीव मल में उपज आता है। जो चैतन्य स्वरूप जीव द्रव्य अनादि निधन है उसमें उनकी यह मिथ्या प्रांति एसी ही हो रही है जैसे कोई अपने नेत्र रोग के कारण श्वेत शंख को पीला देखता है । 'अन्य नया जीव मूल में उपज आता है इसी मान्यता के कारण वह यह मानता है कि कर्ता कोई अन्य जीव है और भोक्ता कोई अन्य जीव है। मे जीव को दृष्टांत में ममझाते है किसी जीव ने बाल्यावस्था में किसी नगर को देखा और फिर कुछ काल बीत जाने पर तरुण होने पर फिर उसी नगर को देखा तो उमको मा ज्ञान उपजता है कि यह वही नगर है जो मने बाल्यावस्था में देखा था। सी जो अतीत-अनागत-वर्तमान में शाश्वत ज्ञान मात्र वस्तू है वह क्षणिकवादी के मिथ्यात्व को दूर करता है। भावार्थ यदि जीव हर क्षण विनस्वर होना तो पूवं ज्ञान को लेकर जो वर्त. मान ज्ञान होता है वह किसको होता है इसलिए जीवद्रव्य सदा शास्वत है, इस प्रकार णिकवादी प्रतिबद्ध होना है। निश्चय में जीव का जीवन-मल सदा-काल अविनश्वर है, आनी शक्ति मे आप ही मिद्ध है, ऐमा जानना, अन्यथा नहीं ॥१०॥ बोहा-बौढ मणिकवादी कहे, भग भंगुर तनु मांहि । प्रथम समय जो जीव है, द्वितीय समय सो नाहि ।। ताते मेरे मतविय, करे करम जो कोय, सोम भोगवे सबंबा, और भोगता होय ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ समयसार कलश टोका यह एकंत मिथ्यात पख, दूर करनके काज । चिढिलास प्रविचल कथा, भाषे श्रीजिनराज ।। बालकपन काह पुरुष, देखो पुर इक कोय। तरुण भए फिरके लखे, कहे नगर यह सोय ॥ जो बुहपन में एकघो, तो निहि मुमरण कोय । और पुरुषको अनुभब्यो, पोर न आने जोय ॥ जब यह वचन प्रगट मुन्यो, मुन्यो जनमत गुठ। तब एकांतवादो पुरुष, जंन भयो प्रतिबुद्ध ॥ अनुष्टुप वृत्यंशमेदतोऽत्यन्तं वृत्तिमन्नाशकल्पनात् । अन्यः करोति भुङ्क्तेऽन्य इत्येकान्तश्चकास्तु मा ॥१५॥ क्षणिकवादी का और भी प्रतिबोधन करते है। द्रव्याथिक व पर्यायायिक भेद को अलग-अलग जाने विना पकड बैठना कि 'वस सर्वथा ऐसा ही है'-सा किसी भी जीव कोवान में भी श्रद्धान न हो। किमी दूमर प्रथम समय में उपजा कोई जीव कर्म का उपार्जन करता है आर किसी अन्य दूसरे समय में उपजा जीव उम कर्म को भोगना है, ऐमा एकान्तपना मिथ्यात्व है। भावार्थ जीव वस्तु द्रव्यरूप है और पर्यायरूप है। द्रव्यरूप से यदि विचार करें तो जो जोव जिम कर्म का उपार्जन करता है वही जीव उदय माने पर उस कर्म को भोगता है और याद पयांय दृष्टि से विचार कर तो जिस परिणाम अवस्था में ज्ञानावग्णादि कर्मो का उपार्जन किया था, उनके उदय में आने के समय उन परिणामा का अवस्थान्तर हो जाता है इसलिए कोई अन्य पर्याय करता है और कोई अन्य ही पर्याय भोगती हैऐसा भाव स्यावाद साध सकता है। जंसा बौद्ध मतावलम्बी जीव कहता है वह तो महाविपरीत है। द्रव्य का एमा ही स्वरूप है इसमें किसी का क्या चारा है ? एक द्रव्य को अनन्न अवस्थाएं होती हैं। कोई अवस्था मिटती है और अन्य कोई उपजती है ऐसा अवस्था भेद ता अवश्य है पर इसी अवस्था भेद से छला जाकर कोई बौद्धमत में अवस्थित मिथ्यादृष्टि जीव, जो सता. रूप शाश्वत वस्तु है उसी की सना का मूल से ही नाश मान लेता है - नो यह तो विपरीतपना है। भावार्थ-पर्याय मात्र को हो वस्तु मान लेना तथा Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार जिसकी वह पर्याय है उस सत्तामात्र वस्तु को न मानना महा मिथ्यात्व सबंया - एक परजाय एक सममें विनसि जाय, दूजो परजाय दूजे समं उपजति है। ताको छल पकरि के बौड कहे समै सम, नवो जीव उपजे पुरातन को अति है। ताते माने करमको करता है और जोब, भोगता है और, वाके हिए ऐसी मति है। परजाय प्रमाणको सरवथा बरखजाने, ऐसे तुरखुटि को अवश्य दुरगति है। दोहा-कहे प्रमातम को कथा, बहे न प्रातम सुनि। रहे अध्यातम सों विमुख, दुराराषि दुरबुद्धि । दुरसी मिभ्यामती, दुरगति मिथ्यावाल, गहि एकंत दुरबुद्धि सों, मुकत न होइ त्रिकाल ॥१५॥ शार्दूलविक्रीडित प्रात्मानं परिशुद्धमोप्सुमिरतिव्याप्ति प्रपद्यान्धक: कालोपाधिबलावशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परः । बैतन्यं भरिणकं प्रकल्प्य पृथुकः शुद्धर्जुमूत्र रतरात्मा व्युज्झित एष हारवबहो निःसूत्रमुक्तमिमिः ॥१६॥ एकान्नपना मानना मो मिथ्यान्व है। जिसका अभिप्राय ही भिन्न (गलन) हैसे मिथ्याइष्टि जीव को शद चैतन्य वस्तु ठोक मे सधती नहीं। द्रव्यापिक नय में रहित वर्तमान पर्याय मात्र ही वस्तु का म्वरूप अंगी. कार करने रूप एकांत दृष्टि में मग्न और यह मानने वाले बौखमतावलम्बी जीव को कि एक समय में एक जीव मूल से ही विनशता है और अन्य जीव मूल से उपजता है, जीव स्वरूप की प्राप्ति नहीं है। आगे और मतांतर कहते हैं। कोई एकांतवादी मिथ्यादष्टि जीव मे हैं जो जीव का गढपना नहीं मानते हैं उसको सर्वथा अशुद्ध मानते हैं, उन्हें भी वस्तु की प्राप्ति नहीं है। क्योंकि अनन्तकाल से जीव द्रव्य कम के साथ मिला चला आ रहा है उससे अलग तो कभी हुमा ही नहीं। अतः वे जब ऐसी प्रतीति करते हैं कि जीव Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ समयसार कलशटीका दम्य अशुद्ध है, शुद्ध है ही नहीं-- एमा मानने वाले जीवों को भी वस्तु को प्राप्ति नहीं है और मनातर कहते हैं। कोई अन्य एकांतवादी मिप्यादष्टि जीव पग है, जो कर्म की उपाधि को नहीं मानते है और जीव को सवं काल मवंथा गढ़ मानते है, उनको भी वस्तु की प्राप्ति नहीं है। म्यावाद मूत्र के बिना उम माक्ष का यदि चाहा जाए जिसका सकल कर्म का अय ही लक्षण है, ना वह वैसे ही नहीं मिल सकता जैसे बिना मूत्र के हार नही बनता। भावार्थ-- जैम मून बिना मानी नहीं मध सकतं उसी प्रकार स्याद्वाद मूत्र का ज्ञान पाये बिना एकान्नवादिया को आत्मा का स्वरूप नही सधता अर्थात आत्मस्वरूप की प्राप्ति नहीं होती। इसलिए जो जीव सुख चाहं वह जैम स्याहाद मूत्र में आत्मा का स्वरूप मधता है वैसा ही मान ॥१६।। कवित्त-केई कहे जीव भरणभंगुर, केई कहे करम करतार । केई कम रहित नित पहि, नय अनन्त नाना परकार ॥ जे एकान्त गहे ते मूरख, पंडित अनेकान्त पखधार । जसे भिन्न भिन्न मुक्ताहल, गुणसों गहत कहावे हार ॥ दोहा-यथा सूत संग्रह बिना, मुक्त माल नहि होय । तथा स्याद्वादी बिना, मोक्ष न साधे कोय ॥१६॥ शार्दूलविक्रीडित कर्तुर्वयितुश्च युक्तिवशतो भेदोऽस्त्वमेवोऽपि वा कर्ता वेदयिता च मा भवतु वा वस्त्वेव सचिस्यता । प्रोता सूत्र इवात्मनोह निपुरगत न शक्या कधिचिचिन्तामणिमालिकेयभितोऽप्येका चकास्त्वेव नः ॥१७॥ जो सम्यग्दृष्टि जीव शुद्ध स्वरूप के अनुभव में प्रवीण है उसको समस्त विकल्पों से रहित निर्विकल्प मत्ता मात्र चैतन्य स्वरूप का स्वसंवेदन के द्वारा प्रत्यक्षरूप से अनुभव करना योग्य है । द्रव्याथिक नय और पर्यायापिक नय कर्ता का और भोक्ता का भेद दिखाते हैं । अन्य पर्याय करती है और अन्य पर्याय भोगती है, ऐसा पर्यायाथिक नय से भेद हो तो हो-ऐसा साधने से साम्य की सिदि तो कोई नहीं है। अथवा द्रव्याथिक नय से जो द्रव्य भाना. परणादि कमों को करता है, वही भोक्ता है-ऐसा भी है तो ऐसा ही हो Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार १८५ इसमें भी साध्य की सिद्धि कुछ नहीं है । उसी प्रकार कर्तृत्व नय के विचार से जीव अपने भावों का करता है और भोक्तृत्व नय के विचार से जिस रूप परिणमन करता है उन परिणामों का भोक्ता है-यह जैसा भी कुछ है वैसा हो हो । इन विचारों में शुद्ध स्वरूप का अनुभव नहीं होता कारण कि ऐसा सब विचारना अशुद्धरूप विकल्प है। इसके विपरीक. अकतत्व नय से जीब अकर्ता है, अभोक्तृत्व नय से भाक्ता नहीं है--से विचारों से भी शुद्ध स्व. रूप का अनुभव नहीं है। अन्य करता है अन्य भोगता है, ऐसा विकल्प, जीव कर्ता है भोक्ता है, ऐसा विकल्प; जीव कर्ता नहीं है भोक्ता नहीं है, ऐसा विकल्प; इत्यादि अनंन नय जनित विकल्प है परन्तु इनमें से कोई भी विकल्प किसी भी काल में शुद्ध वस्तु मात्र जो जीवद्रव्य है उसके शुद्ध स्वरूप के अनुभवरूप स्थापित करवाने में समर्थ नहीं है। भावार्थ-कोई अज्ञानी यदि ऐसा जाने कि यहा ग्रन्थकर्ता आचार्य ने कर्तापने को-अकर्तापने को-भोक्तापन को-अभाक्तापने को बहुत भांति से वणित किया है तो क्या इसमें अनुभव की प्राप्ति अधिक है ? उसका समाधान है कि समस्त नय विकल्पों के द्वारा शुद्ध स्वरूप का अनुभव सवंया नही है। यहां ज्ञान कराने के लिए शास्त्रों में बहत नय तथा युक्तियों करके दिखाया है । शुद्ध चतना तो हमको स्वसवेदन प्रत्यक्ष है, समस्त विकल्पी से रहित है। उस अनन्त शक्ति गभित चंतना मात्र वस्तु की सर्वथा प्रकार हमको प्राप्ति हो। भावार्थ-- निविकल्प का अनुभव उपादय है। अन्य समस्त विकल्प हय है। जैसे कोई व्यक्ति मातियों की माला पिरात समय अनेक विकल्प करता है, वे सब झूठ है । विकल्पों में शोभा उत्पन्न करने की शक्ति नही है । शोभा तो जो माता मात्र वस्तु है उसमें है। इसलिए पहनने वाला पुरुष माती की माला जान कर पहनता है, गुथने के विकल्पों के विचार से नहीं। देखने वाला भी मोतियों की माला जान कर उसकी शोभा देखता है, गूपने के विकल्पों को नहीं देखता। उमी तरह गुद्ध चतना मात्र की सत्ता का अनुभव करना योग्य है। उसमें बहुत विकल्प घटिन होने हैं परन्तु उनकी सत्ता का अनुभव करना योग्य नहीं है ।।१७॥ संबंया-एकमें अनेक हैं अनेक ही में एक है सो, एकनप्रनेक कछ कोन परत है। करता करता है भोगता प्रभोगता है, उपम उपजत मुए न मरत है। . . .. . - Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका बोलत विचारत न बोले न विचारे कट, मेलको न भाजन पं मेसो न धरत है । ऐसो प्रभु चेतन प्रचेतन को संगति सों, उलट पलट नट बाजी सी करत है ॥ बोहा-नट बाजी विकलप दशा, नांही धनुभो जोग । केवल अनुभौ करनको, निविकल्प उपयोग || सर्वया-जैसे काहू चतुर सर्वारो है मुकत माल, माला की क्रिया में नानाभांति को विग्यान है । क्रिया को विकल्प न देखे पहिरन वारो, मोतिनको शोभामें मगन सुखबान है । १५६ संसे न करे न भजे प्रथवा करेसो भुंजे, और करे और भुंजे सब नय प्रमान है। यद्यपि तथापि विकलपविधि त्याग योग, निरविकलप अनुभी प्रमृतपान है ॥१७॥ उपजाति व्यवहारिकदृशैव केवलं कसं कर्म च विभिन्नमिव्यते । निश्चयेन यदि वस्तु चिन्त्यते व तूं कर्म च सर्वकमिष्यते ॥ १८ ॥ प्रश्न- ज्ञानावरणादि कर्मरूप पुद्गल पिंड का कर्ता जीव है या नहीं है ? उत्तर - कहने मात्र को तो कर्मरूप पुद्गल पिंड का कर्ता जीव है परन्तु वस्तु के स्वरूप का विचार कर तो कल नहीं है। झूठी व्यवहार दृष्टि से ही ऐसा कहते है । कतां और किया गया कार्य भिन्न-भिन्न है अत जोब ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म का कर्ता है ऐसा कहने भर को है। बात तो यूँ है कि रागादि अशुद्ध परिणामों को जीव करता है और रागादि अशुद्ध परिणामां के होने पर पुद्गल द्रव्य ज्ञानावरणादि रूप परिणमन करता है - इस कारण ऐसा कह देते हैं कि ज्ञानावरणादि कर्म जीव ने ही किए परन्तु ऐसा कहना झूठ है। सच्ची व्यवहार दृष्टि से स्वद्रव्य-परिणाम तथा परद्रव्य-परिणामरूप वस्तु का स्वरूप यदि देख तो द्रव्य अपने परिणामों में ही सदाकाल परिणमन करता है अर्थात् जो जीब अथवा पुद्गल द्रव्य जिन अपने परिणामों से व्याप्य व्यापक रूप है उनका वही कर्ता है और परिणाम उस द्रव्य Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार १८७ से व्याप्य-व्यापक रूप है अतः उसी का कर्म है-विचार करने पर ऐसा ही घटता है व अनुभव में आता है। अन्य द्रव्य का अन्य द्रव्य कर्ता है अथवा अन्य द्रव्य का परिणाम अन्य द्रव्य का कर्म है ऐसा तो अनुभव में घटता नही क्योकि दो द्रव्यों में परस्पर व्याप्य-व्यापकपना नही है ॥१८॥ वोहा-प्रब्यकर्म कर्ता प्रलल, यह व्यवहार कहाव । निजोजसो परब, तसो ताको भाव ॥१॥ पृथ्वी बहिल्ठति यद्यपि स्फुटबनन्तशक्तिः स्वयं तथाप्यपरवस्तुनो विशति नान्यवस्वन्तरं । स्वभावनियतं यतः सकलमेव वस्स्विष्यते स्तमावचलनाकुलः किमिह मोहितः क्लिश्यते ॥१६॥ जीव का स्वभाव है कि वह सकल जय को जानता है, एसा जान कर कोई मिथ्यादृष्टि जीव अपने अज्ञानपने के कारण जीव को समस्त शंय बग्नु को जानने के कारण अशुद्ध मान कर उसे शुद्ध स्वरूप में स्खलित (रहित) जान कर क्यों मंद मिन्न होता है। परन्तु यह नियम में अविनश्वर शक्तियुक्त चंतनाक्ति का अपना स्वभाव ही है कि अन्य जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य उसके अनुभवगोचर हो यद्यपि प्रत्यक्षरूप में ऐमा है कि जीव द्रव्य समम्न जय को जानकर जयाकार रूप परिणमन करता है, तो भी कोई एक जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य किसी भी अन्य द्रव्य में प्रवेश नहीं करता है एमा वस्तु का स्वभाव है। भावार्थ-जीव द्रव्य समम्न शंय वस्तु को जानता है ऐमा नो स्वभाव है परन्तु मान जयरूप नहीं होता है और जय भी मानरूप परिणमन नहीं करता, ऐसी वस्तु की मर्यादा है ॥१९॥ सबया -मानको सहज याकार रूप परिणाम, यपि तवापिसान जानरूप कहो है। मेय यरूपसों अनादि हो की मरयाय, काहू वस्तु काहको स्वभाव नहिं गयो है ॥ एते परि कोड मिण्यामति कहे याकार, प्रतिभासनिसों मान अशुरुहं रहो है। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ समयसार कलश टीका पाही दुरक्षिसों विकल भयो गलत है, ममुझे न धरम यों भलं माहि वयो है ॥१६॥ रयोद्धता वस्तु चंकमिह नान्यवस्तुनो येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरो परस्य कः किं करोति हि बहिर्जुठन्नपि ॥२०॥ दमी अर्थ को ओर बन देकर ममझान है.... जीव द्रव्य अथवा पुद्गल द्रव्य अपनी-अपनी मनाप जमे है. वंग ही है। अन्य किसी द्रव्य में मवंथा नहीं मिलने - म दृश्यों के स्वभाव को मर्यादा है। हम कारण, निश्चय में, द्रव्य वस्तु अपने म्वरूप में जैसा है, वैमी ही है एमा ही परमेश्वर ने कहा है और अनुभव में भी यही आता है। जाव द्रव्य जय वस्तु को यपि जानता है. नथापि उसमे सम्बन्धरूप (एकरूप) नहीं हो सकता । भावार्थ ... वम्त स्वरूप की मी मर्यादा है कि कोई द्रव्य किमी द्रव्य में एक नहीं होता है । इसके उपगन भी जीव का स्वभाव जय वस्तु की जाना का हो तो हो. उसमें भी धोखा नो कोई नहीं है । जीव द्रव्य शय वस्तु को जानता हआ अपन म्वरूप म है ॥२०॥ चौपाई-सकल वस्तु जगमें प्रमहोई । वस्तु बस्नुमों मिले न कोई ॥ जोब बस्तु जाने जग जेती। सोऊ भिन्न रहे सब सेतो ॥२०॥ रथोद्धता पतु वस्त कुरुतेऽन्यवस्तु नः किञ्चनापि परिणामिनः स्वयम् । व्यावहारिकदृशंव तन्मतं नान्यदस्ति किमपीह निश्चयात् ॥२१॥ कोई आशका उठाए कि जैन सिद्धान्त में भी गमा कहा है कि जीव जानावरणादि पुद्गल कम को करता है. भोगता है। तो उसका यह समाधान है कि मूठे व्यवहार में कहने भर को ऐसा है। द्रव्य के स्वरूप का विचार करें तो परद्रव्य का कर्ता जीव नहीं है। ऐसी भी एक कहावत है कि कोई चेतना लक्षणयुक्त जीव द्रव्य अपने परिणामों की शक्ति से मानावर. णादि रूप परिणमन करता है और ऐसे किसी पुद्गल द्रव्य का कता हैऐसा अभिप्राय मूठी व्यवहार दृष्टि से है। वस्तु के स्वरूप के विचार से ऐसा अभिप्राय नहीं है। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदात्म-द्रव्य अधिकार १८१ भावार्थ-ऐसी कोई बात मत्य नहीं है, मूल मे मठ है. ऐसा सिद्धान्त मिट हुआ ॥२१॥ दोहा-कर्म करे फल भोगवे, जीव प्रशानी कोय । यह कपनी व्यवहार की, वस्तुस्वरूप न होय ॥२१॥ ___ शार्दूलविक्रीडित शुखद्रव्यनिरूपणापितमतेस्तत्वं समुत्पश्यतो नंकद्रव्यगतं चकास्ति किमपि द्रव्यान्तरं जाचित् । शानं शेयमवंति यत्तु तवयं शुबस्वभावोदयः कि द्रव्यान्तरचुम्बनाकुलधियस्तत्वाच्यवन्ते जनाः ॥२२॥ ममम्त मंमारी जीव राशि का टम अनुभव में भ्रष्ट होने का कोई कारण नहीं है कि जीव वस्तु मर्वकाल गदम्बका है व ममम्त शंय पदार्थों को जानती है। भावार्थ-वस्तु का स्वरूप नो प्रगट है इसमें भ्रम में क्यों पटा जाय ? ऐसी बद्धि करना कि समस्त ज्ञेय वस्तु को जानता है. इसलिए जब अगुड हो गया है और शेयवस्तु का जानपना छट कर ही वह गद होगा श्रम है । ज्ञान अंय वस्तु को जानता है यह तो ठाक ही है यह गद जीव वस्तु का म्वरूप है । भावार्थ-जमे अग्नि का दाहक स्वभाव है और वह समस्त दाय वस्तु को जलाती है परन्तु जलाने हा भी अग्नि अपने गुद्ध ग्वरूप में स्थित है-अग्नि का ऐमा ही स्वभाव है । उसी तरह जीव ज्ञान स्वरूप है और वह ममस्त जय को जानता है परन्तु जानते हुए भी अपने स्वरूप है ऐमा वस्तु का स्वभाव है। जो शंय को जानने में जीव को अशुद्ध मानते हैं मो ऐसा नहीं है, जीव शुद्ध है। कोई भी जयरूप पुद्गल द्रव्य अथवा धर्म-अधर्मअकाश-काल द्रव्य शुद्ध जीव वस्तु मे मिलकर एक द्रव्यमा परिणमन करेऐसा नहीं शोभता है। भावार्थ ---जीव समस्त जेय को जानता है फिर भी मान ज्ञानरूप है और जंय वस्तु जेय रूप है। कोई द्रव्य अपना द्रव्यत्व छोड़ कर अन्य द्रव्यरूप तो नहीं हुआ, ऐसा अनुभव उस जीव को होता है जो ममस्त विकल्पों से रहित शुद्ध चेतना मात्र जीद वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभव में अपनी बुद्धि के सर्वस्व को लगाता है तथा मत्तामात्र शुद्ध जीव वस्तु का प्रत्यक्ष रूप से आस्वादन करता है। भावार्थ-जीव समस्त जेय मे भिन्न है। ऐसा वस्तु का स्वभाव सम्यग्दृष्टि जीव जानता है ॥२२॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलग टीका करित-पाकार ज्ञानको परिणति, वह मान नहीं होय । पलट इम्य भिन्न पर, मानप प्रातम परमोय ॥ जाने मेद भावमो विवाग, गुग्गलमग मम्यकदृष्टि जोय। मृगमको ज्ञान महि.प्राकृति, प्रगट कलंक लोहिकोय ॥२॥ महाकांता शुगनव्यम्बरसमवनाकि स्वभावस्य शेषमम्पाण्यं भवति यदि वा तस्य कि स्यात्स्वभावः । ज्योलमापं म्नपति भुवं नंब तस्यास्ति भूमिमनि मेयं कलयति सदा मेयमस्याम्ति नंव ॥२३॥ जीव को अग्रहण गरिन व और पर म माम्बन्धित जितनी भी जय पात: उन सबको एक गमय में द्रव्य, गण और पर्यायां के भाग जंगी है जमी जानती है परन्तु निम्नय म भगवम्त ज्ञान में गम्बधाप (एक सप) नहीं है. जमे चांद की किरणं फैल कर भूमि को वन करती है, चांद की किरणों के प्रमार के सम्बन्ध में भूमि किरणम्प नहीं होती। भावार्थ-जिस प्रकार चांद को किरणों के फैलने में मारी भूमि श्वेत हो जाती है नब चांद की किरणों का भूमि में जैमा मम्बन्ध होता है उसी प्रकार जान जय वस्तु को जानना है तो भी ज्ञान और जय के सम्बन्ध में एकरूपता नहीं है, ऐसा वस्तु का स्वभाव है। जो ऐसा नहीं मानता उमको युक्ति में इस प्रकार समझाते हैं। शुद्ध द्रव्य अर्थात् सना मात्र वस्तु अपने-अपने स्वभाव में ही रहती है । भावार्य-सत्ता मात्र वस्तु निविभाग, एकरूप है, उसकंदो भाग नहीं होते। यदि अनादि-निधन मत्तारूप वस्तु किसी अन्य सत्तारूप हो जाए तो जो पहले सत्तारूप वस्तु सधी हुई थी उसका जो पहले का स्वभाव था वह अन्य स्वभावरूप हो जाएगा और कि पूर्व सत्ता में से यह नई मत्ता उत्पन्न हुई तो पूर्व सत्ता का विनाश हो जाएगा। भावार्ष-जैसे जीव द्रव्य चेतना सत्तारूप है, निविभाग है तो वह बेतना मता यदि कभी पुद्गल द्रव्य अचेतनारूप हो जाए तो बेतना सता का विनाश होने को कौन रोक सकता है ? सो वस्तु का म्वरूप एंमा तो नहीं है । इसलिए जो द्रव्य जैसा है वैसा ही है अन्यथा होता नहीं। इसीलिए Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार १६१ जीव का ज्ञान समस्त ज्ञेय को जानता है तो भी अपने ही स्वरूप है ॥२३॥ सक्ष्या-जैसे चन्द्रकिरण प्रगट भूमि स्वेत करे, भूमिसी न होत सदा ज्योतिसी रहत है। तैसे ज्ञान सकति प्रकासे हेय उपादेय, याकार दोसे पं न शेय को गहत है ॥ शुद्ध वस्तु शुद्ध परयायरूप परिणमे सत्ता परमारण मोहि डाहे न डहत है । सोतो प्रोररूपकबहू न होय. सरबधा, निश्चय प्रनादि जिनवारिण यों कहते है ।। २३ ।। मंदाक्रांता रागद्वेषद्वयमुवधते तावदेतन्न यावत् ज्ञानं ज्ञानं भवति न पुनर्बोध्यतां याति बोध्यं । ज्ञानं ज्ञानं भवत तदिदं व्यक्कृताज्ञान भावं भावाभावो भवति तिरयन् येन पूर्णस्वभावः ॥ २४ ॥ इष्ट की अभिलाषा और अनिष्ट में उद्वेग इन दोनों जाति के अशुद्ध परिणाम है ये तब तक होते हैं जब तक जीव द्रव्य अपने शुद्ध स्वरूप के अनुभव रूप में परिणमन नहीं करता है । भावार्थ - जिनने काल तक जीव मिथ्यादृष्टि है उतने काल तक उसका राग-द्वेष रूप अशुद्ध परिणमन नहीं मिटना । ज्ञान होने पर उसकी ज्ञानावरणादि कर्म अथवा रागादि अशुद्ध परिणामों में ज्ञेय मात्र बुद्धि शेष रह जाती है। भावार्थ- ऐसी स्थिति में सम्यग्दृष्टि जीव के लिए जानावरणादि कर्म जानने मात्र का विषय रह जाते हैं कोई जैसा तैसा कर्म के उदय का कार्य करने की उनकी सामर्थ्य नहीं रह जाती हैं। इसलिए जीव वस्तु शुद्ध परिणति रूप होकर शुद्ध स्वरूप का अनुभव करने में समर्थ होओ। ज्ञान शुद्ध ज्ञान के अनुभव के द्वारा मिध्यात्वरूप परिणामों को दूर करता है और जैसा द्रव्य का अनंत चतुष्टय है वैसा प्रगट होता है। भावार्थ- स्वभाव मे मुक्ति की प्राप्ति होती है। चनुर्गति सम्बन्धी उत्पाद-व्यय को सर्वथा दूर करके जीव का स्वरूप प्रगट होता है ||२४|| Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टोका मईया-ग विशेष बलों, तबलों यह जीव मृवा मग पाये। . मान अायो जनचेतनको सब, कर्म दशा परम्प कहा। कम विलक्ष करे प्रमुभौ तह, मोह मिथ्यात्व प्रदेशम पाये। मो. गये उपजे मुबकेवल, सिस भयो जगमाहि न पाये॥२४॥ मंदाक्रांता रागद्वेषाविह हि भवति ज्ञानमज्ञानमावा. तो वस्तु त्वणिहितशा दृश्यमानी न किञ्चित् । सम्पाहारः पयत ततस्तत्वदृष्ट्या स्फुटन्तो मानज्योतिज्वलति सहजं येन पूर्णाचलाधिः ॥२५॥ माना गद ननन्य का अनुभव करने वाला जो जीव है वह प्रत्यक्षमगद जाय ग्यम्प के अनुभव के दाग राग-दंष दोनों को मन मे माकर दूर करे। गग-दंप के मिटने पर गुद जीव का स्वरूप जैसा है महज ही प्रकट होता है। वह ज्ञानज्योति मवंकाल अपनं म्बम्प रूप है। जीव द्रव्य अनादिकमयाग में उपजी मिथ्यान्वरूप विभाव परिणनि के कारण वर्तमान ममार अवस्था में गग-दपम्प अशुद्ध परिणति में व्याप्यध्यापकम्पमय परिणमन करता है अतः गग-उप दाना जानि के बशन परिणाम मना ग्वम्प का दष्टि में विचार करने पर कुछ भी पोज नहीं है। भावार्थ- जमे मना कर एक जीव घ्य है राग-रंप कोई दव्य नही है जीवको विभाव परिणाम है । सी जीव यदि अपने स्वभाव में परिणमन करे नी गग-दंप मर्वथा मिट जाए। ऐसा होना मुगम है, कुछ मुश्किल नही है । अगुट परिणति मिटनी है. शव परिणति होती है ॥२५॥ बाप-भोर कर्म संयोग. महज मियात्यम्प पर। गरोष परिणति प्रभाव, जामे न माप पर। तम मियात्व मिट गयो, भयो मकित उसोत पनि। मगष कद बस्तु माहि. छिन माहि गए मात ॥ अनुभव प्रभ्याम मुबराशि रमि, भयो मिपुरष तारलतरण। पूरण प्रकाश निहपाल निर्गल, बनारती बंदत परस ॥२५॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुदाम-द्रव्य अधिकार १६३ उपजाति रागद्वेषोत्पारकं तत्वदृष्ट्या नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते किञ्चनापि । सर्वद्रव्योत्पतिरन्तश्चकास्ति व्यक्ताऽत्यन्तं स्वस्वभावेन यम्मात् ॥२६॥ कोई मा माने कि जोव ना कभावना गग-द्वप पोरणमन का नहीं है परन्न । पर-द्रव्य ज्ञानाबरणादि कम नथा ममार भाग मामग्रा जाग में जीव का गग-दंग परिणमन करवाने, मा एम। नी । जीवको विभावरूप परिणमन करने का क्ति जाव माना मिथ्यान्य परिनि के कारण गग-दप " जाधवय परिणमन करता है, दूमो किमी द्रव्य को एग नगद काका गामथ्यं न । प्रार, नाम अथया नगर-मन-वचनम्प-नाकम अथाबासामाग गामना 7 iजन मा परदथ्य है, यदि दव्य का मच्ची दष्टि गदम ना. वा. मा भगद्ध बननाए गगदप परिणामा को उपजान म ममय नहीं दिखाद।।गा अर्थ का भार पुष्ट करने के हेतु कहते है गवरव्य जीव, पुदगल, धर्म, अधमं. कान और आकाश का अखण्ड धागा परिणाम अनि हा प्रगट प में अपन-अपने म्वरूप में है, यह ही अनुभव ग उभरता है और एम ही वस्नु ठहरती है। हममे अन्यथा विपरीत है. ॥२६॥ कोउ शिष्य को स्वामी गग-देव परिणाम, साको मून प्रेग्क कर तुम कौन है। पुगत काम जोग किषोंन के भोग, कोषों पन, कोषों परिजन, कोषो भोन है। गुरु को छहों व्य अपने अपने ब्प, मनि को महाप्रमहाई परिगोग है। कोजाग्य काहको न प्रेरक कहाचि नातं, गग-प-मो.-मृबा मदिरा प्रबोंन है ॥२६॥ परिह मति रागवडोषप्रसूतिः कतरपि परेषां दूषणं नास्ति तत्र । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कलश टाका म्थयमयम गधी तत्र सर्पत्यबोधो भवन विदितमम्तं यात्वबोधोऽस्मि बोधः ॥२७॥ जीवद्रव्य मगार अवस्था म गग-द्वंप-माह अशुद्ध चेतनरूप परिणमन करता है मा वग्न के ग्याप का विनार कर ना यह जीव का दाप है, पुद्गल दृश्य का बाट दाप नही है। कारण कि जीव द्रव्य अपने विभाव-मिथ्यात्व में परिणमन करना या अपन अजानवा गग-प-मोह कप अपने आप परि. नमन करे ना पदगल दृव्य की उम पर क्या मामथ्र्य है : अगद अवग्था म गगादिगद परिणति होती ना उन अगद परिणति के होन म अधिक तथा कम जितना भा जानवरणादि कम का उदय है अथवा गरीर मना-वचन है अथवा मन्दिय भाग गामग्रा ल्यादि मामग्री है उनका किमी का ना कोई दाप नही है। वरना गमागे जाव अपने पाप मध्यान्वम्प परिणत कर गदम्बाप के अनभव में भ्रष्ट हान में. कम + उदय ग हा अगद्ध भाव का आना ग्वय का भाव मानना है ना उस पर अजान का अधिकार होकर गग-प-माहप अगद परिणनिहाता है। 'भावार्थ - जब जाच भान आप ही मिथ्यादाट होकर परद्रव्य को अपना मान र अनुभव कर नवगकी गग-द्वंप-मोहा अगर परिणनि हान म कोन गर सकता है । मम पदगन कम का क्या दाप है : रागादि अश्ट परिणनि पजाव परिणमन करना है. मां जीव का दोष है, पुद्गल दव्य का दोष नहीं है। माना जा माह-गग-द्वेष कप अशुद्ध परिणांत है उमका बिना हान पर में शनि , अविनम्बर. अनादिनिधन, अंगाह वंसा विधमानहा। भावार्थ जाव द्रव्य शुद्ध स्वरूप है उमम माह-गग5ष पजा अशुद्ध पारणात है उसका मिटान का यहा महज उपाय है कि जाव द्रव्य शुद्ध बाप म परिणमन करता अशष्ट परिणान मिट जाए। और कोई भी क्रिया या उगय नहीं है। उम अशुट परिणात के मिटते ही जाव वस्तु बसा है. वसा हा है उनम न कुछ घटता है न बढ़ना है ॥२७॥ दोहा--कोउ मूरख यों कह, राग देष परिणाम । पुरगल को जोरावरी, बरते मातमराम ॥ ज्यों ज्यों प्रगल बल करे, धरि परि कमज मेष । राग देष को परिणमन, त्यों त्यों होय विशेष ॥ हरिषि जो विपरोन पब, गहे पापहे कोय । मो नर गग विरोष सों. कई भिन्न न होय ॥२७॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्म-द्रव्य अधिकार उपजाति जन्मनि निमिततां परद्रव्यमेव कनयन्ति ये तु ते । उत्तरन्ति न हि मोहवाहिनों शुद्धबोधविधुराम्यबुद्धयः ॥ २८ ॥ उपरोक्त अर्थ को और प्रगान करने कहते है कि मकन उपाधि मे रोहन जीव वस्तु के प्रत्यक्ष अनुभवमे रहित होने के कारण मिध्यादृष्टि जोनराशि माह-राग-द्वेषवाला अगद्ध परिणति रूक्षत्र का सेना का नहीं मिटा सकती । प्रश्न- जिस जीव का सर्वस्व ज्ञान सम्यक्व से शुन्य है उसका अपराध क्या है ? ?EX उत्तर- अपराध है, वहीं कहते है। कोई मिध्यादृष्टि जांव राग-द्वयमोह रूप अशुद्ध परिणति में परिणमन कर रहा है उसके विषय में कोई ऐसी श्रद्धा करें कि आठ कर्म, शरीर आदि नाक तथा बाह्य सामग्री व्यादि पुद्गल द्रव्य का निमित पाकर वह जाय रागादिरूप परिणमन करना है, तो वह मिथ्यादृष्टि है, अनन्य सन्मारी है कि नियम अगर मगागं जीव की गगादि अशुद्ध परिणमन करने की शक्ति नहीं है और पुदगल कम उसकी बरजोरी में अशुद्ध परिणमन करवाना हैकमना सब कान में विद्यमान ही है फिरजीव का शद्ध परिणमन का अवसर हो कहा मिलगा अपितु कोई अवसर नही रहा ||२६|| दोहा-मुगुरु कहे जग में रहे, गुगल मंग मोब सहज शुद्ध परिणाम को प्रोमर लहे न जीव ॥ ताते विभावन वियं समस्य चेतन गव । राग बिरोध मिध्यानमें, गम्यक में शिव भाव ||२६|| शार्दूलविक्रीडित पूर्णकाच्युतशुद्ध बोधर्माहमा बोधा न बोध्यावयं यायात्कामपि विक्रियां तत इतो दोपः प्रकाश्यादिव । तद्वस्तुस्थितिबोध बन्ध्यधवरणा एते किमज्ञानिनो रागद्वेषमयोभवन्ति सहजा मुञ्चन्त्युदासीनताम् ॥ २६ ॥ कोई मिध्यादृष्टि जीव ऐसी आशंका करना है कि जब जीव द्रव्य शायक है और समस्त ज्ञेय को जानना है तो परद्रव्य को जानने हुए उसमें Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमा कलश टीका पोरी बहन नो गगादि अगद परिणति होगी ही। इसका उत्तर है कि पगढव्य का जानना हा उम मप ना निरशमात्र भो नही हाता। अपना विभाव परिणत करन म विकार हाना है आर आना परिणत शुद्ध हा ना निविकार है। आगे कहते है कि यह जा मिथ्यादष्टि जावांग है । उप-माह म्प अगद परिणति में मग्न क्या हो रही है ? सकल पर द्रव्य में भिन्नपना ना महज हो म्पाट है फिर वह एसी प्रताति को क्या छाड़तो है ? भावार्थ --वस्तु का म्बाप ना प्रगट है-फिर भी यह उसम विचलित होती है, यह एक पग अचभा है। अज्ञानी जीव की ऐसी बुद्धि है कि वह पद जीव दव्य कवभाव के अनुभव में गन्य है। चेतना मात्र जीव दुख्य नी ममम्न जय का जानता है लिए राग-दष-मोह रूप किसी भी विक्रिया में परिणमन नहीं करना है। वह जीव द्रव्य अखड है. समम्न विकल्पों में हम है. अनन्तकाल नसभा अपने स्वरूप में विचालन नहीं होता. व्यकम-भावकम-नाकम म गहन है तथा उमका सर्वस्व ज्ञानगुण ही है। जम दीपक के प्रकाश बाप-दाग ऊपर-नाच-आगे-पीछ उजाला करके घडा-कपडा इत्यादिदमने है परन्न दापक में उममें काई विकार उत्पन्न नहीं होता। भावार्थ जिम तरह, दीपक प्रकागरूप है और घटपटादि अनेक वस्तुओं का प्रकागिन करता है परन्न प्रकाशित करता हुआ जो अपना प्रकाश मात्र स्वरूप था वैसा ही है उसमें विकार ना काई देखा नहीं जाता उसी तरह जीव द्रव्य जान-म्बाप है, ममम्न शेय को जानता है। जानते हुए भी उसका जो अपना जानमात्र म्यरूप था, वह वंसा ही है। नंय को जानने में काई विकार नहीं होता एम वस्तु के स्वरूप को जो नहीं जानता वह मिध्यादष्टि है | बोहा-ज्यों दीपक रजनी ममें, बहंरिशि करे उरोन। प्रगटे घट घट रूपमें, घट पट रूपन होत ॥ स्यों मुबान जाने मकल, जय बस्तुको मन । मंयाकृति परिणमें, तन मातम धर्म ॥ मामधर्म अविचल मदा, गहे विकार नकोय । राग विरोष बिमोहमय, कबाई मूलि महोय ।। ऐमो महिमा मानको, निश्चय है घटमाहि। मूरख मिन्यादृष्टि मों, सहज बिलोके नाहि ॥ पर स्वभाव में मगन हं, ठाने राग बिरोष।। परे परिपह बारमा, करेनपातम शोष ॥२६॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूयात्म-द्रव्य अधिकार शाईलविक्रीडित रागद्वे विभावमुरूमहसो नित्यं स्वभावस्पृशः पूर्वागामिसमस्तकम्मं विकला मिश्रान्तदास्वोदयात् । दूरारूचरित्रबंभवबलाच्च चचिरचिर्मयों विन्दन्ति स्वरसाभिषिक्तभुवनां ज्ञानस्य संचेतनाम् ॥ ३० ॥ निरन्तर अपने शुद्धरूप का जो मम्यकदृष्टि जीव अनुभव करता है वह रागद्वेग में गहन, अपने आत्मीय रम में जगन का मानो मिलन करने वाली और मन ज्ञेय को जानने में गम चैतन्य हो जिसका सर्वस्व मी ज्ञान नेतना का स्वाद लेता है. उसकी प्राप्त करना है। ज्ञान चेतना का वह स्वरूप जीव की अपनी राग रूप अशद्ध परिणति से रहित अतिगाढ़ चारित्रगुण की सामध्ये अथवा प्रताप से प्रगट होता है। सम्यग्दृष्टि जीव का शुद्ध ज्ञान रागद्वेष इत्यादि जितना भी अशद्ध परिणतिरूप जीव के विकार भाव हैं उनमें हिन हुआ है तथा जितने भी अतोन काल अथवा आगामी कान में सबंधित नाना प्रकार के असम्यान लोक मात्र गगादिरूप अथवा सुखद व अशुद्ध चेतना के विकल्प है उनमें वह सर्वथा गहन है तथा वर्तमान काल में जो कर्मों के उदय से शरीर सुखरूप विषयभोग सामग्री इत्यादि उन्हें प्राप्त हुई है उनके प्रति ने परम उदासीन है । १९७ भावार्थ- मम्यकदृष्टि जीव त्रिकाल सम्बन्धी कमों के उदय की सामग्री से विरक्त होता हुआ शुद्ध चेतना को पाना है, उसका आस्वादन करना है ||३०|| मया जहां शुद्ध ज्ञानकी कला उद्योन होने नहीं, शुद्धता प्रमाण शुद्ध चारित्र को अंश है। ता कारण ज्ञानी मब जाने शेव वस्तु मर्म, वेराग्य बिलाम धर्म बाको सरवंश है ॥ रागद्वेष मोहको दशामों मित्र रहे यातें, सर्वचा त्रिकाल कर्म जालकों विध्वंस है । निस्पाधि प्रातम ममाथि में विराजं तासं, कहिए प्रगट पूरण परम हंस है ||३०|l Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ममयसार कलश टोका उपजाति जानम्य मंचेतनयंव नित्यं प्रकाशते मानमतीव शुलं । प्रमानसंचेतनया तु धावन बोधस्य शुद्धि निरुणादिषः ॥३१॥ अब जान बनना ओर अज्ञान चंतना का फल कहते है। रागष मोह प अगद परिणति के बिना शुद्ध जीव स्वरूप के निरन्तर अनुभव रूप जान की परिणति में मथा निगवरण केवलज्ञान प्रगट होता है। भावायं कारण मदन ही कार्य होता है इसलिए ऐसा घटित होना कि गद ज्ञान के अनुभव ग गद्ध ज्ञान की प्राप्ति होती है। दूसरी भीर निम्नाय ग, गगद्वेष मोह प नथा मुखदुःखादि कप जीव की अशुख परिणानन पर जानावरणादि कमों का अवश्य बन्ध होता हआ फेवल जान की गदना को रोकता है। भावार्थ--जान चनना मोक्ष का मार्ग है तथा अज्ञान गंतना ममार का मार्ग है ॥३१॥ दोहा-नायकभाव जहां तहां, शुट परण की चाल । माने मान विराग मिलि, शिव माघे ममकाल ॥ या अंधके कंध पर बड़े पंगु नर कोय। याके हग वाके चरण, होय पषिक मिलिरोय॥ जहाँ जान क्रिया मिले, तहाँ मोम मग सोय। वह जाने पर को मरम, वह पद में पिर होय।। मान जीवको सजगता, कर्म जीव की मुल। माम मोन कर है. कर्म जगत को मृल।। ज्ञान वेतनाके जगे, प्रगटे केबल राम। कर्म चेतना में बसे, कर्मबंध परिणाम ॥३१॥ प्रार्या कृतकारितानुमन स्त्रिकालविषयं मनोवयनकायः परिहत्य कर्म सर्व परमं नंकमवलम्बे ॥३२॥ मम्यक् दष्टि जीव जितने भी दम्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म है उन सबका स्वामित्व छोड़कर कर्म चनना और कर्म फल चेतना रूप को असन परिणति है उनको मिटाने का अभ्यास करता है कि मैं खुद पैतन्य रूप गोष Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखात्म-सन्य अधिकार १॥ सकल कर्म की उपाधि मे रहित ह ऐमा मेग म्वानुभव में प्रत्यन स्प मुझे बाम्बाद में आता है। अशुद्ध पग्नि का ब्योरा - एक अगुर परिणति अतोन काल के विकल्प सप है कि मैंने एमा किया था. मा भोगा पा इम्यादि । एक अगड परिणति आगामी काम के विषय में सम्बन्धिन ? कि मै एमा कागा, करने में ऐमा होगा इम्यादि। एक अट परिणति वर्तमान विषय प है कि मैं न है, मैं गजाह. मेरे पास मा मामग्री है, मन मा गुग अथवा दुग इत्यादि प्राप्त है। एक ऐसा भी विकल्प है कि अमुक हिसादि क्रिया मैने की, अमुक हिमादि क्रिया अन्य किमी जीव को उपदेश देकर करवाई या कि.मी दाग वय महज कोहः हिमादि क्रिया में मम माना। और एक गया भी विकल्प है जो मन में कुछ चितन करना, वचन में कुछ बालना और काया में प्रत्यक्ष रूप में कुछ करना। इन माविमापा को विस्तार में देखें ना उननाम मंद होते है...वे मभी जीव का बम्प नही है, पुद्गल कर्म के उदय में होने ॥३२॥ चौपाई--जब लग जान चेतना न्यागे। मसलग जीव विकल संसारो॥ जब घट जान चेतना जागो। तब मकिती महजबंगगी। मिस ममान अप निज माने । पर मंगोग भाव पर माने। महातम अनुभव अभ्याने। त्रिविष कर्म की ममता माते। रोहा-ग्यानबंन अपनी कपा, कहे पाप मो पाप । मैं मियाम्ब या विवं, कोने बहविधि पाप ।। संबंया-ह मारे महा मोह की विकलताई, तातहमकारणानकोनी जोव पानको। प्राप पाप कोन पोरन को उपदेशन, हुनी अनुमोदना हमारे पाहो बानको। मन परकायामें मगन कमायो कर्म, पाये भ्रम बालमें कहाए. हम पातकी। मानके बय मा हमागेशा ऐसी भाई, से भानु भामन अवस्था होत प्रातकी ॥२॥ उपजाति मोहाचरहमका समस्तमपि कर्म तत्ातिकम्य । मात्मनि चतन्यात्मति निर्माण नित्यमात्मना बत॥३॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कमश टोका ___ कर्मों के उदय में आत्मद्धि होने में शुद्ध बम्प मे भ्रष्ट होकर जो मंग गगादि अगद .रिणति हुई थी उसका त्याग कर तथा अपने द्वारा पहल किए हए अगद्ध कर्मों का प्रतिक्रमण करके मैं अब स्वयं ही चेतनामात्र बम्न के गद ग्वाप में अनभवप में प्रवर्तन करता है। मेरा शन ग्यम्प मवंकाल में जान मात्र है और समम्न कमों को उपाधि मे रहित है॥॥ मया-नान भान भामत प्रमाग ज्ञानवन्त कहे, कहणा निधान प्रमलान मेगेन्प है। कालमों प्रतीत कम जालमों प्रभोत जोग, जालमों प्रजोन जाको महिमा प्रनप है। मोरको विनास यह जगतको वाम मैं तो, जगतमों शून्य पाप पुन्य पन्ध कप है। पाप किनि किए कौन करे रिमो कौन, क्रियाको विचार सुपनेको और धूप है ॥३॥ उपजाति मोहविलाविजम्मितमिदमुत्यकर्म सकलमालोच्य । प्रात्मनि चतन्यात्मनि निष्कणि नित्यमात्मना बत्तं ॥३॥ जितना भी अगुदपना अथवा मिथ्यान्व के प्रभुत्वपने के कारण फैला हुआ नानावग्णादि पुद्गल कर्म पिंड जो वर्तमान काल में उदय रूप हैद गद जीव का म्वरूप नहीं है मा विचार करके मैं उनमें स्वामित्वपना छोड़ना ह ओर पर द्रव्य को बिना सहायता के अपनी ही सामर्थ्य में अपने में सर्वथा उपादेय बद्धि करके प्रवनंन करता है । मैं शुद्ध चेतना मात्र स्वरूप ह और ममस्त कर्मो को उपाधि मे रहित हूं ॥३४॥ दोहा-करणी हितहरलो सरा, मुकति वितरली नाहि । गनी बंप परति वि, सनो महाक माहि ॥ मया---करणी की परणी में महा मोह राजा बसे, करणी प्रमान भाव रामसकी पुरी है। करलो करम काया पुदगल की प्रति चाया, करली प्रमट मावा मिसरीको धुरी है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुढारम-द्रव्य अधिकार करणों के जाल में रियो विवानर, करणों को प्रो. मानभान दुति दुगे। प्राचारकहें कर सोमोजोब, करणी मग नि बम्प पुरी है ॥३॥ उपजाति प्रत्याल्याय भविष्यकम समस्तं निरस्तसम्मोहः । मात्मनि तन्यात्मनि निःकमरिण नियमात्मना बतं३॥ जिमको मिध्यान्व कप अगद परिणनि चली गई हैमा में आगामी काल सम्बन्धी जितने भी गगादि अनद विकल्प है चमब मरे पर बाप से भिन्न हैमा जानकार उन ग्रहणम्प स्वामित्वकाहारकर, जाम चंतना मात्र है, ममम्त कमों की उपाधि महिन हम अपने बम्प में अपने ही मान के वन म निरन्तर अनुभव ग में प्रवनंन करता ह॥३५॥ चौपाई-मया मोहकी परिणति फलो। नातं कर्म चेतना मंगो। मान होत हम समझी एनो। जीव मदीय भिन्न परमेती ॥३५॥ उपजाति ममस्तमित्येवमपास्य कर्म कालिकं शुवनयावलम्बी। बिलोनमोहो रहितं विकाचिन्मात्रमात्मानमथावलम्बे ॥३६॥ पूर्वोक्न प्रकार जितने भी अमीन, अनागत, वर्तमान काल मम्बन्धी जानावरणादि दृश्य कम व गगादि भानक उनको जीव में भिन्न जानकर उनका स्वामित्वपना त्याग कर अगद परिणांन. मिटने के उपरान उस जान म्बम्प जीव वन का निरन्तर आम्वादन करना है। जिसका मिथ्यात्व परिणाम मन मे हा मिट गया हैएमा में जी गग-प-मोह कप अश परिणति में रहित है. उमी गुट जीव वस्तु का आलम्बन ले रहा हूँ॥३६॥ चौपाई- त्रिकाल करणीसों न्यारा चिज बिलास पर जग उनपारा। गग बिरोष मोह मम माहो । मेरो अवलम्बन मुझमाही। विगलन्तु कविषतरफलानि मम भुक्तिमन्तरेष। संचेतवेहमवलं तन्यात्मानमात्मानं ॥३७॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कला टीका में अपने नवम्बम्प का, शान बम्प मात्र आम्मा का-जो अपने बाप में कभी ग्वलित नहीं होता, आम्वादन करता हूं। इम शुद्ध म्वरूप के अनुभव के फनम्बर मानावग्णादि पुद्गल पिड कप विष का वृक्ष जो किनन्य प्राण का घातक है. उनके फल अर्थात उदय की मामग्री का मेरे भांग बिना ही मन में मनामर्माहत नाग हो। भावार्थ .. कम के उदय में प्राप्त मुम्ब अथवा दुःख का नाम कर्म फल चनना है उसमें आत्मा भिन्न स्वरूप है गेमा जान कर मम्यग्दष्टि जीव अनुभव करना है॥३७॥ मया-मम्पकान को अपने गुण. मैं नित मग विरोषसों तो। मैंकरतिक निरवंडक. मोह विर्य रम लागन तोतो।। गड म्यानको प्रभो शरि, मैं जग मोर. महा भट जोनो। मोन ममोप भयो अब मोक काल अनन्त रहो विधि होतो ॥३७॥ वसंततिलका निःशेषकर्मफलसंन्यसनाममवं मक्रियान्तरविहारनिवृत्तवृत्तेः चंतन्यलक्ष्म भजतो भृशमात्मतत्वं कालावलीर मचलस्य बहत्वनन्ता ॥३८॥ मुम कर्म चेतना तथा कर्म फल चेतना मे हित शुद्ध शान चेतना में स्थिताप अनन्त काल मे हो पूरा हो। भावार्थ ---क.मंचेतना तथा कर्मफलचेतना तो हेय है और ज्ञानचेतना उपादेय है। समत जानावरणादि कमों के फलस्वरूप प्राप्त संसार के मुखदुख के स्वामित्वपने के त्याग के कारण अन्य कर्मों के उदय से हुई अशुद्ध परिणति में जो जीव विभावरूप परिणमन कर रहा था उससे रहित होकर अनन्न जान चेतनामात्र प्रवृत्ति हुई है जिसको ऐसे मुझे वह शुद्ध चतन्य वस्तु निरन्तर अनुभव में आती है जो शुद्ध ज्ञान स्वरूप है तथा आगामी अनंतकाल नक अपने स्वरूप से अमिट है ॥३८॥ रोहा-कहे विधमरण में रहं, सदा मान रस राचि । शुगतम अनुभूतिसों, ललित न होहं कदाचि॥ पूर्वकरम विष तरु भए, उद भोग फल फूल। में इनको नहिं भोगता, सहब होहं निर्मूल ॥३॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धात्मद्रव्य अधकार वसंततिलका यः पूर्व भावकृतव विषमार भुङ्क्तेफलानि न खलु स्वत एव तृप्तः । प्रापातकाल रमरणीयमुदकंरम्यं २०३ निःकम्मंशमंमयमेति दशान्तरं सः ॥ ३६ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव सम्यक्त्व होने से पहले मिथ्यास्य भाव के द्वारा उपार्जित ज्ञानावरणादि पुद्गल पिडचेनन्य-प्राणघातक विच वृक्ष के फम अर्थात् संसार सबंधी सुखदुख को नहीं भांगना है । भावार्थ - मुखदुख का जायब. मात्र है परन्तु उनको परद्रव्य रूप जान कर उनमें रंजायमान नही होना । मध्यग्दृष्टि जीव जय स्वरूप का अनुभव होने मे होने वाले अनीन्द्रिय सुख में तृप्त है। वह निःकर्म अवस्था रूप उम निर्वाण पद को प्राप्त करना है जो अनन्त सुख विराजमान है, आगामी अनन काल तक मुख रूप है व मकल कर्म का विनाश होने में प्रगट होने वाले द्रव्य के महज भूत अतीन्द्रिय अनन्त सुखमय है अर्थात् उससे एक सत्ता रूप है ॥ ३६ ॥ दोहा - जो प्रवकृत कर्मफल, चिसों भुंजे मोहि । मगन रहे घाठों पहर, शुद्धात पर मांहि ॥ मो बुधकबंदशा रहित, पावे मोक्ष तुरंग । भजे परम समाधि मुल, ग्रागम काल प्रगत ॥३९॥ स्रग्धरा प्रत्यन्तं भावयित्वा विरतिमविरतं कर्मणस्तत्फलाम्च प्रस्पष्टं नाटयित्वा प्रलयनमखिलाज्ञानसंचेतमायाः । पूर्ण कृत्वा स्वभावं स्वरसपरिगतं ज्ञानसंचेतनां स्वां सानन्दं नाटयन्तः प्रशमरसमित: सर्वकालं पिवन्तु ॥ ४० ॥ आवरण सहित जो केवलज्ञान था उसकी निरावरण करके जो जीव स्वयं अपनी शुद्ध ज्ञानमात्र परिणति को आनन्द सहित नयाता अतीन्द्रिय सुख सहित ज्ञान बेतनारूप परिणमन करता है वह आगामी अनन्तकाल पर्यन्त अतीन्द्रिय सुख का स्वाद लेता है। उसने सर्व मोह-राग-द्वेष इत्यादि अशुद्ध परिणति का भने प्रकार विनाश किया है और यह सर्वथा सर्वकाल निश्चय Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ ममयमार कलशटीका करक कि जानवरणादि कम और कमों के फलम्बम्प प्राप्त मखदुख शन बमा म अत्यन्न भिन्न है उना स्वामित्वपन केन्याग का भाकर उस म्व-म्वभाव को प्राप्त किया है, जो चनना ग्म का निधान है। भावार्थ- मोह-गग-द्वप विनगना है और गदशान चनना प्रगट होती है । अतीन्द्रिय मुमार जीत परिणमन करता है। इनना जो कार्य होता है वर. मब एक ही माय होता है ||४|| पापं जो पूग्य कृत कर्म, विव विषफल नरि भंगे। गोग जुनि कारिज करत, ममता न प्रजे॥ गग विशेष निगेधि, मंग विकला मारे। शुखानम प्रभो प्रभ्याम, शिव नाटक मरे॥ जो सामवन र मग चलन, पूरण केवल लो। मो परम प्रनोन्द्रिय मृत्व विवं, मगन हा मंतत गेहे ॥४०॥ उपजाति इतः पदाप्रप्रपनावगुण्ठनाद्विना कृतेरेकमनाकुलं ज्वलत् मस्तवस्तुव्यतिरेकनिधयाद्विवेचितं जानमिहावतिष्ठते ॥४१॥ अजान चेतना का विनाश होने के उपगन्न उम जीव वस्तु का आगामी मयंकाल गद ज्ञान मात्र प्रवनंन है जो अपने में विद्यमान शक्ति के कारण मयंकाल ममग्न पगद्रव्य मे भिन्न है. ममग्न भेद विकल्प में गहन है. अनाकुलत्य लक्षण वाले अतीन्द्रिय मुख में यक्त है और मयंकाल प्रभागमान है। पन वर्ण. पच रम. दो गध, अष्ट म्पणं, शरीर, मन, वचन मुखदम, इत्यादि जितने भी विषय है उनको माला की नग्ह गृपने पर उम मब माला मे जोव वस्तु भिन्न है। वह विषयों को माला पुद्गल द्रव्यों को पर्यायरुप है ॥४१॥ मया - निरमं निराकुल निगम र निरमेर, जाके परकाशमें बगत माया है। प रस गंध कास पुदगल को बिलास, तासों उपवासबाको बस गायत॥ विबहलो विरत परिवहसों म्यारो सदा, बा जोग विपहको चिन्ह पाहतु है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुवात्म-दम्य अधिकार सो है जान परमारण वेतन निधान ताहि. अविनाश शि मानि सोम नायतु है ॥१॥ शार्दूलविक्रीडित अन्येभ्यो व्यतिरिक्तमात्मनियतं विभ्रत् पृथावस्तुता. मावानोज्झनशून्यमेतदमलं नानं तथावस्थितम् । मध्यान्तविभागमुक्तसहजस्फारप्रमामासुरः शुटमानधनो यथाऽस्य महिमा नित्योविस्मिति ॥४२॥ गट ज्ञान उम प्रकार प्रगट हा जिस प्रकार उसका प्रकाम आगामी अनन्न काल पर्यन्त जेमा विनम्बरमा हो गहगा। यह जान मानावरण कममन में गहन, ग्वाप न. व्याग ग पर ग्रहग म गहत, मकल पर दव्य म भिन्न मनाप को क उदगजानन भावाम भिन्न य अपने ग्वरूप म अमिट है। जान का मी महिमा कव, वनमान, पिछन्न और आगामी काल के भद म रहिन स्वभावाप अनन्त ज्ञान को गति म माला प्रकाशमान है ओर चनना का ममहहै॥॥ संबंधा-अंने निरमेल्प निहले प्रोमो, तसे निरभाब भेव कौन कहेगो। से कम रहत महित मुन ममापान, पायो निम पान फिर बाहिर न बहंगो। कबईकरावि प्रपनोम्बभावस्यागिकार, गग म गरिक न पर बस्नु गहेगी। प्रमनाम मान विद्यमान परगट भयो, याही भाति पागामी अनन्तकालरहेगो॥२॥ छंद उन्मुक्तमुन्मोज्यमशेषतस्तनपातमादेयमशेवतस्तत् । परात्मनः संहतसर्वशक्तेः पूर्णस्य साधारणमात्मनोह ॥४॥ जो जीव अपने बाप में स्थिर हमा उमका जितना भी छोरन योग्य हेय वस्तु थो, सब कट गई-कुछ छाइना बाकी नही रहा। उसी प्रकार जा पहन योग्य वा सो समस्त ग्रहण हो गया। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका भावा--गद स्वरूप के अनुभव म मवं कार्य की सिद्धि है। जो आम्मा के गुण विभावरूप परिणमन कर रहे थे व स्वभाव रूप हए और आन्मा जंगा था वमा प्रगट हा ।।४।। मया ---अबहीने बरन विभावमों उलटि प्राप, मम पाय अपनो म्यभाव गहि लीनो है। नबहोतं जो जो लने योग्य मोमो सब लीनो। जो जोन्याग योग मो मो मा छाडि दोनो है। ने को न रही ठौर त्यागवे को नाहि प्रौर । बाकी कहां उबरयो जु कारज नवीनो॥ मंगस्यागि, अंगस्यागि, वचन तरंग त्यागि, मन न्यागि, बुद्धि त्यागि, प्रापा शुरु कोनो है ॥४३॥ छंद एवं जानस्य शुद्धम्य देह एव न विद्यते । तनोदेरमयं नानुनं लिङ्ग मोक्षकारणम् ॥४४॥ पूर्वोक्त प्रकार माधं गा गदम्बाप जीव के गरीर ही नही है अर्थात नगेर है वह भी जीव का ग्वाप नहीं है -टमलिए द्रव्य-क्रियाम्प यतिपना या गृहस्याना जोव के मकल कर्मक्षय लक्षण मोक्ष का कारण ना नहीं है। भावार्थ---कोई मिथ्यष्टि जीव द्रव्य क्रिया को मोक्ष का कारण मानता है, तो उसे समझाया है ।।४।। दोहा-शुबमानके देह नहि, मुद्रा मेष न कोय। तात कारण मोक्षको,म्य लिगनहि होय॥ लिग म्यारो प्रगट कला बचन विमान। प्रष्टमहादि प्रष्टसिद्धि, पर होइनमान ॥४॥ वर्शनशानवारित्रलयात्मा तस्वमात्मनः । एक एव सदा सेम्पो मोक्षमार्गों मुमुलगा ।४५॥ जो पुरुष मोम को उपादेय मानता है उसको शुद्ध स्वरूप का अनुभव सकल कर्मों के विनाश का कारण है-ऐसा समझ कर उसका निरन्तर Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुखात्म-द्रव्य अधिकार २०७ अनुभव करना चाग्य है । सम्यग्दर्शन, सम्यमान, व मध्यावारिस इन नाना म यस्ता मताप आ.माहादजीवका बाप है और यही माझमागं है || ५|| रोहा...मोरयालता भावमो, प्रगट मान को बंग। तापिप्रनुभौ रशा, बरते विगत तांग ।। न जान पर इशा, को एक जो कोई। पिर हं माध मोलमग, मुषी अनुभवी मोई ॥४५॥ शार्दूलविक्रीड़ित को मोशपथी य एष नियतो दग्नप्तिवनात्मकस्तत्रय स्थितिमेति परसमनिश ध्यायेम तं चेतति । तस्मिन्नेव निरन्तरं विहरति ध्यान्तराज्यस्पृशन् सोऽवश्यं समयस्य सारमचिनित्योदयं विन्ति ॥४६॥ जा मम्यग्दृष्टि जाव गुट चनन्य मात्र वस्नु म एकाग्र होकर थरता का प्राप्त होता है तथा गुद्ध चिप का निरन्तर अनुभव करता है और बगवर उमद म्बम्प का हा म्मरण करना है, द चिप मकान होकर अमर धाग प्रवाह पम प्रवनन करना है, वह ममस्त कामों क. उदय महान वाला नाना प्रकार का अगदारणान कामबंधा छारनाहा, मकल कम के विनाम म प्रगट हपगुट चनन्यमात्र का अति हो थार समय में मथा आम्बाद करना है अधांत निवाण पद का प्राप्त हाता है। उस शव निदा का नगन. जान, चरित्र ही मवम्ब है, और वह ज्ञान के प्रत्यक्ष है : उमक जद म्वरूप में पांग्णमन पर मकल कर्मा का क्षय हा है और वह ममम्न विकल्पा मगहन है। श्याथिक दाट मनना जमा है, वैसा ही है, न कुछ कम हुआ है और न कुछ अधिक हुआ है ॥१६॥ दोहा-गरम पर्याय में दृष्टि न रोजे, निविकल्प अनुभव रम पोजे। प्रापममा प्रापमें लोज, सनुपो मेटि अपनपो को। तब विभाव हुने मगन, भुवानमा पर माहि। एक मोल मारग बहै, और इमरो ना६॥ भाईलविक्रीडित ये त्वेनं परिहत्य संवृतिपयप्रस्थापितेनात्मना लिङ्ग द्रव्यमये बहन्ति गमतां तत्वावबोषयुताः । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० ममयमार कलश टोका निम्योसोतमत्वमेकमतलालोकं स्वभावप्रमा. प्राग्भारं ममयम्य मारममलं नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥४७॥ मिथ्यादाट जाव यद्यपि द्रव्य धारण करता है और बहन में मात्र पनना है परन फिर मा उम माल कर्मा म विमुक्त परमात्मा को नही पाना जा हर समय काममान है. जमा या वंमा ही अखण्ड निविकल्प मनाप है, जिगको नाना नाका म का: उपमा नहीं है जा चनना बम्पक प्रकाश का पज है. आर कममात्र गर्गहन है। भावार्थ मिथ्यादट जाय निवाण पद का नहीं पाता है। मिथ्यादष्टि जांब या मात्र जा जारपना उमममी प्रतीनि करना है कि मैं यानि ई ओर मंग क्रिया मातमार्ग है। अगर मबंधी बात्रिया मात्र का अवलम्बन नने वाला मा जीव, गद ग्वार के प्रत्यक्ष अनभव में अनादि काल में भ्रष्ट है। व्याया करना हा वह अपने आप को एमा मानना है कि अंग पर मात्र माग म बंठा है। टमी आभप्राय मगद्ध ग्याका अनभव सागर पर करना है। भावार्थ - गद्ध ग्यार का जनमव मात्रमाग है. मी प्रतीनि वह नहीं करना है ॥८॥ मया के मिष्याष्टि जीव धरं जिन महा मेव, क्रिया में मगन रहें कहें हम यतो है। प्रतुल प्रवण मल रहित सदा उद्योत, ऐसे मान भावमों विमुख मूढमती है। पागम मम्भाले दोष टाले, व्यवहार भालं, पाले बत पप तथापि अविरती है। पापको कहा मोसमारग के अधिकारी, मोम सों सय रुष्ट दुष्ट दरमती है mun प्रार्या व्यवहारविमूवृष्टयः परमा कलयन्ति नो जनाः तुषबोधविमुग्धबुदयः कलपन्तोह तवं न तन्दुलम् ॥४८ कोई से मिथ्यादष्टि जोव है तिनको यह मूठी प्रतीति हुई है कि दम्य किया मात्र हा माक्षमागं है और ऐसे मुबंपने के वशीभूत 'मुखमान Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शहात्म-प्रव्य अधिकार २०६ मोक्षमार्गमा अनुभव नही करने । जंगे वर्तमान मर्ममि में, कितने ही मनं लोग वणि याना जंमा मोहीपरन्तपान के ऊपर के सिन्नर मात्र का ज्ञान : अपनी बदको विश करके, उम । छिलके को अपनाने है और नावना मग्म मानही गाने में ही मिथ्याजान में विकलांग वाल जिननी जन गिगामात्र को मोक्षमार्ग जानने है और आत्मा के अनभव गे सन्य सोपाई-मे मृगध धान पहिचाने । नुमनामको मेद न जाने । नमे मूढमती प्रवाागे। नसेन बन्ध मोक्ष विधि न्यारी॥ दोहा-जेध्यवहान मृत नर, पजयवतोमोन । गिन को बारिज किया वि. प्रवास मदीव ।। अनुष्टुप द्रयनिगममकारमोनितंर श्यने ममयमार एव न । दलिमिह पत्किलान्यतो जानमेकमिदमेव हि स्वतः ॥४६॥ क्रियामा जनाना । निगना। धारण करणे कोई जीवोमा मानना है मे मनिह और मग मनिपना माक्ष का मार्ग मे अभिप्राय में अन्धा जीव परमार्थ दष्टि में गन्य है और उसकी गद जांच नम्न प्राप्ति-गोचर नहीं है। भावार्थ उसका मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ है क्योकि मुठ मान के विमार में नो क्रियाण मनिपना जीव ग भिन्न है. गुदगल कर्म मधी है ओर माला लिग य है, एवं अनुभवगोचर' जान मात्र बस्तु ही कमत्र जीव का मरम्ब मानिा उपादेय है और वही मोक्ष का मागं । भावार्थ गद जाव र स्वाप का अनुभव अवश्य करना योग्य है ॥६॥ कवित---जिगरके देश पद्धि पर अन्नर, मुनि महापरिशिया प्रमाणात । नेशिय प्रग्य संध के करना, पग्म नाय को मेरम बाहि॥ जिनके लिए मुमति को कनिका, बाहिर किया मेव परमागह। ने सकिनी मोल माग्ग मुख, करि प्रस्थान भवम्थिति भामहि । मामिनी अलमलमतिवल्पविकल्पंग्नल्परमिह परमात्यतां नित्यमेकः । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका स्वरमविसरपूर्ण ज्ञान विस्फूर्तिमात्रानवलु ममयमारादुन किंचिदसि ॥५०॥ अब इतना ही कहना है कि शद्ध जीव का अनुभव ही अकेला मोक्ष का कारण है अतः नाना प्रकार के अभिप्रायों को मेटकर उसी एक को नित्य अनुभवी । शुद्ध जीव स्वरूप का अनुभव जिस प्रकार सर्वथा मोक्ष का मार्ग है उसी प्रकार कोई भी द्रव्य क्रिया या सिद्धान का पढ़ना-लिखना इत्यादि अन्य समग्न क्रिया सर्वथा मोक्ष का मार्ग नहीं है। केवल ज्ञान का प्रगटपना बेतना प्रवाह है और यही मोक्ष मार्ग है। इससे ज्यादा कोई मोक्षमार्ग कहे तो वह हिमा है उसे वर्जित करने है कि बहुत बोलने से बम करो, बम करो। इस प्रकार का बहुत बोलना झूठ मे स्ट चिन कल्लोल माला अर्थात मन के उन विकल्पों को उठाता है जो शक्ति के भेद से अनन्न है ।। ५० ।। ܕ: मया प्राचरज कहें जिन वचन को विसतार, अगम अपार है कहेंगे हम कितनो । बहुत बोलवे मां न ममब चुप्प भली, बोलिए सुवचन प्रयोजन है जितनी " नानाम्प जन्नप मां नाना विकलप उठे. नातं जेनो कारिज कथन भन्नो तितनो । शुद्ध परमातमा को प्रनुभो प्रभ्याम कीजे, यहे मोक्ष पंथ परमात्य है इतनो ।। दोहा - शुद्धातम अनुभी क्रिया, शुद्धज्ञान हग दौर । मुक्ति पंथ माधन यहै, बागजाल सब औौर ॥५०॥ छन्द इदमेकं जगच्चक्षुरक्षयं याति पूर्णताम् । विज्ञानघनमानन्दमयमध्यक्षतां नयत् ॥ ५१ ॥ इस प्रकार शुद्ध ज्ञान प्रकाश पूर्ण हुआ । भावार्थ -- मत्रं विशुद्ध ज्ञान अधिकार जो आरम्भ किया था मां पूरा हुआ। शुद्ध ज्ञान जो ज्ञानमात्र का समूह आत्मद्रव्य है उसका प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करता है, वह निविकल्प है. समस्त शेय वस्तु को जानना है और शाश्वत है ।। ५१ ।। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ मसाम-द्रव्य अधिकार रोहा-गगन प्रानंदमय मान वेतना भाम । निर्विकल्प शास्वत गुधिर कीजे अनुभो नाम ॥५१॥ इतीदमात्मनस्तत्वं ज्ञानमात्रमस्थित अन्वरमेकमचलं म्वमवेद्यमबाधितम् ॥५२॥ प्रत्यक्ष है जो गड जीव का म्याप का शानमार शद नननामात्र . अमर-प्रवा . ना . प्रपनाम अमित जान गण मे ग्वानव गानर, कमान मन परमी वाया उत्पन्न करने में ममर्थ नहीं है पूर्ण नाम गमगार पर गा गिदान गितहा। भावार्य पद ज्ञानमार गार प्रयतमा मथन करने पर प्रत्य मम्पूर्ण ना ! दोहा-प्रसन्न प्रवरित मानगय. पण वोन ममत्व । मानगम्य बाधारित मोहे प्रातम न्य। गवं विद्धि द्वार पर, यो प्रगट शिवपंथ । कुनकुन्द मुनिगहन, पूरण भयो प्राय ॥५२॥ ॥ इतिहमा अध्याय ॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकादशम अध्याय स्याद्वाद अधिकार अनुष्टुप् : अत्र स्याद्वादशुद्ध वर्थ वस्तुतस्वव्यवस्थितिः । उपायोपेयभावश्च मनाग्भूयोऽपि चिन्त्यते ॥ १॥ जीव द्रव्य ज्ञान मात्र कहने समयसार नाम शास्त्र समान हुआ। अब इसके अतिरिक्त कुछ थोड़ा सा अर्थ और भी कहते है । भावार्थ - जिम गाथा सूत्र के कर्ता कुन्दकुन्दाचार्य है उनके द्वारा कही गई गाथा सूत्र का अर्थ तो सम्पूर्ण हो गया परन्तु उसके जो अमृतचंद्रमूरि टीकाकार है वह टीका पूर्ण करने के उपरांत कुछ और भी कहते हैं। क्या कहने है जीव द्रव्य का ज्ञानमात्र स्वरूप जंमा है वैसा कहते है, मोक्ष का कारण क्या है वह कहते है और मकल कर्मो का विनाश होने पर जो वस्तु निष्पन्न होती है वैसा कहते है। कहने की गरज ही गया है ' ज्ञान मात्र जीव द्रव्य में एक सत्ता होते हुए भा अस्ति-नाग्नि, एक-अनेक, नित्य-अनित्य, इत्यादि अनेकान्तपना किस प्रकार घटित होता है इस अभिप्राय को स्पष्ट करने के प्रयोजन स्वरूप कहते है । भावार्थ कोई आशंका करें कि जैन दर्शन का तो स्याद्वाद मूल है परन्तु यहां तो कहा है कि ज्ञानमात्र ही जीव द्रव्य है, तो ऐसा कहने से तो एकान्तपना हुआ, स्याद्वाद तो इसमे प्रगट नहीं हुआ । इसके उत्तर में कहते हैं कि ज्ञानमात्र ही जीव द्रव्य है ऐसा कहने में ही अनेकान्न घटित होता है। कैमे घटित होता है ? यहाँ मे आगे अब यही कहते है. सावधान होकर सुनो || १ || दोहा - कुन्दकुन्द नाटक विषं, कह्यो द्रव्य अधिकार । स्याद्वाद नं साधि मैं कहूं प्रवस्था द्वार ॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद अधिकार कहूं मुक्तिपद की कथा, कहूं मुक्ति को पंथ । जैसे घत कारिज जहां तहां कारण दधि मंथ ॥ एक रूप कोऊ कहे, कोऊ प्रगणित अंग । क्षणभंगुर कोऊ कहे, कोऊ कहे अभग ॥ नय अनन्त इहविधि कही, मिले न काहू कोय | जो नय नय साधन करे, स्थाद्वाद हे मोप ॥ स्याद्वाद अधिकार प्रव, कहूं जंन को मूल । जाके जाने जगन जन, लहे जगन जल कूल ॥१॥ २१३ शार्दूलविक्रीडित बाह्यर्थ: परिपीतमुज्झितनिजव्यक्ति रिक्की मबविभान्तं पररूप एवं परितो ज्ञानं पशोः सीदति । ततसदिह स्वल्पत इति स्थाद्वावाविनस्तत्पुनइंरोन्मग्नघनस्वभावमरतः पूगं समुन्मज्जति ॥ २ ॥ जीव के ज्ञानमात्र स्वरूप के सम्बन्ध में भी चार प्रश्न उठते है. (१) ज्ञान शय पर निर्भर है या अपनी गामध्यं मे स्थित है (२) ज्ञान एक : या अनेक है । ३) ज्ञान अग्निरूप है या नाग्नि है ओर (४) ज्ञान नित्य है या अनित्य है। उनके उत्तर में कहना होगा कि जितना बस्तु है व सब द्रव्यरूप है व पर्यायरूप है । मानिए ज्ञान भी द्रव्यरूप है और पर्यायरूप है । द्रव्य रूप का अर्थ है निविकल्प ज्ञानमात्र वस्तु । पर्यायरूप अवस्था में स्वयं को अथवा पर को जानना हुआ जय की आकृति के प्रतिविम्ब रूप ज्ञान परिणमन करता है । भावार्थ- -जय का जानने रूप परिणति ज्ञान की पर्याय है । इसलिए ज्ञान का जब पर्याय रूप से कहते है ना ज्ञान जय पर निर्भर है परन्तु जब वस्तु मात्र का कथन करते है तो वह अपना मला मे है अपने महारं का 1 पहले प्रश्न का समाधान तो यह हुआ। दूसरे प्रश्न का समाधान यह है कि पर्यायमात्र का कथन करने हुए ज्ञान अनेक है, पर जब वस्तु मात्र का विचार करते है तो एक है। नीमरे प्रश्न का उत्तर है कि ज्ञान की पर्याय का कथन करते हैं तो ज्ञान नाम्निरूप है ओर वस्तु स्वरूप का विचार करें तो अस्तिरूप है । इसी प्रकार चौबे प्रश्न का उत्तर है कि पर्याय मात्र के विचार से शाम Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलश टीका आनन्य है और वस्त मात्र विचार मनिन्य: म प्राना का इस प्रकार समाधान करना ..यह म्यादान है। बग्न का ग्वा गा ही है और मी हा माधना ग वनु मात्र गधना है। कमियादाट जीव यह नहीं मानने कि जा वग्नु वान वहां पयांचाप है। व या ना मवंथा वस्तुमाही मानने या मधा पयायमाय मानत है । म जावा को एकानवादा मिथ्यादष्टि का है। कारण किवान मात्र न मान, पयांग मात्र माने ना पयांय भी नही गधनगर जनक प्रमाण, अवसर पाकर करगा। मी प्रकार पांयम्प न मानन ग वग्न माय भी नहीं मानी--मका दान क लिए भी अना विनया : । अवनर मिनगा ना करग। कई मिथ्यादष्टि जीव ज्ञान का पर्याय मानने वाला नहीं मानने है और गमा मानन हा जान ना जय पर निर्भर मानन है। गएकानपने में जान नही गाना। ज्ञान का अपना गना: । एकानवादी मिथ्यादष्टि जा ज्ञान पर जय की मामध्यं मानना, वर जाव की गना का या वस्तु के आम्नाय को नही पा मकना । भावाचं मान्नवादी के कथन में वस्तु का अभाव सध्रना है, वन का अम्लिय ना मना है। कारण कि मिथ्याष्टि जीव मानना है कि जान का भय बन्न न गव नगरह म आत्मसात् कर रपमा है । भावार्थ मिथ्यादाट जीव मानना है कि ज्ञान का यम्त नहीं है, वह नय में है मा भी उगी क्षण उपजना है और उमा अण विना जाता है । जंग घट का ज्ञान घट म । प्रनानिहाना. जहा-जहा घट है, वहा घटज्ञान है । जव घट नही था ना घट ज्ञान भी नहीं था। जब घट नही होगा ना घट ज्ञान भी नहीं होगा। न मिथ्यादाट जाब ज्ञान वस्तु का न मानते हुए ज्ञान को पयायमात्र मानन हैगएकानवादा मिथ्यादष्टि जीव मानते हैं कि जब को जानने मात्र में जान मना हुई है। ज्ञान नाम में फिर विनाश को प्राप्त हो जाता है। वे मन म हा लेकर जय वस्तु के निमित्त का एकान्त कम कहते हैं कि ज्ञान जेय मे उत्पन्न हआ और जय से विनाश को प्राप्त हुआ । भावार्थ -- जम दीवार पर चित्र बना। जव दीवार न थी चित्र न था। जब तक दीवार है तब तक चित्र है जब दीवार न होगी तब चित्र न होगा। इसमें एसी प्रतीति होती है कि चित्र का सर्वस्व (अस्तित्व) दीवार पर निर्भर है : जैसे जब तक घट है तब तक घट ज्ञान है। जब घट नहीं था तब घटज्ञान में नहीं था । जब घट नही होगा तब घटज्ञान भी नहीं होग। इससे यह प्रतीति होतो है कि ज्ञान का सर्वस्व (अस्तित्व) जय से है कई अज्ञानी एकान्तवादा ऐसा मानते है इसलिए अज्ञानी के मत में ज्ञान वस्तु नाम की कोई चीज नहीं Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद अधिकार २१५ पाई जाती। स्याद्वादों के मन मे ज्ञान वस्तु पाई जाता है। वस्तु स्थिति जमी एकान्नवादी कहना है सा नहीं है अपितु जंगा स्याद्वाद कहता है सी है। स्याद्वादी जीव एक ही मना की द्रव्य तथा पयायस्य मानना है दलिए मध्यग्दृष्टि के मन मे पूर्ण ज्ञान वस्तु मो गंगा है. जंसा जय में होनी कही, विनशनी कही. बेसी नहीं है। एकतवादी के मन मे जा जान मूल में ही मिट गया था वह जय से भिन्न अपने आप में स्वय-सिद्ध ज्ञान म्याद्वादी के मन मे वस्तुरूप प्रगट हुआ। आदिकाल से लेकर जो ज्ञान का स्वयगिद्ध, अमिट, महज स्वभाव है उसका व्याय से विचार करके तथा अनुभव करके उसकी समा प्रगट होती है। जो वस्तु है वह वस्तु अपने स्वभाव से ही वस्तु ऐसा अनुभव करने से अनुभव भी उपजता है और युक्ति भी प्रगट होती है। अनुभव निविकल्प है। युक्ति है कि व्यष्टि से विचार कर ज्ञान वस्तु अपने स्वरूप में है औरष्ट विचार करता जय म है। जम ज्ञान वस्तु द्रव्यरूप नेता ज्ञानमात्र है परन्तु पर्याय पटमात्र है। इस तरह पर्यायरूप में देखन है ना जा घटजान कहा वह घट के होते हुए ही है,घटके बिना नहीं है। द्रव्यदृष्टि से जब अनुभव करते है तो उसे घटज्ञान रूप नहीं देखते। ज्ञान का ज्ञानमात्र देखते है जो घट में भिन्न अपने स्वरूप मात्र में व्यय-सिद्ध वस्तु है इस प्रकार अनेकान्न की साधना मे वस्तुस्वरूप मनता है। एकान्त दृष्टि में जा कहा कि घट के कारण घट ज्ञान ज्ञान वस्तु कोई बीज नहीं है मा फिर ऐसा होना चाहिए कि घट के पास बट पुरुष का जंग पट ज्ञान होता ही घट के पास जो वस्तु रक्खा ही उमा का घट जान हा जाना चाहिए। ऐसे मे सम्भ के पास घटवा हा म्भका घट ज्ञान हो जाना चाहिए परन्तु ऐसा ना नहीं दिखाई देना। हम यह भाव प्रतीन होता है कि जिसमें ज्ञान शक्ति मौजूद है उसका घट के पास बैठने से घट को देखने-विचारने में, घट ज्ञान रूप ज्ञान की पर्याय का परिणमन होता है । इस प्रकार स्याद्वाद बस्तु का माधक है, एकान्नवाद वस्तु का नाश करता है ||२|| है सर्वया - शिष्य कहे स्वामी जब स्वाधीन कि पराधीन, बोब एक है feel धनेक मानि लीजिए । जीव है मशीन कियो नाहि जगत मोहि, जब अविनश्वर कि नश्वर कहीजिए । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयसार कलशटोका मगुरु कहे जीव है, मरीव निजाधीन, एक प्रविनावर बरस दृष्टि बोजिए। जीव पराधीन भणभंगुर अनेक रूप, नांहीं जहां नहां पर प्रमाण कीजिए । मया-द्रव्य क्षेत्र कान भाव चागे मेद वस्तु हो में, अपने चतुष्क वस्तु प्रतिस्प मानिये । पर के चतुरक वस्तु नास्ति मिलत अंग, ताको भेद द्रव्य परजाय मध्य जानिए । दरबनो वन क्षेत्र गना भूमि कालचाल, म्वभाव महज मूल मकति ववानिये। पाही भांति पर विकलप बडि कलपना, व्यवहार दृष्टि प्रा मेद परमानिये॥ दोहा--है नाहीं नाहीं मृ है है नांही नारि । यह मावंगी नय धनी, मर माने मब मांहि ।। मया - मान को कारण य प्रातमा त्रिलोकमा, संयमों अनेक ज्ञान मेल जय छांही। जों लोंबतों लोमान मवं वं में विज्ञान, मंय क्षेत्र मान जान जोय वस्तु नहीं है। देह नमे जोर नमे दे: उपजत नसे, पानमा पतन है मता प्रंश मांही है। जीव भरणभंगुर प्रनायक स्वापी मान, ऐमो ऐसो एकान्त अवस्था मूड पाहीं है। कोउ मूह कहै जैसे प्रथम मवारि भोति, पोखे ताके ऊपर मुचित्र पाइयो लेखिए। संसे मूल कारण प्रगट घट पट असो, तमो तहां मानरूप कारिज बिसेखिए । जानी कहे जसो बस्तु तंसा हो स्वभाव ताको, नातेजान अब भिन्न भिन्न पर पेखिए। कारण कारिज होउ एकहो में निापाय, सरो मत सांचो व्यवहार दृष्टि देखिए ॥२॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यावाद अधिकार २१७ शार्दूलविक्रीड़ित विश्वं मानमिति प्रतयं सकलं दृष्ट्वा स्वतस्वाशया भूत्वा विश्वमय: पशुः पशुरिव स्वच्छन्दमाचेष्टते । पत्तत्तत्पररूपतो न तदिति स्याद्वारदर्शी पुनविश्वाड्रिनमविश्वविश्वघटितं तस्य स्वतत्वं स्पृशेत् ॥३॥ कोई मिथ्यादष्टि मा है जा ज्ञान का द्रव्य प मानना है, पयाय का नहा मानना है। ना जा जावदर का जानवानप मानता है. वम श्रेय जा पुदगल, धर्म, अधमं, आकाश, काल व्य है उनका भी प्रय वस्तु नहीं मानता है, ज्ञान वस्तु ही मानना है। मे व्यक्नि के प्रति समाधान ऐमा है कि जान जय का जानता है मा जान का म्वभाव है तथापि जय वस्तु जयम्प है, मानम्प नहीं है। एकान्नवादी मिथ्यादष्टि जीव अन्यन्त दढ़ प्रतीति करना है कि बनाक्य म जा कुछ भी है वह जानवम्नु है, उसमे कुछ हय है, कुछ उपादय मा भद नहीं करना । मार लाक्य को ही उपादय मानता है। ओर एमा प्रतानि हान म निक होकर पा के ममान प्रवनन करना है। 'म हा विश्वमा जान कर विश्वम्प होकर प्रवर्तन करता है। भावार्थ- मानवग्नु पयांग मजयाकार हाना है परनु मिथ्यादष्टि जीव पायक. भर का नहीं मानना है। उसका यह उना है कि अयवस्नु भयका नहीं है। अंग एकानवादा करना है, वेग जान का वस्नुपना मिड नहीं होना जमा म्यादादी करना है सा बानुगना जान का सिरहाना है । एकातवादी मानना है कि मन कुछ जान बना है, पर एमा मानने मना नाय लक्षण का अभाव हाना है । आर नाय नक्षण का अभाव होने ने वस्तु को मना नहीं सिड होनी ! म्यादादी कहना है कि मानवम्न का लक्षण ही ममम्न प्रयका जानपना है, एमा मानन में ज्ञान का स्वभाव मिट होता है। स्वभाव मिद होने में वन मिद होना है.--इमलिए कहा है कि स्याद्वाददर्शी वस्तु को ध्यपयांयका मानना है, इमलिए अनकान्नवादी जीव जान बम्त को मिड करने में समर्थ है। म्यादादी मानना है कि मानवस्तू समस्त प्रेय में निराली है और ममम्न अय में भिन्नम्प अपने द्रव्य गण पर्याय मसी है वैसी ही अनादि काल मेम्बय मिट नियन। जान वस्तुको ऐसा क्यों माना : क्याकि जो भी वन्नु है वह पर वसुका आमा बहर नहीं है । भावा-जमे भानाम् जयकर मे नही है, मानकर से है, वैसे ही Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ समयसार कलश टाका जय वस्त भी ज्ञान वस्त में नहीं है जय रूप से है। इसमें यह अर्थ निकला आप कि पर्याय के द्वार से दृष्टि ऐसा मंद स्याद्वादी अनुभव करना है इसलिए स्याद्वाद वरन स्वरूप का साधक है और एकान्तपना वग्न के स्वभाव का घातक है ॥ ३ ॥ सर्वया कोउ मिथ्यामनि लोकालोक व्यापि जान मानि समभं त्रिलोक पिण्ड प्रातम दरव हैं । याही ते स्वच्छन्द भयो डोने कहे या जगत में हमारी मुल्य न बोल, ही परब है ॥ नाम ज्ञाता को जीव जगतगों भिन्न है पं, जगको विकासी नाहि याही ते गरब है । जो वस्तु मो वस्तु पर मों निराली सडा, निचे प्रमाण स्यादवाद मे सरब है ॥ ३॥ शार्दूलविक्रीडित बाह्यार्थग्रहणस्वभाव भरतो विश्वग्विचित्रोल्लमज्ञेयाकारविशीगंशक्तिरभितस्त्रुट्यन्पशुनंश्यति । एकद्रव्यतय. सदाव्युदितया भेदभ्रमं ध्वंसयन् एकं ज्ञानमबाधितानुभवनं पश्यत्यनेकान्तवित् ॥४॥ कोई एकांतवादी जीव पर्याय मात्र को वस्न मानना है, वग्नु को नहीं मानना है । इसलिए ज्ञानवस्त अनेक बंध को जानती है और उनका जाननी हुई जयाकार परिणमन करती है ऐसा जान कर वह मिथ्यादृष्टि जीव ज्ञान को अनेक मानना है, एक नही मानना । एक ज्ञान को न मानकर अनेक ज्ञान को मानने में ज्ञान का अनेकपना सिद्ध नहीं होना इसलिए ज्ञान को एक मान कर अनेक मानना वस्तु का साधक है। जिनती भा ज्ञेय वस्तु हैं उनकी आकृतिरूप ज्ञान का परिणाम है। यह उस वस्तु का सहज स्वभाव है किसी में वर्जित करने की या मेटने की सामथ्यं नहीं है। तो भी मिथ्यादृष्टि एकान्तवादी जीव वस्तु को नहीं साध सकता। वह जंसा मानता है वह झूठा है। क्योंकि (ज्ञान) अनत है, अनन्त प्रकार है-प्रगट रूप से तो जैसा है वैसा ही है । छः द्रव्य के समूह के प्रतिविम्व रूप उसकी पर्याय ने परिणमन किया है लेकिन मिथ्यादृष्टि जोव ने इतनी मात्र ज्ञान की श्रद्धा करके अपनी Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद मधिकार २१६ वस्त को सिद्ध करने को मामश्यं को गला दिया है, नाट कर दिया है। भावायं जानना बिभावकवर गमानायको जानना हा जय की प्राकृति का जाना।। बलका मात्र माना जाना बाना को एकान्तवादी जान बग्न का अंक मानता।। एकान्लवादी के प्रति म्यादादी जान करने का सिद्ध करना। घर पर मना वादा और पर्याय . मानना है गा म्याद्वादः गम्पनीय जानवम्त या५ पयांय ग अनक नथापि द्रव्यापम उसको अनुभव करना है। जान अनेक गएकान ना ना मानना नानावनोग आंभप्राय में उमका मदाकाल उदय मानता है तथा उगे अगटन मानता है। इम प्रकार में जान बम्न अनभव गौनर है ।।४।। संबंया-कोउ पशु जान को अनंत विचित्रलाई देखि, जय को प्राकार नानारूप विमनग्यो।। नाहिको विचार कहे जान की अनेक मला, गहिके एकांत पक्ष लोकनि मों लोहे। नाको भ्रम भजियको ज्ञानवंत को जान, प्रगम प्रगाय निगवाध रम भरयो है। मायक स्वभाव परयायमों अनेक भयो, पपि, तथापि एकनामा नहीं टरयो॥४॥ शार्दूलविक्रीडित अयाकारकलङ्कमेचकचिनि प्रभालनं कल्पयन्नेकापारनिकोपंया स्फुटपि मानं पशुनच्छति । वंचियेऽप्यविचित्रतामुपगनं जानं स्वतः मालितं पर्यायंस्तदनेकतां परिमृशन्पश्यत्यनेकान्तावत् ॥१५॥ काई मिथ्यादष्टि एकानवादी जीव गमा है कि वस्तु को द्रव्यरूप मात्र मानता है पर्यायम्प नहीं मानता है। वह मानता है कि जान निर्विकल्प वस्नु मात्र है, ज्ञान की पयांय जा जयाकार परिणनि कप उग नहीं मानना है इसलिए जंयवस्तु को जानते हुए जान को अगुद मानना है । मे मिथ्यादृष्टि एकानवादी के लिए स्याहादी ज्ञान का स्वभाव द्रव्यरूप में एक तथा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टोका पर्याय में अनेक है "मा सिद्ध करता है। एकान्तवादी मिथ्यावृष्टि जीव मानमात्र जीव वस्नु को न माध मकता है और न अनुभव में ला सकता है यपि वह प्रकाश रूप में प्रगट है। वह ऐसा मानता है कि जब तक जय का आकार ज्ञान में है, जान जय को जानता है तब तक जान जंय के आकार में अनुट हो रहा है और इसलिए मिय्यादृष्टि एकान्तवादी उस अशुद्धपने के प्रक्षालन का अभिप्राय करता है । भावार्थ-जान जय को जानता है यह उसका स्वभाव न मान कर वह उममें अशुदपना मानना है। ऐमे मिथ्यादृष्टि एकांतवादी का अभिप्राय सा है कि ज्ञान का परिणाम जब समस्त जंय के जानपने से रहित होकर निविकल्परूप हो जाता है नब जान शुद्ध है। उसके प्रनि म्याद्वादी सम्यग्दृष्टि जीव ज्ञान के एक व अनेक रूप स्वभाव को सिद्ध करत है। वही सम्यग्दष्ट उसको माध मकना है--वही उसका अनुभव कर सकता है । म्यादादी अनुभव करना है कि जान महज ही शुद्ध स्वरूप है, ज्ञान अनेक जयकार रूप होने में पर्याय में अनेक है तथापि द्रव्यम्प में एक है। यर्याप द्रव्यरूप में एक है ना भी अनेक जयाकार रूप परिणमन करने में अनेकपने को प्राप्त होता है - मे म्वाको अनकातवादी साध मकना है, अपने अनुभव में ला सकता है। इस प्रकार वस्तु को द्रव्याप और पर्यायरूप अनुभव करने में वह म्यादादी नाम पाता है ॥५॥ सया--कोउ कुषो को मानमाहि य को प्राकार, प्रतिभाम रयो .है कलंक ताहि बोहए। जब ध्यान जलसों पलारिके पवल की, तब निराकार शुर मानई होहए। तासों स्याहारी कहेनान को स्वभाव यह, अपको प्राकार वस्तुमाहि कहाँ बोहए। जैसे नामारूप प्रतिविम्मको झलक होणे, पप तथापि पारसी विमल जोइए ॥५॥ शार्दूलविकोरित प्रत्यक्षालिखितस्फुटस्पिरपराध्यास्तितावितः स्वाम्यानवलोकनेन परितः शून्यः पसुनायति । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यादाद मधिकार २२१ स्वद्रव्यास्तितया निरूप्य निपुणं सवः समुन्मयता स्याद्वादी तु विशुस्योषमहसा पूर्णां भवन् जीवति ॥६॥ कोई एकान्तवादी मिथ्यादष्टि जीव ऐसा है जो पर्याय मात्र को ही वस्तुरूप मान लेता है। इसलिए जय को जानना हुआ शाम जो जयाकार परिणमा है उसकी उम पर्याय का श्रेय के अस्तित्व में अस्तित्व मानता है, अंय मे भिन्न निविकल्प जान मात्र बम्न को नहीं मानता। इसमें यह भाव पाया जाता है कि परद्रव्य के अस्तित्व में जान का अस्तित्व है, जान में अपने अस्तित्व में ज्ञान का अस्तित्व नही है। इसका यह उत्तर है किमानवस्त का अपने अस्तित्व में अस्तित्वपना है। इसके बार भद। शानमा जीव वस्त म्वद्रव्य के विचार गे अम्ति, ग्वकाल गे अम्ति, ग्वक्षत्रपने में अग्नि और व-भाव के विचार में अग्नि है। इसी प्रकार जानमात्र वस्तु परद्रव्य क विचार में नास्ति, परक्षत्र में नास्ति, परकाल मे नाम्नि तथा पर-भाव क. विचार में नाम्नि है इन लक्षण हम प्रकार है ग्य-द्रव्य-निविकल्प मात्र यस्त, ग्वारआधार मात्र वस्तु का प्रदेश, ग्यकाल-..उसकी मूल अवस्था, ग्व-भाव.. यस्त की मन्न महज शक्ति। परदप-मविकल्प भद कल्पना, पर-सत्र-जोवस्तुका आधारभूत प्रदेश निर्विकल्प वस्तु मात्र में कहा था वही प्रदेश सविकल्प भंद कल्पना के द्वार पर प्रदेशबुटिगोचर रूप में कहा जाता है, पर-काल-द्रव्य की मूल की निविकल्प अवस्था, उमकी अवस्थातर अंदरूप कल्पना फरक परकाल कहा है. पर-भाव-द्रव्य की सहमक्ति पर्यायम्प के अनेक अंगों दाग भद कल्पना । एकांतवादी मिथ्यादष्टि जीव, जीव स्वभाव को नहीं माध मकता क्योकि वह सर्व प्रकार नवज्ञान में जन्य है, निर्विकल्प वन मात्र का उम अवलोकन नहीं होता, अमहाय रूप में जेमी लिखी है. मी अमिट जयकार जो ज्ञान की पर्याय . उमीको (वन) मानना है। जानके अस्तित्वपन में वचिन एकांतवादी मिथ्यादष्टि जीव जमा कहता है वैमा नहीं है । म्यादादी मम्यकदष्टि जीव निर्विकल्प जान शक्ति मात्र वस्तु के अग्निम्व मे, मानमात्र जीव वस्तु के अनुभव के दाग निर्मल अंदमान प्रताप में, पूर्ण होता हमाझानमात्र जीव वस्तु को सिट कर सकता है, अनुभव कर सकता है। ऐमा बोध उसको नकाल प्रगट होता है ॥६॥ सया-कोर प्राको यकार मान परिणाम, जोलों विद्यमान सोलों मान परगट है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ममयमार कला टीका मेय के विनाश होत मान को विनाश होय, ऐमी बाके हिरहे मिथ्यात की प्रलट है। नाम समकितवंत कहे अनुभौ कहानि, पर्याय प्रमाण मान नानाकार नट है। निविकलप प्रविनश्वर दरब रूप, जान जय वस्तुमा प्रध्यापक प्रघट है ॥६॥ शार्दूलविक्रीडित मवंद्रव्यमयं प्रपद्य पुरुष दुर्वासनावामितः स्वद्रव्यभ्रमतः पशुः किल परद्रव्येष विश्राम्यति । स्याद्रादी न ममम्तवस्तुष परद्रव्यात्मना नास्तितां जानन्निर्मलशद्धबोधहिमा स्वद्रव्यमेवाश्रयेत् ॥७॥ कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को द्रव्यरूप मानता पांयाप नही मानता है, समलिए ममग्न जय वस्तु का ज्ञान में ही भित मानना है। वह गा कहता है- जब उमण को जानना है नव ज्ञान उटण है, जब नीताल को जानता है तब ज्ञान गीनन है। उसकी मम्बोधते है कि जान जंग का नाता मात्र ना परत नेग का गण जंय में हो है. ज्ञान में जय का गुण नहीं है। मिथ्यादृष्टि एकानवादी जीव को प्रान्ति हुई है कि जय को जानने ममय जो ज्ञान की पर्याय ने जेय को आकृतिरूप परिणमन किया है, वही निविकल्प मता मात्र ज्ञान वस्तु है । गेमा एकांतवादी मिथ्याप्टि जीव वग्न के स्वरूप को माधने में असमर्थ होता हुआ अन्यंन मंद खिन्न होता है। भावार्थ ---जंगे उरण को जानते समय उष्ण की आकृति जान का परिणमन होता देख कर मिश्यादष्टि जीव ज्ञान का हो उष्ण स्वभाव मानता है। अनादिकाल के. मिश्या मरकाग के कारण मिथ्यादष्टि जीव स्वभाव में भ्रष्ट हआ है। जितने भी समम्न द्रव्य हैं उन मन द्रव्यों के स्वभाव जीव (द्रव्य) में गभित हैं. मिध्यादष्टि जीव कोमी प्रतीति होती है। परंतु एकांतवादी जैमा मानना है वैमा नहीं है, बल्किायादादी जैमा मानना है वंसा है। अनेकांना वादी जीव जानमात्र जीव वस्तु को माघ मकता है, उसका अनुभव कर मकना है। मम्यग्दृष्टि जीव ऐसा है कि जो ममम्न जय का स्वरूप प्रान में प्रतिविम्बित हुआ है उमका ज्ञानवस्तु से भिन्नपना अनुभव करता है और इस प्रकार (द्रव्य विचार मे) उसमें ज्ञान को नास्ति रूप देखता है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद अधिकार २२३ भावार्थ- -ममग्न जय ज्ञान में उद्दीन है परन्तु शेयरूप है, ज्ञान जयरूप है । स्यादादाजीव से रहित व रागादि अश परिणति नही हुआ मे रहित अनुभव ज्ञान के प्रताप से युक्त है ॥ ॥ सबंधा - कोउ मन्द कट्टे धर्म प्रथमं प्राकाश काल, रूप जग में 1 पुद्गल जीव सब मेरो जाने न मरम निज माने प्राप पर वस्तु. बांधे दृढ़ करम परम यांचे जग में || ममिति तत्र शुद्ध प्रनुभो प्रभ्यामे तात एरको त्याग करे पग-पग में । अपने स्वभाव में मगन रहे घाटों जाम, धारावाही पथिक कहावे मोक्ष मग में ॥ ७ ॥ शार्दूलविक्रीडित भिन्नक्षेत्र नियण बोध्यनियतस्यापारनिष्ठः मदा सीदत्येव बहिः पतन्तमभितः पश्यन्पुमांसं पशुः स्वक्षेत्रास्तितया निरुद्धरभसः स्यद्रादवेदी पुनस्तित्यात्मनिवातत्रोध्य नियतव्यापारशक्तिभवन् ॥ ८ ॥ कोई मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को पर्याय मानता है, द्रव्यरूप नहीं मानना है। जितना भी गमन वस्तु का आधारभूत प्रदेश पुज है उसको ज्ञान जानता है और जानता था उसकी आकृतिरूप परिणमन करना है उसी का नाम तो है उस पत्र को मिध्यादृष्टि जीव ज्ञान का क्षेत्र मानना है। वह यह नहीं मानना कि उस जय से सर्वथा भिन्न चैतन्य प्रदेश मात्र ज्ञान का क्षेत्र है। जीव का समाधान करने है कि ज्ञानवस्तु परक्षेत्र को जानती है परन्तु अपने क्षेत्र है। पर का क्षेत्र ज्ञान का क्षेत्र नहीं है। एकान्तवादी मिध्यादृष्टि जीव 'ज्ञानमात्र जीववस्तु है ऐसा नहीं माध सकता है। वह अनादिकाल मे जो अपने नंतव्य प्रदेश में अन्य समस्त द्रव्यों का प्रदेश पज है उनमें जो ज्ञान का उन आकृतिरूप परिणमन हुआ है उनने मात्र को ज्ञान का क्षेत्र मानता है। मिथ्यादृष्टि जीव यही मानता और अनुभव करना है कि जीव वस्तु का परक्षेत्र मुन्य से ही परिणमन Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ समयमार कलश टीका होता है। परन कांतवादी जमा कहता है वैमा तो नहीं है जमा अनेकान्तवादी मानना वमी वग्नस्थित है। भावार्थ .. म्याद्वादी बम्न को माध मकना है । स्याद्वादी जीव के ज्ञान के मवंम्ब ने ममग्न परद्रय्य मे भिन्न अपने चैतन्य स्वरूप प्रदेश में सत्तारूप गे परिणमन किया है। उसने ज्ञानवस्त को महज ही जाना है और जानवस्नु में जय-जायक.म्प आवश्यक सबंध के कारण जेय को प्रतिबिम्बरूप माना है। भावार्थ ज्ञानमात्र जीव वग्नु परक्षेत्र को जाने यह तो महज है (म्वभाव है) परन्त अपने प्रदेश में है. पगय प्रदेगा मैं नही है.--सा मानता हुआ स्यादादी जीव वस्न का माध सकता है. अनुभव कर सकता है ।।८।। मया --कोऊ मठ कहे जेतो यरूप परमारण, तेको ज्ञान ना कर अधिक न पोर है। तिहं कल परक्षेत्र व्यापि परगम्यो माने, मापा न पिटाने ऐमी मिष्याग दौर है। जनमती कहे जीव सता परमारग ज्ञान, भयमों प्रध्यापक जगन सिर मौर है। जान की प्रभा में प्रतिबिंबित अनेक शेय, यपि तथापि थिति न्यारी-न्यारी ठौर है ।। शार्दूलविक्रीड़ित स्वक्षेत्रस्थितये पृथग्विधपरक्षेत्रस्थितार्थोज्झनातुच्छोमूर' पशुः प्रणश्यति चिदाकारात्सहापर्वमन् म्यादादो तु वसन स्वधामनि परक्षेत्र विवन्नास्तिता त्यतार्थोऽपि न तुच्छतामनुभवत्याकारकों परान् ॥६॥ कोई मिथ्यावृष्टि एकानयादी जीव ऐमा है जो वस्तु को द्रव्यरूप मानना है. पर्यायाप नहीं मानता इसलिए जब जान जेय वन्नु के प्रदेशों को जान रहा है. उस समय जान को अशुभ मानता है। कहता है जान का ऐसा हो स्वभाव है, वह जान की पर्याय है ऐसा नहीं मानता है। ज्यादादी इसका उत्तर देता है कि जानवस्तु अपने प्रदेशों में है-श्रय के प्रदेशों को जानती है, ऐसा उसका स्वभाव है, इसमें कोई अशुटपना नहीं है। एकान्तवादी मिथ्यादष्टि जीव तत्वज्ञान से शून्य होने के कारण तथा मानगोचर ज्ञेय के प्रदेशों में ज्ञान को सत्ता अथवा ज्ञान के प्रदेशों को मूल से नास्तिस्प Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याहार अधिकार २२५ जानने के कारण, वस्तु मात्र को साधने मे भ्रष्ट है, उसका अनुभव करने मे भ्रष्ट है। एकान्तवादी ने मी बदि अपना गखी है कि पर्यायरूप प्रेय वस्तु के प्रदेशों को जानते हुए जान को जो परिणति गंय वस्तु की आकृतिरूप परिणमन करती है उमसे रहित शुढ भान है इसलिए मानवस्तु के पर्यायरूप में भी जयाकार परिणमन का त्याग करता है। मान का चैतन्य प्रदेश स्थिर है. अन उमकी जयम्प परिणति नहीं है, ऐसा मानता है। भावार्थ-एकान्लवादी मानता है कि ज्ञान वस्तु जय के प्रदेशों के जाननपने में जब हित होती है नव गद होती है। जैमा एकान्तवादी मानता है वैमा नही है, जैमा स्याद्वादी मानना है, वैमा है। म्यादादी अनेकांतदृष्टि जीव मा नहीं मानता कि जानवम्न जय के क्षेत्र को जानती है और अपने प्रदेशों में सर्वथा शन्य है। वह एमा मानना है कि जानवस्तुजेय के क्षेत्रको जानती है, परन्तु जय के क्षेत्ररूप नहीं है। म्यादादी मानता है कि मान जय के क्षेत्र की आकृतिरूप परिणमन करता है तो भी ज्ञान अपने क्षेत्र में है। वह अनुभव करता है कि ज्ञान वस्तु अपने प्रदेशों में है। ज्ञान ने श्रेय वस्तु की आकृति कप परिणमन किया है मा जानना है तो जानो तपापि इतना ही ज्ञान का क्षेत्र नहीं है, मा मानना हआ म्याठादी ज्ञान की पर्याय ने जो परक्षेत्र की आकृति कप परिणमन किया है उममे भिन्न शान वस्तु के प्रदेणों का अनुभव करने में ममर्थ है। हम नह स्यावाद वस्तु के स्वरूप का साधक है नपा एकांतवाद वस्तु के स्वरूप का पातक है.---अन स्यावाद उपादेय है || संबंया-कोउ शून्यबारी को मेय के विनाश होत, शानको बिनाशोप कसो कसे जीजिए। ताने जीवितध्यता की पिपला निमित्तमब, अवकार परिणनि को नाश कोजिए। मन्यबारी को भैया हो नहीं मिला, अपनों विज्ञान भित्र मान लीजिए। जानकीमति साषिप्रमोशागाध करम कोस्यानिके परम वीथिए Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका शार्दूलविक्रीडित पूर्वालम्बितबोध्यनाशममये ज्ञानस्य नाशं विदन् सोबत्येव न किञ्चनापि कलयन्नत्यन्ततुच्छः पशुः अस्तित्वं निजकालतोऽस्य कलयन् स्याद्वादवेदी पुनः पूर्णस्तिष्ठति बाह्यवस्तुषु मुहुर्भूत्वा विनश्यत्स्वपि ॥१०॥ कोई मिथ्यादष्टि जीव गेमा है कि वस्तु को पर्यायमात्र मानता है द्रव्यस्प नहीं मानता है । जय वस्तु के अनीन-अनागत और वर्तमान काल संबधी अनेक अवस्था भेद हैं उन सब को जानते हुए जान के पर्यायरूप अनेक अवस्था भेद होते है। उनमें जेय गे मबंधित पहला अवस्था भेद विनगता है और उमके विनगने में उमकी आकृति म्प परिणमा ज्ञान की पर्याय का अवस्था भेद भी विनगता है। उस अवस्था भद के विनाने में एकांतवादी मल में जान वस्तु का विनाश मानना है । म्यादादी उसका यह ममाधान करना है. कि ज्ञान वस्तु अवस्था भेद के विचार मे तो विनाग को प्राप्त होती है परन्तु द्रव्य के स्वरूप के विनार में अपनी जाननपने की अवस्था में गाग्वन हैन उपजती है और न विनगती है। एकान्तवादी वस्तु के स्वरूप को माधने में अवश्य ही भ्रष्ट है क्योंकि वह वस्तु के अस्तित्व को जानने में अति ही गुन्य है। एकानवादी ऐसी अनुभव रूप प्रतीति करता है कि जंय वस्तु को अवस्था का जानपना मात्र ज्ञान है उसमें भिन्न कुछ मनाम्प जानवस्तु नहीं है, अंशमात्र भी नहीं है। कभी पहले अवसर में ज्ञान की पर्याय जयाकार की आकृतिस्प हई थी और किमी विनाग मंबंधी अवमर में वह आकृति विनाग को प्राप्त हुई तो एकांतवादी उमको जीव वस्तु का ही नाग मानता है। उमको म्यादादी मंबोधता है। म्यादादा जैमा मानता है वैमा ही है। म्यादादी अनेकान्त अनुभवशील जीव को त्रिकालगोचर जानमात्र जीव वस्तू का अनुभव प्रगाढ़ है, दर है। वह कहता है कि समस्त जंय अथवा शेयाकार परिणमित जान को पर्याय अनेक भेदों में अनेक पर्यायरूप होती हैं और अनेक बार विनशती हैं। स्याद्वादी जीव को ज्ञानमात्र जीववम्त की त्रिकाल शाश्वत ज्ञानमात्र अवस्था के अस्तित्व का अनुभव होता है ॥१०॥ संबंया-कोडकर कहे काया जीव दरोउ एक पिंड, जब देह नसेगी तब हो जोब मरेगो। Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यादाद अधिकार बाया कोमो छलकींधो माया कोमोरपंच, काया में ममा फिरि कायाकों न धरेगो।। मुधो को देरमों प्रध्यापक मरव जीव, गर्म पाय परको ममस्व पगिरेगो। अपने स्वभाव प्राइ धारणा धरा में धाड, प्रापमें मगन के प्राप शुद्ध करेगो।। दोहा--ज्यों नन कंचुक त्यागमों. विनमे नाहि भजंग। त्यों शोर के नाम ने, प्रलय प्रबंडित अंग ॥१०॥ स्रग्धरा प्रर्यालम्बनकाल एवं कलयन जानस्य सत्वं बहिमैयालम्बनलालमेन मनमा भ्राम्यन्पशुनंश्यति । नास्तित्वं परकालतोऽस्य कलयन स्याद्वादवेदी पुनस्तिष्ठत्यात्मनिवातनित्यमहजनानकपुंजी भवन् ॥११॥ कोई मिथ्याटि एकानवादी मा है जो वम्न को द्रव्य मात्र मानता है. पर्याय नहीं मानता है । जान जग की अनेक अवस्थाओं को जानना हा उनकी आकृति मत परिणमन करता है । व मय जो ज्ञान की पर्याय है उन्हीं का मिथ्यादष्टि जीव जान का अग्निन्य मानना है। उनके ममाधान के लिए कहते है कि जंय की आकृतिया में परिणमन करता हई जितनी जान की पर्याय है, उनमें ज्ञान का अग्निवाना नहीं है। एकानवादा का निश्चयप में अभिप्राय है, कि जंय का प्राश्रय पाकर ही जान की मना है म मिथ्यावष्टि एकानवादी के मन में बम्प में बाहर भ्रम उपमा है इसलिए वह वस्नु म्वरूप को माधन में भ्रष्ट है । वह अनुभव करता है कि जीवादि ममम्तय वन को जिम ममय जान जानता है उसी ममय जानमात्र बम्त का अग्नित्व है। एकानवादीमा मानना है वैमी बम्नथिन नही, मी स्यावादी मानता है वैमी है। अनेकालवादी वस्तु बम्प के माधने में समर्थ है। म्यादादी जानमात्र जीव वग्न की जयावग्या के जानपने में नास्तिपने की प्रतीति करता है। ज्ञानमात्र जीव वम्न अनादि में एक बम्नुरूप है, अविनश्वर है, बिना कोई उपाय किए महज ही उमका प्रेमा म्वभाव है। स्याद्वादी बनुभव Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ समयसार कलश टीका करना है कि जानपने की भक्ति में युवत में जीव वस्तु हं- अविनम्वर मान मर्षया-कोउ दुबुद्धि को पहले न हतो जीव, देह उपनत उपग्यो है प्रब पारके। जोलोंहतोनों देह पागे फिर हमसे, रहेगो पलम ज्योति ज्योतिमें ममाइके। मरडि कहे जीव प्रनादिकोहपारि, जबजानी होयगो कर कान पाके। तबही मों पर नजि अपनो स्वरूप भीज, पागो पग्म पर करम नसाइके ॥११॥ स्रग्धरा विश्रांतः परभावभावकलनान्नित्यं बहिर्वस्तुषु नश्यत्येव पशुः स्वभावमहिमन्येकान्तनिश्चेतनः सर्वस्मान्नियतस्वभावममवन जानाद्विमको भवन स्थाढावी तु न नाशमेति सहजस्पष्टीकृतप्रत्ययः ॥१२॥ कोई एकान्तवादी मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को पर्यायमात्र मानना है, द्रव्याप नहीं मानना है। जितने भी समस्न मंय वस्तु की शक्ति रूप स्वभाव है उनको जान जानता है और जानना हुआ उनकी आकृति में परिणमन करता है। इस तरह शंय की नक्ति की आकृति रूप ज्ञान की पर्याय है उनमे जान वस्तु की सत्ता को मानता है। वह एकांतवादी जीव उससे भिन्न जो अपनी शक्ति को सता मात्र है उसको नही मानता है। स्यावादी उसका समाधान करता है किसान अपने सहज स्वभाव में समस्त मेय शक्ति को जानता है। परन्तु अपनी जान शक्ति के विचार से अस्तिम्प है। एकान्तबादी ने निश्चय किया हआ है कि ज्ञेय वस्तु की अनेक दिन की मारुतिरूप परिणमन करती हुई शान वस्तु पर्याय मात्र ही है। उसने ऐमा मठा अभिप्राय बना लिया है कि ज्ञान की पर्याय जो श्रेय की शक्ति की भाकृति रूप है उसी ने जानवस्तु के अस्तित्वपने को अवधारण किया है। एकान्तवादी जीव मानमात्र की निज भक्ति के अनादि निधन माग्वन प्रताप से सर्वथा शून्य है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वार माधिकार २२९ भावार्थ---एकांतवादी म्वरूप को सत्ता को नहीं मानता। इसका म्यानादी समाधान करता है। जैसा एकांतवादी मानता है, वैसा नहीं है। म्याहादी अर्यात अनेकान्तवादी विनाश को प्राप्त नहीं होता। भावा...वह जानमात्र वस्तु को मता को साध सकता है। अनेकान्सवादो जीव में म्वभाव -शक्तिमात्र ज्ञानवस्तु के अग्निब से सम्बन्धित अनुभव दुह किया है। जितने भी अपनी-अपनी भक्ति में विराजमान ज्ञेय रूप जीवादि पदार्थ है उनकी मसा की आकृति रूप जो जीव के ज्ञानगुण की पर्याय ने परिणमन किया है उससे ज्ञान मात्र को सता भिन्न है ऐसा वह अनुभवना है ॥१२॥ संबंया-कोउ पक्षपाती जोब कहे य के प्राकार, परिणयो मान ताते चेतना प्रमत है। धेयके नसतचेतना को नाश ताकारण, मात्मा प्रवेतन त्रिकाल मेरे मत है। पंडित कहत मान महज प्रखंडित है, भयको प्राकार परे यसों बिरत है। चेतना के नाश होत सता को विनाश होय, याते जान चेतना प्रमाण जीव सत है ॥१२॥ शार्दूलविक्रीड़ित प्रध्यास्यात्मनि सर्वभावमवनं शुद्धस्वभावच्युतः सत्राप्यनिवारितो गतमयः स्वरं पशः कोऽति । स्याद्वारा तु विशुन एन लसति स्वस्य स्वमा मरा. बादः परमावभावविरहन्यालोकनिष्कम्पितः ॥१३॥ कोई एकातवादो मिथ्यादृष्टि जीव ऐसा है जो वस्तु को द्रव्य मात्र मानता है, पायल नहीं मानता है। जितनी भी भय वस्तु हैं उनकी अनन्त गस्ति हैं उनको जानता हवामान अंय की शक्ति की आकृतिम्प परिणमन करता है। उसको देख कर एकानवादी मिथ्यादष्टि जीव यह मान लता है कि जितनी जेय को शक्ति है उननी सब जान वस्तु ही है। इस बात का समाधान स्याहादी इस प्रकार करता है कि यह ना मान मात्र जीववस्तुका स्वभाव है कि समान अंय का जाने पार जानना हम उसकी प्राकृतिप परिणमन करे । परन्तु य की क्ति तो अंय में है, मान बस्नु में नहीं है। Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३९ समयसार कलश टोका जान को जानने कप पर्याय है जान बस्नु को मना भिन्न है। मिथ्यावादी एकांत. दष्टि जीव हय भार उपादेय के ज्ञान में हित स्वच्छाचाररूप प्रवर्तन करता है। भावार्थ - एकानवादा जीव जय को शक्ति का ज्ञान में भिन्न नहीं मानता है। जिननी जय की पक्ति है वह मय ज्ञान में है ।मा मान कर सी बाद में प्रयतन करना है कि नाना गनिम्प ज्ञान है, जय है ही नहीं। जिननी भी जीवादि पदार्थ रूप जय वस्तु है, उनका नक्तिरूप गण पर्याय अंश भदा का मना का ज्ञानमात्र जीव वम्न में गभित मान कर. मी प्रतीति करक, जानमात्र जीववस्तु का विपगताप में अनुभव करता है। भावार्थममग्न द्रव्या का शक्ति जानगानर है और उनका प्राकृतिकर जान ने परिणमन किया है. माना व गवंगत जान का हा मानना है। जंय को आर ज्ञान की भिन्न मना के अम्निन्य को नहीं मानता। मिथ्यावादी भिन्न मना के अस्तित्व का नहीं मानता। मिथ्यावादा में कोई भाव परभाव नही है जिमग उग छ र हानी व ममग्न ग्पगं, ग्म, गंध, वणं, शब्द न्यादि इन्द्रिया के विपया को तथा मन-वचन-काय और नाना प्रकार की जय की अक्तियों का निम्नय ग मानना है कि में नगर है. मन ह, वचन है, काय है। में स्पन-ग्म गध-वर्ण-गब्द इद पग्भावा का अपना आप जानकर प्रवनन करना है। गा का गमाधान न्यावादा करना है। जमी मिथ्यादष्टि एकातवादी का मान्यता है चम्नम्यिन धमी नहीं है। अनकान्नवादी जीव मिथ्यात्व म हित होकर प्रवनन करता है। ज्ञान वस्तु का जानन मात्र की शक्ति को उसका अन्यन्न दर प्रतानि है। न्याहादा जीव मा मानना है कि समम्त जय की अनेक गक्ति की आकृतियों में ज्ञान पर्याय रूप से परिणमन करता है। जानवग्न के अस्तित्व मवधी उमकी विपरीत बर्बाद नहीं है । स्थादादी जीव को सच्ची दष्टि में आलोक मिला है बार उसका साक्षात् अनुभव अमिट है ॥१६॥ संबंया-कोउ महामूरख कहत एक पिड माहि, जहांलों प्रचित चित प्रंग लहलहे है। जोगरूप भोगरूप नानाकार जयरूप, जेसे मेद करम के तेते जीव कहे है। मतिमान कहे एक पिंड मांदि एक जीब, ताहो के अनंत भाव ग्रंश फैलि रहे हैं। पुदगलसों भिन्न कर्म बोगसों प्रतिम सा, उपजे बिनसे घिरता स्वभाव गहे है ॥१३॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद अधिकार २१९ शार्दूलविक्रीडित प्रादुर्भावविराममुद्रितवहज्जानांशनानात्मना निर्मानान क्षणभंगसंगतितः प्रायः पशुनंश्यति । स्थादादी तु विदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टोत्कीर्णघनस्वभावहिमाजानं भवन् जीवति ॥१४॥ कोई एकानवादा मियादप्टि जाव पसा है कि वस्तु का पयायमात्र मानना है.द्वारा नहा मानना है माल अडधारा प्रवाहमा परिणमन कर रह ज्ञान में जा हर समय उत्पाद और पहा रहा है ना उसका पाया को विनगते देख कर जाव द्रव्य का विनाश मान लना है। स्याद्वादी उमका ममाधान करता है कि पर्याय दृष्टि में देखने गे जीव वस्तु उपजती है और विनाश को प्राप्त होती है परन्नद्रव्यदष्टि देगना जीव गदा शाश्वत है। एकांतवादी जीव ने यह जाना है कि ज्ञान गुण ये. अविभागनिनछंद उत्पाद और विनाशमे मंयुक्त प्रवाहम्प हैं और उनके कारण हुए अनेक अवस्था भद के जानपने के कारण हर गमय में जो पर्याय का विनाश होता है उम पर्याय के साथ ही वस्तु का बिना मानना है। ऐसी एकान्न मान्यता के कारण वह एकान्लवादी जोत्र गद्ध जीव वग्न के माधन ग भ्रष्ट है। अनेकान्नी जीव उसका प्रनियोधन करना है। जंगा एकान्नवादी कहता है वेमा कालापना नहीं है । ग्यादादी और अनेकानवादी जीव बम्न को गिद करन म गमथं है। वह ज्ञान म्याप जाव वग्नु के द्वारा ज्ञान मात्र जीव वस्तु का मयंकाल, नाश्वन, प्र.क्षम्प ग आग्वादन करना अथवा अनुभव करना है। मवंकाल एक ज्ञानघनम्वभाव जिमया मिट लक्षण है, और जिसका अमिट लक्षण लोकप्रसिद्ध है, उम जीव वग्न का म्यादादी जाव स्वयं अनुभव करता है ।।१४।। संबंया-कोउ एक भगवादी कहे एक रिमां., एक जीव उपजत एक विगत है। जाहो ममं अंतर नवीन उनपनि होय, नाहो ममय प्रथम पुरानन बमत है॥ सरवांगवादी क.. जसं जल बन्नु एक, सोही जल विविध तरगन समनहे। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कलश टीका तसे एक प्रातम हरब गुण पर्षय है, अनेक भयो पं एकरूप दरमत है॥१४ शालविक्रीडित टोकोगविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्वाशया वाञ्छत्युच्छलदच्छचित्परिणतेभिन्न पशुः किञ्चन । मानं नित्यमनित्यतापरिगमेऽप्यासादयत्युज्वलं स्थावादी तदनित्यतां परमृशंश्चिद्वस्तु वृत्तिकमात् ॥१५॥ कोई मिथ्यादष्टि एकांतवादी जीव ऐसा है जो वस्तु को द्रव्यरूप मानता है पर्यायरूप नहीं मानता है इसलिए समस्त ज्ञेय को जानना हा जान जब शंयाकार परिणमन करता है तो एकांतवादी उसकी अशुद्ध मानता है, ज्ञान की पर्याय नहीं मानता है । म्यादादी जीव उसका समाधान करता है कि द्रव्यदृष्टि में देखने पर ज्ञान वस्तु नित्य है तथा पर्याय दृष्टि से अनित्य है। इसलिए जिस समय समस्त जय का जान रहा है उस समय ज्ञय की आकृतिरूप ज्ञान की पर्याय परिणमन करता है, ऐसा ज्ञान का स्वभाव है, अशुरूपना नही है। एकांतवादी जय का ज्ञाता होकर पर्यायरूप परिणमन करता है। उत्पादरूप तथा व्यय रूप अशुनपने से रहित ज्ञान गुण की पर्याय से भिन्न ज्ञेय के जानपने रूप से रहिन वस्तु, मात्र कटस्थ (अटल, जड़) रहती है ऐसा कुछ विपरीतपना मान कर एकांतवादी ज्ञान को ऐसा बनाना चाहता है कि सर्व काल एक-सा रहने वाले, समस्त विकल्पों मे रहित ज्ञानवस्तु के प्रवाह रूप जीववस्तु है । उसका स्यावादी समाधान करता है । कोई पर्याय उपजे, कोई विनशं इस भाव को रखते हुए स्यादादी ज्ञानमात्र जीव द्रव्य का अविनश्वररूप से अनुभवन करना हुमा, यपि पर्याय द्वारा अनित्यपना घटित होता है, तथापि ज्ञान मात्र जीव वस्तु का सर्व काल एक-सा, समस्त विकल्पों से रहित स्वाद लेता है। भावार्थ-पर्याय द्वारा जीव वस्तु अनित्य है ऐसा स्यादादी अनुभव करता है ॥१५॥ सबंबा-कोउ बालबुद्धि कहे मायक शकति जोलों, तोलों भान प्रशुरु जगत मध्य जानिये । नायकति काल पाय मिटि जाय , तब विरोष बोष विमल बसानिए । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्यावाद अधिकार परम प्रयोग कहे ऐसो सो न बने बात, जैसे बिन परकाश सूरज न मानिए। से बिन नायक शकनिन कहावेज्ञान, यह तो न परोक्ष परतभ परमानिए ॥१५॥ इत्यनानविमूढ़ानां जानमात्र प्रसाधयन् प्रा मतत्वमनेकान्तः स्वयमेवानुभूयते ॥१६॥ पूर्वोक्त एकातवाद म जी मिथ्यादृष्टि जावरानि मग्न हो रही थी उसको अवध्य हा प्राक्त प्रकार वणित अनेकान्न अथवा ग्याद्वाद अपने प्रताप ग बनान् अगाकार करना ही पड़ेगा। भावार्थ -स्यावाद प्रमाण है जिसका गुनने मात्र गएकान्लवादी भी अंगीकार करता है । म्याद्वारा प्रमाणित करता है कि जीव नेतना मम्म है। भावार्थ-जीव वस्तु ज्ञान मात्र गा म्यादादा मिद्ध कर माना है एकान्तवादी नही ।।१६।। रोहा-इहविधि प्रातम जान हित, स्पानाव परमारण । जाके वचन विचार गों, मूरख होर मुनान ॥१६॥ एवं तस्वध्यवरित्या स्वं व्यवस्थापयन् स्वयम् । मलध्यं शासनं जनमनेकान्तो व्यवस्थितः ॥१७॥ म्याद्वाद को कहने का आरम्भ किया था मानना कहने में पूर्ण हमा। वह अरकान अग्ने अनकानन का अनकनान द्वारा बरजा मे प्रमाण करना है, जांच के बरा का माना है, व.मज वानराग प्रणीन है ओर उसका उपदेश अमिट है ॥१७॥ दोहा-स्यावाद प्रासम दशा, ता कारन बनवान । शिवमाधकबाधारहिम, अब प्रतिमान ॥१७॥ ॥ इति एकादशम अध्यायः ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वादश अध्याय माध्य-साधक अधिकार वसंततिलका इत्याधनेकनिजशक्ति मुनिभरोऽपि यो जानमात्रमयतां न जहाति भावः । एवं क्रमाक्रमवितिविवचित्रं नव्यपयंधमयं चिदिहास्ति वस्तु ॥१॥ विद्यमान पवाक्त जानमात्र जीवद्रका द्रव्यगणपयांयम्प है। भावार्थ ... जीवरका द्रव्यपना कहा। वह जीवद्रव्य पूर्वोक्न प्रकार 'पहला विना ना अगन्ना उपने विषण प है परन्न 'न उपजे न विनश म अमरूप भदपद्धन ग भा प्रवनं रहा है. --मा उसमें परम अचभा है। भावार्थ कमवतो पयाय, अक्रमवनीगुण ---इस प्रकार जीव वस्तु गुणपर्यायमय है। जानमात्र जावा द्रव्यगण पर्याय को आदि लेकर अनेक नक्तिपूर्ण है, यांत अस्तित्र, वानुत्व प्रमेयन्व, अगुरुलघुत्व, मूक्ष्मत्व, कर्तृत्व, भोक्तत्व, सप्रदेशच. अमन व म्प है। वह यद्यपि अनन्त गणना रूप द्रव्य को सामथ्यं से सर्वकान भारतावस्थ है तथापि अपने ज्ञानमात्रभाव को नहीं त्यागतो है। भावार्थ-जो गुण अथवा पर्याय है वह सर्व चेतनारूप है इसीलिए चेतनामात्र जीव वस्नु है, प्रमाण है । भावार्थ-पूर्व में ऐसा कहा था कि उपाय अयात जीव वस्तु का प्राप्ति का साधन और उपय अर्थात साध्य वस्तु को कहंगे। सो उसमें प्रथम हा साध्य रूप वस्तु का स्वरूप कहा, अब साधन कहते हैं ॥१॥ संबंया -जोई जोर वस्तु पस्ति प्रमेय प्रगुरुवघ, प्रभोगी अमूरतीक परदेशवंत है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधक अधिकार २३५ उतपत्तिरूप नाशरूप विचलरूप रतनत्रयादि गुग मेड सों अनंत है। मोई जीव दग्य प्रमाग सदा एकरूप, ऐमे शुद्ध निश्चय स्वभाव निरंतर है। स्याववाद मांहि माध्यपद प्रधिकार कयो, प्रब प्रागे कहिवे को माधक सिद्धन है। दोहा- माल केवल दशा अथवा मिल्स महंत । माषक प्रविगत ग्रादि बुध क्षोणमोह पग्यंत ॥१॥ वसंततिलका नकान्तमंगतमा स्वयमेववस्तु तस्वव्यवस्थिििमति विलोकयन्तः । स्यादादशुद्धिधिकामधिगम्य मंतो जानी भवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ॥२॥ हम प्रकार माग्दष्टि नीव जी अनादि कालग कमंबध मयुक्त य माम्प्रन सकल कमां का विनाश कर मोक्ष पद को प्राप्त होते है। कायली के कंह हा मार्ग पर ही चला है। उग मागं का जलपन कर अन्य मार्ग पर नहीं चलने है। जो प्रमाणाम अनकानावग्न न. उपदेग ग उनका जान निमल हआ है, उसका महायना पाकर य जीवद्रव्य के द्रव्याप नथा पयांया म्वरको म्याद गमला लोनन म माक्षात प्रत्यक्ष रूपम देखते है ॥७॥ कविन-मानष्टि मिन्ह के घट अंतर, निरहे द्रव्य मुगुरण परजाय । जिनके महम रूप दिन दिन प्रमि, म्याद्वार साधन प्रषिकाय। केलि प्रगीत माग्ग मुस्ख, वितरण गठहराय। ते प्रवीण करि भोग मोहमान, प्रविचल होहि परमपद पाय ॥२॥ वसंततिलका मानमात्र निज भावमयीमकंपा भूमि भयंति कथमप्यपनीतमोहाः । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयसार कनटोका ते साधकत्वमधिगम्य भवन्ति सिखा मूढास्त्वमूमनुपलभ्य परिभ्रमन्ति ॥३॥ गदम्बा के अनुभव गभिन सम्यग्दर्शन जान चारित्रमयो कारण रत्नत्रया जिनका मामा परिणमा है वे जीव सकल कर्मकलंक में रहित माक्षपद को प्राप्त होते हैं। वे 'चनना है सर्वस्व जिसका' एमे जवद्रव्य के निविकल्प अनुभव का माक्ष का कारणका अवस्था को प्राप्त होते हैं अर्थात् एकाग्र हाकर उस भूमिका परिणमन है जा भूमि निद्वंदरूप सुखभित है ओर अनन्त काल भ्रमण करने हा कालत्रि का पाकर उनका मिथ्यात्वरूप विभाव परिणाम मिट गया है। भावायं-गमा जय मानका साधक होता है । कहे हए अथं को दृढ़ करते है-जिनका जाववस्तु का अनुभव नहीं है ऐसे मिथ्यादष्टि जीव शुद्ध जीवस्वरूप के अनुभव र अवस्या का पाये बिना चतुगंति संसार में रुलत हैं। भावार्थ-गद्ध जीवस्वरूप का अनुभव हा माक्ष का मार्ग है, दूसरा कोई मोक्ष मागं नहीं है ॥३॥ सबंया-चाक सो फिरत जाको ससार निकट प्रायो, पायो जिन्ह सम्यक्त्व मिथ्यात्व नाश करिके । निरहंद मनसा मुभूमि साधि लीनो जिन्ह, कीनी मोक्ष कारण प्रवस्था ध्यान धरिके। सोही शुख अनुभौषभ्यासी अविनाशी भयो, गयो ताको करम भरम रोग गरिक । मिथ्याति प्रपनो स्वरूप न पिछाने तास, डोले जग जाल में प्रनन्त काल भरिके ॥३॥ वसन्ततलिका स्थावाद कौशल सुनिश्चलसंयमभ्यां यो भाषयस्यहरहः स्वमिहोपयुक्तः । ज्ञानक्रियानयपरस्परतीवमंत्री पातीकृतः श्रयति भूमिमिमां स एकः ॥४॥ उसी जाति का जीव प्रत्यक्ष शुद्धस्वरूप के अनुभवल्प अवस्था के अवलम्बन के योग्य है अर्थात ऐसी अवस्था रूप परिणमने का पात्र हैजा Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य - साधक अधिक र २३७ कोई सम्यग्दृष्टि जीव द्रव्यरूप तथा पर्यायरूप वस्तु के अनुभव का विपरीतपने से रहित वस्तु जिस प्रकार है उस प्रकार से अंगीकार तथा समस्त रागादि अशुद्ध परिणति का त्याग'- इन दोनों की सहायता से जीव के शुद्ध स्वरूप को निरन्तर अखण्ड धाराप्रवाह रूप अनुभवता है तथा अपने शुद्ध स्वरूप के अनुभव में ही सर्वकाल एकाग्ररूप से तल्लीन है। शुद्ध जीव के स्वरूप का अनुभव मोक्षमार्ग है। शुद्ध स्वरूप के अनुभव बिना जो कोई क्रिया है वह सर्व मोक्षमार्ग से शून्य है । रागादि अशुद्ध परिणाम के त्याग बिना जो कोई शुद्ध स्वरूप का अनुभव होना कहता है वह ममस्त झूठा है अनुभव नहीं है। कुछ ऐसा ही अनुभव का भ्रम है कारण कि शुद्ध स्वरूप का अनुभव रागादि परिणाम को मेट कर होता है। ऐसा है जो ज्ञाननय तथा त्रियानय का परस्पर अत्यन्त मित्रपना उसका विवरण शुद्ध स्वरूप का अनुभव रागादि अशुद्ध परिणति को मेट कर होता है और रागादि अशुद्ध परिणति का विनाश शुद्ध स्वरूप के अनुभव को लिए हुए है। सम्यग्दृष्टि जीव इन दोनों की मंत्री का पात्र हुआ है अर्थात् ज्ञाननय तथा क्रियानय का एक स्थानक है । भावार्थ- दोनों नयों के अर्थ से विराजमान है ||४|| मया-जे जीव दरव रूप तथा परयाय रूप, दोउ नं प्रमाण वस्तु शुद्धता गहत हैं । जे अशुद्ध भावनि के त्यागी भये सरवया, विषं मों विमुख हूं विरागता बहन है । जे जे ग्राह्य भाव त्याज्य भाव दोउ भावनि कों, अनुभौ प्रभ्यास विषं एकता करत है। तेई ज्ञानक्रिया के प्रराधक महज मोक्ष, मारग के साधक प्रवाधक महत हैं ॥४॥ यसन्ततलिका बिपिडडिमविलासिविकासहास: शुद्धप्रकाशमरनिर्भर सुप्रभातः । प्रानंदसुस्थितसदास्ख लिर्तकरूप स्तस्यैव चायमुदयत्यचलाचिरात्मा ||५|| पूर्वोक्त जीव को अवश्य ही सकल कर्म का विनाश कर जीव पदार्थ प्रगट होता है । अनन्त चतुष्टयरूप होता है। वह जीवपदार्थ सर्वकाल एकरूप Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ ममयमार कलश टोका कंवलज्ञान व केवनदान का नेजपज है, जानाज के प्रताप की एकरूप परिणाम मा जा प्रकाराम्बाप उमका निधान है और रागादि अशद्ध परिणति को मंट कर होने वाले गदवा परिणाम की बार-बार होने वाली गद्धन्वरूप परिणति का उममें माक्षात् उद्मोन हुआ है। भावार्थ जिम प्रकार रात्रि सम्बन्धी अन्धकार के मिटने पर दिवम उद्योनम्वरूप प्रगट होता है उसी प्रकार मिथ्यान्व रागद्वेष रूप अशट परिणनि को मेटकर गद्धन्द परिणाम विगजमान जीवद्रव्य प्रगट होता है, ओर द्रव्य के परिणाम म्प अतींद्रिय मुख के कारण आकुलना मे रहिनपने में जिमका मर्वम्व मर्यकाल एकरूप है और अमिट है ।।५।। मोहा विनाम अनादि प्रशुद्धता, होइ शुद्धता पोव । ता परिगति को बध कहें, जान क्रिया सों मोव ।। मर्वया -जाके घट अन्तर मिध्यात अन्धकार गयो, भयो परकाशशब्द मकिन भान को। जाको मोह निद्रा घटी ममता पलक फटी, जाने निज मग्म प्रवाची भगवान को। जाको ज्ञान तेज बग्यो उहिम उदार जग्यो, नग्यो मुन्व पोष ममरम मुधा पान को। नाही मृविचक्षण को मंमार निकट प्रायो, पायो तिन मारग मृगम निग्वान को॥५॥ वमन्ततलिका म्याद्वाददोपिलसन्महास प्रकाशे शुद्धस्वभावमहिमन्युदिते मयोति । कि बन्धमोक्षपयपातिभिरन्यभावं. नित्योदयः परमयं स्फुरत स्वभावः ॥६॥ मर्वकाल एक कप में प्रगट जो विद्यमान जीवपदार्थ है वह एक अनुभवम्प प्रगट होओ। पूर्वोक्त विधि में 'मैं गद्ध जीवस्वरूप हं' मा अनुभवरूप प्रगट होने पर अनेक अन्य विकल्पों में क्या प्रयोजन है ? व अन्य ममम्त भाव मोह-गग-द्वेष-बंध के कारण हैं, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्ष मागं हैं-ऐसे अनेक पक्षों में पड़ने वाले है अर्थात् आने-अपने पक्ष को कहने रूप अनेक विकल्पों वाले हैं। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधक अधिकार २३६ भावार्थ-मे विकल्प जितने कान तक होते हैं उतने काल तक गन म्वरूप का अनुभव नहीं होता। पद ग्वाप का अनुभव होने पर मे विकल्प विद्यमान ही नहीं होने, विचार किमका किया जाये वह गद्ध जोव मर्यकाल उद्योतस्वरूप है, द्रव्यरूप तथा पयायरूप में उसका प्रत्यक्ष ज्ञानमात्र ग्वरूप प्रगट हुआ है ॥६॥ संबंया -जाके हिरदे में ज्यादाद माधना करत, शड प्रातमको अनुभौ प्रगट भयो है। जाके संकलप विकलप के विचार मिटि, सदाकाल एकोभाव रस परिरगयो है। जाने बंध विधि परिहार मोम अंगोकार, ऐमो सुविचार पक्ष मोउ छोडि दयो है। जाको ज्ञान महिमा उद्योन दिन दिन प्रति, मोई भवसागर उलंघि पार गयो है ॥६॥ वसन्ततलिका चित्रात्मशक्तिसमुदायमयोऽयमात्मा मद्यः प्रणश्यति नयेक्षरणखंडपमानः । तस्मादस्खंडमनिराकृतखंडमेक मेकान्तशांतमचलं चिदहं महोऽस्मि ॥७॥ तिम कारण मे में जानमात्र प्रकार पुलह अगिटन प्रदंग हूँ, किमी कारण में अनुष्ट नहीं हुआ हूं महज ही अखण्ड कप हैं, ममग्न विकल्पों में गहन है, मथा प्रकार सर्व पर द्रव्या में गहन हूं और अपने ग्वरूप में मवंकाल में अन्यथा नहीं हूँ-मा चतन्यम्वरूप में है क्योंकि यह जीववस्तु द्रव्याधिक पर्यायाथिक म अनेक विकल्पमा नाचना कद्वाग अनेकरूप देखा हा ना मण्ड-खण्ड होकर मन में नाग को प्राप्त होता है। प्रश्न-इतने नय एक में केमे घटने है ? उनर-जीवद्रव्य मा ही है कि अग्निपना, एकपना, अनेकपना, प्रवपना, अध्रवपना इत्यादि अनेक उममें गुण हैं, और उन गुणों का द्रव्य में अभिन्नपना है अर्थात उन प ही जीवद्रव्य है, एक नय एकक्ति को कहता है किन्तु अनन्न शक्तियां है इस कारण एक-एक नय करते हुए अनन्त Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० समयमार कलश टीका नय होते हैं। ऐसा करने हुए बहुत विकल्प उपजते हैं, जीव का अनुभव खो जाता है। इसलिए निर्विकल्प ज्ञानमात्र वस्तु अनुभव करने योग्य है || ७॥ मया-प्रतिरूप नासनि अनेक एक थिर रूप, प्रथिर इत्यादि नान रूप जीव कहिये । दोसे एक नय को प्रतिपक्षो नं प्रपर दूजी, नं को न दिखाय वाद विवाद में रहिये ॥ थिरता न होय विकलप की तरंगनि में, चंचलता बढ़े अनुभौ दशा न लहिये । ताते जीव अचल प्रबाधित प्रखण्ड एक ऐमो पद माधिके समाधि सुख गहिये ॥७॥ गद्य न द्रव्येण खंडयामि न क्षेत्रेरण खंडयामि न कालेन खंडयामि । न भावेन खंडयामि सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रः भावोऽस्मि || ८ || मैं वस्तुस्वरूप हूँ, चेतनामात्र ही मेरा सर्वस्व है, समस्त भेद विकल्पों से रहित हैं, द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म रूप उपाधि से रहित हूं। जीव स्वद्रव्यरूप है - ऐसे अनुभवने पर भी मैं अखण्डित हूँ । जीव स्वकालरूप है - ऐसे अनुभवने पर भी अखण्डित हूँ। जीव स्वभावरूप है-ऐसे अनुभवने पर भी अखण्डित हूँ । भावार्थ - एक जीव वस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकान, स्वभावरूप चार प्रकार के भेदों द्वारा कही जाती है तथापि चार सत्ता नहीं है. सत्ता एक है। दृष्टान्त-- चार सत्ता इस प्रकार मे नही है जिस प्रकार एक आम्रफल चार प्रकार है, इसमें कोई अंश रस है, कोई अंश छिलका है, कोई अंश गुठली है, कोई अंग मीठा है, उसी प्रकार एक जीववस्तु में ऐसा नहीं है कि कोई अंग जीवद्रव्य है, कोई अंश जीव क्षेत्र है कोई अंश जीवकाल है कोई अंग जीवभाव है। ऐसा मानने पर सर्व विपरीत होता है। इस कारण इस प्रकार है कि जैसे एक आम्रफल स्पर्श रस गंध वर्ण विराजमान पुद्गल का पिण्ड है, स्पर्शमात्र से विचारने पर स्पर्श मात्र है, गंधमात्र से विचारने पर गंध मात्र है और वर्ण मात्र से विचारने पर वर्ण मात्र है वैसे ही एक जीववस्तु स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभाव विराजमान है इसीलिए ग्वद्रथ्यरूप मे विचारने पर स्वद्रव्यमात्र है, स्वक्षेत्र रूप से विचारने पर स्वक्षत्रमात्र है, स्वकालरूप से Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्य-साधक अधिकार २४१ विचारने पर ग्वकालमात्र है व ग्वभावका में विचरने पर स्वभावमात्र है। इम कारण मा कहा कि जो वस्तु है वह अखण्डित है । अखण्डित शब्द का ऐमा अर्थ है ॥८॥ मक्या-जैसे एक पाको पाम्रफल ताके चार अंश, रस जाली गुठली छोलक जब मानिये। ये तो न बने 4 ऐसे बने जैसे वह फल, रूप रस गन्ध फास प्रवण्ड प्रमानिये॥ तमे एक जीव को दग्ब क्षेत्र काल भाव, ग्रंश मेव करि भिन्न-भिन्न न बवानिये। द्रव्यम्प क्षेत्ररूप कालरूप भावरूप, चारों रूप प्रलव प्रखण्ड ससा मानिये।। शालिनी योऽयं भावो जानमात्रोऽहमस्मि, जयो जेय ज्ञानमात्रः स न । जेयो जेयज्ञानकल्लोलवल्गन्, ज्ञान यज्ञातृमवस्तुमात्रः ॥६॥ जय ज्ञायक मम्बन के ऊपर बहत भ्रान्ति चलती है मा कोई मा ममझगा कि जीव वस्तु जायक व पदगल मकर भिन्न रूप-- छ: द्रव्य पर्यन्त गव जंय है। मा एमा नं! नहीं है । जैमा यही कहने है वैसा है-मैं जो काई चंतना सर्वस्व मा वस्तुप वह में जयरूप हैं परन्तु अपने जीव में भिन्न छह द्रव्यों के समूह का जानपना मात्र मा जयरूप नहीं है। भावार्थ-इम प्रकार है कि मैं जायक और ममम्न छह द्रव्य मेरे अय-मा नी नहीं है। बल्कि जान अयान जानपनापशक्ति,य अर्थात जानने योग्य शक्ति और ज्ञाना अर्थात् अनकनक्ति विराजमान वस्तुमात्र से तीन भेट मेग म्वरूपमात्र है, मैं ऐसा जय रूप है। भावापं-- इस प्रकार है कि मैं अपने बाप को वंद्य वेदक कप में जानता है इसलिए मेरा नाम जान। मैं आप अपने द्वारा जानन योग्य हैं इमीलिए मेरा नाम जय, एसी दो शक्तियों में लेकर अनन्त गक्ति पर इमीला मेरा नाम ज्ञाताऐसा नाम भेद है, वस्तु मंद नहीं है। जीव जायक है ओर जीव य रूप है-एसा जो वचन भेद उसमे में मंद को प्राप्त होना है। भावार्थवचन का भंद है । वस्तु का भेद नहीं है ॥६॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ समयसार कलश टोका संबंधा-कोउ मानवान कहे जान तो हमारो रूप, अंय पदाव्य सो हमारो रूप नाहीं है। एक ने प्रमाण ऐमे दूजी प्रब कहूं जैम, सरस्वती प्रक्सर प्ररथ एक ठांही है। तसे ज्ञाता मेगे माम मान चेमना बराम, मेय रूप सति अनंत मुझ पांही हैं। ता कारन वचन के मेद मेड को कोउ, माता मान ज्ञेय को विलास ससा मांही है। चौपाई-स्व-पर प्रकाशक शति हमागे, तात वचन मेद भ्रम भागे। मेय दशा दुविधा परकाशी, निजरूपा परस्पा भासी। दोहा--निजस्वरूप प्रातम कति, पर रूप पर वस्त। जिगह लखि लोनो पेच यह, तिन्हें लम्वि लियो समस्त ॥६॥ पृथ्वी कचिल्लसति मेचकं कचिन्मेचकामेचकं कचित्पुनरमेचकं सहजमेव तत्त्वं मम । तथापि न विमोहयत्यमलमेधसां तन्मनः परस्परसुसंहृतप्रकटशक्तिचक्रं स्फुरत् ॥१०॥ इस शास्त्र का नाम नाटक समयसार है इसलिए जिस प्रकार नाटक में एक भाव अनेक रूप में दिखाया जाता है उमी प्रकार एक जीवद्रव्य अनेक भावों द्वारा साधा जाता है मेरा ज्ञानमात्र जीवपदार्थ कमसयांग में रागादि विभावरूप परिणति से देखने पर अशद्ध है-सा आस्वाद आता है पर ऐसा एकान्त नहीं है। ऐसा भी है कि वह एक वस्तु मात्र रूप देखने पर शुद्ध है-पर ऐसा भी एकान्त नहीं है। अशुद्ध-परिणतिरूप तथा वस्तुमात्ररूप एक ही बार में देखने पर वह अशुद्ध भी है शुद्ध भी है-इस प्रकार दोनों विकल्प घटित होते हैं। स्वभाव में सा ही है तो भी सम्यग्दष्टि जीवों की तत्वज्ञानरूप जो बुद्धि है वह संशयरूप नहीं होती। भावार्थ-जीव का स्वरूप शुद्ध भी है, अशद भी है। शद्ध-अशट भी है-ऐसा कहने पर अवधारण करने में भ्रम को स्थान है तथापि जो स्याहादरूप वस्तु का अवधारण करते है उनके लिए सुगम है । प्रम उत्पन्न Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्य-माधक अधिकार २४३ नहीं होना है। जीव वस्तु तो परस्पर मिली हुई स्वानुभवगोचर जीव की अनेक शक्तियों का समूह है और सर्वकाल उद्योतमान है ॥१०॥ संबंया-करम अवस्था में प्रशुखसो विलोकियत, करम कलंक सों रहित शुद्ध अंग है। उभे नय प्रमाण समकाल शुद्धाशुद्ध रूप, ऐसो पर्यायधारी जीव नानारंग है। एक हो मर्म में विधारूप पं तथापि याकी, अवण्डित चेतना शकति सरवंग है। यहै. म्याद्वार याको मेद स्याठायी जाने, मूरख न माने जाको हियो हग-भंग ॥१०॥ पृथ्वी इतोगतमनेकतां वदितः सदाप्येकतामितः क्षणविभंगुरं ध्रुवमितः सदंबोदयात् । इत परमविस्तृतं धृतमितः प्रदेश निज रहो सहजमात्मनस्तविदमद्भुतं भवम् ॥११॥ अहो ! जीववम्न की अनेकान्त बम्प मी आत्मा के गणस्वरूप लक्ष्मी अचम्भा उपजाती है। वह जीव वस्नु पर्याय दृष्टि मे देखने पर अनेकतारूप भाव को प्राप्त हुई है, द्रव्य रूप में देखने पर सदा ही एक है, प्रेमी प्रतीनि को उत्पन्न करती है। 'समय-समय प्रति अखण्ड धाराप्रवाह रूप परिणमती है मी दृष्टि में देखने पर वह विनगती है, उपजती है। 'सर्वकाल एक रूप है' मी दृष्टि से देखने पर मर्वकाल अविनश्वर है ऐसा विचार करने पर गाग्वत है। वस्तु को प्रमाण दृष्टि से देखने पर प्रदेशों में लोक प्रमाण है, जान में श्रेय प्रमाण है। निज प्रमाण की दृष्टि से देखने पर अपने प्रदेशमात्र प्रमाण है ॥११॥ संबंया-निहरख दृष्टि रोजे तब एक ल्प, गुरण परयाय भेद भावसों बहुत है। असंख्य परपेश संजुगत सत्ता प्रमाण, मान की प्रभा सो लोकालोकमानत है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ समयमार कलश टीका परजे तरंगनि के अंग छिन भंगुर हैं, चेतना सकति सों प्रखंडिन प्रचत है। मो है जीव जगत विनायक जगतसार, जाको मौज महिमा अपार अद्भुत है ॥११॥ पृथ्वी कषायकलिरेकतः स्वलति शांतिरस्त्येकतो भवोपहतिरेकतः स्पृशति मुक्तिरप्येकतः । जगत्त्रितयमेकतः स्फुरति चिच्चकाम्त्येकतः स्वभावमहिमा-मनो विजयतेऽद्भुतादद्भुतः ॥१२॥ जीवद्रव्य की स्वरूप की महिमा सबमे उत्कृष्ट है। वह आश्चर्य में आरचयंका है। विभावपरिणाम गक्ति कप विचारने पर मोह-गग-द्वेष का उपद्रव होकर वह स्वरूप मे भ्रष्ट हो परिणमता है मा प्रगट ही है। जीव नगद ग्वाप का विचार करने पर वह चेतना मात्र स्वरूप है, गगादि अगद्धपना विद्यमान ही नहीं है। अनादिकमंमयोग रूप परिणमा है इम कारण मंमार चतुर्गनि में अनेक बार परिभ्रमण है । जीव के गद्ध स्वरूप का विचार करने पर जीववस्तु सर्वकाल मुक्त है ऐमा अनुभव में आता है । 'जीव का स्वभाव स्व-पर जायक है ऐसा विचार करने पर समस्त जेय वस्तु की अनोत अनागत वर्तमान कालगोचर पर्याय एक समय मात्र काल में ज्ञान में प्रतिबिम्बम्प है। वस्तू के स्वम्प मनामात्र का विचार करने पर शुद्ध ज्ञानमात्र शोभित होता है। भावार्थ-व्यवहारमात्र में ज्ञान ममम्त जय को जानता है, निश्चय में नहीं जानता है अपना स्वम्पमात्र है क्योंकि सेय के साथ व्याप्य-व्यापक रूप नहीं है ॥१२॥ सबैया-विभाव शकति परपति मों विकल दीसे, शुरुचेतना विचार ते महज संत है। करम संयोग सों कहावे गति को निवासी, निहवं स्वरूप सदा मुकत महंत है। नायक स्वभाव घरं लोकालोक परकासो, सत्ता परमारण सत्ता परकाशवन्त है। Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साध्य-साधक अधिकार २.४५ मो? जीव जानन जहान कौतुक महान, जाको कीरति कहाँ न अनादि अनन्त है ॥१२॥ मालिनी जयति सहजतेजः पुञ्जमज्जत्रिलोकी स्खलदखिलविकल्पोऽप्येक एव स्वरूपः । स्वरसविसरपूच्छिन्नतत्वोपलंमः, प्रसभनियमिताचिश्चिच्चमत्कार एषः ॥१३॥ अनुभव प्रत्यक्ष ज्ञानमात्र जीववस्तु सर्वकाल में जयवन्न प्रवर्ती। भावार्थ-वह माक्षात् उपादेय है। द्रव्य के स्वरूप भूत केवलज्ञान में जेय रूप में मग्न समस्त जेयवस्तु के कारण उम जीववस्तु में अनेक प्रकार पर्यायभेद उत्पन्न हुआ है तो भी वह एक ज्ञानमात्र जीयवस्तु है। चेतनारवरूप की अनन्त शक्ति में वह ममग्र है और अनन्त काल तक गाश्वत रहने वाले वस्तुम्वरूप की उमे प्राप्ति हुई है और ज्ञानावरणकर्म का विनाश हीने पर उसका नियमित केवलज्ञान बरूप प्रगट हुआ है। भावार्थ-परमात्मा माक्षात् निरावरण है ।।१३।।। मक्या-पंच परकार मानावरण को नाश करि, प्रगटो प्रसिद्ध जग माहि जगमगी है। जायक प्रभा में नाना नेय को प्रवस्था धरि, अनेक भई में एकता के रस पगो है। याही भांति रहेगी धनन्तकाल परयत, अनन्त शकति फेरि अनंत सों लगी है। नगोह देवल में केवल स्वाप शुद्ध, ऐमीज्ञानज्योति की सिखा ममाधि जगी है ॥१३॥ मालिनी अविचलितचिदात्मन्यात्मनात्मानमात्मन्यनवरतनिमग्नं धारयद्ध्वस्तमोहम् । उदितममृतचन्द्रज्योतिरेतत्समन्ताजज्बलतु विमलपूर्ण निःसपनस्वभावम् ॥१४॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ ममयसार कलश टीका प्रत्यक्ष रूप में विद्यमान 'अमृतचन्द्रज्योति' प्रगट हुई। 'अमनचन्द्र. ज्योति पद के दो अर्थ हैं। प्रथम अर्थ- मोक्ष रूप चन्द्रमा का प्रकाण प्रगट हमा अर्थात् 'शुद्ध जीवस्वरूप मोक्षमार्ग' ऐसे अर्ष का प्रकाश हुआ। दूसग अर्ष-अमृतचंद्र नाम है टीका के कर्ता आचार्य का सो उनकी बुद्धि का प्रकाश रूप शास्त्र सम्पूर्ण हुआ। शास्त्र को आशीर्वाद कहते हैं . नहीं है कोई त्रु जिसका ऐसा अबाधिन स्वरूप सर्वकाल सर्वप्रकार परिपूर्णप्रतापसंयुक्त प्रकाशमान होओ। यह गास्त्र पूर्वा पर विरोधरूप मल से रहित है, अर्थ मे गम्भीर है तथा भ्रान्ति को इसने मूल मे उखाड़ दिया है। भावार्थ इस गास्त्र में शुद्ध जीव का स्वरूप निःसन्देहरूप में कहा है। ज्ञानमात्र गडजीव के द्वारा शुद्धजीव में शुद्ध जीव को निरन्तर अनुभवगोचर करते हुए आत्मा का सर्वकाल एकरूप चेतना ही स्वरूप है। नाटक ममयमार में अमृतचन्द्र मूरि द्वारा कहा हुआ साध्य-माधक भाव सम्पूर्ण हुआ । नाटक ममयमार गास्त्रपूर्ण हुआ । यह आशीर्वाद वचन है ॥१४॥ संबंधा-प्रक्षर प्ररथ में मगन रहे सदा काल, महामुखोवा सी मेवा कामगवि को। प्रमलप्रवाधित प्रलख गुण गावना है, पावना परम शुरु भावना है भषि की॥ मिष्यात तिमिर अपहारा वर्षमान पारा, जमी उभं जामलों किरण दोपे रवि की। ऐसी है अमृतचन्द्र कला विषारूप परे, अनुभव बशा पंप टोका बुटिकवि की। दोहा-माम साध्य सापक कहो, द्वार द्वादशम ठोक । समयसार नाटक सकल, पूरण भयो सटोक ॥१४॥ शार्दूलविक्रीड़ित पस्माद्दतममूत्पुरा स्वपरयोर्भूतं यतोऽत्रान्तरं रागषपरिग्रहे सति यतो नातं मियाकारकः। भुनाना व यतोऽनुभूतिरखिलं बिना क्रियायाः फलं तविज्ञानघनोधमग्नमधुना किरिया किंचित्तिल ॥१५॥ निश्चय से जिसका अवगुण कहेंगे ऐसा जो कुछ एक पर्यायार्षिक नय Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साभ्य-साधक अधिकार से मिथ्यादृष्टि जोब के अनादिकाल से लेकर नाना प्रकार की भोगसामग्री को भोगते हुए मोह-राग-द्वेषरूप अशुद्ध परिणति के कारण जो कर्म का बन्ध अनादिकाल से होता था सो सम्यक्त्व को उत्पत्ति से लेकर शर जीवस्वरूप के अनुभव में समाता हुआ मिट गया सो मिटने पर कुछ है ही नहीं, जो था सो रहा। उस क्रिया के फल के अवगुण कहते हैं- उस क्रिया के फल के कारण ही 'यह आत्मस्वरूप-यह परस्वरूप' ऐसा अनादिकाल से लेकर द्विविधापन हुआ। भावा-मोह-राग-द्वेष जीव को स्वचंतनापरिणति है ऐसा माना। और उस क्रियाफल के कारण शुद्ध जीववस्तु के स्वरूप में अन्तराय हमा। भावार्थ जीव का स्वरूप तो अनन्त चतुष्टयरूप है पर उस क्रिया फल के कारण जीव ने अनादि से लेकर अनन्त काल गया, अपने स्वरूप को नहीं प्राप्त किया व चतुर्गति संसार का दुःख प्राप्त किया। उस क्रिया के फल से अशुद्धपरिणतिरूप परिणाम हुआ और एसा होने पर 'जीब रागादिपरिणामों का कर्ता है और भोक्ता है' इत्यादि अनेक विकल्प उत्पन्न हुए। और उस क्रिया के फल के कारण जीव ने आठ कर्मों के उदय का स्वाद भोगा। भावार्थ-इस प्रकार है कि आठ ही कर्मों के उदय से जीव अत्यन्त दुःखी हैं सो भी क्रिया के फल के कारण ही है ॥१५॥ बोहा-प्रबकविकुछ पूरबशा, कहे माप सों प्राप। सहन हवं मन में बरे, करे न पश्चात्ताप ॥ संबंया-जो मैं पापा छाडिदोनो पररूप गहि लीनो, कोनोनबसेरो तहां जहां मेरो पल है। भोगनि को भोगी करम को करता भयो, हिरवं हमारे राग देष मोह मल है। ऐसी विपरीत चाल भई जो प्रतीत काल, सो तो मेरे क्रिया की ममताही को फल है। मानष्टि भासी भयो क्रिया सों उदासीबह, मियामोह निद्रा में सुपन को सो फल है ॥१५॥ . उपजाति स्वशक्तिसंसूचितवस्तुतत्वाल्याकृतेयं समयस्य शम्नः । स्वरूपगुप्तस्य न किंचिस्ति, कर्तव्यमेवामृतपणारेः ॥१६॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 समयसार कलम टोका प्रन्थकर्ता का नाम अमृनचन्द्रमूरि है। यह नाटक ममयसार उनका कर्तव्य नहीं है। भावार्थ --इम प्रकार है कि नाटक ममयमार ग्रन्थ की टीका के कर्ता अमनचन्द्र नामक आचार्य प्रगट है तथापि व महान है, बड़े है, संसार में विरक्त हैं इसलिए ग्रन्थ करने का अभिमान नहीं करते है। द्वादशांगरुप मूत्र अनादि निधन है, किसी ने किया नहीं है सा जान कर अमृतचन्द्रमूरि ने अपने को ग्रंथ का कतां नहीं माना है, कारण कि शद्ध जीव. स्वरूप की नाटक समसार नामक ग्रन्थम्प व्याच्या ऐसी वचनात्मक सन्दराशि में की गई है जिसमें स्वयं अथं की मूचित करने की क्ति है और जिसके द्वारा जीवादि पदार्थों का द्रव्य-गण-पयांयरूप, उत्पाद व्यय ध्रीव्य रूप अथवा हेय उपादेय रूप निश्चय ही प्रकाशमान हुआ है // 16 // दोहा-अमृतचन्द्र मुनिराजकृत, पुरण भयो गरंथ / समयसार नाटक प्रगट, पंचम गति को पंथ // 16 // / / इतिश्री अमतचंद्र कृत समयसार की राजमलनीय टीका समाप्त / /